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ततः स पोमशन्नार्यान्निः सह प्रवबाज. नत्साहसं दृष्ट्वानेक पावजन्, कुनधरोऽपि श्रद्धाधर्म प्रपन्नः, श्यामवस्तु न प्राबुध्यत. कुअघरो मत्रीसफलताये धर्म प्रतिपिपादयिषुः श्यामवं गुरुपाचे पुनःपुनर्नयति, धर्म श्रावयति ॥ २१ ॥ क्रमात् कियन्नियमप्रतिपनि चक्रे सः, सामायिकमेकं यत्नात् करोति, सामाथिकावसरे व क्रमाकियादिनमादपरः कुनधरण शिवितोऽयं मचिङ्गीनि दूयते हृदि ॥ २८ ॥ तद् ज्ञात्वा तेनोपङ्कितः क्रमान्मृतो दिव्यत्यढ़िः मुगे जई, नवं नांवा शिवं गमी ॥२॥ कुनधरम्तु शुखधर्मपरः शक्रमामानिको नृत्वा विदेहेबु सेत्स्यनीति ॥३०॥
पची तणे पानानी माळ स्वीको मदिन दीका बीधी; वळी ननु माम जाईन भ्यां अनेक मनुष्योग । दीक्षा बीधी, कुनधरे पण श्रावक धर्म अंगीकार कर्यो; परंतु श्यामनने बांध लाग्यो नहीं: नेयी कुनबर पोतानी पित्राइ सफल करवा माट झ्यामनने धर्म पमावाने अर्थ वारंवार गुरु पाये जाय , नया धर्म मंचलावे ?
॥२७॥ अनुक्रम केटनांक नियमो म्बीकाग्वानुं नणे कयु, जननायी सामायिक कर से पनी अनुक्रम मामायिक मयये || ने विकथा आदिक प्रमादमा पत्रा अाग्यो, न्यार कुलधर नेने (नम नहीं करवा माटे) शिग्वामा अापी पग्नु आ माग त्रिी जुए के एम विचारी मनमा लावा झाग्या ॥ २० ॥ ने जाण ने अधेर नन नपेक्षा करी: अनुक्रमे मृत्यु | | पामीन ने बय ऋद्धिवाला देक्योकमां देवरूप उत्पन्न थयो; च्व समीन नं माझ नशे ॥ २५ ॥ कुवधग्ना शुद्ध धर्ममा नपर ययो, अने कटे शक्रमामानिक देव थने महाविदहकत्रमा मोक जश ॥ ३० ॥
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श्री उपदेशरत्नाकर