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________________ एवं गुरुवोऽपि केचिधर्माद्यहिःप्लवमानमनसोऽपि सागारिकादिसमहू तत्तादृक्रियाकझापादिप्रकटनपरा विविधाक्षेपिण्यादिप्रकारधर्मकथालिः ॥ ११ ॥ स्वस्मिन्नसंनमपि दर्शयति पुरःस्फुरंतमिव संवेगवैराग्यादिरसं, रंजयंति च सयजनान; रंजिताश्च से नानाविधाहारवस्त्रपुस्तकादिन्निपचरंति तानिति ॥ १२ ॥ तमुक्तं—पदइ नमो वेरगं । निविजिज्जा बहुओ जणो जण ॥ पदिऊण तं तह सहो । जन्नण जवणं समोअर ॥ १३ ॥ अंगारमईकाचार्यश्चात्र निदर्शनं : नया ये च नवनिजाजीविकाये श्राधादीन दातृन स्तुत्वा तदानानि गृहंति ॥ १४ ॥ 00000000००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० श्री उपदेशरत्नाकर ___पर्वीन कंप्याक गुरुयो पा धर्मयी जाके बाद्य मनवाला होय , नो पण गृहम्मी आदिकानी समक | नवी रीतनां क्रिया का प्राविकांने प्रगट करीने विविध प्रकारनी रमुजी धर्मकया आदिकोथी ।। ७१ ॥ पाता-18 मां नहीं गया पाण संवेग नया बैंगम्य आदिक रसने जाणे अगामी प्रगटी निकळता होय नही नेम देवा में, नया मनाजनीने खुशी खुशी करी दे छे; तया एवी गीत खुश थ्यन्ना ते सजाजना विविध प्रकारना आहार बम्व | तया पुस्तक आदिका करीने नेओनी चक्ति कर उ ।। 99 ।। कहा के-नट वैराग्य नणं , के जेथी याणा | | आको मवेग पाम जे; नवी गीत श्रावक पाग ( कुगुरुश्री पामेथी) वैगम्य सांजळीने संवेग माम छ; अन ने जळयी। | अग्नि अायावा सरम्य थाय ॥७॥ अही अंगार महक आचार्यने दृष्टानरूपे जाणका ; बळी जेो नारनी पेठे पानानी | आजीविका माटे, देनारा गला श्रावक आदिकोनी म्नुनि करीन तेमनी पामेथी दान ग्रहण करे छे ।। १४ ।।
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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