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________________ स्पष्टं ॥ धर्म ब्रुवे इत्युक्तं प्राक्, अथ धर्मस्येवादौ ग्रहणविधिमुपत्रकणाप्रदान-1 विधि चानिधित्सुः फनप्रधानाः पारंजाः प्रेकावतां नवंति इति फलाविष्करणपूर्वकं तहिषयमुद्यमोपदेशमाह ॥ ३ ॥ जयसिरिवंनिअसुहने । अणिठहरणे तिवग्गसारंमि ॥ हरकोअहिअरथं । सम्म धर्ममि राजभह ॥ १ ॥ व्याख्यान-जय सिरित्ति, जयः सर्वोत्कर्षः समग्रवाद्यांतरंगहिषज्जयेन श्रीलर। तचक्रवार्तप्रभृतीनामिव ॥ १ ॥ श्री उपदेशरत्नाकर उपरना श्लोकनो अर्थ स्पष्ट के." हु धर्म कहुं ७ एम पेशांन कहयुं ; हवे आदिमां धर्मनेन || ३ ग्रहण करवानी विधिने, तया उपलकणयी धर्मर्नु दान देवानी विधिने कहवानी इच्छबाळा ग्रंयकार, विधा नाना पारंजो फसमधान होय में एवा हेतुयी फनने प्रगट करवा पूर्वक ने धर्मना विषयाळो उद्यम संबंधि उप। देश कहे ने ॥ ॥ ज्य, लक्ष्मी नया वांजित मुरखने देनारा, अनिष्टने हरनारा नया वणे वर्गोमां सारजुन अवा सम्यग् | धर्मने विष प्रा लोक अने परलोकना हितने अर्थ नमो उधम करो ॥ १॥ व्याख्या-जय एटले सर्व प्रकारे उत्कर्ष, अन ने श्री जरत चक्रपति आदिकांनी फेठे बहाना अने : अंतरगना सपळा रीओने जीनवाथी धाय . ॥१॥
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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