SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ०६ 0000000००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० ॥ प्रमुखवचनाच्च तज्जातीया अपरऽपि पतिणो दृष्टांतीकार्याः, यथासन्नवमितिः एषु चाष्टपु नंगेषु नियाविकपकाः सर्वेऽप्ययोग्या एव, क्रियासहितपक्कास्तु योग्या: ॥ ५५ ॥ परं तत्राऽप्युपदेशविकलाः म्वतारकत्वेऽपि न पगंस्तारयितुं समर्याः: अशुखोपदेशकास्तु स्वपगंश्च नवाब्धी निमजयंतीति शुद्धोपदशक्रियायुक्तपकः पिकदृष्टांतसूचितः स्वीकागईः ॥ ५५ ॥ त्रिकयांगपताश्च कीरटुटांतन प्रकटितः सर्वोत्तम एवेनि;---बगाष्टकस्पष्टनिदर्शनरिति । श्रीमदगुरु नष्प्रविधान विनावयन् ।। सम्यक्क्रियामारगुणान् परीय नान। नजेन नाबारिजयश्रिये बुधः ॥४॥ ॥इति श्रीमुनिसुंदरमूरिविरचते श्रीनपदेशरत्नाकरे चतुर्दशस्तरंगः ॥ अही प्रमुख शाइयों ने जानिवाला कंजा पकाने पाण मान्यता पूर्वक दृष्टांतम्प करवा हवे ते आहे जांगा आपां क्रिया दिनाना सर्व पक्को अयाम्पन छः अने प्रिया सहित एको यान्य छ । ॥ ५ ॥वटी त्या पण जपदश क्निाना ना जो के पोनान नार . परंतु पनि नारवाने समर्थ नयी: बळी अहद उपदेश देनाराओ तो पाताने अन परने पाला संसार ममुद्रमा मममाटे कायनना हानथी मृचन कालो एवा शुनपदश नश शुरु क्रियावाळी पल स्वीकारवा यायक ने ।। ५ ।। वळं। पापटना इतिथी मृचना त्रिकयागी एक सवयी उत्तमज के; एवं रीनं आ पकिन पत्र दानोव करीन पान प्रकारना गुरुओन जागीन तामांयी उत्तम क्रिया तया नुत्तम गुणावालानी परका करने तमन, भाव शत्रुओन जीतानी ब्रहमी मा पनिने जनवा ।। ५३ ॥ ॥ एत्री रीत श्री मुनिसुंदर मूरिजीए ग्नेया श्री उपदशरत्नाकरमां चादमा सरंग समाप्त थयो ।। श्री नपदेशरत्नाकर.
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy