SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ || 96 11 सव्वन्नुप्पामन्ना । दोसा हु न संति जिएमए केवि ॥ जं अणुवत्तक । अपतमासान वहति ॥ ४ ॥ संप्रति हंसदृष्टांतनावनाः यथा हंसः कीरमुदकमिश्रिनमपि उदकमपहाय कीरमा पिवति, तथा शिष्योऽपि यो गुरोरनुपयोगसंजवान दोपान् अवधूय गुणानेव केवलानादत्ते, स हंससमानः ॥ ५० ॥ स चैकांनेन योग्यः, ननु हंसः करमुदक मिश्रितमपि कथं विभक्ती करोति, येन क़ौरमेव केवल मापयति, ननूदकमिति ॥ ५१ ॥ उच्यते, जिह्वाया अम्नत्वेन कूर्चकीनूय पृथग्न बनात्, नक्तंच---प्रबत्तणेण जीहाए । कृचिया दोइ खीरमुदगं ॥ हंसो मुत्तण जनं विय पयं तह सुसीमो ॥ ५२ ॥ सर्व मनु कहेला एवा जिनमतनी अंदर कोई परा दोषो नयी; एत्री रीतना सर्व मनुना मतम अनुपयोग ने कुपात्रने श्रीने जाणं अर्थात कुपात्र मनुष्य नेम कहे ॥ ४५ ॥ वे हंसना दृष्टांत जावना कहे ; जेम हंस पासे दूध ने जल मिश्रित करीने मूक्यां होय, परंतु तेमांची जळने नजीने दूध पीये, ते शिष्य पण के जं, गुरुना अनुपयोगथी उत्पन्न थयेला दोपोनोमीने केवळ गुणोनेज ग्रहण करें बे, ते हंस भरखो ने ।। ० ।। अने ते एकति योग्य : अहीं शंका करे के जलशी मिश्रित या दूधने पण हंस केम जूनुं करी शके ? के जेयी ते केवळ दूध पीये जे ने पाणी पीनो नयी ! ॥ ५१ ।। ते मारे कहे जे के तेनी जीम खाश होवाथी ने कुचो पन जुदं पके के, नेयी:-क के जीनी खटाइय जळमां रहे दूध पण कृचारूप याय : अने तेथे हम जल जामीने दूध पीयेके सुशिष्य पण ते हंस सरवो होय ॥ ५२ ॥ श्री उपदेशरत्नाकर.
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy