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________________ ॥३२॥ ततो दर्शितस्तया स ात्रः दृष्टेऽपि तस्मिन्नाह, एष तादृशः प्रतिनाति, परमेतानि तदस्थानि ॥ ४५ ॥ ततः सा खिन्ना तमऽत्यजत् इति, एवंविधस्य मूढस्य सुगुरूपदेशोऽपि न कस्मैचिकक्षाय ॥ ४६ ॥ तमुक्त-नदितौ चंद्रादित्यो । प्रज्वलिता दीपकोटिरममापि ॥ नोपकरोति ययांधे । तयोपदेशस्तमोंधानां ॥ ४ ॥ पूर्व व्युग्राहितस्तु वस्त्ववस्तु परीक्षाङ्गमाऽपि तादृग्व्युग्राहणावशापरीत्यान्नि | निविष्टवुद्धिः गोपालकवत्. तथाहि ॥ १ ॥ श्री उपदशरत्नाकर. पड़ी तेणीए ने निशाळीभान देखाड्या, तेने जोया उतां पण ते कहवा अान्यों के. ने नना जेवा देवाय | | जे. परंतु आ रयां तेणीना हामकां ॥ ४५ ॥ पी तेणीए खेद पामीन नेने नजी दीधो; एवी गीतना मूढने मुगुरुना उपझा पण कं फलदायक थती नयी ।। ६ ।। कधु छ के--चंद्र अने मूर्य नग्या हाय नेम निर्मन एका क्रोमो दी बह प्रगट कर्या होय, पग्न न जेम अंध मनुप्यने उपकार करना नशी, नेम मोहार मनुष्यने नपरेश पाण उपकार करने नया ।। ४॥ प्रथमयीन जमानो मागम, जाके न बस्नु अयवा अवस्नुनी परीक्षा करवामां समर्थ हाय, नोपण नेत्री रीतना जमावायी गोवाटनी ऐसे विन कहानन्द युक्त दिवाळी याय में, ने कहे ॥ ४ ।।
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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