SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजापि पुरे चातुर्विद्यान् मेलयित्वा श्रावयिला च वणिगुक्तमादिष्टा वनकुट्टका, देवाधिदेवतां कुतेति ॥ ६५ ॥ वासने शितं ब्राह्मणैर्देवाधिदेवो ब्रह्मा नस्य प्रतिमां कुरुत वाहितः कुबागे न तु वहति ॥ १० ॥ ग्रन्यैराणि विष्णुर्देवाधिदेवः, तथापि नवदति, एवं स्कंदरादिदेवजनादि ॥ ११ ॥ इत मिले जोजनपाके प्रजावतीराज्या प्रहिता वासी नृपस्याकारणाय सा तु सुखितास्नि. अम्माकं पुनरीहशः समयो वर्त्तत इत्यनाणि दास्या मुखेन राज्ञीं प्रति ॥ १२ ॥ राजा च नगरमयी चारे विद्यामा पारंगामी पंकिताने एका करीन तथा तेने तथा व्यापारीनुं कहें संळाचीने कवी आगओने हुकम कर्यो के आमयी देवाधिदेवी मूर्ति बनावा ? ।। ६२ ।। शुभ मुहूर्त्तादिकन क्रिया कय बाद बाणो को के. देवाचे. मांट तर्न प्रतिमा करो यारे पर कुहाम जगाच्या परंतु कुहासे चाय नहीं || 90 ॥ त्या बीजा कयूं के देवाधिदेवता विष्णु के परंतु कुहासे चाहों नहीं, एवं कार्तिकेय. महादेव इत्यादि देवानां नामों सीधां ॥ ७१ ॥ एटलामां रसोई तैयार पत्रार्थी प्रजावती राणीए राजाने बोलावा मां दासीनं मोकलीः ल्यांग गजाए मांग तो आ ने दासीन महादेवी राणीने कवेरा के ने गणं। तो अत्यारं मुबी समय वने ॥ ७२ ॥ श्री उपदेश रत्नाकर.
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy