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नार्योचे, मम कोऽधिकारः, गृहागतोऽगदषस्वरूपं स्वमातुः सा कर्तनकर्मकृत् प्रांवाच, भ्यतणं वा स्थूवं वास्तु, स्थविरस्य वस्त्रं जविष्यति ॥ २५ ॥ स्नुषाऽनाषिष्ट को मेधिकारो अवाणे. श्वश्रूः-गतः स्थविरस्य वदणवत्रसमयः स्नुषा–सर्वचिंतापरा श्वश्रूः. नाहं वेनि गृहव्यापारं ॥ २६ ॥ श्वश्रूः-परिहितानि बहुकावं स्थविरण श्लदाणानि, तं वृत्तांत स्थविरं, प्रतिजगाद स्थविरा, तिरक्षाधिकारी सोऽप्याव्यत् ॥२७॥ नाहमेकमपि तिखमनिह स्थविरा-नुषा मनमलाष्यत म्यविर:-मिथ्येवादायि त्वया ममानं न रविष्याम्यतस्तिद्वान् इत्यादि ॥२०॥
वीए का के. (लुण माट) मागं शू अधिकार ? पनी घर आनि तणे पोतानी मान ने बळदा- नांत || । कयु : (ने समय) ने क कानवानें काम करती हनी, अने ( ने पण बहरी होदायी कहेवा आगी के, मुतर जो कीj थाय |
के जाएं याय, मोसार्नु बन्न थशे ।। २५॥ पुत्रनी बहुए कह्यु के झुण नारखवामा मागे अधिकार छ: सामु वानी, हरे न मोमाने कीणा मुतरनां कपमा पहग्वानी वग्वन मयोः बहु बान्नी के सर्व कामनी सामुन फिकर होय. हुं घना || | काममां कां न जाण ॥२६।। सामुए कहा, मोसाए तो घणो बग्वन आधे कपमा पहेयाः पड़ी ते वृत्तांत कोसीए मासाने | | काय हवं ते मासो तलना रकणना उपरी हता. तेथी न पण कहवा साम्यो के ॥ २७ ॥ हूं तो नानी एक पण दाणो बातो नयी; मोसी बोली के, में नो बहुन एम का; मोसा बोल्या के. ने भागपर 1 जून कलंक काज्यु , हवथी हुँ नय साचवीश नहीं; इत्यादि ॥२७॥
श्री उपदशरत्नाकर