SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ततश्च श्रीकृष्णऽपि प्रतिबोधदायिनि उत्तानेऽप्यहिके हितार्थ यया पांमुपुत्रषु शिष्टः स जुर्योधननृपतिर्नाऽबुध्यत हितं, प्रत्युत श्रीकृष्णेऽपि बंधनाधचिनयत, एवं शासने | टोऽपीति ॥ २६ ॥ | मूढो मोहोपहतचित्तवृत्तिः, स हि नाऽवधारयति ययावस्थितं वस्तुतत्त्वं, नापि पराक्त | श्रद्धत्ते गंगाख्यपाउकवत् ॥२७॥ । तद्यया अस्ति त्राटदेश भृगुपुरे गंगाग्व्यः पावकः, स बहुशिप्यपाउनोपार्जिनधनो वृद्धत्वे | | परिणिन्ये ॥२०॥ माटे एवी ने पांमको प्रन्य पवाळी पत्रा ने दुर्योधन राजा, प्रनिवाघ आफ्नार नया आ रोक मंबंधि हितच्छु एवा श्रीकृष्ण समजाव्या उनां पण पोनानु हित समन्या नहीं, अने नुवटी श्रीकाशन पण || जम बांधवानो विचार नेणे को. एवी गत शासननी अंदर ईप गवनारने पण जाणवी ॥२६॥ मुह पटो मोहया हणायनी में मनानि जनी पा. एवी रीतना न मुढ भागस ग्वरेवर ययार्य | मौन बस्नुतत्वने जाणी शकतो नयी. नेम गंग नामना पाउकनी पत्रे अन्ये कडेवा बस्न नवपर पण श्रद्धा है| कन्नी नयी ॥७॥ ने गंग पावकनुं वृत्तान नीच मुजब :-नाट देशमा भृगुपुर नामना नगरमा एक गंग नामना पाठक 18 हना, ते पणा शिप्योने जणानीने नया नया धन उपार्जन करीन वृद्धपणामां पगायो ॥ २० ॥ श्री नुपदशग्नाकर
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy