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अपरे विनयं याचा प्रतिपद्यते न च समाचरंति, ततो वाचा साराः, क्रिपया त्वसारा ति युगप्रधानश्रीकामकसूरिशिप्यवत् युगप्र पानोपघानिकुशिष्यवच्च । तयाहि॥ २४ ॥ कश्चिद्गुयुगप्रधान उद्यतविहार्यपि क्षीणजंघावा एकत्र स्याने तप्यो। तत्र श्राांधारोऽयमित्यह निग्धमधुराहारादि तस्मै सदाढदे ॥ २५ ॥ तनिक प्यास्तु गुरुकर्मत्वात्कदापि दध्युः कियच्चिरमयमजंगमः पाट्य इति ततस्तेनाऽनशान जिग्राहयिषवो जक्तश्रादत्ताहाहारं तस्मै न दः ॥ २६ ॥ अंतप्रांताया
नीय विषण व तत्पुरे नुचुः, किं कुर्मों यदीदृशानामपि वोऽहन्निाद्यविवेकाः श्रा . छाः सदपि दातुमशक्ता ॥ ७ ॥
वळी केटलाक शिष्यो वचनथी नो विनयने बीकार है, परंतु ने मुजब आचरण करना नच! : मोटे | तेश्रो बचनथी नो माग्वाळा , परनु क्रियाथी मारविनाना छे; कोन। पेवे? नोके, युग प्रधान श्रीकाकमृग्निा | शिप्यनी पत्रे, नया युगाचाननी उपधात करनाग कुशियोनी पेठे। त कह रे--२५॥ कोडक युगप्रधान गुरु नाविहारी हता, छतां पण पोर्नु कौवत कीए यवायी पक स्याने रहेवा जाग्या; न्यानीथना श्रीमान जून जे' गम विचारि श्रावको नेमना माटे योग्य घृतादिक साहिन मिणान्न आदिक हमेशां देवा लाग्या ।।२५।। एक दिवस तेमना शिष्यो चार कर्मी होवायी गयो विचार करवा आग्या के, आ मियर बास बीमा अपंग गुम्ने ने आपणे केटझोक बबन पाळवा! एम विचारि गुम्ने अनशन करावधानी इच्छावाला पपा ने शिप्पोए जनिवस श्रावकाए दीधयो योग्य आहार नेमने आप्पो नहीं ।। ३६ || जेवो नेवो स्वाद बिनानी आधार नावीने | तेश्रो. गुरुने कहेवा आभ्या के, अमो शंकरीये? अविवेकी श्रावको आप सरीखाने पाा योग्य आहार आदिक होचा बा पापी शकना नयी ॥२७॥
श्री नपंदशरलाकर.
SomnatoPOOR