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धर्मश्च कथितस्तस्य गुरुणा, प्रतिपन्नश्च तेन, प्रत्नावतीदेवेन च सर्व प्रतिसंहृतं, गजात्मानं सिंहासनस्थमेव पश्यति ॥ ए॥
देवेन च ननःस्थेनाऽजाणि. सर्वमिदं त्वत्प्रतिबोधार्थ कृतं मया, धर्म तवाऽवि-|| घ्नं नवविति, अन्यत्राप्यापदि मां स्मरेरित्युक्त्वा स्वपदं प्रापेति ॥ ए३ ॥
शनि रक्तस्याऽतिशयात् सुरेण संकटपातरूपात् धर्मप्रतिबोध श्रीनदायननृपसंबंधः ॥ ४ ॥
एवं शिष्टस्य कमगसुरस्य श्री पार्श्वजिने कायोत्सर्गस्थे निरर्ग जलायुपसर्गकारिणो धरणाप्रणीततादृगधिवेपनापनादिना ॥ ५ ॥
पड़ी गुरुए नने म मजलाच्या, तेणे पण ने अंगीकार कर्या; पर न प्रजावनी देव आ सपळा || खेल पाछो मंहरी लीयो, न्यारे गजा पानाने सिंहासनपर बीज जावा लाग्या ॥ ३ ॥
पनी ने देव आकाशमां गहीन नन कहाँ के, आ मघों में नने प्रनिवाधवा माटे कयु हाँ, हवे | नन धर्ममा निर्वित्रपग थापा ? कळी फरीन पण जो तन कष्ट पर नो माझे म्भरण करजे? एम कहीन ने देव पानान म्यानक गया ।। ए |
एवी रीते रक्कन पप ने देव संकटमा पावारूप अतिशययी धर्मना प्रतिवाय देवामां श्री नदायन गजानू नदाहरण जाण ॥ u ||
एवी गीत 5षी एवा कमनामुर, के जण कानसगमा ग्ला एवा श्री पाचप्रनुपर अन्यंत नववरसावन आदिकना उपसर्ग करेझो हतो, तेन धरणद्र करेला नवा आक्रप तया जय पमामवा आदिकवर करने पनिबोध जाणवो. ॥ ५॥
श्री उपदेशरत्नाकर