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________________ श्क घटा हिधा, वासिता अवासिताश्च, वासिता अपि हिंधा शुनप्रव्यवासिता अशुनप्रव्यवासिताश्च ॥ ॥ तत्र ये कर्परागमनंदनानिशिर्षव्यैर्वासितास्ते शुन्नप्रव्यवासिताः, यः पुनः पक्षांमुत्रशुनसुरानैमादिनिर्वासितास्तेऽशुनप्रव्यवासिताः, उन्नयेऽपिपुनर्डिधाः, वास्या अवाम्याश्च ॥ ३ ॥ तत्र ये अव्यांतरसंबंधे पूर्ववासं त्यति ते वास्याः, इतरे अवाम्याः, अवासिता नाम ये कनापि प्रव्योण न वासिताः, एते पंचघटाः ॥ ४ ॥ सुहअसुदधम्मेत्ति, शुनः सम्यग् जीवदयादिमृत्रवेनोनयझोकहिता जैनो धर्मः ॥ ५ ॥ श्री जपदेशरत्नाकर. अहीं घमा व प्रकारना है, एक बागिन थयमा अन वीजा नहीं वामिन ययंत्राः वामित ययेना पण वे प्रकारना जागवा, शुज द्रव्ययी वासिन थयझा अने अशुभ द्रव्ययी वासित अयना; ॥३॥ नमां ज कपर, अगुरू, नया चंदन आदिक द्रव्योगी वामित झा , ने अशन्द्रव्यवामित कडेवाय, नया जे इंगळी, लसण, मदिरा नया नेत्र आदिकयी वामिन थपेक्षा छ, ने अशुलद्रव्ययी बासिन कत्रायः बळी नेत्री बन्ने पापा के प्रकारना , ग्वाली करी शकाय नेवा अन खाझी न करी काय तवा. ॥ ३ ॥ नमां जे वीजा द्रध्वना संबंधयी पूर्वनी वासने तन , ने खानी करी शकाय नेवा, कहवाय, अने नेयी नवटा न खाली करी शकाय नवा कहेवाय नया अवामित पटोज कोइ पण द्रव्ययी वासित थयना नयी. ए पांचे जानना घमानी ॥४॥ शुज धर्म एटो सम्पन्न नया जीवदया आदिकना मूळपणाये करीन पने लोकमां हितकारी एको जैन धर्म जागना ॥ ५॥
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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