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________________ तमुक्तं-चिंतइ जश्कजाई । न दिखशिनोवि होइ निन्नेहो ॥ एगंतवबो जइ । जणस्स जाणणीसमो सवो ॥ ३७५ ॥ तत्र पितृसमा ये यथावसरं साधूंस्तीदणमपि शिवयंति बलननृपवत, तथाहि-॥ ३७६ ॥ श्वेतांविकापुयां श्रीआषाढाचार्याः स्वाशष्यानागाढयांगान् वाहयंता निशि हच्छूझन मृता देवीतूताः, स्नंहात्स्वदेहमधिष्टाय योगान् संपूर्णीकृतवंतः॥३४॥ ततो नव्यमाचार्य स्थापयित्वा स्ववृत्तांनं निवेद्य च स्वस्थान प्राप्ताः ॥ ३८ ॥ ततस्तनिष्यास्तत्स्वरूपं दृष्ट्वा न ज्ञायते कोऽपि कीदृश इत्यव्यक्तमनवादिनो मिथो वंदनमकुर्वाणा राजगृहेमौर्यवंशोत्पन्नबझजनृपेण सुश्रावकेण साम्नाऽप्रतिबोध्यानां तेषां प्रतिबोधनोपायमपरमविजावयता चौरा इति कृत्वा धृताः ॥ ३५ ॥ ___कई छ के-जे श्रावक यनिना कार्यानी देखरेख राग्वे , तम नेनी स्वलना जोड्ने पए स्नेह रहित यतो नथी, तया एकांत वन्सन एवो श्राक्क साथ प्रत्य माना सरखों ने ।। ३७५ ॥ नेमां पण पिता समान तेोने जाणवा, के जेओ यथा अवसरे बसनद्रराजानी पत्र साधुओन आकर शिका पण आप के. ने कहे ॥३७६।। श्वेतांबिका नगरीमा श्रापादाचार्य पोताना शिप्याने आगाहा योग वहन करावता यका रात्रिए हृदयशूलनी व्याधियी मृत्यु पामीन देवरूप यया; परंतु || | स्नेहथी पोताना ते शरीरमा पेसीने नेओना ते योगो तेमणे पूरा कराव्या ।। १७७ || तया पत्री नवीन प्राचार्यने स्यापीने तया पोतानु वृत्तांत निवेदन करीने नेग्रो पाताना स्थानके गया ॥ ३० ॥ पची तमना शिष्यो तेमनु स्वरूप जोड़ने कोई पण केवो होय, ने जणात नयी' एवीरीतना अव्यक्त पाने स्थापन करना थका परस्पर बंदना न करता थका, राजगृहीमा मौर्यवंशमा उत्पन्न थगेना बालदराजा नामना नुनम श्रावक नेओने मी बचन पनियोध्या, परंतृ नेओने प्रतिबोध न माग-18 वायी ते माटे वीजा नपाय न जाणावार्य नेयोन चोरकपे पकमया ॥ २५ ॥ भी उपदेशरत्नाकर
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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