Book Title: Tulsi Shabda Kosh Part 01
Author(s): Bacchulal Avasthi
Publisher: Books and Books
Catalog link: https://jainqq.org/explore/020839/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम 8 राम राम राम तुलसी शब्द कोश राम राम राम राम राम राम राम A राम राम राम आचार्य बलराम * बच्चूलाल अवस्थी राम राम Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द कोश-भाषा विज्ञान, व्याकरण और तुलसी-साहित्य के अध्येताओं के लिए अत्यन्त उपादेय अपूर्व उपलब्धि है। सम्पूर्ण तुलसी-वाङ्मय में प्रयुक्त शब्दों और शब्दरूपों के सार्थक अभिज्ञान में समर्थ यह कोश विद्वान् कोशकार की दीर्घसाधना और अध्यवसाय को प्रमाणित करता है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और उर्दूफ़ारसी की शब्द-सम्पदा का जैसा विलक्षण एवं सार्थक प्रयोग महाकवि तुलसीदास ने किया है, और एक ही शब्द के विभिन्न रूपों के द्वारा जो अर्थभेद अपनाया है उसे यह कोश विवृत करता है । लम्बे अर्से से अनुभूत आवश्यकता की पूर्ति के रूप में यह कोश इस क्षेत्र में नव्य प्रयोग है कि इसका स्वरूप प्रायः रूपात्मक अथवा आकृतिमूलक है । किञ्चित् रूप-परिवर्तन से ध्वनित एक ही शब्द के विभिन्न अर्थों के अन्तर को जानना पाठक के लिए निः सन्देह महत्त्वपूर्ण है। मूल्य ७५०.०० (दो भाग) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश प्रथम भाग प्राचार्य बच्चलाल अवस्थी 'ज्ञान' आचार्य कुलोपाध्याय, कालिदास अकादमी उज्जैन (म०प्र०) बुक्स एन बुक्स दिल्ली-110009 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ © लेखक प्रथम संस्करण-1991 प्रकाशक : बुक्स एन' बुक्स 77, टैगोर पार्क दिल्ली-110009 मुद्रक : संगीता प्रिंटर्स मोजपुर, दिल्ली-53 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण पितामहचरण श्री बैजनाथ अवस्थी जिनकी लोरियों ने तुलसी के राम का दर्शन कराया Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपक्रम मति कीरति गति भूति मलाई । जो जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई ॥ सो जानिक्ष सतसंग प्रभाऊ । लोकहुं वेद न आन उपाऊ ।। यह सत्सङ्ग घर में भी, ईश्वर के अनुग्रह से, सुलभ रहा। मेरे पितामह, श्री बैजनाथ अवस्थी, कैथी लिपि जानते थे। वे देवनागरी लिपि का मुद्रित रूप कञ्चित् बाँच लेते थे-अर्थ अज्ञात रहे तो बाँचना भी असम्भव था। मेरे पिता बद्री प्रसाद अवस्थी कैथी से अपरिचित थे परन्तु नागरी अक्षर पहचानते थे। माता जगराता देवी इस दष्टि से निरक्षर थीं। इस घर के ग्रन्थागार में छोटेबड़े चार-छह ग्रन्थ थे-(१) रामचरितमानस जिसे 'रामायन' कहा जाता था, (२) विनयपत्रिका 'बिन' नाम से विदित थी, (३) कवितावली, (४) हनुमानबाहुक, (५) हनुमान चालीसा और (६) प्रेमरतन । स्नान करके पिता एवं पितामह हनुमान चालीसा पढ़ते थे और सुभीता निकालकर प्रतिदिन 'रामायन' का वाचन हुआ करता था। प्राय: 'बाबा' पढ़ते थे और 'बप्पा' बैठे सुना करते थे तो कभी-कभी मैं भी बैठ जाता था । विनयपत्रिका और कवितावली का गायन बाबाजी रात में करते थे तथा हनुमानबाहुक का पाठ कभी-कभार होता था। 'प्रेमरतन' ही ऐसी पुस्तिका थी जिसके रचयिता तुलसीदास न थे प्रत्युत राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द की पितामही रतन वरि' ने उसकी रचना की थीकुरुक्षेत्र में विरहिणी गोपियों से कृष्ण के पुनर्मिलन की कथा थी जिसे पढ़ते हुए बाबा अश्रुधारा बहाते हुए आनन्दलीन हो जाया करते थे। मैं पांचवें वर्ष में चल रहा था कि एक दिन अचानक मानस पाठ रुकने पर मैंने 'भ' अक्षर पर उँगली रख कहा कि यह 'म' है, पिताजी ने दोनों में अन्तर बताया और मैंने 'भ' के सहारे 'म' भी जान लिया। इस प्रकार क्रमरहित वर्णमाला के ज्ञान के साथ ही मैं 'रामायन' बाँचने लगा। हनुमानचालीसा धाराप्रवाह पढ़ने लगा। मेरे Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vi) लिए ये ही दो 'प्राइमर' पाठ्य-पुस्तकें बनीं । बाबा मुझे यदा-कदा अर्थ भी बताते थे जिससे तुलसी-साहित्य में प्रयुक्त शब्दों का अनेकत्र अर्थज्ञान हो गया। यही इस कोश की पीठिका है जो कौमार अवस्था में बनी थी और अब एक स्वरूप ले सकी। प्रायः पन्द्रह वर्ष पूर्व श्रीमान डा० भगीरथ मिश्र की व्यावसायिक प्रेरणा प्राप्त कर मैंने 'तुलसीकोश' का निर्माण किया था। मेरे हस्तलेख के रूप में यह रखा रहा । गत वर्ष हरिसिंह सेंगर के सौजन्य से श्री मधकर जी मिले और प्रकाशनार्थ ग्रन्थ की अपेक्षा व्यक्त की। वर्तमान स्थिति में इन्हीं के अनुग्रह से यह उपयोक्ताओं तक पहुंच रहा है। लेखक का प्रयास रहा है कि जितने प्रकार के शब्द एवं शब्दों के रूप तुलसीसाहित्य में आये हैं उन सबका सार्थक परिचय इस कोश द्वारा हो जाय । उदाहरणार्थ- 'कर उ' तथा 'करह' या 'करउँ' तथा किरहं' में रूप के साथ अर्थ में भी अन्तर है जिसका स्पष्ट निर्देश अपेक्षित माना गया है । इस प्रकार इसमें 'लेक्सिकन' के स्थान पर एक प्रकार से 'मार्फीम' को महत्त्व मिला है जो कोशविज्ञान के क्षेत्र में नया प्रयोग है । इसीलिए 'तुलसीकोश' नाम रखा गया है। एक और उदाहरण लिया जा सकता है-राम, राम, रामहि, रामहि में रूपान्तर के साथ अर्थान्तर पाया जाता है । 'कृपा' मूल नाम है जिससे 'कृपा' रूप बनता है और 'कृपा से' का अर्थ देता है । 'हृदय' = 'हृदय से' या 'हृदय में'। यह कोशदृष्टि अपनाने से यथापेक्ष अर्थ समझने में सुविधा होती है । क्रियापदों में विशेष द्रष्टव्य हैकरइ वह करता है। करहिं वे करते हैं। करसि तू करता है। करह तुम करते हो। करउँ मैं करता हूं। करहुं हम करते हैं। इस ‘पदकोश' के निर्माण में समस्त आचार्य-परम्परा का योग है जिसमें रह कर मैंने संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं और उनके व्याकरणों को सीखा। इनके अतिरिक्त उर्दू-भाषा से भी कुछ सहायता मिली जिसे बाल्यावस्था में पहली जबान' के रूप में जाना था। गोस्वामी जी ने उर्दू के शब्दों का सार्थक प्रयोग किया है जिसे 'कबुली' शीर्षक पर देखा जा सकता है। अनेक शब्द ऐसे हैं जो एक ही स्थान पर अनेक (सन्दिग्ध-प्राय) अर्थ देते हैं जिनका एक ही अर्थ दिया गया है। इसका कारण है कि अनावश्यक विस्तार की उपेक्षा की गयी है। जैसे-'भरनी' शब्द के अनेक अर्थों में एक ही मान्य किया गया है। सभी अर्थों की अपेक्षा हो तो 'मानस-पीयूष' आदि का अवलोकन करना चाहिए। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vii) संक्षिप्त व्युत्पत्ति देकर अर्थ का स्पष्टीकरण चाहा गया है । व्युत्पत्तिगत पूर्णता के लिए 'तुलसी निरुक्ति कोश' की प्रतीक्षा करनी चाहिए। इसी प्रकार दार्शनिक शब्दों का सम्पूर्ण अर्थवृत्त नहीं लिया गया । ईश्वर के अनुग्रह से यदि 'तुलसी - दर्शन - कोश' भी बनाया जा सका तो यत्किञ्चित् ऋणमुक्ति हो सकेगी । यों तो इस प्रकार के संकलनात्मक कार्य की भूमिका अनपेक्षित ही है तथापि कुछ आत्मनिवेदन का ब्याज तो इससे मिल ही जाता है । इस सन्दर्भ में सम्मान्य श्री त्रिलोचन शास्त्री का मुझे स्मरण सदा आता है । उन्होंने अनायास बिना किसी प्रसङ्ग के एक अर्धाली का अर्धांश पढ़ा 'जहँ सुख सफल सकल दुख नाहीं ।' शास्त्री जी ने ही अनुपपत्ति का विवरण दिया कि निषेध के साथ आने वाला 'सकल' यदि सर्व पर्याय है तो 'सब दुःखों के न होने' का आशय 'कुछ दुःखों का होना' होगा जो वाक्य का तात्पर्य नहीं है, अत: 'सकल' को 'शकल' मानकर अर्थ करना चाहिए | 'शकल' का 'खण्ड' अर्थ है, अतः जरा-सा भी दुःख नहीं है, ऐसा अभिप्राय बनता है । अवधी में शकार के लिए सकार ही चलता है, अतः कोई अनुपपत्ति नहीं है। इस ग्रन्थ के प्रकाशन की चिन्ता मैंने छोड़ दी थी परन्तु मेरे मित्र डा० हरिसिंह सेंगर को चिन्ता थी । उन्होंने 'बुक्स ऐन्ड बुक्स' के व्यवस्थापक श्री मधुकर जी से मिलकर प्रकाशन की व्यवस्था की, एतदर्थ मैं उनको अपनी शुभाशंसाओं से अभिषिक्त करता हूं । सबसे बड़ा आभार श्री मधुकर जी का है जिन्होंने व्यवसायबुद्धि से ऊपर उठकर तत्परता के साथ शीघ्र प्रकाशित किया । इस ग्रन्थ में जो अच्छाइयाँ हैं उनके यशोभागी जन्म तथा विद्या की वंशपरम्परा के पुरुष हैं और त्रुटियों का भार मुझ पर मानकर - 'छमिह सज्जन मोरि ढिठाई ।' कालिदास अकादमी उज्जैन (म०प्र०) श्रावणी २०४७ विद्वज्जनों का वशंवद बच्चूलाल अवस्थी Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'संकेत चिन्ह पूर्णरूप विवरण अ० अपभ्रंश भाषा आख्यात आ. ऐसे क्रियापद जिनमें लिङ्गभेद नहीं होता, पुरुषभेद होता है। उए. उत्र० उत्तम पुरुष एकवचन उत्तम पुरुष बहुवचन एक वचन कर्ता-कर्म एकवचन ए० कए० यह सकारान्त अथवा ओकारान्त शब्दरूपों में देखा जाता है, जिनका मूल प्रातिपदिक अकारान्त या आकारान्त होता है। कवा. कवि० कर्मवाच्य कवितावली कृष्ण गीतावली क्रियातिपत्ति कृ० क्रियाति. या से त्रियापद हैं जिनमें त्रिया की प्रति. किसी कारणवश नहीं हो पाती। ये क्रियापद भतकाल या भविष्यकाल में होते हैं। इनमें लिङ्गभेद और पुरुषभेद दोनों मिलते हैं। दे० होति तथा जनतेउँ आदि। क्रि०वि० गी. छं० क्रिया विशेषण गीतावली छन्द Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (x) जामं० दो० पा०म० पं० प्रकृ० जानकी मङ्गल दोहावली पार्वती मङ्गल पुंलिङ्ग पूर्वकालिक कृदन्त प्रथम पुरुष एकवचन प्रथम पुरुष बहुवचन प्राकृतभाषा फारसी बहुवचन बरवं रामायण प्रए० प्रब० प्रा० फ़ा० अन्य पुरुष एकवचन अन्य पुरुष बहुवचन बर० Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ करे : वि०पु० (आँकड़े = अंक गणना में आने वाले) खरे, उत्तम । 'अँकरे किये खोटेउ' - कवि० ७.१२७ अंकोर : सं० स्त्री० (सं० उत्कोच > प्रा० अक्कोड़ा ) घूस, रिश्वत, प्रलोभन । 'दै अँकोर राखे जुग रुचिर भोर' गी० ७.३.३ अँखियन : अँखियाँ + सं०ब० – आँखों के । 'अँखियनु बीच' बर, ३० अँखियाँ : अँखिया + बहु० । आँखें । 'ए अँखियाँ दोउ बेरिनि देत बुझाई' बर० ३६ अँखिया : 'आँख' का रूपा० । स्नेहपूर्ण आँख । 'सोभा सुधा पियें करि अंखिया दोनी ।' गी० २.२२.२ अंग : अंग । मा० २.३१५ अँगइ : पूक अङ्गीकार करके, शरीर पर झेल कर । 'अंगइ अनट अपमान दो० ४६६ अंगना : सं० पु० (सं० अङ्गन) आंगन, आजिर गी० १.८.३ अँगनाई : सं० [स्त्री० (सं० अङ्गनवेदी>प्रा० अंगणेई) आँगन का भूभाग । मा० ७.७६.४ आँगनैया : अँगनाई (सं० अङ्गनवेदिका > प्रा० अंगणेइया) गी० १.६.३ गरी : सं० स्त्री० (सं अङ्गिका = कञ्चुक > प्रा० अंगिया > सं० अंगडी) कवच, अङ्गत्राण । मा० २.१६१.५ अगवनिहारे : वि० पुं बहु० । अङ्गों पर झेलने वाले । सूल कुलिस असि अंगवनिहारे - मा० २.२५.४ अंगार : अंगार । मा० ६.५३ अंगारू : अंगार + कए० | अंगार । 'पाके छत जनु लाग २.१६१.५ गुरिन : अँगुलियों से । 'अंगुरिन खांडि अकास' — पर २८ अंगुरियन्ह : अंगुलियों में । रा० न० १५ अंगारू ।' मा० Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश अँगुरियां : सं० स्त्री० बहु० (सं० अङ्ग रिकाः >> प्रा० अंगुरियाओ >> अ० अंगुलियाँ । गी० १.३२.१ 1 अँगुली : अंगुलि । दो० ५२७ अंगुष्ठ: सं०पु० (सं० अङ्ग ुष्ठ) अंगूठा । गी० ७.१७.४ अचइ : पूकृ० (सं० आचम्य ) आचमन करके, मुख आदि धोकर । 'अँचइ पान सब काहूं पाए ।' मा० १.३५५.२ 1 ॐचन : आ० भावा० (दे० अँचव ) । आचमन कीजिए, पीजिए । 'अँच इअ नाथ कहहिं मृदु बानी ।' मा० २.११५.१ ई : भू स्त्री० | पी डाली । 'लाज अँचई घोरि - दिन० १५८.६ अचव अचव : अचवँ ( प्रक्षालन करना, पीना) पीता है । 'स्वाति को ।' दो० ३०६ अचवहु : 'अँचव' + म०व० । तुम पियो । 'सोभा सुधा अचवहु ।' गी० २.२३.२ जो अँचवें । जल अँचवायउ : भूकृ पु ं० कए० । आचमन कराया, पिलाया । पामं १३५ जोरि : पूकृ० । अँजलि में भर कर समेट कर । हथिया कर । 'कृ सिला... दंभ लेत अजोरि ।' दिन० १५८.४ जोरी : सं० [स्त्री० । प्रकाश । 'खद्योत अँजोरी ।' मा० ३.११.२ तावरि : सं० स्त्री० (सं० अन्त्रावलि > प्रा० अतावलि) आंतों की लड़ी। 'गल तावर मेल हीं ।' मा० ६.८१ छं० अथइहि : आ० ए० भ० । अस्त होगा । 'उदित सदा अँथ इहि कबहूंना मा० २.२०१.२ अँथयउ : भूकृ० पु ं० कए । अस्त हो गया । रबि अँथयउ, मा० २.१५४.३ अदेसा : सं० पु ं० (फ्रा० अन्देशः) चिन्ता, सोचा । मा० १.१४.१० अदेसो : 'अंदेसा' + कए । एकमात्र चिन्ता । गी० २.८७.४ अधियारा, रा, अaियार : सं० पुं० (सं० अन्धकार > प्रा० अंधयार ) अंधेरा । मा० १.१५६.८, बर० ३६ अघिरी : (१) सं० स्त्री०= अधिआर । 'अगर धूप बह जनु अंधभरी ।' मा० १.१६५.५ (२) वि० स्त्री० (सं० अन्धकारी > प्रा० अंधियारी ), अन्धेरी, काली, अन्धा बना देने वाली । 'मानहुँ कालराति अँधिआरी ।' मा० २.८३.५ अधिआ : क्रि० वि० । अन्धेरे में । ' अवध प्रबेसु कीन्ह अंधिआरें मा० २.१४७.५ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 3 अंधियारो : वि० पु. कए । अन्धकार से ढका हुआ। 'लागत जग अँधियारो।' गी० २.६६.१ अंबराई : (१) सं० स्त्री० (सं० आम्रराजी>प्रा० अंबराई) आमों का बगीचा, उद्यान, उपवन । मा० १.२१४.५ (२) पूकृ० । अम्बर=आकाश के समान शून्य में फैलाव करके, बातों का वात्याजक्र गढ़ कर । 'तुलसीदास जनि बकहि मधुप सठ हठ निसिदिन अंबराई।' कृ० ५१ अंबारी : सं० स्त्री (सं० आवारिका) आवरण, हाथी की झूल आदि । 'कलित करिवरन्ह परी अंबारी।' मा० 1.३००.१ (२) मकान का छज्जा आदि । 'चारु बजारु विचित्र अंबारी।' मा० १.२१३.२ अ : निषेधार्थक (सं०) अव्यय जो समास के पूर्व पद में आता है-अचपल, अग्यान आदि। क : सं० पुं० (सं०) (१) चिन्ह, छाप । 'राम पद अंक' मा० २.१२३.६ (२) गोद। 'प्रीति समेत अंक बैठावा' मा० ६.४६.७ (३) बाहुपाश, भुजबन्ध । तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता' । मा० २.१६४.४ (४) रेखा, लेख, लिपि 'बिधि के लिखे अंक निज भाला।' मा० ६.२६.१ अंकमाल : सं० स्त्री० (सं० अंकमाला)। अॅकवार, बाहुबन्धन, आलिङ्गन। 'सब अंकमाल देत हैं।' कवि० ५.२६ अंका : अंक। अंकित : भूकृ० वि० (सं०) (१) लिखित । 'राम नाम जस अंकित' मा० १.१०.५ (२) छापयुक्त, मुद्रित। 'प्रभुपद अंकित अवनि बिसेषी ।' मा० २.३०८.४ अंकुर : सं० पु० (सं०) अंखुआ,, बीज जमने पर निकलने वाली नोक । 'अच्छत अंकुर लोचन लाजा।' मा० १.३४६.५ अंकुरे : भूकृ० बहु० पु० (सं० अंकुरित>प्रा० अंकुरिय) उगे, जमे, प्रकट हुए। ___'कपट भू भट अंकुरे ।' मा० ६.९४ छं० अंकुरेउ : भूक पु० फए० । अँखुआया, उगा । 'उर अंकुरेउ गरब तरु भारी।' मा० १.१२६.४ कुस : सं०पु० (सं० अंकुश) हाथी चलाने आदि का उपकरण-विशेष । मा० १.२५६ (२) सामुद्रिक रेखा विशेष । 'रेखा कुलिस ध्वज अंकुस सोहे।' मा० १.१६६.३ अंग : सं० पु. (सं०) (१) पक्ष, अंश । 'सूझ न एकउ अंग उपाऊ।' मा० १.८.६ (२) शरीर । 'भव अंग भूति मसान की।' १.१ छं० (३) देह का Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश अवयव । 'अंग-अंग पर वारिअहिं ।' मा० १.२२० (४) सहायक । 'रडरे अंग जोगु जग को है।' मा० २.२८५.५ (५) योग के आठ अङ्ग-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि (६) राजनीति के सात अङ्ग-स्वामी, अमात्य, सुहृद, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना । 'सकल अंग संपन्न सुराऊ। मा० २.२३५.८ अंगद : सं० पु० (सं०) (१) वाली का पुत्र वानर विशेष । मा० ४.११ (२) बाहु भूषण विशेष । 'पहुंची अंगद ।' गी० १.४३.२ अंगन : सं० पु० (सं०) आंगन, मैदान, रणक्षेत्र । मा० ६.८१ छं० अंगना : सं० स्त्री० (सं०) सुन्दर अङ्गों वाली स्त्री कवि ७.१५१ मंगनि, न्हि : 'ग'+संब० । अंगों (में, पर, ने, से आदि) । 'भूषन अंग अगन्हि प्रति सजे।' मा० ७.१२ छं० २ 'विभूषन उधम अंगनि पाई।" कवि० २.१ मंगा : अंग । मा० ५.१६.४ अंगार, रा: सं० पुं० (सं० अङ्गार) आग का गोला । मा० ५.१२ मंगोकारा : सं० पु० (सं० अङ्गीकार)। स्वीकार (अपना अङ्ग बना लेना)। ___ 'तासु साप करि अंगीकारा।' मा० १.८६.४ मंगु, गू : 'मंग+कए। शरीर मात्र । 'सूखहि अधर जाइ सबु अंगू।' मा० २.४०.१ अंगुल : सं० ० (सं०) अंगुली की चौड़ाई की नाप । मा० ७.७६ अंगुलि : सं० । स्त्री० (सं०) । कर शाखा । मा० १.११७.३ अंगुलिवान : सं०० (सं० अङ्गलित्राण) हस्तकवच (दस्ताने जैसा अंगलियों का वर्ग) । गी० ७.१७.८ अंघ्रि : सं० पु. (सं०) चरण । मा० ७.१४.६ अंचल : सं० पु० (सं०) परिधान का छोर जो गले से नीचे कटि से ऊपर रहता है=ओढ़नी का दामन । मा० १.३११ छं० अचलु : कए । 'चरन नाइ सिर अंचलु रोपा।' मा० ६.६४ अंजन : सं० पुं० (सं०) कज्जल (दष्टि रोग निवारण की औषधि) दीप्त करने वाला साधन । 'गुरु पद रज मृदु मंजुल अजन ।' मा० १.२.१ ('निरञ्जन आदि पदों में 'बाहरी प्रकाशक से निरपेक्ष तथा निर्मल' का अर्थ रहता है।) अंजना : सं० स्त्री० (सं०) । हनुमान् की माता । विन० २६१ अंजलि : सं० स्त्री० (सं.)। करपुट, हाथों से की हुई पात्र जैसे आकृति । मा० १.३ मजि: पुष । आंज कर, अंजन लगाकर । मा० १.१ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 तुलसी शब्द-कोश अंजुलि : अजालि । मा० १.१६१.७ अ ंड : सं० पु ं० (सं०) ( १ ) पक्षी आदि का गोलाकार प्रसव (२) ब्राह्मण (जो अण्डाकार होता है) । 'अ'ड अनेक अमल जसु छावा । मा० २.१५६.१ काह : कढ़ाई का आकार का ब्राह्मण का अर्ध भाग । मा० ७.८० ख अडोस : सं० पु० (सं० अण्डकोश ) ब्राह्मण का भीतरी भाग ।' अंडकोस समेत गिरि कानन ।' मा० ५.२१.६ अंडजराया : अण्डजों पक्षियों के राजा = गरुड | मा० ७.८०.३ अ ंडन्हि : अ ंड+सं० ब० । अण्डों (में) । 'अ'डहि कमठ हृदय जेहि भांति ।' मा० २.७.८ अत: सं० पु० (सं० ) ( १ ) अवसान, समाप्ति । 'उधराहिं अन्त न होइ निबाहू ।' मा० १.७.६ (२) परिणाम । 'सुनत बात मृदु अन्त कठोरी ।' मा० २.२२.३ अंतःकरण : बोध के आन्तरिक साधन = अन्तरिन्द्रिय । इनकी संख्या चार है(१) संकल्प - विकल्प का साधन = मन ( २ ) अभिमसरूप अहंकार ( ३ ) निश्चयात्मक बोधकाfरणी बुद्धि और (४) इम तीनों का अधिष्ठान चित्त । 'बुधि मन चित अहंकार ।' विन० २०३.५ अंतक: सं० पु० (सं०) अन्त करने वाला = यमराज, मृत्यु । विन० ४६.२ अंतकाल : अन्त का समय = मृत्यु समय । मा० ४.६ अंतर : वि० + सं० पुं० (सं० ) (१) भेद । 'तुम्हहि रघुपतिहि अंतर केता ।' मा० ६.६.६ (२) भीतर । 'सब के उर अंतर बसहु । मा० २.२५७ (३) भीतरी, आन्तरिक । 'अंतरसाखी' मा० ६.१०८.१४ (४) बीच में । 'उभय अंतर एक नारि सोही ।' गी० २.१६.२ अंतरगत वि० (सं० अन्तर्गत ) । भीतर स्थित । 'जलचर बृन्द जाल अंतरगत ।' मनोभाव । विन० ६२.६ अंतरगति सं० स्त्री० (सं० अन्तर्गति) अन्त:करण की दशा, गी० ५.१६.३ अंतरजामिनि : वि० स्त्री० [सं० अन्तर्यामिनी) जीवों के भीतर व्याप्त रहकर नियन्त्रित करने वाली प्रेरक शक्ति । गी० १.७२.२ अंतरजामी: वि० पुं० (सं० अन्तर्यामिन् ) । ब्रह्म का तुरीय रूप जो सभी जीवों में व्याप्त एवं सूक्ष्म है । प्राणिनामन्तर्ममयति इत्यन्तर्यामी - सभी प्राणियों की वही प्रेरक शक्ति है । 'अन्तराविश्यभूतानि यो विभत्यत्मकेतुभिः । अन्तर्यामीश्वरः साक्षात् ।' अन्तर्यामी साक्षात् परमेश्वर है जो प्राणियों के भीतर आवेश लेकर अपने संकेतों से उनको प्रेरित करता है। रामानुज दर्शन में इसी की उपासना को सर्वोपरि बताया गया है । मा० १.५१.५ अंतरधान सं०पु० (सं० अन्तर्धान) अदृश्य होना । मा० १.७७.७ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश अंतरसाखी : सं० स्त्री० (सं० अन्तः साक्षी) आन्तरिक प्रमाण । 'प्रगट कीन्हि चह अंतरसाखी ।' मा० ६.१०८.१४ अंतरहित: वि० (सं० अन्तर्हित ) अदृश्य, अन्तर्धान को प्राप्त । 'अस कहि अंतरहित प्रभु भयऊ ।' मा० १.१३३.२ अ ंतर : 'अंतर' + कए । एकमात्र भेद । 'ईस अनीसहि अंतरू तसें ।' मा० १.७०.२ अंतर्धान : अंतरधान । मा० ७.१३ अ : अन्त में भी, अन्ततः, अन्ततोगत्वा । 'हठ कीन्हें अंतहुं उर दाहू । मा० १.२४६.५ अतावरी : सं० स्त्री० बहु० (सं० अन्नावली:) आंतों की लड़ियाँ, आँतें । diarat गहि उड़त गीध ।' मा० ३.२०.६० अ ंतु : 'अ'त' + कए । विनाश । 'कुल अंतु किए अंत हानि ।' कवि० ६.२२ ध: सं०+ वि० (सं० ) ( १ ) दृष्टिहीन । ' तापस अंध साप सुधि आई । " मा० २.१५५.४ (२) विवेक-हीन । 'मदन अंध ब्याकुल सब लोका । मा १.८५.५ (३) अँधेरा । ' मोह अंध रवि बचन बहावे ।' वैरा० २२ अंध : अंधा भी, अंधे भी । 'अंधउ बाधिर न अस कहहिं ।' मा० ६.२१ 'धकार : सं० पु० (सं० ) + क ए अँधेरा । 'अंधकारु बरु र बिहि नसावे । " मा० ७.१२२.१८ अनि : 'अंध' + सं०ब० । अन्धों ( ने) । ' अंधनि लहे हैं बिलोचन तारे ।' गी० १.६०.५ अहि : अन्धे को । 'अंधहि लोचन लाहु' मा० १.३५०.७ अ ंब, बा : सं० स्त्री० (सं० अम्बा ) ( १ ) माता । मा० १.३१.१४ (२) दुर्गा - 'arfa बिनायकु अंब रबि ।' रा० प्र० १.१.१ क : सं० पु० (सं० ) ( १ ) नेत्र । 'नव अंबुज अंबक छबि नीकी ।' मा०१-१४७.३ (२) पिता । 'अनुकूल अंबक अंब ज्यों निज डिंब हित सनमानि कै । " गी० ३.१७.३ बर: सं० पुं० (सं०) (१) वाह्य । 'अंबर पीत सुर मन मोहई ।' मा० ६.१२ छं० २ (२) आकाश । 'अबर अमर हरषिता' कृ० २० प्रबरीष (स) : एक पौराणिक राजा जो भगवद्भक्त थे । भगवान् न क्रुद्ध दुर्वासा से उनकी रक्षा करने हेतु अपना चक्र सुदर्शन दुर्वासा के पीछे लगा दिया था । ( 'जथा चक्र अयँ रिषि दुरबासा') 'सुधि करि अंबरीष दुरबासा ।' मा २.२६५.४ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश अंबरीस : अंबरीस ( प्रा० ) । विन० ९८.५ बा : अंब | मा० २.६०.७ अंबिका : सं० [स्त्री० (सं०) दुर्गामाता, पार्वती । मा० १.६७.२ अबु : सं० पु ं० (सं०) जल । मा० २.५७.२ अंबुचर : जलजन्तु । हनु० ३४ बुज : सं० पु० (सं०) कमल । मा० १.१०६.७ अंबुद : सं० पु० (सं०) । मेघ । गी० १.७.३ अंबुधर : जलधर । मेघ । 'नव अंबुधर वर गात ।' मा० ७.१२ छं २ अंबुधि : सं० पु० (सं०) समुद्र । मा० १.८५.२ निधि : अंबुधि । मा० २.२६३.३ बुपति : जलाधीश = वरुण । मा० ६.१५.६ [सं० ) मेघ । विन० ५६.८ अमोज : सं० पु ं० अमोद : सं० पुं० अमोषि : सं० पुं० (सं० ) अंभोरुह : सं० पु० (सं०) । कमल । गी० १.५४.२ श्रं स : (१) सं० पुं० (सं०) कन्धा । । समुद्र | विन० २५.१ ( 2 ) भाग । 'ईस अंस भव'- - मा० १.२८.८ (३) ईश्वर के गुणरूप चित् (जीव) और अचित् ( प्रकृति ) । ' ईस्वर अस जीव अबिनासी ।' मा० ७.११७.२ (४) विष्णु आदि जो परब्रह्म के कलावतार हैं - मा० १.१४४.६ असनि : 'अ ंस' + सं०ब० । कन्धों ( पर ) । असनि धनु, सर कर कमलनि ।' गी० १.५५.३ असन्ह : असनि । अशों । 'अ' सन्ह सहित देह धरि ताता ।' मा० १.१५२.२ सिक: वि० (सं० आंशिक) । ( १ ) अंश से उत्पन्न । 'सुर असिक'मा० ६.११४.८ (२) अंशमात्र, अल्प । निज अंसिक सुख लागि - कृ० ३१ अइसिह ं : ऐसी भी । 'अइसिहुँ मति उर बिहर न तोरा ।' मा० ६.२२.२ अइसे : वि० पु० बहु० । ऐसे । 'अइसे मनुज अनेक ।' मा०६.३१ असे : ऐसे भी । 'अइसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं ।' मा० ६.४.६ अइहह : आ० भ० प्र० ए० । आएँगे । 'अइहहिं रघुबीरा ।' मा० ५.१६.४ अउर : अवर । अन्य । 'नहिं जानउँ कछु अउर कबारू ।' मा० २.१००.७ अकंटक : वि० (सं०) कण्टक = शत्रु या बाधा से रहित । निष्कण्टक । प्रतिरोध रहित । ! जोगी अकंटक भए । मा० १.८७.छं० 1 कपन : सं० पु० (सं०) एक राक्षस ( युद्ध में कम्प रहित ) । मा० १.१८० (सं० ) । N । कमल । मा० १.३१८ छं० Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश अकथ : वि० (सं० अकथ्य) अकथनीय, अनिर्वचनीय ( जो कहा न जा सके ) । मा० १.२.१३ अकथनीय : अकथ । मा० १.६०.१ कनि : पूकृ० (सं० आकर्ण्य > प्रा० आकाण्णि अ> अ० आकाण्णि) सुन कर | 'अवनय अकानि रामु पगु धारे । मा० २.४४.१ अकरुन : वि० (सं० अकरुण ) करुणारहित, निर्दय । मा० १.२७५.६ अकल : वि० (सं०) कलारहित, अखण्ड, निर्विकार । 'अज अकल अनीह अभेद ।' 8 मा० १.५० अकलंकता : सं० [स्त्री० (सं०) निष्कलंकता, निर्दोषता । 'अकलंकता कि कामी लहई ।' मा० १.२६७.३ अकलंका : वि० (सं० अकलंक) कलंकरहित, निर्दोष । 'सबहि भाँति संकरु अकलंका ।' मा० १७.२.४ अकस : सं० पु० । ईर्ष्या, होड़, अमर्ष । 'बंदि बोले बिरद अकस उपजाइ के ।' गी० १.८४.७ 1 अकसु : क ए । एतेमान अकसु कीबे को आपु आहि को । कवि० ७.१०० अकसर : वि० (सं० एकसर ) एकाकी, अकेला । 'अकसर आयहु तात । मा० ३.२४ अकाज, जा : सं० पु० (सं० अकार्य > प्रा० अकज्ज) कार्य बिगड़ना, प्रयोजन की हानि । 'पर अकाज भर सहसबाहु से ।' मा० १.४.३ अकाजु : कए । अद्वितीय प्रयोजन हादि । पर अकाजु लगि तनु परिह रहीं ।' मा० १.४.७ अकाजेउ : भूकृपु कए । अकाज = मृत्यु को प्राप्त हुआ । 'मानहुं राजु अकाउ आजू ।' मा० २.२४७.६ अकाय: वि० (सं० अकृतार्थ - प्रा० अकअत्थ ) . निस्प्रयोजन, निरर्थक | 'तनु ..... कत खोवत अकाथ ।' वि० ८४.१ अकाम : (१) वि० (सं०) कामना रहित । मा० १.७६.२ (२) सं० पुं० (सं० ) । वासना - रहित मनःस्थिति । 'अव है अनल अकाम बनाई ।' मा० ७.१७१.१३ श्रकामा : अकाम । मा० ३.४५.७ अकामिन् : वि० (सं०) कामनाहीन । मा० ३.४. छं० अकारन : क्रि० वि० + वि० (सं० अकारण ) । बिना कारण के ही । 'अकारन को ही ।' मा० १.२६७.२ अकाल : सं० पु० (सं०) ऋतु के विपरीत समय । वह ऋतु जिसमें वस्तु विशेष पैदा न होती हो । 'जिमि अकाल के कुसुम भवानी ।' मा० ३.२४.८ अकास : सं० पु० (सं० आकाश ) मा० १.१७४.४ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश अकासबानी : सं० स्त्री० (सं० आकाशवाणी) अदृश्य दैवी वाणी। मा० १.१७३.५ अकासा : अकास । आकिंचन : वि० (सं०) दरिद्र (जिसके पास कुछ न हो) । मा० १.१६१.३ अकुठा : वि० (सं०) कुण्ठारहित, छलना रहित, निर्व्याज, निश्छल । 'रघुपति भगति अकुंठा।' मा० ६.२६.८ अकुल : वि० (सं०) कुलहीन, अकुलीन । मा० १.७६.६ अकुला : (सं०) आकुलायते>प्रा० आकुलाइ अकुलाइ, ई : विकल होना, तिलमिलाना आ० प्रए । विकल होता- होती है। 'देखि-देखि अकुलाइ ।' मा० २.७६ अकुलाइ, ई : पूकृ० । आकुल होकर । 'गहे चरन अकुलाइ ।' मा० २.७१ 'केवट चरन गहे अकुलाई ।' मा० २.१०२.४ अकुलाति : व क् स्त्री० । विकल होती। 'मति अकुलाति ।' विन० २२११३ अकुलान, ना : भकृ । व्याकुल हुआ। मा० २.६६.४ अकुलानि, नी : स्त्री। व्याकुल हुई । 'बिपुल वियोग प्रजा अकुलानी ।' मा० २.५१.६ अकुलाने : ब० । व्याकुल हुए । 'दरस लागि लोचन अकुलाने ।' मा०.१.१२६.७ अकुलान्यो : अकुलान कए । व्याकुल हुआ। गी० ३.८.२ अकुलाहिं, ही : आ० प्र० । व्याकुल होते हैं । 'पुनि-पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं।' मा० १.१३५.२ अकुलीन : अकुल । जो उत्तम कुल का न हो+कुलहीन । पा० मं० ५५ अकेल, ला : वि० पु० (सं० एकल<प्रा० एक्कल) एकाकी । 'रिपु तेजसी अकेल अपि ।' मा० १.१७० अकेलि, ली : स्त्री० । एकाराकिनी। 'बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतु ।' मा० १.५३.८ अकेलें : क्रि० वि० (सं० एकलेन<प्रा० एक्कलेण<अ. एक्कलें) एकाकी स्थिति में । 'को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें ।' मा० १.१५६३ अकोबिद : वि० । शास्त्रज्ञान-रहित, अकुशल । मा० १.११५.१ अखंड : वि० (सं०) अविच्छिन्न, निर्विघ्न, एकतान । 'लागि समाधि अखंड अपारा।' मा० १.५८.८ अखंडल : सं० पुं० (सं० आखण्डल) । इन्द्र । पा० म० ११४ अखंडा : अखंड । मा० ७.६३.१ । अखंडित : वि० (सं०)=अखंड । मा० ७.४६.७ अख्य : वि० (सं० अक्षय>प्रा० अक्खय) अविनाशी । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 तुलसी शब्द-कोश अखयबटु : प्रयाग तीर्थ का वटवृक्ष विशेष जिसको 'अक्षयवट' कहते हैं। मा० २.१०६.७ अखारा : सं० पु० (सं० अक्षवाटरप्रा० अक्खाड) मल्लयुद्ध का स्थान विशेष, मनोरंजन का सामूहिक स्थान या पंडाल । 'तहं दसकंधर केर अखारा।' मा० ६.१३.४ अखारेन्ह : अखाड़ों में, कुश्ती के स्थानों में । मा० ५.३.छं० अखिल : वि० (सं०) सम्पूर्ण, अशेष, सकल (खिल =शेष) । मा०।१।१६१ अखिलविग्रह : जिसका शरीर (विग्रह) सब कुछ हो: विश्वरूप; विराट; परमेश्वर (जिसके चित् और अचित् शरीर रूप हैं)। विन० १०.७ अखिलेश्वर : सं० पु० (सं० अखिलेश्वर)। सर्वेश्वर, चराचर विश्व का स्वामी । मा० १.४८.२ अखेटकी : सं० स्त्री० (सं० आखेटिकी) आखेट कर्म मगया। 'अटत गहनगन __ अहन आखेटकी ।' कवि० ७.६६ अग : वि० (सं०)। स्थावर, वृक्ष-पर्वत आदि अचर पदार्थ, जड़ प्रकृति । ___ 'अग जगमय सब रहित बिरागी।' मा० १.१८५.७ अगति : गतिहीनता, निर्गति, गतिरोध । गी० २.८२.३ अगनित : वि० (सं० अगणित) । असंख्य, अमित । मा० १.६३.छं० अगम : वि० (सं० अगम्य>प्रा० आगम्य) । पहुंच से परे । 'उभय अगम जुग सुगम नामते ।' मा० १.२३.५ अगमनो : वि. पु. कए । अपमामी, प्राथमिक, सामने आया हुआ । गी० ५.१५.३ अगम : 'अगम'+कए। 'अगमु न कछु' मा० १.३४२.५ अगर, अगर : सं० पु. (सं० अगरु, अगुरु) । सुगन्धित काष्ठ विशेष जिसका धूप के समान उपयोग होता है। मा० १.१६५.५; १.१०.६ अगलगे : वि०पू० (सं० अग्नि लग्न या अग्रलग्न)>प्रा० अग्नि लग्न या अग्ग लग्न) दाहयुक्त तथा आगे-आगे विषयों में संलग्न ।' 'अवन-नयन-मग अगलगे, ___सब थल पतितायो।' विन० २.७६.५ अगवान, ना : सं० पु-आगे जाकर बरात आदि का स्वागत करने वाले ।' मा० १.६५.२; ६६.१ अगवान्ह : सम्ब ५० अगवानों (ने)। 'अगवानन्ह जब दीखि बराता।' मा० १.३०५.७ अगवानी : सं० स्त्री० । आगे जाकर स्वागत करने की क्रिया । 'नियरानि नगर बरात हरषी लेन अगवानी गए।' जा० मं० १३५ अगरत्ति : सं० पु. (सं.)। एक ऋषि जो पौराणिक परम्परा में प्रथम दक्षिण यात्रा के लिये प्रसिद्ध हैं। समुद्र पीने के लिये भी वे विख्यात हैं। मा० ३.१२.६ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 11 अगह : वि० (सं० अग्रह) अग्राह्य, अज्ञेय, पकड़ से बाहर । 'नृपगति अगह, गिरा जाति न गही है।' मी० १.८७.२ अगह : 'अगह'+कए। एकमात्र अग्राह्य =अज्ञेय । 'सब विधि अगहु अगाध दुराऊ ।' मा० २.४७.७ अगहुड़, अगहुंड : वि०+क्रि० वि० आगे की ओर, आगे गति लेने वाला। 'भय बस __ अगहुड़ परइ न पाऊ।' मा० २.२५.१ 'मन अगहुंड, तन पुलक सिथिल भयो।' गी० २.६६.३ अगाऊ : वि०+क्रि० वि० । आगे, अग्रगामी। 'उलटि बिबादन आइ अगाऊ ।' कृ० १२ अगाध : वि० (सं०) अथाह; जिसमें अवगाहन न किया जा सके । मा० १.२३.१ अगाधा : अगाध । मा० १.३७.२ अगाधु, धू : एक । 'सुमति भूमि थल हृदय अगाधू ।' मा० १.३६.३ अगार : सं० पु० (सं० आगार) घर, भण्डार । गी० १.७१.२ अगारु : कए । एकमात्र भण्डार । 'अपकार को अगारु जग।' कवि० ७.६८ अगारे : अगार+बहु० । 'सील सुधा के अगारे ।' गी० १.६४.३ अगिनि : सं० पुं० (सं० अग्नि<प्रा० अगिणी) (१) आग । मा० १.६४.८ (२) आग्नेय दिशा के दिगपाल=अग्निदेव । मा० १.१८२.१० अगिले : वि० पु० (सं अग्रिम-प्रा० अग्गिल्ल) आगामी, प्रथम, आगे होने वाले । विन० २४.४ अगाई : क्रि० वि० । अग्रभाग में, अगुआ (अग्रगामी) के रूप में। ‘कियउ निषादनाथु अगुआई।' मा० २.२०३.१ अगुन : (१) सं० । गुणाभाव, अवगुण । 'खल अघ अगुन, साधु गुन गाहा।' मा० १.६.१ (२) वि० । उत्तम गुण, कौशल आदि से रहित । 'अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पितां बनवास ।' मा० ६.३१क (३) गुणरहित= निर्गुण । वैष्णव दर्शन में माया गुणों से रहित (कल्याण गुणों से युक्त) ब्रह्म। 'अगुन अनुपम गुन निधान सोए मा० १.१६.२ ब्रह्म के सर्वथा निर्गुण स्वरूप को वैष्णव मत में अमान्य किया जाता है-दें मा० ७.१११ अगेह : वि० (सं०) गृहहीन । मा० १.७६.६ अगेहा : अगेह । मा० १.१६१.४ अगोचर : वि० (सं०) जो इन्द्रियां (गो) की गति (चर) से परे हो; अतीन्द्रिय, ___अप्रमेय । 'मन बुद्धिबर बानी अगोचर प्रकट कवि कैसे करें ।' मा० १.३२२.छं० अग्य : वि० (सं० अज्ञ) अग्यानी, मूढ़। मा० १.५१.२ अग्यता : सं० स्त्री० (सं अज्ञता) मूढता । मा० ७.३४.६ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -12 तुलसी शब्द-कोश अग्यां : आज्ञा से । 'पितु अग्यो अद्य अजसु न भयऊ ।' मा० २.१७४.८ अग्या : सं० स्त्री० (सं० आज्ञा) आदेश ।' मा० १.७७.४ अग्याता : वि०+क्रि० वि० (सं० अज्ञात) अनजान, अनजाने । 'अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता।' मा० १.२८५.६ अग्यान, ना : (१) सं० पु० (सं० अज्ञान) अविद्या । वैष्णव दर्शन में सात्विक माया विद्या है जबकि तमोगुणी माया आवरण है जो ज्ञान को आच्छादित करती है; रजोगुणी माया विक्षेप शक्ति है जिससे देहादि में आत्मा का अभिमान होता है। बाद वाली दोनों अविद्या अथवा अज्ञान हैं। (२) वि० । ज्ञानरहित, अज्ञ, मूढ़। मा० ४.२ अग्यानी : वि० पुं० (सं० अज्ञानिन्) अज्ञ, ज्ञानहीन । मा० १.११७.१ । अग्यान, नू : 'अज्ञान'+कए। अद्वितीय अज्ञान । 'निज अग्यानु राम पर आना।' मा० १.५४.१ अग्र : वि०+क्रि० वि० (सं०) अग्रगामी, आगे, अगुआ। 'चली अग्र करि प्रिय ___ सखि सोई ।' मा० १.२२६.८ अप्रगण्य : वि० (सं.) प्रथम गणना के योग्य । मा० ५ श्लो० ३ अग्रणी : वि० (सं.) आगे चलने तथा ले चलने वाला, नायक, मुखिया। विन० २७.३ अघ : सं० पुं० (सं०) पाप । मा० १.४.५ अघट : वि० (सं०) । जो घटित न हो सके, अपूर्व, अनुत । विन० २५.८ अघटित : वि० (१) (सं०) जो घटित न हो सके, असंभव । (२) (सं० अघट्टित) ___अविचल, अटल । 'काल करम गति अघटित जानी।' मा० २.१६५.६ अघरूप : साक्षात् पाप, मूर्त पातक, अति पातको । मा० १.१७६ अघहारी : वि० (सं०) पापों को हरने वाला, पापनाशक । मा० २।२६८।३ अघाइ, ई : पूर्व० कृ० (सं० आघ्राय>प्रा० अग्घाइअ>अ० अग्घाइ) तृप्त होकर, पूर्णतया, पूरम्पार, सर्वात्मना । सो पछिताइ अघाइ उर ।' मा० २.६३ 'जनम लाभ कई अवधि अघाई। मा० २.५२.८ अघाउ,ऊ : आ० उए (सं० आजिघ्रामि>प्रा० अग्यामि>अ० अग्घाउँ) तृप्त होऊँ, तृप्त हो सकता हूं। 'नहिं अघाउँ थोर जल ।' मा० ६.५७.७ अघाउंगो : आ० भवि० पु उए । तप्त होऊँगा । गी० ५.३०.३ अघात, ता : (१) वकृ० पु । तृप्त होता-ते। 'नहिं अघात अवनामृत जानी।' मा० ५.४६.३ (२) सं० पुं० (सं० आघात) । प्रहार, चोट । 'बुद अघात सहहिं गिरि कैसें ।' मा० ४.१४.४ अघाति, ती : वक स्त्री० । तृप्त होती। 'जासु कृपाँ नहिं कृपा अघाती।' मा० १.२८.३ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 तुलसी शब्द-कोश प्रधानी : भूक० स्त्री० । तृप्त हुई। 'प्रजा प्रमोद अघानी।' गी० १.४.६ अघाने : भूक पु० (बहु०) । तृप्त हुए। ‘भाव भगति आनन्द अघाने ।' मा० २.१०८.१ अघानो : भूक कए । तृप्त हुआ । 'लख इ अघानो भूख ज्यों ।' दो० ४४३ अधारी : वि (सं अघारि) पाप के शत्रु, पापनाशक । मा० ३.१३.५ अघाहिं, हीं : आ० (१) प्रब। अघाते हैं। 'नहिं अघाहिं अनुराग भाग अरि भागिनि ।' जा० मं० १५० (२) उब । हम अघाते हैं । 'नहिं पेट अघाहीं।' मा० २.२५१.५ अघाहूं : आ०-आशीर्वाद-प्रब । तप्त हों। 'राम भगत अब अमिों अघाहूं।' मा० २.२०६.६ अघी : वि० (सं०) पापी । कवि० ७.५ अघौघ : सं० ० (सं०) पाप-प्रवाह, पातक समूह । गी० ७.१६.५ प्रचंचल : वि० (सं०) अचल, स्थिर । मा० १.२३०.४ अचंभव : सं० पु+वि० (१) सं० असंभव (२) सं० अत्यद्भुत>प्रा० अच्चब्भुअ) विस्मयजनक । मा० ६.७१८ अचई: अंचइ। पान करके । विन० २४.४ अचगरि, री : सं० स्त्री० (सं० अत्यकरिः>अतिशय अकार्य>प्रा० अच्चगरी) अतिशय अनुचित आचरण, धृष्टता, दुर्व्यवहार । 'जौं लरिका कछु अचगरि करहीं।' मा० १.२७७.३ अचर : वि० (सं०) स्थावर, अचल-वृक्ष, पर्वत आदि । 'चर अरु अचर नाग नर देवा ।' मा० १.१०७.८ अचरज : सं० पुं० (सं० आश्चर्य>प्रा० अच्छरिज्ज) विस्मय, विस्मयजनक ___ अद्भुत कार्य । 'कीन्ह जो अचरज राम ।' मा० १.११० अचरज : कए। अद्वितीय विस्मय । 'सुनि सबके मन अचरजु मावा ।' मा० १.१२७.४ अचल : (१) सं० पु० (सं०) । पर्वत। 'बटु बिस्वासु अचल निज धरमा ।' मा० १.२.११ (२) वि० । अविचल । पद, निष्ठा, संकल्प आदि से विचलित न होने वाला। 'बिस्व भार भर अचल छमा सी।' मा० १.३१.१० (३) नित्य, शाश्वत वैष्णव तथा शैवमत में जग (प्रपञ्च भी नित्य है)। 'बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी।' मा० २.२८२.६ अचलु : कए। पर्वत । 'अचलु ल्यायो चलि के ।' कवि० ६.५५ अचवें : अचवइ-(सं० आचामति>प्रा० आचमइ>अ० आचवेइ-पीना, मुखादि का प्रक्षालन करना)। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश अचवंत : वक पु । आचमन करता-करते; पीता-पीते । 'जो अचवंत नृप मातहिं तेई ।' मा० २.२३१.७ अचाइ : पूकृ. । आचमन कराकर, मुघ आदि घुलाकर । 'अचवाइ दीन्हे पान ।' मा० १.६६.छं० अचानक : क्रि० वि० । सहसा, अकस्मात् । कवि० २.२५ अचार, रा : सं० पु० (सं० आचार) (१) आचरण (२) शास्त्रानुसार कर्म (आचार: परमोधर्मः) । मा० १.१८३. छं० । अचारु, रू : कए । 'दुहु कुलगुरु सब कीन्ह अचारू ।' मा० १.३२३.८ अचिरिजु : अचरजु । अद्भुत्। 'नहिं अचिरिचु जुग जुग चलि आई।' मा० २.१६५.१ अचेत, ता : वि. (सं० अचेतस्) । (१) अविकसित चेतना वाला। 'तब अति रहेउँ अचेत ।' मा० १.३० (२) मूढ । 'डाटेहिं नवहिं अचेत ।' रा० प्र० ५.५.६ (३) सं० पु । जड़ता, चैतन्यहीनता। 'असुभ अरिष्ट अचेत ।' रा०प्र० ३.३.४ अचेतु : कए । कवि० ७.८२ अच्छ : सं० पुं० (सं० अक्ष) रावण का एक पुत्र । मा० ६.३६.५ अच्छत : सं० ० (सं० अक्षत)। अखण्डित चावल जो पूजा के लिए हाथ से बूसी निकालकर बनाए जाते हैं । मा० १.२६६.८ . अच्छम : वि० (सं० अक्षम) असमर्थ, अशक्त, निर्बल । दो० ७४ अच्छय : अखय । क्षयरहित, पूर्ण । 'अच्छय अकलंक सरद चंद चंदिनी।' गी० २.४३.४ अच्छर : सं० पु. (सं० अक्षर) । स्वर अथवा स्वर सहित व्यञ्जन । मा० १.१४३ अच्छु : 'अच्छ,+क ए। अक्षकुमार रावण पुत्र। कवि ६.२२ अच्युत : वि०+सं० पु० (सं.)। पद, पथ आदि आदि से विचलित न होने वाला, निर्विकार परमेश्वर । विन० १०.६ अछत : वकृ पु० (सं० सत्>प्रा० अच्छंत) रहता हुआ, रहते हुए। 'अस प्रभु हृदयं अछत अबिकारी।' मा० १.२३.७ अछवारि : सं० स्त्री. (सं० अक्षधारि) । अक्षकुमार की सेना । कवि० ५.२८ अछोमा : वि० पु. (सं० अक्षोम्य) । क्षोभ में आने वाला, भावावेश में न डाला जा सकने वाला, गम्भीर । बीरबती तुम्ह धीर अछोभा ।' मा० १.२७४.८ अज: (१) सं० पुं० (सं०) । बकरा । मा० ५.३ छं३ (२) ब्रह्मा । मा० १.६१.७ । (३) वि० । अजन्मा। 'अज सच्चिदानन्द परधामा।' मा० १.१३.३ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 15 अजगर : सं० पु. (सं० अजं गिलतीति अजगरः) बकरा या उसके बराबर जन्तु __ को निगल जाने वाला सर्पजातीय जन्तुविशेष । मा० ७.१०७.७ अजय : वि० पु० (सं० अजय्यः=जेतु न शक्यः) जो जीता न जा सके। मा० १.१७०.५ अजर : वि० (सं.) जराहीन (प्रायः देव वाचक)। जिसे क्षय या बुढ़ापा न __ आता हो-'अजर अमर सो जीति न जाई।' मा० १.८२.७ अजस : सं० पुं० (सं० अयशस्) । अकीति । कुख्याति । मा० २.१२ अजसी : वि० (सं० अयशस्विन्) कुख्यात । मा० ६.३१.२ अजसु : 'अजस'+कए । एक मात्र अकीर्ति । 'अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ ।' मा० २.४५.१ अजहु, हूं: आज भी, अब भी । मा० १.५०.८ अजा : (१) सं० स्त्री० (सं.)। बकरी। 'होत अजा-सुर बारिधि बाढ़े।' कवि० २.५ (२) वि० स्त्री० । अजन्मा। 'अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि मा० १.६८.३ अजायक : वि० । जो याचक न हों पूर्ण तृप्त । मा० ७.१२.१ अजाति : वि० (सं०) (१) जातिहीन=अकुलीन (२) जन्महीन (जाति जन्म) । अजन्मा। पा० मं० ५५ अजादि : ब्रह्मा इत्यादि देव वर्ग । मा० १.५४ अजान : वि० ० (सं० अज्ञ>प्रा० अजाण) जिसे उस विषय की जानकारी न हो। 'पूछत जानि अजान जिमि ।' मा० ११२६६ अजानि : पूकृ० । न जानकर विना जाने । 'जानि नाम अजानि लीन्हें नरक जमपुर मने ।' विन० १६०.३ अजामिल : एक पौराणिक ब्राह्मण पात्र जो दासी-संसर्ग से पतित हो गया था और पुत्र 'नारायण' को मरते समय पुकारने से तर गया था। कवि० २.५ अजामिलु : कए । 'अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ ।' मा० १.२६.७ अजित : वि० (सं०) जिसे कोई जीत न सका हो, अपराजित, सर्वोपरि । 'निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु ।' मा० ४.२६.१२ अजिन : सं० पु० (सं०) चर्म, मृग चर्म । मा० २.२११ अजिर : सं० पु० (सं०) आँगन । मा० १.१०५.६ (२) क्षेत्र, मैदान-जैसे, 'रन-अजिर' मा० १.२२१.४ अजीता : अजित । 'सबदरसी अनबध अजीता।' मा० ७.७२.५ अजीरन : वि०+सं० पु. (सं० अजीर्ण) पेट में न पचा हुआ अन्न; अपच । (असन अजीरन को समुझि तिलक तज्यो।' गी० २.३३.२ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 तुलसी शब्द-कोश अजे : वि० पु. (सं० अजेय) जो जीता न जा सके । 'रघुबीर महारनधीर अजे।' मा० ७.१४.१७ अजे : अजय । 'अतिस प्रबल अजै ।' विन० ८६.४ अजोध्या : अवध । मा० ७.२७.२ इक्ष्वाकु के पुत्र विकुक्षि का उपनाम 'अयोध्या' था, उन्होंने पुरी बसाई थी अतः 'अयोध्या' नाम पड़ा-दे० हरिवंशपर्व । अटक : सं० सभी० । गतिरोध, रोकटोक, बाधा। को कर अटक कपि कटक अमरषा।' कवि० ६.७ अटक, अटकइ : <सं० आटकते-टकि बन्धने । बंधना, संलग्न होना। आ.. प्रए । अटकता है, लगता है, लग जाय । 'जब मति यहि सरूप अटक' विन.. ६३.६ अटत : पु० (सं० अटत्-अटगतो) चलता, चलते। खोज में भ्रमण करते । 'अटत गहन बम अहन अखेटकी।' कवि० ७.६६ विशेषतः पैदल तथा खोज (या साक्ष्य पाने) हेतु यात्रा का अर्थ आता है-भिक्षारन, तीर्थाटन आदि। 'सुतीरथ अटत ।' विन० १२६.३ अटन : सं० पु. (सं.) पर्यटन, भ्रमण । 'अटन पयादे ।' मा० २.३११.३ अटनि : अट्टों-अटालों पर । गी० १.५:१ अटनु : ‘अटन'+कए। पैदल भ्रमण । 'अटनु रामगिरि बन तापस थल ।' मा० २.२८०.७ अटन्ह =अटनि । अटालों । 'प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि ।' मा० १.३४७.४ अटपटि : वि० समी० । दुर्बोध, विसंगत, विचित्र । 'अटपटि बानी।' मा० १.१३४.६ अटपटे : वि० पु (बहु०) । विचित्र, व्यङ्गययुक्ता। 'प्रेम लपेटे अटपटे ।' मा० २.१०० अटल : वि० (सं०-टल वैलव्ये) अविकल, अविचल । कवि० ६.४७ अटपी : सं० समी० (सं०) वन । विन० ५२.७ अटारिन्ह : अटारियों (पर)। मा० १.३०१.४ अटारी : (१) सं० स्त्री० बहु० (सं० अट्टालिकाः) अटारियां, छतें, छतों पर बनी शालायें । 'जातरूप मनि रचित अटारी ।' मा० ७.२७.३ (२) अटाली पर । 'निबुफि चढ़ेउ कपि कनक अटारी।' मा० ५.२५.६ अट्टहास : सं० पु० (सं.) ठहाका लगाकर हंसने की क्रिया । मा० ६.४०.४ अठक : वि० सं० अष्ट-काष्ट>प्रा० अट्ठ-कट्ठ) आठ काठों से बना, अनमेल, अस्थायी। 'बांस पुरान साज' सब'मछकठ। विन० १८९२ जिस प्रकार कई Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 17 प्रकार की लकड़ियों से जोड़ गाँठ कर बनाया खटोला टिकाऊ नहीं होता, उसी प्रकार पांच महाभूतों और तीन अन्तःकरणों से रचा हुआ शरीर अस्थायी है। अठारह : संख्या (सं० अष्ठादश <प्रा० अट्ठारह) । मा० ५.५५.३ अढ़ाई : (सं० अर्ध तृतीय>प्रा० अड्ढाइज्ज) वह संख्या जिस में दो पूरे और तीसरे का आधा हो । मा० २.२७८.६ अढ़क : सं०० । ठोकर । 'फोरहिं सिल लोढ़ा सदन लागें अढ़ क पहार ।' दो० ५६० अढ़ कि : पूकृ० । लड़खड़ाकर, ठोकर खाकर । 'अढ़ कि परहिं फिरि हेरहिं पोछे ।' मा० २.१४३.६ अतनु : वि० (सं०) शरीर-रहित अनङ्ग । रति अति दुखित अतनु पति जानी।' मा० १.२४७.५ प्रतळ : वि० (सं.) तर्कशक्ति से अज्ञेय; बुद्धि की युक्तियों से परे; अतीन्द्रिय । ___'राम अतयं बुद्धि मन बानी।' १.१२१.४ अति : अव्यय (सं०) अतिशय, अधिक, अत्यन्त । रति अति दुखित अतनु पति जानी।' मा० १.२४७.५ ऐसे स्थलों में प्रायः अर्थ की अतिक्रान्त दशा का आशय रहता है। अति उकुति : सं० स्त्री० (सं० अत्युक्ति) । एक काव्यालंकार जिसमें शोर्य तथा उदारता आदि का अद्भुत रूप से वर्णन किया जाता है। मा० ६.२.१-४ प्रतिकल्प : वि० (सं.) (१) कल्पनातीत, अप्रमेय (2) कल्पातीति =युग, कल्प आदि कालसीमाओं से परे कालातीत । विन० ५४.६ अतिकाय : वि०+सं०० (सं)। (1) बड़े डील डोल वाला (2) एक राक्षस-यूथप का नाम । मा० १.१८० अतिकाया : अतिकाय । मा० ६.४६.१० अतिकाल : वि. (सं०- अतिक्रान्त: कालम् ) कालातीत, कालजयी, काल से परे । विन० ११.७ अतिथि : सं (सं०) वह अभ्यागत जिसके आने की तिथि पूर्व निश्चित न हो। मा० १.३२.८ अतिबल : वि० (सं०) अतिशय बली । मा० १.१८०.३ अतिबलो : कए । गी० ५.४२.१ प्रतिरोषी : अत्यन्त क्रोधी। मा० १.१७१.६ अतिसय अतिस : क्रि०पि० (सं० अतिशय) अत्यन्त । मा० १.१८.७, विन० ८६.४ अतीत : वि० (सं०) अतिक्रान्त, परे । 'गिराज्ञान गोऽतीतम् ।' मा० ७.१०८.३ अतीति : वि० स्त्री० (सं० अतीता)। बीती। 'बड़ि बय बथहि अतीति ।' विन० २३४.२ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश अतीवा : क्रि०वि० (सं० अतीव) सादृश्यातीत, अतिशय, सर्वथा। 'भरतगति __अकथ अतीवा।' मा० २.२३८.५ अतुल : वि० (सं० अतुल, अतुल्य) अपरिमित, अनुपम । मा० १.१५३.६ अतुलबल : अपरिमित तथा असदश बल वाला। मा० १.१७८ ख अतुलित : वि० (सं०) बिना तौल का, अमित; तुलना रहित, अद्वितीय । __ मा० १.१८८.३ अतुलित बल : अतुल बल । मा० ६.११२.६० प्रत्यंत : वि०+क्रि०वि० (सं.) अन्त का अतिक्रमण किए हुए, अन्तहीन, असीम, __ अतिशय, नितान्त । 'बाक्य-ग्यान अत्यन्त निपुन । बिन० १२३.२ अत्रि : सं.पु. (सं.) एक ऋषि का नाम । मा० ३.३.४ । अथरबनी : सं० पु० (सं० अथर्वणि) (१) अथर्व-वेद का पारंगत=मन्त्रकुशल (२) पुरोहित । 'आपु बसिष्ठ अथरबनी।' गी० १.६.१० अथर्बन : सं०० (सं० अथर्वन्) चतुर्थ वेद । विन० १५५.२ अथवं अथवेइ : (सं० असामेति>प्रा० अत्थमइ>अ० अत्थवंइ-अस्त होना) आ० प्रए । अस्त होता है, अस्त हो जाय । 'जौं बिनु अवसर अथवें दिनेसू ।' मा० २.३०५.७ अथवत : वक़ पुं० । अस्त होता । दो० ३१६ अथवा : अव्यय (सं०) । या (विकल्प) । मा० ७.१२८ अथाई : 'अथाई'+बहु० । अथाइयाँ, सभाशालाएँ । 'हाट बाट घर गली' अथाई।' मा० २.११.३ अथाई : सं० स्त्री० (सं० आस्थायिका>प्रा० अत्थाइआ>अ० अत्थाई)। सभा भवन, दरबार । विन० ६२.७ । अदन : वि० । खाने वाला । 'बिष अदन सिव ।' कवि० ७.१५२ अद्भुत : अद्भुत । मा० १.१४३.२ अदम्र : वि० (सं०) अविरल, अनल्प, व्यापक, महान् । 'अगुन अदम्र गिरा ___गोतीता।' मा० ७.७२.५ अदर्भ : वि० (सं०) बन्धनरहित, असीम=अदभ्र । विन० ५४.७ अदाग : वि० (फ्रा० दाग) कलंकरहित, निष्पाप । वैरा० ४४ प्रदाया : निर्दयता । मा० ६.१६.३ अदिति : सं० स्त्री० (सं०) देवमाता। मा० १.३१.१४ अदिनु : सं० पु० कए । संकट का दिन, विपत्ति काल, दुर्भाग्य । 'अदिनु मोर नहिं दूषन काहूं।' मा० २.१८१.७ अदूषन : वि० (सं० अदूषण) दोषरहित । शुद्ध गी० ७.१६.७ अदृश्य : वि० (सं० अदृश्य) लुप्त, अन्तर्हित । मा० १.१८६ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 19 अदेय : वि० (सं०) जो दिया जा न सके, जो देने योग्य न हो । मा० १.१४६.८ अदोषा : वि० (सं० अदोष) दोषरहित । निष्कलुष । 'राम पेम बिधु अचल अदोषा।' मा० २.३२५.६ अद्भुत : सं० पु+वि० (सं० न भूतमिति अद्भुतम्) अभूतपूर्व, अपूर्व, आश्चर्यजनक (२) नौ रसों में से एक रस जिसका स्थाई भाव विस्मय होता है। मा० १.१६२.छं० अद्रि : सं० पुं० (सं.)। पर्वत । विन० ४३.४ अद्वितीय : वि० (सं०) जिससे दूसरा कोई न हो=द्वितीय रहित; अद्वैत, अनुपम । विन० ५३.३ अद्वैत : वि०+सं० पुं० (सं.) द्वैतरहित, अद्वितीय, अभेद, अखण्ड, अनेकत्व रहित, एकमात्र सत्ता=ब्रह्मा० । मा० ७.१३.छं०६ अध : अव्यय (सं० अधस्) नीचे । 'अध अर्ध बानरु ।' कवि० ५.१७१ अधगति : सं० स्त्री० (सं० अधोगति) तीन प्रकार की जीव-गतियां दर्शनों में बताई गई हैं-(१) अर्ध गति सात्त्विक देवयोनियाँ (२) मध्यगति=राजस मनुष्य योनि (3) अधोगति = तमोगुणी पशु-पक्षी, कीट-पतङ्ग, वृक्षादि योनियो । 'रहु अधमाधम अधगति पाई।' मा० ७.१०७.८ अधगो : सं० पु (अधः= नीचे+गो= इन्द्रिय)। पायु, मलत्यागेन्द्रिय । मा० ६.१५.८ अधजरति : वि० स्त्री० (१) (सं० अर्धजरती) अर्धवद्धा। (२) (सं० अर्ध ज्वलंती) अधजली होती हुई । 'निकसि चिता तें अधजरति मानहुं पती परानि । दो० २५३ अधन : वि० (सं०) निर्धन । मा० १.१६१.४ अधबिच : क्रि० वि० (सं० अर्ध-वर्त्म>अ० अविच्च) आधे मार्ग में, बीचो-बीच में । गी० ७.३.५ अधम : वि० (सं०) नीच, निम्न कोटि का, अधोगत । मा० १.१८.२ अधमउ : अधम भी। अधमउ मुकुट होई श्रुति गावा। मा० ३.१३.६ अषमाई : सं० स्त्री० (सं० अधमता) नीचता । ‘सहि सम अधिक न अध अधमाई।' मा० २.२११.२ अधमाधम : अधर्मों में भी अधम, अत्यन्त नीच जो नीचवर्ग में भी नीच माना जाता हो । मा० ७.१०७.८ अधमारे : वि. पु. (सं० अर्धमारित>प्रा० अद्धमारिय) जिन के मार डाले जाने में कमी रह गई हो। मा० ५.१८.६ अधर : (१) वि० (सं०) निम्न, नीच, अवर । 'तीय अधरबुद्धि शनि ।' २.१६ (२) सं० पुं० । ओठ । मा० १.१३६.२ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोशः अधराधर : (अधर+अधर) नीचे का ओठ । 'अधराधर पल्लव खोलन की।' कवि० १.५ अधर्म : सं० पु० (सं०) धर्म विरुद्ध आचरण, पाप । मा० ७.६६ ख अधार, रा : सं० ० (सं० आधार) आश्रय, सहारा । मा० १.२२.७ अधारु : कए० । अद्वितीय आधार । 'एक नाम अधारु सदा जन को।' कवि० ७.८७ अधिक : वि० (सं०)। प्रचुर, अत्यन्त, अतिशय । अधिका : अधिक । मा० ३.४२.८ अधिका, अधिकाई : (सं० अधिकायते-अधिक होना) आ० प्रए अधिक होता है, बढ़ता है । 'नित नूतन अधिकाई।' मा० १.६४ अधिकाई : अधिकता के कारण । 'टाप न बूड़ बेग अधिकाई ।' मा० १.२९६.७ अधिकाई : (१) भू० कृ० स्त्री। बढ़ गई। 'पुरु खरभरु सोमा अधिकाई ।' मा० १.६५.१ (२) सं० स्त्री० । अधिकता, प्रचुरता । 'लहहिं सकल सोभा अधिकाई ।' मा० १.११.२ (३) अधिकता से । 'तपइ अवाँ इव उर अधिकाई ।' मा० १.५८.४ (४) =अधिकाई । बढ़ता है। 'जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई।" मा० १.१८०.२ अधिकाति : व. कृ. स्त्री० । बढ़ती, परिवृहित होती। मा० १.३५६ अधिकान, ना : भू० क.पु० । बढ़ गया ।' उर अनन्दु अधिकान ।' मा० २.५१ अधिकानि, नी : स्त्री० । बढ़ी । गी० १.४.८ अधिकाने : भू० कृ० पु. बहु० । बढ़ गए। 'चिर जीवन लोमस तें अधिकाने ।' कवि० ७.४३ अधिकार : सं० पुं० (सं०)। योग्यता, पात्रता, पद तथा पदानुकूल स्वामित्त्व । मा० १.६०.७ अधिकारी : वि. पु. (सं.)। पात्र, विषय विशेष की योग्यता वाला। राम भगति अधिकारी' मा० १.३०.४ (२) पद का स्वामी। 'अगिनि काल जम सब अधिकारी।' मा० १.१८२.१० अधिक : क्रि० वि०+कए। अतिशय के साथ । 'अधिक अधिक गरुआइ।" मा० १.२५० अधिकौहैं : क्रि० वि० प्रचुरता से, अधिक रूप में । गी० ७.४.४ अधिप : वि० पुं० (सं०) स्वामी। मा० २ श्लो० अधिभूत : वि० (सं.) भूत प्राणियों से सम्बन्धित, पाङचभौतिक सृष्टि सम्बन्धी। सर्प, व्याघ्र आदि तथा मनुष्यादि से प्राप्त । दे० अधिभौतिक । 'अधिभूतबेदन बिषम होति भतनाथ ।' कवि० ७.१६६ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 21 अधिभौतिक : (दो आधिभूत) वि० (सं० आधिभौतिक)। प्राणियों तथा भूत प्रेत आदि से मिलने वाला। 'अधिभौतिक बाधा भई ते किंकर तोरे ।' वि० ८.३ संख्या में तीन प्रकार के दुःख गिनाये गये हैं-(१) आध्यात्मिक (2) आधिदैविक तथा (३) आधिभोतिका दे० भिविधाति । अधिवास : सं० पु० (सं०)। अधिष्ठान, पूर्ण आधार। 'सर्वभूताधिवासं ।' ___ मा० ७.१०८.१४ अधीन : वि० (सं०) आश्रित, वशीभूत । मा० २.२६३.५ अधीना : अधीन । मा० १.१५१.६ अधीर : वि० (सं०) धैर्यहीन। मा० २.१६१ अधीरा : अधीर । मा० २.७०.२ आधीश : वि० पु० (सं०) ईश्वर, स्वामी । मा० ५ श्लो० ३ अनंग : अनंग । मा० १.१०८.७ अन : (१) अव्यय (सं० न>प्रा० अण) । दे० अनइच्छित आदि । (२) वि० सं० अन्य>प्रा० अण्ण) अपर, इतर । 'चातक बतियां ना रुची अनजल सींचे रूख ।' दो० ३१० अनंग : सं० पुं० (सं० अनङ्ग-अनङ्ग रहित) कामदेव । मा० ७.११.८ अनंगा : अनंग । मा० १.२८५.४ अनंगु : अनंग+कए । 'होइहि नामु अनंगु ।' मा० १.८७ अनंत, ता : (१) वि० (सं० अनन्त) अन्तहीन, असीम, अप्रमेय+असंख्य, अपरिमेय । 'राम अनन्त आनंत गन ।' मा० १.३३ (२) सं० पुं० । शेषनाग तथा शेषावतार लक्ष्मण । 'क्रोधवंत तब भयउ अनंता।' मा० ६.५४.४ अनंद, दा : सं० पुं० (सं० आनन्द) आह्लाद । मा० १.४०.८ अनंदित : वि० (सं० आनन्दित) आह्लादित, सुखी । 'खगमृग बृद आनंदित रहहीं।' मा० ३.१४.३ अनंदु, दू : आनंद+कए । एकमात्र आनन्द, अद्वितीय आह्लाद । 'उर अनंदु अधिकान ।' मा० २०५१ अनंदे : भू० कृ० वि० पुं० बहु० (सं० आनन्दित>प्रा० आणंदिय) सुखी हुए। 'तब मयना हिमवंतु अनंदे ।' मा० १.६६ १ अन-अहिबातु : अहिवात के विपरीत=विधवात्व । मा० २.२५.७ अनइच्छित : अनचाहा, अनचाहे, । मा० ७.११६.४ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 तुलसी शब्द-कोश अनइस : वि० (१) (सं० आन्याहश > अ० अण्णाइस) अन्य जैसा = प्रतिकूल (२) (सं० अनीश >> अणइस) विपरीता अशुभ, अनचाहा । ' करत नीक फलु अनइस पावा ।' मा० २.१६३.६ अनख : सं० (सं० अनक्ष ? ) आंख न देना, उपेक्षा, अवज्ञा, अनादर, अवज्ञापूर्वक अमर्ष । ‘कस सहि जात अनख तोहि पाहीं ।' मा० ३.३०.१५ 'भायँ कुमायँ अनख आलस हूं ।' मा० १.२८.१ अनखानि : अनख करने की क्रिया । गी० १.२१.२ I अनख हैं : आ० प्र० । अनख मानेंगे, अमर्ष करेंगे । 'खल अनखहैं तुम्हैं सज्जन न गामि हैं ।' कवि० ७-७१ अनखौंही : वि० स्त्री०. बातें ।' कवि १.१६ अनगनी : वि० [स्त्री० (सं० अगणिता) असंख्य । 'नर-नारी रचना अनगनी ।" गी० १.५.१ अद्य : वि० (सं०) अधारहित, निष्कलुष, निर्विकार । मा० १.२२.६ अनचह्यो : भू० कृ० वि० पु० कए० । अनचाहा, अनाहत । 'दूहाँ भलो अनचह्यो हौं ।' विन २६०.४ 01 - अनख भरी हुई । 'रोष माखे लखनु अकनि अनखोंहीं I अनजानत: वकृ० वि० + क्रि०वि० (सं० अजानत् > प्रा० अणजाणंत) । (१) बिना जानते हुए — 'अनजानत हरि लायो ।' गी० ६.२.३ (२) न जानते हुए - 'छमिअ चूक अनजानत केरी ।' मा० १.२८२.४ अनट : सं० पु० ( १ ) ( सं अनर्थ > प्रा० आणट्ट) प्रयोजन-हानि । कार्य-हानि, उलझन, अयोग्य स्थिति । 'मिटिहि अनट अवरेब ।' मा० २.२६.६ (२) सं० अनाट्य>प्रा० अणट्ट) नाट्य में संग्राम, मेला आदि अभिनेय (नाट्य) नहीं होते । रस भङ्ग की सभी बातें अनाट्य होती हैं जिनके आ जाने से सामाजिक को नीरसता ही मिलती है । अतः ऐसी दशा 'अनट' है जो कणेशकर हो । दो० ४६६ अनत : क्रि० वि० अव्यय (सं० अन्यतः > प्रा० अण्णत्तो ) अन्य ओर । (२) (सं० अन्यत्र > प्रा० अण्णत्त ) अन्य स्थान पर । 'सुनत बचन फिरि अनत निहारे ।' मा० १.२७०.२ अनन्य : वि० (सं०) एक के अतिरिक्त किसी के प्रति निष्ठा हीन + सबके प्रति एक की ही निष्ठा लेकर व्यवहार करने वाला । सो अनन्य जाकेँ असि मति न हनुमंत । मैं सेवक सचराचर रूपरासि भगवंत || ' मा० ४.३ अनन्यगति: वि० (सं० - नास्ति अन्यागतिर्यस्यसः ) एक को छोड़ अन्य आश्रय न मानने वाला | 'सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ ।' मा० ४.३.८ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 23 अनपायनी : वि० स्त्री० (सं० अनपायिनी)। अपाय=विकार+क्षय से रहित । अविचल, ६७, अपरिवर्तनीय । 'अनपायनी भगति प्रभु दीन्ही ।' मा० ४.२५.८ अनबध : अनवध । निर्दोष । 'अज अनबध अकाम अभोगी।' मा० १.६०.३ अनबन : वि० । अकृत्रिम, प्राकृतिक, विविध । 'कंद 'मूल जल थल रूह अगनित अनबन भांति ।' गी० २.४७.३ अनबिचारमनीय : वि० (सं० अविचार-रमणीय) असत् । आपातरमणीय जिसकी मनोरमता तभी तक है जब तक विवेक नहीं आता । 'अनबिचार-रमणीय सदा संसार भयंकर भारी।' विन० १२१.४ अनमएं-क्रि० वि०-न होने की स्थिति में, बिना हुए । 'नप जागेउ अनभएँ बिहाना ।' मा० १.१७२.२ अनमल : वि०+सं० । अशुभ, अयोग्य, अभद्र । 'अनभल देखि न जाइ तुम्हारा' मा० २.१६.७ अनभले : अनभल+बहु० । दो० ३४५ अनभलो : अनभल+कए । दो० ३६८ । अनभाई : वि० स्त्री० । अनचाही, अरुचिकर, भावहीन । विन० १६५.३ अनभाए : वि० पु. बहु० । भावहीन, अनचाहे, अरुचिकर । गी० २.८८.४ अनमनि : वि० स्त्री० (सं० अन्यमनस्का>प्रा० अण्णमणी) अनेकान, उद्विग्न । 'का अनमनि हंसि कह हंसि रानी ।' मा० २.१३.५ अनमायो : भू० कृ० कए। जो अटा नहीं, भीतर समाया नहीं। 'क्यों कहों प्रेम अमित अनमायो।।' गी० ५.२१.६ अनमिल : वि० (सं० अमिल>प्रा० अणमिल) । बेमेल । 'अनमिल आखर' मा० १.१५.६ अनमोल : अमोल । कवि० २.१३ अनय : सं० पु.० (सं.)। अनीति, अन्याय, सिद्धान्त या मर्यादा के विपरीत आचरण । दो० ५१५ अनयन : वि० (सं०) नेत्रहीन । मा० १.२२६.२ अनयासा : वि०+क्रि० वि० (सं० अनायास) बिना प्रयास के । मा० १.२५.२ अनरथ : सं० पु० (सं० अनर्थ) प्रयोजन हानि, कार्य हानि, क्षति, संकट, बाधा । 'लखन लखेउ भा अनरथ आजू ।' मा० २.७३.७ अनरथु : अनरथ+क ए। मा० २.१५७.५ अनरस : सं० पु० (सं० अन्य रस+अन्न रस) अन्न के स्वाद तथा अन्य सभी रस । 'तो नवरस, षटरस, रस, अनरस ह जाते सब सीठे।' विन० १६६.१ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 तुलसी शब्द-कोश अनरसत: वकृ पुं० । अरस= = रसहीन होता होते । विन्न होता -होते । खीझताते । 'हंसे हंसत, अनरसे अनरसत ।' गी० १.१६.२ अनरसनि : नीरस होने की क्रिया । खीझना । गी० १.२१.२ अनरसे : भू० कृ० पु ं० बहु० ( १ ) अप्रसन्न, शिथिल, अस्वस्थ । 'आजु अनरसे हैं मोर के पय पियत न नीके ।' गी० १.१२.१ ( २ ) अप्रसन्न होने पर । 'हंसे हंसत, अनरखे अनरसत । गी० १.१६.२ अनर्थ : (दे, अनरथ) । हनु० १२ अनल : सं० पुं० (सं०) अग्नि । मा० १.५.८ अनलु : अनल + क ए । मा० १.३२३ उत्तम, निर्दोष अनवध : वि० (सं० - न + अवध अनवध) अनिन्ध | अमन्द, निर्विकार । मा० ३.११.१२ अनवरत: वि० + क्रि० वि० (सं० ) निरन्तर, अविच्छिन्न, अखण्ड, शाश्वत । विन० १०.७ अनवसर : सं० पुं० (सं०) असमय, अवसर का अभाव, प्रतिकूल अवसर । गी० ५.३८.३ अनसमुझे : क्रि० वि० । बिना समझे बूझे, बिना विचारे ही । 'अनमुझें अनुसोचनो ।' दो० ४८६ अनहित: सं० पु० + वि० (सं० अहित ) ( १ ) अनभला । 'अनहित तारे प्रिया केई कीन्हा ।' मा० २.२६.१ ( २ ) शत्रु, अनिष्टकारी । ' हित अनहित मध्यम भ्रम फन्दा ।' मा० २.६२.५ (३) अहितकर हित अनहित नहिं कोई' - मा० १.३ अनाज : सं० पु० (सं० अन्नाद्य > प्रा० अन्नज्ज) खाद्य अन्न । दो० ४५३ अनाजू : अनाज + कए । मा० २.२७८.७ अनाथ, था : वि० (सं०) (१) प्रार्थनीय आश्रय से रहित, दीन हीन । मा० १.१४६.३ (२) जिसका कोई स्वामी न हो = स्वयं प्रभु । बर० ३५ अनाथन : अनाथ + सब । अनाथो ( को ) । 'नाथ अनाथनि पाहि हरे ।' मा० ७.१४.८ अनाथा : अनाथ । मा० २.७१.३ अनादर : सं० पु० (सं० ) । उपेक्षा, असम्मान, अपमान । विन० १७६.१ अनादि : वि० (सं०) आदिहीन, अज्ञातजन्मा या अजन्मा । 'अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि ।' मा० १.६८.३ अनादी : अनादि । मा० १.१०८.५ अनाम, मा: वि० (सं० अनामन् ) । नामरहित, शब्द शक्ति से परे । मा० १.१३.३ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 25 अनामय : वि० (सं०) आभय =रोग, दोष, विकार से रहित । अजरामर, निष्पाप । मा० १.२२.२ अनायास : क्रि० वि० (सं०) बिना किसी प्रयास के ही। 'अनायास उधरी तेहिं काला।' मा० २.२६७.४ अनारंभ : वि० (सं०) आदिहीन+उत्पत्तिहीन । अजन्मा । 'अनारंभ अनिकेत अमानी।' मा० ७.४६.६ न्यायदर्शन आरम्भवादी है जो ईश्वर को कर्ता मानकर, उसके द्वारा परमाणुओं से प्रपञ्च की सष्टि को मान्य करता है । इसके विपरीत वैष्णव दर्शन में ईश्वर को अविकृत परिणाम लेने वाला मानकर उपादान तथा निमित्त कारणों के रूप में मान्य किया गया है; वह बाहर से सामग्री लेकर आरम्भ नहीं करता। अनिदिता : वि० स्त्री. (सं०) अनवधा, वाह्य तथा आभ्यन्तर कलुषों से रहित, सर्वथा निर्दोष । मा० ७.२४.६ अनिकेत : वि० (सं०) गृहरहित, आश्रयहीन, स्वाधिष्ठान, स्वाश्रति, निकेत= गृह+सूचक से रहित, अज्ञेय । 'अनारंभ अनिकेत अमानी ।' मा० ७.४६.६ अनिप : सं० पुं० (सं० अनीकप) सेनानायक । मा० ६.४६.१० अनिमादिक : अणिमा इत्यादि आठ योगसिद्धियां-अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा । प्राप्तिः प्राकाम्यमीशिवत्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धयः॥ (१) अणिमा =सूक्ष्म होने की शक्ति। (२) महिमा=महान् हो जाने की शक्ति । (३) लघिमा-हलका होने की शक्ति । (४) गरिमा =भारी होने की शक्ति । (५) प्राप्ति=जहाँ चाहें, जाने की शक्ति । (६) प्राकाम्य=अभीष्ट वस्तु सुलभ करने की शक्ति। (७) ईशित्व =सब पर प्रभुता की शक्ति । (८) वशित्व=सबको वशीभूत करने की शक्ति । 'होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं ।' मा० १.२२.४ अनियत : आनियत । वक पु० क वा। लाया जाता। 'महिमा समुचित डर अनियत ।' विन० १८३.३ अनिर्बाच्य : वि० (सं० अनिर्वाच्य=अनिर्वचनीय) वाणी द्वारा जिसका निर्वचन= विवेचन असम्भव हो, अकथ्य, अप्रमेय । 'पावा अनिर्वाच्य बिधामा।' मा० ५.८.२ अनिल : सं० पु० (सं.) वायु । मा० १.७.१२ अनिश : क्रि०वि० (सं०) निरन्तर सदैव, अविराम। मा० ५.२ श्लो० १ अनी : सं० स्त्री (सं० अनीक>प्रा० अणीअ) सेना। मा० २.१२६ छं. अनीकाका : सं० पु० (सं० अनीक) =अनी । 'कलुष अनीक दलन रनधीरा।' मा० २.१०५.६ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 तुलसी शब्द-कोश अनीति : सं० स्त्री. (सं०) नीतिविरुद्ध आचरण, मर्यादा-रहित व्यवहार । मा० १.१८३ अनीती : अनीति । 'मिटइ भगति पथु होइ अनीती।' मा० १.५६.८ अनीस : सं० पुं०+वि० (सं अनीश) ईश्वर से भिन्न =जीव जो सर्व शक्तिमान नहीं है । 'ईस अनीसहि अंतरु तैसें ।' मा० १.७०.२ अनीह : वि० (सं०) ईह=इच्छा से रहित, निष्काम, निरपेक्ष, उदासीन । मा० १.१३.३ अनु : अव्यय (१) संस्कृत का उपसर्ग-'अनुकूल' आदि में (२) 'अन्यथा' के अर्थ में अपभ्रंश का स्वतन्त्र प्रयोग । 'देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं।' मा० २.३०.४ अनुकथन : सं० पुं० (सं०) अनुकीर्तन, प्रश्नोत्तर में विचार विनिमय, शास्त्रीय निर्णय हेतु वाद-विवाद, निश्चय बोध हेतु तर्क-वितर्क । 'सुनि अनुकथन परसपर होई ।' मा० १.४१.३ मनुकूल (अनुकूला) : वि० (सं०) (१) अपने पक्ष में आने वाला । मा० १.१५.७ (२) ओर, प्रति (जनक) । 'चली बिपति बारियी अनुकला ।' मा० २.३४.४ (३) दर्शनों में 'उत्पादक' अर्थ भी होता है जो उक्त उद्धारण में व्यङग्य है। अनुकूले : भू० क. पुं० (बहु०) । अनुकूल किए हुए । 'नित नूतन सुख लगि अनुकूले ।' मा० १.३०४.८ अनुकूलो : अनुकूल+कए। गोसाईं सुसाई सदा अनुकूलो।' हनु० ३६ अनुग : वि० पु० (सं०) अनुगामी, अनुचर । 'राम अनुग जगु जान ।' मा० २.२२६ अनुगंता : अनुग। (सं.)। विन० ३८.३ अनुगनि : अनुग+सं० बं० । अनुगों, अनुचरों। 'उतरि अनुज अनुगनि समेत ।' गी० ६.२१.५ अनुगामी : वि० (सं० अनुगामिन्) । अनुग, अनुसरणकारी । मा० १.१७.६ अनुग्रहं : अनुग्रहपूर्वक । अनुग्रह से । 'राम अनुग्रहं सगुन सुभ ।' रा० १० ६.५.६ अनुग्रह : सं० ० (सं.)। कृपा, अनुकम्पा । मा० २.३.७ अनुग्रहु : अनुग्रह+कए। 'कृपा अनुग्रह अंगु अधाई।' मा० २.३००.५ 'कृपा' से प्रभु के सामर्थ्य की व्यञ्जना होती है जबकि 'अनुग्रह' से भक्त को ग्रहण करने-अपना अङ्ग बना लेने का अर्थ आता है । अनुचर : वि०पु० (सं०) पीछे चलने वाला, अनुगामी, परिचारक । मा० १.२७८.१ अनुचरन्ह : अनुचर+कए । अनुचरों (ने) । 'मम अनुचरन्ह कीन्ह मख भंगा।' मा० ७.५६.४ अनुचरी : वि० स्त्री० बहु० । अनुचरियां, पीछे चलने वाली परिचारिकाएं, दासियां । 'तव अनुचरी करउं, पन मोरा ।' मा० ५.६.५ ।। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 27 अनुचित : वि० (सं०) उचित का विलोम, अनर्ह अयोग्य । मा० १.६२.१ अनुचितु : अनुचित+कए । एकमात्र =प्रथम अनुचित आचरण । 'अनुचितु छमब जानि लरिकाई।' मा० २.४५.६ अनुज : सं० पु. (सं०-अनु पश्चात् जमः) । छोटा भाई। अनुजन्ह : अनुज+सं०बं० । अनुजों (के प्रति) । 'आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई।' मा० १.२०५.६ अनुजहि : अनुज को। मा० १.२२५.३ अनुजा : सं० स्त्री (सं.)। छोटी बहन । मा० ७.१०२ छं० अनुदिन, अनुदिनु : क्रि० वि० (सं० अनुदिनम्) प्रतिदिन । मा० २.२०५.२ जा०मा० अनुपम : वि० (सं.)। उपमा रहित, अप्रतिम, अद्वितीय। मा० १.३६ अनुबाद, दा : सं० पु० (सं० अनुवाद) अनुकथन, पुनर्वचन, व्याख्याओं द्वारा वस्तुनिरूपण, प्रमाणीकरण । 'सुनत फिरउ हरिगुन अनुबादा।' मा० ७.११०.१२ दर्शनों में चार प्रकार के 'अनुवाद' बताए गए हैं-(१) यथार्थ कीर्तन (२) स्तुतिपरक कथन (३) गुण विवेचन और (४) अर्थवाद= अतिशयोक्तिपरक कथन । अनुभयउ : भू० कृ० पुं० कए । अनुभव किया, भोगा। 'मोहिसम यहु अनु भयउ न दूजें।' मा० २.३.६ अनुभूये-अनुभव किये, भोगे । 'नये-नये नेह अनुभये देह गेह बसि ।' विन० २६४.२ अनुभव : सं० पु० (सं०) बोध-प्रत्यक्ष अनु मिति तथा शाब्द प्रत्यय । 'उमा कहउँ ___ मैं अनुभव अपना ।' मा० ३.३६.५ (२) आत्म साक्षात्कार, स्वसंवेदन, स्वानुभूति । 'अनुभव-गम्य भईि जेहि संता । मा० ३.१३.१२ अनुभव, अनुभवइ : (स० अनुभवति>प्रा० अणुहवइ) आ० प्रए। अनुभव करता है, स्वसंवेदा बनाता है-'सोइ हरिपद अनुभवै परम सुख ।' विन० १६७.४ अनुभवगम्य : वि० (सं०) स्वसंवेदनमात्र से ज्ञातव्य, साक्षिमास्य =जिसे दूसरे को इन्द्रियगम्य नहीं बना सकते, स्वयं ही जान सकते हैं, स्वानुभूति के अतिरिक्त अन्य प्रमाणों से प्रमेय न होने वाला, अप्रमेय, अनिर्वचनीय । मा० ७.१११.४१ अनुभवति : वकृ० स्त्री । स्वयम् अनुभूति में जाती स्वसंवेदा बनाती । 'उर अनुभवति __ न कहि सक सोऊ ।' मा० २.४२ अनुभवहिं, हीं : आ० प्रब० । अनुभव करते हैं, स्वानुभूति में जाते हैं, स्वसंवेदा ___ बनाते हैं । 'बचन अगोचर सुखु अनुभवहीं । मा० २.१०८.४ । अनुभवहि : आ० मए । तू अनुभव कर, साक्षात् जान ले । 'तुलसी तू अनुभवहि अब राम बिमुख की रीति ।' दो० ७३ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 तुलसी शब्द-कोश अनुभवे : अनुभये । मानसिक रूप से जाने | 'बंचक विषय विविध तनु धरि अनुभवे सुने अरु दीठे ।' विन० १७६.२ अनुभव : अनुभवइ । अनुभाऊ : सं० पुं० (सं० अनुभाव ) + कए ० । ( १ ) प्रभाव ( २ ) आंतरिक मनःस्थिति (भाव) के सूचक व्यापार जो चार प्रकार के हैं— कायिक, वाचिक, सात्त्विक और आहार्य । 'बरनि सप्रेम भरत अनुभाऊ । मा० २८६.३ अनुभौ : अनुभव । गी० १.६६.३ मा० ४.१.५ अनुमान : सं० पु० (सं०) ज्ञात वस्तु के आधार पर अज्ञात वस्तु का बोध । 'सती हृदयं अनुमान किय । मा० १.५७ (२) क्रि० वि० । मात्रा या प्रमाण के अनुसार । 'बल अनुमान सदा हित करई अनुमाना : (१) अनुमान । (क) अनुरूप अनुसार । 'कहहि स्वमति अनुमाना ।' मा० १.२१.४ ( ख ) समान । 'मुख नासिका नयन अरु काना । गिरि कंदरा खोह अनुमाना । मा० ६.१९.६ ( ग ) तर्क । ' करत कोटि बिधि उर अनुमाना ।' मा० २.२६६.६ (२) भू० कृ० पु० अनुमान किया । ' इहां संभु अस मन अनुमाना ।' मा० १. ५२.५ अनुमानि : पूकृ० । अनुमान करके । मा० १.११८.१ अनुमानी : (१) अनुमानि । मा० १.१०७.५ (२) वि० पुं० (सं० अनुमानिन ) । अनुमान करने वाला = नैयायिक । 'तरकि न सकहिं सकलु अनुमानो ।' मा० १.३४१.७ अनुमाने : भूकृ० पु० ( बहु० ) । अनुमान से ज्ञात किये । मा० १.६६.३ अनुमोदन : सं० पु० (सं०) समर्थन, सहर्ष सहमति | 'कहहिं सुनहि अनुमोदन करहीं ।' मा० ७.१२६.६ अनुराग : (१) सं० पु० (सं०) स्नेह, मन को तन्मय करने वाला प्रेम । मा० १.११ (२) आ० - आज्ञा मए । तू अनुराग कर । 'जागि त्यागि मूढ़ताऽनुराग श्रीहरे ।' विन० ७४.१ अनुराग, अनुरागइ : (अनुरक्त होना) आ० प्र० । अनुरक्त होता है । 'सो कि दोष गुन गनइ जो जोहि अनुरागइ ।' पा० मं० ६७ अनुरागॐ ॐ : आ० कए । अनुराग करूं, अनुरक्त होता हूं । 'राम पद अनुरागऊँ ।' मा० ४.१० छं० अनुरागह हीं : आ० उब । अनुराग करते हैं । अनुरक्त हों । ' तव चरन हम अनुरागहीं ।' मा० ७.१३ छ अनुराग, हू : आ०म०ज० अनुराग करो । 'राम पद अनुरागहू ।' मा० ३.३६ छं० Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 29 अनुरागा (१) अनुराग । मा० ११.१ (२) भू० कृ० पु । अनुरक्त हुआ। 'सिय मनु राम चरन अनुराग।' मा० २.७८.५ अनुरागिहै : आ० प्रए+मए। अनुराग करेगा। ‘मन राम नाम सों सुभाय अनुरागिहै ।' विन० ७०.१ अनुरागी : भूकृ. स्त्री० बहु० । अनुरक्त हुईं । मा० १.२४७.२ अनुरागी : (१) वि० पु० (सं० अनुरागिन् ) अनुराग युक्त । 'तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी।' मा० १.११२.८ (२) भू० क. स्त्री० अनुरक्त हुई। मा० २.१६६.२ अनुरागु, गू : (१) अनुराग+कए । अनन्य प्रेम। मा० १.१७७ (२) आ० आज्ञा-मए। तू अनुराग कर । 'अब नाथहि अनुरागु जागु जड़।' विन० १६८.४ अनुरागें : अनुराग से स्नेहपूर्वक । 'विनय कीन्हि तिन्ह अति अनुरागें ।' मा० १.३०६.२ अनुरागे : भू० कृ०० बहु० । अनुरक्त हुए । 'अस कहि अपर भूप अनुरागे।' मा० १.२४६.७ अनुरागेउ : आ० भू० कृ० +उए । मैं अनुरक्त हुआ।' 'सुनि प्रभु बचन बहुत अनुरागे।' मा० ७.८४.३ अनुरागेउ : भू०० पु० कए अनुरक्त हुआ। 'देखि मनोहर मूरति मनु अनुरागेउ ।' जा० मं० ४६ अनुराग : अनुरागइ। विन० १३६.११ अनुरागौं : अनुरागउँ । 'परिहरि पायं काहि अनुरागौं ।' विन० १७७.१ अनुराग्यो : अनुरागे। अनुराग युक्त । 'निरन्तर रहत विषय अनुराग्यो ।' विन० १७०.१ अनुरूप (पा) : वि०+क्रि०वि० (सं०) अनुसार, समान, प्रतिरूप । ‘मति __ अनुरूप राम गुन गावउँ।' मा० १.१२.६ अनुरोध : सं० पु. (सं० अनुरोध)+कए. विनीत आग्रह । 'राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू ।' मा० २.५५.४ अनुलेपन : सं० पु० (सं०) चन्दन आदि का लेप । गी० ७.१६.४ अनुसंधाना : सं० पु० (सं० अनुसंधान) अपेक्षा, आशा । 'हृदयं न कछु फल अनुसंधाना ।' मा० १.१५६.१ अनुसर, अनुसरइ, ई : (सं० अनुसरति>प्रा० अणुसरइ-पीछे चलना, अनुसरण करना) आ० प्रए। अनुसरण करता है-करे । 'जिमि पुरुषहि अनुसार परिछाहीं।' मा० २.१४१.६ 'सोइ-सोइ तब आयसु अनुसरई ।' मा० १.१६८.६ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 तुलसी शब्द-कोश अनुसरऊँ : आ० उए। अनुसरण करूं (करता था)।' तह-तहं राम भजन अनुसरऊँ ।' मा० ७.११०.१ अनुसरहीं : आ० प्रब० । अनुसरण करते हैं, अनुसार आचरण करते हैं । 'फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं।' मा० १.३.१० अनुसरहु, हू : आ० मब० । अनुसरण (पालन) करो। 'सिर धरि गुर आयसु अनुसरहू ।' मा० २.१७६.६ अनुसरहुगे : आ० भ० पु० मब० । अनुसार आचरण करोगे । विन० २११.२ अनुसरिए, ये : आ० क० बा० । अनुसरण किया जाता है। 'जाते बिपति जाल निसदिन दु:ख तेहि पथ अनुसरिए।' बिन० १८६.२ अनुसरु : आo-आज्ञा-मए । तू अनुसरण कर । 'सिर प्रनाम सेवा कर अनुसरु।' विन० २०५.३ अनुसरे : भू० कृ० पुं० बहु० । अनुसरण करके आये । 'अब प्रभु पाहि सरन ____ अनुसरे ।' मा० ६.११०.१२ अनुसरेहू : आ० भ०+प्रे० मब० । तुम अनुसरण (पालन) करना । 'धर्म अनुसरेहू।' मा० ७.२०.२ अनुसर : अनुसरहिं । गी० १.७१.२ अनुसार : सं०+क्रि० वि० (सं०) । अनुरूप, अनुकूल । 'निज विचार अनुसार ।' मा० १.२३ अनुसारा : अनुसार । 'समुझि परी कुछ मति अनुसारा । मा० १.३१.१ अनुसारी : (१) वि० पु० (सं० अनुसादिन्) अनुरूप। 'देसकाल अवसर अनुसारी-बोले बचन ।' मा० २.४५.५ (२) भूकृस्त्रीण चलाई, छेड़ी। 'तातें कछुक बात अनुसारी।' मा० २.१६.८ । अनुसासन : सं० पु० (सं० अनुसाप्सन) (१) आदेश, संदेश । 'सिव अनुसासन सुनि सब आए।' मा० १.६३.५ (२) विधि-विधान, नियम । 'कोउ नहिं मान निगम अनुसासन ।' मा० ३.६७.२ अनुसुइया : (सं० अनसूया) । अत्रि की पत्नी (असूया ईर्ष्या से रहित)। मा० ३.५.१ . अनुसृत्य : पूकृ (सं०) । अनुसरण करके, मानकर । विन० ५०.५ अनुसोचनो : सं० पु० कए (सं० अशोचनम्)। अशोचनीय बात पर बार-बार शोक करना, व्यर्थ उधेड़ बुन करना । 'अनसमुझें अनुसोचनो।' दो० ४८६ अनुहर अनुहरइ,ई : (सं० अनुहरति>प्रा० अणुहरइ-सदृश प्रतीत होना, अनुरूप होना) आ० प्रए । समान या अनुरूप लगता है। 'सहज टेढ़, अनुहरइ न तोही।' मा० १.२७७.८ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 31 अनुहरत : वक पुं० । अनुरूप शोभा देता, समान प्रतीत होता । 'चरित करत नर अनुहरत ।' मा० २.८७ अनुहरि : पूकृ० । अनुसार ग्रहण करके--- अनुसरण करके । 'अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा।' मा० २.२४१.४ अनुहरिया : भू० कृ० पु। उपमति, अनुरूप पाया गया, अनुसार हुआ, उपमा ___ में आया। 'मुख अनुहरिया केवल चंद समान ।' बर०६ अनुहार : सं+पि० (सं.)। अनुरूप, योग्य, समान । 'सगुन समय अनुहार।' स० प्र० ७.१.३ अनुहारि : (१) वि. स्त्री० । अनुरूप लगने वाली । 'बर अनुहारि बरात न भाई ।' मा० १.६३.१ (२) पूकृ० । अनुसार करके, समान बनाकर । 'बोले बचन समय अनुहारि ।' मा० १.२३० अनुहारी : अनुहारि अनुसार । 'सुभ अरु असुभ करम अनुहारी-ईसु देइ फल ।' मा० २.७७.७ (२) सं० स्त्री०। प्रतिकति, प्रतिभूति, समान आकृति । 'भरतु राम ही की अनुहारी।' मा० १.३११.६ अनूप (पा) : वि० (सं० अनूप =जलाशय के निकट की भूमि) पवित्र, शीतल - प्रभाव वाला, सुखद, उत्तम । 'ब्रह्मसुखहिं अनुभवहिं अनूपा । मा० १.२२.२ अनुपम : अनूपम । अद्वितीय । मा० १.१६.२ अनूपान : सं० ० (सं० अनुपान) पेय या लेह्य पदार्थ जिसे दवा के साथ लिया जाता है (शहद, स्वरस आदि) । मा० ७.१२२.७ अन्त : सं० वि० (सं०) असत्य । मा० ६.१६.३ अनेक, का : एक से अधिक, दो या बहुत । मा० १.६.६ अनेरे : वि० । विचित्र, उत्पाती। 'छोटे निपट अनेरे ।' कृ० ३ अनेरो : वि०+क्रि० वि० ० कष्ट । दूर-दूर, विचित्र, पराया जैसा। 'निसि दिन ___फिरते अनेरो।' विन० १४३.१ अन : अनय । गी० ५.४०.३ अनसी : 'अनइस'+स्त्री० । अयोग्य, अनुचित, प्रतिकूल । कबि० ७.६ अनसें : क्रि० वि० । अन्य प्रकार से अनुचित रीति से प्रतिकूल ढंग से। 'अजहुं बंधु तव चितव अनसें ।' मा० १.२७६.७ अन्तरात्मा : सं० पुं० (सं.)। जीव-चेतना के साथ अनुस्यूत परमात्मा= __ अन्तर्यामी ; प्रेरक । मा० ५ श्लो० २ अन्न : सं० पु. (सं०) (१) अनाज। मा० १.१०१.८ (२) खाद्य सामग्री। 'अन्न सो जोइ-जोइ भोजन करई ।' मा० १.१६८.६ । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 तुलसी शब्द-कोश अन्नपूरना : सं० स्त्री० (सं० अन्नपूर्णा ) । काशी में प्रसिद्ध एक देवी का नाम कवि० ७.१४८ अन्नप्रासन सं० पुं० (सं० अन्नप्राशन ) । शिशु को प्रथम वार अन्न खिलाना आरम्भ करने का कर्म विशेष । गी० ७.३५.२ अन्ने : वि० पुं० वहु० सं० अन्येग अन्य लोग । 'ये चापि अन्ने ।' विन० ५७.२ अन्य : वि० (सं० ) अपर, इतर, भिन्न अन्यत: : क्रि० वि० (सं० ) । अन्य ( स्रोतों) से । मा० १ श्लो० ७ अन्यथा : अव्यय ( सं ० ) । प्रतिकूल, अन्य प्रकार से, विपरीत । मा० १.७१.८ अन्याई : वि० (सं० अन्यायी ) अन्याय या उपद्रव करने वाला, उत्पाती, अनाचारी । कृ० ८ अन्याउ : 'अन्याय' + कए । अनुचित, अयोग्य । 'अति अन्याउ अली' । गी०२.१०.१ अन्याव : अन्याउ । दिन० २७२.३ अन्वेषण : सं०पु० (सं०) । खोज, गवेषण, अनुसन्धान । मा० ४. श्लो० १ अन्हवाइ, ई : पुकृ० । नहलाकर । मा० १.४३ अन्हवाइय : अन्हदावा । नहलाया । 'जुबतिन्ह मंगल गाइ राम अन्हवाइय' । रा०न० ३ अन्हवाएँ : नहलाने (से) । 'रामचरित सर बिनु अन्हवाएँ' मा० १.११.५ अन्हवाए : भू० कृ०पु० बहु० । नहलाये | 'एक बार जननी अन्हवाए ।' मा० १.२०१.१ अन्हवावउँ : आ० उ०प्र० । नहलाता हूँ । 'संकर चरित सु-सरित मनहि अन्हवावउँ ।' पा०म० ३ अन्हवावहु : अ० म० । नहलाओ । 'प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई' | मा० ७.११.२ अन्हवावा : भू० कृ०पु ं० । नहलाया । 'नृप तनु बेद बिदित अन्हवावा' । मा० २.१७०.१ अन्हवैया : विकृ० । नहाने वाला वाले । गी० १.६.६ अन्हव है : आ०ए० भ० । नहलायेगा । ' को भोरही उबरि अन्हव है' । गी० १.६६.२ अपकार : सं०पु० (सं० ) । दुर्व्यवहार ( उपकार का विलोम ) । मा० १.१३७.७ अपकारा : अपकार । मा० ६.२४.६ अपकारी : वि०पु० (सं०) अपकार करने वाला । मा० २.१७३.३ पकीरति : सं० स्त्री० (सं० अपकीर्ति) । अयश कुख्याति । मा० १.२७३.७ अपघरा : सं० स्त्री० (सं० अप्सरस् > प्रा० अच्छरा ) देवाङ्गना, स्वर्ग की नर्तकी मा० १.८५.छ० Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 33 अपजस : सं० पुं० (सं० अपयशस्) । अयश, अपकीर्ति, कुख्याति । मा० १.७ ख अपजसु : अपजस+कए। एकमात्र अयश। 'घरु जाउ अपजसु होउ ।' मा० १६६ छं० अपडर : सं० पु० (सं० आत्म-दर>प्रा० अप्पडर) अकारण भय, अपने-आप में डरना । 'अपडर डरेउँ न सोच समूलें।' मा० २.२६७.३ (दे० अपभय) । अपडरनि : अपडर+संब०। अपने-आप ही भयों से। 'अब अपडरनि डरयो हौं।' विन० २६६.३ अपडरे : भू०० पु बहु । अपने भीतर भयाक्रान्त हुए । मा० ६.८६ छं० अपत : वि० (सं० अपात्र>प्रा० अपत्त) अयोग्य, नीच, पातकी । कवि० ७६८ अपतु : अपत+कए। अद्वितीय पातकी। 'अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ ।' मा० १.२६.७ अपनपउ : सं० पुं० कए (सं० आत्मपदम्>प्रा० अप्पणपयं>अ० अत्पणपउ) । ___अपना पद, स्वरूप, स्वाधिकार । अपनाया। मा० २.१६० । अपनपौ : अपनपउ । 'सदा रहहिं अपनपी दुराएँ।' मा० १.१६१.२ अपना : वि. पु. (सं० आत्मन:>प्रा० अप्पणो) निजका । 'उमा कहउँ मैं अनुभव अपना ।' मा० ३.३६.५ अपनाइ : पू०। अपना करके, अङ्गीकत करके (अपना बनाकर)। मा० १.१६१.७ अपनाइम, अपनाइए : आ० क० बा० प्रए। अपना बनाइए, स्वीकार कीजिए। मा० ६.११६.७, विन० २६७.४ अपनाए : भू० कृ० पु बहु० । अपने बना लिए । 'सकृत प्रनाम किएँ अपनाए।' मा० २.२६६.३ अपनाय : अपनाइ। गी० ५.५१.४ अपनायति : सं० स्त्री०। आत्मीयता, अपनापन, घनिष्ठता। 'देखी सुनी न आजु लौं अपनायति ऐसी ।' विन० १४७.४ अपनाया भू० कृ० पुं० । अपना बना लिया, स्वीकार किया। 'जब तें रघुनायक अपनाया।' मा० ७.८६.३ अपनायो : अपनाया+कए । गी० ५.४४.३ अपनावा : अपनाया। 'निज जन जनि ताहि अपनावा।' मा० ५.५०.२ अपनियां : अपनी। 'प्रेम बिबस कछु सुधि न अपनियाँ ।' गी० १.३४.६ अपनी : अपनी में । 'अपनी समुझि साधु सुचि को भा ।' मा० २.२६१.२ अपनी : वि० स्त्री। निज की। मा० २.२८४.१ अपनी-अपना : एक सामूहिक होड़ जिसमें सब पहले कर लेना चाहते हैं। 'देव कहैं अपनी-अपना अवलोकन तीरथराज चलो रे।' कवि० ७.१४४ । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 तुलसी शब्द-कोश I अपनें : (१) अपने में । 'फिरत सनेहें मगन सुख अपनें ।' मा० १.२५. ८ ( २ ) अपने आप (से) । 'समुझि सहम मोहि अपडर अपनें ।' मा० १.२६.२ अपने : 'अपना' का रूपान्तर । निज के । मा० १.१२.५ अपना अपना + कए । गी० १.७०.४ अपरग : सं० पु० (सं० अपवर्ग ) परम लक्ष्य की प्राप्ति । मोक्ष - जिसके चार प्रकार हैं (१) सायुज्य ( २ ) सालोक्य ( ३ ) सारूप्य और ( ४ ) साष्टि । ' सुत चारी । जनु अपबरग सकल तनुधारी ।' मा० १.३१५.६ पबरगु: अपबंरंग + कए । मा० २.१३१.७ अपबर्ग, गा : अपबरग । मा० ५.४; ७.४६.७ अपबाद, दा: सं० पु० (सं० अपवाद) निन्दा, कुख्याति । मा० १.६४.३ अपबादु, दू : अपबाद + कए । एक मात्र निन्दा | 'जसु जग जाइ होइ अपबादू ।' मा० २.७७.४ अभय : क्रि० वि० (सं० आत्मभयेन > प्रा० अप्पभरण > अ० अप्प भएँ) अपने-आप ही भय के कारण (अकारण भय से ) । 'अपभयँ कुटिल महीप डेराने ।' मा० १.२८५.८ अभय : सं० पृ० (सं० आत्मभय > प्रा० अप्पभय ) अकारण अपनी ही त्रुटि से उत्पन्न भय (= अपडर ) । 'बिनय करों अपभयहु तें तुम परम हिते हों ।' विन० २७०.३ अपमानहि : अपमान से को । मा० ६.३०.८ अपमानता : सं० [स्त्री० (सं० अपमान्यता) अपमानित होना । 'गुट अपमानता सहि हि सकेउ महेस ।' मा० ७.१०६ ख अपमाना: अपमान । 'तैं सीता मम कृत अपमाना ।' मा० ५.१०.१ अपमान : अपमान + कए । तिरस्कार । 'सिव अपमान न जाइ सहि ।' मा० १६३ अपर : वि० (सं० ) अन्य । मा० १.४६ अपरना : सं० स्त्री० (सं० अपर्णा ) पार्वती ( तपस्या में उन्होंने पत्ते ( पर्णं ) खाना भी छोड़ दिया था अतः यह नाम पड़ा ) । मा० १.७४.७ अपराध : सं० पु ं० (सं०) दण्डनीय अनुचित कर्म । मा० २.६१.७ अपराधा : अपराध । मा० १.५८.२ अपराधी : वि० पु० (सं० ) । अपराध करने वाला । मा० १.२७५.६ अपराधु धू अपराध + कए । एकमात्र ( बड़ा ) दोष । ' को बड़ छोट कहत अपराधू । मा० १.२१.३ अपलोक : सं० पु० (१) (सं० अपलोक) । नरक आदि कुत्सित लोक ; (२) (सं० अपलोक) अपयश, कुख्याति । 'लहहिं सुजस अपलोक बिभूती ।' मा० १.५.७ अपलोक : अपलोक + कए । अपयश, अद्वितीय अपकीर्ति । 'अब अपलोकु सोकु सुत तोरा । मा० ६.६१.१३ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 35 अपसरा : अपछरा । गी० १.३.२ अपह : वि० पु० (सं०) । नाशक (समासान्त में) । 'ध्वान्तापहं तापह्म'। मा० ३ श्लोक १ अपहर, अपहरई : (१) (सं० अपहरति-दूर करना, नष्ट करना, हर लेना) आ० प्रए । हरण करता है। दूर करता है। 'सरदातप निसि ससि अपहरई ।' मा० ४.१७.६ (२) छीन लेती है+अपने वश में करती है । 'जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई ।' मा० ७.५६.५ अपहरत : (१) वकृ० पु० । अपहरण करता है-दूर या निरस्त करता है। 'अपहरत विषादा।' मा० २.२७६.१ (२) क्रियाति० पु०। 'दुख दाह दारिद..... अपहरत को।' मा० २.३२६ छं० अपहरति : (१) वक स्त्री० । हरण करती। (२) आ० प्रए (सं०) दूर करता-ती है। 'दर्शनादेव अपहरति पाप ।' विन० ५५.८ अपहरन (पा) : वि० । हरने वाला । विन० ५३.६ अपहरहि, ही : आ० प्रब । दूर करते हैं, छीन लेते हैं । 'भानु जान सोभा अपहरहीं।' मा० १.२६६.४ अपहारी : वि० (सं० अपहारिन्) दूर करने वाला, हरने वाला । विन० ४४.३ अपाउ : सं० पु० (सं० अपाय)+कए। हानि, उत्पात, उपद्रव । 'जोगवत अनट अपाउ।' विन० १००.३ अपान : सं० पु. (सं० आत्मन् >प्रा० अप्पाण) अपनापन, स्वयम्, निज की सत्ता । 'अपान सुधि भोरी भई ।' मा० १.३२१.छं० अपाय : (१) सं० पू० (सं०) । क्षति, विकार, नाश, व्याधि । (२) विघ्न, बाधा (उपाय का विलोम)। 'कलि-काल अपर उपाय ते अपाय भए।' विन० १८४.१ अपार : वि० (सं.) जिस का पार (छोर) न हो, असीम । मा० १.६.१ अपारा : अपार । मा० १.६.१० अपारि : अपार (सं० अपारिन् ) जो 'पारी' =पारयुक्त न हो । असीम । 'सब गुन उदधि अपारि ।' कृ० २७ अपारू : अपार+कए। ‘राम बियोग पयोधि अपारू ।' मा० २.१५४.५ ।। अपारो : अपारू । विन० ११७.३ अपावन : वि० (सं०) । अपवित्र, मलिन, बीभत्स । मा० १.६३ छं० अपावनि, नो : अपावन+स्त्री० । 'सहज अपावनि नारि ।' मा० ३.५ अपि : अव्यय (सं०) । भी । 'रिपु तेजसी अकेल अपि ।' मा० १.१७० अपी : अपि । भी । 'धनवंत कुलीन मलीन अपी।' मा० ७.१०१.७ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 तुलसी शब्द-कोशा अपुनीत : अपावन,- अपवित्र । मा० १.६६.७ अपेल : वि० (सं० – पेल गतौ ) अचल, अनुल्लङ्घनीय । 'प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई ।' मा० ५.५६.८ अप्रतिहत: वि० (सं० ) । अव्याहत, निर्बाध, बेरोक । 'अप्रतिहत गति होइहि तोरी ।' मा० ७.१०९.१६ अप्रमेय : वि० (सं० ) । अज्ञेय, अनिर्वचनीय ( जो प्रमाणों - प्रत्यक्ष इन्द्रिय, अनुमान आदि-से प्रमेय न हो) । प्रमाता द्वारा जो स्वसंवेद्य (साक्षिमास्य) तो हो पर वह उसे अन्य संवेद्य न बना सके । मा० ३.४ छं० . फल : वि० (सं० ) । निष्फल, निरर्थक । 'अफल उपाय- कदंब ।' रा० प्र० ७.५.३ अब : अव्यय (सं० अतः >> प्रा० अओ > अ० अउ > अव) । अबर्त: सं० पु ं० (सं० आवर्त ) । भौंर, घुमावदार धारा प्रवाह चक्र । मा० २.२७६.३ अबल : वि० (सं० ) । बलहीन, अशक्त । 'अबला अबल सहज जड़ जाती ।' मा० ७.११५.१६ बलनि : (१) अबल + सं०ब० । ( ने । 'हम अबलनि सब सही है ।' कृ० ४२ बन्ह : अबलनि । अबलाओं (के) ( + अबलों के ) । ' अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा ।' मा० १.६६.४ अबला : सं० [स्त्री० (सं०) स्त्री ( पुरुष की अपेक्षा में अल्प बल वाली) । मा० २ ) अबला + सं०ब० । अबलों ने + अबलाओं ७.११५.१६ अबस : वि० (सं० अवश्य ) । जो वश में न किया जा सके । 'अब सहि बस करी । " मा० ३.२६ छं० बह, हीं : अभी, इसी समय । मा० २.३४.७ अबहुं हूं : अब भी, इस समय भी । 'तुम्ह अबहुं न जाना ।' मा० २.१६.२ अवध धा: वि० पुं० । बाधारहित, अविच्छिन्न, अप्रतिहत । मा० १.३६२ अबाधी : वि० स्त्री (सं० अबाधा ) । दोषों से व्याहत न होने वाली, निर्बाध मा० ७११६.६ अबासू : सं० पु ं० (सं० आवास ) + कए । भवन । 'बिन रघुबीर बिलोकि अत्रासू ।' मा० २.१७६.६ for: वि० (सं० अविकारिन् ) विकार रहित, माया के त्रिगुणात्मक परिवर्तनों से परे ( वैष्णव मत में जगत् ब्रह्म का परिणाम है-विवर्त नहीं - परन्तु उसमें वैसा विकारात्मक परिवर्तन नहीं आता जैसा कि दूध से दही में देखा जाता है । इस सिद्धांत को 'अविकृत- परिणामवाद' कहते हैं- जैसे, जल हिम रूप में भी जल ही रहता है) 'अस प्रभु हृदयँ अछत अधिकारी ।' मा० १.२३.७ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश अबिगत : वि० (सं० अ-विगत ) जो कहीं भी विगत ( रहित ) न हो = सर्वव्यापी | 'अबिगत अलख अनादि अनूपा ।' मा० २.६३.७ 37 बिचल : वि० (सं० अविचल ) । स्थिर, अटल । मा० १.७६.४ अबिचारे : क्रि० वि० (सं० अविचारित) । बिना विचार किये हुए; सत्-असत् की विवेचना किये विना (दे अनबिचार - रमणीय ) । स्रग महँ सर्प बिपुल भयदायक प्रगट होइ अबिचारे ।' विन० १२२.३ छिन : वि० (१) (सं० अविक्षीण) जो क्षीण न हो, प्रचुर, अविरल, सघन, पुष्ट (२) (सं० अविच्छिन्न) अटूट, निरन्तर अखण्ड, धारा प्रवाहवत् व्याप्त : "राम पद प्रीति सदा अविछीन ।' मा० ७.११६ farart: an (सं० अविद्यमान ) असत्, सत्ताहीन । 'अर्थ अविद्यमान जानिय संसृति नहि जाइ गोसाईं ।' विन० १२०.२ अविद्या : सं० पु ं० (सं० अविद्या) व्यामोहिका माया (सात्त्विक विद्या से भिन्न ) राजस तथा तामस प्रकृति जिसकी क्रमशः विक्षेप और आवरण शक्तियाँ हैं । आवरण से सत्य का बोध तिरोहित होता है और विक्षेप से असत् में सत् का आरोप होता है— जैसे रज्जु में सर्प का बोध हो तो रज्जुबोध तिरोहित हो जाता और सर्प (असत्) का बोध हो चलता है । मा० ३.१५.३-४ अविद्या पंथ : राग, द्वेष, अस्मिता, अभिनिवेश सहित अविद्या का योग शास्त्रीय पञ्चका । मा० ७ । उपसंहार अविद्या पंच जनित विकार भी रघुपति हैं । अविनय : सं० (सं० अविनय ) । अशिष्टता, दुराग्रह, धृष्टता । 'छमबि देबि बड़ अबिनय मोरी ।' मा० २.६४.६ अबिनासिनि : वि० स्त्री० (सं० अविनाशिनी) कभी नष्ट न होने वाली (आदि शक्ति) । मा० १.६८.३ अबिनासिहि : अविनाशी तत्त्व को । मा० ७.३०.६ अबिनासी : वि० पु० (सं० अविनाशिन् ) । अनश्वर, अनन्त । मा० १.१३.६ अबिबेक, का: सं० पुं० (सं० अविवेक) विवेकहीनता, सत् तथा असत् में अन्तर करने की शक्ति का अभाव । मा० १.१५.२ अबिबेकी : वि० | विवेकहीन । मा० २.१४.२ अबे : अबिक + कए । एक ( विचित्र ) अविबेक, अद्वितीय नासमझी । 'देख हु मुनि अबिबेकु हमारा ।' मा० १.७८.७ अबिरल : वि० (सं० अविरल) सघन, अधिक, संहत, प्रचुर । 'रति होउ अबिरल ।' मा० २.७५ छं० अबरोध : वि० (सं० अविरोध ) | विरोध-रहित, अनुकूल, निर्विरोध । 'समय समाज धरम अबिरोधा ।' मा० २.२६६.३ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 तुलसी शब्द-कोश अबिहित : वि० (सं० अविहित) । शास्त्रीय अथवा लौकिक मर्यादाओं के विपरीत, अनुचित, अनर्गल, विधानविरुद्ध । मा० १.११६.५ [धर्मशास्त्रीय विधीविधान वाले कर्म विहित हैं, शास्त्रीय निषेध वाले कर्म अविहित हैं आधुनिक अवधी में 'अबिहति' चलता है ।] अबीर : सं० पु. (सं० आवीर) अभ्रक मिलाकर बनाया हुआ रंगीन चूर्ण विशेष । [अजीर के पत्ते को 'आवीर चूर्ण' कहा गया है अतः अनुमान होता है कि अबीर की रचना में इस पत्ते का योग कभी अवश्य रहा होगा।] मा० १.१६५.५ प्रबीरनि : अबीर+संब० । अबीरों (से)। गी० ७.२१.२२ अबुझ : (१) अबुध । नासमझ, बोधहीन, मूढ़ (२) वि० (सं० अबोध्य >प्रा०. अबुज्झ) अज्ञेय । 'तेरे ही बुझाये बूझे अबुझ बुझाउ सो।' विन० १८२.५ अबुध : वि० (सं०) । अज्ञ, मूढ, बोधहीन । मा० १.२७४.२ अबूझ, झा : अबुझ । बुद्धिहीन, अबुध, मूढ+अबोध्य, अज्ञेय । 'अजहुं न बूझ अबूझ ।' मा० १.२७५ 'तिमिधाए मनुजाद अबझा ।' मा० ६.४०.१० अन्ज : सं० पुं० (सं०) । कमल । मा० ७ श्लोक १ भब्यक्त : अव्यक्त । (१) मूल प्रकृति । 'अब्यक्तमूलमनादि तरु।' मा० ७.१३ छं० ५ (२) ब्रह्म। 'कोउ ब्रह्म निर्गुन घ्याव । अब्यक्त जेहि श्रुति गाव ।' मा० ६.१३ छं. ७ अव्याहत : वि० (सं० अव्याहत)। व्याघात-रहित, निर्बाध, अप्रतिहत, बेरोक । _ 'अब्याहत गत संभु प्रसादा।' मा० ७.११०.१२ अभंग, गा : वि० (सं० अभङ ग) । अविच्छिन्न, अखण्ड, निरन्तर । 'प्रीति अभंगा।" मा० ३.१३.११ अभंगू : अभंग+कए । अटूट, हठ। 'मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू।' मा० १७.४ अभय : वि० (सं.)। भय-रहित, निर्भय । मा० ४.४.३ अमाम : अभाग्य । भाग्यहीनता, दुर्भाग्य । 'मोर अभाग उदधि अवगाहू ।' मा०. २२६१.५ अभागा : वि० ० । भाग्यहीन । 'गएहुं न मज्जन पाव अभागा ।' मा० १.३६.२ अमागिनि : अभागी (स्त्री) । मा० २.५७.६ अभागी : वि० (१) पु० । भाग्यहीन । 'अग्य अकोबिद अंध अभागी।' मा० १.११५.१ (२) स्त्री० ! भाग्यहीना । मा० २.५१.२ प्रभागु : अभाग+कए। एकमात्र दुर्भाग्य । ‘मोर अभागु मातु कुटिलाई ।' मा०. २.२६७४ अमागें : अभागे ने । 'तउ न तजा तन प्रान अभागें।' मा० २.१६६.६ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 39 अमागे : 'अभागा का रूपान्तर (१) बहु० । 'करहिं न प्रान पयान अभागे।' मा० २.७६.६ (२) सम्बो० ए० । 'ताते परबस परयो अभागे । विन० १३६.३ अभागो : अभागा+कए । कवि० ७.१५ अभाग्य : सं० पु. (सं.)। भाग्यहीनता, दुर्भाग्य । मा० ६.६६.६ अमारू : सं० पु० (सं० आभारः) कए । भारी बोझ ; उत्तरदायित्त्व तथा उपकार का भार । 'नाथ दीन्ह सबु मोहि अभारू ।' मा० २.२६६.३ प्रभास : आ० प्रए (सं० आभासते>प्रा० आभासइ) भासित होती है, प्रतीत होता है। 'सोइ स्यामता अभास ।' मा० ६.१२ अभिनंतर : अभ्यंतर । 'अभिअंतर मल कबहुं न जाई ।' मा० ७.४६.६ अभिजित : सं० पु० (सं० अभिजित) मुहूर्त विशेष जो मध्याहन और मध्य रात्रि को दो घड़ी का माना गया है [ अभितो जयति इति अभिजित्' व्युत्पत्ति के अनुसार विजेता को भी 'अभिजित्' कहा जाता है अत: अभिजित् मुहूर्त में उत्पन्न बालक विजेता होता है, ऐसी मान्यता है । राम इसी मुहूर्त में हुए थे। मा० १.१६१.१ अभिनंदनु : सं० पु० कए (सं० अभिनन्दनम्) । विनययुक्त अनुमोदन, स्वागतपूर्ण समर्थन । 'गुर के बचन सचिव अभिनंदनु ।' मा० २.१७६.७ अभिमत : (१) सं०+वि० पु. (सं०) । अभीष्ट, मनचाहा, इष्ट वस्तु । 'राम नाम कलि अभिमत दाता।' मा० १.२७.६ (२) मनोरथ । 'अभिमत बिरखें परेउ जनु पानी ।' मा० २.५.६ अभिमान (ना) : सं० पु० (सं.)। अहंकार । मा० १.३६.३ अभिमानी : वि० । अहंकारी । मा० १.१२१.६ । अभिमानु : अभिमान+कए। अद्वितीय अभिमान । 'अति अभिमानु हृदयं तब आवा ।' मा० १.६०.७ अमिरक्षय : आ०-अभ्यर्थना-मए (सं०) तू रक्षा कर । 'मामभिरक्षय रघुकुल नायक।' ___ मा० ६.११५.१ अभिराम : वि० (सं.) अभितः= सब ओर रमण =आनन्द देने वाला। मनोरम, सर्वथा रमणीय, सुन्दर । मा० १.७५ अभिरामा : अभिराम । मा० ७.५३.४ अभिरामिनी : वि० स्त्री० । पूर्ण आनन्द-दायिनी। अति मनोरम 'अभिरामिनी जामिनि भई।' गी० १.५.३ अभिलाष : सं० पु० (सं.)। कामना, इच्छा, मनोरथ । मा० १.१४४.३ अभिलाषा : अभिलाष । मा० १.८५.१ अभिलाषिहि : आ० भ० प्रए० । अभिलाष करेगा, चाहेगा। 'अस सुकृती नरनाहु जो मन अभिलाषिहि । सो पुरइहि जगदीसु ।' जा० मं० ७६ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 तुलसी शब्द-कोश अमिलाषी : वि० । अभिलाष युक्त । इच्छुक । मा० २.२४४.२ अभिलाषु : अभिलाष+कए । एक ही इच्छा । 'सब के उर अभिलाषु'- २.१ अभिलाषे : क्रि० वि० । अभिलाष किये हुए स्थिति में । 'नृप सब रहहिं कृपा ___अभिलाषे ।' मा० २.२.३ अभिलाषे : भू० कृ० पु० (बहु०) अभिलाष युक्त हुए। 'सुनि पन सकल भूप अभिलाषे।' मा० १.२५०.५ अभिषेक : सं० पु० (सं.) (१) नहाना या नहलाना, पूर्णतः स्नान कराना । ___ 'सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना ।' २.१५७.७ (२) राज्याभिषेक सिंहासन पर आसीन होने का विशेष संस्कार जिसमें तीर्थ-जल से स्नान कराया जाता है। मा० २.५% ३.६.४ । अभिषेकतः : क्रि० वि० (सं०) । अभिषेक से । मा० २१ श्लोक २ अभिषेक, क: अभिषेक+कए । मा० २.८; २.१०.७ अभीष्ट : वि०+सं० (सं०) सर्वथा इष्ट, पूर्णतया मनचाहा । 'अति अभीष्ट बर पाइ।' मा० ७.३५ अभूत : वि० (सं.)। जो न हुआ हो। अपूर्व, अद्भुत । 'उपमा एक अभूत भई तब ।' गी० १.२६.६ अभूतरिपु : (१) वि (सं०) जिस के शत्रु न हुए हों। अजातशत्रु । सर्वथा शत्रुहीन । (२) भूतों=प्राणियों का जो शत्रु न हो । निर्वैर । सर्वथा वैर-रहित । 'सम अभूतरिपु बिभद बिरागी।' मा० ७.३८.२ अभेद : वि० (१) (सं० अभेद्य)। जिसका किसी प्रकार भेदन न किया जा सके। _ 'कवच अभेद बिप्र गुर पूजा।' मा० ६.८०.१० (२) (सं० अभेद)। भेद रहित, अद्वैत निर्विकार, जिससे पृथक् कोई सत्ता न हो । 'अज अकल अनेह अभेद ।' मा० १.५० अभेदबादी : वि० ० (सं० अभेद-वादिन) जीव और जगत् से ब्रह्म को तथा ब्रह्म से जीवजगत् को भिन्न न मानने के सिद्धान्त के प्रतिपादक । अद्वैतवादी । विवर्त सिद्धान्त के आधार पर सृष्टि की व्याख्या करने वाले । तेइ अभेदबादी ग्यानी नर।' मा० ७.१००.२ शाङ करवेदान्त पूर्ण अभेदवादी है; माध्ववेदान्त पूर्ण द्वैतवादी तथा शेष वैष्णव वेदान्त भेदाभेद या द्वैताद्वैत मान्य करते हैं-जैसे रामानुज अंशरूप जीवजगत् की पृथक् सत्ता स्वीकृत करके भी अंशी ब्रह्म से अभेद मानते हैं। गोस्वामी जी ने निर्गुण मतवादी के लिए इस शब्द का प्रयोग किया है। अभेरा : सं० पु । मुठभेड़, भिड़न्त, टकराव, धक्कमधक्का । विन० १८६.३ अभोगी : वि० पुं० (सं० अभोगिन्) । भोग-वासना-रहित, मुक्त । 'अज अनवद्य अकाम अभोगी।' मा० १.६०.३ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 41 अभ्यंतर : वि० (सं० आभ्यन्तर) भीतरी, आन्तरिक, (मानसिक) । 'बाहिर कोटि उपाय करिअ अभ्यंतर ग्रंथि न छूटे ।' विन० ११५.१ अभ्यास : सं० पु० (सं.)। एक ही कार्य को बार-बार निरन्तर करते रहने की प्रक्रिया; उस प्रक्रिया से बनी हुई मानसिक वासना। 'जनम-जनम अभ्यास निरत चित अधिक-अधिक लपटाई।' विन० ८२.१ अमंगल : मंगल का अभाव या मंगल-प्रतिकूल स्थिति । मा० १.२६.१ अमर : (१) वि० (सं०) जो मरता न हो, मृत्युजयी । 'अजर अमर सो जीति न जाई ।' मा० १.८२.७ (२) सं० (सं०) देवजाति । 'सब अमर हरष सुमन बरषि ।' मा० १.१०२ छं. अमरउ : अमर भी । न मर सकता हो, उसे भी । 'सकउँ तोर अरि अमरउ मारी।' मा० २.२६.३ अमरता : अमरत्व के कारण, अमर करने की प्रकृति से । 'सुधा सराहिअ अमरता।' मा० १.५ अमरपति : देवराज इन्द्र । मा० २.१७४ अमरपद : अमरों=देवों का पद; मृत्युहीन स्थिति =अमरत्व । 'अभिअ अमरपद .. माहुरु मीचू ।' मा० २.२९८.६ अमरपुर : स्वर्ग, देवलोक । मा० २.१४१ अमरष : सं० पुं० (सं० अमर्ष) रोष, असहिष्णुता । मा० ७.३८.२ अमरषत : वकृ पुं० । रोष करता-ते । 'बारहिं बार अमरषत करषत करके परी सरीर ।' गी० ५.२२.८ अमरषा : भू० कृ० ० । अमर्ष-युक्त हुआ, क्रुद्ध हुआ । 'को कर अटक कपि कटक अमरषा।' कवि० ६.७ अमरावति : सं० स्त्री० (सं० अमरावती) इन्द्र की नगरी, स्वर्गपुरी। मा० १.१५२८ अमरावतिपाल : (दे० पालु) इन्द्र । मा० २.१६६.७ अमल : वि० (सं०) निर्मल, निष्कलुष । मा० १.४२.७ अमा, अमाइ, ई : (सं० माति, आमाति,>प्रा० माइ, आमाइ-समाना, सीमा में आ जाना) आ० प्रए । अमाता है । 'प्रेम उमंग न अमाइ ।' रा० प्र० ४.४.१ 'हृदयें न अति आनंदु अमाई ।' मा० १.३०७.४ अमात : वकृ० पु. (सं० मात्>प्रा० माअंत) समाता-ते । 'हृदय न प्रेमु अमात ।' मा० १.२८४ अमान : वि० (सं०) (१) मान =प्रमाण+परिमाण से रहित, अमेय, अप्रमेय, अज्ञेय । 'मानद अमान' विन० ४२.३ (२) प्रमाण+आत्म सम्मान से रहित । 'अगुन अमान मातु पितु हीना ।' मा० १.६७.८ (३) अभिमनरहित । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 तुलसी शब्द-कोश 'तीसरि भगति अमान ।' मा० ३.३५ (४) आदर से रहित, सम्मान के अयोग्य । 'अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास ।' मा० ६.३१ क प्रमाना : अमान । अप्रमेय, अनिवचनीय । मा० १.१६२ छं० अमानी : वि० (सं.) । जो मानी=अभिमानी न हो। निरहंकार । मा० ७.३८.४ अमानुष : वि० (सं.)। मानुषशक्ति से परे, लोकोत्तर । 'सकल अमानुष करम तुम्हारे ।' मा० १३५७६ प्रमाया : वि० (सं० अमाय) । निर्माय =माया रहित । निश्छल । 'मुदिता मम पद प्रीति अमाया ।' मा० ३.४६.४ अमाये : भू० कृ. पुं० । समाया, समाये । 'मुदित मगन आनंद न अमाये ।' गी० १.३२.६ अमायो : भू० क० पुं० कए। समाया। 'उर प्रमोद न अमायो।' गी० १.१७.४ अमिन : अमृत से, अमृत में [सं० अमृतेन, अमृते>प्रा० अमिएण>अ० अमिएँ] । 'बोले गिरा अमिों जनु बोरी ।' मा० १.३३०.५ अमिअ, य : सं० पु. (स० अमृत>प्रा० अमय =अमिअ) । भमरता देने वाला देवों का पेय विशेष । मा० १.१.२ अमित : वि० (सं.)। अपरिमित, असंख्य, अपरिमेय, मिति सीमा से परे । मा० ११२.१२ अमितबोध : वि० (सं०) असीम ज्ञान से सम्पन्न । मा० ३.४५.८ अमिति : अमित । मिति =परिमाण से रहित । अत्यन्त । 'सुनि मैं नाथ अमिति सुखु पावा ।' मा० ७.५३.७ अमिय : अमिअ । गी० १.१४.१ प्रमी : अमिअ । ‘कालकूट फल दीन्ह अमी को ।' मा० १.१६.८ अमृत : अमिअ। मा० २.४२.३ अमृतु : अमृत+कए । अमर बनाने वाला पेय । 'अमृतु लहेउ जनु संतत रोगीं।' मा० १.३५०.६ अमषा : अमिथ्या, सत्य । मा० १ श्लोक ६ अमोघ : वि० (सं०) । जो मोघ =निष्फल न हो । अव्यर्थ, सदा सार्थक, अवश्य ___ कार्यकारी। जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।' मा० ५.१.८ अमोघसक्ति : वि० (सं० अमोघशक्ति) अमोघ शक्ति से सम्पन्न । मा० ७.७२.४ अमोल : वि० (सं० अमूल्य>प्रा० अमोल्ल) अमित मूल्य वाला (जिसका मूल्य न ___ लगाया जा सके) । मा० २.१.४ ।। अमोले : अमोल (बहु०)। 'देखि प्रीति सुनि बचन अमोले ।' मा० १.१५०.१ अय : सं० पुं० (सं० अयस्) । लोहा । 'अय इव जरत धरत पग धरनी।' मा० १.२६८.५ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 43 अयं : सर्व० पु. कए (सं० अयम्) यह । 'पापौघमय तव तनु अयं ।' मा० ६.१०४. छं. अयन : सं० पु. (सं.)। (१) आगार, भवन । 'करुना अयन' मा० १.० दो० ४ (२) स्थान, आश्रय । 'नयननि अयन दये।' गी० १.६३.५ (३) सूर्यगति के अनुसार खगोल के दो भाग-उत्तरायण तथा दक्षिणायन । 'दिनमति गवन कियो उतर अयन ।' गी० १.५१.३ अयना : अयन । आगार । 'सकल गुन अयना ।' मा० १.२०६.८ अयमय : वि० (सं० अयोमय) । लौह, लोहनिर्मित । 'अयमय खाँड़ न ऊखमय ।' मा० १.२७५ अयान : वि० पु० (सं० अज्ञ>प्रा० अयाण) मढ़। 'कहै सो अघम अयान असाधू ।' मा० २२०७.७ अयानप : सं० पु । अज्ञता, मूढता । विन० २६२.४ प्रयानपन : अयानप (सं० अज्ञत्व>प्रा० अयाणत्तण>अ० अयाणप्पण)। मूढ़ता । अयानी : वि० स्त्री० । मूढा । मा० १.१२०.४ । अयाने : (१) 'अयाना' का रूपान्तर (बहु०) । (२) सम्बो० एक० । हे मूढ़ । 'भजहि व अजहुँ अयाने ।' विन० २३६.४ अयान्यो : अयाना+कए। विन० ६२.२ अयुत : संख्या (सं०) दस सहस्र । मा० ७.१०७.३ अरड़, : सं० पुं० कए (सं० एरण्डम् >अ० एरंडु) रेडे का वृक्ष। 'सेवहिं अरॅड. कलपतरु त्यागी।' मा० २.४२.३ अरंभ, मा : सं० पु० (सं० आरम्भ) प्रारम्भ (श्रीगणेश, सूत्रपात)। मा० ७.६३.५; १.३५.६ अरंभेउ : भू०० पु० कए । आरम्भ हुआ । 'अनरथु अवध अरंभेउ जब तें ।' मा० २.१५७.५ अरगजाँ : अरग्रजा से । 'गली सकल अरगजां सिंचाई।' मा० १.३४४.५ अरगजा : सं० पु० (फा० अरगजः) एक सुगन्धित द्रव पदार्थ जो चन्दन, गुलाब, कपूर, कस्तूरी और चमेली-तेल के मिश्रण से बनता है । गी० १.१.८ अरगाइ, ई : पूकृ० । (१) अलग करके, निवारण कर, हटा कर । 'गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई। तह रखइ जननी अरगाई ॥' मा० ३.४३.६ (२) अलग रह कर चुप या उदासीन होकर । 'अस कहि रामु रहे अरगाई ।' मा० २.२५६८ अरगानी : भू०० स्त्री० । वार्ता से अलग हुई, चुप । 'अब रहु अरगानी ।' मा० २.१४.७ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश :अरघ : सं० पु० (सं० अर्घ्य) अभ्यागत स्वागत-सम्मान में भेंट किया जाने वाला पात्र जिसमें जल, फूल, फल आदि की सामग्री रहती है । षोडशोचार पूजन में यह प्रथम है । 'अरघ पांवड़े देत ।' मा० १.३४६ अरघनि : अरघ+संव० । अर्यों (से) । 'हरषत अरघनि भानु ।' दो० ४५५ अरघु : अरघ+कए। 'करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा ।' मा० १.३१६.४ (सम्पूर्ण पूजा-सामग्री से तात्पर्य है)। अरण्य : सं० पु० (सं०) । वन । मा० १ श्लोक ४ अरति : सं० स्त्री० (सं०) बेचैनी, उल्लासहीनता की मनोदशा । मा० २.२६५ अरथ : सं० पु० (सं० अर्थ) । (१) काव्यार्थ । 'आखर अरथ अलंकृति नाना।' मा० १.६.६ (२) शब्द का सामान्य अर्थ । 'गिरा अरथ' मा० १.१८ (३) चार पुरुषार्थों में से एक । 'धरम अरथ कामादिक चारी ।' मा० २.३७.६ (४) आशय, गूढ तात्पर्य । 'कहहु नाम कर अरथ बखानी।' मा० १.१६२.८ अरथु : अरथ+कए । 'अरथु अमित अति आखर थोरे ।' मा० २.२६४.२ अरष : (१) वि०+सं० पु. (सं० अर्ध) एक वस्तु का समान भार । 'तनु अरध भवानी।' मा० १.२४७.५ (२) आधा कुछ भाग । 'अरध निमेष' मा० २७०.८ अरधंग : सं० पु. (सं० अर्धाङ्ग) शरीर का आधा भाग । 'सदा संभु अरधंग निवासिनि ।' मा० १.६८.३ अरनी : सं० स्त्री० (सं० अरणि) । पवित्र लकड़ी जिसे घिस कर यज्ञ हेतु अग्नि उत्पन्न की जाती है । 'पुनि विवेक पावक कहुँ अरनी ।' मा० १.३१.६ अरप : सं० पु. (सं० अर्प) । अर्पण, दान । 'जो संपति दससीस अरप करि रावन सिव पहिं लीन्ही ।' विन० १६२.३ अरबिंद : अरविन्द । अरबिंदु : अरबिंद+कए । 'अरबिंदु सो आननु ।' कवि० १.२ ।। अरविन्द : सं० पु. (सं०) । कमल । मा० ७.१०८.१३ अराती : सं० पु० (सं० अराति) । शत्रु । मा० १.१६०.७ अरि : (१) सं० पु० (सं०) । शत्रु । मा० १.२७१.३ (२) सं० स्त्री० (सं० आली =श्रेणी पंक्ति, समूह । महाबिषु ब्याधि दवा-अरि घेरे ।' कवि० ७.५० अरिन्ह : अरि+संब० । शत्रुओं । 'अरिन्ह को कोटि कृसानु है ।' गी० ५.३५.३ अरिमर्दन : (१) वि० शत्रुओं का विनाश करने वाला। (२) सं० पु० । राजा ___ भानु प्रताप का अनुज । मा० १.१५३.६ अरिष्ट : सं० पु० (सं०) । शत्र, अनिष्ट ग्रह, पापग्रह-शनि आदि, कष्ट या कष्ट कारी ज्योतिषयोग । रा०प्र० ३.३.४ अरिहि : शत्रु को । 'जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला।' मा० २.३२.८ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश अरिहुक : शत्रु का भी । 'अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा ।' मा० २.१८३.६ श्ररो : अरि । मा० ७.१४.१८ अरु : अव्यय (सं० अपरम् > प्रा० अवंर > अ० अवरु ) और । 'पिता अरु माता ।" मा० १.७३.८ अरुंधती : बसिष्ठ की पत्नी का नाम । मा० २.१८७.५ अरुझा, श्ररुभाइ, ई : (सं० आरुध्यते > प्रro 45 आरुज्झइ उलझना, संपृक्त होना, सुलझाव न मिलने वाला गुथना ) आ० प्रए । उलझता है, उलझती है । 'छूट न अधिक अरुझाई । मा० ७.११७.६ अरुझानी : भू० कृ० स्त्री० । उलझी, लिपटी, गुँथी हुई । 'बिटप बिसाल लता अरुझानी ।' मा० ३.३८.१ 'अरुझान्यो : भू० कृ० पु० कए । गुँथ गया, उलझ - लिपट गया । 'बिषम जा अरुझान्यो ।' विम० ८८.२ अरुभि: (१) पूकृ० । उलझकर । (२) सं० स्त्री० । उलझन । 'करत न प्रान पयान सुनहु सखि, अरुझि परी यहि लेखे ।' गी० २.५३.३ अरुन : (१) वि० (सं० अरुण ) । लाल, रक्तवर्ण । मा० पुं० । सूर्य का सारथी जो उषा की लाली के रूप में १.१०६.७ (२) सं० उदित माना गया । o (३) सूर्य का एक नाम । 'उभउ अरुन अवलोकहु ताता ।' मा० १.२३८.७ अरुनचूड़ : सं० पु ं० (सं० अरुणचूड़ = ताम्रचूड़ ) । कुक्कुट, मुर्गा । मा० १.३५८.५. अरुनतर : वि० (सं० अरुणतर ) । अतिशय रक्तवर्ण । गी० ७.१२.६ O अरुनमय: वि० । प्रभात की अरुणाभा से ओतप्रोत । ' मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी ।' मा० २.२३७.५ अरुनसिखा : अरुनचूड (सं० अरुण शिख ) । मा० १.२२६ अरुनारी : सं० [स्त्री० (सं० अरुणाली ) । अरुण की पक्ति । उष:काल की लाल आभा की रेखा । ‘अड़त अबीर मनहुं अरुनारी मा० १.१६५.५ अरुनारे : वि० पुं० ( बहु० ) । अरुणाभ, लाली लिए हुए, रक्तवर्ण 'अधर अरुनारे । मा० १.१६६.८ अरुनोदयं : अरुणोदय काल में, उषाकाल में । 'अरुनोदयँ सकुचे कुमुद ।' मा० १.२३८ अरुनोपल : ( अरुन + उपल) । लाल पत्थर । मा० ६.४०.ε अरूप: वि० (सं० ) । रूपरहित, निराकार । मा० १.१३ ३ अरूपा : अरूप । मा० १.४१.२ अरे : (१) अव्य० सम्बोधनार्थक (सं० ) । (२) भू० कृ० पुं० । उड़ गए, डटे गये, दृढता के साथ स्थिर हुए । 'बिरुझे बिरुदेत जे खेत अटे ।' कवि० ६.३४ अरोष : वि० (सं० ) । रोषरहित । मा० ७.४६.६ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश अर्क : सं० पु० (सं०) (१) सूर्य (२) मदारकक्ष । 'अर्क जबास पात बिनु भयऊ।' मा० ४.१५.३ अचि : (१) पूक० । अर्चन करके, पूजकर । विन० १०.६ (२) सं० स्त्री० (सं० अचिष्) अग्निशिखा, दीपशिखा-लो, आँच; तेज की किरणें । विन ० ५३.६ अर्थ : (अरथ) । (१) पुरुषार्थ चतुष्टय में अन्यतम । कवि० ७.१५८ (२) पदार्थ, विषयवस्तु । 'अर्थ. अविद्यमान जानिऊ संसति नहिं जादू गोसोई ।' विन० १२०.२ अर्थसंघ : विविध अर्थों का समवाय ; काव्य में वाच्य, लक्ष्य, व्यङग्य अर्थों का संश्लिष्ट बिम्ब । मा० १ श्लोक १ अर्ष : वि०+सं० (सं०) । समान भाग आधा । 'अर्ध भाग कौसल्यहि दीन्हा।' मा० १.१६०.२ अर्घग : अरधंग। कवि० ७.१४६ अर्धनिसि : आधी रात, मध्यरात्रि में। 'इहाँ अर्धनिसि रावन जागा।' मा० ६.१००.७ अर्धाग : अर्धग । विन० १०.२ प्रर्पा : अर्पित । सौंप दिया। 'विस्व प्रसिहि जनु एहि बिधि अर्पा ।' मा० ६.६७.५ अर्पित : भूकृ० (सं०) । समर्पित, प्रदत्त । मा० १.१५६.२ अर्बुदै : संख्या (सं० अर्बुद) । अरबों में । 'सैन के कपिन को गर्न अर्बुदै ।' कवि० ६.२० अर्भक : सं० पु० (सं०) । छोटा बच्चा, क्षीण, कृश शिश । 'गर्भन्ह के अर्भक दलन ।' मा० १.२७२ अर्वाक् : वि० (सं.) अर्वाचीन (प्राचीन का विलोम), अपेक्षाकृत बाद का, अवर। . विन० ५४.७ अलंकृत : भू० कृ० (सं०) । विभूषित, सुसज्जित, अङ्गारित । मा० १.२६६.६ अलंकृति : सं० स्त्री० (सं०) । अलंकार= आभरण+काव्यालंकार । 'आखर अरथ अलंकृति नाना।' मा० १.६.६ अलंपट : जो लम्पट न हो । परस्त्री-परधन आदि से विमुख । मा० ७.३८.१ अलक : सं० पु० (सं०) । घुघराले केश । 'चिक्कन कुटिल अलक अवली छबि० ।' कृ० २१ अलकावली : (अलक+आवली)। अलकों की श्रेणी। केशकजाप । 'गमुआरी अलकावली।' गी० १.२२.७ अलकै : अलक+बहु० । गी० १.२३.२ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 47 अलख : वि० (सं० अलक्ष्य>प्रा० अलक्ख)। जो लक्षित न हो, देखा न जा सके; जिसका लक्षण (स्वरूप) न किया जा सके; अदृश्य, अप्रमेय । 'अबिगत अलख अनादि अनूपा ।' मा० २.६३.७ अलखगति : वि० (सं० अलक्ष्यगति) अदृश्य गति वाला, व्यापक तत्त्व जिसका लक्षण या दर्शन न किया जा सके । अदृश्य होकर चलने वाला। 'की अज अगुन अलखगति कोई ।' मा० १.१०८.८ अलखित : वि० (सं० अलक्षित) अदृश्य, न देखा हुआ, न देखी हुई । 'कबि अलखित गति बेषु बिरागी।' मा० २.११०.८ पलखु : अलख+कए । अदृश्य तत्त्व । 'ब्यापक ब्रह्म अलखु अबिनासी।' मा० १.३४१.६ अलच्छि : सं० स्त्री० (सं० अलक्ष्मी>प्रा० अलच्छी)। निर्धनता, अकिंचनता, दरिद्रता । मा० १.६.७ मलप : वि० (सं० अल्प)। थोड़ा, लेशमात्र, यत्किचित । 'ताते में अति अलप बखाने ।' मा० १.१२.३ अलसात : वकृ० पु । आलस्यपूर्ण शिथिलता की चेष्टाएँ करता-करते । गी० १.१६.४ अलसातो : क्रियाति० पु. एक० । यदि आलस्य करता......। 'जपत जीह रघुनाथ को नाम नहि अलसातो। बाजीगर के सूम ज्यो खल खेह न खातो ॥' विन० १५१.२ अलसी : वि० पुं० । आलसी, अकर्मण्य । कवि० ६.७१ अलरन : सं० पु. (सं० आलान)। हाथी बाँधने का खम्भा या खू टा। मा० २.५१ अलायक : (सं० अ+अरबी-लायक) । नालायक, अयोग्य । विन० १४५.६ अलि, अली : (१) सं० स्त्री० (सं० आली)। सखी, सहेली। 'सिय सहित हिये हरषित अली ।' मा० १.२३६ छं० (२) (सं० आलि)। श्रेणी, पंक्ति, समूह । (३) सं० पु० (सं० अलि)। भ्रमर । 'अलिगन गावत नाचत मोरा।' मा० २.२३६.७ अलिगिनी : अलिनि (संभवतः ‘अलिगण' से बनाया हुआ स्त्री० शब्द)। 'मंद मंद गुंजत हैं अलि अलि गिनी ।' गी० २.४३.३ अलिनि : सं० स्त्री० । भ्रमरी । मा०१.२५६.१ अली : 'अली'+ब० । अलियाँ, सखियाँ । 'प्रेम न जाइ कहि, जानहिं अली ।' ___ मा० १.२३७ छं० ३ अलीक : वि०+सं० (सं.)। मिथ्या, असत्य । मा० ६.२५.८ अलीका : अलीक । मा० २.२१६.६ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश अलीहा : वि० (सं० रेखा>प्रा० लीहा) । रेखा-हीन, निमल, निराधार (रेखा रहित चित्र के समान व्यर्थ) । मिथ्या, कपोल कल्पित । 'एक कहहिं यह बात अलीहा ।' मा० २.४८.७ अलुज्झि : पूकृ० । उल झकर, उलझाकर । 'खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं ।' मा० ६.८८ छं० अलेख : (१) वि० (सं०) लेख-रहित या लेखारहित । शून्य, वह जिसका उल्लेख न हो, अद्भुत । (२) (सं० अलेख्य)। अकथ्य, अनिर्वचीय, उल्लेख के. अयोग्य। (३) सं० पुं० (सं० आलेख)। चित्र । 'भए अलेख सोचबस लेखा।' २.२६४.८ अलेखी : अलेख । अकथ्य, विचित्र । 'बड़े अलेखी लखि परें ।' विन० १४७.५ अलेप : वि० (सं.)। लेपरहित, निर्लिप्त, अनासक्त, निष्काम, वासनादि मलों से रहित । 'अगुन अलेप अमान एकरस ।' मा० २.२१९.६ अलोने : वि० ० बहु० (सं० अलवण>प्रा० अलोण)। लवणरहित । 'जस सालन ___साग अलोने ।' विन० १७५.४ प्रलोला : वि० (सं० अलोल)। अचञ्चल, स्थिर, लोभ तथा वासना से रहित होकर एकाग्र । 'नाथ कृपां मन भयउ अलोला।' मा० ४.७.१५ अलौकिक : (१) (दे० लौकिक) । लौकिक हिताहित से परे, लोकोत्तर । 'अकय अलौकिक तीरथराऊ ।' मा० १.२.१३ (२) विलक्षण, अद्भुत-जो लोक प्रसिद्ध व्यवहार की व्याख्या में न बंधता हो । 'असि सब भांति अलौकिक करनी।' गी० १.११८.८ (३) लोक में जो अन्यत्र न दिखाई दे। 'जासु बिलोकी अलौकिक सोभा ।' मा० १.२३१.३ अल्प : वि० (सं०) । तुच्छ, क्षुद्र, छोटा (थोड़ा-सा)। 'रावन नगर अल्प कपि दहई।' मा० ६.२३.८ अल्पमृत्यु : सं० स्त्री० (सं.)। अल्पायु वाली मृत्यु, अकालमृत्यु [दीर्घायु, मध्यायु और अल्पायु ये तीन आयुर्दाय होते हैं । ४० वर्ष से कम वय वाली आय अल्पायु • है और उसमें मृत्यु को 'अल्पमृत्यु' कहा जाता है] । मा० ७.२१.५ अवराई : अँबराई । आम्रवण, बगीचा। 'संतसभा चहुँ दिसि अवँराई ।' मा० १.३७.१२ अवकलत : वकृ० पु । सूझता, विचार में आता, तर्क में बैठता । 'मोहि अवकलत उपाउ न एक ।' मा० २.२५३.२ अवकास : सं० पु० (सं० अकाश)। रिक्त स्थान, अन्तराल । 'कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ ।' मा० ७ ६०.३ [दो मुर्त द्रव्यों के बीच का अन्तर अवकाश है, जिसका कारण अथवा आश्रय आकाश है।] अवकासा : अवकास । 'नभ सत कोटि अमित अवकासा।' मा० ७.६१.८ . Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश अवगाहत : वकृ० पु० । थहाते हुए । विन० १२२.४ अवगाहन्ति : आ० प्रब० (सं०) । थाह लेते हैं, मज्जन करते हैं । मा० ७.१३० श्लोक २ अवगाहहिं : अवगाहन्ति । स्नानार्थ प्रवेश करते है। 'जे सर सरित रामु अवगाहहिं ।' मा० २.११३.६ अवगाहा : वि० (सं० अ+वगाह) । अथाह। 'उभय अपार उदधि अवगाहा।' मा० १.६.१ (२) अशक्य, दुर्गम । 'तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा ।' मा० १.२४५.६ अवगाहि, ही : पूक० अवगाहन करके, निभज्जन करके । 'भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही।' मा० १.३६.६ अवगाहु, हू : अवगाहा । 'प्रेम बारि अवगाहु सुहावन ।' मा० १.२६२.२ अबगाहैं : अवगाहहिं । गी० ७.१३.२ अवगुन : सं० पु. (सं० अवगुण) । दोष (गुण का विलोम)। मा० १.४.५ अवगुनन्हि : अवगुन+संब० । अवगुणों (को) 'गुन प्रगटइ अवगुनन्हि दुरावा ।' मा० ४.७.४ अवग्या : सं० स्त्री० (सं० अवज्ञा) । तिरस्कार, अनादर, अवहेलना, अवमानना। मा० ५.२६.५ अवघट : सं० पुं० (सं० अपघट्ट, अवघट्ट) । जलाशय का वह तट जिसमें चढ़ने उतरने की व्यवस्था न हो और गहराई अधिक हो । मा० ३.७.४ प्रवचट : क्रि० वि० (सं० अव+चट आवरणे)। आवरण रखे हुए, अनिच्छा से, बिना किसी लगाव के, उड़ती नजर से, सरसरे तौर पर । 'अवचट चितए सकल भुआला।' मा० ६.२४८.६ अवट : आ० प्रए० (प्रा० अट्टइ=सं० क्वथति) । पकाता है, पकाए, आग और __पानी के गोग से परिपक्व करे। 'अवट अनल अकाम बनाई।' मा० ७.११७.१३ अवडेरि : पूक० । बाहर करके, तिरस्कृत करके, निकाल कर । 'पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही ।' मा० १.७६.८ [प्राकृत में 'द्वार' का रूपान्तर 'देर' होता है। 'सं० अपदार=गौण या छोटा द्वार>प्रा० अवदेर' से अवडेरना हिन्दी क्रिया की निष्पत्ति है अतः पिछले द्वार से निकालने जैसा मूल अर्थ है । निकालने या तिस्ष्कृत करने का लाक्षणिक अर्थ चलता है।] अवडेरिये : आ०-कवा-प्रए । द्वार से निकालिए, बाहर कीजिए । 'पोषि तोषि थापि __आपनो न अवडेरिये ।' हनु० ३४ . प्रवडेरे : क्रि० वि० । अनादर के साथ, घर से बाहर करके । 'बिधिहु सृज्यो अवडेरे ।' विन० २२७.२ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 तुलसी शब्द-कोश अवढर : क्रि० वि० (सं० अबाक् +द्रव>प्रा० अव+ढल-परि०)। नीचे को ढलकना या बहना, बेरोक द्रवित होना, अतिशय उदारतावश बिना विचार किये दान करना । 'आसुतोष तुम्ह अवढर दानी ।' मा० २.४४८ अवतंस : सं० पु० (सं०) आभरण । मा० २.६ अवतंसा : अवतंस । 'भए प्रसन्न चद्र अवतंसा ।' मा० १.८८.६ अवतर, अवतरइ, ई : (सं० अवतरित>प्रा० अवतरइ-अवतार लेना, जन्म ग्रहण ___ करना) आ० प्रए । अवतार लेता है। निज इच्छाँ प्रभु अवतरइ ।' मा० ४.२६ अवतरहिं, हीं : आ० प्रब० । अवतार लेते हैं। मा० १.१४०.२ अवतरिहउँ : आ० भ० उए । मैं अवतार लूगा । 'परमसक्ति समेत अवतरिहउँ ।' मा० १.१८७.६ अवतरिहि : आ० भ० प्रए । अवतार लेगी (लेगा)। ‘सोउ अवतरिहि मोरि यह माया ।' मा० १.१५२.४ अवतरी : भू० कृ० स्त्री० । अवतीर्ण हुई । 'जगदंबा जहँ अवतरी।' मा० १.६४ अवतरेउ : भू० कृ० पु. कए। अवतीर्ण हुआ। 'जो अवतरेउ भूमि भय टारन ।' मा० १.१६.७ अवतरेहु : आ० भूक० पु+म० ब० । तुम अवतीर्ण हुए हो । 'धर्म हेतु अवतरेहु गोसाई।' मा० ४.६.५ अवतार : सं० पु. (सं.)। परमेश्वर का जगत् में आकार ग्रहण करना अवतार है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि अवतार हैं जिनके माध्यम से ब्रह्म (राम) जगत में अवतीर्ण होता है । उपासना की दृष्टि से आचार्य रामानुज ने अवतार के चार भेद किये हैं- (१) अर्चा=प्रतिभा, (२) विग्रह:-नृसिंह, वामन, वराह आदि; (३) व्यूह =चतुव्यूह वासुदेव या नारायण, संकर्षण प्रद्युम्न और अनिरुद्ध - रामभक्ति दर्शन में राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न का चतु!ह मान्य है; (४) प्रत्यक् अथवा अन्तर्यामी जो सभी जीवों में व्याप्त रहकर प्रेरणा देता है। रामानुज के अनुसार-चारों का उत्तरोत्तर महत्त्व है, फलतः प्रत्यक् सर्वोपरि है, परन्तु प्रथम तीन से होकर ही प्रत्यक् की उपासना संभव मानी गई है । अत्याचार का दमन करने हेतु अवतारों की अनन्तता मान्य है जिनके चार प्रमुख भेद किए जाते हैं-(१) आवेशावतार=छोटेमोटे अनाचार के विरुद्ध किसी व्यक्ति में भगवान् का आवेश हो सकता है। (२) प्रवेशावतार परशुराम आदि। (३) अंशावतार=वामन आदि । (४) पूर्णावतार=राम, कृष्ण । अवतारी : वि० (सं.)। अवतार लेने वाला। विन० ४३.१ अवदात : वि० (सं.)। उज्ज्वल, श्वेत। मा० ६ श्लोक १ अवध : अजोध्या (सं० अयोध्या>प्रा० अउज्फा) । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश अवधधनी : अवधपति । गी० ७.२०.१ अवधनाथु : अवधपति । दशरथ । मा० १.३३२ अवधपति : अयोध्या नरेश । मा० १.३२५ अवधपुर : अयोध्या नगरी । मा० १.३३६ अवधपुरी : अयोध्या नगरी में । 'अवधपुरी यह चरित प्रकासा ।' मा० १.३४.५ अवधपुरी : अवधपुर । मा० १.१६.१ अवधि : (१) सं० स्त्री० (सं०) । सीमा; वह बिन्दु जहाँ से अथवा जहाँ तक गणना, गति आदि की जाय । 'महिमा अवधि राम पितु माता ।' मा० १.१६.८ (२) प्रवासी के आने की निश्चित तिथि । 'अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना।' मा० २.५७.२ अवधूत : (१) वि० (सं.)। उपेक्षित तिरस्कृत । (२) सं० पु । वर्णाश्र मधर्म से संन्यास लेकर अपने में ही सन्तुष्ट रहने वाला परमहंस; जीव-ब्रह्म के अभेद अंशांशिभाव) का ज्ञाता । 'धूत कहो .वधूत कहौ ।' कवि० ७.१०६ अवधेस : अयोध्या नरेश; राम या दशरथ । मा० १.४६.७ अवधेसा : अवधेस । मा० ६.४५.७ अबन : वि० पु० (सं.)। रक्षणशील (अवरक्षणे)। पालक । 'सरन आये ____ अवन ।' हनु०८ अवनि : सं० स्त्री० (सं.)। पृथ्वी । मा० १.१५४.८ अवनि कुमारी : पृथ्वी की पुत्री, सीताजी । मा० २.६४.४ अवनिप : सं० पु० (सं.)। पृथ्वी का रक्षक =राजा । मा० २.४४.१ अवनी : अवनि पर, पृथ्वी पर । 'त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई ।' मा० १.१७४.८ अवनी : अवनि । मा० १.१८२.५ अवनीस, सा : अवनिप (सं० अवनीश) । मा० १.६.७ अवनीस, सू : अवनीस+कए । 'चलेउ लवाइ नगर अवनेसू ।' मा० १.२१७.६ अवमान : सं० पु० (सं०) । अवज्ञा, तिरस्कार, अवहेलना । 'गुर अवमान दोष नहिं दूजा।' मा० २.२०६.५ अवमानी : वि० पु० (सं.)। अवहेलना करने वाला। 'सोचिअ सूद्र बिप्र अवमानी।' मा० २.१७२.६ अवर : वि० (सं० अपर>प्रा० अवर) । अन्य और । 'अवर एक बिनती प्रभु मोरी।' मा० १.१५१.४ अवराधक : वि० (सं०) । आराधना करने वाला, उपासक । मा० ४.७.१७ अवराधन : सं० पु० (सं.)। आराधना, उपासना । 'सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान ।' मा० ७.११० घ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश अवराधह : आ० प्रब० । आराधना करें । 'कहिय उमहि मनु लाइ जाइ अवराधहि ।' पा० मं० २३ अवराधहु : आ० मब० । आराधना करते या करती हो । 'केहि अवराधहु का तुम्ह 52 चहू ।' मा० १.७८.३ अवधि : आ० कवा० प्र० । आराधन कीजिए। 'बीर महा अवराधिए ।' विन० १०८.१ अवराधें : आराधन से । ' इच्छित फलु बिनु सिव अवराधे ।' मा० १.७०.८ अवराधे : भू० कृ० पु ं० ( बहु० ) | आराधित किये, पूजे, अनुकूल किये। इन्ह को नहि सव अवराधे । मा० १.२१०.२ अवरेखी : भू० ०क० स्त्री० (सं० अवरेखिता ) । रेखाङ्कित की हुई ; चित्रित की हुई; रेखाओं में उकेरी हुई; उरेही हुई । 'रहि जनु कुअँरि चित्र अवरेखी ।' मा० १.२६४.४ अवरेखु : आ० आज्ञा-मए । तू रेङ्खांकित कर, चित्रित कर । 'चित्त भीति, सुप्रीति रंग, सुरूपता अवरेखु ।' गी० ७.६.१ प्रवरेब, ब : सं० [स्त्री० (सं० अवरेबा, अवरेवा - अव + रेबृ रेवृ गतौ — टेढ़ी चाल, अगवति, प्रतीति) (१) वक्रोक्ति, लाक्षणिकता, काव्य की अतिशयोक्ति जो अलंकारों का प्राण है, कवि कल्पना की वक्रता, वाग्वैदग्ध्य । 'धुनि अवरेब afer गुन जाती ।।' मा० १.३७.८ (२) उक्त प्रकार से टेढ़ाई का अर्थ लेकर यह शब्द उलझन, ग्रन्थि, असमञ्जस जैसा अर्थ भी देता है । 'राम कृप अवरेब सुधारी ।' मा० २.३१७ . ३ ( ३ ) संकट, बाधा, अपवाद । मिटिहि अनट अवरेब ।' मा० २.२६६ अवलंब : सं० पुं० (सं० ) । आश्रय, आधार, सहारा । 'सो सुतंत्र अवलंब न आना । मा० ३.१६.३ अवलंबन : अवलंब (सं०) । मा० १.२६.७ अवलंबन : अवलंबन + कए । एकमात्र सहारा । 'तुम्ह अवलंबनु दीन्ह ।' मा० २.१८४ अवलंबा : अवलंब । मा० २.६०.७ अवलंब: पूक० । अवलम्बन करके, सहारा लेकर । गी० ५.६.३ I अवलंबु : अवलंब + कए । एकमात्र सहारा । ' आपने तो एकु अवलंबु ।' कवि ०. ७.८१ अलि, ली : सं० [स्त्री० (सं० आवलि) । पंक्ति, श्रेणी, समूह । 'मनहुं ब्लाक अवलि मनु करहि ।' मा० १.३४७.२ अवल: अवली + बहु० । श्रेणियाँ 'जनु सुबेलि अवलीं हिम भारी ।' मा० २.२४४.६ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश प्रवली : अवलि । 'बचन नखत अवली न प्रकासी।' मा० १.२५५.१ अवलोकत : (१) वक० पु० । देखता, देखते । 'जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि ।' मा० १.३३३ (२) देखते-ही-देखते । 'अवलोकत अपहरत विषादा।' मा० २.२७९.१ अवलोकन : भ०० अव्यय । देखने (को) । 'सो धनु कह अवलोकन भूपकिसोरहि।' ___ जा० मं० १०५ अवलोकनि : सं० स्त्री० । देखने की क्रिया। 'अवलोकनि बोलनि मिलनि ।' मा० १.४२ अवलोकहिं : आ० प्रब० । देखते हैं । 'निसि दिन नहिं अवलोकहिं कोका।' मा० १.८५.५ अवलोकहु : आ० मब० । देखते हो, देखो। 'उभउ अरुन अवलोकहु ताता।' मा० १.२३८.७ प्रवलोकि : पूकृ० (सं० अवलोक्य)। देखकर । 'लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।' मा० १.६४ छं० अवलोकिए : आ० कवा० प्रए० । देखिए, देखा जाय, देखा जाता है । 'तुलसी नमत . ___ अवलोकिए ।' विन० २७६.६ अयलोको : (१) अवलोकि । 'प्रगट न लाज निसा अवलोकी।' मा० १.२५६.१ (२) भू०० स्त्री० । देखी। 'गुर नृप भरत सभा अवलोकी ।' मा० २.३१३.३ अवलोक : आ० आज्ञा-भए । तू देख । विन० ६३.१ अवलोके : भू०० पु. बहु० । देखे । 'अवलोके रघुपति बहुतेरे ।' मा० १.५५.४ अवलोक्य : अवलोकि । विन० ४६.८ अवसर : सं० पु. (सं०) । उचित देशकाल, अनुकूल स्थिति । प्रस्तावोचित __ समयाविशेष । मा० १.४८.७ अवसरु : अवसर+कए । विशिष्ट अवसर । 'अवसरु जानि सप्त रिषि आए।' मा० १.८६.७ अवसाना : सं० पुं० (सं० अवसान) । अन्त, विराम, छोर । 'नहिं तप आदि मध्य अवसाना ।' मा० १.२३५.७ अवसि : क्रि० वि० अव्यय (सं० अवश्यम् >अ० अवसि)। निश्चय ही, अवश्य । 'भरतहिं अवसि देहु जुवराजू ।' मा० २.५०.२ अवसेरी : सं० स्त्री० । चिन्ता, प्रतीक्षा, मानसिक उलझन । ‘भए बहुत दिन अति ___ अवसेरी ।' मा० २.७.६ अवसेषा : सं० पु० (सं० अवशेष) । शेष भाग, अन्तिम भाग । 'उहाँ राम रजनी अवसेषा।' मा० २.२२६.३ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश अवसेषित : भू०कृ० वि० (सं० अवशेषित)। बचाया हुआ। 'सिर अवसेषित राहु ।' मा० १.१७० अवस्था : सं० स्त्री० (सं.)। दशा, स्थिति । जीव की चार दशाएँ-जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। 'जनु जीव अरु चारिउ अवस्था ।' मा० १.३२५ छं०. 'तीनि अवस्था ''तूल तुरीय... । मा० ७.११७ ग अवस्य : क्रि० वि० (सं० अवश्य) =अवसि । मा० ७.१०६.६ अवां : सं० पु० (सं० आमपाक>प्रा० आमवाअ>अ० आवाअ>आवा) । आम=कच्चे बर्तन पकाने की कुमार की भट्टी जिसका धुवाँ बाहर नहीं आता, भीतर बर्तन पकते रहते हैं । मा० १.५८.४ अवास : सं० ० (सं० आवास) । घर, निवास स्थान । पा० मं० १४८ अवासू : अबासू । मा० २.१७६.६ अविगत : अबिगत । सर्वव्यापी होने से सर्वगत, सर्वगत, सर्वव्याप्त । मा० १.१८६ छं. प्रविछिन्न : अबिछीन । विन० ४६.३ अविद्या पञ्च : दे अबिद्या। अव्यक्त : अब्यक्त । ब्रह्म, जीव तथा प्रकृति । अव्यय : सं०+वि० (सं.)। व्यवहीन, निर्विकार, अविकृत ब्रह्मतत्त्व (दे० अबिकारी)। मा० ४ श्लोक २ अशुभ : (दे० असुभ) । अहित, अमङ्गल, पाप । विन० १०.५ अशेष : वि० (सं०) । सम्पूर्ण (जिससे पृथक् कुछ शेष न हो)। निविशेष (निरपेक्ष)। मा० १ श्लोक ६ अष्टक : सं० पुं० (सं.)। आठ का समवाय । जैसे-रुद्राष्टक= रुद्रस्तुति के आठ श्लोकों का समूह । मा० ७.१०८.६ अष्टासिद्धि : योग की आठ सिद्धियाँ-(१) अणिमा=अणु रूप ग्रहण की शक्ति (२) महिमा=अति विशाल रूप लेने की शक्ति (३) लघिम= अत्यन्त हल्का बनने की शक्ति (४) गरिमा =बहुत भारी होने की शक्ति (५) प्राप्ति = मनचाही गति या पहुंच (६) प्राकाम्य =मनोभीष्ट वस्तु की प्राप्ति (७) ईशित्व =सभी जीवों पर प्रभुता (८) वशित्व =सबको वशीभूत करने की शक्ति । मा० १.२.२३ 'अष्टादस : संख्या (सं० अष्टादशन्) । अठारह । मा० ६ १५.७ । अष्टोत्तर : वि० (सं.)। वह संख्या जिसके आगे आठ और हों। रा० प्र०. मङ्गलाचरण । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 55 प्रस : वि० ० (सं० ईदश>प्रा० एरिस>० अइस) ऐसा । 'अस बिबेक जब देइ बिधाता ।' मा० १.७.१ (२) इस प्रकार । 'अस बिचारि उर छाड़ह कोहू ।' मा० २.५०.१ असंक : वि० पु० (सं० अशङक) । शङ कारहित, निःशङ क, निर्भय । 'अति असंक मन सदा उछाहू ।' मा० १.१३७.३ असंका : (१) असंक । 'तह रह रावन सहज असंका।' मा० ४.२८.११ (२) सं० ___ स्त्री. (सं० आशङ का) । सन्देह, संशय । 'अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका ।' मा० १.७२.४ असंकू : असंक+कए । मा० १.२७३.२ असंग : वि० (सं.)। सङ्गरहित, अनासक्त, उदासीन, निर्लेप । 'मीन जल बिन तलकि तनु तर्ज, सलिल सहज असंग ।' कृ० ५४ असंगत : वि० (सं०) । अनुपयुक्त, अयुक्त, अयोग्य । विन० ६०.८ पसंत : (संत का विलोम) । अशान्तचित्त, असज्जन । मा० ७.३७.५ असंतन्ह, न्हि : असंत+संब० । असंतों। 'संत असंतन्ह के गुन भाषे ।'. मा० ७.४१.८ 'संत असंतन्हि के असि करनी।' मा० ७.३७.७ .. प्रसंभावना : सं० स्त्री० (सं.)। अनिश्चय, उलझन, नैराश्य । 'दारुन असंभावना बीती।' मा० १.११६.८ प्रसंमत : वि० (सं.)। अविहित, अमान्य । 'कहहिं ते बेद असंमत बानी ।' मा० प्रसगुन : (सगुन का विलोम) । दुनिमित्त, अशुभसूचक प्राकृतिक संकेत । मा० २.१५८.४ असज्जन : (सज्जन का विलोम) । असाधु, असंत । मा० १.५.३ असत् : अवियमान । वास्तव सत्ता से शून्य, पारमार्थिक दृष्टि से असत्य । अन्य की सत्ता से सत्तावन्-जैसे, पुरुष की छाया। भ्रान्त प्रतीत-जैसे, रस्सी में साँप । संसार या जरामरण आदि सांसारिक सम्बन्ध जो जीव के सन्दर्भ में नश्वर हैं । विन० १२०.४ शङकरमत में जगत्प्रपञ्च अनिवचनीय है-वह 'सत्' नहीं क्योंकि परिवर्तमान है और ज्ञानी के लिए सत्ताहीन है ; 'असत' भी नहीं क्योंकि प्रतीत होती है। वैष्णवमत में प्रपञ्च नित्य सत् है-यद्यपि परिवर्तमान है क्योंकि परिवर्तन भी नित्य है। संसार अनित्य है क्योंकि वह जीव द्वारा स्थापित सम्बन्धों-पितापुत्र, जरामरण आदि-से बनता है । प्रसत्य : वि०=असत्, मिथ्या । 'जदपि असत्य देत दुख अहई ।' मा० १.११८.१ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 तुलसी शब्द-कोश प्रसन : सं. पुं० (१) (सं०) । फेंकने का साधन । शरासन, विशिखासन, बाणासन आदि । (२) (सं० अशन)। भोजन । 'बचन सुधासम असन अहि।' मा० १.१६१ ख (३) भोजन करने की क्रिया। 'इहाँ उचित नहिं असल अनाजू ।' मा० २.२७८.७ असनि : सं० स्त्री० (सं० अशनि) । वज्र । 'ओडिअहिं हाथ असनिहु के घाए।' मा० २.३०६.८ प्रसनु : असन+कए। भोजन, एकमात्र खाद्य सामग्री । 'असनु कंद फल मूल ।' मा० २.६२ असबाबु : सं० पुं० कए (अरबी-असबाब=सबब+बहु० जिसका अर्थ उपकरण, उपादान जैसा होता है; बन्धन, रस्सी, कारण जैसे अर्थ भी उर्दू में चलते हैं। हिन्दी में सामग्री' के अर्थ में आता है, विशेषतः घरेलू सामग्री)। सामान। 'सबु असबाबु डाढ़ो, मैं न काढ़ो नै न काढ़ो' कवि० ५१२ . असम : वि० (सं.)। विषम (संख्या, मात्रा आदि में) । दुर्गम, अज्ञेय । 'असम सम सीतल सदा।' मा० ३.३२ छं०४ असमंजस : सं०+वि० पुं० (सं.)। (१) असंगत, अनर्ह, अयोग्य । 'राम सुकीरति भनिति भदेसा । असमंजस ।' मा० १.१४.१० (२) अनिश्चय, कर्तव्यनिर्णय का अभाव । 'बना आइ असमंजस आजू ।' मा० १.१६७.५ (३) संशय, व्याघातपूर्ण स्थिति, मनोभीष्टपूर्ति में सन्देह । 'करों काह असमंजस जी के।' मा० २.२६३.५ (४) अव्यवस्थित, उखड़ा-सा, बेठीक । 'सबु असमंजस अहइ सयानी।' मा० २.२२३.३ (५) ग्रहण-त्याग में अनिश्चित । ‘समुझि अवधि असमंजस दोऊ।' मा० २.२७१.६ (६) उक्त सभी अर्थों का समाहार । 'तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि कालो।' मा० २.२६१ असमंजसु : असमंजस+कए । 'असमंजसु बड़'-रा० प्र० ६.७ १ असमय : प्रतिकूल समय, अनवसर, विपरीत अवसर; संकट काल । 'आपन अति असमय अनुमानी ।' मा० १.१५७.३ असमसर : सं० पु० (सं० असमशर=विषमशर) विषम संख्यक बाणों वाला = पञ्चबाण =कामदेव । 'सकल असमसर-कला प्रबीना।' मा० १.१२६.४ (असमसर-कला=कामकला, संभोग कौशल ।) असमाकं : सर्व० (सं० अस्माकम्) । हमारा । विन० ५१.८ असयानी : (सयानी का विलोम) चातुरी से रहित निश्छल, वाक्कौशल की लाग लपेट से शन्य । 'बिबिध सनेह सानी बानी असयानी सुनि ।' कवि० २.१०।। असरन : वि० (सं० अशरण) । शरणहीन, निराश्रय, अनाथ, रक्षकहीन । मा० ७.१८३ असवार, रा : वि०+सं० पुं० (सं० अश्ववार>प्रा० असवार, आसवार)। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 57 (१) अश्वारोही । 'जुगदपदचर असवार प्रति ।' मा० १.२९८ (२) आरोही । 'बरु बौराह बसह असवारा ।' मा० १.६५.८ असहाई : असहाय । सहायक-रहित। मा० २.२२६.३ असहाय : वि० (सं०) । एकाथी, अनाथ, सहायरहित, मित्रहीन । 'संबल निसंबल __को, सखा असहाय को।' विन० ६६.१ असही : वि० स्त्री० । असहनशीला, परसन्तापिनी, दूसरे के शुभ में डाह करने __वाली। गी० १.२.१०।। असांचा : वि० पु. (सं० असत्य>प्रा० असच्च) । मिथ्या, झूठा। मा० १.१७५.७ असाँची : वि० स्त्री (सं० असत्य.>प्रा० असच्ची) । झूठी । मा० ६.२६.२ असा : अस । ऐसा । 'कलपांत न नास गुमानु असा ।' मा० ७.१०२.२ असाध : (१) वि० (सं० असाध्य)। जो उपायों से साध्य न हो, जिसका कोई उपचार न हो। 'देखी ब्याधि असाध नृपु ।' मा० २.३४ (चिकित्साशास्त्र में साध्य, दुःसाध्य और असाध्य-तीन प्रकार के रोग होते हैं ।) (२) असाधु । 'असाध जानि मोहि तजे उ अग्य की नाईं।' विन० ११२.१ (असाध =असाधु+ असाध्य-ऐसा नीच जो उपायों से भी सुधारा न जा सके।) असाधि : वि० स्त्री० (सं० असाध्या) । उपचारहीन । 'ब्याधि असाधि देखि तिन्ह त्यागी।' मा० २.५१.२ (असाध्य रोगी को वैद्य त्याग देता है।) प्रसाधु, धू : (साधु का विलोम) असज्जन, असंत । 'सुधा सुरा सम साधु असाधू ।' मा० १.५.६ असि : (१) वि० स्त्री० (सं० ईदृशी>अ० अइसी=अइसि) ऐसी । 'जिन्ह के असि मत सहज न आई।' मा० ४.७.३ (२) सं० स्त्री० (सं०) । तलवार । 'काढ़ि असि बोला।' मा० ५.६ (३) आ० मए० (सं.)। तू है । विन० १५.१-३ (दे० जोसि, सोसि)। प्रसिकला : सं० स्त्री० (सं०) । तलवार चलाने का कौशल । मा० १.२६८ असिधारबत : सं० पु० (सं० असिधारा-व्रत)। तलवार की धार पर चलने के समान कठोर व्रत । गी० ७.२५.३ असिधारा : सं० स्त्री० (सं०) । तलवार की धार । खड्गधारा पर चलने के समान __ कर्मनिष्टा । 'तिय चढ़िहहिं परिब्रत असिधारा ।' मा० १.६७.६ ।। प्रसिव : वि० (सं० अशिव) अमङ्गल, अभव्य, भद्दा । 'असिव बेष सिवधाम कृपाला।' मा० १.६२.४ असो : सं० (सं.)। काशी के पास नदी विशेष । वि० २२.३ असीम : वि० (सं०)। संख्या अथवा परिमाण में अज्ञेय, अनन्त, निरविधि, व्यापक । अधिकतम । विन० १३६.६ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 तुलसी शब्द-कोश असीस : सं० [स्त्री० (सं० आशिष् > प्रा० आसीस) । शुभाशंसा, ( किसी के प्रति ) मङ्गलकामना, आशीर्वाद । मा० २.५२.२ असोसत : वकृ० पु० । असीस देता, देते । गी० १.२.२२ असोसन : भकृ० अव्यय । आशीर्वाद देने । 'लागीं असीसन राम-सीतहि ।' गी० ७.१८.४ प्रसीसह : आ० प्रब० । अशीर्वाद देते हैं, असीसते हैं । 'नाऊ बारी भाट....... असी सहि ।' मा० १.३१ε असीसा : असीस । मा० १.२६२.५ असोसें : असीस + बहु० । 'मनभावती असीसें पाईं ।' मा० १.३०८.६ 1 असुचि : वि० (सं० अशुचि ) । अपवित्र, कलुष, मलिन, तेजोहीन । 'निसिबासर रुचि पाप असुचि मन ।' विन० १४०. १ असुन : वि० । (१) जिसे सूझता न हो = दृष्टिहीन ( २ ) जो वस्तु सूझती न हो = अदृश्य । (३) अशुद्ध । 'तेरे ही सुझाए सूझे, असुझ सुझाउ सो ।' विन० १०२.५ असुद्ध : ( शुद्ध का विलोम ) जिसमें विजातीय मिश्रण हो, अपवित्र, सकलुष, मलिन । दो० ३३० अम: सं०+ वि० (सं० अशुभ) । (१) तीन प्रकार के कर्मों- शुभ, अशुभ तथा मिश्र में से अन्यतम, पापकर्म तथा पापफल । 'जो सुभ असुभ सकल फल दाता ।' मा० २.२८२.४ (२) अशकुन । 'असुभ होन लागे तब नाना ।' मा० ६. १०२.७ (३) मलिन, विकृत । 'सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई ।' मा० १.६६.७ (४) मङ्गल, कल्याण | 'बोली असुभ भरी सुभ छूछी ।" मा० २. ३८.८ (५) अभव्य । 'असुभ रूप श्रुति नामा हीनी ।' मा० ३.१८.६ असुर : (सुर का विलोम ) । दैत्य, दानव, राक्षस । मा० १.१८.३ असुराधिप: असुरों का राजा ( जालन्धर) । मा० १.१२३.७ असुरारी: (सं० असुरारि ) । असुरों का शत्रु, असुर नाशक । मा० १.५१.२ असुरु : असुर + कए । मा० १.१०३७ असेष, षा : अशेष । मा० १.१८६ छं० असली : वि० [स्त्री० (सं० अशैली ? शीलाज्जाता शैली) । शील-हीन, दुःशीलता से जनित, अनुचित । 'मैं सुनीं बातें असैली जो कहीं निसिचर नीच ।' गी० ५.६.२ असैले: वि० पुं० ब ० (सं० अशैलाः-शीले साधवः शैलाः) शीलरहित, उदण्ड, निर्मिर्याद । 'अबुध असैले मन मैले महिपाल भए ।' गी० १.७३.५ असोक, का : सं०+ वि० पु० (सं० अशोक) । (१) वृक्ष विशेष । 'बन असोक यहाँ राखत भयऊ ।' मा० ३.२६.२६ ( २ ) शोक रहित । 'राज बिभीषन देव Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 59 असोका।' मा० ७.६८.२ (३) श्लिष्ट प्रयोग-'सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका ।' मा० ५.१२.१० । असोको : वि. पु. (सं० अशोकिन्) । शोकरहित । मा० १.१६४.८ असोच : वि० (सं० अशोच्य>प्रा० असोच्च)। निर्द्वन्द्व (जिसके लिए कुछ भी शोचनीय न रह जाय)। निश्चिन्त । 'रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें।' मा असो : सर्वनाम-कए (सं.)। वह । मा० ६ श्लोक ३ असौच : सं० पुं० (सं० अशौच) अपवित्रता, मलिनता। मा० ६.१६.३ अस्त : वि० पुं० (सं०) सूर्य का सन्ध्या समय अदृश्य होना । मा० १.१५६.२ अस्तु : आ० शुभकामना-प्रए० (सं०) । हो, होवे । मा० २ श्लोक २ अस्तुति : सं० स्त्री० (सं० स्तुति)। प्रशंसा, प्रार्थना । मा० १.८३.८ । अस्त्र : सं० पु० (सं.)। फेंककर चलाया जाने वाला आयुध बाण आदि । मा० ३.१६ अस्थाना : सं० ० (सं० स्थान) मा० ६.१२०.२ अस्थि : सं० पु० (सं.)। हड्डी । मा० ३.६.६ अस्थिमात्र : केवल हड्डी, अस्थिशेष । मा० १.१४५.४ अस्ताना : सं० पुं० (सं० स्नान) । नहाना, नहान । मा० ७.२६.२ अस्मदीय वि० ० (सं.)। हमारा-हमारे । मा० ५ श्लोक २ अस्व : सं० पु. (सं० अश्व) । घोड़ा । मा० २.२०३.५५ अस्विनि : सं० स्त्री० (सं० अश्विनी) सत्ताईस नक्षत्रों में से एक । पा० मं० ५ अस्विनीकुमार : सं० पु. बहु० (सं० अस्विनी कुमारौ)। देवद्वय जो घोड़ी के रूप में परिवर्तित सूर्य पत्नी संज्ञा की नासिका से उत्पन्न बताये गये हैं। वैदिक तथा नसक्तिक धारा के अनुसार प्रातःकाल में अन्धकार और प्रकाश के मिश्रित रूप का नाम है । पुराणों में इन्हें देवों का वैध बताया गया है अतः 'देव भिषजी' भी कहते हैं । 'जासु घ्रान अस्विनीकुमारा ।' मा० ६.१५.३ अहंकारी : वि० पुं० (सं० अहंकारिन्) । अभिमानी, आत्ममानी । मा० ६.४०.१ मह : अहं । अहंकार, अभिमाना 'अह मम मलिन जनेषु ।' मा० २.२२५ अहं : (१) अहम् । मैं । मा० १ श्लो० ५ (२) अहंकार । 'अहं अगिनि नहिं दाहै ___ कोई। पैरा० ५२ अहंकार : सं० पु० (सं.)। (१) अभिमान, घमण्ड । 'अहंकार अति दुखद डमरू का ।' मा० ७.१२१.३५ (२) चार अन्तःकरणों में से एक जो महत्तत्त्व या बुद्धि से जनित बताया गया है । वेदान्त तथा सांख्य दर्शनों में अहंकार से ही मन, इन्द्रियों तथा भौतिक प्रपञ्च की सृष्टि बताई गई है। मा० ६.१५ (दे० अन्तःकरण)। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश हंबाद : सं० पुं० (सं० अहंवाद ) क्षुद्र अहन्ता, अपने को ही बहुत समझने वाला कथन, अहंकारोक्ति । 'अहंबाद मैं तैं नहीं, दुष्ट संग नहि कोइ ।' पैरा० ग्रह, ग्रहइ, ई : (सं० अस्ति > प्रा० असइ > अहइ ) आ० प्र० । है । 'जदपि अह असमंजस भारी ।' मा० १.८३.४ 'सो सुग्रीव दास तव अहई ।' मा० ४.४.२ अहउँ, ऊँ : आ० उ० । हूं । 'बैठ अहउँ बट छाहीं । मा० १.५२.२ अहन : सं० पुं० (सं० अहन् ) दिन प्रतिदिन, दिन में । 'अटत गहनगन अहन अखेटकी ।' कवि० ७.६६ 60 अहनिसि : क्रि० वि० (सं० अहर्निशम् ) । दिन रात सदा । मा० ७.२५ ५ अहम् : (१) सर्वनाम (सं० ) मैं । ' नतोऽहमुविजापतिम् ।' मा० ३.४ छं० ( २ ) अहंकार । अहन्ता । अहमिति : सं० स्त्री० (सं० – अहम् + इति ) । अहंता, अहंभाव । 'मैं ही हूं' ऐसा भाव । 'जीवधर्म अहमिति अभिमाना ।' मा० १.११६.७ प्रहलाद : सं० पु० (सं० आहलाद ) । प्रसन्नता, प्रमोद । 'भक्त प्रहलाद अहलाद कर्ता ।' विन० ५२.४ अहल्या : सं० [स्त्री० (सं० ) । गौतम की पत्नी का नाम ( वेदों में उषा का तथा बिना जोती भूमि का नाम) । मा० १.२२३.५ अहसि : आ० मए० । तू है । 'को तू अहसि' मा० २.१६२.७ - अहह : अव्यय (सं० - अहं जहाति इति अहह ) अहंकार छूटने का भाव, विस्मय श्रम, पश्चात्ताप, खेद, क्लेश आदि का व्यञ्जक है । 'अहह तात ।' मा० १.२५८.२ अहि, हीं : आ० प्र० । हैं । 'भए जे अहहिं जे हो इहहिं आगें । मा० १.१४.६ ' आकर चारि जीव जग अहहीं । मा० १.४६.४ • अहहु, हू : आ० मब० । हो । मा० १.१२०.५ अहार : सं० पु० (सं० आहार ) । भोजन । 'कहि अहार साक फल कंदा ' मा० १.१४४.१ अहारन : भकृ० अव्यय । खा जाना । 'चाहत अहारन पहार ।' कवि० ७१४८ अहारपर: वि० (सं० आहारपर) भोजन परायण । विन० १६६.५ अहारा : अहार । मा० ५.२.३ - अहारी : वि० (सं० आहारिन्) । आहार करने वाला । 'कंदमूल भल फूल अहारी ।' मा० २.२०१.३ प्रहारु, रू : अहार + कए । एकमात्र भोजन । मा० १.१७७.७ अहि: सं० पुं० (सं० ) ( १ ) सर्प | मा० १.११-१ ( २ ) शेषनाग । कवि० १.११ अहिंसा : सं० [स्त्री० (सं० ) । योग के आठ अङ्गों में 'यम' प्रथम है जिसमें 'अहिंसा' प्रथम स्थान पर है । मनु ६.७५ के अनुसार यही ब्रह्मपद पाने प्रथम कारण है; Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी-शब्द-कोश मनु ने यज्ञ की हिंसा को अहिंसा बताया है-५.४४ गीता १०.५ में अहिंसा को उत्तम बताया गया है-शङकराचार्य ने "प्राणियों को पीडा न देने को 'अहिंसा' कहा है।' 'परम धरम श्रुति बिदित अहिंसा ।' मा० ७.१२२.२२ अहित : वि०+सं० (सं०) (१) हिन विरोधी, अनिष्टकारी। शत्रु । 'ये अति ___ अहित राम तेउ तोही।' मा० २.१६२.७ (२) अकल्याण । 'अहित न होइ तुम्हार ।' मा० ५.४० अहिनाथ : शेषनाग । गी० ७.२०.२ अहिनाहु, हू : अहिनाथ+कए । 'बरनि न सकहिं गिरा अहिनाइ।' मा० १.२६१.६ अहिनी : सं० स्त्री०-सपिणी । मा० ३.१७.३ अहिन्ह : अहि+सं०ब० । सो । 'अहिन्ह के माता ।' मा० ५.२.३ अहिप, पति : सं० पु० (सं०) सर्पराज, शेषनाग । मा० २.२५४.७ अहिपति : अहिप (सं.)। मा० ५.३५ छं० अहिबात, ता : सं० पु. (सं० अविधवात्व>प्रा० अविहवत्त) स्त्री का पति सहित जीवन-सौभाग्य । मा० १.३३४.४ अहिबेलि : सं० स्त्री० (सं० अहिवल्ली=नागवल्ली)। पान की लता, ताम्बल लता । मा० २.१८८.२ अहिमवन : सं० पु (सं.)। सर्पो के रहने का स्थान, बाषी, मिट्टी का स्तूप जिसमें साप रहते हैं । मा० १.११३.२ । अहिभामिनी : सर्पिणी। मा० ३.३०.११ अहिराजा : सं० पुं० (सं० अहिराज) सर्पराज, शेषनाग । मा० ३.१४.४ अहिरिनि : अहीर स्त्री० । रा० न० ४ अहिवात : अहिवात । मा० ६.१५ अहीर : सं० पु. (सं० आभीर) । गोपालन व्यवसायी जातिविशेष । मा० ७.११७.१२ अहीसा : सं० पु. (सं० अहीश)। सर्पराज, शेषनाग । मा० १.१०५.३ अहीसु : अहीस+कए । मा० २.१२६ छं. अहेर : सं० स्त्री० (सं० आखेट>प्रा० आहेद्र-पु०) । मृगया । 'तह तह तुम्हहि ___ अहेर खेलाउब ।' मा० २.१३६.७ अहेरि, री : वि० पृ० (सं० आखेटिक >प्रा० आहेउिअ) । शिकारी। मा० २.१३३.४ अहेरें, रे : अहेर में । 'फिरत अहेरें परेउँ भुलाई ।' मा० १.१५९.६ ___'राम अहेरे चलेंगे।' गी० १.२२.१४ अहैं : अहहिं । हैं । 'इन्ह से एइ अहैं ।' मा० १.३११ छं० महै : अहइ । है । 'बिदित गति सब की अहै ।' मा० १.३३६ छं० Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश अहो : अव्यय (सं०) । आश्चर्य, कष्ट, प्रशंसा, सम्बोधन, ईर्ष्या, हर्ष, श्रम, सन्देह का व्यञ्जक है । 'अहो मुनीसु महाभटमानी ।' मा० १.२७३.१ 'अहो भाग्य मैं देखिहउँ तेई ।' मा० ५.४२.८ ऑफ : अंक । निश्चय । 'एकहिं आँक मोर हित एहू ।' मा० २.१७८.७ आँकरो: वि० पुं० कए । अतिशय, तीव्र, अत्यन्त । 'आँकरो अचेतु है ।' कवि० ७.८२ आँकु : आंक+कए । लेख, लिपि, रेखा । 'मेटि को सकइ सो आँकु जो बिधि . लिखि राखेउ ।' पा० मं० ६४ प्रांखि : सं० स्त्री० (सं० अक्षि>प्रा० अक्खि) । नेत्र । आखिन, न्ह : आँखि+संब० । आँखों । 'बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा।' मा० . १.२८०.७ प्रांखी : आंखि+बहु० । आँखें । 'मोरें भरतु रामु दुइ आँखी।' मा० २.३१.६ आँगन : अंगना । अजिर । रा० न० ७ आंच : सं० स्त्री० (सं० अचिष>प्रा० अच्चि)। अग्निशिखा, आग की लो या ज्योति, दीपशिखा, अग्निताप । दो० ३३६ आंचर : सं० पु. (सं० अञ्चल)। रा० न० ६ प्रांचरन्हि : आँचर+संब० । अञ्चलों (मैं)। 'दुहु आंचरन्हि लगे मनि मोती।' मा० १.३२७.७ आंचरु : आंचर+कए । 'आंचरु पसारि पिय पाय लै लै हौं परी।' कवि० ६.२७ आँचा : आँच । ताप, दाह । 'अजहूँ हृदउ जरत तेहि आंचा।' मा० २.३२.५ ।। आँचे : भू०० पु० बहु० । आँच खाए हुए, तपे हुए, विदिग्ध । 'कोप कृसानु गुमानु ___ अवां, घट ज्यों जिन के मन आव न आँचे ।' कवि० ७.११८ । आजहिं : आ० प्रब० (सं० अञ्जन्ति>प्रा० अंजंति>अ० अंजहिं) । अञ्जनयुक्त करती-ते-हैं। 'लोचन आँजहिं फगुआ मनाइ।' गी० ७.२२.७ आँजी : भू०० स्त्री० । अञ्जन लगाई हुई, कज्जल-रेखायुक्त । 'लोकरीति, फूटी सहहिं, आंजी सहइ न कोइ ।' दो० ४२३ आँजे : भू० कृ० पु० बहु० । अञ्जनयुक्त किये । 'चुपरि उबटि अन्हवाइ के नयन __आंजे ।' गी० १.१०.१ आंत : सं० स्त्री० (सं० अन्त्र>प्रा० अंत) पेट की ओझरी; उदरस्थ नलिका शृङ्खला विशेष । मा० ६.८८.५ आंतन, नि : आंत+संब० । आँतों। कवि० १.५० आँधर : सं०+वि० पु. (सं० अन्ध, अन्धन्न) । अन्धा, दृष्टिहीन । आँधरें : अन्धे ने । 'लही आँखि कब बांधरें।' दो० ४६६ आँधरे : आंधर (रूपान्तर) । 'आँधरे को आँखि है।' विन० ६६.३ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश . 63 प्रांघरो : आंधर+कए । 'ते नयना जनि देहु राम करहु बरु आंधरो।' दो० ४४ आँधी : सं० स्त्री० (सं० अन्धिका) । अन्धवात, धूल उड़ाकर अंधेरा करने वाला ___ तीव्र वायु । मा० ६.७८.८ आँब : सं० पु० (सं० आम्र>प्रा० अंब) । आम्रवृक्ष । मा० ७.५७.६ आँसु, सू : सं० पु. (सं० अश्रु>प्रा० अंसु, अंसू) नेत्र-जल । मा० २ १३.६ प्रा : (१) उपसर्ग-जैसे-आधार, आकार आदि। (२) अव्यय-पर्यन्त आदि-जैसे-आजानु । . (३) धातु (सं० आस्) । होना-जैसे-आहिं। आइ : (१) पूकृ० । आकर । 'आइ करहिं रघुनायक सेवा।' मा० १.३४.७ (२) आयु । 'सो जानइ जनु आइ खुदा भी।' मा० १.२६६.३ आइअ : आ० भावा० । आइए, आया जाय । ‘जाइ जनकपुर आइअ देखी ।' मा० १.२१८.१ पाइन्ह : आ०भू०० स्त्री०+ उब । (हम स्त्रियाँ) आई हैं। 'लहेउ जनम फल लाहु, जनमि जग आइन्ह ।' जा० मं० ५६ आइयह : आo-भवि०+आज्ञा या प्रार्थना-म०ब० । तुम आना। 'बाल्मीकि मुनीस आश्रम आइयहु पहुंचाइ।' गी० ७.२७.४ आइहहिं : आ० भ० प्रब० । आयेंगे। लेन आइहहिं बंधु दोउ ।' मा० १.३१० आइहि : आ० भ० प्रए। आएगा। 'तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा।' मा० ३.२५.८ आइहैं : आइहहिं । दो० ४२२ आइहै : आइहि । गी० ५.३४.१ आइहौं : आ० भ० उए । आऊँगा। मा० २.१५१ छं० आई : भू०कृ० स्त्री. बहु० । 'संभ्रम चलि आई सब रानी।' मा० १.१६३.१ आई : (१) आइ । आकर । 'तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई।' मा० १.७६.१ (२) भू०० स्त्री । आ पहुंची। तेहि अवसर सीता तहँ आई।' मा० १.२२८.२ आउ : (१) आव, आवइ । आता-ती-है । 'बिहँसत आउ लोहारिनि हाथ बरायन हो।' रान० ५ (२) आ०-आज्ञा-मए । तू आ । 'सरन राम के आउ।' रा०प्र० ७.५.५ (३) सं०स्त्री० (सं० आयुष>प्रा० आउ) । जीवनकाल । 'भय भभरि भगी न आउ ।' गी० २.५७.३ आउज : सं० पु. (सं० आतोद्य>प्रा० आउज्ज)। आघात से बजने वाला बाजा । गी० १.२.१३ पाउब : भ०० पु । आना होगा, आना चाहिए (आऊँगा)। 'मैं एहि बेष न आउब काऊ।' मा० १.१६९.३ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 तुलसी शब्द-कोश आउ-बाउ : अंडबंड, निरर्थक शब्द जाल । 'बक्यो आउबाउ मैं ।' विन० २६१.२ आएँ : आने से, आने पर । 'सोह सैल गिरिजा गृह आएँ ।' मा० १.६६.३ आए : (१) आएँ । आने पर । 'बनि आए बहिब ही।' क० ४० (२) भू०० पु. ब० । आ गये, आ पहुंचे । 'कहहु अमर आए केहि हेतू ।' मा० १.८८.७ आएहु : आ०-भ०+आज्ञा-मब० । तुम आना । 'आएहु बेगि न होइ लखाऊ ।' ___ मा० २.२७१.८ आक : सं० पु० (सं० अर्क>प्रा० अक्क) । मदार । कृ० ५१ आकर : सं० पुं० (सं०) (१) खानि । 'मनि आकर बहु भाँति ।' मा० १.६५ (२) जीव जातियाँ-अण्डज, पिण्डज (जरायुज), स्वेदज तथा उद्भिज्ज । 'आकर चारि, लाख चौरासी ।' मा० १.८.१ आकरष : आ० प्रए (सं० आकर्षति>प्रा० आकरिसइ) । खींचता है, आकृष्ट करता है। विन० १०८.४ आकरष्यो : भू०० पु० कए । खींचा । गी० १.६०.७ आकरी : सं० स्त्री० । आकर-कर्म, खान खोदने का काम । 'चाकरी न आकरी न खेती न बनिज भीख ।' कवि० ७.६७ आकाश : सं० पु. (सं०) । खगोल, शून्य मण्डल । मा० ७.१०८.२ आकाशवास : सं०+वि० पुं० (सं.)। आकाशवत् व्यापक आवास, सबको आवृत कर रहने वाला, सर्ववास, आकाश तुल्य निराकार होकर भी सबका आश्रय । मा० ७.१०८.२ आकास : आकाश। प्राकिंचन : वि० (सं० अकिंचन) । पूर्ण निर्धन । अपने पास कुछ भी न रखने वाला । 'आकिंचन इंद्रिय रमन दमन राम इकतार ।' पैरा० २६ प्राकु : आक+कए । मदार । 'खोजत आकु फिरहिं पय लागी ।' मा० ६.११५.२ आकृति : सं० स्त्री० (सं०) । आकार, रूप । मा० १.१३७.७ आको : आक भी, मदार भी । 'राम नाम महिमा करै कामभूरुह आको।' विन०. १५२.१३ पाक्षिप्त : भू० कृ०पू० (सं०) । फेंका हुआ, डाला हुआ। विन० ५६.८ आखत : सं० पु. (सं० अक्षत) । चावल (हवन सामग्री) । 'आखत आहुति किए जातु धान ।' गी० ५.१६.६ प्राखर : सं० पु. (सं० अक्षर>प्रा० अक्खर) (१) स्वर अथवा व्यञ्जन युक्त स्वर । 'आखर मधुर मनोहर दोऊ ।' मा० १.२०.१ (२) शब्द । 'आखर अरथ __अलंकृति नाना।' मा० १.६.६ आखे : भू.कृ. पु० बहु० (सं० आख्यात>प्रा० आविखअ) । कहे, आख्यान किये। 'सांचे सदा जे आखर आखे ।' गी० १.६.२१ । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश आख्य : (समासान्त में) वि० (सं.) । आख्या=नाम वाला । मा० १ श्लो०६ पागम : सं०० (सं.)। शास्त्र, पवित्र प्रामाणिक ग्रन्थ । मा० १.१२ आगमन : सं०० (सं०) । आने या आ पहुंचने की क्रिया । मा० १.२०७.८ प्रागमनु, नू : आगमन+कए। विशिष्ट आगमन । 'सेवक सदन स्वामि आगमनू ।' ___ मा० २.६.५ आगमी : सं०० (सं.)। आगमवेत्ता, ज्योतिषी। गी० १.१७.१ आगर : सं०पु० (सं० आकर>प्रा० आगर) । खानि । 'सब गुन आगर ।' मा० १.१६२ छं० आगरि, री : आगर+स्त्री० । जा० मं० १५४, मा० १.३२५ छं० ३ आगवन : आगमन (अ. आगवण) । मा० ७.०.२ आगवनु, नू : आगमनु । मा० २.२२७.१ आगार : सं०० (सं०) । स्थान, घेरा, घर । मा० १.१७ आगारा : आगार । मा० ६.१०.७ आगि : सं० (सं० अग्नि>प्रा० अग्गि) । मा० १.१८३.६ आगिल : वि. पु. (सं० अग्रथ, अग्रिम>प्रा० अग्गिल्ल) आगे होने वाला। 'आगिल चरित सुनहु जस भयऊ ।' मा० १.७१.१ आगिलि, ली : वि० स्त्री० (सं० अग्या>प्रा० आग्गिल्ली) आगे होने वाली। 'आगिलि कथा सुनहु मन लाई ।' मा० १.२०६.१ विन० २६१.४ प्रागिलो : आगिल+कए। अगला । गी० १.८४.८ आगी : आगि (सं० अग्नि>प्रा० अग्गी) । मा० २.४७.४ आगे : (१) आगामी समय में । 'भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें।' मा० १.१४.६ (२) अग्र भाग में । 'आगे होइ चलि पंथ तेहिं ।' मा० १.५२ आगे : सं०० (सं० अग्र>प्रा० अग्ग)। (१) सामने । 'नयननि आगे तें न टरति मोहन मूरति ।' कृ० २८ (२) (सं० अग्रे>प्रा० अग्रे)। तुलना में । 'जिन्ह के जस प्रताप के आगे ।' मा० १.२६२.२ (३) अयदेश में । 'सुतन्ह समेत ठाढ़. ये आगे।' मा० १.३६०.५ आग्या : अग्या । गी० १.८५.४ प्राग्याकारी : वि० पु० (सं० आज्ञाकारिन्) । आज्ञापालक । विन० ६८७ आचमनु : सं०० (सं०)+कए। हाथ, मुंह आदि धोने की क्रिया। मा० १.३२६.८ आचरज : अचरज । (१) विस्मय । 'सुनि आचरज करै जनि कोई ।' मा० १.३.२ (२) विस्मयजनक विचित्र कार्य । 'कहेसि अमित आचरज बखानी ।' मा० १.६३.६ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 तुलसी शब्द-कोश आचरजु : आचरज+कए। (१) अद्वितीय विस्मय। 'जनि आचरजु करै सुनि सोई ।' मा० १.३३.३ (२) अद्भुत अद्वितीय कर्म । 'यह तुम्हार आचरजु न ताता।' मा० २.२०८.२ पाचरत : (१) वकृ० पु । आचरण करता, करते । 'जो आचरत मोर हित होई ।' मा० २.१७७.५ (२) क्रियाति पु० ए० । 'होत जनमु न भरत को..... बिषम ब्रत आचरत को।' मा० २.३२६ छं० आचरन : सं०० (सं० आचरण)। कर्म, आचार व्यवहार । 'सुभ आचरन कतहुं नहिं होई ।' मा० १.१८३.७ आचरनि : आचरन । आचरण क्रिया । 'सकल सराहैं निज-निज आचरनि।' विन० १८४.३ आचरनी : आचरनि । 'जिमि कुठार चंदन आचरनी । मा० ७.३७.७ आचरनु, नू : आचरन+कए। मा० २.२२३.१ आचरहिं : आ० प्रब० । आचरण में लाते हैं । 'जे आचरहिं ते नर न घनेरे ।' मा० ६.७८.२ आचरिबे : भकृ० पु० । आचरण में लाने को। 'जो प्रपंच परिनाम प्रेम फिरि ___अनुचित आचरिबे हो।' कृ० ३९ आचार : सं० पु० (सं.)। उत्तम आवरण, धार्मिक दिनचर्या । मा० ७ १२१ ख प्राचारा : आचार । (१) आचरण । 'सुमति सुसील सरल आचारा । मा० ७.६४.१ (२) धार्मिक दिनचर्या। आचारी : वि०पु० (सं.)। सदाचारी, धर्माचरण करने वाला, शास्त्रीय आचरणों वाला। मा० ७.६८.५ आचारु, रू : आचार+कए । 'बेद बिदित आचारु ।' मा० १.२८६ प्राछी : वि० स्त्री० (सं० अच्छा>प्रा० अच्छी) उत्तम, अतिशय । 'मति अति नीचि ऊँचि रुचि आछी।' मा० १.८.७ आछे : क्रि० प० । भली-भांति । अच्छे......पर । 'आगे मुनिबर बाहन आर्छ ।' मा० २.२२१.५ आछे : वि० पु० (बहु०) । अच्छे, उत्तम । 'आछे मुनिबेष धरें।' कबि० २.१५ आजन्न : (दे० आ०)। जन्म से+जीवन पर्यन्त । 'आजन्म ते परद्रोह रत ।' मा० ६.१०४ छं० आजहू : अजहूं । कवि० ६.२४ आजानु : क्रि० वि० (सं०) । जानुपर्यन्त, घुटनों तक । 'आजानु सुभग भुज ।' गी० .. २.६६.१ आजु, जू : अव्यय (सं० अद्य>प्रा० अज्ज >अ० अज्जु) । मा० २.२० आठ : संख्या (सं० अष्ट>प्रा० अट्ठ) । मा० ६.१६.२ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश पाठई : वि.+सं. स्त्री० (सं० अष्टमी>प्रा० अष्टमी)। (पखवारे की) आठवीं (तिथि)। विन० २०३.६ आठइ : आठ ही, केवल आठ । 'आठइ नयन जानि पछिताने ।' मा० १.३१७.४ आठ प्रकृति : प्रकृति के आठ विकार-पञ्चभूत, मन, अहंकार और बुद्धि । विन० २०३.६ आठवं : वि०० (सं० अष्टम>प्रा० अष्टम>अ. अट्ठ)। आठवां। मा० ३.३६.४ आढ़ : सं० स्त्री० । आश्रय, अवलम्ब, सहारा (आड़)। 'जमगन मुख मलीन लहैं __ आढ़ न ।' विन० २१.२ आढ्य : वि०० (सं०) । सम्पन्न, वैभवयुक्त । मा० ७ श्लोक १ आतनोति : आ० - प्रए० (सं.)। सब ओर फैलाता है, रचता है। मा० १ __ श्लोक ७ आतप : सं०० (सं.)। (१) तेज, ताप । 'रबि आतप भिन्नमभिन्न यथा ।' मा० ६.१११.१६ (२) घाम, गर्मी । मा० १.४२.४ आतम, मा : सं०० (सं० आत्मन्) । (१) जीव, चेतत तत्त्व । 'आतम अनुभव सुख सुप्रकासा ।' मा० ७.११८.२ (२) साक्षी, अन्तर्यामी, परमात्मा । ऊगो आतम भानु ।' वैरा० ३३ आतमबादी : वि०पु० (सं० आत्मवादिन्) । जड़ तत्त्व से पृथक् चेतन तत्व की सत्ता का सिद्धान्त मानने वाले । 'जे मुनिनायक आतमबादी।' मा० ७.७०.६ आतमा : आतम। विन० २०२.३ आतुर : (१) वि० (सं.)। वेगशील। 'चला गगन पथ आतुर।' मा० ३.२८ (२) व्याकुल, आतङि कत, हड़बड़ाया हुआ। 'भय आतुर कपि भागन लागे।' मा० ६.४३.१ (३) क्रि०वि० । शीघ्रता के साथ । 'सर मज्जन करि आतुर आवहु ।' मा० ६.५७.६ आतुरता : सं० स्त्री० (सं.)। शीघ्रता, हड़बड़ी, व्याकुलता । कवि० २.११ आतुरताई : आतुरता । 'मुदित महरि लखि आतुरताई । कृ० १३ आतुरे : भूकृ० पुं० (सं० आतुरति)। आतुर किए हुए, व्याकुल, व्यथित । 'भालु बोल हिं आतुरे।' मा० ६.८२ छं० मात्माहन : वि० (सं० आत्महन् - ईशोपनिषद् में प्रयुक्त)। (१) आत्मज्ञान की उपेक्षा करने वाला (२) आत्मघाती । 'सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ।' मा० ७.४४ आदर : सं०० (सं.)। सम्मान, सत्कार । मा० १.६६.६ आवरहिं, हीं : आ०प्रब० । आदर करते हैं, सम्मान देते हैं, मान्य करते हैं। 'जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं।' मा० १.१४.८ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश आदरही : आदर को । 'सम मानि निरादर आदरही ।' मा० ७.१४ छं० आदरहुं : आ० - संभावना - प्रब। सम्मान दें, आदर करें। 'के निदरहुं कैं आदरहुं ।' दो० ३८१ 68 आदरिअ : आ०कवा०प्र० । आदर दिया जाय, समान्य करना चाहिए | आदरिअ करिअ हित मानी ।' मा० २.१७६.२ आदरियत: वकृ०पु० - कवा० । आदर पाता पाने । विन० १८३.२ आदरिये : आदरिअ । 'तिनह न आदरिये ।' विन० १८६४ श्रादरी : भूकृ० स्त्री० । संमानित की । 'भवहरनि भवित न आदरी ।' मा० ७.१३ छं० ३ आदरु: आदर+कए । अद्वितीय सम्मान । 'जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा ।" मा० १.१०७.३ आदरे : भू० कृ०पु० बहु० । सम्मानित किये । गी० ६.२२.६ आदरेण : (सं० पद) आदर से । मा० ३.४ छं० 1 आदरेहु : आ० – भू० कृ०पु० + मब० । तुमने सम्मानित किया - किये । 'नहि आदरेहु भगति की नाई ।' मा० ७.११५.१० आदरी : आ० - आज्ञा - प्र० । ( वह) आदर करे, सम्मान दे। 'सोइ आदरी आस जाके जिय बारि बिलोवत फीकी ।' कृ० ४३ प्रादर् यो : भू० कृ०पु०कए० । सम्मानित किया । 'तू जो हम आदर यो सो तो नव कमल की कानि ।' कृ० ५२ आदि : (१) वि० (सं० ) । प्राथमिक | 'आदि सृष्टि उपजी जब ।' मा० १.१६२ (२) मुख्य, प्रथम ( समासान्त में ) इत्यादि । 'व्यास आदि कबि पुंगव नाना । मा० १.१४.२ (३) सं०पु० | आरम्भ । 'आदि अंत कोउ जासु न पावा ।" मा० १.११८.४ (४) क्रि०वि० । पहले, सर्वप्रथम । 'आदि सारदा गनपति गौरि मनाइय हो ।' रा०न० १ आदिक : आदि । इत्यादि । मा० ६.६२.१२ aferfar : बाल्मीकि मुनि जिन अषि रामायण ग्रन्थ आदि - काव्य माना गया है । मा० १.१६.५ आदित: सं०पु० (सं० आदित्य ) । सूर्य । 'दंड द्वै रहै हैं रघु आदित उवन के । कवि० ६.३ आदिदेव : (१) मुख्य देवता, (२) प्रथम पूज्य देवता = गणेश जी, (३) सूर्य, (४) ब्रह्म, (५) शिव ( ६ ) विष्णु । ' आदिदेव प्रभु दीनदयाला।' मा० १४२.६ (यों आदिदेव दैत्य - पर्याय है ।) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 69 प्रादिसक्ति : सं० स्त्री० (सं० -आदिशक्ति) (१) (ब्रह्म की सनातन शक्ति महामाया अथवा मूल प्रकृति जो विश्वसष्टि का आदि कारण है । (२) राम ब्रह्म की परमाशक्ति=सीता। 'आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला।' मा० १.१४८.२ प्रादि-सृष्टि : विश्व की प्रथम उत्पत्ति, प्रलय के अनन्तर विश्व का आविर्भाव । मा० १.१६२ आदेस : आयस । आज्ञा । कवि० ७.१४० आध : वि० (सं० अर्ध>प्रा० अद्ध)। आधा-आधी । 'कपूत कौड़ी आध को।' ___ कवि० ७.६८ प्राधा : आध । मा० ६.४८.४ आधार : सं०पु० (सं.)। आश्रय, अधिष्ठान, अधिकरण कारक, अपने में आधेय वस्तु को धारण करने वाला । सकल जगत आधार ।' मा० १.१६७ ।। आधारा : आधार । मा० ३.१२.७ आधीन : वि० (सं० अधीन) । परवश, परतन्त्र । 'अंब ईस अधीन जगु ।' मा० २.२४४ आधीना : आधीन । 'देखिअहिं रूप नाम आधीना ।' मा० १.२१.४ आधु : आध+कए । एक खण्ड, एक द्वितीयाशमात्र । 'सुधरत पल लगै न आधु ।' . विन० १६३.३ आधे : 'आधा' का रूपान्तर (सं० अर्धक>प्रा० अश्वय) । 'उमय भाग आधे कर कीन्हा ।' मा० १.१६०.२ आनंद : आनंद । मा० १.२३.६ 'सत चेतन धन आनंद रासी ।' मा० १.२३.६ आनंदमई : वि० स्त्री० (सं० आनन्दमयी.>प्रा० आनंदमई)। अग्नन्दपूर्ण । 'सकल _ दिसि आनंदमई ।' मा० १.३२१ छं० प्रानंदु : आनंदु । मा० १.३२३.४ पान : (१) वि० (सं० अन्य>प्रा० अन्न) । इतर, दूसरा । 'हृदय धरहिं कछु आन ।' मा० १.४६ (२) सं. स्त्री० । शपथ । 'मोहि राम राउरि आन।' मा० २.१०० छं० (३) दुहाई । 'विश्वनाथपुरी फिरी आन कलिकाल की।' कवि० ७.१६६ प्रानंद : सं०पू० (सं.)। अखण्ड मुख । 'दिए दान आनंद समेता।' मा० २.२६५.८ परमात्मा का कल्याणकारी गुण । दे० सच्चिदानंद । आनंदकंदु : आनन्द का एकमात्र मूलकारण । मा० १.३१८ छं० आनंदघन : (१) आनन्द की वर्षा करने वाला (२) धनीभूत आनन्द-आनन्दरूप ___ कल्याण गुण का आगार । विन० ४७.१ आनंद-द : आनन्द-दायक । मा० ३ श्लो०१ आनंदित : वि० (सं०) । परमसुख से युक्त । गी० १.६ ६ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 तुलसी शब्द-कोश आनंद : आनंद+कए । अद्वितीय आनन्द । मा० १.३०१.५ आनइ : अन्य ही । 'सब पंप्रच तह आन इ आना ।' मा० ७.८१.४ आनउँ : आ० उए (सं० आनयामि>प्रा० आणमि>आ० आणउँ)। ले आऊँ। ___ 'तात जतन करि आनउँ सोई।' मा० ४.१८.३ आनत : वकृ.पु. (सं० आनयत् >प्रा० अणंत) । (१) लाता-लाते । (२) लाते ही । 'उर अस आनत कोटि कुचाली।' मा० २.२६१.३ मानन : सं०० (सं०) । मुख । मा० १.११८.६ आननी : (समासान्त में) वि० स्त्री० । मुख वाली। 'चारु भ्रू, नासिका सुभग सुक-आननी।' गी० ७.५.४ माननु : आनन+कए। वह अद्वितीय मुख । 'आनन सरद चंद छबि हारी।' मा० १.१०६.८ मानब : भूकृ० पु० (सं० आनेतव्य>प्रा० आणिअव्व) । लाना होगा (लाऊँगा)। 'हरि आनब मैं करि निज माया ।' मा० १.१६६.४ आनसि : आ०मए । तू लाता है। 'उत्तर प्रति उत्तर बहु आनसि ।' मा० ७.११२.१३ आनहिं : (क) आ०प्रब० (सं० आनयन्ति>प्रा० आणंति>अ० आणहिं) । (१) ले आते हैं । 'एक कल स भरि आनहिं पानी।' मा० २.११५ १ (२) ले आएं । 'आनहिं नृप दसरथहि बोलाई ।' मा० १.२८७.१ ।। (ख) अन्य को भी, दूसरे को भी। 'आपु गए अरु घालहिं आनहिं ।' मा० ७.४०.५ आनहु : आ०मब० । ले आओ। 'बेगि कुॲरि अब आनहु जाई ।' मा० १.३२२.२ आना : (१) आन । शपथ । 'सपथ तुम्हारी भरत के आना ।' मा० २.४३.२ (२) आन० । अन्य । 'अस पन तुम्ह बिनु करइ को आवा।' मा० १.५७.५ (३) भू०००सं० आनीत>प्रा० आणि अ) । लाया। 'मांगी नाव न केवट आना ।' मा० २.१००.३ यानाकानी : सं० स्त्री० (सं०अनाकणिका>प्रा० अणाकण्णिआ>अ० अणाकण्णी)। सुनी-अनसुनी; जानबूझ कर भी न जानने का अभिनय । 'आनाकानी, कंठहँसी, मुहाचाही होन लागी।' गी० १.८४.८ आनि : (१) पूकृ० । लाकर । 'आनि देखाई नारदहि ।' मा० १.१३० (२) आकर। 'की नि गोहारी आनि ।' दो० ५३६ (३) आ० आज्ञा-भए । तू ला=आनु । 'उर आनि धरे धनु भाथहि रे ।' कवि० ७.२६ (४) (वि० स्त्री० । अन्य । _ 'राम चरन तजि नहिन आनि गति ।' विन० १२८.१ आनिअ : आ०कवा०प्रए० । लाइए, ले आइए । 'अब आनिअ व्यवहरिआ बोली।' मा० १.२७६.४ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 71 आलिए : आनिअ । मा० २.२०१. छं. आनिबी : भूक० स्त्री० (सं० आनेतव्या>प्रा० आणिअव्वी)। ले आनी होगी। ___ 'रिपुहि जीति आनिबी जानकी।' मा० ५.३२.४ आनियहिं : आ०-कव-प्रब० । ले आये जायं । 'ब्रज आनियहिं मनाय पाय परि कान्ह कूबरी रानी।' कृ० ४८ मानिहिं : आ०-भ०-प्रब० । लाएंगे। 'सो कि स्वयंवर आनिहिं बालक बिनु बल ।' जा०म० ७७ आनिहि : आ०-भूकृ० स्त्री०+मए० । तू (स्त्री) ले आया है। ‘सूनें हरि आनिहि पर नारी।' मा० ६.३०.६ । प्रानिह : आ०-भूकृ० स्त्री०+मब० । तुम (स्त्री) ले आये हो । 'हरि आनिहु सीता जगदंबा ।' मा० ६.२०.५ आनिहैं : आनिहिं । ले आएँगे। 'राम सीतहि आनिहैं।' मा० ४.३० छं. प्रानिहै : आ०-भ० (१) प्रए । वह लायेगा। (२) मए । तू लायेगा। स्वामी को सुभाव कसो सो जब उर आनिहै ।' विन० १३५.५ आनिहौं : आ०-भ०-उए । लाऊँगा । 'जैसी मुख कहौं तैसी जीयं अब आनिहौं ।' कवि० ७.६३ आनिही : आ०-भ०-मब० । लाओगे । 'बिरद लाज उर आनिहो ।' विन० २२३.१ आनी : (१) आनि । लाकर । 'करिअ न संसय अस उर आनी। मा० १.३३.८ (२) भूकृ० स्त्री० । लायी, ले आयी गई। 'जिन्ह हरि भगति हृदय नहिं आनी ।' मा० १.११३.५ प्रानु : आ०-आज्ञा-मए० । तू ले आ। 'बेगि आनु जल पाय पखारू ।' मा० २.१०१.२ आनू : आनु । 'लछिमन बान सरासन आनू ।' मा० ५.५८.१ आने : (१) भूकृ०पु । लाये, ले आये। 'धरि बड़ि धीर रामु उर आने ।' मा० १.२३४.८ (२) आ०प्रए० । लावे। 'सोइ बावरि जो परेखो उर आने ।' कृ० ३८ आनेउँ : आ०-भक.पु+उ०ए० । लाया हूँ, ले आया हूँ। 'आने उँ सब तीरथ ___ सलिलु ।' मा० २.३०७ मानेउ : भूकृ.पु. कए । लाया, ले आया। मा० ६.५५.८ आनेसु : आ० भ०+आज्ञा-मए । तू ले आना। 'तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी।' मा० १.१८२.३ मानेहि : आ०-भूक+मए । तू लाया है। ‘सठ सूनें हरि आनेहि मोही।' मा० ५.६.६ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 तुलसी शब्द-कोश पानेहु : (१) आ०-भूक पु+मब० । तुम लाये हो। 'आनेहु मोल बेसाहि कि मोही।' मा० २.३०.२ (२) आ०-भ०+आज्ञा+मब० । तुम लाना । 'लखनु रामु सिय आनेहु फेरी। मा० २.६४.८ पाने : आ० प्रब० । से आते हैं, लाते हैं । 'एक भूखे जनि आगे आने कंद मूल __ फल ।' कवि० ५.३० आने : आ० प्रए । लाए, ले आवे । 'मनहू अकाजु आने ।' कवि० ५.२२ आनौं : आ०-प्रए० । ले आऊँ, लाऊँ । 'करि बिनती आनौं दोउ भाई।' मा० . १.२०६.७ आन्यो : आनेउ । ले आया। गी० ६.६.२ आप : (१) (सं० आत्मना>प्रा० अत्पणा)। अपने-आप, स्वयम् । 'राम जासु जस आप बखाना।' मा० १.१७.१० (२) सं० (सं.)। जलसमूह । 'भ्राज बिबु धापगा आप पावन परम मौलि मालेव शोभा विचित्रं ।' विन० ११.३ आपगा : स० स्त्री० (सं०) । नदी। मा० २ श्लोक १ 'अवगाह भव आपगा।' विन० ५६.८ आपद : सं० स्त्री० (सं० आपद्) । विपत्ति । 'आपद काल परखिअहिं चारी ।' मा० ३.५.७ आपदा : आपद (सं०) । 'हरि सम आपदाहरन ।' विन० २१३.१ आपन : वि.पु० (सं० आत्मन:-आत्मीय>प्रा० अप्पणो)। आत्मीय, निज, स्वकीय । 'तब आपन प्रभाउ बिस्तारा।' मा० १.८४.५ आपना : आपन । मा० ६.५६.५ आपनि : वि०स्त्री० (सं० आत्मीय>प्रा० अप्पणी)। अपनी, निजी। 'आपनि दारुन दीनता कहउँ ।' मा० २.१८२ आपनी : आपनि । मा० २.२३३ आपनें : अपने..... से । 'आपने बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिभोहई ।' मा० १.३१६ छं० आपने : (१) आपनें । स्वयम् । कवि० ७.६६ (२) वि.पु०ब० । आत्मीय जन । कवि० ७.१२४ (३) आपने.....में । 'बैठी बिपुल सुख आपने ।' मा० ६.१०३ छं० २ आपनो : आपन+कए । अपना । 'अति अपमान बिचारि आपनो कोपि सुरेस पठाए।' कृ० १८ . आपनोई : अपना ही। कवि० ७.६३ प्रापन्न : वि० (सं.)। आपत्तिग्रस्त । मा० ७.१०८.१६ आपु, पू : आप+कए । (१) स्वयम् । 'भंजेउ राम आपु भवचापू ।' मा० १.२४.६ (२) जलसमूह । पिंगल जटाकलापु, माथे पं पुनीत आपु।' कवि० ७.१५६ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 73 आपुन : (सं० आत्मन् >प्रा० अप्पण) अपने-आप, स्वयम् । 'आपुन होइ न सोइ ।' ___ मा० ७७२ख (२) अपना । प्रापुनि : आपुन (सं० आत्मनि>प्रा० अप्पणी)। स्वयम् । विद्यमान आपुनि मिथिलेसु ।' मा० २.२६६.७ आपुनु : आपुन । 'आपुनु आवइ ताहि पहिं ।' मा० १.१५६ आपुनो : आपनो। विन० १६१.६ आपुस : सं० स्त्री० । परस्पर, स्वजनों के बीच । 'आपुस में कछु 4 कहिहैं ।' कवि० २.२३ आपुर्हि : अपने आप ही, स्वयं ही। 'देत चापु आपुहिं चढ़ि गयऊ।' मा० १.२८४.८ आपुहि : अपने आप को । 'आपुहि परम धन्य करि मानहिं ।' मा० १.१२०.७ प्रापू : आपु। 'जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू ।' मा० १.२६.३ आबाहन : सं०० (सं० आवाहन) । निमंत्रण, आमंत्रण, देवशक्तियों को मंत्र द्वारा बुलाने की क्रिया । 'तीरथ आबाहन सुरसरि जस ।' मा० २.२४०.३ आम : (समासान्त में) वि०पू० (सं.)। समान, आभासद्धश आभा वाला। 'नीलकंजाभ' विन० ४६.२ (नील की आभा के समान आभा वाला) मा० ७ __ श्लोक १ आमीर : सं०० (सं.)। (१) अहीर जाति । (२) विन्ध्य के अन्तराल में बसने वाली एक जाति । (३) एक संकतवर्ण-ब्राह्मण से वैश्यकन्या की सन्तान 'अम्बष्ठ' है; अम्बष्ठ कन्या से ब्राह्मण सन्तति 'आभीर' होती है-दुहरा संकट वर्ण तथा ब्राह्मण योग होने से इसे 'महाशूद्र' भी कहा जाता है । 'आभीर जमन किरात रवस ।' मा० ७.१३०.छं० १ आम : वि० (सं.)। कच्चा । बिगरत मन संन्यास लेत, जल नावत आम घटो सो।' १७३.४ आमय : सं०० (सं.)। व्याधि, रोग । मा० ४. श्लोक २ आमरषि : पूकृ० । अमर्ष करके, आवेश में आकर, रुष्ट होकर । 'उठे भूप आमरषि ।' जा० मं० ८८ आमलक : सं०० (सं.)। आमला, धात्रीफल । मा० १.३०.७ आमिष : सं०० (सं०) । मांस । मा० १.१७३.३ आमोद : सं०पु० (सं०) । सुगन्ध । 'भ्रमत आमोद वश मत्त मधुकर निकर ।' विन. आय : आइ । आकर । गी० १७६. २ आयउँ : आ०-भूक पु+उए । आया हूँ। 'मैं जाचन आयउँ नृप तोही।' मा० १.२०७.६ आयउ : भूक पु० कए । आया 'आयउ जहँ सब भूप ।' मा० १.२६८ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 तुलसी शब्द-कोश प्रायक : अन्ये हुए का, आने का। 'तो तो दोष होय महि आयका' गी० २.३.४ । आयत : वि० (सं०) । दीर्घ, विस्तुत, चौड़ा । 'उर आयत उरभूषन राजे ।' मा० १.३२७.६ आयतन : सं० (सं०) । विस्तार, भाण्डार । विन० ४६.१ आयस : सं०० (सं० आदेश>प्रा० आएस)। आज्ञा । 'भरत राम आयस ____ अनुसारी ।' मा० २.२२०.१ आयसु : आयस+कए । आज्ञा । 'आयसु देहु' कृ० ४२ 'चली सती शिव आयसु पाई।' मा० १.५२.४ प्राय : आ० भूक पु+मब० । आये हो । 'अकसर आयहु तात ।' मा० ३.२४ आया : भूक पु० (सं० आयात>प्रा० आविय) । 'कामरूप केहि कारन आया।' मा० ५.४३.६ आयु : सं०० (सं० आयुष्) । जन्म से मरण तक का जीवन-काल । गी० ७.२५.२ आयुध : सं०पु० (सं०)। युद्धोपकरण, लड़ाई का साधन, अस्त्र-शस्त्र । मा० १.१८८.४ आयू : आयू । 'आय-हीन भए सब तबहीं।' मा० ५४२.१ आयों : आयउ । कवि० ७.६५ आयो : आयउ । मा० ६.६.२ आरजसुत : सं० पु० (सं० आर्यसुत=आर्यपुत्र) । पति<पत्नी द्वारा पति के लिए प्रयुक्त होता है) । मा ० २ ६७ आरजसुवन : आरजसुत । कवि ६३ आरण्य : अरण्य । वन । विन० ५६.७ आरत : वि० (सं० आर्त) ? दीन, व्याकुल । 'गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन ।' मा० १.१२६ (२) आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी भक्तों में प्रथम भक्त जो संसार से त्रस्त होकर प्रपत्ति की ओर तीव्रता से उन्मुख होता है । 'आरत अधिकारी जब पावहिं ।' मा० १.११०.२ आरतपाल : वि० (सं० आर्तपाल) । दीनों तथा आर्तभक्तों का रक्षक । कवि० ७.१२७ भारतपोसु : वि.पु. कए (सं० आर्तपोषः) । आर्तजनों का पोषण करने वाला, आतों का अनुग्राहक । विन० १५६.१ आरति : (१) सं० स्त्री० (सं० आति)। व्याकुलता। विहव्लता, असहायता । 'आरति बिनय दीनत मोरी ।' मा० १.४३.१ (२) (सं० आरात्रिक>प्रा० आरत्तिअ)। नीराजना, दीपक माला उतारने की क्रिया । 'मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं, मंगल गावहीं।' मा० १.३२७.छं० १ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 75 आरतिहर : वि.पु. (सं० आतिहर)। दुःख-सन्तापों का हरणकर्ता । 'करहिं आरती आरति-हर की।' मा० ७.६.७ आरती : आरती+ब० । आरतियां, नीराजनाएँ, दीपमालाएँ । 'कंचन थार आरती नाना।' मा० ७.६.६ प्रारती : सं० स्त्री० (सं० आराविक>प्रा० आरत्तिअ) । नीराजना। 'मैनों सुभ आरती संवारी।' मा० १.६६.२ आराति, ती : सं० ० (सं० आराति)। शत्रु । मा० १.५७.८ आराम : सं०० (सं.)। उद्यान, उपवन । मा० ७.२६.छं० पारामु : आराम+कए । अद्वितीय उपवन । 'परम रम्य आरामु यहु ।' मा० १.२२७ आरि : सं० स्त्री० (सं० आरा=कोड़ा, चाबुक)। (हिन्दी में), हठ, बालहठ । "कबहूँ ससि भागत आरि करें।' कवि० १.४ प्रारिषी : वि० स्त्री० (सं० आर्षी>प्रा० आरिसी) । ऋषियों की । 'रीतिभारिषी' कवि० १.१५ (ऋषियों की रीति) आरूढ़ : भूक वि० (सं.)। चढ़ा हुआ। 'खर अरूढ़ नगन दससीसा।' मा० ५.११.४ पारेस : दे० सवतिआ तथा रेसू । प्रारोहैं : आ० प्रब० ।' चढ़ते हैं। 'दरसन लागी लोग अटनि आरोहैं ।' गी० १.६२.४ आरौ : सं०० कए (सं० आख) । शब्द, ध्वनि, (पदचाप आदि) । 'धुरुधुरात हय आरौ पाएँ ।' मा० १.१५६.८ पालबाल : सं०० (सं०) । वृक्ष सींचने हेतु बनाया जाने वाला मण्डलाकार थाला । मा० १.३४४.८ पालम : सं.पु० (सं० आलस्य>प्रा० आलस्य)। कर्म के प्रति अंगों की शिथिलता । दो० ३२७ आलसवंत : वि० (सं० आलस्यवत् >प्रा० आलस्सवंत) । आलसी । अलसाया हुआ। 'आलसवंत सुभग लोचन सखि ।' कृ० २२ आलसहूँ : आलस्य में भी । 'भायँ कुमायँ अनख आलसहूँ।' मा० १.२८.१ आलसिन, न्ह : आलसी+संब० । आलसियों । गी० ७.३२.३ आलसी : वि० । आलस्य करने वाला, अकर्मण्य, शिथिल । 'देव-दैव आलसी पुकारा।' मा० ५५१.४ आलसु : आलस+कए । जरा-सा भी आलस्य । 'ती कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं।' मा० १.८१.४ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 तुलसी शब्द-कोश आलि,ली : सं० स्त्री० (सं.) ? सखी। 'नहिंन आलि इहाँ संदेहू ।' मा० १.२२२.६ (२) पाङिक्त आली : आलि । सखी । मा० १.२२६.४ माले : वि.पु. (सं० आर्द्र>प्रा० अल्ल) । गीले, सरस हरे । 'आलेहि बांस के मांडव मनिगन पूरन हो ।' रा०न० ३ आव : (१) आवइ । आता है । 'तीरथ पतिहि आब सब कोई।' मा० १.४४.३ (२) आए । 'जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया।' मा० २ ६६ ७ (३) सं०० (सं० आप=जल समूह>प्रा० आव)। जलप्रवाह । 'चारिहुं दिसि फिरि आव ।' मा० १.१७८ (४) जलमय, अत्यन्त आर्द्र, द्रवपूर्ण । 'काम कृसानु, गुमानु अवाँ, घट ज्यों जिन के मन आव न आँचे ।' कवि ७.११८ /आव प्रावइ : (सं० आयाति>प्रा० आवइ-आना) आ० प्रए । आता है। 'फिरि आवइ समेत अभिमाना।' मा० १.३६.३ आवई : आवइ । मा० ७.५ छं० २ आवउँ : आ० उए। आऊ, आता हूं । 'बिदा मातु सन आवउँ मागी।' मा० २.४६.४ प्रावत : वक पु । आता, आते । 'आवत हृदय सनेह बिसेषे ।' मा० १.२१.६ आवति : वक्र स्त्री० । अति । 'सुमिरत सारद आवति धाई ।' मा० १.११.४ आवन : भक० । आना, आने । 'चहत जनु आवन ।' जा०म० ८६ आवनो : (१) भक पु० कए । आने वाला । 'जा को ऐसो दूतु सो तो साहेबु है आवनो।' कवि० ५६ (२) सं०० (सं० आगमन)+कए । आना । ' बनत न आवनो।' कवि० ५.१८ आवर्त : (१) दे० अबर्त । (२) चक्कर, भ्रमण, घुमाव । 'फिरि गर्भगत आवर्त संसृतिचक्र ।' विन १३६७ आवहिं : आ० प्रब० । (१) आते हैं। 'तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं ।' मा० १.३४.६ (२) आएँ, आएँगे । 'कबहुंक ए आवहिं एहि नाते।' मा० १.२२२.८ प्रावहिंगे : आ०भ००प्रब० । आएंगे । 'कबहूं कपि राघव आवहिंगे ।' गी० ५.१०.१ आव: आ०-सम्भावना-प्रब । आएँ। 'आवहुं बेगि नयन फल पावहिं ।' मा० १.११.२ आवहु : आम०मब० । तुम आवो । 'जाइ देखि आवहु नगर ।' मा० १.२१८ पावा : (१) आवइ । आता है। 'सोइ भरोस मोरें मन आवा ।' मा०१.१०.८ (२) भूक० पु०=आया । 'नाथ एक आवा कपि भारी ।' मा० ५ १७.३ आवागमन : सं००। यातायात, गतागत । जन्म मरण का पुनः पुनः आवर्तन । विन० २०३.१२ आवाहन : आबाहन। आवे" : आवहिं । कवि ७.२ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश - 77 आवे : आवइ। (१) आता है, आ सकता है । जेहि उर बसत श्यामसुंदर घन तेहि निर्गुन कस आवै ।' कृ० ३३ (२) आए । 'आवै पिता बुलावन जबहीं।' मा० १.७५.३ आवौं : आवउँ । आ० उए । आता हूँ, आ जाऊँ। 'नगर देखाइ तुरत ले आवौं ।' मा० १.२१८.६ आवौंगी : आ०भ० स्त्री० उए । आऊगी । गी० २.६.१ आवौ : आवहु । गी० २.८७.१ आश्रम : सं०० (सं०) । (१) धर्मानुसार आय के चार विभाग–ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास । 'बरन धर्म नहिं आश्रम चारी।' मा० ७.६८.१ (2) मुनि कुटीर । 'गोदावरी तट आश्रम जहाँ ।' मा० ३.३०.३ (3) तपोवन का मुख्य स्थान । 'भरद्वाज आश्रम अति पावन ।' मा० १.४४.६ आश्रमन्ह, हि : आश्रम+सं०ब० । आश्रमों (में, का, को आदि) । 'सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए।' मा० १.४५.३; २.१३४ माश्रमहिं : आश्रम में । तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ ।' मा० १.१२६.१ आश्रमी : वि०पू० (सं० आश्रमिन्) । आश्रम वाला-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वनस्थ, संन्यासी । मा० ४.१६ आश्रमु : आश्रम+कए । उस कुटी को, वह कुटीर । 'आश्रम देखि नयन जल छाए।' मा० १.४६.६ आश्रित : भू०० वि० (सं०) । अवलम्बित, अधीन-दार्शनिक दृष्टि से कार्यवस्तु उपादान कारण में स्थित । 'एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई ।' मा०. १.११८ १ आषर : आखर । कृ०पू० । आस : आसा मा० १.४३.२ प्रासन : सं०पु० (सं०) । बैठकी। 'अति पुनीत आसन बैठारे ।' मा० १.४५.५ आसनन्हि : आसन+सं०ब० । आसनों (पर)। 'सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए ।' मा०. १.३५६.३ आसनु : आसन+कए । मा० १.६०.४ आसरो : सं००कए (सं० आश्रयः) । सहारा, अवलम्ब । विन० २६१.४ आसा : सं०स्त्री० (सं० आशा>प्रा० आसा)। (१) अप्राप्त ज्ञात वस्तु की संभावना. पूर्ण अभ्यर्थना । 'नृपन्ह केरि आसा निसी नासी ।' मा० १.२५५.१ (२) संभावना । 'कवनि राम बिनु जीवन आसा ।' मा० २.५१.५ (३) दिशा । 'मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा।' मा० ६.११६.८ (४) और । 'देखु बिभीषन दच्छिन आसा।' मा० ६.१३.१ ।। आसिरबचन : सं०० (सं० आशीर्वचन । आशीर्वाद । मा० २.२४६.३ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश आसिरबाद : सं०पु० (सं० आशीर्वाद ) । आशी: के शक । मा० ६.११२.२ आसिर बादु : आसिरबाद + कए । 'आसिरबादु सबन्हि सन पावा ।' मा० १.३४१.१ आसिष षा : सं० स्त्री० (सं० आशिष् > प्रा० आसिसा ) | आशीर्वाद । मा० 78 १.२६६.५; १.३४३.६ आसीन: भू० कृ०वि० (सं० ) । बैठा हुआ, बैठे हुए । मा० ३.३ आसीना : आसीन । 'जहँ चितवहि तहँ प्रभु आसीना ।' मा० १.५४.६ आसुतोष : वि० (सं० आशुतोष ) । अतिशीघ्र सन्तुष्ट – प्रसन्न होने वाला । मा० = १.७०.४ आसू : क्रि०वि० (सं० आशु ) । शीघ्र, तत्क्षण | 'खंड खंड होइ फूटहिं आसू |' मा० ६.८२.३ आस्रम : आश्रम । रा०प्र० ६.६.६ aft : आश्रमन्हि । विन० १७०.६ आह : अव्यय (सं० ) । (१) तीव्र वेदना, संकट, क्लेश, विस्मय आदि का व्यञ्जक । 'आह दइअ मैं काह नसावा । मा० २.१६३.६ (२) सं० स्त्री० के प्रयोग भी हैं— 'कबि उर आह न आई ।' गी० ३.११.३ (३) होने के अर्थ में धातु (सं० आस्) । आहह : आ०प्र० । हैं । ' जद्यपि ब्रह्मनिरत मुनि आहहिं ।' मा० ७.४२.७ श्राहार : सं०पु० (सं०) । भोजन, भक्ष्य । विन० ११८.३; मा० १.१४४ आहि: आहहिं । 'सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे । ' मा० २.११७.१ नाही : (१) आ०भू० प्रए । था, हुआ । 'राजधनी जो सेठ सुत आही ।' मा० १.१५३.५ (२) आ०प्र० । है । 'अपर देउ अस कोउ न आही ।' मा० १.२२०.८ आहुति : सं० स्त्री० (सं०) । (१) यज्ञ की आग में डाली जाने वाली सामग्री, हवन सामग्री । ( २ ) हवन, होम मा० १.१८६.६ इ इंदारुन: सं०पु० (सं० इन्द्र-वारुणी > प्रा० इंदारुणी ) । एक वृक्ष जिसका फल देखने में अति सुन्दर परन्तु अति कटु होता है; कड़वा सेव । 'बिनु हरि भजन दान के फल, तजत नहीं करुआई ।' विन० १७५.३ इंद्रजीता : इंद्रजीत । मा० ६.११६.६ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश इ : अवधारणार्थक अव्यय (सं०हि ) । जैसे झूठइ, लोभइ । इंदिरा : सं० [स्त्री० (सं० ) । लक्ष्मी । मा० १.५४ इंदीवर : सं०पु० (सं० ) । नीलकमल । मा० ४ श्लो० इंदु : सं०पु० (सं०) । चन्द्रमा । मा० ३.१२ १ इंद्र : सं०पु ं० (सं०) (१) देवराज । मा० ७.१०६.१३ (२) मा० ६ श्लो० २ (३) (समासान्त में ) वि०पुं० (सं० ) कपिदा | । 79 राजा — 'कोसलेन्द्र' । श्रेष्ठ । कपीन्द्र > इंद्रजाल : सं०पु० (सं० ) । जादू, अद्भुत कौतुक, विस्मयजनक खेल आदि । मा० ३.३६.४ इंद्रजालि : वि० (सं० इन्द्रजालिन् ) । जादूगर । मा० ६.२६.१० O इंद्रजित : सं०पु० (सं० इन्द्रजित् ) । रावण पुत्र मेघनाथ जिसने इन्द्र पर विजय पा कर यह नाम पाया था । मा० ५.१९.३ इंद्रजीत : इंद्रजित । मा० १.१८३.१ इ ंद्र धनु : सं०पु० (सं० इन्द्रधनुष ) । मेघों में सूर्य किरणों से बनने वाला सतरंगा आकार विशेष । मा० ६.८७.५ इंद्रधनुष : इंद्रधनु । मा० ६.१०१ छं० १ इंद्रनील : सं ० ० (सं० ) । नीलम, मणि विशेष । गी० १.१०८.१ इंद्रिन, न्ह : इंद्री + सं०ब० । इन्द्रियों ( को ) । विन० ८८. १ 'इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई ।' मा० ७.११८.१५ O इंद्रिय: सं० स्त्री० (सं० इन्द्रिय- नपु ं० ) । ' इन्द्र' अर्थात् आत्मा की सत्ता के सूचक ज्ञान साधन—पाँच ज्ञानेन्द्रिय ( चक्षु, घ्राण, श्रवण, रसना और त्वक्) तथा पाँच कर्मेन्द्रिय (वाक्, पाणि, पाद, वायु और उपस्थ ) । वैरा० १४, २६ इंद्रियगन : पञ्चप्राणसहित पञ्च कर्मेन्द्रिय + मन एवं बुद्धि सहित पञ्च ज्ञानेन्द्रिय = प्राणमय कोश + मनोमय कोश + विज्ञानमय कोश । 'जिमि इंद्रियगन उपजें ज्ञाना ।' मा० ४.१५.१२ इंद्रियादिक : इंद्रियगल । मा० ३.४ छं ० इंद्री : इंद्री + ब० । ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय = इन्द्रियाँ | मा० २.१५४.२ इंद्री : इंद्रिय । इंद्रोद्वार : शरीर के नौ छिद्र = मुख १, नेत्र २, श्रवण २, नासिका २, मूत्रेन्द्रिय १ तथा मलेन्द्रिय १ | 'इंद्री द्वार झरोखा नाना ।' मा० ७.११८.११ इ ंधन : सं० पु ं० (सं० ) । अग्नि ज्वाला के साधन काष्ठ आदि । मा० १.३२ इक : एक (सं० एक > प्रा० एक्क -- इक्क) । विन० १०६.२ इकटक : एकटक । गी० १.२५.५ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 तुलसी शब्द-कोश इकतार : वि०+क्रि०वि० । निरन्तर, धाराप्रवाह, अविच्छिन्न (ध्यान में अखण्ड __ चित्त प्रवाह जिसमें तार न टूटने जैसी क्रिया हो)। 'रमन राम इकतार ।' वैरा० २६ इकोस : संख्या (सं० एकविंशति>प्रा० इक्कवीसा) कवि० १.७ इगार हों : संख्या विशेषण (सं० एकादश>प्रा० एगारहम <अ० एगारहवें)। ग्यारहवाँ । 'तुलसी कियो इशारहों बसन बेस जदुनाथ ।' दो० १६८ (दस अवतारों के अतिरिक्त ग्यारहवाँ वस्त्रावतार ।) इच्छा : इच्छा से । 'निज इच्छाँ प्रभु अवतरइ ।' मा० ४.२६ इच्छा : सं० स्त्री० (सं.)। (१) (जीव के सन्दर्भ में) काँपना। 'समदरसी इच्छा कछुलाहीं।' मा० ५.४८.६ (२) ईश्वर की लीला शक्ति, महामाया 'निज इच्छा निर्मित तनु मायागुन गोपार ।' मा० १.१९२ (३) महामाया की कार्य शक्ति । 'निज इच्छा लीला बपु धारिनि ।' मा० १.६८.४ इच्छाचारी : वि० (सं०) ? स्वच्छन्द, उच्छृङ्खल, मनचाहा करने वाला, अनाचारी। 'कुटिल कहल प्रिय इच्छाचारी ।' मा० २.१७२.७ (२) इच्छानुसार बेरोक गति लेने वाला । 'चले गगन महि इच्छाचारी ।' मा० ५.३५ ६ इच्छाजीवन : मनचाहे समय तक जीवित रहना । गी० ३.१५.२ इच्छामय : वि० (सं०) । (१) इच्छाजनित (२) इच्छा (लीला) का ही परिणत __रूप । 'इच्छामय निज बेष संवारें।' मा० १.१५२.१ इच्छामरन : यथेच्छ जीवित रहकर जब चाहे तभी मरने वाला । 'कामरूप इच्छा. __ मरन ।' मा० ७.११३ क इच्छित : भू००वि० (सं० इस्ट>प्रा० इच्छिअ)। मनचाहा, अभीष्ट । मा० १.७०.८ इत : क्रि०वि० (सं० इतः) । इधर, इस ओर । मा० १.२०३ इतनी : एतनी । गी० ५.७.४ इतनो : वि.पु. कए (सं० इयान् >प्रा० इत्तुल्लो)। इस मात्रा या संख्या वाला। कवि० ७.३७ इतनोइ, ई : इतना ही । गी० १.१०६.२ इतर : वि० (सं०) । अन्य, साधारण । 'जनु देत इतर नृप कर बिभाग ।' गी० २.४६.५ /इतरा, इतराइ, ई : (सं० इत्वरायते>प्रा० इत्तराइ) आ०प्रए । चञ्चल होता है, बहक चलता है, मनमानी करता है । इच्छाचारी हो जाता है, दूसरे की अवज्ञा करने लगता है। 'जिमि थोरेहुं धन खल इतराई ।' मा० ४.१४.५ इताति : सं० स्त्री० (अरबी-इताअत) । आज्ञापालन, सेवाशुश्रूषा । 'निसि बासर ता कहँ भलो मान राम इताति ।' दो० १४८ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81 तुलसी शब्द-कोश इति : अव्यय (सं० ) । यह ( उपर्युक्त ) । मा० ६.१११ छं० इतिहास : सं०पु० ? (सं० इतिहास = इति + ह + आस = = ऐसा कहा सुना जाता है कि हुआ था - इस प्रकार वाक्यात्मक शब्द है ।) प्राचीन वृत्तकथा, इतिवृत्त । 'यह इतिहास पुनीत अति ।' मा० १.१५२ (२) स्त्री० प्रयोग भी है । 'यह इतिहास सकल जग जानी ।' मा० १.६५.४ 1 इतिहासा : इतिहास । मा० १.५८.६ इते : वि०पु० (सं० इयत् > प्रा० इत्तिय ) । इतने । 'इते घटें घटि है कहा ।' दो० ५६३ इतो, तो : वि०पु० ए० (सं० इयान् > प्रा० इत्तिओ ) । इतना । 'चतुर जनक ठो ठाट इतो री ।' गी० १.७७.३ इदं सर्वनाम (सं०) । यह । मा० ३.४ छं० इदमित्थं : अव्यय (सं० ) । यह ऐसा ( गुणों के आधार पर वस्तु के निश्चयात्मक बोध की स्थिति ) । ' इदमित्थं कहि जाइ न सोई ।' मा० १.१२१.२ इन, इन्ह : सर्वनाम - संब० । मा० १.८५.७ इह हि : इनको । 'इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी । मा० १.१३४.४ इन्हें : इन्हहि । गी० १.७७.३ इम : सं० पु० (सं०) । हाथी । मा० ६ श्लोक १ इमि : अव्यय (सं० एवम् > अ० इम) । इस प्रकार, ऐसे । मा० ३.२८.१० इारे : वि० पु० बहु० (सं० ईय = व्यापक ) । लोक सामान्य, साधारण, तुच्छ 'तो क्यों बदन देखावतो कहि बचन इयारे ।' विन० ३३.५ इरबाई : इरषादि (सं० ईर्ष्यादि > प्रा० ईरिसाई) । मा० ७.१२१.३३ इरिषा : सं० स्त्री० (सं० ईर्ष्या > प्रा० ईरिसा) । दूसरे के शुभ के प्रति असहिष्णुता, डाह, परसन्ताप । मा० १.१३६७ = इरिषादि : ईर्ष्या आदि - काम, क्रोध आदि (दे० षड्वर्ग) | मा० ७.३५.५ इव : अव्यय (सं० ) । उपमा तथा उत्प्रेक्षा का वाचक – सदृश, मानों । 'लुबुध)मधुप इव तजइ न पासू ।' मा० १.१७.४ - इष्ट: भू० कृ० वि० (सं०) । (१) अभीष्ठ, वाञ्छित ( इष्ट + क्त ) (२) प्रिय (३) इष्टदेव पूजित ( यज् + क्त) । ' कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे ।' मा १.३२० छं० इष्टदेउ : इष्टदेव + कए । अनन्य उपास्य । 'निज इष्ट देउ पहिचानि ।' मा० २.११.० इष्टदेव : सं० पु० (सं० ) । (१) मनचाहा देवता (सं० इष्ट इच्छायाम् + क्त) । ( २ ) पूजित देवता ( सं० यज पूजायाम् + क्त) । मनोभीष्ट उपास्य देव । 'सो मम इष्ट देव रघुराया । मा० १.५१.८ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश इष्टदेवन्ह : इष्टदेव+संब० । इष्टदेवों (के प्रति)। 'चले इष्टदेवन्ह सिर नाई।' मा० १.२५०.६ इसान : सं० पु. (सं० ईशान) । शिव । पा०म० १३ छं० इसानु : इसान+कए । 'दोष निधान इसानु सत्य सब भाषेउ ।' वा०म० ६४ । इह : अव्यय (सं.)। यहां, इस लोक में, इस स्थान पर, इस जन्म में । मा० ७.१०८.१३ वि० ५६ ६ (२) सर्व० । यह इहइ : यही, एकमात्र यह । 'इहइलाभ संकर जाना।' मा० १.२१ छं० इहलोक : इस जीवन का संसार, यह जल और तत्सम्बन्धी विश्व, वर्तमान जीवन और उसके विषय । मा० ७.१०८.१३ इहाँ : क्रि०वि० अव्यय (सं० इह <प्रा० इहं) । यहाँ । मा० १.५२.५ इहै : इहइ । यही । 'कारन इहै गह्यो गिरिजाबर ।' कृ० ३१ इंधनु : इंधन+कए । 'ईधनु पात किरात मिताई। मा० २.२५१.२ ई: इ। भी। तनोई मा० २.३१६.११ आदि ईछा : इच्छा । मा० ६.५०.७ ईड्य : वि० (सं०) । स्तुत्य । मा० ६ श्लोक २ ईति : सं० स्त्री० (सं०) । (१) महामारी (२) अकाल दुर्मिक्ष (३) अतिवृष्टि (४) शलभ =टिड्डीदल (५) चूहों का लगना (६) खेती में शुक आदि पक्षियों का गिरना (७) विदेशी आक्रमण (८) संक्रामक रोग (8) प्रवास (१०) राष्ट्र में गृह-युद्ध । मा० २.२३५.३ 'ईति भीति जस पाकत साली। मा० २.२५३.१ ईश : सं०+वि.पु.० (सं०) । (१) स्वामी । मा० ६ श्लोक १ (२) शिव । मा० ७.१०८.१६ ईशान : सं० पू० (सं.)। शिव । मा० ७.१०८१ ईश्वर : (सं०) । दे० ईस्वर । मा० १ श्लोक २ ईषना : सं०स्त्री० (सं० ईषणा, एषणा) (१) लालसा, खोज, विषयों की अभ्यर्थना। (२) कामभोग, धन और यश की कामना । 'सुत बित लोक ईषना तीनी।' मा० ७.७१.६ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 83 ईस : सं०+वि० (सं० ईश) । (१) परमात्मा। 'नाम रूप दुई ईस उपाधी।' मा० १.२१.२ (२) शिव । कवि० ५.३२ (३) स्वामी, पति । 'ईस बकसीस जनि खीस करु ईस सुनु ।' कवि० ६.१६ (४) राजा। जैसे, कोसलेस आदि । (५) ऐश्वर्य सम्पन्न । (६) (समासान्त में) राजा तथा श्रेष्ठ । जैसे, कपीस आदि । ईसन : ईस+संब० (सं० ईशानाम् >प्रा० ईसाण) । स्वामियों, ईशों । 'ईसन के ईस ।' कवि० ७.१२६ ईसा : ईस । मा० १.४६.३ ईसु : ईस+कए । 'ईसु काहि धौं देइ बड़ाई।' मा० १.२४०.१ ईस्वर : सं०+वि० पु. (सं० ईश्वर)। (१) सर्वशक्तिमान् (२) सर्वसम्पत्ति सम्पन्न (३) शिवरण (४) विष्णु (५) राजा, प्रभु । मा० १.१७४.२ (शांकर वेदान्त में मायशबल विराट् ब्रह्म को 'ईश्वर' कहते हैं परन्तु वैष्णव दर्शनों में परमात्मा और ईश्वर एकार्थक हैं। रामानुज मत में कार्यकारी ब्रह्म ईश्वर है । 'ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कही समुझाइ ।' मा० ३.१४ । ईस्वरहि : ईश्वर को 'कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ।' मा० ७.४३ उजिआरा : उजिआर । मा० ७.११८.४ । उ : अव्यय । भी । सोउ, केउ, जोउ, जेउ आदि । ‘भलेउ पोच सब ।' मा० १.६३ 'खलउ' मा० १.७.४ उहि : आ० प्रब० । उदय लेते हैं, उदित हों । 'एकापति षोडस उअहिं ।' मा० ७.७८ उएं उदित होने से, उदित होने पर । 'जिमि रबि उएँ . जाहिं तम फाटी।' मा० ६.६७.१ उए : भू०० पु० (बहु०) (सं० उदित>प्रा० उइअ) (१) उदित हुए । 'मनहुँ इंद्रधनु उए सुहाए।' मा० ६.८७.५ (२) उएँ (सं० उदिते>प्रा० उइए)। उदित होते ही। 'वा के उए मिटति रजनि जनित जरनि ।' कृ० ३० उकठि : पू० ० । उकठ कर, अपकाष्ठ होकर, सूखते-सूखते सारहीन होकर । 'पुनि . न नवइ जिमि उकठि कुकाठू।' मा० २.२०.४ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश' उपठे : वि.पु. बहु० (सं० अपकाष्ठ>प्रा० ओक्ट) । सूख कर सारहीन तथा रस हीन हुए । 'उकठे तरु फूले फले ।' गी० ५.४१.३ उकठेउ : उकठे भी। 'उकठेउ हरित भए जल थल रुह ।' गी० २.४६.३ उकसहि : आ० प्रब० (सं० उत्कसन्ते>प्रा० उक्क संति>अ० उक्क सहिं) उमसते हैं, अङ्गों को ऊपर उठाते हैं, तिलमिलाकर ऊर्वाङ्गचालन करते हैं। 'पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं।' मा० १.१३५.२ उकुति : उक्ति । मा० ६ १.४ उक्ति : सं० स्त्री० (सं.)। कथन । मा० ६.२३.६० उखरैया : वि० । उखाड़ने वाला, उन्मूलनकारी । 'भूमि के हरैया, उखरैया भूमि-- धरन के।' गी० १.८५.३ उखारिए : आ०क-वा०-प्रए । उखाड़ फेंकिए । हनु० २४ उखारी : (१) पृ०कृ० । उखाड़कर, उन्मूलित कर । 'बेगि सो मैं डारिहउँ उखारी।' मा० १.१२६.५ (२) भू०० स्त्री० । उखाड़ी, उन्मूलित की। 'जरि तुम्हारि चह सवति उखारी।' मा० २.१७.८ उखारे : भू०० पु। (१) उन्मूलित किए। (२) उखाड़ने पर। 'गाड़े भली उखारे अनुचित।' कृ०४० उखारो : भू.कृ० पुं० कए । उखाड़ा, उपार लिया । कवि० ६.५५ उगिलत : वकृ० पू० (सं० उगिलत्>प्रा० उग्गिलंत)। उगलता, मुख से निकलता । 'मनहुं क्रोध बस उगिलत नाहीं।' मा० १.१५६.६ उगिल्यो : भू० कृ० पू० कए । उगल दिया, उगला हुआ। कवि० ७.१०२ उग्यो : भू०० पुं० कए। (सं० उद्गतः>प्रा० उग्गओ) । उदित हुआ, उगा। 'जरठाइ दिसाँ र बिकालु उग्यो ।' कवि० ७.३१ उन : (१) वि० (सं०) । तीव्र , निष्ठुर, उत्तेजित, घोर । 'परम उम्र नहिं बरनि सो जाई।' मा० १.१७७.१ (२) सं० पु. (सं.)। शिव । विन० १०.७ उग्रकर्मा : वि० (सं.)। घोर कर्म करने वाला, क्रूर । विन० ५६.४ । उग्रबुद्धि : वि० (सं०) । निष्ठुर बुद्धि वाला, तीखे तर्क करने वाला । मा० ७.६७.३ उग्रसेन : सं० पु. (सं.)। कंस का पिता तथा कृष्ण का मातामह । विन० १८.७ उघटत : वकृ० पु० (सं० उद्घाटयत्) । उघाड़ता-उघाड़ते, प्रकट करता-करते । 'बल उपाय उघटत निज हिय के ।' गी० ४.१.४ ।। उघहि : आप्रब० । उद्घाटित करते हैं, प्रकट करते हैं । 'उघटहिं छंद प्रबंध गीत पद राग ताल बंधरन ।' गी० १.२.१५ उघरत : वक००। खुलता, खुलते, प्रकट होते। 'बक उघरत तेहि काल ।' दो० ३३३ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 85 उघरहिं : आ०प्रब० । (१) खुलते हैं। 'उघरहिं बिमल बिलोचन ही के ।' मा० १.१.७ (२) ज्ञात हो जाते हैं । 'उघरहिं अंत न होइ निबाहू ।' मा० १.७.६ उघरि : पूकृ० । खुलकर, अनावृत होकर (लज्जा संकोच छोड़कर)। 'हरि परे उघरि संदेसहु ठठई ।' कृ० ३६ उघरे : भू०० पु० (बहु०) । खुल गये। 'उघरे पटल पर सुधर मति के ।' मा० १.२८४.६ उघार : वि.पु । निरावरण, निर्वसन, नग्न या नग्नप्राय । 'द्विज चिन्ह जनेउ; उघार तपी।' मा० ७.१०१.७ उघारा : भू०कृ० पु० (सं० उद्घाटित>प्रा० उग्घाडिअ)। खोला। 'तब f सर्व तीसर नयन उघारा।' मा० १.८७.६ उघारि : (१) उघार+स्त्री० । नग्न, निर्वसन । 'नस्नारि उघारि सभा महुँ होत।' कवि० ७.६ (२) पूकृ । उघाड़कर, खोलकर । 'नयन उघारि सकल दिसि देखी ।' मा० १.८७.४ उघारी : उघारि। (१) नग्न । 'समरधीर महाबीर पांच पति क्यों दैहैं मोहि होन उघारी ।' कृ० ६० (२) खोलकर । 'छिन मूंदत छिन देत उघारी ।' कु० २२ 'बहुरि बिलोके उ नयन उघारी ।' मा० १.५५.७ (३) आवरणहीन, (म्यान से बाहर) निकाली हुई । 'मनहुं रोष तरवारि उघारी ।' मा० २.३१.१ उघारें : उघाड़ने पर, खोलने से । 'मूदें आँखि हिये मैं उघारें आँखि आगे ठाढो।' ___कवि० ५.१७ उघारे : भू०० पु. (बहु०) । (१) खोले । 'सकुचि सीये तब नयन उघारे ।' मा० १.२३४.३ (२) उघारें । लाज आपु ही निज जांघ उघारे ।' विन० २४७.१ (३) खोले हुए (निरावरण) । 'छूटे बार बसन उघारे ।' कवि० ५ १५ उचकि : पूक० । ऊपर को झटके से गति लेकर । 'उचके उचकि चारि अंगुल अचल ___ अचल गो।' कवि० ४.१ उचकें : उचकने से, झटके के साथ ऊपर उड़ने पर । 'उचकें उचकि चारि अंगुल अचलु गो।' कवि० ४.१ उचाट : सं० पु० (सं० उच्चाट-चट भेदने) (१) मन के उखड़ जाने की क्रिया (२) उच्चाटन मन्त्र आदि से होने वाली मानसिक शून्यता या अस्थिरता (३) कहीं से भाग खड़े होते भी उदास इच्छा। 'भय उचाट बस मन थिर नाहीं ।' मा० २.३०२.५ उचाटि : सं० स्त्री० । उचाट । विन० १०८.४ उचाटु : उचाट+कए । अभूतपूर्व उच्चाट। 'भय भ्रम अरति उचाटु ।' मा० २.२६५ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश उच्चाटे : भू० कृ०पु० बहु० (सं० उच्चाटित ) । उखाड़ दिये, उचाट से भर दिये । 'लोग उचाटे अमरपति ।' मा० २.३१६ उचारहीं : आ० प्रब० । उच्चारण करते हैं, बोलते हैं । 'जयति बचन उचारहीं ।" मा० १.२६१ छं० उचारी : भू० कृ० स्त्री० । कही, उच्चारित की । 'हरषि सुधा सम गिरा उचारी ।" 86 मा० १.११२.५ उचारे : भू० कृ०पु० स्त्री० (सं० उच्चारित > प्रा० उच्चारिय) | कहे । 'मधुर मनोहर बचन उचारे ।' मा० १.२६१.३ उचित : वि० (सं०) । (१) योग्य । 'जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा ।' मा०. १.५६.३ (२) पदमर्यादानुसार । 'उचित बास हिमभूधर दीन्हे |' मा० १.६५.८ (३) अनुरूप, अनुकूल । 'उचित असीस सब काहूं दई ।' मा० १.१०२ छं० (४) कर्मानुसार, योग्यतानुसार 'सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता ।' मा० १.२२२.५ उच्च : वि० (सं०) । उन्नत, उत्तम, विशाल । मा० ६.११६.४ (उच्चर उच्चरइ : (सं० उच्चरति > प्रा० उच्चरद्द है । यह दिन रैनि नाम उच्चरं । वैरा० ४१ उच्चरत : वकृ०पु ं० | बोलता-बोलते । 'जयति राम जय उच्चरत ।' कवि ० ६४७ उच्चहिं, हीं : आ० प्रब० । बोलते हैं । 'वेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं । मा० - बोलना ) आ० प्रए० । बोलता १.१०१.४ उच्छलत : वकृ० पु ं० (सं० उच्छलत् - उद् + शलगती > प्रा० उच्छलंत ) । उमग चलता, ऊर्ध्वगति लेता । 'उच्छलत सायर सकल ।' कवि० ६ ४४ उच्छंग : उछंग । मा० १.६८.६ उच्छंग : सं० पु ं० (सं० उत्संग > प्रा० उच्छंग ) । गोद, क्रोड। 'लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही ।' मा० १.१०२.२ उछंगा : उछंग । मा० ६.११.५ उछरि : पूकृ० (सं० उच्छल्य > प्रा० उच्छ लिअ > अ० उच्छलि ) । उछल कर, ऊर्ध्वगति लेकर | विन० १६१.३ : उछल उछरि । 'तुलसी उछलि सिंधु मेरु मसक्तु है ।' कवि० ६.१६ (सागर उछल कर मेरु को धो रहा है ।) उछाह हा सं० पु० (सं० उत्साह > प्रा० उच्छाह ) । उत्लास, वीरता का मनोभाव । हर्षातिरेक । 'मज्जहिं प्रात समेत उछाहा । मा० १.४४८ उछाहू : उछाह + कए । अद्वितीय उत्साह । 'सानृज राम बिबाह उछाहू |' मा० १.४१.५ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश.. 87 उजरउ : आ०-संभावना-प्रए० (सं० उज्जटतु>प्रा० उज्जइउ)। उजड़ जाय, चाहे तहस-नहस हो जाय । 'बसउ भवन उजरउ नहिं डरऊँ ।' मा० १.८०.७ उजरी : भू०कृ० स्त्री० । उजड़ी, निर्जन हो गई। 'उजरी परनकुटी।' गी० उजरें: उजड़वे पर, उजड़ जाने की दशा में । 'उज़रें. हरष बिषाद बसेरें।' मा० १.४.२ उजागर : वि० (सं० उज्जागर) । अत्यन्त जागरूक । (१) उज्ज्वल । 'पंडित, मूढ़, मलीन उजागर ।' मा० १.२८.६ (२) सर्वोपरि देदीप्यमान । 'सो बितानु तिहुँ लोक उजागर ।' मा० १.२८६.५ (३) उत्तम, विख्यात । 'राम जनमि जगु कीन्ह उजागर ।' मा० २.२००.५ (४) प्रकट, स्पष्ट, सुव्यक्त । 'संतन गायो करन उजागर ।' वैरा० ५२ उजागरि, री : उजागर+स्त्री० । उत्तम, प्रकाश मान । 'रूप सील उजागरी।' मा० १.३२५ छं. Vउजार, उजारइ : (सं० उच्चाटयति>प्रा० उज्जाडइ-उच्छिन्न करना, नष्ट भ्रष्ट करना) आ० प्रए० । उड़ाड़ रहा है। 'बन उजार जुबराज ।' मा० ५.२८ उनारा : भू९क० ० (सं० उज्जाटित>प्रा० उज्जाडिअ.)। नष्ट कर डाला। 'भवन मोर जिगह बसत उजारा ।' मा० १.६७.१ उजारि : (१) सं० स्त्री० (सं० उज्जाट)। उजाड़, शून्य, बिना बस्ती का स्थान । 'होइहि सब उजारि ससारू ।' मा० १.१७७७ (२) पूकृ० (सं० उज्जाट्य> प्रा० उज्जाडि अ>अ० उज्जाडि)। उजाड़ कर, ध्वस्त करके । 'बन उजारि रावनहिं प्रबोधी । पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी।' मा० ७.६७.५ उजारी : भू०० स्त्री० (उज्जाटिता>प्रा० उज्जाडिआ)। नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। तेहिं असोक बाटिका उजारी ।' मा० ५.१८.३ उजारे : भू०० पु. (सं० उज्जाटित>प्रा० उज्जाडिअ) बहु० । उजाड़ डाले, उखाड़ फेंके । 'उजारे बाग अंगद ।' कवि० ५.३१ उजारो : भू० ००कए । उजाड़ डाला । 'सुरलोकु उजारो।' कवि० ७.३ उजार यो : उजारो । कवि० ५.५ उजिप्ररिया : उजिआरी। चांदनी। 'डहकति है उजिअरिआ निसि नहिं धामु।' बर० ३७ उजिआर : सं० पु. (सं० च्युतिकार>प्रा० जुइआर) । प्रकाश, उजाला। मा० १.२१ उजियारी : उजाली में, प्रकाश में। 'भए नखत जनु बिधु उजिआरी ।' मा० १.३१४.७ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश उंजिआरी : उजिआर+स्त्री० । उजाली, ज्योति । चांदनी । 'नृप सब नखत करहिं उजिआरी ।' मा० १.२३६.१ । उ जिआरे : वि० पु० (सं० च्युतिकारक>प्रा० जुइआरय) । प्रकाशक । 'पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे ।' मा० १.२६२.१ ।। उजेनी : सं० स्त्री० (सं० उज्जयिनी>प्रा० उज्जेणी= उज्जइणी)। उज्जन नगरी। ___ मा० ७.१०५.१ उज्जारि : उजारि । उजाड़ कर । कवि० ६.२१ Vउठ, उठइ : (सं० उत्तिष्ठति>प्रा० उटुइ-बैठने से ऊपर गति लेना, उकसना, उकसना ऊर्ध्वगति करना) आ० प्रए । उठता है । 'उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं । मा० १.२५०७ उठत : वक० पु । उठता, उठते मा० ७.५.७ उठति : वकृ० स्त्री० । (१) उठती, उभरती । 'उठति बयस मसि भीजत ।' गी० २.३७.२ (२) समाप्त होती हुई। 'हाट सी उठति जंबुकनि लूट्यो।' कवि०६.४६ उठन : भकृ० अव्यय । उठने को। 'चाहत उठन ।' मा० १.१९३.४ उठब : भक० पु । उठना । 'प्रेम मगन तेहि उटब न भावा ।' मा० ५.३३.१ उठह : आ० मब० (सं० उत्तिष्ठथ, उत्तिष्टत>प्रा० उट्ठह>आ० उट्ठहु)। (१) उठते हो । 'उठहु न सुनि मम बच बिकलाई ।' मा० ६.६१.५ (२) उठो, सजग होओ। 'उठहु राम भंजहु भव चापा।' मा० १.२५४.६ उठा : भूक०० (सं० उत्थित>प्रा० उट्ठ) । मा० १.३३५ उठाइ : पूक० । उठाकर । 'लीन्हेसि जाइ उठाइ।' मा० १.१७६ उठाई : (१) उठाइ । 'सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई।' मा० १.१६५.५ (२) भू०० स्त्री० । 'तेहिं अंगद कहुं लात उठाई।' मा० ६.१८.५ उठाएँ : क्रि० वि० । उठाए हुए की मुद्रा में । 'भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ ।' मा० १.२८१.४ उठाए : भू०कृ० पु० (सं० उत्थापति>प्रा० उट्ठाविअ)। 'तुरत उठाए करुना पुजा।' मा० १.१४८.८ उठाय : उठाइ । गी० १.७२.३ उठायो : भूकृ० पुं० कए । उठाया। 'बिनु प्रयास हनुमान उठायो।' मा० ६ ७७.१ उठाव, उठावइ : (सं० उत्थापयति>प्रा० उट्ठावइ) आ० प्रए० (प्रेरणा)। उठाता है। 'पर्यों बीर बिकल उठाव दसमुख ।' मा० ६.८३ छं० । उठावन : भकृ० अव्यय । उठाने 'लगे उठावन टरइ न टारा।' मा० १.२५१.१ उठावा : भू०० पुं० (सं० उत्थापित>प्रा० उट्ठाविअ)। उठाया। 'जेहिं कौतुक सिक्सैल उठावा।' मा० २.२६२.८ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 89 ना० ६.५४ उठावौं : आउए । उठाता हूँ, उठा सकता हूँ। 'कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं ।' मा० १.२५३.४ उठि : पू० । उठकर । मा० १.१७१.१ उठिहौं : आ०भ उए । उलूंगा । 'उठिहौं न जनम भरि ।' विन० २६७ उठी : भू०० स्त्री० बहु० । मा० १.३५२.२ उठी : भू०० स्त्री० । मा० २.२६ उठे : भू०कृ० पुं० बहु० । 'उठे लखनु ।' मा० १.२२६ उठेउ : भू०कृ० पु. कए । उठा । जग गया। 'उठेउ गवहिं जेहिं जान न रानी।' मा० १.१७२.३ उठे : आ०प्रब० । उठते-ती-हैं । 'प्रेम बिबस उठ गाइ के।' गी० १.७०.२ उठ : उठइ । उठे, उठ सके । उठ सकते हैं, उठता है । 'जगदाधार सेष किमि उठे।' मा० ६.५४ उठौ : उठहु । उठो । 'प्रात भयो......उठो प्रानप्यारे ।' गी० १.३७.१ उठ्यो : उठेउ । कवि० ५.६ Vउड़, उड़द : (सं० उड्डीयते>प्रा० उड्डइ-उड़ना) आ०प्रए । उड़ता है । 'उड़इ अबीर मनहुं अरुनारी ।' मा० १.१६५.५ उड़गन : उङ गन । मा० १.३२.१२ उड़त : वक० पु० । उड़ता, उड़ते । 'नभ उड़त बहु भुज मुड ।' मा० ३.२० छं० १ उड़न : भक० अध्यय । उड़ते को। 'मन हुं उड़न चाहत अति चंचल ।' कृ० २२ /उड़ा, उड़ाइ, ई : उड़ । उड़ता है, उड़ती है । 'ऊपर धूरि उड़ाइ।' मा० ६ ५३ ____ 'मसक फंक मेरु उड़ाई।' मा० २.२३२.३ उड़ाइ : पूक० । उड़कर । 'बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर।' मा० ६.८६.१ उड़ाई : (१) उड़ाइ-दे० /उड़ा । (२) उड़ाइ। उड़ कर । 'गगन गए रबि निकट उड़ाई।' मा० ४.२८.२ (६) भू.कृ. स्त्री० । उड़ा दी । हनु० ३५ उड़ाउँ : आ० उए । उड़ता हूं (था) । 'तहें तहँ संग उड़ाउँ ।' मा० ७.७५ उड़ात : उड़त । उड़ता-उड़ते । मा० ७.२८.४ उड़ाना : (१) उड़न । उड़ना । 'बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना।' मा० १.७८.६ (२) भू००० । उड़ा । 'गहिसि पूंछ कपि सहित उड़ाना ।' मा० ६.६५.५ उड़ानी : भू० कृ० स्त्री० । उड़ी । 'कछु कटु चाह उड़ानी।' कृ० ४७ उड़ाने : उड़ाना । उड़ने को । 'जन चहत उड़ाने ।' मा० १.२६८.६ /उड़ाव, उड़ावइ : (/उड़+प्रेरणा-सं० उड्डागयति>प्रा० उड्डावइ) आ० प्रए । उड़ाता है । 'मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई ।' मा० ७.१०६.१२ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 तुलसी शब्द-कोश उड़ावन : भकृ• अव्यय । उड़ाने को। 'चहत उड़ावन फूंकि पहारू ।' मा० १.२७३.२ उड़ावनिहारी : वि० स्त्री० । उड़ाने वाली। 'संसय बिहग उड़ावनिहारी।' मा १.११४.१ उड़ाबहि, हीं : आ०प्रब० । उड़ाते हैं। 'बहु बाल गुड़ी उड़ावहीं ।' मा० ३.२० छं० २ उड़ाहिं, हीं : आ०प्रब० । उड़ते हैं । 'मानहुं सपच्छ उड़ाहिं भूधर ।' मा० ६७६ छं० 'जीवजंतु जे गगन उड़ाहीं ।' मा० ५.३.२ उड़ि : पूक० । उड़कर । मा० ६.८२ छं० उड़ गन : नक्षत्र समूह (सं० उड़गण) । मा० ६ १०३ छं० उड़ यो : भू०००कए । उड़ा, उड़ गया । गी० २.११.४ उत : अव्यय क्रि०वि० । उधर, उस ओर । मा० १.२०३ उतंग : वि० (सं० उत्तुङ्ग)। उन्नत, उच्च, विशाल । मा० ५.३.११ उतकंठा : सं० स्त्री० (सं० उत्कण्ठा) । इच्छा (जिसमें व्यक्ति कण्ठ ऊपर उठाकर प्रतीक्षा-सी करता है)। अभिलाष+आशा । 'सिय हिय अति उतकंठा जानी ।' मा० १.२२६.३ उतकरष : सं०पु० (सं० उत्कर्ष) । महिमा, अभ्युदय, प्रशस्ति । रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ ।' मा० ५.४०.३ उतपति : (१) सं०स्त्री० (सं० उत्पत्ति)। जन्म । मा० १.१६२ (२) सृष्टि । 'उतपति थिति लय ।' मा० २.२८२.५ उतपात : सं०० (सं० उत्पात)। (१) अशुभसूचक प्राकृतिक व्यापार- उल्कापात, भूकम्प आदि । मा० ६.१०२ छं० (२) उपद्रव, उछलकूद, उद्दण्डता । 'कहेन्हि करिअ उतपात अरंभा ।' मा० ६.४४.६ (३) विघ्न-बाधा । 'तहें उतपात न भेदै कोई ।' वैरा० ४६ उतपाती : वि.पु(सं० उत्पादिन्) । उपद्रवी । 'अब दुइ कपि आए उतपाती।' मा०६ ४४.४ उतपातु : उतपात+कए । (१) अन्याय, अनुचित कार्य । 'सबु उतपातु भयउ जेहि लागी।' मा० २.२०१.५ (२) अशुभ सूचक । मा० २.३०५.८ उतर : सं०० (सं० उत्तर)। (१) उत्तर दिशा । 'लखन दीख पय उतर करारा।' मा० २.१३३ २ (२) प्रश्न के लिए प्रतिवचन । मा० १.४१.२ /उतर, उतरइ : (सं० उत्तरति>प्रा० उत्तरइ-पार होना) आ०प्रए । उतरता है, उतरे, पार जाये । 'करहु सेतु उतरै कटकु ।' मा० ६.०.२ (२) सं० अवतरति-नीचे आना) । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी-शब्द-कोश 91 उतरअयन : सं०० (सं० उत्तरायण) । मकर रेखा (राशि) से कर्क रेखा (राशि) पर्यन्त सूर्य गति के छः मास का समय । गी० १.५१.३ उतरत : वकृ० पु । उतरना, नीचे आता। 'चढ़त दसा यह उतरत जात निदान ।' बर० ५ उतरन : भकृ० अव्यय । उतरने, पार जाने । 'जिअत न सुरसि उतरन देऊ ।' मा० २.१६०.२ उतरहि : आ०प्रव० । उतरते हैं, पार जाते हैं। 'उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।' मा० २.१०१.२ उतराई : सं० स्त्री० । पार ले जाने का पारिश्रमिक । 'कहेउ कृपालु लेहु उतराई।" मा० २.१०२.४ उतरि : पूक । उतरकर । (१) नीचे आकर । 'उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा ।' मा० १.१५८८ (२) पार जाकर । 'सुरसरि उतरि निवास प्रयागा।' मा० ७६५३ उतरिबो : भक० पु. कए । उतरना, उतरना (चाहिये, होगा)। गी० ५.१४.२ उतरिहि : आ०-भ०-प्रए० । उतरेगा। 'उतरिहि कटकु. न मोरि बड़ाई।' मा० ५.५६.७ उतरी : भू०कृ० स्त्री० । (१) उतर पड़ी (अभियान करके आ गई) । 'मनहुं करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ ।' मा० २.४६ (२) पार हुई। 'सेन जिमि उतरी सागर पार ।' मा० ६.६७ क उतरु : उतर+कए० । (१) कोई-सा भी उत्तर । 'जाइ उतरु अब देहउ काहा।' मा० १.५४.२ (२) एक भी उत्तर । 'आली अति अनुचित, उतरु न दीजै ।' कृ०४५ उतरे : भू०० पु० (सं० उत्तीर्ण>प्रा० उत्तरिअ) । (१) पार हुए। सेन सहित उतरे रघुबीरा ।' मा० ६.५.२ (२) आकर रुके । 'उतरे जहँ तह बिपुल महीपा ।' मा० १.२१४.४ (३) अवरोहण किया, नीचे आये। "उतरे राम देवसरि देखी।' मा० २.८७.२ उतरेउ : भू.कृ.पु०कए० । (१) पड़ाव डाला । 'जल-थल तकि तकि उतरेउ लोग।' __मा० २ २४५.८ (२) पार किया। मा० ६.६ ५ उतर : उतरइ । मा० ५ ५६ उतर यो : उतरेउ । मा० ६.४६ उतहि : उधर, उधर ही । गी० १.१०५.४ उताइल : वि० (सं० उत्तावत्>प्रा० उत्ताइल) । (१) त्वरित, शीघ्रगतिक (जैसे तची भूमि पर पैर पड़ रहे हों) । 'तब पथ परत उताइल पाऊ।' मा०२.२३४ ६ (२) क्रि०वि० । हड़बड़ी में । 'चला उताइल ।' मा० ३.२६.२३ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92. तुलसी शब्द-कोश उताना : वि०० (सं० उत्ताल)। मह (और पैर) ऊपर किये हुये । 'जिमि टिट्टभ खग सूत उताना।' मा० ६.४०.६ उतार : वि०० । उतारा हुआ, उतार कर फेंका हुआ, उपेक्षित । नितान्त गहित । 'अपत उतार अपकार को अगार जग।' कवि० ७.६८ उतारति : वकृ० स्त्री० । उतारती । जा०म० १५१ उतारहिं : आ०प्रब० । उतारती हैं । 'कनक थार आरती उतारहिं ।' मा० ७.७ ४ उतारहि : आ०-आज्ञा-मए । तू पार ले चल । 'होत बिलंब उतारहि पारू ।' मा० २.१०१.२ उतारि : पूकृ० । उतारकर । 'चूड़ामनि उतारि तब दयऊ ।' मा० ५.२७.२ उतारिहौं : आ०भ० उए । उतारूँगा। मा० २.१०० छं० उतारी : (१) उतारि । 'सिर सरोज निज करन्हि उतारी । पूजेउँ ।' मा० ६.२५.३ (२) भू०० स्त्री० । 'बार बार आरती उतारी।' मा० ७.१२.६ (३) अङ्ग से पृथक् की । 'मनिमुदरी मन मुदित उतारी।' मा० २.१०२.३ उत्तम : वि० (सं०) । उच्च, सर्वश्रेष्ठ । 'उत्तम मध्यम नीच लघु ।' मा० १.२४० उत्तर : सं० (सं०) (१) दिशा विशेष । 'मा० ५.६०.५ (२) प्रश्न वाक्य के लिए प्रतिवाक्य । मा० २.१७६ उत्तर : उत्तर+कए । प्रतिवचन । गी० ५.२१.४ उत्तानपाद : सं० पुं० (सं०) । मनुपुत्र =ध्रुव के पिता । मा० १.१४२.३ उत्पात : (दे० उतपात) विन० २५.४ उत्सव : सं० (सं०) । समारोह, उल्लास का अवसर । मा० १.६१ Vउथप, उथपइ : (सं० उत्थापयति>प्रा. उत्थप्पइ-उठाना, उखाड़ना, हटाना, उजाड़ना) आ०प्रए । उखाड़ता है, उखाड़ सकता है । 'उथप तेहि को जेहि रामु थपे ।' कवि० ७.४७ उथपन : (१) वि०पू० । उखाड़ने वाला। जा०म० १७२ (२) सं०पू० (सं. उत्थापन) । उखाड़ना । 'उथपे थपन, थपे उथपन पन।' विन० ३१.३ उथपनहार : वि.पु । उखाड़ने वाला । 'थपे उथपनहार ।' हनु० २२ उथपे : भू.क.पु० (सं० उत्थापित>प्रा० उत्थप्पिय) । उजाड़े, उखाड़े हुए (को) । ___ 'उथपे थपन थिर ।' हनु० २२ उथप : उथपइ । दे०/उथप ।। उदउ : उदय+कए० । 'उदउ करहु जनि रबि ।'मा० २.३७.३ उदघारी : भू०० स्त्री० (सं० उद्घाटिता) । उघाड़ी, खोल दी, प्रकट की। तब .. भुजबल महिमा उदघाटी।' मा० १.२३६.६ उदधि : सं०० (सं०-उद=जल+धि) । समुद्र । मा० १.६.१ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 93 उदबस : सं०० (सं० उद्वस)। उजाड़, निर्जन। 'उदबस अवध अनाथ सब ।' रा०प्र०६६.३ उदबेग : सं०० (सं० उद्वेग)+कए० । व्याघात, बाधा, आतङक । मानसिक उचाट या क्षोभ । मा० २.१२६.२ उदभव : सं०० (सं० उद्भव)। (१) प्रकट होना (२) अभ्युदय (३) जन्म, उत्पत्ति, सृष्टि का आविर्भाव । “उदभव पालन प्रलय कहानी ।' मा० १.१६३.६. उदय : उदय से, उदय काल में । 'उदय तासु त्रिभुवन तम भागा।' मा० १.२५६.८ उदय : सं०पु० (सं०) । (१) अभ्युदय, उन्नति । 'दुष्ट उदय जग आने हेतू ।' मा० ७.१२१.३० (२) प्रकाश का आविर्भाव । मा० १.२३६.५ (३) पूर्व दिशा का कल्पित पर्वत विशेष जहां से सूर्योदय माना जाता है। 'उदय अस्त गिरि अरु कैलासू ।' मा० २.१३८.६ उदयगिरि : एक काल्पनिक पर्वत जहाँ सूर्योदय माना गया है = उदयाचल । मा० १.२५४ उदयसैल : उदयगिरि । गी० १.८४.४ उदर : सं०पू० (सं.)। पेट । मा० १.१४७ उदरबृद्धि : पेट बढ़ने का रोग विशेष, प्लीहा आदि । मा० ७ १२१.३६ उदार (रा) : वि० (सं.)। (१) परोपकारी, दानी। 'जनु उदार गृह · जाचक भीरा ।' मा० ३.३६.८ (२) श्रेष्ठ, उत्तम । 'सो संबाद लदार ।' मा० १.१२० (३) निष्ठावान, सरल, निश्छल । 'बिनती कीन्हि उदार ।' मा० ७.१३ क (४) उचित, योग्य । 'लछिमन नाम उदार ।' मा० १.१६७ (५) दयालु । 'बिहँसे रामुउत्पर ।' मा० ६.३८ ख (६) सम्मान्य, ग्राह्य । 'मम संदेस उदार ।' मा० ५.५२ (७) महान्, विशाल । 'सहि सक न भार उदार अहिपति ।' मा० ५.३५ छं० २ (८) प्रेरक । 'अवतार उदार अपार गुन ।' मा० ६.१११.६ उदास : वि० (सं.) । विन्न, अनासक्त, विरक्त, निराश । 'एक उदास भायँ सुनि रहहीं।' मा० २.४८.६ उदासा : उदास । (१) विरक्त, उदासीन एवम् अनासक्त। 'तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा।' मा० १.७६.५ (२) तटस्थ । जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा ।' मा० १.१६२.५ उदासी : वि०० (सं० उदासिन्) । (१) उदासीन, तटस्थ । 'जे हमार अरि मित्र उदासी।' मा० २.३.२ (२) निष्काम, अनासक्त । 'पिता बचन तजि राजु उदासी।' मा० १.४८.८ (३) निर्लेप, मायागुणातीत । 'सदा एकरस सहज उदासी।' मा० ६ ११०.५ उदासीन : वि० (सं०) उदासी । 'उदासीन अरि मीत हित।' मा० १.४ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 तुलसी शब्द-कोश उदित : भू००वि० (सं०) । उगा हुआ, प्रकट, व्यक्त, प्रकाशित, उन्नत । 'उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बाल पतंग ।' मा० १.२५४ उदै : उदय । कवि० २.२२ उदोत : सं०० (सं० उद्योत)। प्रकाश । 'हाथ लेत पुनि मुकुता करत उदोत ।' बर०४ उदौ : उदउ । दो० ३४४ उद्धरण : वि.पु । उद्धार करने वाला, तारने वाला। विन० ५२.२ उदरहुगे : आ०भ०-मब० । उद्धार करोगे, पापमुक्त करोगे। 'मोहि नाथ उद्धरहुगे ।' विन० २११.१ उद्धारन : वि०० । उद्धार करने करने वाला, ऊर्ध्वगति देने वाला। 'गीध सबरी उद्धारन।' कवि० ७.११४ उद्धृत्य : पूक० (सं०) । निकाल कर । विन० ५७.६ उभव : सं०० (सं०) । उत्पत्ति, आविर्भाव । मा० १ श्लोक ५ उद्यम : सं०० (सं.)। उद्योग, प्रयत्न (धन्धा) । 'जस सुराज खल उद्यम गयऊ।' ___ मा० ४.१५.३ .. उद्योत : सं०० (सं०) । प्रकाश, ज्योति । विन० ५१.२ उपरी : भू००स्त्री० (सं० उद्धत>प्रा० उद्धरिआ) । ऊपर की गई, उठाकर बचा ली गई । 'अनायास उधरी तेहिं काला।' मा० १.२६७.४ उधर यो : भूक०० कए । उद्धार करके बचाया, तारा। 'कर गहि उधर यो।' विन० २३६.३ उधारन : उद्धारन । गी० ६.६.५ उपारि : पूकृ० । उद्धार करके । 'रिषि नारि उधारि.....सुकीर्ति लही।' कवि० ७.१० मा० १.२२१ उधारिहैं : आ०भ०प्रब० । उद्धार करेंगे, पापमुक्त करेगे । गी० २.४१.४ उधारी : भूक० स्त्री० । उद्धार की, पापमुक्त की । 'भग मुनि बधू उधारी।' गी० १.६३.४ उधारे : भृ० कृ०पु०ब ० । मुक्त किये, ऊपर गये । नाम उधारे 8 मि.त हल ।' मा० १.२४ उधार यो : भू००पु० कए० । स्टार किया, मुक्त किया। गीध उधार यो ।' विन० २०२.५ उन : सर्वनाम-संब०। उन्हों (ने) । 'चित्रकेतु कर घर उन घाला।' मा० १७६२ उनचास ; संख्या (सं० ऊनपञ्चाशत् >प्रा० ऊण चास) । मा० ५.२५ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 95 उनभाय : पूक० (सं० उन्नमय्य) । ऊपर उठाकर, ऊँचा करके । 'कीर्तन उनमाय काय क्रोध कंदिनी।' गी० २.४३.२ उनमे, खुबु, षु : सं०० कए० (सं० उन्मेषम्) । उदय, विकास । 'भ्रमर द्वै रबि किरन ल्याये करन जनु उनमेख ।' गी० ७.६.३ उनये : भू.कृ.पु । लदाव के कारण ऊपर से नीचे को झुके हुए । 'सो मनो उनये घन सावन के ।' कवि० ६.३४ उनरत : वकृ०० (सं० उन्नटत>प्रा० उन्नडंत)। ऊपर को नाचता हुआ, उभरता हुआ, बढ़ता हुआ, विकास लेता हुआ। 'उनरत जोबनु देखि नृपति मन भावइ हो।' रा०न० ५ उनवनि : सं०स्त्री० (सं० उन्नमन>प्रा० उन्नवण)। ऊपर से घेर कर झुकना, छा जाना, उमड़ना । 'लाज गाज, उनवनि कुचालि कलि ।' कृ० ६१ उनहि : उन को । 'जो कछु करहिं उनहि सब छाजा ।' मा० ३.१७.१४ उनीद : सं० स्त्री० (सं० उन्निद्रा)। उचटी नींद, अधिक सोने की इच्छा, ऊँचा। _ 'लरिका अमित उनीद बस ।' मा० १.३५५ उनीदे : भू००० (सं० उन्निद्रित>प्रा० उन्निद्दीय)। उचटी नींद वाले, ऊँघे हुए, निद्रालस, सोकर उठे पर नींद से भरे हुए । 'आजु उनीदे आए मुरारी।' कृ०२२ । बर० १६ उन्नत : वि० सं०) । उत्तुङ्ग, ऊँचा।गी० ७.१७.४ उन्ह : (१) उन । 'साँचेहुँ उन्ह के मोह न माया।' मा० १.६७.३ (२) उन्होंने । 'छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा ।' मा० ३.२२.१ उन्हहि : उनहि । उनको। 'तस फल उन्हहि देउँ।' मा० २.३३.८ उपंग : सं० । वायविशेष, मुरचंग (?) । गी० २.४७ १०.४८.३ उपकार : संपुं० (सं०) । दूसरे के प्रति हित कार्य । मा० ५.३२.६ उपकारा : उपकार । मा० १.८४.४ । उपकारी : वि० (सं.)। स्वार्थरहित परहित करने वाला । मा० १.११२.६ उपकारु, रू: उप कार+कए। अद्वितीय हितकार्य । 'बिधि बस भयउ विश्व उपकारू ।' मा० २.३१०.६ उपखान : सं०० (सं० उपाख्यान) । इतिष्टत्त, प्रासंगिक कथानक । दो० ३९८ उपखानु : उपखान+कए । 'संगति न जाइ पाछिलो को उपखानु हे।' कवि० ७.६४ उपखानो : उपखानु । कवि० ७.१०७ उपचार : सं०० (सं.)। (१) सेवा, विनय, शिष्टता आदि। (२) उपाय । 'तब लगि सुखु सपनेहुं नहीं, किएँ कोटि उपचार ।' मा० २.१०७ (३) चिकित्सा। 'कहहु कवन उपचार ।' मा० २.१०८ (४) छल करने का अर्थ भी है Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 तुलसी शब्द-कोश 'उपचरित' महाभारत, शान्ति मा० ३.३० ललकार, आह्वान । 'भरत हमहि उपचार न थोरा।' मा० २.२२६.७ (५) उपाय, चिकित्सा, बिनती, प्रार्थना आदि का श्लिष्ट रूप- 'नाना उपचार करि हरि ।' कवि० ५.२५ उपज : उपजइ । उत्पन्न होता है । 'उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ।' मा० ७.१११.१५ /उपज, उपजाइ : (सं० उत्पद्यते>प्रा० उप्पज्जइ- उत्पन्न होना, जन्म लेना, उगना) आ०प्रए । उपजाता है । 'बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग ।' मा० ४.१५ख उपजती है। 'सुनि प्रभु पद रति उपजइ।' मा० ७.६६ के उपजत : वकृ.पु । उत्पन्न होता-होते । 'निमिष निमिष उपजत सुख नए । मा० ७८६ उपहिं : आ०प्रब ० । उत्पन्न होते हैं। 'उपजहिं एक संग जग माहीं।' मा० १.५५ उपजा : भू००० (सं० उत्पन्न>प्रा० उप्पाजिम) । उत्पन्न हुआ । 'उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा ।' मा० १.५०-१ उपजाइ : पूकृ० उत्पन्न करके । 'बंदि बोले बिरद अकस उपजाइ के।' गी० १.८४.७ उपजाए : उत्पन्न किये (से) । 'बिद्या बिनु बिवेक उपजाएँ ।' मा० ३.२१.६ उपजाए : भू० कृ०० बहु० (सं० उत्पादिता:>प्रा० उप्पज्जाविया) । उत्पन्न किये (हुए) 'भलेउ पोच सब बिधि उपजाए।' मा० १.६.३ । उपजायक : उपजाने का, उत्पन्न करने का । 'यह दूसन बिधि होत तोहि अब राम चरन बियोग उपजायक ।' गी० २.३.३ । उपजाया : भू००० । उत्पन्न किया। 'आदिसक्ति जेहिं जब उपजाया।' मा० १.५२.४ Vउपजाव, उपजावइ : (सं० उत्पादयति >प्रा० उप्पज्जावइ-उत्पन्न करना) । आ०प्रए । उत्पन्न करता है। निज भ्रम ते रबिकर संभव सागर अति भय उपजावै ।' विन ० १२२.४' उपजावसि : आ०मए० (सं० उत्पादयसि>प्रा० उप्पज्जावसि)। तू उत्पन्न करता है, तू उत्पन्न कर । 'अब जनि रिस उपजावसि मोही।' मा० ६.३१.५ उपजावहिं : आप्रब० (सं० उत्पादयन्ति.>प्रा० उप्पज्जावंति>अ० उप्पज्जावहिं)। उत्पन्न करते हैं । 'जय जय धुनि करि भय उपजावहिं ।' मा० ६६३.७ उपजावा : (१) उपजाया। 'जगु बिरंचि उपजावा जब तें।' मा० १.३२०.५ (२) उपजावइ । उत्पन्न करता है। 'देखहु तात बसंत सुहावा । प्रिया हीन मोहि भय उपजावा।' मा० ३.३७.१० उपजावं : दे० /उपजाव । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 97 उपजि : पूकृ० । उत्पन्न हो (कर)। "उपजि परी ममता मन मोरें।' मा० १.१६४.४ उपजिहि : आ०भ०प्रए । उत्पन्न होगा-होगी। 'राम भगति उपजिहि उर तोरें।' मा० ७.१०६.१० उपजिहु : आ० -भू० कृ० स्त्री०+मब० । उत्पन्न हुई हो । 'तीयरतन तुम उपजिहु भव रतनाकर।' पा०म० ४४ उपजी : भू० कृ०स्त्री० । उत्पन्न हुई । 'आदि सृष्टि उपजी ।' मा० १.१६२ उपजें : उत्पन्न होने पर-होने से । 'जिमि इन्द्रियगन उपजें ग्याना ।' मा० ४.१५.१२ उपजे : भूकृ०० (बहु०) । उत्पन्न हुए। 'उपजे जदपि पुलस्ति कुल ।' मा० १.१७६ उपजेउ : उपजा+कए । 'उपजे उ सिव पद कमल सनेहू ।' मा० १.६८.५ उपजेड : आ०-भू० कृ००+मब० । तुम उत्पन्न हुए हो। 'उपजेहु बंस अनल कुल घालक ।' मा० ६.२१.५ उपज : उपजइ । (१) उत्पन्न हो, उत्पन्न हो सके। ‘एहि बिधि उपजै लच्छि जब।' मा० १.२४७ (२) उत्पन्न होता है । 'अति दारुन दुख उपज ।' विन० ८६.२ उपदेस : सं०० (सं० उपदेश) । शिक्षा, शिक्षा बचन, धर्मकथन । मा० १.८९ उपदेसत : वकृ०० । उपदेश देता-देते । कवि० ७.७४ उपदेसन : भकृ० अव्यय । उपदेश देने । 'अब साधन उपदेसन आये ।' कृ. ५० उपदेसहि : आ०प्रब० । उपदेश करते हैं। 'कतहुं मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना ।' मा० १.७६.१ उपदेसहि : आ०ए० । उपदेश करे । 'तेहि को उपदेसहि ग्यान ।' विन० १६३.४ ('उपदेसई' पाठ अधिक संगत है ।) उपदेसा : (१) उपदेस । 'जस तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा ।' मा० १.१७१.३ (२) भू००० । उपदेश किया, सिखाया। 'मनहुं जरठपनु अस उपदेसा ।' मा० २.२.७ उपदेसि : पू० । उपदेश दे (कर) । 'तुम्हहि सकइ उपदेसि ।' मा० २.२८३ उपदेसिअ : आ०कवा०प्रए । उपदेश दिया जाय, सिखाया जाय। 'धरम नीति उपदेसिअ ताही।' मा० २.७२.७ उपदेसिबे : भकृ०० । उपदेश देने, सिखाने । 'तजहि तुलसी समझि यह उपदेसिबे __ की बानि ।' कृ० ५२ उपदेसिबो : भकृ००कए० । उपदेश देना, सिखाने योग्य । दो ० ४६८ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश उपदेसु, सू : उपदेस+कए । अनन्य उपदेश । 'कासी मुकुति हेतु उपदेसू ।' मा० १.१६.३ उपदेसे : भू००० (ब०)। सिखाये, समझाये-बुझाये । 'मुनि बहुभांति भरत उपदेसे ।' मा० २.१६६.८ उपदेसेउ : भूक०० कए । सिखाया। 'सुदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ ___ मोहि ।' मा० १.७२ उपदेसेन्हि : आ० भू०००+प्रब० । उन्होंने उपदेश दिया। 'दच्छ सुतन्ह उपदेसेन्हि जाई ।' मा० १.७६.१ उपदेसेहु : आभू०००+मब० । तुमने उपदेश किया। ‘एहि मिस मोहि उपदेसे हु राम कृपा-सुख-पुज ।' मा० ६.८० उपद्रव : सं०० (सं.)। (१) उत्पात, वेगयुक्त अयोग्य कार्यकलाप । 'करहिं उपद्रव असुर निकाया।' मा० १.१८३.४ (२) बड़े रोग से उत्पन्न सहायक रोग । (३) बाधा, विघ्न । 'करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं ।' मा० १.२०६.४ उपधान : सं०पू० (सं०) । उपबर्हण, तकिया। 'बिबिध बसन उपधान तुराई।' मा० २.६१.१ उपनिषद : सं०स्त्री० (सं० उपनिषद्) । अज्ञान-नाशक ब्रह्मविद्या, वेदान्त, वैदिक ज्ञान काण्ड सम्बन्धी ग्रन्थ विशेष; तत्त्व ज्ञान परक ग्रन्थ, उनसे उत्पन्न ब्रह्म ज्ञान । मा० १.४६.२ उपपातक : सं०० (सं.)। दे० पातक । ब्रह्महत्या, सुरापान्न, स्तेय (चोरी), गुरुपत्नी गमन तथा इन चारों का या किसी का संसर्ग-ये पांच महापातक हैं। इनके तुल्य पातक हैं-स्त्री बाल वध, गौवध, गृहदाह आदि । इन दोनों कोटियों से न्यून पातक उपपातक हैं-गुरुजनों के आदेश का उल्लंघन, गुप्त षड्यन्त्र आदि । मा० २.१६७.७ तथा पूरा प्रसंग । उपबन : सं०पू० (सं० उपवन) । उद्यान, बगीचा । मा० ४.२४ उपबरहन : सं०० (सं० उपबहण) । उपधान, तकिया। मा० १.३५६.३ उपबास, सा : सं०० (सं० उपवास) । अनशन व्रत। मा० १.७४.५ उपबियो : भू० कृ०पु०कए । अङकुरति, प्रकट, उदित । 'सब को सुकृत उपबियो है।' गी० १.१०.२ उपबीत : सं०पु० (सं० उपवीत) । (१) जनेऊ, बायें कन्धे से ऊपर और दाहिनी बाँह के नीचे का द्विजातीय परिधेय विशेष । 'नयन तीनि उपबीति भुजंगा।' मा० १.६२.३ (२) उपनयन-संस्कार । मा० १.३६१ छं० । उपमा : सं०स्त्री० (सं.) (१) सादृश्यपरक काव्यालंकार विशेष । मा० १.३७.३ (२) उपमान । 'सब उपमा कबि रहे जुठारी।' मा० १.२३०.८ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 99 उपमाई : उपमा (सं० उपमाति) 'अति अभूत उपमाई ।' वि० ६२.३ उपर : ऊपर । 'लंका सिखर उपर आगारा ।' मा० ६.१०.७ उपरना : सं०पु० । कन्धे पर डाला जाने वाला वस्त्र विशेष । 'पिअर उपरना ___कारवा-सोती।' मा० १.३२७.७ उपरागा : सं०पू० (सं० उपराग) । सूर्य (चन्द्र) ग्रहण, राहुग्रास । 'भयउ परब बिनु रबि उपरागा।' मा० ६.१०२.६ उपराजा : भू० ०० । उत्पन्न किया हुआ। 'अग-जगमग जग मम उपराजा।' मा० ७.६०.५ उपरि, उपरी : अव्यय (सं० उपरि)। ऊपर । विन० ५२.३ उपरी-उपरा : क्रि०वि० । एक-दूसरे के ऊपर होने की होड़ के साथ। 'रन मारि ___ मची उपरी-उपरा ।' कवि० ६.३४ उपरोहित : सं०० (सं० पुरोहित)। पुरोधा, कर्मकाण्डी आचार्य । मा० १.१६९.४ उपरोहित्य : सं०० (सं० पौराहित्य) । पुरोहिती। 'उपरोहित्य कर्म अतिमंदा।' मा० ७.४८.६ उपल : सं०० (सं०) । (१) पत्थर । 'उपल किए जल जान जेहिं ।' मा० १.२५ (२) ओला । 'उपल धन बरषन ।' कृ० १८ उपवास, सा : निराहार व्रत (दे० उपवास) । मा० २.३२२; १.७४.५ उपसम : सं०० (सं० उपशम)। (१) शान्ति, (२) धैर्य, (३) स्थिरता, (४) संयम (५) विषयों के क्षोम का शमन । विन० १५२.५ उपस्थित : वि० (सं०) । समीप स्थित । ‘मृत्यु उपस्थित आई।' विन० १२०.३ उपहार : सं०० (सं०) । भेंट, उपायन । मा० १.३०५.६ उपहास : सं००+स्त्री० (सं.)। परिहास, आक्षेपात्मक हास्य, निन्दासूचक हंसी । 'खल करिहहिं उपहास ।' मा० १.८ 'जगत मोरि उपहास कराई।' मा० १.१३६.३ उपहासी : उपहास । 'सब नृप भए जोगु उपहासी ।' मा० १.२५१.३ उपहासू : उपहास+कए । ‘रहे प्रान सहि जग उपहासू ।' मा० २.१७६.६ उपही : वि० (सं० उत्पथिक, उपपथिक>प्रा. उप्पाहिअ, ऊपहिअ)। मार्गचारी, क्षण-परिचित, पूर्व परिचय से रहित । 'प्रानहुँ तें प्यारे प्रियतम उपही ।' गी० २.३८.२ उपाइ : उपाय । 'तात सो कहहु उपाइ।' मा० ५.५६ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 तुलसी शब्द-कोश उपाई : (१) उपाइ । 'तदपि एक मैं वहउँ उपाई ।' मा० १.६९.१ (२) भू० कृ० स्त्री० (सं० उत्पादिता>प्रा० उप्पाइआ)। उत्पन्न की। 'जहिं सृष्टि उपाई।' मा० १.१८६ छं० उपाउ, ऊ : उपाय+कए । एक भी उपाय, एक ही उपाय । 'लोकहुँ बंद न आन उपाऊ।' मा० १.३.६ उपाएँ : उपाय से, उपायों से । 'सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ ।' मा० १.११.५ उपाए : भूकृ००ब० (सं० उत्पादित>प्रा० उप्पाइय)। उत्पन्न किये । 'जे -बिरंचि चिरलेप उपाए ।' मा० २.३१७.८ . उपाटी : पूकृ० । उखाड़ कर । 'लीन्ह एक तहिं सैल उपाटी।' मा० ६.७०.६ उपाधी : संस्त्री० (सं० उपाधि-पु०) । (१) उपद्रव, छल प्रपञ्च, विघ्नबाधा । 'तो बहोरि सुर करहिं उपाधी ।' मा० ७.११८.१० (२) संकट, अनुचित घटना । 'भै मोहि कारन सकल उपाधी ।' मा० २.१८३.३ (३) भेद प्रतीति कराने वाला वस्त धर्म जो अभेद में भी भेद लाता है तथा परस्पर भिन्न पदार्थों का पार्थक्य निर्धारित करता है । 'नाम रूप दुइ ईस उपाधी ।' मा० १.२१.२ उपाय : उपाय से । 'आन उपाय न मिटिहि कलेसू ।' मा० १.७२.२ उपाय : सं०० (सं.)। (१) युक्ति (२) साधन (३) उपादान सामग्री (४) विधि या रीति । मा० १.१६८.८ उपायन : उपाय+संब० । उपायों (को) । विन० १३.८ उपाया : (१) उपाय । 'करहु किन कोटि उपाया।' मा० २.३३.५ (२) भू०० पु० (सं० उत्पादित>प्रा० उप्पाइय)। उत्पन्न किया हुआ । 'अखिल बिस्व यह मोर उपाया।' मा० ७.८७.७ उपारहिं : आ०प्रब० (सं० उत्पाटयन्ति>प्रा. उप्पाडंति>अ० उप्पाडहिं) उखाड़ते हैं । 'उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं ।' मा० ६.८१.६ उपारा : भू००० (सं० उत्पाटित>प्रा० उप्पाडिअ)। उखाड़ा, उखाड़ फेंका (२) उखाड़ लिया। 'अति बिसाल तरु एक उपारा ।' मा० ५.१६.५ उपारि : पूकृ० (सं० उत्पाट्य>प्रा० उप्पाडिअ>अ० उप्पाडि)। उखाड़ कर । 'सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा ।' मा० ६.५७.७ उपारिउँ : आ०-भूकृ० स्त्री०+उए । मैंने उखाड़ी। 'जौं न उपारिउँ तब दस जीहा ।' मा० ६.३४.७ उपारी : उपारि । 'आनउँ इहां त्रिकूट उपारि ।' मा० ४.३०.६ उपारू : आo-आज्ञा-मए । तू उखाड़ दे। 'सीस तोरि गहि भुजा उपारू ।' मा० ६.५३.६ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश उपारे : भू० कृ०पु० (सं० उत्पादित > प्रा० उप्पाडिय) + बहु० । उखाड़े । 'खाएसि फल अरू बिटप उपारे ।' मा० ५.१८.४ 101 •।' कवि० ५.१२ उपास : सं०पु० (सं० उपबास ) । अनशन | 'तीसरें उपास उपासक : वि० (सं०) । आराधक, उपासना करने वाला । मा० ४.२६ उपासन : सं०पु० (सं० ) | आराधन, भक्ति, ज्ञाननिष्ठ । जिसमें आराध्य का सामीप्य बोध होता है । 'सगुन उपासन कहहु मुनीसा । ' मा० ७.१११.८ उपासना : सं० स्त्री० (सं० ) । उपासन | आराधना, भक्तिनिष्ठा । एक प्रकार की साक्षात्कार या अपरोक्षानुभूति जिसमें आराध्य का सामीप्य बोध हो ।' कवि० ७.८४ उपासा : उपास । (१) (सं० उपवास ) + (२) (सं० उपास ) निराहार व्रत + उपासना | 'समदम संजम नियम उपासा । मा० २.३२५.४ 1 उपेच्छनीय : वि० (सं० उपेक्षणीय ) । उपेक्षा योग्य, अनुरक्ति तथा विरक्ति दोनों के अयोग्य । विन० १२४.२ 1 उप्पम : उपमा । समानता । कवि० २.१ उफनात: वकृ०पु ं० (सं० उत्फणत् - फणगतौ ) । उफनता, उबर चलता, ऊपर को बहता । 'आँच पय उफनात ।' गी० ७.३६.४ उबटि : पूकृ० (सं० उद्वर्त्य > प्रा० उव्वट्टि > अ० उव्वट्टि) । उबटन लगा कर । 'भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए ।' मा० १.३३६.३ उबटौं : आ०उए० । उबटन लगा दूं । 'उबटौं, न्हाहु गुहौं चोटिया बनि ।' कृ० १३ // उबर, उबरइ : (सं० उद्वणुते > प्रा० उब्बरइ - शेष रहना, बचना) आ० प्र० । बचता है, बचा रह सके ) । ' तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी ।' मा० ३.३८.१२ उबरन : भकृ० अव्यय । बचने । 'इन्ह के लिए खेलिबो छाँङयो तऊ न उबरन पावहिं ।' कृ० ४ उरसि : आ०म० । तू बचता है, बच सकता है । 'राम बिरोध न उबरसि ।' मा० ५.५६ O उबरा : भूकृ०पु ं० । बत्रा । 'उबरा सो जनवासेहि आवा ।' मा० १.३२६.७ उबरिहि : आ०प्र० । बचेंगे 'ब्रह्म रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान ।' मा० ४.६ उबरी : भू० कृ० स्त्री । बची हुई । 'उबरी जूठनि खाउँगो ।' गी० ५.३०.४ उबरे : भू० कृ०पु०ब० । बचे रहे । 'जें राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल मदु ।' मा० १.८५ उबर्थौ : भू० कृ०पु ं०कए । बचा । 'नहिं जाचत कोउ उबर्र्यो ।' विन० ६१.३ उबार : सं०पु ं० (सं० उद्वार > प्रा० उच्चार) । बचाव, बचत, रक्षा । 'और प्रकार उबार नहीं कहुं ।' गी० ६.१.८ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 तुलसी शब्द-कोश उबारा : (१) उबार । 'नहिं निसिचर कुल केर उबारा ।' मा० ५.३६.२ (२) भू००० । बचाया । 'तुम्ह हटकहु जौं चहहु उबारा ।' मा० १.२७४.४ उबीठे : वि.पु. (सं० उद्विष्ट>प्रा० उविट्ठ)। बार-बार सेवन से जिस पर __विरक्त हो गयी हो। 'यह जानत हौं हृदय आपने सपने न अघाइ उबीठे।' विन० १३६.२ उबेने : वि००ब० । बिना पन ही पहने हुए । 'तो लौं उबेने पाय फिरत ।' कवि० ७.१२५ उमय : दोनों ने, से, में । 'धरम सनेह उभय मति घेरी। मा० २.५५.३ उभय : संख्या (सं.)। दो, युगल । मा० १.६.१ उभे : उभय । कवि १.१ उभौ : संख्या (सं०) । दो, दोनों । 'भिरे उभौ बाली अति तर्जा ।' मा० ४.८.२ /उमॅग उमॅगइ : (सं० उन्मङ्गते-उद्+मगिगतो>प्रा० उम्मंगइ- उमड़कर ___ बहना, उफनना, उमड़ना) आ०प्रए । उमड़ता है । 'भूपति पुन्य पयोधि उमॅग।' गी. १.६.४ उमगि : पूकृ० । उमड़कर । गी० १.१.११ उमंग : सं०स्त्री० (सं० उन्मङ्गा>प्रा० उम्मंग)। उल्लास, उत्तरङ्ग गति । कवि० २.१५ उमग : (१) सं० स्त्री० (सं० उन्मार्ग) । मार्ग लांघकर बहना, उमड़ना तट लांघ कर गमन, उच्छलन । 'सो सुभ उमग सुखद सब काहू ।' मा० १.४१.५ (२) उमगह । उमड़ता है। तन मन बचन उमग अनुरागा।' मा० २३१७.५ Vउमग उमइ : (सं० उन्मार्गति >प्रा० उम्मगइ-मार्ग लांघकर बहना, उमड़ना) आ०प्रए । उमड़ता है। 'महि उमग जनु अनुराग ।' गी० ७.१८.३ उमगत : व.पु । उमड़ता, उफनता । 'जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा।' मा० १.८६.८ उमगति : वकृ स्त्री० । उफनत्ती। 'अंगनि उमगति सुदरताई।' गी० १.५५.२ उमहिं : आ०प्रब० । उफनते हैं । 'उछाह उमगहिं दस दिसा ।' पा० मं० १५ छं० उमगा : भक० पु । उमड़ा, उफना । 'उर उमगा अनुरागु ।' मा० २.२५५ उमगि : पूकृ० । उफन कर, उन्मार्ग होकर। 'नदी उमगि अबुधि कहुं धाई ।' मा० १.८५२ उमगी : भू०० स्त्री० । उफन चली । मा० १.३५६ उमगे : भू००पु बहु । उमड़ चले, उफने । 'उमगे भरत बिलोचन बारी।' मा० २.२३८.१ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 103 उमगेउ : भू००कए । उफन चला । 'उमगेउ जनु जनवास ।' मा० १.३२७ उमग्यो : उमगेउ । गी० ३.१०.४ उमरि : सं० स्त्री० (अरबी-उम्र) । जीवन, आयुर्दाय । कवि० ७.७९ उमहि : (१) उमा को। 'मिलिमि उमहि तस संसय नाहीं ।' मा० १.६९.२ (२) उमा से । 'उमहि कही बृषकेतु ।' मा० १.१५२ उमा : सं० स्त्री० (सं०) । पार्वती । मा० १.४७ उमाकंत : (सं० उमाकान्त) । शिवजी। उमाकृत : वि० (सं०) । उमा द्वारा बनाया हुआ। मा० १.५३.१ उमानाथ : (सं०) शिव । मा० ७.१०८.१३ उमापति : (सं०) शिव । मा० ६.२५.२ उमाबर : शिव । कृ० २१ उमेस : (सं० उमेश) । उमापति, शिव । मा० १.१५.७ उयउ : भू०००कए० (सं उदित>प्रा० उइओ>अ० उद्यउ) । उदित हुआ। प्राची दिसि ससि उदउ सुहावा ।' मा० १.२३७.७ उर : सं०० (सं० उरस्) । हृदय । मा० २.५०.१ उरग : सं०० (सं० उरसा गच्छन्तीति उरगाः) । सर्प । मा० ३.२४.७ उरगा : उरग । मा० ६.६२.१ उरगाव : सं०० (सं० उरगान् अत्तीति उरगाद:) । गरुड़ । मा० ३.११.६ उरगाय : उरुगाय । विष्णु । गी० २.२८.४ उरगारि : संपु० (सं०) । सर्प शत्रु = गरुड़ । ७.११६ क उरगारी : उरगारि । मा० ३.१७.५ उरन्हि : उर+संब० । हृदयों (पर) । 'उरन्हि तुलसिका माल ।' मा० १.२४३ उरभूषन : वक्ष पर धारण किए जाने वाले आभरण । मा० १.३२७.६ उरमिला : सं० स्त्री० (सं० उर्मिला)। सीता की अनुजा= लक्ष्मण की पत्नी। मा० १.३२५ छं० २ उरसाल : सं०० (सं० उरःशल्य>प्रा० उरसल्ल)। हृदय में चुभने वाली बात । 'सो बढ्या उरसाल को।' कवि० ७.१३५ उरसि : (सं० पद) । हृदय पर, हृदय में । मा० २ श्लोक १ उरहनो : उराहनो । 'देन उरहनो आवहिं ।' कृ० ४ उराउ : सं००कए । बचाव, रक्षा (धैर्य)। 'तुलसी डराउ होत राम को सुभाउ ___सुनि ।' कवि० ७.१५ उरालय : वि.पु.। हृदय में जिसका आलय है, मनोनिवासी । अन्तर्यामी । मा० ७.३४.७ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 तुलसी शब्द-कोश उराहनो : सं०० (सं० उपालमन>प्रा० उआलहण)+कए। उपालभ्य, शिकायत, गिला । 'पाइ के उराहनो, उराहनो न दीजो मोहि ।' कवि० १.१६५ उरिन : वि० (सं० उऋण =अऋण>प्रा० उरिण)। ऋण मुक्त। मा० .. १.२७५.८, २७६.२ उरु : सं०० (सं० अरु) । (१) घुटनों के ऊपर चरणों का भाग । गी० ७.१७.५ (२) विस्तृत, दीर्घ, विशाल (सं.)। उरुगाय : सं०पु० (सं.)। विस्तृत (व्यापक) गति वाला विष्णु । 'जयति जय उरुगाय ।' विन० २२०.११ . उबि : उर्वी । कवि० १.११ उबिजा : पृथ्वी-पुत्री= सीता जी । मा० ३.४ छं० उबिधर : सं०० (सं० उर्वीधर)। भूधर पर्वत । विन० १५.५ उबिपति : पृथ्वी का स्वामी = राजा । विन० ५६.६ उर्वी : सं०स्त्री० (सं.)। पृथ्वी। उर्वोश : पृथ्वी का स्वामी राजा । मा० ६ श्लोक १ उलटउँ : आ०उए । उलटे देता हूं। 'उलटउँ महि जहँ लगि तव राजू ।' मा० १.२७०.४ उलटा : वि०० (प्रा० उल्लट्ट) । प्रतीप । मा० १.१६.५ उलटि : पू०० । उलटकर। (१) 'उलटि पलटि लंका सब जारी।' मा० ५.२६.८ (२) उलटा होकर, प्रतिकूल होकर । 'करइत उलटि परइ सुर-राया।' मा० २.२१८.२ उलटी : भूक स्त्री० । विपरीत, प्रतिकूल । 'उलटी रीति प्रोति ।' विन० २२४.२ उलटे : उलटा+बहु० । मा० २.११६.२ उलटने : उलटा+कए । गी० ५.४०.३ उलदै : आ०ए० (प्रा०उल्लद्दइ) । उँडेलता है। 'बारिधारा उलदै जलदु जोन सावनौ ।' कवि० ५.८ उलीचा : भू०००। हाथ से (पानी) डाला। 'मीन जिअन निति बारि उलीचा ।' मा०. २.१६१८ उलीचे : उलीचने से, हाथ या पात्र से पानी डालने से । 'सागर सीप कि जाहिं उलीचे ।' मा० २.२८३.४ उलूक : सं०० (सं०) । उल्लू पक्षी । मा० १.२५५.२ उलूफहि : उल्लू को, घुग्घू पक्षी को। 'जया उलूकहि तम पर नेहा ।' मा० ५.४५.८ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 105 उवन : सं०० (सं० उदयन>प्रा० उअण)। उदय करना । 'दंड द्वे (हे हैं रघु ____ आदित उवन को।' कवि० ६.७ उज्नकाल : सं०पू० (सं० उष्णकाल) । ग्रीष्म ऋतु । दो० ३१० उसास, सा; सं०० स्त्री० (सं० उच्छ्वास>प्रा० ऊसास) । ऊंची साँस, आह । _ 'सिरु धुनि लीन्हि उसास असि ।' मा० २.३०, २.५१.५ उसासु, सू : उसास+कए० । 'ऊतरु देइ च, लेइ उसासू ।' मा० २.१३.६ उसीले : वि.पु.ब. (सं० उच्छील)। उच्च शोल वाला, कृतज्ञ, उपकारी । साहेब कहूं न राम से, तो से न उसीले ।' विन० ३२.१ । उहाँ : क्रि०वि० । वहाँ । 'इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा । मा०' १.२०१.७ उहार : सं००कए० (सं० अवहारः, अवहारम् >प्रा० ओहारो, ओहारं>अ० ओहारु) । ऊपर का आवरण (खो पालकी आदि पर पड़ा होता है)। 'नारि । उहारु उधारि दुलहिनिन्ह देखहिं ।' जा०म० १८८ ऊंच : वि.पु. (सं० उच्च) । ऊर्ध्व, महान् , उत्तम । मा० १.६.६ ऊँचि, ची : वि० स्त्री० । 'मति अति नीचि ऊँचि रुचि आछी।' मा० १.८.७ ऊँचें : उच्च स्थान पर (या से) । 'तब केवट ऊँचें चढ़ि धाई ।' मा० २.२३७.१ ऊँचो : ऊँच+कए । 'ऊँचो कुल केहि काम को।' वैरा० ३८ ऊँट : सं०० (सं० उष्ट्र>प्रा० उट्ट) । पशु विशेष । मा० १.३००.६ ऊ : अध्यय । भी । 'नटनागर मनि नंदललाऊ। कृ० १२ ऊक : सं०स्त्री० (सं० उल्का>प्रा० उक्का) । पुच्छल, तारा, टूटता-गिरता नक्षत्र । 'ऊकपातदिकदाह दिन ।' रा०प्र० ५.६.३ ऊख : सं०स्त्री० (सं० इक्ष>प्रा० उच्छू = इक्खु)। (१) ईख । वैरा० ३६ (२) वि०० (सं० उख्य-उख दाहे>प्रा० उक्ख) । दग्ध । 'उन काल अरु देह खिन मग पंथी तन ऊख ।' दो० ३१० ऊखमय : ऊख से बना हुआ (खाँड)। 'अयमय खाँड, न ऊखमय ।' मा० १.२७५ ऊगो, ग्यो : उग्यो । 'ऊगो आतम भानु ।' वैरा० ३३ ऊतर : उत्तर । गी० ५.३२.२ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 तुलसी शब्द-कोश ऊतरु : उतरु । एक भी उत्तर । 'ऊतरु देइ न, लेइ उसासू ।' मा० २.१३.६ ऊतरे : उतरे। पहने कर फेंके-पुराने । 'तुलसी पट ऊतरे ओढ़िहौं ।' गी० ५.३०.४ ऊधो, धौ : सं०० (सं० उद्धव) । मथुरा में कृष्ण के सखा । कृ० ४६ ऊना : वि०पु० (सं० ऊन) न्यून, अल्प, छोटा । 'अस कस कहहु मानि मन ऊना।' मा० २.२१.४ ऊपजै : उपजइ । 'दुख ते दुख नहिं ऊपजी।' वैरा० ३० ऊपर : अव्यय (सं० उपरि >प्रा० उप्परि) । मा० ५.३०.२ ऊब : सं०स्त्री० । उद्वेग, मानसिक क्लान्ति, उदासी । 'सब की सहत, उर अंतर न ऊब हो।' कवि० ७.१०८।। ऊबर : वि० (१) उबार । रक्षा। (२) (सं० उर्वर>प्रा० उव्वर) । अधिक, ___ 'सफल । 'सो सब बिधि ऊबर कर, अपराध बिसारी।' विन० ३४.४ /ऊबर, ऊवरइ : (/ऊबर)। बच जाय, बच सकता है । 'कह तुलसी सो ऊबरै जेहि राख राम राजिवनयन ।' कवि० ७.११७ ऊमरि : सं०स्त्री० (सं० उदुम्बरि>प्रा० उंबरि)। गूलर वृक्ष । 'खमरि तरु बिसाल तब माया।' मा० ३.१३.६ ऊर्घ : (सं० ऊर्ध्व) । ऊपर । कवि० ५.१७ ऊध्वरेता वि.पुं० (सं० ऊर्ध्वरेतस्) । जिसका रेतस् (वीर्य) ऊर्ध्व हो-नीच न आये; वीर्यपात रहित= ब्रह्मचारी । विन० २६.३ ऊपर : सं०० (सं०) अनुर्वर भूमि जिसकी दूषित मिट्टी में वनस्पति नहीं उगते । _ 'ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा ।' मा० ४.१५.१० ऊसर : ऊषर । 'ऊसर बीज बएँ फल जथा।' मा० ५.५८.४ ऊसरो : ऊसर भी । 'सुखेत होत ऊसरो।' कवि० ७.१६ ऋ ऋक्ष : सं०० (सं०) । रीछ, भालू । विन० २५.६ ऋचा : सं०स्त्री० (सं० ऋच्) । वेद मन्त्र । गी० १.२३.५ ऋतु : सं० (सं०)। वर्ष के छठे भाग के दोमास का समय- (१) बसन्त = चैत्र-वैशाख; (२) ग्रीष्म= ज्येष्ठ-आषाढ; (३) वर्षा =श्रावण-भाद्रपद; Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 107 (४) शरद् =आश्विन-कार्तिक; (५) हेमन्त मार्गशीर्ष-पोष; (६) शिशिर =माघ-फाल्गुन । ये मास सूर्य तिथि से लिये जाते हैं। ऋतुनाथ : बसन्त । गी० २.२४.२ ऋतुपति : बसन्त । गी० १.६५.३ ऋसि : सं०स्त्री० (सं.)। (१) वृद्धि (२) उन्नति, अभ्युदय (३) सफलता (४) महत्ता (५) उत्तमता, उदात्तता, उदरता (६) पूर्णता, समग्रता, श्रेष्ठता (७) अप्राकृत शक्ति (८) उपलब्धि (६) सम्पत्ति (१०) कुबेर की पत्नी (११) पार्वती (१२) लक्ष्मी । रा०न० २० ऋषयनि : (दे० रिषय) । ऋषियों ने । 'जे पूजी कौसिक मख ऋषयनि ।' गी० ७.१३.४ ऋषि : सं०० (सं०) । वेद-मन्त्रों का द्रष्टा, मन्त्ररहस्य ज्ञाता । गी० १.६०.४ ऋषिन : ऋषि+संब० (सं० ऋषीणाम्) । ऋषियों । 'ऋषिन के आश्रम सराहैं।" गी० २.४५४ ए : सर्वनाम- कब (सं० एते>प्रा० एए>अ० एइ) । ये । 'ए प्रिय सबहि जहाँ __लगि प्रानी।' मा० १.२१६.७ एइ, एई : ये ही । केवल ये । ‘इन्ह से एइ कहैं ।' मा० १.३११ छं० एउ, एऊ : ये भी । 'एउ देखिहैं पिनाकु ।' गी० १.६८.४ एक: (१) संख्या (सं०) । 'एक कलप एहि बिधि अवतारा।' मा० ११२३.४ (२) सर्वनाम (सं.) । कुछ कतिपय । 'एक कहहिं भल भूप न कीन्हा ।' मा० २ ४८.२ (३) वि० (सं.) । श्रेष्ठ । 'परम बिचित्र एक ते एका ।' मा० १.१२२.२ (४ वि०) (सं०) । अल्प । 'कथा कछु एक है कही।' मा० ५.३ छं० ३ (५) वि० (सं०) । अनन्य, एकमात्र । 'राम नाम गति एक ।' दो० ३७. (६) वि० (सं०) । अद्वितीय, सर्वोत्तम-निज जननी के एक कुमार । एकत, ता : एकान्त । 'सदा रहैं एहि भांति एकता।' वैरा० ४७ एकइ : एक ही । 'एकइ उर बम दुसह दवारी।' मा० २.१८४.६ एकउ : एक ही । 'जदपि कबित रस एकउ नाहीं ।' मा० १.१०.७ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 तुलसी शब्द-कोश एकछत्र : वि० (सं० एकच्छत्र) । (राजा या राज्य) जिसके प्रति दूसरा छत्रधारी राजा न हो । 'एकछत्र रिपुहीन महि ।' मा० १.१६४ एकटक : वि०+क्रि०वि० (सं० एकतर्क>प्रा० एक्कतक्क)। एक ही दृष्टि से ताकते रहने वाला, अविराम ताकने वाला, अपलक । टकटकी बाँधकर । 'एकटक रहे नयन-पट रोकी।' मा० १.१.४८ (दे० तक) एक ठोरी, ठौरी : (दे० ठोरी, ठोरी) एक स्थान पर, एकत्र । एकतनु : जिसका एक ही शरीर हो-दुबारा जन्म लेकर शरीर धारण न किया हो। मा० १.१६२ एकतीस, सा : संख्या (सं० एकत्रिंशत् >प्रा० एक्कतीसा) । मा० १.३४.४ एकनयन : वि० (सं.)। एकाक्ष, काना । मा० ३.२.१४ एकनारि व्रत : एक ही पत्नी के प्रति निष्ठा । मा० ७.२२.८ . एकन्ह : एक+सं०ब० । कुछ लोगों (को) । 'एकन्ह एक बोलि सिख देहीं ।' मा० २.११४.६ एकपर : वि० (सं०) । एकमात्र प्रधान । विन० ५७.४ एकरस : वि०+क्रि०वि० (सं०) । (१) अपरिवर्तित, निर्विकार । 'सदा एकरस सहज उदासी ।' मा० ६.११०.५ (२) एकभाव से, निरन्तर समान । 'तब तें बिरह रबि उदित एकरस ।' कृ० २६ एकरूप : वि० (सं.)। (१) सदृश रूप वाले । 'एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ ।' मा० ४.८.५ (२) सदा एक ही रहने वाला, अपरिवर्तित, निर्विकार । विन० ६०.५ एकहि, ही : एक ही । मा० २.१८३.२ एकहु : एक भी । 'प्रभु के एकहु काज़ न आयउँ ।' मा० ६.६०.३ एका : एक । मा० १.१२२.२ एकांत : क्रि०वि० (सं०) । जहाँ एक (अपेक्षित व्यक्ति) के अतिरिक्त अन्य कोई न हो । 'पतिहि एकांत पाइ कह मैना।' मा० १.७१.२ एकाकिन्ह : एकाकी+संब० (सं० एकाकिनाम् ) । एकाकियों, अकेलों। 'सहज एकाकिन्ह के भवन ।' मा० १.७६ एकाकी : वि० (सं०) । अकेला (अद्वितीय, असहाय) । मा० २.२२८.४ एकादसी : वि०+सं०स्त्री० (सं० एकादसी) (१) ग्यारहवीं (२) पक्ष की ग्यारहवीं तिथि । विन० २०३.१२ एकु, एकू : (१) एक+कए । 'एकु दारुगत देखिअ एकू।' मा० १.२३.४ (२) क्रि०वि० । प्रथमतः, पहले तो। 'एक मंद मैं मोहबस ।' मा० ४.२ एक : (१) एकइ । एक ही। दो० ३१८ (२) एक+हि। एक से, एक को । 'एक एक कहत।' गी० १.८५.४ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश एकौ : एकउ | एक भी । 'सो तो कछु एकौ न चित्त ठई ।' कृ० ३६ एतना : वि०पु० (सं० एत्सक > प्रा० एत्तुल्ल ) । इतना । मा० २.१६२.४ एतनिअ : इतनी ही । 'जनु एतनिअ बिरंचि करतूती ।' मा० २.१.५ एतनेइ : इतना ही, इतने ही । 'एतनेइ कहेहु भरत सन जाई । २.१५७.३ एतनेहि : इतने ही । मा० ५.१५.७ एतनोई : इतना ही । 'राज धरम सरबसु एतनोई । मा० २.३१६.१ 109 एताहस : वि० (सं० एतादृश) । ऐसा । मा० २.६८.५ एती : वि०स्त्री० (सं० इयती > प्रा० एत्तिई ) । इतनी । 'एती गलानि न गलतो ।' गी० ५.१३.५ एते : इते । इतने । दो० ५७३ एतेहुं, हु: ( १ ) इतने 1 भी । एतेहु पर करिहहिं जे असंका । मा० १.१२.८ ( २ ) इतने में भी । ' जो एतेहुं दुख मोहि सिआवा ।' मा० २.१६५.८ एतो : वि०पु०कए० (सं० एतावत् > प्रा० एत्तिओ ) । इतना । कवि० ७.७२ एव : निश्चयार्थक अव्यय (सं० ) । ही । 'स्वारथ साधन एव ।' दो० ३४६ एवमस्तु : अव्यय (सं० - एवम् + अस्तु) । ऐसा हो ( आशीर्वाद जिसमें वर- याचन को मान्य किया जाता है ) । मा० १.१६५ एह : सर्वनाम (सं० एषः > प्रा० एसो> अ० एह एहा, एहु, एहो ) । पु ं०क० । यह । 'सिखवन एह ।' विन० १६०.१ एहा : एह । 'सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा । मा० १.८०.५ एहि : सर्वनाम पद (सं० एतास्मिन् > प्रा० एअहिं ) । इसमें, इससे । 'में हिं न आउब काऊ ।' मा० १.१६६.३ एहि बिआह अतिहित सबही का ।' मा० १.२२३.१ एहि : 'ए' का रूपान्तर । इस । ' राम प्रताप प्रगट एहि नाहीं । मा० १.१०.७ 'एहि बिधि जलपत भयउ बिहाना ।' मा० ६.७२.६ एहीं : इसीसे इसी में । 'कछु दिन जाइ रहउँ मिस एहीं ।' मा० १.६१.६ एही : इसी । 'एही भाँति चलेउ हनुमाना ।' मा० ५.१.८ एह : एह | यह । 'तुम्हहि उचित मत एहु ।' मा० २ २०७ एहूं : एह + हूँ। यह भी, इस भी । 'एहूं मिस देखौं पद जाई ।' मा० १.२०६.७ एहू : एहु । तिन्ह कहँ सुखद हासरस एहू ।' मा० १.६.२ -- Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 तुलसी शब्द-कोश ऐक : सं०पु० (सं० ऐक्य) । (१) एकत्व, एकरूपता, अत्यन्त समानता। कीन्ह बहुत अम ऐक न आए।' मा० २.१२०.६ (२) मेल, सामञ्जस्य, संगति । ‘सकहिं न सेइ ऐक नहिं आवा ।' मा० २.२७६.४ ऐन : अयन । घर, भाण्डार । 'बिहसे करुना ऐन ।' मा० २.१०० ऐनी : ऐन+स्त्री० । खानि । 'सीय सुमंगल ऐनी।' गी० १.८१.२ ऐपन : सं०० (प्रा० आइप्पण) । हल्दी और चावल के पीछे का मिश्रित द्रव । दो० ४५४ ऐश्वर्य : सं०० (सं.)। (१) सम्पत्ति, वैभव (२) ईश्वरत्व (३) श्रेष्ठता (४) ईश्वरीय गुणकर्म व्यापकत्व, सर्वज्ञत्व, सर्वकर्तृत्व, सत्य संकल्प आदि कल्याण गुण । विन० ६१.६ ऐसा : वि०पु० (सं० ईदृश>प्रा० एरिस>अ० अइस) । मा० ५.२६.५ ऐसि : ऐसी । मा० ६.६६.२ ऐसिअ : (१) ऐसी ही । ऐसिअ प्रस्न बिहंगपति कोन्हि ।' मा० ७.५५ (२) ऐसी। कवि० ६.२१ ऐसिउ : ऐसी भी । 'ऐसिउ पीर बिहसि तेहिं गोई ।' मा० २.२७.५ ऐसिह : ऐसिउ । विन० १३६.८ ऐसी : वि०स्त्री० (सं० ईदृशी>प्रा० एरिसी>अ० अदृसी) । कवि० ७.११ ऐसे : क्रि०वि० । इस प्रकार से । 'जासु बियोग बिकल पसु ऐसें।' मा० २.१००.१ ऐसे : ऐसा+बहु० । इस प्रकार के । मा० २.१११.७ ऐसेइ : (१) ऐसा ही। 'ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी।' मा० १.८६.५ (२) ऐसे ही। ‘ऐसेइ संसय कोन्हि भवानी।' मा० १.४७.८ ऐसेउ, ऊ : ऐसे भी । 'ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई ।' मा० १.१४४.७ ऐसेहिं : इसी प्रकार । मा० १.२३६.३ ऐसेहुँ, हु, हूं, हू : ऐसे भी, ऐसे में भी। ऐसेहुं पति कर किएं अपमानाए मा. .. ३.५.६, 'ऐसेहुं दुख जो राख मम प्राना।' मा० ६.६६.१० ऐसो : ऐसा+कए । 'नहिं जानत ऐसो को है ।' कृ० ३५ ऐसोई : ऐसा ही। कवि० ७.७७ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 111 ऐहउँ : आ०भ०उए० । आऊंगा। ऐहउ बे गिहि होइ रजाई ।' मा० २.४६.३ ऐहहिं : ऐहैं । आएँगे । 'ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता।' मा० २.३१.७ ऐहहु : आ०भ० मब० । आओगे-गी। 'जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं।' मा. १.५३.२ ऐहैं : आ०म०प्रब० । आएंगे। ऐहैं सुत देखुवार कालि तेरे ।' कृ० १३ ऐहै : आ०भ०प्रए० । आएगा। गी० ५.३४.२ ऐहौं : ऐहउँ । 'ऐहौं बेगि सुनहु दुति दामिन्ति ।' गी० २.५.३ ऐहो : ऐहहु । 'जो रघुबीर न ऐहो ।' गी० २.७६.४ ओ ओंकार : सं०पु० (सं.)। ॐ ध्वनि जो ब्रह्म का वाचक कहा गया है, मूलनाद, नादब्रह्म, शब्दब्रह्म, अनाहतनाद (परब्रह्म ही ओंकार का मूल कारण है जिससे - शब्दजगत् और अर्थजगत् की सृष्टि होती है अतः ब्रह्म ओंकार रूप तथा ओंकार मूल भी होता है । 'निराकारमों का मूल तुरीय।' मा० ७.१०८.३ प्रोऊ : वे भी । 'सुन्दर सुत जनमत मैं ओऊ ।' मा० १.१६५.१ ओक : सं०पू० (सं० ओकस्) । घर । 'ओक की नीव परी हरिलोका ।' कवि० ७.१४५ प्रोघ : सं०० (सं.)। प्रवाह, समूह । 'सिय निंदक अघ ओघ बसाए।' मा० ओझ : सं०० (सं० ऊपाध्याय>प्रा० ओज्झाअ)। ओझा, पण्डित, पुरोहित । 'तुलसी रामहि परिहरें निपट हानि सुन ओझ ।' दो० ६८ ओझरी : सं०स्त्री० । पेट के भीतर आमाशय की थैली या आंत । कवि० ६.५० ओट, रा : सं०स्त्री० (सं० अवकटिका) । पर्दा, आवरण, आड़ । 'बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा ।' मा० १.२८०.७ 'लता ओट तव साखिन्ह लखाए।' मा० १.२३२.३ (२) सहारा, अपने अवगुणों का अवरण । 'ओट राम नाम की ललाट लिख लई है।' हनु० ३८ ओठ : सं०पु० (सं० ओष्ठ>प्रा०ओष्ठ) । अधर । मा० ६.४१.६ ओड़न : सं०० (सं० अवकटन-कट आवरणे>प्रा०ओअऽण) । बार या प्रहार रोकना, बचाव करना । 'एक कुसल अति ओड़न खाँड़ो।' मा० २.१९१.६ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 तुलसी शब्द-कोश प्रोडिअत : वक०० कर्मवाच्य (सं० अवकटयमान>प्रा० ओअडीअंत) रोका जाता, बचाव के लिए ओट किया जाता । 'पलक पानि पर ओड़ियत समुझि कुघाइ सुघाई।' दो० ३२५ ओडिअहिं : आ०कवा०प्रब (सं० अपकट्यन्ते>प्रा० ओअडीअंति>अ० ओअडी अहिं) । ओड़े जाते हैं, बचाव के लिए आड़ में लाए जाते हैं । 'ओडिअहिं हाथ असनिहुं के घाए।' मा० २.३०६.८ ओड़िए, ये : आ०कवा प्रए० । बचाव के लिए आड़ लिया जाए । 'तजि रघुनाथ __ हाथ और काहि ओडिए ।' कवि० ७.२५ ओड़ेहुं : ओड़ने पर भी, बार रोकने पर भी । 'भागें भल ओड़े हुँ भलो।' दो० ४२४ ओढ़नं : सं०० (सं० अवगुण्ठन>प्रा० ओड्ढण)। शरीर का आवरण । मा० ७.४०.१ ओढ़ाई : भक०स्त्री० । आच्छादित की हुई । 'हेमलता जनु तरु तमाल ढिग नील _ निचोल ओढ़ाई। विन० ६२.१२ ओढ़ाए : भू०० । अवगुण्ठित किए। 'जननी पट पीत ओढ़ाए।' गी० २६.६ प्रोढ़िहौं : आ०भ०पुए। ओढुंगा, शरीर ढकुंगा । 'तुलसी पट अतरे ओढ़िहौं ।' गी० ५.३०.४ ओढ़ी : भू० कृ०स्त्री० । ओढ़ ली, शरीर पर लपेट ली । 'दामिनी ओढ़ी मानो बारे बारिधर ।' गी० १.३३.२ ओढ़े : भू०कृ०पू० (बहु०) । आवेष्टित किए हुए, लपेटे हुए । 'ओढ़े जीत पट हैं।' कृ० २० पोतो : वि००कए । उतना । क्यों कहि आवत ओतो।' विन० १६१.४ ओदन : सं०० (सं०) पका चावल, भात । मा० १.२०३ ओधे : भूक०पू०ब० (सं० ऊर्ध्व>प्रा० उद्ध=ओद्ध) । ऊर्ध्व हुए, उठ खड़े हुए, उद्यत एहु । 'निज निज काज, पाइ सिख ओधे ।' मा० २.३२३.१ प्रोट : सं० स्त्री० (सं० अपरा>प्रा० ओरा) । (१) दिशा, पार्श्व । 'बिहरहिं बन चहुँ ओर ।' मा० २.२५५ (२) पक्ष । 'तुलसी के हिएँ है भरोसो एक ओर को।' हनु० ६ (३) छोर, अन्त, सीमा। 'ओर निबाहेहु भायप भाई ।' मा० २.१५२.५ ओरहने : सं०० (सं० उपालभन>प्रा० ओआलहण) । शिकायत करने, अपराध लगाने । 'ठाढ़ी ग्वालि ओरहने के मिस ।' कृ० ५ ओरा : ओर । मा० १.२३०.३ पोरी : ओर । 'भ्राजत दुहुँ ओरी ।' गी० ७.७.३ ओरे : सं०० ब० (सं० ओल) । ओले, वर्षोपल । 'गरहिं गति जिमि आतप ओरे।' मा० २.१४७.७ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 113 ओल : सं०० (सं० ओल्ल =शरीर बन्धक)। वह दास जिसका शरीर धरोहर हो, क्रीतदास, गुलाम । 'बाजे-बाजे राजन के बेटा-बेटी ओल हैं।' कवि. ५.२१ ओषधी : सं० स्त्री० (सं ओषधि)। जड़ी, चिकित्सा हेतु मूल आदि । रा०प्र० ७.२.१ ओस : सं०स्त्री० (सं० अवश्याय>प्रा० ओसा) । तुषार पंकज कोस ओस कन जैसें ।' मा० २.२०४१ ओसरिन्ह : ओसरी+ संब० । ओसरियों (से)। 'ओसरिन्ह गावै सुहो।' गी० ७.१८.५ ओसरी : सं० स्त्री० (सं० अवसर>प्रा० ओसर) । क्रम, बारी, पर्याय । ओहार : सं० स्त्री० (सं० अवसर>प्रा० ओसर)। पालकी आदि का वाता वरण । 'सिबिका सुभग ओहार उघारी।' मा० १.३४८.८ ओही : सर्वनाम (सं० असौ>प्रा० अहो>अ० ओह) । (१) वह, उसे । 'आन भांति नहिं पावौं ओही।' मा० १.१३२.६ (२) उसने । 'भलो ठग्यो ठमु ओही ।' कृ० ४१ . ओहू : (अ० ओह+कए=ओह)। वह । “पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहूं।' मा० औ ओ : और। (१) कवि० ७.१२२ (२) अव्यय – समुच्चयार्थक । जैसे, मोरिओ। औगुन : अवगुन । कवि० ७.१७४ औचट : अवचट । 'तिजरा को सो टोटक औचक उलटि न हेदो।' विन० २७२.२ ओटि : पूक० (१) (सक्वथित्वा =प्रा० अट्टिअ>अ० अट्टि) । उबलकर, क्वथित होकर। (२) (स आवर्त्य>प्रा. आवट्टिअ>अ० आवट्टि)। आवर्त गति लेकर, भ्रमण कर, उलट-फेर कर, आवागमन करके । 'कलट कोटि लगि औटि मरौं ।' विन० १४१.६ औढर : अवढर । कवि० ७.१५९ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 तुलसी शब्द-कोश औत : सं००+स्त्री० (सं० आपूर्त = आपूर्ति>प्रा० आउत्त=आउत्ति)। घाव आदि (या गड्ढे आदि) का भरना। चैन, तृषा आदि की पूर्ति, आराम । 'औत पावै न मनाक सो।' कवि० ५.२५ प्रौतेहु : क्रियाति० पु० मब० । तुम आते । 'जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाई।' __ मा० १.२८२.३ औध : अवध । कवि० २.१ औनिप : अवनिप । राजा । कवि० ७.१६४ औनिपनि : औनिप+संब० । राजाओं (ने) । कवि० १.१६ और : अउर । 'मेरे जान और कछु न मन गुनिए।' कृ० ३७ औरउ : और भी, अन्य भी । 'औरउ जे हरि भगत सुजाना ।' मा० १.३०.८ औरन, नि : और+संब० (१) (सं० अपरेषाम् >प्रा० अवराण) । औरौं । 'कुमयाँ कछु हानि न औरन की ।' कवि० ७.४७ (२) औरों को। 'तेरे बेसाहे बेसाहत ___औरनि ।' कविः ७.१२ (३) औरौं का। कवि० ४.१ औरहि : और को, अन्य के प्रति । 'जरि जाउ सो जीह जो जाचत औरहि ।' कवि० ७.२६ औरहु : औरउ । और भी । गी० ७.३८.८ औरु : और+कए । अन्य कोई (एक)। और कर अपराध कोउ।' मा० २७७ औरे : 'और' का रूपान्तर। दूसरे (से)। 'बनिहै बात उपाइ न औरे ।' गी० २.११.२ औरेब : अवरेब। औरेब : औरव+ब० । गाँठे, वक्रताएं, कुटिल करतूतें ; 'हमहूं कछुक लखी ही तब की औरेबै नंदलाला की।' कृ० ४३ और : और ही, अन्य ही, कोई विलक्षण । 'और आगि लागि, न बझाव सिंधु सावनो।' कवि० ५.१८ औरी : औरउ । गी० ६.१७.१ औषध : सं०० (सं.)। (१) वनस्पति आदि । 'औषध मूल फूल फल नाना ।' मा० २.६.२ (२) दवा, औषधियों का मिश्रण जो चिकित्सा के काम आता है । 'बिनु औषध बिआधे बिधि खोई ।' मा० १.१७१.४ औषधी : ओषधी। मा० ६.५५ । औषधु : औषध+कए। एक भी उपचार, कोई दवा । 'एहि कुरोग कर औषधु नाहीं।' मा० २.२१२.२ औसर : अवसर । कवि० २.२२ प्रोसरा : औसर । दो० ४६६ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश क 115 कंगाल : वि० (सं० कङ काल = अस्थिपञ्जर ) । बुभुक्षा-जीडित (जो कङ्काल शेष रह गया हो ), अतिशय दरिद्र तथा भूखा । 'ललकत लखि ज्यों कँगाल पातरी सुनाज की ।' कवि० ६.३० कँगूर न्हि : ' कँगूरा' + संब० । कँगूरों (पर) । 'कोट कँगूरन्हि चढ़ि गए। मा० ६.४० कँगूरों: कँगूरे पर । 'कोतुकी कपीसु कूदि कनक कँगूरों चढ़ यो ।' कवि० ५.४ कँगूरा : सं० (सं० कङ्ग ुल= हाथ; फा० कंगुर = बाजू, बाँह ) । भवन के ऊपर हस्ताकार उन्नत रचनाविशेष । 'रचे कँगूरा रंग रंग बर ।' मा० ७.२७.४ कँगूरें : कँगूरा + ब० । कँगूरों को "ढै हैं ढलन की ढेरी सी । ' । 'कोट के कँगूरें - कवि० ६.१० कँपकँपइ : (सं० कम्पते > प्रा० कंपइ – काँपना ) । आ०प्र० । काँपता है । 'कँपै कलाप बर बरहि फिरावत ।' गी० ३.१.२ कँवल : कमल (सं० कमल > प्रा० कमल > अ० कवल ) । 'नवल कँवलहू तें कोमल चरन हैं ।' कवि० २.१७ क : (१) 'का' का लघुरूप । 'मित्र क दुख रज मेरु समाना । मा० ४.७.२ (२) 'इक' का रूपान्तर । कोटिक, कछुक । (३) 'कर' का लघु रूप (पूकृ० ) । 'जावक रचिक अँगुरियन्ह मृदुल सुठारी हो ।' रा०न० १५ (४) (सं० किम् ) सर्वनाम जिससे को, केहि, कब आदि रूप बनते हैं । (५) स्वार्थिक प्रत्यय कटुक आदि । कंक : सं०पु० (सं० ) । गृध । 'काक कंक ले भुजा उड़ाहीं ।' मा० ६.८८.२ कंकन : सं०पु० (सं० कङ्कण ) । हस्ताभरण विशेष, कंगन । मा० १.६२-२ कंकर : काँकर । विन० २३१.३ कंचन : सं०पु० (सं० ) । सुवर्ण । मा० १.१२.३ कंचुकि : सं० स्त्री० (सं० कञ्चुकी) । (१) स्त्रियों के वक्षस्थल का परिधान विशेष । ' श्रीफल कुच कंचुकि लता जाल ।' विन० १.४१५ (२) चोगा, लम्बा अंगरखा । 'बहु बासना बिबिध कंचुकि भूषन लोभादि भर् यौ ।' विन० ६१.२ कंज : सं०पु० (सं० ) । कमल । मा० १.२०.८ कंजन, नि, न्ह, व्हि : कंज + संब० । कमलों (पर, में, से आदि) । 'पग नूपुर औ पहुँची कर कंजनि ।' कवि० १.२ - कंजकोस: कमल की पंखड़ियों के समूचे आकार का भीतरी भाग । गी० ७.७४ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 तुलसी शब्द-कोश कंजराग : पक्षराग । मणिविशेष । 'कंजकोस भीतर जन कंचराग सिखर निकर।' गी०७७.४ कंजा : कंजा । मा० १.१४८.८ कंजारुन : वि० (सं० कंजारुण) । कमल के समान लाल । मा० ५.४५.४ कंजु : कंज+कए । 'बंदउँ मुनि पद कंजु ।' मा० १.१४ घ कंटक : सं०० (सं०) । (१) काँटा । 'कुस कंटक मग कांकर नाना ।' मा० . २.६२.५ (२) व्याघात, विरोधी तत्त्व । 'कासी में कंटक जेने भए।' कवि० ७.१७९ (३) शत्रु (शत्रु विनाश = कण्टक शोधन)। 'तीय तनय सेवक सखा मन के कंटक चारि ।' दो० ४७६ (मूल अर्थ एक है--चुभन की समानता से अन्य अर्थ आते हैं जो मानसिक कोंचन से सम्बद्ध है।) कंटकित : वि० (सं०) । काँटों से युक्त । 'कमल कंटकित सजनी, कोमल पाइ ।' बर० २६ कंठ : सं०० (सं.)। ग्रीवा । मा० १.७२.७ कंठगत : कण्ठ में स्थित (सारे शरीर को छोड़कर कण्ठ में आया हुआ)। 'प्रान कंठगत भयउ भुआलू ।' मा० २.१५४.१ कंठहंसी गुप्त परिहास जो गले तक ही सीमित हो, बाहर प्रगति ध्वनि न करे । गी० १.८४.८ कंठा : सं०० (सं० कण्ठ्य >प्रा० कंठअ) । ग्रीवाभरण । 'कुंजर-मनि कंठा कलित।' मा० १.२४३ कंछु : कंठ+कए० । 'कंठु सूख मुख आव न बानी ।' मा० २.३५.२ कंठे : (सं० पद) । कण्ठ में । मा० ७.१०८ छं०६ कंडु : सं०स्त्री० (सं० कण्डु = कण्डू)। (१) खुजली का रोग । मा० ७.१२१.३३ (२) खुजलाहट । 'भ्रमत मंदर कंडु सुख मुरारी ।' विन० ५२.३ कंत, कंता : सं०+वि०पु० (सं० कान्त >प्रा० कंत)। प्रिय, पति । 'सिंधु सुता प्रिय कंता ।' मा० १.१८६ छं० कंद : सं०० (सं०) । (१) मूल, जड़ (कारण) । 'प्रगटे सुषमा कंद ।' मा० १.१६४ (२) खाद्य मूलविशेष । 'कंद मूल फल भोजन ।' मा० १.२०६ (३) (सं० कं=जल+द)=जलद । मेघ । 'कंद तड़ित बिधै जनु सुरपति धनु ।' गी० १.१०८.६ कंदद : मेघ समूह । 'कंदबृद बरषत जनु ' गी० ७.७.५ कंदर : सं००+स्त्री० (सं० कन्दर कन्दरा) । गृहा । मा० ३.१८.११ कंदरन्हि : कंदर+संब० । कंदराओं। 'सदग्रंथ परबत कंदरन्हि महं जाइ तेहिं अवसर दुरे।' मा० १.८४ छं० Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 117 कंदरप : कंदर्प । विन० २३६.६ कंदरां : कन्दरा में । 'गिरि कंदरीं सुना संपाती।' मा० ४.२७ १ कंदरा : कंदर । मा० ६.७५.२ कंदर्प : सं०पु० (सं.)। कमदेव । मा० ६ श्लोक २ कंदा : कंद । मा० १.१४४.१ कंदिनी : वि०स्त्री०= निकंदिनी। उन्मूलन करने वाली । 'क्रोध-कंदिनी।' गी. २.४३.२ कंदु : कंद+कए । एकमात्र मूल कारण । 'आनंद कंद बिलोकि दुल हु........।' मा० १.३२१ छं० कंदुक : संपु० (सं०) । गेंद । मा० १.२५३.४ कंघ : सं०पु० (सं० स्कन्ध>प्रा० खंध)। (१) बाहुमूल । 'वृषभ कंध केहरि ठवनि ।' मा० १.२४३ (२) शाखामूल, वृक्ष का। वह भाग जहाँ से मोटी शाखाएँ निकलती हैं ।' 'षट कंध साखा पचबीस ।' मा० ७.१३.५ कंधर : सं०० (सं०) । ग्रीवा । 'केहरि कंधर बाहु बिसाला ।' मा० १.२१६.५ 'दल्यो दसकंधर कंधर तोर ।' कवि० ६.५७ कंप : सं०० (सं० कम्प)। (अङ्गों की) थरथराहट, बेपथु । मा० १.५५.६ कंपत : वकृ०पु । कापता, कांपने । 'कंपत अकंपन, सुखाय अतिकाय काय ।' ___ कवि० ६.४३ कंपति : (१) वकृ०स्त्री० । कांपती । 'मंदोदरि उर कंपति भारी।' मा० ६.१०२.१० (२) सं०० (सं०) । समुद्र । सत्य तोयनिधि कंपति ।' मा० ६.५ कंपहिं : काँपहिं । काँपते हैं । 'कंपहिं भूप बिलोकत जाकें ।' मा० १.२६३.४ कंपिन : भूकृ० (सं.)। कांपा हुआ, काँपे हुए । 'ठाढ़ रहा अति कंपित गाता।' मा० ६.६५.३ कंपेउ : भू० कृ०० कए० । काँप उठा। 'भयउ कोपू कंपेउ भैलोका ।' मा० । १.८७.५ कंवल : सं०० (सं०) । ऊनी आवरण विशेष । मा० १.३२६.३ कंबु : सं०० (सं०) । शङ्ख । 'कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई ।' मा० १.१६९.७ कंस : मथुरा का राजा जिसे कृष्ण ने मारा था । विन० ४६.६ कइ : (१) की (सम्बन्धार्थक स्त्री.)। 'सोभा दसरथ भवन कइ।' मा० १.२९७ (२) सर्व० (सं० कति>प्रा० कइ=कई)। कितने । 'एक गाँठि कइ फेरे।' विन० २२७.४ कई : भू०० स्त्री० (सं० कृता>प्रा० कई)। की। 'बहुत हौं ढीठ्यो कई ।' मा० १.३२६ छं०३ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 तुलसी शब्द-कोश कच : सं०० (सं०) । केश । मा० १.१६६.१० कचनि, न्हि : कच+संब० । केशों (ने) । 'कचनि अनुपम छबि पाई ।' गी० १.१०८.८ कच्छ : संपु (सं० कक्ष) । तिनकों (या पुआल का) ढेर । 'राम प्रताप हुतासन, कच्छ विपक्ष ।' हनु० १६ कच्छप : संपु० (सं०) कमठ, कछुआ। कच्छपु : कच्छप+कए । कच्छपावतार भगवान् । मा० १.२४७.७ कछ, : वि०+क्रि०वि० । कुछ, अल्प । मा० २.५०.६ कछ क : (कछु+इक)। कुछेक, थोड़ा, अत्यल्प । 'कछुक दिवस जननी धरु धीरा।' मा० ५.१६.४ कछ : कछु । मा० ५.३३.६ कछोटी : सं०स्त्री० (सं० कक्षपट्टी>प्रा० कच्छपट्टी) । कटि भाग के पास का परिधान । 'छोटिय कछौटी तटि ।' गी० १.१४४.१ कज्जल : सं०० (सं०) । आँखों का मलहम विशेष, काला उजन, परे के मिश्रण से बनाई कजली । 'जनु कज्जल के आँधी चली।' मा० ६.७८.८ कज्जलगिरि : कज्जल या सुरमे का पहाड़। मा० ६.१६.४ कज्जली : संस्त्री० (सं०) । धुएं से जमी कालिख । दो० ५७१ कजनाभ : सं०० (पद्मनाभो) । जिसकी नाभि से कमल उत्पन्न हुआ विष्णु । _ विन० ५३.७ /कट कटइ : (सं० कर्त>प्रा० कट्ट) आ०प्रए । कटता है, कट सकता है । 'तुब हित होइ कटै भव बंधन ।' विन ० १६६.३ कटक : सं०० (सं०) । (१) सेना। मा० ३.२२.११ (२) कड़ा, हस्ताभरण - तथा पादाभरण । 'कनक कटकांगदादी ।' विन० ५४.४ कटकई : कटक । सेना । 'मन हुं क रुन रस कटकई उतरी अवध बढ़ाइ ।' मा २.४६ कटकहिं : आप्रब० (सं० कटकटायन्ते) । दातों की ध्वनि करते हैं । 'कटकट हिं जंबुक भूत प्रेत ।' मा० ३.२० छं० कटकटाइ : पू० । दाँत पीसकर, दन्त ध्वनि करके (क्रुद्ध होकर) । 'कट कटाइ गर्जा अस धावा।' मा०५१६.४ कटकटात : वकृ००। क्रोध से दाँत पीसने की ध्वनि करने । 'कटकटात भर भालु ।' गी० ५ २२ ४ . कटकटान : भूक.पु । दाँत पीसता हुआ क्रुद्ध हुआ। 'कटकटान कपि कुंजर भारी।' मा० ६.३२.३ कटकटाहि : कटकटाहिं । 'कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं ।' मा० ६.४१.६ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 119 कटकाई : कटकई । सेना । मा० १.१७९.४ कटकु : कटक+कए । एक फौज । 'राम भालु कपि कटकु बटोरा ।' मा० १.२५.३ कटक्कट : क्रि०वि० । 'कटकट' ध्वनिपूर्वक । 'जंबुक निकर कटक्कट कट्टहिं ।' मा० ६.८८.६ कटत : (१) वकृ००। कटता-ते; छिन्न होता-ते । 'भट कटत तन सत खंड ।' मा० ३.२०.११ (२) कटते ही। 'कटत झटिति पुनि नूतन भए ।' मा० ६.६२.१२ कटन : भकृ० अव्यय । कटने, छिन्न होने । 'लगे कटन बिकट पिसाच ।' मा० ३.२०.८ कटहिं : आप्रब० । कटते हैं, छिन्न होते हैं । 'कटहिं चरन उर सिर भुजदंडा।' मा० ६ ६८.५ कटाइ : कटैया। काटने वाला । 'रामु सो न साहेबु न कुमति कटाइ को।' कवि० ७.२२ कटाच्छ : सं०० (सं० कटाक्ष) । नेत्रापाङ्ग, नेत्रकोण, अपाङ्ग से देखना। 'कृपा कटाच्छ पसाउ । मा० १.१३१ कटाच्छु : कटाच्छ+कए । एक अपाङ्ग दृष्टि । 'जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत ।' मा० ७.२४ कटाह : सं०० (सं०)। बड़ी कड़ाही, कड़ाह के आकार की नतोदर गोल वस्तु (जैसे, आकाश) । ‘अंडकटाह अपितु लयकारी।' मा० ७.६४.८ कटि : संत्री० (सं.)। शरीर-मध्य भाग, उदर और नितम्ब के बीच का ___अङ्ग । मा० १.१६६.४ कटितट : कटि का पार्श्व भाग । 'कटितट परिकर कस्यो निषंगा ।' मा० ६.८६.१० कटिन्ह : कटि+संब० । कटियों (पर)। 'मुनिपट कटिन्ह कसे तूनीरा ।' मा० २११५.८ कटिहउँ : आ०भ० उए० । काट डालूंगा । 'कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना।' मा. ५ १०.१ कटु : (१) वि० (सं०) । कड़वा (अस्वाद्य) । मा० ७.१३ छं० ५ (२) असह्य, कष्टकर । 'अति कटु वचन कहति के केई ।' मा० २.३०.८ कटुक : कटु । (१) अस्वाध, कड़वा । 'कृटिल कटुक फर फरैगो ।' दो० ४५२ (२) कष्टकर । 'कटुक कठोर कुबस्तु दुराईं।' मा० २.३११.५ कटुबादी : वि०० (सं० कटु-वादिन्) । कष्टकर बोलने वाला। क्रूट तर्क-वितर्क करने वाला । 'कटबादी बालक बधा जोगू ।' मा० १.२७५.३ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 तुलसी शब्द-कोश कटेहुं : कटने पर भी । 'मरत न मूढ़ कटेहुं भुजसीसा ।' मा० ६.६८.२ ।। कटया : वि० । काटने वाला, छिन्नकर्ता । 'दसरथ को नंदन बंदि कटैया ।' कवि० ७.५१ कहिं : आ० प्रब० । काटते हैं । 'जंबुक निकर कटक्कट कट्टहिं ।' मा० ६.८८.६ कठमलिआ : वि.पुं० (सं० काष्ठमालिक>प्रा० कट्ठमालिअ) । काठ को माला पहनने वाला (दम्भी) । 'करमठ कठमलिआ कहैं ।' दो० ६६ कठवता : सं०पु० (सं० काष्ठपात्रक>प्रा कट्टवत्तअ) । कठवत, अढ़िया । 'पानि ___ कठवता भरि लेइ आवा ।' मा० २.१०१.६ कठवति : सं०स्त्री० (सं० काष्ठपात्री>प्रा० कटुवत्ती>अ० कटुवत्ति) । छोटा कठौता। 'मीठो अरु कठवति भरो।' दो० १५ कठिन : वि० सं०) । (१) कठोर, निष्ठुर, जड़, क्रूर । मा० १.३२.६ (२) दुर्दम, घोर । 'हरन कठिन कलि कलुष कलेसू ।' मा० २.३२६.६ (३) तीक्ष्ण । कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना ।' मा० ५.१०.१ कठिनई : कठिनता (प्रा० कठिणया)। विषमता, उलझना । 'तहाँ परंतु एक कठिनई । मा० ७.११७.६ कठिनता : सं०स्त्री० (सं०) कठोरता । 'सुनत कठिनता अति अकुलानी ।' मा० २.४१.१ कठिनाई : कठिनई । कठोरता, संकट, कष्ट । मा० १.३८.६ कठुला : सं०० (अ० कंठा=कंठुल्लअ) । कण्ठाभरण (बालकों का)। 'कठुला ____ कंठ बघनहानीके ।' गी० १.३१.३ कठोर : वि०पु० (सं.)। परुष, निष्ठुर, क्रूर, कठिन । मा० १.११३.७ कठोरपनु : सं००कए० । कठोरता, क्रूरता । 'जनु कठोरपनु धरे सरीरू ।' मा० __ २.४१.३ कठोरा : कठोर । मा० १.६.१ ।। कठोरि, री : वि०स्त्री० । 'मति थोरि कठोरि न कोमलता।' मा० ७.१०२ छं. कठोरु, रू : कठोर+कए । अद्वितीय कठोर । 'मानहुँ कुलिस कठोरू ।' मा० २.१५३ कठोरें : कठोर..... से । 'न त एहि काटि कुठार कठोरें।' मा० १ २७५.८ कठोरे : 'कठोर' का रूपान्तर (बहु०) । 'सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे ।' मा० २२६४.२ कठौता : कठवता । कवि० २.१० कड़हारू : सं०पु०कए० (सं० कर्णधार>प्रा. कण्णहारो >अ. कण्णहारु) । नाविक, मल्लाह । 'चहत पारु, नहिं कोउ कड़हारू ।' मा १.२६०.८ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 121 कढ़त : वकृ०पु । निकलता, निकलते । 'कढ़त प्रेम बल धीर ।' गी० २.६६.३ । काढ़इ : पूक० । खिंचवा कर, निकलवा कर । 'खाल कढ़ाइ बिपति सह मरई ।' मा० ७.१२१.१७ कढ़ाव : आ० उए । खिचवालूं । तो धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी।' मा० २.१४.८ कढ़ावन : भकृ० अव्यय । खिचाने, रेखित कराने । 'तुम्ह सब कहहु कढ़ावन टीका।' मा० २.१८१.३ कढ़या : वि० । खींचने वाला, निकालने वाला । 'बार खाल को कढ़या सो बढ्या गुर-साल को।' कवि० ७.१३५ कढ़ोरि : पू०० । घसीटकर, खींचकर, बाहर निकालकर । तोरि जम कातरि __ मदोदरी कढ़ोरि आनी ।' हनु० २७ कत : अव्यय (सं० कुतः>प्रा० कर्ता)। किस कारण । 'तौ कत दोष लगाइअ काहू ।' मा० १.६७.७ (२) कहाँ, किधर । कतहु, हूं : कहीं भी, किसी ओर । 'खोजत कतहुं मिलइ नहिं धूरी।' मा० ४.१५.४ कति : वि० स्त्री० (सं० कियती>प्रा० कियत्ती)। कितनी । यह लघु जलधि तरत कति बारा ।' मा० ६.१.१ Vकथ कथइ : (१) सं० कथयति-कथ वाक्य प्रबन्धे-कहना; (२) कत्थते कत्थ श्लाघायम् - आत्म प्रशंसा करना। आ०प्रए। कहता है, प्रशस्तिगान करता है। 'जि.मि जिमि तापसु कथइ उदासा ।' मा० १.१६२.५ कथक : सं०० (सं०) । नाट्य-निर्देशक, मुख्य नर्तक जो टोली के बीच में अङ्गलि संकेत से या छड़ी घुमाकर सबको लय-ताल का अनुशासन देता है जिसके इङ्गित पर सब नाचते हैं। कियो कथक को दंड हौं जड़ करन कुचाली।' विन० १४७.३ कथन : सं०० (सं०)। कहना, वर्णन । मा० १.४१ कथनीया : वि० (सं० कथनीय)। कहने योग्य, वर्णन-शक्य । 'सो सपनेहुं सुख नहिं कथनीया।' मा० १.२४२.६ कथरी : सं०स्त्री० (सं० कन्था>प्रा० कंथा>अ० कंथडी)। वस्त्रखण्ड-निर्मित बिछावन । 'मलीन धरें कथरी करवा है ।' कवि० ७.५६ कहिं : आ०प्रब० (सं० कत्थन्ते>प्रा० कत्थंति >अ. कत्थहिं) । प्रशस्ति गान करते हैं । 'कायर कहिं प्रतापु।' मा० १.२७४ कथहि : कथा को । 'जो एहि कथहि..... कहिहाहीं ।' मा० १.१५.१० कथा : सं० स्त्री० (सं.)। (१) आख्यान, इतिहास । 'राम कथा जगमंगल करनी ।' मा० १.१०.१० (२) वर्णन । 'करम कथा बिनदिनि बरनी।' मा० Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 तुलसी शब्द-कोश १.२.६ (३) वार्ता । 'मोरिओ सुधि या इबी कछु करुन कथा चलाइ ।" विन० ४१.१ कथाप्रबंध : कथा का प्रबन्ध काव्यात्मक रूप । मा० १.३३.२ कथा प्रसंगु, गू : सं०० कए० । वार्ता-सन्दर्भ, वृत्तान्त का अवसर, इतिवृत्त का अवसर प्राप्त अंश । 'पूरब कथा प्रसंगु सुनावा ।' मा० १.६८.१ कदंब : सं०० (सं.)। (१) वृक्ष-विशेष । 'चंपक बकुल कदंब तमाला।' मा० __३.४०.६ (२) समूह । 'कूदत कबंध के कदंब बंबसी करन ।' कवि० ६.४८ कदंबा : कदंब । समूह । 'एहि बिधि करेहु उपाय कदंबा ।' मा० २.८२.६ कदन : सं०पू० (सं०) । सूदन, वध, संहार । विन० २५.८ /कदरा, कदराइ : (सं० कातरायते>प्रा० कादराइ-कायर आचरण करना) । आ०प्रए० । कायरतापूर्ण आचरण करता है, करे । कायर व्यवहार करे । 'सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ ।' मा० २.१६१.१ कदराई : (१) कदराइ । अति या कातर हो जाता है। 'करत कथा मन अति कदराई ।' मा० १.१२.१२ (२) सं०स्त्री० (सं० कातरता>प्रा० कादरया)। कायर कर्म 'रिपु पर कृपा परम कदराई ।' मा० ३.१६.१३ कदराहु, हू : आ०मब० । (१) कातर होते हो। 'तुम्ह एहि भांति तात कदराहू ।' मा० २.१७६.३ (२) कातर होओ। 'तात प्रेम बस जनि कदराहू ।' मा० २.७०.८ कदरी : कदली । 'काटे पै कदरी करइ ।' मा० ५.५८ कदर्थना : स० स्त्री० (सं०) । उत्पीड़न, सन्तापना, घोर अपमान । 'कासी की कदर्थना कराल कलिकाल की।' कवि० ७.१८२ कदचि : कदली । मा० ३.३०.१३ कदली : सं०स्त्री० (सं०) । केले का वृक्ष । मा० २.२०.२ कदाचि : कदाचित । संभवतः (मान लें कि, शायद) । 'जौं कदाचि मोहि मारहिं ।' मा० ४.७ कदाचित : अव्यय (सं० कदाचित्) । शायद ही, कभी, हो सकता है कि, विरल अवसरों पर ही। 'तबहुं कदाचित सो निरु अरई ।' मा० ७ ११७.८ कदूं : कद्रू ने (सं० कद्रू =सर्पमाता=कश्यप-पत्नी विशेष) । व दूं बिन तहि दीन दुख।' मा० २.१६ कन : सं०० (सं० कण) । (१) किनका, लघु खण्ड । 'सिरस सुमन कन बोधिक हीरा ।' मा० १.२५८.५ (२) बूंद । 'लस त स्वेद कन जाल ।' मा० २.११५ (३) चिनगारी । 'चंदु चवं बरु अनल कन ।' मा० २.४८ कनउड़ : वि०० (सं० कृतज्ञ>प्रा० कयण्ण) । आचारी, उपकृत । 'हमहि आजु लगि कनउड़ काहुँ न कीन्हेउ ।' पा०म० ७३ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 123 कनक : सं०० (सं०) । सुवर्ण मा० १.३५६.१ कनकउ : सुवर्ण भी । 'कनक उ पुनि पषान ते होई।' मा० १.८०.६ कनककासिपु : (कनक=हिरण्य)-हिरण्यकशिपु= दैत्यराज, प्रह्लाद का पिता । मा० १.२७ कनकफूल : कर्णाभरण विशेष जो पुष्पाकार बनते हैं = कनफूल । गी० १.७३.४ कनकमय : वि० (सं०) । स्वर्ण घटित, प्रचुर सुवर्णयुक्त । 'तासु कनकमय सिखर सुहाए।' मा० ७.५६.८ कनकलोचन : (कनक =हिरण्य-+लोचन =अक्ष) हिरण्याक्ष (हिरण्यकाशिपु का ____ अनुज) । मा० २.२६७.५ कनहिं : कनक पर, सुवर्ण में । 'कन कहिं बान चढ़इ जिमि दाहें।' मा० २.२०५.५ कनकु : कनक+कए । सुवर्ण । 'कसे कनकु मनि पारिखि पाएँ ।' मा० २.२८३.६ कनखियनु : कनाखिया+संब० (सं० कटाक्ष>प्रा. कडक्ख>अ० कडक्खिया)। कटाक्षों में =नेत्रकोण दर्शन में। 'चितबनि बसति कनखियनु अँखियनु बीच ।' बर० ३० कनगुरिया : सं० स्त्री० (सं० कनाङ्ग लिका>प्रा० कणंगुलिया)। छोटी अँगुली (कनिष्ठा) । 'कनगुरिया के मुदरी कंकन होइ ।' बर० ३८ कनसुई : सं०स्त्री० (सं० कणसूची>प्रा० कणसूई) । आटे या गोबर की गौरी जिसे चलनी में घमाकर स्त्रियां औंधा करती हैं ; यदि 'कनसुई' सीधी निकलती है तो शकुन, उत्तम माना जाता है । 'लेत फिर कनसूई सगुन सुभ ।' गी० १.७०.५ कनाउड़ो : कनउड =कनाउड+कए । कृतज्ञ, आभारी । 'जाचक जगत कनाउड़ो।' दो० २८६ कनावड़े : कनाउड़=कनावड़+ब० । कृतज्ञ । 'जनक दसरथ किए प्रेम कनावडं ।' जा०म० छं० १६ कनिगर : वि०पू० । 'कानि' करने वाला, आत्मप्रतिष्ठा वाला, स्वाभिमानी। 'देखिए ___ दास दुखी तोसे कनिगर के ।' हनु० ३३ कनियाँ : कनिया = गोद में । 'भूपं लिये कनियाँ ।' गी० १.३४.१ कनी : कनी+बहु० । कणिकाएँ, बूंदें । 'झलकी भरि भाल कनी जल की ।' कवि २.११ कनी : संस्त्री० (सं० कणिका>प्रा० कणिया>अ० कणी) = कण । (१) छोटी बूंद । 'अरुन तन सोनित कनी।' मा० ६.७१ छं० (२) छोटा कण । 'रज कनी ।' मा० ६.८३ छं० कन : कण को, अन्नादि के खण्ड को। 'मोद पाइ कोदो कनै ।' गी० ५.४०.४ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 तुलसी शब्द-कोश कनौड़े : कनावड़े ! 'कपि सेवा बस भए कनौड़े।' विन० १००.७ कनौड़ो : कना उड़ो। (१) कृतज्ञ । 'प्रेम कनौड़ो राम सो।' विन० १६४.६ (२) क्षुद्र परिचारक आदि, क्रीत दास । 'प्रभुहिं कनोड़ो भरिहैं।' विन० १७१.७ कन्दर्पह : (दे० ह) । कन्दर्प = कामदेव के घातक शिवजी। मा० ६.२ श्लोक २ कन्या : सं०स्त्री० (सं.)। (१) अविवाहिता बालिका । मा० १.८१.४ (२) पुत्री। मा० १.७१.८ कन्यादानु : सं०पु० कए । विवाह के पूर्व माता-पिता द्वारा कन्या का वर को संकल्पित समर्पण । मा० १.३२४ छं० ३ कन्हाई : कान्ह । कृष्ण । कृ० २६ कन्हैया : कन्हाई (स्नेहातिरेक का प्रयोग) । कृ० २ कपट : सं०० (सं०) । छल । मा० १.१२.२ । क्रपटमुनि : जल से मुनि बना हुआ। मा० १.१६५ कपटमृग : छल से बना हुआ मृग, हरिवेष में मारीच । मा० ३.२७ कपटी : वि०० (सं० कपटिन्) । छली, वञ्चक । मा० १.७६.४ कपटु : कपट+कए । एकमात्र छल । 'सती कपटु जाना सुरस्वामी ।' मा० १.५३.३ कपाट : संपु (सं०) । किवाड़ । मा० १.२३२.७ कपाटा : कपाट । मा० १.२१४.१ कपाटी : कपाट, छोटा किवाड़। 'जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी ।' मा० २.१४५.४ कपारु, रू : कपाल = कपार+कए । (१) मत्था । 'कूबरू टूटेउ फूट कपारू ।' मा० २.१६३.५ (२) भाग्य । 'फोरै जोगु कपारू अभागा ।' मा० २.१६.२ कपाल : सं०पु० (सं०) । (१) नरमुण्ड । 'ब्याल कपाल विभूषन छारा।' मा० १.६५.८ (२) खप्पर । मा० १.६३ छं० कपाला : कपाल । मा० ६.२८.११ कपाली : वि०० (सं० कपालिन्) । नरमुण्डधारी। मा० १.७६.६ कपालु : कपाल+कए । एक नरमुण्ड या खप्पर ! 'डमरू कपालु कर।' कवि० ७.१४६ कपास : सं०० (सं० कर्पास>प्रा० कप्पास) । रुई । मा० ७.११७ ग कपासू : कपास+कए । 'साधु चरित सुभ चरित कपासू ।' मा० १२.५ कपि : सं०० (सं०) । वानर । मा० १.२५.३ कपिदा : सं०पु+वि० (सं० कपीन्द>प्रा० कइंद) । श्रेष्ठ वानर । (१) हनुमान । मा० ५.३५.३ (२) अंगद । मा० ६.३२.१ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 123 कपिकच्छ : सं०स्त्री० (सं.)। के वांच नामक लता (जिसे वानर उखाड़ डालता है)। 'बाहु सूल कपिकच्छु बेलि - कपिकेलि ही उखारिए।' हनु० २४ । कपिकुजर : हाथी जैसे डील डोल वाला वानर । 'कट कटान कपिकुंजर भारी।' मा० ६.३२.३ कपिन, न्हि : कपि+संब० । वानरों। 'देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्ठा।' मा० ६.४१.४ कपिपति : वानरों का राजा=सुग्रीव । मा० ४.४.२ कपिपोत : (दे० पोट) । बन्दर का बच्चा । 'रे कपिपोत बोलु संभारी।' मा० ६.२१.१ कपिराइ, ई : कपिराज । मा० ५.५ कपिराउ, ऊ : (दे० राऊ) । वानरों का एकमात्र स्वामी । मा० ४.१२.४ कपिराज : कपिपति । (१) सुग्रीव । मा० ६ ६५ (२) श्रेष्ठ वानर, हनुमान । कवि० ७.१७६ कपिल : सं०० (सं०) । सांख्यशास्त्र के प्रवर्तक मनि जो चौबीस अवतारों में परिगणित हैं । मा० १.१४२.६ कपिलहि : कपिला गाय को । 'जिमि कपिलहि घालइ हरहाई।' मा० ७.३६.२ कपिला : सं०स्त्री० (सं०) । पीले रंग की श्रेष्ठ गाय । जिमि मलेच्छ बस कपिला गाई।' मा० ३.२६.८ कपिलीला : वानरक्रीडा=उछल कूद, मुह बिचकाना, किलकिला शब्द, दांत निकालना, झपट्टा, खो खो ध्वनि आदि । मा० ६.४४.५ कपिश : वि० (सं.)। भूरे रंग का (वानर जैसे रंग वाला)। 'कपिश कर्कश ____ जटाजूटधारी ।' विन० २८.२ कपिस : कपिश । हनु० २ कपिहि : कपि ने ही 'प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ।' मा० ५.२०.४ कपिहि : कपि को, कपि के प्रति । 'सो छन कपिहि कलप समबीता।' मा० ५.१२.१२ कपीश्वर : वानर श्रेष्ठ हनुमान । मा० १ श्लोक ४ कपीस, सा : (सं० कपीश) : (१) वानरराज =सुग्रीव । मा० ४.२०.२ (२) श्रेष्ठ वानर । हनुमान कपीसु : कपीस + कए० । अद्वितीय वानरराज। (१) हनुमान । 'कपीसु कूघो बात घात जलधि हलोरि के ।' कवि० ५.२७ (२) सुग्रीव । कवि० ७.४ कपूत : सं०० (सं० कुपुत्र, कापुत्र, कसुत्र>प्रा० कप्पुत्त) । निन्दित पुत्र । मा० १.२६६.१ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश कपूतन : कपूत + संब० । कपूतों । 'कायर क्रूर कपूतन की हद ।' कवि० ७.१ कपूर : कर्पूर । दो० २५५ कपोत : सं०पु० (सं० ) । भूरा पारावत, कबूतर । मा० ३.३०.१० कपोल : सं०पु० (सं० ) । गाल । मा० १.१४७.१ कपोलन, ति : कपोल + सं०ब० । कपोलों । 'कुंडल लोल कपोलन की ।' कवि० 126 १.५ कपोला : कपोल | मा० १.१६६.६ कफ : सं०पु ं० (सं०) । त्रिदोष में, अन्यतम । श्लेष्मा । मा० ७.१२१.३० कव : अव्यय (सं० कदा > प्रा० कआ; सं० कुतः > प्रा० कओ > अ० कउ > कव) । किस समय । मा० २.११.६ कबंध : सं०पु० (सं०) । (१) एक राक्षस जिसका धड़ ही था, सिर वृक्ष पर लटकता लगा था । मा० ३.३३.६ ( २ ) शरीर का धड़ भाग, शिरोरहित शरीर । 'कूदत कबंध के कदंब बंस सी करत ।' कवि० ६.४८ बंधु : कबंध + कए । कबन्ध नामक राक्षस । कवि० ६.११ कह: निश्चित रूप से कब, भला कब । 'कबहिं देखिबे नयन भरि । मा० 1 १.३०० कबहुँ, हूँ : कभी, किसी समय । 'कबहुं पालने घालि झुलावै ।' मा० १.२००.८ Tag: कभी एक बार ( कबहुं + इक ) । कभी तो । 'कबहुँक ए' आवह एहि नातें ।' मा० १.२२२.८ कबार : सं०पुं० । लेन देन का लघु व्यवसाय, छोटी मोटी दुकानदारी, क्रय विक्रय धंधा । 'मागध सूत भाट नट जाचक जहँ तहँ करहिं कबार । मी० १.२.२१ कबारू : कबार+कए० । 'नहिं जानउँ कछु अउर कबारू ।' मा० १.१०० ७ कवि : सं० (सं० कवि) । (१) ऋषि तत्त्व दृष्टा (२) विद्वान्, विवेकी । (३) शब्दों में भाव व्यक्त करने वाला = साहित्यकार । मा० १.६.८ कति सं०पु० (सं० कवित्त्व > प्रा० कवित्त ) । कविकर्म, काव्य कौशल, कविता कला । मा० १.६.११ = कबितरस: (दे० नवरस ) परम्परागत काव्य रस जिनमें सहृदय विषय-वासना का रस- निष्पत्ति की प्रणाली से आस्वादन करता है; वासना की सूक्ष्म अनुभूति से पृथक कोई बाह्य प्रयोजन नहीं माना जाता । 'जदपि कबित रस एकउ नाहीं ।' मा० १.१०.७ कबितरसिक : वे रसिक जो स्वागत वासना का ही काव्य के माध्यम से रस रूप में आस्वादन करते हैं, इस रसास्वाद से पृथक् किसी काव्य प्रयोजन को मान्य न हीं Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 127 तुलसी शब्द-कोश करते - भक्ति को काव्यरस बनाकर नहीं ग्रहण कर पाते । 'कबित रसिक न रामपद नेहू ।' मा० १.६.३ कबिता : सं० स्त्री० (सं० कविता ) । काव्य, कविस्व । ' चली सुभग कविता सरिता सो ।' मा० १.३६.११ कबित्त : कबित । 'निज कबित्त केहि लाग न नीका मा० १.८.११ बिन्ह : कबि + संब० । करियों ( ने) । १.१४.८ कबी : कवि । मा० ६.१११ छं० ( अरबी कबुली : वि०स्त्री० (१) (अरबी - कबूल = मानना ) । बात मान्य कराई हुई । (२) (अरबी – कुबूल = आगे आना ) । आगे की हुई । ( ३ ) ( अरबी क़बूली = बिना गोश्त का पुलाव ) । पुलाव = खाद्य पदार्थ बनाई हुई । (४) कबुला = मछली या चूहा ) | मछली के समान फँसाई हुई । ( ५ कब्ल = पहले ) । पहल कराई हुई । 'कुबरीं करि कबुली कैकेई । उर पाहन टेई ।' मा० २२२१ (छुरी का सम्बन्ध मछली वाले अतः श्लेष से कई अर्थ अभीष्ट हैं ।) ) ( अरबी - ' कपट छुरी अर्थ से है । 'कबिन्ह प्रथम हरि की रंति गाई ।' मा० - कबूतर : सं०पु ं० (फा० ) । पारावत पक्षी (जिसकी एक जाति, कपोता है जो भूरा होता है) । गोस्वामी जी ने कपोत से भिन्न उसी जाति के पक्षी को 'कबूतर' माना है । 'हँस कपोत कबूतर बोलत ।' गी० २.४७.११ कबूलत: वकृ०पु० ( अरबी – कबूल = स्वीकार करना) | मानता, स्वीकार करता । 'हौं न कबूलत ।' विन० १४६.२ कमंडल : सं०पु० (सं० कमण्डलु ) । विशेष प्रकार का जल पात्र । मा० ६.५७ ७ कमठ : सं०पु० (सं० ) । कच्छप । मा० १.२०.७ कमठी : कमठ + स्त्री० (सं० ) । कच्छपी । कृ० ६० कमुठ : कमठ+कए० । कच्छप भगवान् । 'कोलु कमठु अहि कलमल्यो ।' कवि० १.११ कमनीय : वि० (सं०) । मनोहर स्पृहणीय, रुचिर, उत्तम । 'कीरति अति कमनीय ।' मा० १.२५१ कमनीया: कमनीय + स्त्री० । वाञ्छनीया, मनोहारिणी, सुन्दरी । ' जग असि जुवति कहाँ कमनीया ।' मा० २.२४७.४ कमल : सं०पु ं० (सं०) । (१) पुष्पविशेष जो जल में होता है । (२) नीलकमल के सादृश्य से 'कृष्ण' के लिए भी प्रयोग हुआ है । 'तू जो हम आदर यो सो तौ नव कमल की कानि ।' कृ० ५२ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 तुलसी शब्द-कोश कमलनि, न्हि : कमल+सं०ब० । कमलों। 'कमलन्हि पर करि बास ।' मा० ६.२२ ख कमलावली : (सं.)। कमल श्रेणी, कमल समूह । गी० १.३८.४ कमलापति : कमला लक्ष्मी के पति विष्णु । मा० १.१३५.२ कमलासन : सं०० (सं०) । विष्णु के नाभि कमल पर आसन किये हुए ब्रह्मा जी। मा० १.५८.७ कमानो : क्रियाति० पु. एक० । यदि अर्जन करता है। 'जो तू मन मेरे कहे राम नाम कमातो।' विन० १५१.३ कमान : सं० स्त्री० (फा०) । धनुष । मा० २.४१.२ कमान : कमान पर । तिलकु ललित सर भृकुटी काम कमाने ।' जा०म० ५१ कमाहि : आप्रब० । उपार्जन करते हैं, काम करके पुरस्करादि लाभ पाते हैं । 'सब भूपति भवन कमाहिं ।' गी० १.२.२३ । कर : (१) सं०० (सं०) । हाथ । मा० २.४८.७ (२) सम्बन्धार्थक वि० =केर । का । 'कानन काह राम कर काजू ।' मा० २.५०.२ (३) सं०० (सं०) । किरण । 'हरण मोह तम दिनकर कर से ।' मा० १.३२.१० (४) सं०० (सं०) । हाथी की सूड । 'करि कर सरिस सुभग भुजदंडा।' मा० १.१४७.८ (५) (समासान्त में) वि० (सं०) । करने वाला । दिनकर, निसाकर आदि । (६) (समासान्त में) वि० (सं०) । हाथ में धारण किये हुए । 'शूल-सायकपिनाकासि-कर ।' विन० १०.४ (७) करइ । करती-ती-है, करे, कर सकता है। 'लोकमान्यता अनल सम कर तप काननदाहु ।' मा० १.१६१ क /कर, करइ, ई : (सं० करोति>प्रा० करइ-करना) आ०प्रए । करता है, करती है । 'करइ सदा नप सबक सेवा।' मा० १.१५५.४ 'सोइ सादर सर भज्जन करई ।' मा० १.३९.६ करत : करत । 'काढ़त दंत करंत हहा है।' कवि० ७.३६ करउँ, ऊ : आ०उए० । करता हूं, करती हूं। मा० १.२.४ करउ : आ० प्रेरणा, आज्ञा, प्रार्थना आदि-प्रए०। (सं० करोतु>प्रा० करउ) वह करे । 'सो सतसंग करउ मन लाई ।' मा० १.३६.८ करक : सं०स्त्री० । चाबुक आदि की बरत, प्रहार से जनित लम्बी सूत जैसी लकीर, सूत्राकार लम्बी फटन । 'जाने साई जाके उर कसकै करक सी।' गी० ४४.२ करकस : कर्कश । हनु० २ करके : भकपु० ब० । करक उठे, व्रण की सी कसकनदे चले, मर्म स्थान में दरार कीसी पीड़ा देने लगे । 'सर सम लागे मातु उर करके।' मा० २.५४.१ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश करकें : करक + बहु० । बरतें, घर्षण जनित उभरी रेखाएँ । 'बारहि बार अमरषत करषत करके परी सरीर ।' गी० ५.२२.८ 129 करगत : वि० (सं० ) । हस्तगत, हाथ में उपस्थित | अपने अधीन, स्वर्वश । 'करगत बेद तत्त्व सब तोरें ।' मा० १.४५.७ करछुली : सं० स्त्री० । रसोई का उपकरण विशेष जिसे चावल आदि परोसने में काम लाते हैं । दो० ५२६ करज: सं०पु० (सं० ) । अँगुली । 'अरुन पानि न करज मनोहर ।' मा० ७.७७.१ करटन : सं०पु० (सं० करट) । कौआ पक्षी । 'कटु कुठायें करटन रहि ।' रा०प्र० ३१.५ करत : वकृ०पु० (सं० कुर्वत्... प्रा० करंत ) । करता ते । मा० ७.७७ ख करतब : सं०पु० (सं० कर्तव्य ) । (१) कार्य, काम, करनी । 'करतब बायस बेष मराला ।' मा० १.१२.१ (२) खेल, कौतुक, जादू । कृ० ३६ (३) लीला, प्रपञ्च । 'बिधि करतब उलटे सब अहहीं ।' मा० २.११९.४ (४) छलपूर्ण कार्यं । 'मोहि न मातु करतब कर सोचू ।' मा० २.२११.४ करतबउ : करतब भी, कार्यकलाप भी । 'बचन बिकार करतबउ खुआर ।' कवि० 1 ७.६४ करतबु : करतब + कए० । धोखाधड़ी का अनोखा कर्म । 'जों अंतहुं अस करतब रहेऊ ।' मा० २.३५.४ करतब्य : वि०कृ०पु० (सं० कर्तव्य ) । अवश्यकरणीय, विहित (कर्म) । मर्यादानुगत कार्य, इतिकर्तव्यता वाले कार्य । 'सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें । मा० २.६६.२ करतल : सं०पु ं० (सं०) । (१) हथेली । 'करतल गत न परहिं पहिचाने ।' मा० १. २१.५ (२) वशीभूत ( हाथ में ), अधीन । 'चारि पदारथ करतल ताकेँ ।' मा० २.४६.२ करतहि : कर्ता को । विधाता को । मा० २.२६५.८ करता : वि०कृ०पु० (सं० कर्ता ) । करने वाला, विधाता, 1 ४१४ करतार : करता । विधाता, ईश्वर । 'होनिहार का करतार ।' मा० १.८४ छं० करतारा : करतार । मा० ६.१८.६ निर्माता, सृष्ठा । दो० करतारी : सं०स्त्री० (सं० करताली) । (१) हाथ की हथेड़ी ( हस्तध्वनि विशेष ) । (२) करताल या चंग, ताल देने हेतु हाथ से बजाया जाने वाला वाद्य विशेष । ! राम कथा सुंदर करतारी ।' मा० १.११४.१ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 तुलसी शब्द-कोश करतारु : करतार+कए० । ईश्वर, देव । ‘भयो करतारु बड़े कूर को कृपालु ।' कवि० ७.६६ करताल : सं० पु. (सं.) । (१) हथेली। 'कबहूँ करताल बजाइ के नाचत ।' कवि० १.४ (२) हाथों से बजाया जाने वाला वाद्य विशेष । 'भट कपाल करताल बजावहिं ।' मा० ६.८८.८ करतालिका : सं०स्त्री० (सं०) । करतल वाद्य, थपेड़ी। 'उड़त बिहग सुनि ताल करतालिका ।' विन० ४८.२ करति : वक०स्त्री० (सं० कुर्वती>प्रा० करती) । करती। 'करति बिलाप मनहिं __ मन भारी।' मा० ६.१००.४ करतु : करत+कए । 'करि बीत्यो अब करतु है ।' विन० १६०.४ करतूति, ती : सं०स्त्री० (सं० कर्त त्व) । (१) करनी, कर्म । 'ऊँच निवासु नीति करतूती ।' मा० २.१२.६ (२) चा लढाल, व्यवहार। 'देखि बूझि करतूति ।' मा० २.२७१ (३) कर्मकौशल, कर्तव्यनिष्ठा । 'जनक सनेहु सील करतुती।' मा० १.३३२.१ (४) रचना, सर्जना, कला-कौशल । 'जनु एतनिअ बिरंचि करतूती।' मा० २.१.५ करते : (१) वकृ००ब० । ‘पद पंकज प्रेम न जे करते।' मा० ७१४.१० (२) क्रियातिपु०बहु० । यदि तो करते । 'जों रघुबीर होति सुधि पाई। ___ करते नहिं बिलंब रघुराई ।' मा० ५.१६.१ ।। करतेउँ : क्रियाति.पुउए । तो मैं करता । 'बूढ़ भयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार ।' मा० ४.२८ करतेहु : क्रियाति पु०मब० । यदि तुम करते। 'करतेहु राजु त तुम्हहि न दोषू ।' मा० २.२०७.८ करतो : क्रियाति००ए० । यदि करता। 'जो पं चेराई राम की करतो, न ____ लजातो।' विन० १५१.१ करदा : वि० (१) (सं० कर्ता=फा० कर्द किया)। करने वाला (?)। (२) (सं० करद) । सहायक, समान, सहभागी । 'रांक-सिरोमनि काकिन भाग, बिलोकत लोकप को करदा है।' कवि० ७.१५५ करन : (१) सं०० (सं० करण) । करने की क्रिया। 'करन पुनीत हेतु निज बानी।' मा० १.३६१.८ (२) सं०० (सं० करण)। उपकरण, साधन । इन्द्रिय-जो अन्त:करण =चित्त, मन, बुद्धि और अहंकार तथा बाह्यकरण = चक्षुः, घ्राण, श्रोत्र, रसना और त्वक् हैं। विषय करन सुर जीव समेता।' मा० १.११७.५ (३) वि०० । करने वाला। 'सकल बिस्ब कारन करन ।' मा० १.२०८ ख (४) सं०० (सं० कर्ण) । कान, श्रवण । 'भगति सुतिय कल Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131 तुलसी शब्द-कोश करन - बिभूषन । मा० १.२०.६ (५) सं०पु० (सं० कर्ण) । महाभारत में दुर्योधन का मित्र, कुन्तीपुत्र राधेय जो दान के लिए पुराण- प्रसिद्ध है । दो० - ३८२ (६) भकृ० अव्यय । करना, करने। 'करन चहुँ रघुपति गुनगाहा ।' मा० १.८.५ 'करन लगे बड़ जाग ।' मा० १.६० करनघंट : सं ० स्त्री० (सं० कर्णघण्टा ) । काशी में तीर्थ विशेष । विन० २२.४ करनधार : सं०पु० (सं० कर्णधार ) । नाविक, मल्लाह । मा० २.१५४.६ करन बेध : सं०पु० (सं० कर्णवेध ) । कनछेदन, शिशु के कान छेदने का कर्म । मा० २.१०.६ करनहार : वि० (सं० करनधार > प्रा० करणहार — करणः नृत्यमुद्रा - विशेष ) । नृत्य करने वाली । 'करनहार वारपार पुर पुरंगिनी ।' गी० २.४३.३ करना : करन । करने । 'जाइ बिपिन लागीं तपु करना ।' मा० १.७४.१ करनि : (१) सं० स्त्री० । करने की रीति, कर्म, क्रिया । "हित जो करत अनहित की करनि ।' कृ० ३० (२) वि०स्त्री० । करने वाली । 'मंगल करनि कथा रघुनाथ की ।' मा० १.१० छं० (३) करन्हि । हाथों (से) । ' अपने करनि गाँठ गहि दीन्हीं ।' विन० १३६.३ करनिहार : वि०पु० । करने वाला (सृष्टा ) । बिधि से करनिहार ।' गी० .. २.२५.२ करनी : (१) सं० स्त्री० । करने की रीति, क्रिया, करतूत, कार्य । 'आपहुं तें सब आपनि करनी ।' मा० २.१६०.८ (२) वि०स्त्री० करने वाली । 'राम कथा जग मंगल करनी ।' मा० १.१०.१० करनीया : भकृ० (सं० करणीय) । (१) करना ( होगा ) । 'अबधौं बिधिहि काहकरनीया ।' मा० १.२६७.७ (२) कर्तव्य, करने योग्य । 'सोइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया ।' मा० २.६६.७ करनू : करन + कए० । एकमात्र करने वाला । 'मधुर मंजु मुद मंगल करनू ।' मा० २.३२६.५ 1 कर न्हि : कर + संब० । हाथों (में) । 'कमल करन्हि लिएँ मात ।' मा० १.२४६ करपुट : सं०पु ं० (सं० ) । हाथों की संपुटित अञ्जलि | गी० १.६.२० करब : भकृ०पु ं० (सं० कर्तव्य > प्रा० करिअत्व) । करना, करने योग्य, करना होगा ( करूंगा आदि) । ' तदपि करब मैं काजु तुम्हारा । मा० १.८४.२ करबाल : सं०पु०+ स्त्री० (सं० करवाल, करवालिका) । करौली, कृपाण | मा० ६.१०१ छं० २ करबि : करब + स्त्री० । करनी ( होगी ) । ' भाषाबद्ध करबि मैं सोई ।' मा १.३१.२ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 तुलसी शब्द-कोश करम : सं०० (सं.)। करतल मूल से कनगुरिया तक का चिकना पुष्ट हस्त भाग । 'काम तून तल सरिस जानु जुग, उरु करि कर करभहि विलखावति ।' गी० ७.१७.५ करम : सं०० (सं० कर्मन्) । (१) क्रिया, चेष्टा । कायिक व्यापार । 'करउँ प्रनाम करम मन बानी।' मा० १.१६.७ (२) अनासक्त कर्म, फल-निरपेक्ष क्रिया, कर्म योग । 'नहिं कलि करम न धरम बिबेक ।' मा० १.२७.७. (३) इतिकर्तव्यता, कर्तव्याकर्तव्य । विधिनिषेधय..... करम कथा।' मा० १.२.६ (४) लीला, अवतारी कर्म । 'जनम करम अगनित श्रुति गाए।' मा० १.११४.३ (५) शभ, अशुभ तथा मिश्र कर्म जो प्रारब्ध संचित तथा क्रियमाण वर्गों में बँटकर जन्म और फलभोग के कारण बनते हैं । 'करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा।' मा० १.१३७.४ (६) प्रारब्ध, भाग्य । 'करम लिखा जौं बाउर नाहूं।' मा० १.६७.७ (७) रामानन्द दर्शन में ३० तत्त्वों का अन्यतम तत्त्व:प्रकृति, महत्, अहंकार, मन, १० इन्द्रिय, ५ सूक्ष्म भूत, ५ महाभूत, जीव, परमेश्वर, गुण, काल, स्वभाव और कर्म । 'काल सुभाउ करम बरिआईं।' मा० १.७.२ करमचंद : प्रारब्ध कर्मों के लिए कविकल्पित नाम जो भाग्य' को मानवीकरण में प्रस्तुत करता है-भाग्यरूपी पुरुष । 'हमहिं दिहल करि कुटिल करमचंद मंद मोल बिनु डोला रे ।' विन० १८६.२ करमठ : वि०+सं०० (सं० कर्मठ) । कर्मरत, कर्मपरायण, कर्मयोगी या कर्म काण्डी-जन । 'करमठ कठमलिआ कहैं ।' दो० ६६ करमन : सं०० (सं० कार्मण) । जादू-टोना; पिशाचादि साधना; मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन की आभिचारिक क्रियाएँ । 'करमन कूट की कि जंत्रमंत्र बूट की।' हनु० २६ (यहाँ 'कारमन' पाठ अधिक उपयुक्त है।) करमनास : सं०स्त्री० (सं० कर्मनाशा) । एक नदी जिसमें स्नान करने से कर्मों का नाश माना जाता है । मा० २.१६४.७ करमा : करम । मा० ३.३६.२ करमाली : वि० सं०० (स० करमालिन =किरणमालिन्) । किरणों के समूह ___से युक्त-सूर्य । दिबाकर..... हिमतम करि केहरि करमाली।' विन० २.२ करमी : वि०पू० (स० कर्मिन्) । कर्मकाण्डी, कर्मयोगी, फलासक्ति से रहित कर्म करने वाला । विन० २५९.३ करमु, मू : करम+कए । (१) भाग्य । 'फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली।' मा० २.२०.४ (२) कर्तव्य कर्म । 'सो सुखु करमु धरम जरि जाऊ।' मा० २.२६१.१ (३) आचरण, व्यवहार, कार्यकलाप । 'तुम्हहि बिदित सब ही कर करमू । मा०२३०५.३ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 133 करमुद्रिका : सस्त्री० (स) । अंगूठी । मा० ४.२३.१० कररत : वक०० (स० कद्+रटत्>प्रा० करडंत) । कटु रटन करता । 'का का कारत काम । दो० ४३६ करवट : सं. स्त्री (सं० कर-वर्त ?) । पाश्वपरिवर्तन । मा० २.४३ करवर : सं० स्त्री० (सं० कर्वर =सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक जीव) । (हिन्दी में) ___ संकट, विपत्ति, आकस्मिक उत्पात । 'आजु परी कुसल कठिन करवट तें।' कृ० १७ करवरें : करवर+ब० । आपत्तियां । मा० १.३५७.१ करवा : सं०० (सं० करक>प्रा० करअ)। मिट्टी का जलपात्र। 'मलीन धरें कथरी करवा है ।' कवि० ७.५६ करवाइ : पूकृ० । करवा कर । 'पुनि जागु करवाइ रिषि राजहि दीन्ह प्रसाद ।' स०प्र० १.२.५ करवाई : भूकृ० स्त्री० । मा० १.१०१.१ करवाउब : भकृ०० (सं० कारयितव्य>प्रा० कराविअव्व)। करवाना होगा (करवाएंगे)।' करवाउब बिबाहु बरिआइ ।' मा० १.८३.६ करवाए : भूकृ० पु०ब० (सं० कारित>प्रा० कराविअ) । मा० १.१४३.७ करवायउ : भूकृ० पु. कए । करवाया । 'मारि निसाचर निकर जग्य करवायउ।' जा० मं० ३८ करवायो : करवायउ । 'तिन्ह बह बिधि भज्जन करवायो।' मा० ६.१०६.६ करवाव करवावइ : (सं०कुर्वन्त प्रेरयति कारयति>प्रा० करावइ; सं० कारयन्तं प्रेरयति कारयति>प्रा० करवावइ) इस दुहरी प्रेरणा के हिन्द में ही उदाहरण मिलते हैं- दशरथ यज्ञ करते हैं; ऋष्यरङ्ग उन्हें यज्ञ कराते हैं और वसिष्ठ ऋष्य रङ्ग से दशरथ को यज्ञ करवाते हैं । इस सन्दर्भ में इस धातु के ऊपर नीचे बहुल उदाहरण द्रष्टव्य हैं। करवावहिं : आ० प्रब० (सं० कारयन्ति>प्रा० करावावंति>अ० करावावहिं)। करवाते हैं । 'साधुन्ह सन करवावहिं सेवा ।' मा० १.१८४.२ करवावा : भूक पु० (एक०) । (सं० कारित-प्रा० करावाविस)। करवाया। 'विविधि भांति भोजन करवावा ।' मा० १.२०७.४ 'करष : सं०स्त्री० (सं० कर्ष) । खिंचाव, तनाव (१) द्वेष । 'कंत करष हरिसन परिहरहू ।' मा० ५.३६.६ (२) शेष, आवेश । 'बातहिं बात करष बढ़ि आई।' मा० ६.१८.४ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 तुलसी शब्द-कोश /करष करषइ : (सं० कर्षति>प्रा० करिसइ-खींचना) आ प्रए । खींचता है, आकृष्ट करता है । 'बहुरि निरखि रघुबरहि प्रेम मन करषइ ।' जा०म० ७६ करषक : सं०० (सं० कर्षक) । खेतिहर, किसान । 'भइ बरषा करषक बिकल ।' रा०प्र० ७.५.६ करषत : वकृ पु० (सं० कर्षत् >प्रा० करिसंत) । खींचता, खींचते । 'करषत चित हित हरष अरे रौं।' गी० १.७६.३ ।। करषतु : करषत+कए० । खिचता, निकलता, खींचता । 'देखत बिषादु मिट, मोदु करषतु है ।' कवि० ६.५८ ।। करहि : आ० प्रब० (सं० कर्षन्ति>प्रा० करिसंति>आ० करिसहिं) । खींचते-ती हैं। आकृष्ट करते-ती-हैं । 'मनहुं बलाक अवलि मन करहिं ।' मा० १.३४७.२ करषा : करष । आवेश, जोश, उत्साह । 'एकन्हि एक बढ़ावहिं करषा।' मा० २.१६१.२ करषि : पूकृ० । खींच (कर) । 'निज माया के प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि।' मा० १.१३७ करषी : भूकृ स्त्री० । खींची । 'सुनि प्रभु बचन मोह मति क रषी।' मा० २.१०१.५ करई : करषइ । 'बिप्रचरन चित कह करौं ।' विन ६३.४ करष्षत : करषत । 'कतहुं बाजि सों बाजि मदि गजराज करष्षत ।' कवि० ६.४७ करसि : आ०मए० (सं० करोषि>प्रा० करसि)। (१) तू करता है। 'करसि हमार प्रबोधु ।' मा० १.२८० (२) तू कर । 'मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीपकिशोर ।' मा० १.२७२ करहिं : (१) आ०प्रब० । वे करते हैं। 'खल उ करहिं भल पाइ सुसंग ।' मा० १.७.४ (२) आ० उब० । हम करते हैं । 'आयसु देहु करहिं तोइ सिरधरि ।' कृ० ४२ करहिंगे : आ० म०प्रब०० । करेंगे । 'बासु करहिंगे आइ।' मा० ४.१२ करहि : आ-आज्ञा-मए । तू कर । 'करहि सदा सत संग ।' दो० २६६. करहीं : करहिं । (१) वे करते हैं । 'सो म बादि बाल कबि करहीं।' मा० ११४.८ (२) हम करते हैं । 'हम सभी मग या बन करहीं।' मा० ३.१६.६० करहुं : आ०- इच्छा, प्रार्थना, आशी:-प्रब० । करै । 'भरतहि राम करहुं ___ जुबराजू ।' मा० २.२७३.७ करहु : आ० मब० । करो। 'कृपा करहु अब सर्व ।' मा० १.७ घ करहुगे : आ०-भ.पु०-मब० । करोगे । 'कबहुं रघुबंस मनि सो कृपा करहुगे ।" विन० २११.११ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश करहू : करहु | करो | 'अवसि नरेस बचन फुर करहू ।' मा० २.१७५.१ कराइ : पूकृ० । करा (कर) । ' राखिनि जतन कराइ ।' मा० ३.२६क कराइहि : आ०भ०प्र० । कराएगा । 'सो सीता कर खोज कराइहि ।' मा० ४.४.४ कराई : (१) कराइ । 'चलेउ पवन सुत बिदा कराई ।' मा० ५.८.५ (२) भूकृ० स्त्री० । 'जगत मोरि उपहास कराई ।' मा० १.१३६.३ कराएहु : आ० भ०+ अभ्यर्थना + म०ब० । 'तुम कराना । 'सुरति कराएहु मोरि ।' 135 मा० ७.१ क करामाति : सं ० स्त्री० ( अरबी – करामत = मुअजज : = जादू आदि + ब० करामात) । विविध आश्चर्य जनक कार्य-समूह, ऐन्द्रजालिक कौतुक - कलाप | 'कास करामाति जोगी जागति मरद की ।' कवि ० ७.१५८ करायहु : आ० - भूकृ पु ं० + मब० । तुमने कराया । 'सुरन्ह प्रोर बिष पान करायहु ।' मा० १-१३६.८ करारा : सं०पु० (१) (सं० कराल = ऊँचा नीचा धरातल ) । नदी आदि का किनारा, ऊँचा तट । 'लखन दीष पय उतर करारा । मा० २.१३३.२ (२) (सं० करटकराट— 'क' ध्वनि रटने वाला = काक पक्षी >> प्रा० करड= कराड ) । कौआ । 'रटहि कुर्भाति कुखेत करारा ।' मा० २.१५८.४ करारें : कगार पर, तीर पर । 'मागत नाव करायें ठाढ़े ।' कवि २.५ करारे : करारा +ब० । तट । 'बोरति ग्यान बिराग करारे ।' मा० २.२७६.१ कराल (ला) : वि० (सं०) । (१) विषम, प्रतिकूल, घोर, भयानक । 'जे जनमे कलिकाल कराला ।' मा० १.१२.१ (२) दुर्गम । 'कठिन कुसंग कुपंथ कराला ।' मा० १.३८ ७ (३) अशोमन, बीभत्स । 'भूषन कराल, कपाल कर ।' मा० १९३. छं० ( ४ ) विशाल काय, दुर्घर्ष, दुर्जय । 'कोल कराल दसन छबि गाई ।' मा० १.१५६७ (५) उग्र, असह्य, रौद्र । 'लखी महीप कराल कठोरा ।' मा० २.३१.३ करालताँ : करालता में; दुर्जयता में । 'कालऊ करालताँ बड़ाई जित्यो बावनो ।' कवि० ५.६ करालता : सं० स्त्री० (स० ) । घोरता, विषमता, क्रूरता ! ' काल भी करालता ।' कवि० ७.८१ करालिका : वि०स्त्री० (सं० कराला = करालिका ) । 'विकट, दुर्दभ, घोर ( दुर्गा का नाम भी 'कराला' है । ) । 'दलनि दानव दलरण - करालिका ।' विन० १६.२ Vकराव करावs : (सं० कारयति > प्रा० करावइ — करने को प्रेरित करना) आ०प्र० । कराता है, कराती है । 'गोद राखि कराव पय पाना ।' मा० ७.८८८ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 तुलसो शब्द-कोश करावन : भूकृ० (सं० कारयितुम् >प्रा. कराविउं>आ० करावण) । कराना, कराने । 'बिदा करावन हेतु ।' मा० १.३३४ करावहु : आ०मब० (सं० कारयत>प्रा० करावह>आ० करावहु)। करावो । 'सयन करावहु जाइ ।' मा० १.३५५ ।। करावा : भूकृ० पु० (सं० कारित>प्रा० कराविऊ) । कराया । 'पुत्र का सुभ जग्य करावा ।' मा० १.१८६.५ करावौं : आ०उए० (सं० कारयामि>प्रा० करावमि, करावमु>अ० करावउँ) । कराऊँ, करा सकता हूं। 'पग पानही करावौं ।' गी० २.७२.२ करावौंगी : आ-भ० स्त्री० -उए । कराऊँगी । 'नयन चकोरनि मुख भयंक छबि सादर पान करावौंगी।' गी २.६.२ कराहत : कहरतं । पीडा ध्यनि करते । 'भूमि परे भट घूमि कराहत ।' कवि ६.३२ कराहिः हीं : (१) करावहिं । बनवाते हैं । 'जौं नृप सेतु कराहिं ।' मा० १.१३ (२) करहिं । करते हैं । 'जनम-जनम मुनि जतन कराहीं ।' मा० ४.१०.३ कराही : सं० स्त्री० (सं० कराही>प्रा० कडाही)। कढ़ाई, छोटा कड़ाह-पात्र विशेष । 'कनक कराही लंक तलकति ताय सों।' कवि० ५.२४ करि : (१) सं०० (सं० करिन् । हाथी । 'संगलाइ करिनी करि लेहीं।' मा० ३.३७.७, १.१४७.८ (२) पूकृ० (सं० कृत्वा>प्रा० करिअ>अ० करिग कर के । 'करि कृपा रामचरन रति देहु ।' मा० १.३ख (३) आ० -आज्ञा-मए० । तू कर । 'मेरो कह्यो सुनि, पुनि भाव तोहि करि सो।' विन० २६४.१ करिअ, य कहिऐ, ये : आ कर्मवाच्य-प्रए । किया जाय, की जाय, कमजए । ____ कहिअ कृपा करि करिअ समाजू ।' मा० २.४.२ 'अब दीन-दयाल दया करिऐ।' मा० ६.१११.१६ करिआहिं : आ०-कर्मवाच्य-प्रब० । किये जायें, किये जा रहे हैं। 'नाथ रामु करिअहिं जुबराजू ।' मा० २.४.२ करिमा, या : वि० (सं० काल =कालक.>प्रा० कालय) । काला, कृष्णवर्ण । 'करिआ मुहु करि जाहि अभागे।' मा० ६.४६.२ करिऐ : दे० करिअ। करिकर : हाथी की सूड़ । 'उरु करिकर करमहि बिजखावति ।' गी० ७.१७.५ करित : करत । 'तो बिनु जगदंब गंग कलिजुग का करित ।' विन० १६.३ करिनि, नी : सं० स्त्री० (सं० करिणी) । हथिनी । मा० २.३५.१ करिनी : करिनी+ब० । हथिनियाँ । संग लाइ करिनी करि लेहीं।' मा० ३.३७.७ करिबर : श्रेष्ठ हाथी । मा० ६.६१.६ करिबर गामिनी : मत्त गजराज की गति के समान गतिवाली । मा० ३.३६.१० Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश करिबरन्हि : करिबर + संब० । मत्त हाथियों पर । 'कलित करिबरन्हि परीं अंबारी ।' मा० २.३०.१ करिबे : भकृ०पु० (सं० कर्त्तव्य > प्रा० करिअव्व = करिअव्वय) । करना, करने को । 'जो अलि अंत इहै करिबे हो ।' कृ० ३६ करिबो : भकृ०पु०कए० (सं० कर्त्तव्यम् > प्रा० करिअन्य > आ० करिअव्वउ ) । करना । 'कियो न कछू करिबो न कछू ।' कवि० ७.६१ करिय : करिअ करिया : करिआ करिये : करिऐ 137 करिहउँ : आ०भ०उए० । करूँगा । 'करिहउँ रघुपति कथा सुहाई ।' मा० १.१४.१ करिहहिं : आ०भ०प्रब० । करेंगे । 'खल करिहहि उपहास ।' मा० १.८ करिहहु : आ०भ० मब ० (सं० करिष्यथ > प्रा० करिहिह > आ० करिहिहु ) । करोगे - गी। 'राम काज सब करिहहु ।' मा० ५.२ करिहि : करिहहि । 'सो महेस करिहि कथ मुद मंगल मूला ।' मा० १.१५.७ करिहि, ही : आ०भ० प्रए० करेगा । 'गोकुल कौन करिहि ठकुराई ।' कृ० ३२ 'मम कृत सेतु जो तूसन करिही ।' मा० ६.३.४ करिहैं : करिहहिं । 'भगवानु भलो करिहैं ।' कवि ७.६ करिहै : करिहि । 'लरिहे मरिहै करिहै कछु साको ।' कवि १.२० करिहौं : करिहउँ । 'सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं ।' मा० २.६७.२ करिहौ : करिहु । करोगे । 'करिहौं कोसलनाथ तजि जबहिं दूसरी आस ।' दो० ७१ करों : भू० कृ० स्त्री०ब० । कीं । 'अनेक क्रिया सुख लागि करौं ।' कवि० ७.३२ करी : (१) सं०पु ं० (सं० करिन् ) । हाथी । (२) करि । करके । 'सुर बदन जय, जय-जय करी ।' मा० ६.१०१. छं०१ (३) करिअ । किया जाय । 'कहाँ जाई का करी ।' कवि० ७.६७ ( ४ ) भूकृ० स्त्री० । की, की नाई, की हुई । 'नन्द नन्दन हो निपट करी सठई ।' कृ० ३६ (५) ( समासान्त में ) वि० स्त्री० (सं०) करने वाली । मा० १ श्लोक ५ करीजे, जे : कीजे ( प्रा० किज्जइ = करिज्जइ ) । कीजिए किया जाय । 'दीन जानि तेहि अभय करीजे ।' मा० ४.४.३ करील, ला : सं०पु० (सं० करील) । एक प्रकार का झाड़ जिस में पत्तों के स्थान कांटे ही होते हैं । 'सोह कि कोकिल बिपिन करीला ।' मा० २.६३.७ करु : आ० – आज्ञा, प्रार्थना आदि- मए ० (सं० कुरु > प्रा० कर>अ० करु, करि) । तू कर । 'करु परितोष मोर संग्रामा । ' मा० १.२८१.२ करुआई : सं० स्त्री० (सं० कटुकता > प्रा० कडुआया > आ० कडुआई ) | कड़वाहट । 'घूमड तजइ सहज करुआई ।' मा० १.१०.६ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 तुलसी शब्द-कोश करुइ : वि० स्त्री० (सं० कटुका > प्रा० कडुई) । कड़वे स्वाद वाली, तीखी, अग्राह्य, अप्रिय । 'ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई ।' मा० २.१६.३ करुणा : सं० स्त्री० (सं० ) । कृपा, अनुग्रह । 'करुणा कर' = कृपा करने वाला । मा० ५ श्लो०१ करुणार्द्र : वि० (सं० ) । कृपा भाव से तरल हृदय वाला, दीनजन पर अनुग्रह से ओतप्रोत (द्रुत ) । विन० ६१.२ करुन : दि० (सं० करुण) । दयनीय, शोकाकुल, कृपापात्र । करुनरस : सं०पु० | काव्य के नौ रसों में अन्यतम जिस का स्थायी भाव शोक, आलम्बन विपन्न इष्ट जन, रोदन आदि अनुभाव, चिन्ता, स्मृति, दैन्य, विषाद आदि व्यभिचारी भाव होते हैं । इस सम्पूर्ण सामग्री से सहृदय में जब साधारणी कृत शोक-वासना व्यक्त होती है तब करुणरस होता है । 'सब भई मगन करुनरस बानी ।' मा० २.२८४५ करुन : ( १ ) करुणा ने । 'मानहुं कीन्ह विदेहपुर करुन बिरह निवासु ।' मा० १. ३३७ (२) करुणा से । 'भुवन भरि करुनां रहे ।' जा०मं० छं० २२ करुना : करुणा । ( १ ) कृपा दया । 'जेहि करुना करि कीन्ह न कोहू ।' मा० १: १३.६ (२) दयनीय चेष्टा, विलाप आदि । 'करुना करति संकर पहि गई । मा० १.८७ छं० (३) दैन्य, दुःख, मनोव्यथा । 'करुना परिहरहु अवसर नहीं ।' मा० १.६७ छं० करुना ऐन : (दे० ऐन ) । कृपागार । मा० २.१०० करुनाकर : (दे० करुणा) कृपा करने वाला + कृपागार । मा० २.५७.२ करुना निधान : करुणाकर । मा० १.१८.७ करुनानिधी : करुनानिधान । मा० १.१२६.४ 1 करुनानिधे : ( करुनानिधि + सम्बोधन ) हे करुणानिधी । मा० १.६.२० करुनापुजा : (सं० करुणापुन्ज ) । कृपागार । मा० १.१४८.८ करुना मई : करुनामय + स्त्री० । 'रघुबर प्रकृति करुनामई ।' गी० ३.१७.८ करुनामय: वि० (सं० करुणामय ) | कृपा से व्याप्त, दयाप्रावित । 'करुनामय मृदु राम सुभाऊ ।' मा० २.४०.३ करुनायतन : कृपागार, करुणाकर । मा० १.११० करुनारस : दयारस, दयावीररस । वल्लभाचार्य ने इस को वीररस से पृथक् रस माना है जिसका स्थायी भाव भगवान् की भक्त के प्रति 'दया' है । भक्त आलम्बन, दैन्य आदि उद्दीपन, कष्ट निवारण हेतु चेष्टाएं आदि अनुभावः धृति स्मृति, चपलता आदि संचारी हैं । 'भू सुन्दर करुनारस पूरन ।' गी० १.२६.४ करुनासिधु : करुनानिधि | मा० २.७२ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 139 करे : भूक०० (ब०) । किये, बनाये । 'मानो बिधि बिबिध बिदेह करेरी।' गी० १.७६.१ करेजो : भूक००कए० (सं० कालेयकम् >प्रा० कालेज्जअं>अ० कालेज्जउ)। कलेजा, हृदयखण्ड । 'करेजो कसकतु है ।' कवि० ६.१६ करेरी : वि०स्त्री० । अति कठोर, अधिक कड़ी। 'बात कहत करेरी जी।' कवि० ६.१० करेरो : वि०पु०कए । अत्यन्त कड़ा, कठोर (महँगा)। 'मोल करत करेरो।' विन० १४६.२ करोसि : आ० – भूक पु०+प्रए० । उसने किया । 'नाना भाँति करेसि दुर्बादा ।' मा० ६.५१.५ करेसु : आ०-भ+आज्ञा+मए० । तू करना। 'करेसु अचल अनुराग।' मा० ८.८५ ख करेहु, ह : आ०-भ+प्रेरणा+मब० । तुम करना । 'करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी।' मा० १.५२.३ करें : (१) करहिं । करते हैं । 'साखोच्चारु दोउ कुलगुरु करै ।' मा० १.३२४. छं० ३ (२) भक० अव्यय (सं० कर्तुम् >प्रा० करिउं) । करने । 'मन महुं सरक करै कपि लागा।' मा० ५.६.२ करेंगे : आ० भ०प्रब० । 'प्रभु''अभय करेंगे तोहि ।' गी० ६.१.६ कर : (१) करइ । करे, कर सकता है । ' जड़ जीवन को करै सचेता।' वैरा० । 'क्यों कर बिनय बिदेहु ।' मा० १.३२४.छं० ४ (२) भक० अव्यय । करने । ___ 'आए करै अकंटक राजू ।' मा० २.२२८.५ करंगो : आ० भ० प्रए । करेगा । 'अभय करेगो तोहि ।' मा० ६.२० करया : वि० । करने वाला । हनु० ४४ करहहु : आ०भ०मब० । करावोगे । 'हँसी कहहु पर पुर जाई ।' मा० १.६३.१ करो: करउ । वह करे । 'जो जेहि रुचै करो सो।' विन० १७३.२ करोरि, री : कोरी । करोड़ (संख्या)। मा० २.१८७.३ करौं : करउँ । करूं, कर सकता-ती-हूं। 'करहि बिचारु करौं का भाई ।' मा० १.५२.४ करौंगी : आ०भ० स्त्री० उए० । करूँगी। गी २.८.२ करौंगो : आ०भ०० उए० । करूँगा । 'के न आयों, करौं न करौंगो करतूति भली।' कवि० ७.६५ करौ : (१) करहु । तुम करो। 'घरी करौ हम ज़ोही ।' कृ० ४१ (२) करउ । वह करे । 'सो करी बेगि सँभार श्रीपति ।' विन० १३६.४ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 40 तुलसी शब्द-कोश कर्कश : वि० (सं०) । परुष, कठोर, अस्निग्ध (खरखरा) । 'कपिश कर्कश जटाजूट धारी ।' विन० २८.२ कर्ण : महाभारत में दुर्योधन के पक्ष का एक वीर पुरुष जो कुन्ती का पुत्र था। विन० २८.३ कर्ता : वि०० (सं० कर्ता) । करने वाला, कारक । मा० ७.६२.६ कर्तारी : (सं० पद) । (दो) करने वाले । मा० १.श्लो० १ कर्दम : सं०० (सं०) (१) ऋषि विशेष । मा० १.१४२.५ (२) कीचड़, पङक कर्दमावत : कर्दम=कीचड़ से आटत; मल से ढका हुआ। कर्दमावत सोवई ।' विन० १३६.३ कर्पूर : सं०० (सं०) । सुगन्धित द्रव्य विशेष । कवि० ७१५० कर्म : (दे० करम) । (१) कायिक चेष्टा, किया। मा० १.१८.६ (२) तत्त्व विशेष । 'काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ।' मा० १.२०२.२ (३) वर्णाश्रम धर्म के नियत आचरण । 'निज-निज कर्म निरत श्रुति रीती।' मा० ३.१६.६ (४) प्रारब्ध आदि विविध कर्म विषाक । 'जेहिं जोनि जन्मों कर्म बस ।' मा० ४.१०.छं० २ (५) कर्मकाण्ड । मा० ३.३६.छं० (६) शास्त्र विहित या मर्यादानुसार कार्य । 'मृतक कर्म बिधिवत सब कीन्हा ।' मा० ४.११.८ (७) कौशल । 'सिल्पि कर्म जानहिं नलनील ।' मा० ६.२३.५ (८) शुभा शुभ आचरण जो भाग्य का रूप लेता है। मा० ७.४१.५.७ (8) व्यवसाय । 'उपरोहित्य कर्म अति मंदा।' मा० ७.४८.६ (१०) अवतारी लीला। मा० ७.५२.३ (११) कर्मयोग, फला शक्ति रहित व्यापार । 'प्रभुहि समपि कर्म भव तरहीं।' मा० ७.१०३.२ (१२) संचित तथा क्रियमाण कर्म जो ज्ञान से समाप्त हो जाते हैं । 'कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हें ।' मा०७११२.३ (१३) वैष्णव तत्त्व विभाग में अन्यतम तत्त्व मा० ७.२१ कर्मना : (सं० कर्मणा-दे० कर्म)। कर्म से, कार्यों द्वारा। 'मनसा बाचा कर्मना तुलसी बंदत ताहि ।' वैरा० २६ कर्मनास : करमनास । कर्मनाशा नदी ।। 'मज्जन पान कियो के सुरिसरि कर्मनास जल छानी। क०४६ कर्मपथ : कर्मयोग का मार्ग, अनासक्त कर्म मार्ग । विन० १०.७ कर्मा : कर्म । मा० ७.४६.१ कk : कर्म+कए० । विशिष्ट कार्य । 'जन्म कम प्रतापु पुरुषारथु महा।' मा० ११०३.छं० कर्यो : कियो। किया। 'मायानाथ अति कोतुक कर्यो ।' मा० ३.२०.छं० कर्षण : वि० । खींचने वाला । 'जयति मंदोदरी केश-कर्षण ।' विन० २६.४ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 141 कल : वि० (सं०) (१) मनोहर । 'भगति सुतिय कल करना बिभूषन ।' मा० १.२०.६ (२) मधुर-सूक्ष्म (ध्वनि) । 'सुर सुदरी करहिं कल गाना ।' मा० १.६१.४ (३) कोमल सुकुमार । 'बाल मरालन्ह के कल जोरा।' मा० १.२२१.३ (४) कौशल युक्त । 'कल बल छल करि जाहिं समीपा। मा० ७.११८.८ कलंक : सं०० (सं०) । लाञ्छन, लोकनिन्दा, दोष । मा० २.५०.१. कलंका : कलंक । मा० ५.२३.२ कलंकी : विपु० (सं.)। लाच्छित । मा० २.२६६.२ कलंकु, कू: कलंक+कए। विशेष लाच्छन । 'तब कलंकु अब जीवन हानी।' मा० २.१८६.२ कलई : सं०स्त्री० (अरबी-कलई =सज्जी, एक प्रकार की खारी मिट्टी)। (हिन्दी में) बर्तन आदि पर लगाया जाने वाला विशेष पदार्थ जिससे चमक आ जाती है; दिखावटी रङ्ग, दिखावा । 'बढ़ी कुरीति कपट कलई है ।' विन० १३६.५ कलकंठ : सं०० (सं.)। (१) कोकिल पक्षी । 'काक कहहिं कलकंठ कठोरा ।' मा० १.६.१ (२) सुन्दर कण्ठ, उत्तम स्वर । 'रिषिबर 'गावत कलकंठं हास।" गी० २.४३.२ कलकंठि : (सं० कलकण्ठी) । कोकिला । 'सुनि कलख कलकंठि लजानी' मा०. १.२६७.३ कलकी : सं०० (सं० कल्कि) । दशावतार में अन्तिम भावी अवतार । विन० ५२.६ कलत्र : सं० (सं.)। पत्नी। विन २०४.१ कलधौत : सं०० (सं०) । सुवर्ण । गी० २.१६.१ कलप : सं.पु. (सं० कल्प) । (१) ७२ चतुर्युगी का समय । (२) १००० युगों का समय (३) ब्रह्मा का दिन (४) सृष्टि से प्रलय तक का समय । 'परहिं कलय भरि नरक महुँ ।' मा० १.६६ कलपतरु : सं०० (सं० कल्पतरु) । कल्पवृक्ष = स्वर्ग का एक वृक्ष जो अभीष्ट वस्तु देने वाला कहा गया है । मा० १.१०७ कलपद्रुमु : कल्पद्रम<कलपद्रुम+कए । कल्पवृक्ष । 'कलपद्रुमु काटत मूसर को।' कवि० ७.१०३ कलपना : सं०स्त्री० (सं० कल्पना) (१) चित्त, अवियमान वस्तु की मानस रचना । 'जागि करहि कटु कोटि कलपना ।' मा० २.१५७.६ (२) कलात्मक कृति के लिए मन में स्वरूप-संभावना। 'मोरे हृदयें परम कलपना।' मा० Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 तुलसी शब्द-कोश ६.२.४ (३) उत्प्रेक्षा, प्रतीक रचना । 'जगमय प्रभु का बहु कलपना ।' मा० ६.१५.८ कलपबल्ली : सं० स्त्री० (सं० कलपवल्ली ) । कल्पलता, कल्पतरु समान स्वर्ग की पुराण कल्पित लता जो अभीष्ट दान करती है । विन० १३५.१ कलपबेलि : कलपबल्ली (सं० बल्ली > प्रा० बेल्ली > आ० बेल्लि ) मा० २.५६.३ कलपभेद : कल्पान्तर, विविध कल्प । 'कलप भेद हरि चरित सुहाए । मा० १.३३.७ कलपलता : दे० कलपबल्ली । गी० ३.१२.१ कलपांत : कल्पांत | मा० ७.१०२.छं० कलपि : कल्पि | 'कोटि प्रकार कलपि कुटिलाई ।' मा० २.२२८.६ कलपित : कल्पित । मनगढंत, संयावित । मिट्टी मलिन मन कलपित सूला ।' मा० २.२६७.२ कलबल : वि० ( ध्वन्यात्मक ) । मधुर तथा अस्पष्ट । 'कलबल बचन अपार अरुनारे मा० ७.७७.३ कलम : सं०पुं (सं० ) । गजशावक, तीस वर्ष का हाथी । 'काम कलभ कर भुज बल सीवा ।' मा० १.२३३.७ कलमले भू० कृ०पु० बहु० (सं० कल्ल = अव्यक्त शब्द + मल्ल युद्धार्थक धातु — दोनों के योग से बना चेष्टानुकरण - धातु) । कसमसा उठे, कुल बुलाए, तिलमिला गये । 'कोल कूरम कलमले ।' मा० १.२६१.छं० कलमल्यो : भू० कृ०पु०कए० । कुलबुलाया, कसमसाया, तिलमिलाया । 'कोलु कमठु अहि कलमल्यो ।' कवि० १.११ कलरव : सं०पु० (सं० ) । सूक्ष्म मधुर ध्वनि । 'सुनि कलरव कलकंठ लजानीं ।' मा० १.२६७.३ कलवारा : सं०पु० (सं० कल्यापाल - कल्या + मदिरा > प्रा० कल्लवाल ) । मद्य व्यव साथी जाति, कलार । मा० ७.१००.५ कलस : सं०पु० (सं० कलस = कलश ) | घट | मा० १.६१.८ कलसनि, व्हि : कलस + संब० । कलशों । 'प्रति मंदिर कलसनि पर भ्राजहि मनिगन दुति अपनी ।' गी० ७.२०.३ कलसजोनि : घटजोनी । अगस्य । बर० ५५ कलसभव : कलसजोनि । गी० ५.५२ I कलह : सं०पु० (सं० ) । विवाद, लड़ाई | मा० ७.१०६.१४ कलहंस : उत्तम जातीय हंस । मा० १.८६.छं० कलहंसनि : कलहंस + संब० । कलहंसों (ने) । 'कलहंसनि रचे नीड ।' गी० १.२६.२ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलसी शब्द-कोश 143 कलहंसा : कलहंस । मा० ३.४०.२ कलहप्रिय : वि० (सं.)। जिसे लड़ाई झगड़ा प्रिय हो, बखेड़िया । मा० २.१६८.२ कलहीन : कलाहीन । प्रकाशहीन, किरण रहित, सौन्दर्य हीन । दो० ५३५ कला : सं०स्त्री० (सं.)। (१) ६४ कलाएं जिनमें कविता, संगीत आदि की गणना है। 'सकल कला सब बिद्या हीनू ।' मा० १.६.८ (२) निपुणता, कौशल । 'सकल असम सर कला प्रबीना ।' मा० १.१२६.४ (३) ललित रचना । 'कहत पुरान, रची केसव, निजकर करतूति कला सी ।' विन० २२.६ (४) माया, छलप्रपंच, वञ्चना । 'सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत । मा० १.८६ (५) अंश, वस्तु का सोलहवां भाग। जैसे कलातीत, कलाधर । कलातीत : वि. (सं.) । निष्कल, अखण्ड, अच्छेद्य, निरन्तर (जिस के अंश न हों) 'कलातीत कल्याण कल्पांतकारी ।' मा० ७.१०८.११ कलाधर : (१) सं०० (सं.)। चन्द्रमा । (२) वि० (सं०) कला को धारण करने वाला (सकल)। 'रजनीश-कल-कलाधर ।' विन० ११.३ कलाप, कलापा : सं०० (सं.)। (१) गुच्छा, पुज, समूह । 'एहि बिधि करत बिलाप कलापा।' मा० २.८६.७ (२) मयूर-पिच्छ । 'कॅप कलाप बर बरहि फिरावत ।' गी० ३.१.२ कलापु : कलाप+कए० । समूह । 'तुलसी सुरेस चापु, कधौंदामिनी कलापु ।' कवि० ५.५ कलि : (१) सं०० (सं.)। चतुर्थ युग । मा० ७.१००अ (२) सं०स्त्री० (सं०) । कलह । 'कलि कुकाठ कर कीन्ह कुलू ।' मा० २.२१२.४ कलिद : सं०० (सं.)। हिमाचल पर्वत माला में पर्वता विशेष निस से यमुनानदी । निकली है (अतः 'कालिन्द्री' नाम है ) । गी० ७.४.४ कलिंदजा : सं०स्त्री० (सं०) । कालिन्द्री, यमुना नदी । गी० ७.७५ कलिकाल, ला : कलिजुग । मा० १.१२.१ कलिजुग : सं०० (सं० कलियुग) । चतगी का अन्तिम युग । विन० १६.३ कलित : भूकृ वि० (सं०) । (१) विभूषित, अलंकृत, सुसज्जित । 'कलित करिबरन्हि परी अंबारौं।' १.३००.१ (२) रचित । 'कनक कलित अहिबेलि बनाई।' मा० १.२८८.२ (३) ग्रथित, गुम्फित । ' कुंजर मनि कंठा कलित ।' मा० १.२४३ (४) अस्पष्ट-मधुर ध्वनि युक्त । 'मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गति पर बाजहीं।' मा० १.३२२.छं० (५) उत्तम, विशिष्ट । 'कोमल कलित सुपेती नाना।' मा० १.३५६.२ (६) उदित, समुदित, स्वच्छ । 'कीरति Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 तुलसी शब्द-कोश कलित लोक तिहुं माची।' मा० १.३५६.७ (७) परिगणित (कल गति संख्यानयोः) । 'जासु रूप गुन नहिं कलित।' गी० ७.६.६ कलिधर्म : कलियुग के गुण दोष । मा० ६.६७ख कलिमल : कलियुग के दोष । मा० १.५.८ कलिमलो : कलिमल भी। 'गरत तुहिन ज्यों कलिमलो।' गी० ५.४२.३ कलियुग : कलिजुग । मा० ७.४० कलिल : सं०० (सं०) । भ्रम, भ्रान्तिसमूह। 'मोह कलित ब्यापित मति मोरी ।' मा० ७.८२.७ कली : कली+बहु० । कलियाँ । 'कुसुम कली बिच बीच बनाई।' मा० १.२४३.७ कली : सं०स्त्री० (सं० कलि कलिका) । कुड्मल, अविकसित पुष्प । 'गुच्छ बीच बिच कुसुभ कली के ।' मा० १.२३६.२ (२) कलिकाकार आभूषण । 'कनक कली काननि ।' गी० १.१२.२ . कलु : सं.पु०कए० (सं० कल्यम्-- अभिनन्दन, शुभ संवाद>प्रा० कल्लं>अ. कल्लु) । चैन, विश्राम, घति, सुख । 'औरनि को कल गो।' कवि० ४.१ कलुष : सं०० (सं०) । कुसंस्कार, दोष, पाप । मा० १.१६.१ कलुषाई : सं०स्त्री० (सं० कलुषता) । मलिनता, दोष । "जेहिं पावक की कलुषाई . दही है ।' कवि० ७.६ कलेऊ : कलेवा । विन० २००.३ कलेवर : सं०० (सं०) । शरीर । मा० १.१२.२ कलेवरनि : कलेवर+संब० । कलेवरों (ने) । गी० २.३०.१ कलेवा : सं०० (सं. कल्यवर्त) । प्रातराश, नाश्ता, प्रात: काल लिया जाने वाला अल्पाहार । 'नाथ सकल जगु काल कलेवा ।' मा० ७.६४.७ कलेस, सा : सं०० (सं० क्लेश>प्रा० किलेस)। (१) कष्ट, व्यथा। 'परिहरु दुसह कलेस ।' मा० १.७४ (२) त्रिविध दुःख (३) योग के पांच क्लेशःअविद्या (मोह, अज्ञान), अस्मिता (अहकार), राग (आसक्ति), द्वेष (क्रोध, वैर, ईर्ष्या), अमिनिवेश (दुराग्रह, हठ, दूसरे की उन्नति की संभावना मात्र से दु:ख) । 'बिनु हरिभजन न जाहिं कलेसा ।' मा० ७.८६.५ कलेसु, सू : कलसे+कए । 'हरन कठिन कलि कलुष कलेसू ।' मा० २.२२६.६ कलोरे : सं००ब० (प्रा० कल्हारे) । गाय के तरुण बछड़े। 'बगरे सुरधेनु के धौल कलोरे ।' कवि० ७.१४४ कल्प : (दे० कलप)। मा० ६.११३५ कल्पतरु : सं०० (सं.)। कल्पवृक्ष, अभीष्ट दायक स्वर्ग वृक्ष । मा० ६.२६.६ कल्पद्रुम : कल्पतरु । मा० १.श्लो० २ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्दकोश . 145 कल्पथालिका : (सं० कल्पस्थालिका) (१) अभीष्ट देने वाली थाली, (२) कल्प वृक्ष का आलवाल (थाला) । 'भंजन भव भार भक्ति कल्प-थालिका।' बिन० १७.२ कल्पना : (दे० कलपना) । उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति रूपक, प्रतीक विधान । 'लोक कल्पना बेद कर अंग-अंग प्रति जासु।' मा० ६.१४ कल्पनातीत : वि० (सं०) । कल्पना से परे, बुद्धि-मन में न आने वाला। विन० ५४.६ कल्पपादप : कल्पतरु । मा० ३.४.२० कल्पशाखी : सं०० (सं०) । कल्पतरु (शाखी=वृक्ष)। विन० २७.४ कल्पाहि : आ.प्रब० । उत्प्रेक्षित करते हैं, कृत्रिम रूप से निश्चित कर लेते हैं। 'कल्पहिं पंथ अनेक ।' मा० ७.१००ख कल्पांत : कल्प का अवसान, प्रलय काल । मा० ७.५७.१ कल्पान्तकारी : प्रलय करने वाला=शिव । मा० ७.१०८.११ कल्पि : पू०कृ० (सं० कल्पयित्त्वा) । कल्पित कर, गढ़ कर, मनगढ़त से उत्प्रेक्षित कर । 'दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ।' मा० ७.६७क कल्पित : भूकृ०वि० (सं०) । मनगढन्त, स्वरचित, उत्प्रेक्षित । 'सब नर कल्पित करहिं अचारा।' मा० ७.१००.१० कल्मष : सं०० (सं०) पाप, कलुष, दोष मल । मा० ६.श्लो० २. कल्याण : सं०० (सं.)। मङ्गल, शुभ, उत्तम । मा० ६.श्लो० २१ कल्यान, ना : कल्याण । मा० १.२६ कल्यानप्रद : मङ्गलदायक । मा० ४.१०.छं० २ कल्यानमइ, ई : वि०स्त्री० (सं० कल्याणमयी)। कल्याण युक्त । दो० २१२ कल्यानमय : कल्याण रूप, मङ्गल से परिपूर्ण । मा० १.३०३ । कल्यानि, नी : सं०+वि०स्त्री. (सं० कल्याणी) । माङ्गलिक वृक्षणों से सम्पन्न स्त्री, सौभाग्यवती, परिवारादि के लिए कल्याणप्रद लक्षणों वाली। मी० ७.३२.११ कल्यानु, नू : कल्यान+कए । जेहि बिधि होइ राम कल्यानू ।' मा० २.८.६ । कल्लोलिनी : सं०स्त्री० (सं.)। नदी, तरङ्गिणी, लहराती हुई नदी। मा० ७.१०८.६ कवच : सं०पू० (सं०) । वर्म, सन्नाह, युद्ध में लौह परिधान । मा० ६.८०.१० कवन : प्रश्नार्थक सर्वनाम (सं० किम् >अ० कवण)। क्या, कोन मा० १.५५ कवनि, नी : कवन+स्त्री० (अ० कवणि =कवणी) । क्या, कौन-सी । तिन्ह के पापहि कवनि मिति ।' मा० १.१८३ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 . तुलसी शब्द-कोश कवनिउ : कोई भी (स्त्री०) । 'नर तन सम नहिं कवनि उ देही।' मा० ७.१२१.६ कवनिहुं : किसी भी (स्त्री०)। 'चिता कबनिहुं बात के ।' मा० २.६५ कवनु : कवन+कए० । कौन-सा, कोई एक । 'कारनु कवन बिसेषि ।' २.३७ कवनें : किस से, में, पर (अ० कवणे) । 'कवने अवसर का भयउ।' मा० २.२६ कवने : किस, किन । 'भजन हीन सुख कवने काजा ।' मा० ७.८४.१ कवनेउँ, हुं : किसी भी (०)। 'कवनेउँ जन्म मिटिहि नहि ग्याना।' मा० - ७.१०६.८ 'कवनेहुं जन्म अवध बस जोई।' मा०७ ६७.६ कवल : सं० (सं०) । ग्रास । मा० १.३२६.१ कवलित : भू००वि० (सं०) । ग्रास किया (हुआ) । 'कवलित काल कराल ।' रा०प्र० ६.३.६ कवलु : कवल+कए। एक ग्रास । 'काल कवलु होइहि छन माहीं।' मा० १.२७४.३ कवीश्वर : श्रेष्ठ कवि = वाल्मीकि । मा० १.श्लो० ४ कषाय : सं०+वि० (सं.)। (१) भूराग (२) विशेष प्रकार की कड़बाहट जिस में मुह सूखने लगे, जीभ बंध सी जाय, कण्ठ रुंध जाय । हृदय तक पीड़ित हो उठे। (३) तत्सहश अनुभूति विशेष जो भावावेश में होती है (४) रोषावेश जनित मुख शोष+कण्ठ रोध+जिह्वास्तम्मन+हृदय-पीडन । 'अरुन मुख भ्रू विकट, पिंगल नयन, रोष कषाय।' विन० २२०.८ कष्ट : सं०० (सं०) । क्लेश, कठिनाई । 'जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई ।' मा० १.३६.४ कष्ट-साध्य : क्लेश से प्राप्य, कठिनता से सिद्ध होने वाला-जे । मा० १.१६७.१ कष्टी : वि०० (सं०) । कष्ट युक्त । 'त्राहि हरि दास कष्टी ।' विन० ६०.८ कस : (१) वि०० (सं० कीदृश>प्रा० केरिस>अ० कइस) । किस प्रकार का कैसा । 'ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस ।' मा० ७.७८.५ (२) क्रि०वि० । कैसे, किस प्रकार । 'जेहि उर बस स्याम सुन्दर घन तेहि निर्गुन कस आवै ।' कृ० ३३ (३) क्यों। · कस न भजहु भ्रम त्यागि ।' मा० ७.७४ख (४) सं०० (सं० कष, कर्ष>प्रा०कए० कस्स)। निचोड़, निचोड़ा हुआ रस, स्वाद । 'बिषय बिरत खटाई नाना कस ।' विन० २०४.२ /कसक, कसकइ : (सं० कषाति-कष हिंसत्याम्>प्रा० कसइ, कसक्कइ चुभना, टीसना) । आ०प्रए० । कसकता है, टीसता है, चुभता है, व्यथित करती है । 'जानै सोई जाके उर कसकै करक सी।' गौ० १.४४.२ . कसकतु : वकृ० पु०कए० । कसक अनुभव करता, टीसता । 'करे जो कसकतु है।' कवि० ६.१६ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · तुलसी शब्द-कोश कसम: सं०स्त्री० (अरबी – कसम = सौगन्द ) । शपथ । 'कसम खाइ तुलसी भनी ।' गी० ५.३६.६ कसमसत वकृ०पुं० (सं० कष मष हिंसायाम् ) । घर्षण करता, सम्मर्दन पूर्वक गति लेता । गी० ५.२२.६ 147 कसमसात : कसमसत । 'कसमसात आई अति घनी ।' मा० ६.८७.१ कसम से : भू० कृ०पु ं० ( ब०) संघर्षण करने लगे, परस्पर घिसने लगे, कुलबुला उठे । 'त्रोन सायक कसम से' मा० ६.६१.छं० कसह, हीं : आ०प्र० (सं० कषन्ति > प्रा० कसंति > अ० कसह ) । कष्ट देते हैं, क्लेशित करते हैं । 'कहि जोग जप तप तन कसहीं ।' मा० २.१३२.७ - कसाई : सं०पु० (सं० कषायिन् = हिंसक > प्रा० कसाई - अरबी कस्साब == बूचर ) | पशुवध व्यवसायी । 'कासी कामधेनु कलि कुहत कसाई है ।' कवि० ७.१८१ कसि : (१) कैसी ( अ० कइसी = कइसि ) । 'मोरें हृदय कृपा कसि काऊ ।' मा० १. २८०.२ ( २ ) पूकृ० (सं०कसित्वा- —कस बन्धने > प्रा० कसिअ > अ० कसि ) । कसकर, हढ बाँध कर । 'बाँधि जटा सिर, कसि कटि भाथा ।' मा० .२.२३०.२ करें : क्रि०वि० (सं० कसितेन > प्रा० कसिएण > अ० कसिएं ) । बाँधे हुए ( मुद्रा में ) । 'मुनिपट कतिन्ह कसें तुनीरा ।' मा० २.११५.८ (२) (सं० कर्षेण > प्रा० कसेण > अ० कसें ) । कसौटी पर कसने से, निकष-परीक्षण द्वारा । 'कसे कनकु मनि पारीख पाएँ ।' मा० २.२८३.६ कसे : भक०पु०ब० (सं०कसित > प्रा० कसिय) । बाँधे । 'बसन बन ही के कटि कसे हैं बनाइ ।' कवि० २.१५ कहौं : आ०भ० उ० (सं० कषयिष्यामि >> प्रा० कसाविहिमि > अ० कसा विहिउँ ) | कसौटी पर कसाऊँगा, निकष-परीक्षण कराऊँगा । 'चित कंचनहि कसं हौं ।' विन० १०५.२ कसौटी : सं०स्त्री० (सं० कष -' - पट्टिका > प्रा० कसवट्टिआ > अ० कस पट्टी ) । निकष, सोना परखने का काला पत्थर । 'स्यामरूप सुचि रुचिर कसोटी, चित कंचनहि कसं हौं ।' विन० १०५.२ कस्यप : सं०पु० (सं० कश्यप ) । ऋषि विशेष जो प्राणिसृष्टि के आदि पुरुष हैंविशेषत: देव, दानव, दैत्य, नाग आदि के पिता के रूप में पुराण प्रसिद्ध हैं ।" मा० १.१२३.३ कस्यो : भू० कृ०पु०कए० । दृढ़ता से बाँधा । 'कटि तट परिकर कस्यो निषंगा ।" मा० ६.८६.१० Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 तुलसी शब्द-कोश कहें : अव्यय (१) (सं० कुत्र>प्रा० कहिं, कह) । कहाँ, किस स्थान पर । 'कहाँ लखनु कहें राम सनेही।' मा० २.१५५.२ (२) (सं० कृते=अ० केहिं) । के लिए, के प्रति, को । 'तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं।' मा० ३.१२.३ कहरत : वकृ०० । कष्ट-ध्वनि करते, कराहते, 'कहँ' ख करते । 'कहरत भटः घायल तट गिरे ।' मा० ६.८८.४ कह : (१) कहइ । कहता है । 'गाधिसून्ड कह हृदय हँसि ।' मा० १.२७५ (२) कहा । क्या । 'कहा लाभ कह हानि ।' विन० १६०.५ कहंत, ता : वकृ० पुं० (सं० कथयत् >प्रा. कहत) । कहता हुआ । 'सापत ताड़त 'परुष कहता।' मा० ३.३४.१ कह, कहइ, ई : (सं० कथयति-कथ वाक्य प्रबन्धे>प्रा० कहइ-कहना, वाक्य बोलना) आ०प्रए० । कहता है । 'उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ ।' मा० १.६८.८ 'सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई ।' मा० १.६६.७ कहउं, ऊँ : आ० उए० (सं० कथयानि>प्रा. कहमि>अ. कहउँ)। कहता हूं, कहती हूं। :तदपि एक मैं कहउँ उपाई ।' मा० १.६६.१ कहउ : आ०-संभावना-प्रए० (सं० कथयतु>प्रा. कहउ)। (कोई) कहे । ___'लोग कहउ गुर साहिब द्रोही ।' मा० २.२०५.१ कहत : कहंत । कहता, ते । 'कहत रामसिय रामसिय ।' मा० २.२०३ कहति : वकृ० स्त्री० । कहती। कह रही। मा० २.१६०.७ कहतु : कहत+कए । अकेला कह रहा । 'कहतु हौं सौहैं किएँ ।' मा० २.३०१छं० कहते : क्रियाति० पु०ब० । यदि कहते 'तो । 'जौं 'भजन प्रभाउ न कहते...।' विन० ६७.३ कहतेउ : क्रियाति० पु. उए । तो मैं कहता । 'कहतेउँ तोहि समय निरबहा ।' मा० ६.६३.७ कहन : भकृ० अव्यय (सं० कथयितुम्>प्रा० कहिउ>अ. कहण) । कहना, कहने (कह) । 'प्रभु सनमुख कुछ कहन न पारहिं ।' मा० ७.१७.४ 'लगे कहन हरि कथा रसाला ।' मा० १.६०.५ कहनि : सं०स्त्री० (सं० कथन >प्रा० कहण) । कहने की क्रिया । 'कहनि हीय मुख __राम ।' वैरा० १७ कहनी : किहनी । कहानी। कहब : भू००० (सं० कथयितव्य>प्रा० कहिअव्व) । कहना (है, होगा), कहा ___ जायगा । 'अब कछु कहब जीभ करि दूजी।' मा० २.१६.१ कहबि : कहव+स्त्री० । कहनी होगी । 'हमहुं कहबि अब ठकुर सोहाती।' मा० २.१६.४ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 149 'कहरत : कहरत । कहरि : पू० कृ० । कराह कर, व्यथा की ध्वनि निकाल कर, आर्त ध्वनि करके । 'ठहर-ठहर परे कहरि-कहरि उठे।' कवि० ६.४२ कहरी : वि० (अरबी-कहर=जबर्दस्ती करना)। बलात्कारी, संकटकारी, आकङ क ढाने वाला । 'गढ़ दुर्गम ढाहिबे को कहरी है।' कवि० ६.२६ कहरु : सं०पु० कए० (अरबी-कहर =बलात्कार) । आतङ क । 'डरत हौं देखि कलिकाल को कहरु ।' विन० २५०.४ कहसि, सी : आ०मए० (सं० कथयसि>प्रा० कहसि) । तू कहता-ती-है (तू कहे) । 'छोटे बदन बात बड़ि कहसी।' मा० ६.३१.७ कहहि, हीं : आ० (१) प्रब० (सं० कथयन्ति>प्रा० कहंति>अ. कहहिं)। वे __ कहते हैं । 'बचन कहहिं जनु परिमारथी ।' मा० ६.११००२ (२) उब० (सं० कथयामः>प्रा० कहामो>अ० कहहुं) । हम कहते हैं । 'सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं।' मा० २.२१०.३ कहहिंगे : आ०भ०० पूब । कहेंगे । 'क्यों कोसिकहि कहहिंगे।' गी० १.६६.१ कहहि : आo-आज्ञा-मए । तू कह । 'सत्य कहहि दस कंठ सब ।' मा० ६.२३ ख कहहुं : आ०- संभावना-प्रब० । वे कहें, कहा करें, कहते रहें। तो कहीं जानहुं नाथ।' मा० ७.१३.६ कहहु, हू : आ०मब० (सं० कथयथ, कथयत>प्रा० कहह>अ० कहहु)। कहो (कहते हो, कहती हो) । 'मधुकर कहहु कहन जो पारो।' कृ० ३४ 'हम सन सत्य मरम किन कहहू ।' मा० १.७८.३ कहाँ : कहूँ। किस स्थान पर। मा० २.१५५.२ कहा : (१) भू० कृ०० (सं० कथित>प्रा० कहिअ)। कथन किया। 'कहा बिविध बिधि ग्यान बिसेषा ।' मा० ७.१७.३ (२) सर्वनाम- नपुंसक । क्या । 'करइ त कहहु कहा बिस्वासा ।' मा० ७.४६.३ कहाइ, ई : पूकृ० (सं० कथापयित्त्व>प्रा. कहाविअ>अ० कहावि)। कहला कर । 'मोर दास कहाइ नर आसा करइ ।' मा० ७.४६.३ कहाउति : सं०स्त्री० (सं० कथोक्ति=कथालाप=कथावार्ता>प्रा० कहाउत्ति) । बातप्रिसंग में कथन, बात जीत में आई उक्ति । 'भरत कहाउति कही सुनाई।' मा० २.२६६.४ कहाउब : भकृ०० (सं० कथापयितव्य>प्रा० कहाविअन्व)। कहलाना, खयाति लेना । 'नाहिं त छाड़ कहाउब रामा ।' मा० १.२८१.२ कसाए, ये : भूकृ.पुं० । कहलाये । 'लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए ।' मा० ६.६६.८ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश कहा : (दे० कहा तथा धौं) । क्या भला, कैसे भला, क्यों कर । 'अबहीं ते सिखे कहाध चरित ललित सुत तेरे ।' कृ० ३ कहानी : सं०स्त्री० (सं० कथानिका > प्रा० कहाणिआ > अ० कहानी ) । (१) आख्यान । 'कहहिं पुरातल कथा कहानी ।' मा० २.१४९.२ ( २ ) वार्तालाप | 'ममता रत सन ग्यान कहानी ।' मा० ५.५०.३ ( ३ ) सप्रसंग वृत्तान्त | 'सुन राम बनबास कहानी ।' मा० २.२२४.८ 150 कहायहु : आ० – भू० कृ०पु० + म०ब० । तुम कहलाये । 'निज मुख तापस दू कहायहु ।' मा० ६.२१.६ कहाये : कहाए । = कहायो : भू० कृ०पु० ए० (सं० कथापित > प्रा० कहाविओ > अ० कहाविउ = कहावियउ) । कहलाया, कहा गया । 'नाम तुलसी पै भोड़ो तें कहायो दासु । कवि० ७.१३ कहार : सं०पु० (सं० कहार ? > प्रा० कहार, काहार - 'काहारो जलादिवाही कर्मकरः) । जल आदि ढोने वाली किंकर जाति विशेष । ( २ ) पालकी ढोने बाला । 'बिषम कहार मार मद माते ।' विन० १८६.३ कारन्ह : कहार + सं०ब० । कहारों (ने) । ' भरि भरि भार कहारम्ह आने ।' मा० २.१९३.३ कहारा : कहार । मा० १.३००.७ / कहाव, कहावइ : (सं० कथापयति > प्रा० कहावइ - कहलाना, कहा जाना, कहने को प्रेरित करना, ख्यात होना, नाम पाना) आ०प्र० । कहलाता है । कहाव : आ०उए । कहलाता हूं । 'कबि न होउँ नहि चतुर कहावउँ ।' मा० १.१२.६ कहावत :- वक०पु० (सं० कक्षापयत् > प्रा० कहावंत ) | कहलाता । 'लागेउ तोहि पिसाच जिमि कानु कहावत मोरा । मा० २.३५ कहावती : क्रियाति ० स्त्री०ए० । कहलाती । यदि तो कही जाती । 'घरही सती कहावती, जरती नाह वियोग ।' दो० २५४ कहावहि: आप्रब० (सं० कथापयन्ति > प्रा० कहावंति > अ० कहावहि ) । कहलाते हैं, कहे जाते हैं । 'ते नहिं सूर कहावहिं ।' मा० ६.२६ कहावा ( १ ) कहावइ । कहलाता है, कहा जाता है । 'जौं प्रभु दीन दयाल कहावा ।" मा० १.५६.६ (२) भकृ०पु० | कहलाया, कथन कराया । 'प्रेरि सतिहि जोहि झूठ कहावा । मा० १.५६.५ कहावौं : कहावउँ । कहलाऊँ, कहा जाऊँ, ख्याति पाऊँ । 'कहौं कहावों का अब स्वामी ।' मा० २.२६७.१ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश कहा : कहसि । कहते हैं । 'ब्रह्म लोक सब कथा कहाहीं ।' मा० ७.४२.५ कहि : (१) पूकृ० (सं० कथयित्त्वा > प्रा० कहिअ > अ० कहि ) । कह कर । 'तौ कहि प्रगट जनावहु सोई ।' मा० २.५०.६ (२) आ० - आज्ञा, प्रार्थना - म० । तू कह । 'जन की बिनती मानि मातु कहि, मेरे हैं ।' कवि० ७.१६४ कहिअ : आ० कर्मवाच्य - प्रए० (सं० कथ्यते > प्रा० कहीअइ ) । कहा जाय, 151 कहना चाहिए | 'इंद्रजालि कहुं कहिअ न बीरा ।' मा० ६.२६.१० कहिअत: वकृ० - कर्मवाच्य – पुं० । कहा जाता, कहे जाते । 'कहिअत भिन्न न भिन्न ।' मा० १.१८ कहिउँ : आ० - भूकृ० स्त्री० + उए० । मैंने कही । 'उमा, कहिउँ सब कथा सुहाई ।' मा० ७.५२.६ कहिए : कहिअ । 'सो सीतल कहिए जगमाहीं ।' वैरा० ४६ कहिबी : भकृ० स्त्री० (सं० कथयितव्या > प्रा० कहिभव्वा > अ० कहिअव्वी ) । कहनी ( चाहिए ) । 'कहिबी नाम दसा जलाइ ।' विन० ४१.३ कहिबे : भकु०पु० (सं० कथयितव्य > प्रा० कहिअव्वय) । कहने योग्य । 'कहिबे कछू कछू कहि जैहै ।' कृ० ४७ कहिबो : भकृ०पु०कए० (सं० कथयितव्यम् > प्रा० कहिअव्वं < अ० कहिव्बउ ) | कहना । 'समुह ही भलो कहिबो न रखा है ।' कवि० ७.५६ कहियत : अहिअत । 'मधुकर रसिक सिरोमनि कहियत ।' कृ० ५० कहियो : कहेहु । तुम कहना । 'पथिक कहियो मातु संदेसो ।' गी० २.८७.४ कहिसि : आ० भूकृ ० स्त्री० प्र० । उसने कही कहीं । 'कहिसि कथा सत सवति कं ।' मा० २.१८ (सं० कहिहउ : आ०भ० उ० कहूंगा । 'कहिउँ नाइ कथथिव्यामि >> प्रा० कहिहिम > अ० कहिहिउँ ) | राम पद माथा ।' मा० १.१३.६ - कहिहहि :- आ० भ० प्रब० (सं० कथयित्यप्ति > प्रा० कहिहिति >> अ० कहिहिहिं ) | कहेंगे 'कहिहहि सुनिहहिं समुझि सचेता ।' मा० १.१५.१० कहिहि : आ०म०प्र० (सं० कथयिष्यति > प्रा० कहिही, कहिहिइ ) | कहेगा | 'गिरि जड़ सहज कहिहि सब लोगू ।' मा० १.७१.५ कहिहु : आ०भूकृ० स्त्री० + मब० । तुमने कही ( थी ) । 'स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं ।' मा० २.२२.४ कहिहैं : कहिहहि । कहेंगे, बातचीत करेगे । 'आपुस में कछु पं कहिहैं ।' कवि० २.२३ कहि है : कहिहि । कहेगा-गी । 'क्यों कहिहै बर नारी ।' कृ० ६ ॥ कहिौं : कहिहउँ । 'और मोहि को है, कहि कहिहौं ।' विन० २३१.१ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 तुलसी शब्द-कोश कहीं : (१) भूक स्त्री०बहु० । 'कहीं कथा उपदेस बिसेषी।' मा० ४.२६.११ (२) अव्यय । किसी स्थान पर । 'परै न कल कहीं।' कवि० ७.६८ कही : भूक०स्त्री० । वणित की। तब हनुमंत कही सब राम कथा।' मा० ५.६ कहीजै : आ०-कर्मवाच्य-प्रए० (सं० कथ्यते>प्रा० कहिज्जइ) । कहा जाए। "होहिं त क्यों न कहीजें ।' गी० ३.१५.४ कहुं : अव्यय (१) कहीं (कहाँ+हुं) । 'सोभा असि कहुं सुनि अति नाहीं।' मा० १.२२०.६ (२) को, के लिए, के प्रति (=कह) । ‘राज देन कहुं सुभ दिन साधा।' मा० २.५४.७ कह : आo-आज्ञा-मए० (सं० कथय>प्रा० कहः>अ० कहु) । तू कह । 'कहु कारनु निज हरष कर ।' मा० १.२२८ कहूं : कहुं। कहीं पर । 'तुलसी कहूं न राम से साहिब सील निधान ।' मा० १.२६क कहें : (१) कहने से । 'कहें कथा तव परम अकाजा ।' मा० १.१६६.१ (२) कहने में । 'जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे ।' मा० २.५०.५ कहे : (१) भूकृ.पु० (बहु०) (सं० कथित>प्रा० कहिय) । वणित किये । 'जहँ लमि कहे पुरान श्रुति ।' मा० १.१५५ (२) कहें। कहने से, पर । 'जौं न चलब हम कहे तुम्हारें ।' मा० १.१६६.७ कहे, ॐ : आ० भूकृ००+उए । मैंने कहा-कहे। 'अवसर पाइ बचन एक ' कहेऊँ ।' मा० १.१८५.४ कहेउ, ऊ : भूकृ.पु०कए० (सं० कथितम् >प्रा० कहिअं>अ० कहिउ=कहियउ)। __कहा । 'कहेउ, पुत्रवर मागु ।' मा० १.१७७ कोन्हि : आ० भूकृपु+प्रब। उन्होंने कहा-कहे। 'देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना ।' मा० २.४०.७ कहेसि : (१) आ०-भूकृ००+प्रए । उसने कहा । 'पातकिनि कहेसि कोफ्गृहें जाहु ।' मा० २.२२ (२) उसने कहे । 'कहेसि अमित आचरज बखानी।' __मा० १.१६३.६ कहेसु : आ०भ०+आज्ञा–मए । तू कहना। 'कहेसु जानि जियें सयन बुझाई।' मा० ४.१.४ कहेहं, हूँ : कहने से भी, कहने पर भी। ‘मातु कहेहुं बहुरहिं रघुराई । मा० २.२५३.४ कहेहु, हू : आ० (१) भूकृ००+मब० । तुमने कहा । 'कहेह नीक मोरेहुं मन ___ भावा ।' मा० १.६२.१ (२) भ०+आज्ञा+मब । 'तुम कहना। कहेहु मोरि सिख अवसरु पाई।' मा० २.८२.३ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 153 कहैं : कहहिं । (१) वे कहें, कहते हैं । 'ऊधो हैं बड़े, कहैं सोइ कीजै ।' कृ० ४६ (२) हम कहें, कहते-ती-हैं । 'कोटि जतन करि सपथ कहैं हम।' कृ०६ कहै : (१) कहइ। कहे, कह सकता है, (कहता है) । पाँवरन्हि की को कहै।' मा० १.८५.छं० (२) भकृ० (सं० कथयितु >प्रा०कहिंउ)। कहने । 'कथा पुरातन कहै सो लागा।' मा० १.१६३.४ कहैगो : आ०-भ०पु०-प्रए । कहेगा। अपने-अपने को तो कहैगो घटाइ को।' __ कवि० ७.२२ कहैया : वि० कहने वाला। कवि० १.१६ कहैहौं : आ० भ० उए। कहलाऊंगा। 'यह छरमार ताहि तुलसी जग जाको दास __ कहैहौं ।' विन० १०४.४ कहो : कह्यो । कवि० ७.६१ कहौं : कहउँ । कहूं। 'कहौं कहावौं का अब स्वामी ।' मा० २.२६७.१ (२) कह सकता-ती हूं। 'स्याम गौर किमि कहौं बखानी ।' मा० १.२२६.२ (३) कहता ती हूं। 'गोरस हानि सहौं, न भहौं कछु ।' कृ० ३ कहौंगो : आ०भ.पु.उए० । कहूंगा। 'बहोरि न खोरि लगै, सो कहौंगो।' कवि० ७.१४ कहौ : कहहु । 'सकल कहो समुझाइ ।' मा० ३.१४ कहोगी : आ०भ०स्त्री०मए । तुम कहोगी। गी० १.७२.३ कहो : (१) कहेउ । कहा । 'कहो है पछोरन छूछो।' कृ० ४३ 'मुख कोटिहू न पर कह्यो ।' मा० १.६६ छं० (२) कहा हुआ तथ्य । 'कह्यो मेरो मानि । कृ० १७ (३) कहेहु । तुमने कहा । 'आक दुहन तुम कह्यो।' कृ० ५१ ।। कांकर : सं०पु० (सं० कर्कर=कठोर, कर्कर= काँटा>प्रा० कक्कर, कक्कड। सं० कङ करत=कवच>प्रा० कंकड़ । सं० कक्करत.>प्रा० ककङ्खड-कठोर)। एक प्रकार का प्रस्तर तुल्य कठोर भूमिज खण्ड विशेष, कंकड़। मा० २.६२.५ कांकरी : कांकर+स्त्री०ब० । कंकड़ियाँ। 'कुस कंटक काँकरी कुराई।' मा० २.३११.५ कोकिनी : काकिनी । कौड़ी। विन० १४३.५ कांख : सं०स्त्री० (सं० कक्ष, कक्षा>प्रा० कक्ख, कक्खा) । बगल, भुजमूल का नतोदर भाग । मा० ६.२४ कांच : सं०० (सं० काच>प्रा० कच्च) । शीशा, पारदर्शी धातु विशेष । मा० . ७.१२१.१२ कामचनि : श्रेष्ठ काँच (कांच को काचमणि भी कहते हैं) । गी० २.२.३ कांचहि : कांच को। कंचन कांचहि सम गर्न ।' वैरा० २७ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 तुलसी शब्द-कोश कांचा : कांच । मा० ७.२७.६ काँच : कांचहि । 'सम कंचन काँचै गिनत ।' वैरा० ३१ काँचो : कांच भी । 'मनि कनक संग लघु लसत बीच बिच कांचो।' विन० २७७.२ कांजी : सं०पू० (सं० काजिक>प्रा. कंजिअ) । दही का तोड़ । मा० २.२३१ काँट : सं•पु० (सं० कष्ट) । काँटा । विन. १८६.४ काँठे : (सं० कण्ठे उपकण्ठे) किनारे, समीप, सीमा पर । 'प्रभु आइ परे सुनि ___ सायर काठे ।' कवि० ६.२८ काँड़ि : पूकृ० (सं० कण्डित्वा>प्रा० कंडिअ>१० कंडि)। कूट कर, छट कर । 'भारी-भारी राउरे के चाउर से कांडिगो ।' कवि० ६२४ काँधी : पूकृ० । कन्धे पर उठाकर, धारण कर । 'उठि सुख पितु अनुशासन कांधी।' मा० १.१८२.३ कांधे : कन्धे पर । 'धनुष बाम बर काँधे । मा० १.२४४.१ काँध्यो : भूक०० कए० । कन्धे पर उठाया, आर लिया । 'सकत संग्राम दसकंध __कांध्यो।' कवि० ६.४ कापहि : आ०प्रब० (सं० कम्पन्ते>प्रा० कंपति>अ० कंपहिं) । कांपते हैं। 'थर थर काँपहिं पुर नर नारी।' कॉपी : भूक स्त्री० । कम्पित हुई । मा० २.५४.४ काँपु : भूक००कए । थरथराया, कांपने लगा । 'कांपु तन थर-थर ।' पा०म० ६२ ('शरीर में कम्प' अर्थ लें तो--) सं००कए । कपकपी। कांवरि : सं०स्त्री० (प्रा० कावडिआ) । बहंगी। 'भरि-भरि कांवरि चले कहारा ।" मा० १.३०५.६ का : प्रश्नार्थक सर्वनाम (सं० किम्>प्रा.क.>०० =का)। क्या । 'कहीं कहावों का अब स्वामी।' मा. २.२६७.१ (२) क्या =कोन-सा।'का अपराध रमापति कीन्हा ।' मा० १.१२४.७ (३) क्या=क्यों। 'का अनमनि हसि, कह हंसि रानी।' मा० २.१३.५ (४) किस । 'तुम्ह तें अधिक पुन्य बड़ काकें ।' मा० १.२६४.६ (५) सम्बन्धार्थक परसर्ग पु०कए. । 'एहिं बिआह अति हित सबही का।' मा० १.२२३.१ (६) ध्वनिविशेष । 'का का कररत काग।' दो० ४३६ कांति : सं०स्त्री० (सं० कान्ति) । आभा, ज्योति, छवि । गी० २.१६.१ काई : सं०स्त्री०। (१) एक प्रकार की घास जैसी वस्तु जो गन्दे जलाशयों का पानी ढक लेती है। 'काई कुमति केकई केरी।' मा० १.४१.८ (२) मोर्चा, मल । 'काई बिषय मुकुट मन लागी।' मा० १.११५.१ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 155 काउ, काऊ : अव्यय (सं० कदापि>प्रा० कआवि) । कभी । 'मोरे हृदय कृपा कसि काऊ।' मा० १.२८०.२ 'सन्मुख चितव कि काउ ।' मा० ६.६४ काक : संपुं० (सं०) । कौआ पक्षी। मा० ७.५४ काकपच्छ : सं०० (सं० का कपक्ष) । बालकों के (विशेषत: क्षत्रियों के) घुघराले केश जो कानों की ओर खिचे लटकते रहते हैं। काकुला । 'काकपच्छ घर, कर कोदंड सर ।' गी० १.५४.१ काकभुसुंड, डि, डी : काकविशेष जिसकी कथा उत्तरकाण्ड में है। काकसिखा : (सं० काकशिखा)=काकपच्छ । गी० १.६६.३ काकिनि, नी : संस्त्री० (सं० काकिनी, काकिणी)। कौड़ी। कवि० ७.१५५ काकु, कू : सं०स्त्री० (सं० काकु) । (१) परिवर्तित कण्ठध्वनि, ताना, भावावेश में बदले हुए स्वर से कथन ।' जारिउं जायें जननि कहि काकू ।' मा० २.२६१.६ (२) कहने की रीति जिससे विपरीत अर्थ व्यक्त होता है । 'कहियत काकु कूबरी हूं कौं, सो कुबानि बस नारी ।' कृ० २७ कावासोती : वि० (सं० कक्षाश्रोत्रिक>प्रा. कवखासोत्तिम) । एक ओर काँख के नीचे और दूसरी ओर कान के नीचे (कन्धे पर) धारण किया हुआ । 'पिअर उपरना काखसोती।' मा० १.४१ काग, गा : काका । मा० १.४१ कागद : सं० । काग़ज, पत्र । मा० १.६.११ कागभुसुडि : काकभुसुडि । मा० ७.५३.८ कागर : सं०० । पंख । कवि० २.२ काग : काग+कए। एक कौआ, कोई कौआ । 'बैनतेय बलि जिमि यह काग ।' मा० १.२६७.१ काचा : वि०पू० । कच्चा, कोमल । अपक्व । मा० ५.३७.१ काचे : 'काचा' का रूपान्तर । कच्चे । 'काचे घट जिमि डारौं फेरी।' मा० १.२५३.५ काचो : काचा+कए० । कच्चा (बिना पकाया हुमा) । 'सहबासी काचो गिलहिं ।' दो० ४०४ काछिस : आ०-कर्मवाच्य-प्रए० । पहना जाए, परिधान सजाया जाय । 'जस काछि. तस चाहिअ नाचा।' मा० २.१२७.८ काछे : क्रि०वि० । परिधान सजाए, पहने हुए (मुद्रा में) । 'मुनिबर वेष वने अति काछे।' मा० ३.७.२ काछे : भू००० (सं० कक्षित>प्रा० कच्छिय) ब० । पहने । चौतनी चोलना काछे।' गी० १.७४.१ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 तुलसी शब्द-कोश काज : सं०० (सं० कार्य>प्रा० कज्ज)। काम, कर्म । (१) 'कल्यान काज बिबाह मंगल...।' मा० १.१०३ छं (२) प्रयोजन, साध्य, लक्ष्य । 'जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ ।' मा० १.४.१ (३) उपयोग, पात्रता, अहता । 'बरिबे कौं बोले बैदेही बर काज के ।' कवि० १.८ काहिं : काम में । 'निज निज काजहिं लाग ।' मा० २.६ काजा : काज । मा० २.७.२ काजु, जू : काज+कए। एक भी कार्य । 'कानन काह राम कर काजू ।' मा० २.५०.२ /काट, काटइ : (सं० कृन्तति-कृती छेदने>प्रा० कट्टइ-काटना, छिन्न करना) आ०प्रए । काटता है । 'काटइ निज कर सकल सरीरा।' मा० ६.२६.१० काटत : वक०पु० (सं० कृन्तत् >प्रा० कट्टत)। काटता, काटते । 'काटत सिर होइहि बिकल ।' मा० ६.६६ काटन : सं०० (सं० कर्तन>प्रा० कट्टण) । उच्छेदन, खण्डन । गर्भ के अर्भक काटन को पटुधार ।' कवि० १.२० काहिं : आ०प्रब० (सं० कृन्ताति>प्रा० कट्टंति>अ. कट्टहिं)। काटते हैं । 'मारहिं काटहिं धरहिं परारहि ।' मा० ६.८ १.५ काटा : भू००० (सं० कृत्त>प्रा० कट्ट) । विच्छिन्न कर डाला । 'पालव बैठि __ पेड़, एहिं काटा।' मा० २.४७.५ काटि : पूकृ० । काटकर । 'भुजा काटि महि पारी।' मा० ६.७०.१० काटिअ : आ० कर्मवाच्य-प्रए । काट डालिए । 'काटिअ तासु जीभ जो बसाई।' मा० १.६४.४ काटिए : काटिअ (सं० कृत्यते >प्रा० कट्टीअइ) । 'काटिए न नाथ बिषहू को रूख ___ लाइ के ।' कवि० ७.६१ काटियतु : वक०० कए । काटा जाता । 'सुरतरु काटियतु है ।' कवि० ७.६६ काटी : भूकृ० स्त्री० । खन्डित कर डाली। एक बान माया सब काटो।' मा० ६.५२.७ काटु : आ० आज्ञा–मए । तू काट डाल । 'धरु मारु काट पछारू ।' मा० ६.८१.छं० २ काटे : (१) काटने से । 'काटें सीस कि होइन सूरा।' मा० ६.२६.६ (२) काटने पर । 'काटें भुजा सोह खल कैसा।' मा० ६.७०.११ ।। काटे : भूकृ० पु. (बहु०) । खलित किये । मा० ३.१६ ख काटोसि : आ०-भूकृ पु+प्रए । उसने काटा, काटे । 'काटेसि पंख परा खग धरनी।' मा० ३.२६.२२ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश काहि : काटने पर ही ।' काहि पं कदरी फरह मा० ५.५८ का : भ० (सं० कर्तितुम् > प्रा० कट्टिउं) । काटने । 'श्रवन नासिका का लागे ।' 157 ५.५४.४ कार्ट : काटइ । काटे, छिन्न करदे । 'जौं सपनें सिर का कोई ।' मा० १.११८.२ काठ : सं०पु० (सं० काष्ठ > प्रा० कट्ठ) । लकड़ी । मा० २.१००.५ काढ़त : वकृ पु ं० (सं० कर्षत् > प्रा० कढत) । (१) खींचता खींचते । 'प्रति उत्तर ससिन्ह मनहुं काढ़त भट दस सीस ।' मा० ६.२३० (२) निकालता - ते 'काढ़त दंत करंत दृहा है ।' कवि० ७.२६ 1 , काढून भकृ० (सं० क्रष्टुम् > प्रा० कड्दिउ > अ० कड् ढण) | निकालने, खींचने । 'निदरि लगे बहु काढ़ना ।' विन० २१.१ काहि : आ० प्रब० (सं० कर्षन्ति > प्रा० कड्ढति > अ० कइहि) निकालते हैं, खींच बाहर करते हैं । 'कथा सुधा मथि काढ़हिं ।' मा० ७.१२० क काढ़ा : भूकृ० पु ं० (सं० कृष्ट > प्रा० कड्ढ, कड्ढिअ ) । निकाला । 'सो जनु हमरे मायें काढ़ा ।' मा० १.२७६.३ (२) खींचा, रेखाङ्कित किया । ' मानहुं चित्र माँ लिखि काढ़ा ।' मा० ३.१०.२४ काढ़ि : पूकृ० । (१) निकाल कर । 'निज कर नयन काढ़ि चह दीखा।' मा० २.४६.३ (२) खींच कर । 'तब मैं मारबि काढ़ि कृपाना ।' मा० ५.१०.६ काढ़ि : आ० कर्मवाच्य - प्रए० । निकालिए, खींच बाहर कीजिए। 'बिहगराज बहन तुरत काढ़ि मिटं कलेस ।' दो० २३५ काढ़ी : भूकृ० स्त्री०ब० । निकालीं, उरेहीं, उत्कीर्णकीं । 'सुरप्रतिमा खंभन गढ़ि काढ़ीं । मा० १.२८८.६ काढ़ी : भूकृ० स्त्री० । (१) निकाली । 'समय बिचारि पत्रिका काढ़ी ।' मा० ५.५६.८ (२) उरेहीं (चित्रित की या उत्कीर्ण की ) । 'मनहुँ चित्र लिख काढ़ी ।' गी० २.५५.५ काढ़ें : क्रि०वि० | निकाले हुए ( मुद्रा में ) । 'कहाँ लौं कहीं केहि सों रद काढ़ें ।" कवि ० ० ७.२४ 1 काढ़े : भूकृ०पु० ( ब०) । (१) निकाले, खींच बाहर किए । 'मीन दीन जनु जल तें काढ़ें ।' मा० २.७०.३ (२) ( रेखाओं में ) खींचे, उरेहे । 'जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढ़ें ।' मा० २.८४.१ काढ़ोसि : आ - भूकृ पु० + प्र० । उसने निकाला, खींचा। 'काढ़ेंसि परम कराल कृपाना ।' मा० ३.२६.२१ = काढ़ें : काढ़हि । निकालते हैं - बाहर करते हैं । 'एक काढ़े सौंजा ।' कवि० ६.६ काढ़ो : काढ्यो । निकाला = बाहर किया । 'सब असबाबु डाढ़ो, मैं न काढ़ो तैं न क. ढ़ो ।' कवि० ५.१२ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 तुलसी शब्द-कोश काढ़ी : आ. मब० । निकालो। 'एक करै धौंज, एक कहैं काढ़ी सौंज।' कवि काढ़ यो : भूकृ०० कए० । निकाला, खींचा। ‘रोषि बानु काढ़ यो न दलैया दससीस को।' कवि० ६ २२ | कातरि : (१) वि०स्त्री० (सं० कातर)। दीन, विकल ।' देखि परम कातरि महतारी ।' मा० २.६६.१ (२) सं० स्त्री (सं० कर्तरी>प्रा० कप्तरी)। कृपाण । 'तोरि जम कातरि मंदोदरी कढ़ोरि आनी।' (दे० जम कातरि) हनु० २७ कातिबो : भकृ० पु० कए० । कातना (चर्खा या तकली से सूत निकालना)। 'करषि कातिबो नान्ह ।' दो० ४६२ कादर : वि.पु. (सं० कातर> शौरसेनी प्रा० कादर)। कायर, क्लीब, पौरुष ___ हीन । 'ननि मन गुनहु मोहि करि कादर ।' मा० ६.६.७ कान : सं०० (सं० कर्ण>प्रा० कण्ण) । श्रवण । मा० १.१५६.८ कानन : सं०० (सं.)। वन । मा० १.१६१ क काननचारी : वि.पु. (स.)। (१) वन में विचरण करने वाला । मा० ३.११.१८ (२) वन्य, जङ्गली (जीव) । 'धन्य विहगम्त्र कानन चारी ।' मा० २.१३६.२ काननि : कानन्हि काननु : कानन+कए० । अद्वितीय वन । 'सुन्दर गिरि काननु जलु पावन ।' मा० २.१२४.६ कानन्हि : कान+संब० । कानों (में) । 'कानन्हि कनक फूल छबि देहीं।' मा० १.२१६.७ काना : कान । मा० १.४.६ कानि, नी : सं० स्त्री० । (१) आदर, मान्यता । 'तू जो हम आदर्यो सोती नव कमल की कानि ।' कृ० ५२ (२) स्वाभिमान, प्रतिष्ठा । ‘रहइ न सीलु सनेहु न कानी ।' मा० १६२.२ ४ (३) साख प्रसिद्धि । 'कबि कुल कानि मानि सकुचानी ।' मा० २.३०३.७ काने : (१) कान+अधिकरण (सं० कर्णे>प्रा० कण्णे) । कान में । 'काने कनक तरीवन ।' रा०न० ११ (२) वि.पु०ब० (सं० काणाः) । एकाक्ष । 'काने खोरे कूबरे।' मा० २.१४ कान्ह : सं०पु० (सं० कृष्ण>प्रा० कण्ह) । अवतारी कृष्ण ।' हेरि कान्ह गोबर्धन चढ़ि गया।' कृ० १६ काम : (१) सं०० (सं.)। कामदेव+अन्तः शत्रु विशेष । मा० १.८४; १.३२.७ (२) काम सुख भोग, भोग विषय, काम वासना । किंकर कंचन कोह Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश ... 159 काम के ।' मा० १.१२.३ (३) कामना, फलासक्ति । 'जे बिनु काम राम के चेरे ।' मा० १.१८.४ (४) साध्य, प्रयोजन । 'तेहि तेही सन काम ।' मा० १.८० (५) कामना=मनोरथ । 'अब पूरे सब काम हमारे ।' मा० १.१४६.२ (६) सौन्दर्य गतिरेक की व्यञ्जना हेतु विशेषण रूप में कामदेव । 'काम कलभ ।' मा० १.२३३.७ (७) (सं० कर्म>प्रा० कम्म) । कार्य । 'धाए धाम काम सब त्यागी।' मा० १.२२०.२ कामकाज : प्रयोजन, उपादेयता, सार्थकता । 'पाल्यो नाथ, सहा सो-म्रो भयो काम काज को।' कवि० ७.१३ कामकेलि : काम क्रीडा=रतिविहटर । (२) कामदेव की क्रीडा । 'कामकेलि बाटिका बिबुध बत।' गी० २.४६.७ कामकृत : कामजनित, कामदेव द्वारा उत्पादित ।' मा० १.८५.छं० कामतरु : कामना पूर्ति करने वाला वृक्ष =कल्पतरु । मा० १.२७.५ कामता : चित्रकूट में 'कामतानाथ' तीर्थ । विन० २४.६ कामद : वि० (सं०) । मनोरथ (काम) का दाता-यथेष्ट दाता या दात्री। 'कामद भेद गिरि राम प्रसाद ।' मा० २.२७६.१ ‘राम कथा कलि कामद गाई।' मा० १३१.७ कामदुधा कामवुहा : सं०स्त्री० (स.) । कामना पूरक धेनु, देवधेनु, कामधेनु । मा० १.३२६.४ कामधेनु : स्वर्ग की गो विशेष जो कल्प वृक्ष के समान सभी कामनाओं की पूर्ति करती है । मा० १.१५५.१ कामधुक : कामदुप्पा (सं०) कामदुह,- कामधुक् । कवि० ७.११५ कामना : स०स्त्री० (सं०) । इच्छा, लिप्सा । मा० १.२२ कामबेलि : (सं० कामवल्ली>प्रा० कामवेल्ली)= कल्पलता। गी० २.३४.२ कामभूरुह : कामतरु । विन० १५२.१३ कामरि : सं०स्त्री० (सं० कम्बली)। कमली, छोटा कम्बल । 'तुलसी त्यों-त्यों होइगी गरुई ज्यों-ज्यों कामरि भीजै ।' कृ० ४६ कामरिपु : कामदेव के शत्रु-शिवजी । मा० १.१०७.१ कामरूप : वि० (सं०) । इच्छानुसार रूप धारण करने की शक्ति वाला । 'कामरूप सुन्दर तन धारी।' मा० १.६४.५ कामसुकु : सं००कए । कामक्रीडा जनित सुख । मा० १.८७.८ कामसुरभि : कामधेनु । मा० १.३३१.२ कामा : काम । मा० ४.१५.१० Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 तुलसी शब्द-कोश कामादि, कामादिक : षड्वर्ग — काम, क्रोध, लोभ मोह, मद, मत्सर । मा० - १.१५४, १.३७.६ कामारिनी : कामरिपु । शिव । मा० १.१२० क, १.३१५.२ कामिनि : सं० स्त्री० (सं० कामिनी) । प्रमदा, स्त्री । गी० २.५.१ कमिन्ह : कमी + संब । कामियों ।' कामिन्ह के दीनता देखाई ।' मा० ३.३६.२ कामहि : कामी को । 'कमिहि नारि पियारि जिमि । मा० ७.१३० ख कामी : वि० (सं०) । (१) विषयी, विषयों की कामना रखने वाला । 'संतसंग अपवर्ग कर, कामी भवकर पंथ ।' मा० ७.३३ (२) भोगा सक्त, यौन उत्ते - जनाओं से युक्त । 'कामी बचन सती मनु जैसे ।' मा० १.२५१.२ कामु : काम + कए० । कामदेव । मा० १.८६.२ कामो : काम भी । 'सकुचत समुझि नाम महिमा मद लोभ मोह कोह कामो । विन० २२८.२ कायँ : काय से, शरीर से । 'कायँ बचन मन पति पद प्रेमा ।' मा० ३.५१० काय : सं०पु० (सं०) । शरीर । मा० ७.८७.८ कायर : वि० (सं० कातर > प्रा० कायर) । कादर । मा० १.२७४ काया : काय । ५.५६.६ कार : ( समासान्त में ) (१) कारक, करने वाला (२) ध्वनि, शब्द | 'हाहाकार'" मा० १.८७.७ ‘जयजयकार' मा० ६.७६ आदि । कारक : कर्ता (सं० ) । विन० ६०.७ कारज : सं०पु० (सं० कार्य ) = काज । ( १ ) प्रयोजन । 'प्रभु सुर कारज कीन्ह ।" मा० १.१२३ (२) धन्धा, व्यवसाय । 'गृह कारज नाना जंजाला ।' मा० १. ३८.८ (३) कार्य-कारण सम्बन्ध में उपादान से निर्मित वस्तु । कारजु : कारज + कए । 'कारन तें कारजु कठिन ।' मा० २.१७६ कारन : सं०पु० (सं० कारण) । (१) निमित्त हेतु । ' तेहि कारन आवत हियँ हारे । ' मा० १.३८.५ ( २ ) उपादान । ' कारन तें कारजु कठिन ।' मा० २. १७९ ( ३ ) प्रयोजन । 'करहु कवन कारन तपु भारी ।' मा० १.७८.२ कारनी : सं०पु० । कारण समूह, प्रेरक कारण । ( अवधी में) छिपकर प्रतिकूल कर्म की प्रेरणा देने वाला या बखेड़ा पैदा करने वाला । 'काल करम कुल कारनी कोऊ न कोहातो ।' विन० १५१.४ कारनु : कारन + कए० । एक कोई कारण | 'कारनु कवनु बिसेषि ।' मा० २.३७ कारमन: सं०पु० (सं० कार्मण) । जादू-टोना, इन्द्रजाल, माया, मारण आदि अभिचार-कर्म । 'कारमन कूटकृत्यादिहंता ।' विन० २६.७ (दे० करमन) । कामुक : सं०पु० (सं० कार्म ुक) । धनुष । मा० ६.६३.५ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 161 कारागृह : सं०० (सं०) । बन्दीघर, जेल । विन० १३६.२ कारिख : सं०० । कालिख, धुएं आदि से बनी स्याही, कज्जली । 'धूम कुसंगति कारिख होई।' मा० १.७.११ कारिखी : सं० स्त्री० । कारिख । 'न लागे मुह कारिखी।' मा० १.१५ कारिनि : (समासान्त में) वि०स्त्री० (सं० कारिणी)। करने वाली । 'भव भव बिभव पराभव कारिनि ।' मा० १.२३५.८ कारी : (१) (समासान्त में) वि०० (सं० कारिन्) । करमे वाला। 'अंड कटाह अमित लय कारी।' मा० ७.६४.८ (२) वि०स्त्री० । काली, कृष्ण वर्णा । 'सो जनु जलदघटा अति कारी ।' मा० ६.१३.५ कारुणीक : वि० (सं० कारुणिक) । कृपालु । मा० ७.२ श्लोक ३ कारुनीक : कारुणीक । मा० ६.३७.२ कारून्य : सं०पु० (सं० कारुण्य)। करूणा, दया । 'नीलकंठ कारुन्यसिंधु ।' गी. १.८०.१ कारे : वि.पु. (सं० कालक>प्रा० कालय)। काले, कृष्ण वर्ण । 'महाबीर निसिचर सब कारे।' मा० ६.४६.७ कारो : वि०पू० (सं० काल:>प्रा० कालो) कए० । काला । 'बदन करम को कारो।' गी० २.६७.२. ... .. काल : सं०० (सं०)। (१) मृत्यु । 'नाथ सकल जग काल कलेबा।' मा० ७.६४.७ (२) समय (वर्तमान, भूत, भविष्यत्) । 'चहुं जुग तीनि काल तिहुं लोका ।' मा० १.२७.१ (३) दर्शन में पदार्थ विशेष । 'काल सुभाउ करम बरिआईं।' मा० १.७.२ (४) यमराज । 'जनु कालदूत उलूक बोलहिं ।' मा० ६.७८ छं० (५) वैष्णव तत्त्व विभाग में तत्त्वविशेष-मा० ७.२१ कालउ, ऊ : काल भी। यमराज या मृत्यु भी । 'कालउ तुअ पद नाइहि सीसा।' मा० १.१६५.२ कालकूट : सं०० (सं.)। हालाहक, विष । मा० १.१६.८ कालकटमुख : वि० (सं.)। (१) जिसके मुह में विष हो=सर्प आदि (२) विष देने योग्य मुख वाला (३) विष तुल्य वचन बोलने वाला । 'कालकूटमुख पय मुख नाहीं।' मा० १.२७७.७ कालकूट : कालकूट+कए० । कवि० ७.१५८ कालकेतु : एक राक्षस का नाम । मा० १.१७०.३ कालगहा : वि० (सं० कालगृहीत>प्रा० कालगहिअ)। मौत द्वारा जकड़ा हुआ, मुमूर्ष । 'राखि बिभीषन को सके, अस काल-गहा को।' विन० १५२.६ कालछेप : सं०० (सं० कालक्षेप) । समय काटन, निर्वाह । 'कालछेप केहिबिधि करहिं ।' दो० ४०४ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 तुलसी शब्द-कोश कालदंड : यमराज का दंड=जरा, व्याधि, मरण ।' मा० ७.१०६.१३ कालदूत : यमदूत । जरा, रोग आदि । मा० ६.७८ छं० कालनाथ : काल-भैरव । कवि० ७.१७१ ।। कालनिसा : (दे० निसा) (१) काली अँधेरी रात (२) यमराज की बहिन का नाम (३) अमावस्या की रात (४) आयु के ७७वें वर्ष के सातवें मास की सातवीं रात जो मारक मानी गई है (५) प्रलय । 'कालनिसा सम निसि ससि भानू ।' मा० ५.१५.२ कालनेमि : एक राक्षस का नाम । मा० ६.५६.२-३ कालराति : कालनिसा (सं० कालरात्रि) । 'कालराति निसिचर कुल केरी।' मा० ५.४०.८ कालरूप : मृत्यु रूप, मर्स मृत्यु, सर्वथा विनाशकारी। मा० ६.४८ ख कालसर्प : (१) काले सांप (२) मृत्यु रूपी सर्प । 'कालसर्प जन चले सपच्छा।' मा० ६.६८.३ कालहि : काल को । 'कालहि मिथ्या दोष लगाइ।' मा० ७.४३ कालहु : काल भी। 'कालहु कर काला ।' मा० ५.३६.१ काला : काल । मा० १.६०.५ कालि : अव्यय (सं० कल्य, कल्लि)। कल, आगामी प्रातः । मा० २.११.४ कालिका : सं०स्त्री० (सं.)। दुर्गा, महामाया=दुर्गा का तामस रूप। मा० १.४७.६ कालिमा : सं०स्त्री० (सं०पु०-प्रा० स्त्री०) । कालापन, स्याही, कलर क । गी. २.६२.१ काली : (१) कालि । कल। 'सुने जे मुनि सँग आए काली।' मा० १.२६६.४ (२) कालिका (३) काले रंग वाली। 'लंकाँ कोलुप लंकिनी काली काल कराल ।' रा०प्र० ५.२.३ । कालीना : वि० (सं० कालिक-कालीन ?) । समय वाला।' ग्यानी गुन-गृह बहु कालीना।' मा० ७.६२.३ कालु, लू : काल+कए । (१) मृत्यु (२) समय । 'कालु सदा दुरतिक्रम भारी।' मा० ७.६४.८ . काल्हि : कालि । कल, पिछले सबेरे । 'बालि दन्नि काल्हि जलजान पाषान किये।' कवि० ६.१६ काव्य : सं०० (सं०) । कविकर्म जिसमें शब्द और अर्थ की संप.क्त रचना रहती है। विन० २८.५ काशी : सं०स्त्री० (सं०) । वाराणसी तीर्थ । मा० ६ श्लोक २ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश कास : सं०पु० (सं० काश ) । एक प्रकार की ऊँची घास । मा० ४.१६.२ कासी : काशी में । 'कासीं भरत परम पद लहहीं ।' मा० १.४६.४ कासी : काशी । मा० १.६.८ कासीनाथ : शिव । कवि० ७.१६५ कासीपति : शिव । विन० १३.६ 163 कासीस : (सं० काशीश ) । शिव । विन० ६.५ कासु : सर्वनाम (सं० कस्य > प्रा० कस्स > अ० कासु) । किसका-की- के । 'कहि होइ भल कासु भलाई ।' मा० २.२६७.७ काह : प्रश्नार्थक (नपुंसक ) सर्वनाम । क्या । 'कानन काह राम कर काजू ।' मा० २.५०.२ काहली : वि० (अरबी – काहिल = सुस्त ; काहली = सुस्ती ) । काहिल, सुस्त, आलसी, निकम्मा । ‘मो से दीन दूबरे कपूत कूर काहली ।' कवि० ७.२३ काहा : काह | 'जाइ उतस अब देहउँ काहा ।' मा० १.५४.२ काहि : (१) किसको, किससे । 'काहि कहै केहि दूषनु देई ।' मा० २.२७३.१ काहू करि गर्ने, मित्र गर्ने नहि काहि ।' (२) काहू । किसी को । ' सत्रु न वैरा० १३ काहीं : किस से । 'राजु तजा सो दूषन काहीं ।' मा० १.११०.६ काही : काहि । मा० १.२००.५ काहु, हूं: कोई भी, किसी ने भी । 'दच्छत्रासू काहुं न सनमानी ।' मा० १.६३.१ 'सो फलु तुरत लहब सब काहूं ।' मा० १.६४.२ काहु, हू : काहुं । किसी को आदि । 'सुखद सब काहु ।' मा० १.३२७ 'लोकहुँ वेद बिदित सब काहू ।' मा० १.७.८ काहुक : किसी का | 'अनभल काहुक कीन्ह ।' मा० २.२० काहुन : किन्हीं का भी । 'लंकदाहु देखें न उछाहु रह्यो काहुन को ।' कवि० ६.१ काहि : किसी को, किसी के प्रति । 'सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ ।' मा० २.२६७.८ काहे : सर्वनाम (सं० कस्मात् > प्रा० काहे ) । किस लिए, किस कारण | 'काहे करसि निदानु ।' मा० २.३६ कि : ( १ ) प्रश्नार्थक अव्य (सं० किम् > प्रा० कि) । क्या । 'सीय कि पिय सँगु परिहरिहि ।' मा० २.४६ ( २ ) या अथवा | 'देहु किलेहु अजसु ।' मा० २.३३.६ (३) की ( सम्बन्धार्थक परसर्ग - स्त्री ० ) । ' देखहु प्रीति कि रीति भलि ।' मा० १.५७ ख (४) किमि । कैसे । 'सोपुरु बरनि कि जाइ ।' मा० १.६४ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 तुलसी शब्द-कोश किंकर : सं०० (सं०) । दास, परिचारक, सेवक । मा० १.१२.३ वैष्णवमत में 'भगवल्कैकर्म' ही मुक्ति रूप है, बही जीव का स्वरूप है जिस की अनुभूति परम पुरुषार्थ है। 'दीनबन्धु रघुपति कर किंकर ।' मा० ७.२.६ किंकरि, री : किंकर+स्त्री० (सं० किंकरी)। दासी परिचारिका । मा० १.१२०.४ किंकर : किंकर+कए० । अनन्यदास । 'राम को किंकरु सो तुलसी।' मा० ७.५६ किकिनि, नी : सं०स्त्री० (सं० किंकिणी) । छोटी घण्टी जो आभूषणों में टंकी . रहती है; उन घण्टियों से जटित आभूषण । 'कटि किंकिनी उदर भय रेखा ।' मा० १.१६६.४ किंजल्क : सं००० (सं.)। पुष्पकेसर । कृ० २३ किनर : (सं०) देव जाति विशेष जिसका धड़ मनुष्य का और सिर घोड़े का कहा गया है। मा० १.७ घ किनरी : सं०स्त्री० (सं०) । किंगरी; वीणा या सारंगी से मिलता-जुलता वाद्य विशेष । दो० ३५८ किंवा : अव्यय (सं० किंवा) । अथवा। 'नृप अभिमान मोहबस किंवा।' मा० ६.२०.५ किसुक : सं०० (सं० किंशक) । टेसू, पलास । मा० ६.५४.१ किआरी : सं०स्त्री० ब० । क्यारियां । 'महाबष्टि चलि फूटि किआरौं।' मा० किआरी : सं०स्त्री० (स. केदारिका>प्रा० केआरिआ>अ० केआरी)। सिंचाई हेतु मेड़ बांध कर बनाया हुआ कृषि भाग किएँ : (१) किए हुए, करके । रहि न जाइ बिनु किएँ बरेखी।' मा० १.८१.३ (२) करने से, करने पर । 'किएँ अन्यथा होइ नहिं ।' मा० १.१७४ किए, ये : भू० कृ०० (ब०) (सं० कृत>प्रा० किम, किय) । 'किए कठिन कछु दिन उपबासा।' मा० १.७४.५ ।। किछु : कछु । कुछ । 'बिधि करतब पर किछु न बसाई ।' मा० २.२०६.८ कित : अव्यय (सं० कुतः>प्रा० कत्तो) । किधर, किस ओर, कहाँ । 'कुलिस कठोर कहाँ संकर धनु, मृदु मूरति किसोर कित ए री।' गी० १.७८.३ कितहं : किसी ओर, कहीं । 'जाहु कितहूं जनि ।' कृ० ५ कितो : वि०० कए० (सं० कियान् >प्रा० कियत्तो) । 'बरज्यो न करत कितो सिर धुनिए।' कृ० ३७ किती : कितना, कितना भी । 'लोचन मोचन बारि किती समुझाए।' गी० २.३५.४ किधौं : (कि+धौं) । या कि, या भला, अथवा क्या। 'जम कर धार किधौं बरिनाता।' मा० १.६५.७ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 165 किन : (१) अव्यय (सं० किन्न) । क्यों न । 'तो किन जाइ परीछा लेहू ।' मा० १.५२.१ (२) चाहे क्यों न, भले ही । 'मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ ।' मा० १.१५१.५ (३) सं०० (सं० किण) । घट्ठा, घिसने या छिदने आदि से बना चमड़ी पर धब्बा । 'बन फिरत कंटक किन लहे।' मा० ७.१३.छं० ४ ।। किमपि : अव्यय (सं.)। कुछ भी। 'हरि तजि किमणि प्रयोजन नाहीं।' मा० १.१६२.१ किमि : अव्यय (सं० किम् >आ० किम)। कैसे, किस प्रकार । 'जौं नप तनय न ब्रह्म किमि ।' मा० १.१०८ किमिकै : क्यों कर । 'इन्हें किमिक बनबासु दियो हैं।' कवि० २.२० किय : भू० कृ० (सं० कृत>प्रा० किय) । किया। · सती हृदयँ अनुमान किय।' ____ मा० १.५७ क कियउँ : आ-भू००+उए। मैंने किया-की। 'सब कियउँ ढिठाई ।' मा० २.२४८.८ कियउ : किय+कए (अ०) । किया। 'कियउ निषादनाथु अगुअईं।' मा० २.२०३.१ कियत : वि०० (सं० कियत्) । कितना। 'सुख सो समुझ कियत ।' विन० - १३२.१ कियहु : आ०- भूकृ०+मब० । तुमते किया । 'कबहुं न किबहु सवतिआ रेसू ।' मा० २.४०.७ किया : किय । मा० १.६८.छं० कियो : कियउ । 'सुतन्ह समेत गवनु कियो भूषा ।' भा० १.३२८.२ किरणकेतु, (तू) : सं०पु० (सं०) । सूर्य । ‘शत्रु तम तुहिनहर किरणकेतू।' विना ४०.१ किरणमालिका : किरण समूह । विन० १६.१ किरणमाली : करमाली सूर्य । विन० २६.१ . किरन : सं० (सं० किरण) । मा० १.१६८.७ किरात : सं०० (सं० किंर पर्यन्त भूमिमतन्ति सततं गच्छन्तीति किराताः) । पर्वत-प्रदेशों में घूमने वाली जंगली जाति । मा० २.६०.१ किरातन्ह : किरात+संब० । किरातों (ने) । 'यह सुधि कोल किरातन्ह पाई।' मा० २.१३५.१ किरातिनि : किराती । मा० २.२६ किराती : किराती+स्त्री० (सं.)। मा० २.१३.४ किरातो : किरात भी। 'महिमा उलटे नाम की मुनि कियो किरातो।' विन.. १५१.७ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 तुलसी शब्द-कोश किरिच : सं०स्त्री० (सं० कृत्ति>प्रा० किच्चि) । खण्ड, टुकड़ा। 'कांच किरिच बदले ते देहीं।' मा० ७.१२१.१२ किरिन : किरन । कवि० १.१३ किरीट : सं०० (सं.) । मुकुट । मा० १.११.२ किरीटन्हि : करीट+संब० । मुकुटों (में, पर)। 'पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई ।' मा० ७.१०६.१२ किलकत : वकृ ० । प्रसन्नतासूचक बचकानी ध्वनि करते हुए। 'भाजि चले किलकत ।' मा० १.२०३ किलकन : भकृ० किलकने, किलकारी भरने । 'राम किलकन लागे।' गी० १.१३.१ किलकनि : सं. स्त्री० । किलकारी । मा० ७.७७.७ किलकनियाँ : किलकमि+ब० । किलकारियाँ । गी० १.३४.५ किलकहि, हीं : आ०प्रब० । किलकारी भरते हैं। 'देखि खेलौना किलकहीं।' गी.. . १.२८.८ किलकारी : सं० स्त्री (सं० किल-कारिका-परि०)। किलक ने की ध्वप्रि, शिशु . हर्ष-नाद । कवि० ५.३ किलकि : पूकृ० । किलकारी भर कर, किलकिला शब्द करके । 'किलकि-किलक हँसे ।' गी० १.३३.४ । किलकिला : सं०पु० (सं०) । हर्ष नाद विशेष, ध्वनि विशेष । 'सबद किलकिला कपिन्ह सुनावा ।' मा० ५.२८.२ किलकिलाइ : पूकृ० । किललिा ध्वनि करके । 'किलकिलाइ गरजा अरु धावा।' मा० ६.६५.३ किलकिलात : व पु । किलकिला शब्द करता-ते । गी० ५.२२.६ किलक : किलक हिं । 'किल के कल वाल बिनोद करें । कवि० १.३ किलबिषी : वि.पु० (सं० किल्विविन्) । पातकी । 'मन मलीन कलि कियबिषी।' विन० १६१.६ किसब : सं०० (अरबी-कस्ब =पेशा) । व्यवसाय । 'जानत न कर कछु किसब कबारु है।' कवि० ७.६७ किसबी : वि० (अरबी-कस्बी=पेशेवर) । व्यवसायी। किसबी किसान कुल बनिक भिखारी भाट ।' कवि ७.६७ किसलय : सं०० (सं०) । पल्लव । मा० २.६६.२ किसलयमय : पल्लव-निर्मित । 'साथरी' 'कुस किसलयमय परम सुहाई।' मा०. २.८६.८ किसान, ना : सं०पु० (सं० कृषाण>प्रा० किसान) । खेतिहर । मा० ४.१५८ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश किसु : कासु । किसका । 'कहहु बसेउ किसु गेह ।' मा० १.७८ किसोर, रा : सं० + वि०पु० (सं० किशोर) । (१) पन्द्रह वर्ष से कम वयस् का बालक । 'बय किसोर सुषमा सदन ।' मा० १.२२० (२) किशोरावस्था (सं० कैशोर) । 'कौमर सैसव अरु किसोर ।' विन० १३६.६ (३) 'पुत्र' अर्थ में भी प्रचलित है, पर वय का अर्थ सम्मिलित रहता है । 'कहँ गए नृपकिशोर मनु चिता । मा० १.२३२.७ 167 किसोरक : (सं० किशोरः = किशोरकः) किसोर = किसोरक + कए० । एक मनोहर किशोर । 'ससिहि चकोर किसोरकु जैसे ।' मा० १.२६३.७ किसोरी : किसोर + स्त्री० (सं० किशोरी ) । १५ वर्ष से कम वयस् की लड़की । (२) किशोरावस्था | 'बीती है बय किसोरी जोबन होनी ।' गी० २.२२.१ (३) किशोरावस्था को पुत्री । 'जय-जय गिरिबरराज किसोरी ।' मा० १.२३५.५ किनी : कहानी । 'कहि किहनी उपखान ।' दो० ५५४ किहें : किएँ । करने से । 'सकृत प्रनामु किहें अपनाए ।' मा० २.१६६.३ किहोसि : कीन्हेसि । उसने किया । 'किहेसि भँवर कर हरवा ।' बर० ३२ कीं : (दे० की) । (१) की में । 'रहा बालि कीं कांख ।' मा० ६.२४ (२) की से । छूटहि सकल राम कीं दाया ।' मा० ३.३६.३ ( ३ ) की... को । 'फिरि - फिरिचितव राम कीं ओरा ।' मा० ७.१६.२ (४ ) की 'आपु रहे मख की राखवारी मा० १.२१०.२ के लिए । की : (१) सम्बन्धार्थक परसर्ग स्त्री० । 'भव अंग भूति मसान की ।' मा० १.१०.छं० (२) कि । क्या । 'भरत की मातु को भी ऐसो चहियतु है ।' कवि० २.४ (३) कि । अथवा । ' की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ ।' मा० ४.१.१० (४) भू० कृ० स्त्री०=करी । ‘करनी न कछू की ।' कवि० ७.८८ कीच : सं०पु० । कीचड़ । 'अंतहुं कीच तहाँ जहँ पानी ।' मा० २.१८२.४ कोर्चाह : कीचड़ में, पड़क में । 'कीच हिं मिलइ नीच जल संगा ।' मा० १.७.६ कोचा : कीए । मा० १.१६४.८ कीजहु : आ० अभ्यर्थना मब० । तुम करना । 'कीजहु इहे बिचार निरंतर ।' गी० २.११.४ कीजिअ : आ० कर्मवाच्य - प्रए० । कीजिए, किया जाय करिए । 'कीजिअ काजु रजाय पाई ।' मा० २.३८.२ कीजिए : कीजिअ ( सं क्रियते > प्रा० किज्जीअइ ) | 'आपन दास अंगद कीजिऐ ।' मा० ४.१०.छं २ कीजिय, ये : कीजअ ( पालन कीजिए ) । ' तजि अभिमान अनख अपनो हित कीजिय मुनिबर बानी ।' कृ० ४८ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 तुलसी शब्द-कोश कोजे, जौ : कीजिअ (प्रा०>किज्जीअइ=किज्जइ)। 'तेहि सन नाथमयत्री ... कीजे ।' मा० ४४३ 'ऊधो हैं बड़े कहैं सोइ कीजै ।' कृ० ४६ । कोट : सं०० (सं०) । क्षुड़जन्तु-जैसे (१) धुन । 'दास सरीर कीट पहले सुख सुमिरि-सुमिरि बासर निसि घुनिए।' कृ० ३७ (२) कोश कीट, रेशम का कीड़ा । 'पाट कीट तें होइ ।' मा० ७ ६५ ख (३) कोई भी छोटा जीव चींटी आदि । 'काह कीट बपुरे नर नारी।' मा० २.२६.३ कट-भृग : एक मुहावरा जिस का तात्पर्य है कि भृङ्ग नामक पतिंगा 'झीगुर' के पैर काट कर अपने घरौंदे में रखता है । फिर मँडराता हुआ आवाज करता रहता है जिस से पतिङ्गा अपवश उसी भृङ्ग के ध्यान में तन्मय हो जाता और कुछ दिनों में भृङ्ग बनकर निकलता है । 'भइ मम कीट-भृग की नाई।' मा० ३.२५.७ कीटु : कीट+कए । एक तुच्छ जन्त । को कुंभकर्नु कीटु ।' कवि० ६.२ कीती : सं०स्त्री० (सं० कीर्ति:>प्रा० कित्ती)। यश । 'जासु सकल मंगलमय कीती।' मा० ५.३५.५ कीवहुं : किधौं (दे० दहुं) । उत्प्रेक्षदि सूचक अव्यय । 'कीदहुं रानि कोसिलुहिं परिगा ___ भारे रो।' रा०न० १२ कीधौं : किधौं । हनु० ३७ कोने : कीन्हे । विन० १०६.२ कीन्ह, न्हा : किया (दीन्ह की समानता से हिन्दी में प्रयुक्त हुआ)। मा० १.५.१ कोन्हि : कीन्ह+स्त्री० । की, की गई । 'जौं परिहास कीन्हि कछु होई ।' मा० . २.५०.६ कोन्हि : मा०-भूकृ० स्त्री०+उए । मैं ने की-कीं । 'आजु लगे कीन्हिउँ तुम सेवा।' मा० १.२५७.७ कोन्हिसि : आ०-भूकृ० स्त्री०+कए । उसने की-की। 'उठि बहोरि कोन्हिसि बहु माया।' मा० ५.१९.६ कोन्हिहु : आ-भूकृ०स्त्री०+मब० । तुमने की-कीं। 'कीन्हिहु प्रस्न मनहुं अति मूढ़ा ।' मा० १.४७.४ कीन्हीं : कीन्हि+ब० । की। राज बैठि कीन्हीं बहु लीला।' मा० १.११०.८ कीन्ही : कीन्हि । की। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही ।' मा० १.६१.५ ।। कीन्हें : करने पर, करने से । 'जे अध तिय बालक बध कीन्हें ।' मा० २ २६७.६ कीन्हे : कीन्हे का रूपान्तर (ब०) । किये (बनाये)। जहं तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे ।' मा० १.६५.८ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश कीन्हेउ : आ० - भूपु ० + उए० । मैं ने किया - किये । 'सो फलु पायउ कीन्हे रोषा ।' मा० ३.२६.३ कीन्हेउ : कीन्ह + कए० । किया । 'नाथ काजू कीन्हेउ हनुमाना ।' मा० ५.२६.५ कीन्हेसि : आ० - भूपु प्र० । उसने किया - किये। 'कीन्हेसि रामचन्द्र कर काजा मा० ५.२८.४ कीन्हेहू : आ०- - भूकपु० + मब० । तुमने किया किये। बर पायहु कीन्हेहु सब काजा ।' मा० ६.२०.४ 169 कीन्हो : कीन्ह्यो । 'बाम बिधि कीन्हो कहा ।' मा० २.२७६. छं० कोन्ह्यो : कीन्हेउ । 'ईस के ईस सों बैरु कीन्ह्यो ।' कवि० ६.१८ कोबी : करबि । करनी (करणीया ) । 'तुलसी की बलि बार बरहीं सँभार कीबी । ' कवि० ७.८० कांबे : करिबे । करने (योग्य) । 'कीबे को बिसोक लोक ।' कवि० ७.१७ कीबो : भकपु ं० कए० । करना, करने योग्य, करने शक्य ( किया जा सकेगा ) । 'अब ब्रजबास महार किमि कीबो ।' कृ०६ कोय : किय । विन० २६३.२ कोयो : कियो कियउ । कवि ७.१७६ कीट : सं०पु० (सं०) । ( १ ) शुकपक्षी । मा० ३.३८.६ ( २ ) शुकदेव मुनि जिन्हों ने परीक्षित को भागवत कथा सुनाई थी । 'कह्यी जो भुज उठाइ मुनिबर कीर ।' विन० १६६.१ stefa: सं० [स्त्री० (सं० कीर्ति) । यश, ख्याति । मा० १.३.५ कीरा : सं०पु० (सं० कीर = कीटक > प्रा० कीउअ ) । कीड़ा । ' गरिन जीह मुहँ परेउ न कीरा ।' मा० २.१६२.२ कीरु : कीर + कए० । (कोई एक ) तोता । 'कीरु ज्यों नामु रटं तुलसी ।' कवि ० - ० ७.६० कीरें : कीट को, शुक पक्षी के लिए, तोते के प्रति । 'जैसे पाठ अरथ चरचा कीरं ।' गी० ६.१५.२ कीर्तन : सं०पु० (सं०) । कीर्तिगान, गुण वर्णन । गी० २.४३.२ 1 कीति : कीरति । कवि० ६.५ कील : सं० (सं०) । 'कनक कीलमनि पान संवारे ।' मा० १.३२८.८ कोले : भूकृ०पु० ( ब० ) । कील दिए, कीलों से जड़कर निष्क्रिय कर दिए, मन्त्र या किसी अभिशाप से व्यर्थ बना दिए । 'जानत हौं कलि तेरेऊ मन गुन गन कीले ।' विन० ३२.२ कीस, सा: सं०पु० (सं० कीश > प्रा० कीस ) । वानर । मा० १.१८.१ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 तुलसी शब्द-कोश कीसन्ह : कीस+संब० । बानरों (ने) । 'कीसन्ह घेरि पुनि रावनु लियो ।' मा० ६.१००.छं० मिला, कुमिलाइ : (सं० कुम्लायति > प्रा० कुमिलाइ > कुम्हिलाइ - मुरझाना) । आ०-प्रए० । मुरझाता है । 'जानि पर सिय हियरें जब कुँमिलाइ ।' बर० १२ कुँवर : कुअर । गो० १०४.३ कुँवर : कुअरि । गी० १०४.३ कु : अव्यय (सं०) । कुत्सित, कलुष, अनुचित, दुष्ट, नीच, प्रतिकूल असाध्य, घोर, विषम आदि अर्थों में यह पूर्वपद होकर आता है । कुपीर, कुआगि, कुरोग, कुसंग आदि बहुश: उदाहरण हैं जिनमें से ऐसे शब्द यहाँ संकलित होंगे जिनमें विशेष अर्थ जुड़ता है । कुंकुम : सं०पु० (सं० ) । केसर । मा० १.१६४.८ कुचित : भूकृ०वि (सं० ) । सिकुड़ा या सिमटा हुआ; ( केशों के सन्दर्भ में) घुंघराले । 'मेचक कुंचित केस ।' मा० १.२१६ कु ंजर : सं०पु ं० (सं०) ( १ ) हाथी । मा० १.२४३ (२) (समासान्त में) वि० । श्रेष्ठ । कपिकुंजर | कुंजरारी : गजारि । सिंह । कवि० ६.४२ कुंजरो - नरो : संशयसूचक मुहावरा । महाभारत में 'अश्वत्थामा' नाम का हाथी मारा गया था परन्तु द्रोणाचार्य को धोखा देने के लिए सत्यवादी युधिष्ठिर से कहलाया गया— 'अश्वत्थामा मृत: ' जिससे अपने पुत्र 'अश्वत्थामा' के शोक में मग्न द्रोण को मारा जा सका - वे निर्णय न कर सके कि जो अश्वत्थामा मरा था वह 'कुञ्जर' था या नर । सत्य के रूप में मिथ्या प्रत्यय या सत्य और मिथ्या के अनिश्चय के अर्थ में इसका प्रयोग होता है । 'स्वारथ ओ परमारथ हू को नहि कुंजरो नरो ।' विन० २२६.४ कु ंठित : भूकृ०वि० (सं० - भुठि वेष्टने ) । वेष्टित, गुट्ठल । 'भा कुठारु कुंठित नृपघाती ।' मा० १.२८०.१ कं. ड : सं०पु० (सं०) । (१) बड़ा पात्र, कूड़ा। 'जन फूटहि दधि कुंड ।' मा० ६.४४ (२) गर्त । 'जग्यकुंड' कवि० ५.७ (३) जलाशय आदि । 'अमृत- कुंड महिलावौं ।' गी० ६.८.२ कुंडल : सं०पु० (सं० ) । कर्णाभरण, कानों का साला । 'कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा ।' मा० १.१४७.५ (२) कोई मण्डलाकार रचना । ( ३ ) सर्प की डेली ।' 'कुंडल कंकन पहिरे ब्याला ।' मा० १.६२. २ ( यहाँ कर्णाभरण अर्थ भी है) । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 171 कुडलनि : कुंडल+संब० । कुण्डलों (ने) । 'कुंडलनि परम आभा लही ।' गी० ७.६.३ कुंडु : कुंड+कए । गर्त, वेदी का गड्ढा । 'जग्यकुंड' कवि० ५.७ कुंत : सं०० (सं.)। कन्नीदार बल्लम= ऐसा भाला जिसका फल चौड़ा होता है और लम्बा दुधारी के साथ पीछे की ओर को भी दो नोकें बनी रहती हैं। 'कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा।' मा० ५.१५.३ कुद : सं०० (सं.)। (१) श्वेत पुष्प विशेष। 'कुंद इंदु दर गौर सरीरा।' मा० १.१०६.६ (२) शाणयन्त्र जिस पर छुरे आदि की धार तेज की जाती है। (३) बढ़ई आदि का पहिएदार उपकरण विशेष जिस पर लकड़ी आदि को गढ़ने-छीलने के बाद चिकनाया जाता है । 'गढ़ि-गुढ़ि छोलि छालि कुंद की सी . भाई बातें । कवि० ७.६३ कुम : सं०० (सं.)। (१) कलश, घट। दे० कुंभज आदि । (२) हाथी का कपोल मण्डल । 'मत्तनाग तम कुंभ बिदारी।' मा० ६.१२.२ कुंभऊकरन : कुम्भकर्ण भी। 'कुंभऊकरन भाइ रक्षो पाइ आह सी।' कवि० ६.४३ कुंभकरन : (सं० कुम्भकर्ण) रावण का एक अनुजा । मा० ६.६२ कं मकरन्न : कुंभकरन । हनु० १६ कुमकरन्तु : कुंभकरन्न+कए। कवि० ६.५७ कंभकर्नु : "कुभकर्न'+कए० (सं० कुम्भकर्णः)। 'को कुभकर्नु कोटु ।' कवि० ६.२ कुंभज : सं०० (सं.)। अगस्त्य मुनि जिन्हें 'मत्रावरुणि' भी कहते हैं-मित्र और वरुण ने घड़े में शुक्रपात किया जिससे उनका जन्म हुआ। एक चुल्लू में समुद्र पी लेने की पौराणिक कथा भी है। मा० १.३२.६ मजात : कुंभज (सं०) । विन० ५३.८ कुभसंभव : (दे० संभव) =कुभज । विन० ४०.३ कुमीश : (सं०) कुभी हाथी+ईश । श्रेष्ठ हाथी, गजराज । विन० १५.४ कुर : सं०० (सं० कुमार>प्रा०कुमार>अ० कुर्वर) = कुमार । मा० १.२२६.१ कुअरन, न्ह, कुर्वरन, न्ह : कुर+संब० । कुमारों। तेज प्रताप बढ़त कुवँरन को।' गी० १.८०.५ कुरि, कुर्वरि : सं०स्त्री० (सं० कुमारी>प्रा० कुमरी>अ०कुर्वरि) = कुमारी। मा० १.३३८ कुकारु : कुऔर+कए । 'सांवर कुरु सखी सुठि लोना ।' मा०१.३२५.१ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 तुलसी शब्द-कोश कुरोटा : छोटे कुवंर । लघु वयस्क मनोहर कुमार । 'कोसलराय के कुरोटा।' गी० १.६२.१ कुअंक : अशुभ चिन्ह, कुलक्षण की रेखाएँ । 'मेटत कठिन कुअंक भाल के ।' ___मा० १.३२.६ कुअवसर : अनुपयुक्त अवसर, प्रतिकूल परिस्थिति । ‘भयउ कुअवसर कठिन संकोचू । मा० २.२१३.१ कुअवसरु : कुअवसर+कए । अद्वितीय प्रतिकूल समय । 'कुटिल कुबन्धु कुअवसर ताकी।' मा० २.२२८.४ कुआर : वि.पु०-अविवाहित (कुमार) । 'अहइ फुआर मोर लघु भ्राता ।' मा. ३.१७.११ कुआरि : वि.स्त्री.-अविवाहिता (कुमारी) । 'कुअरि कुआरि रहउ का करऊँ।' __ मा० १.२५२.५ कुमारी : कुआरी। 'वरऊँ संभु न त रहउँ कुआरी।' मा० १.५१.५ कुकवि : कुत्सित कवि, काव्य कौशल तथा व्युत्पत्ति से रहित कवि, प्रतिभाहीन अरसिक कवि । मा० १.१०.५ कुकरम : कुकरम+कए। एकमात्र (अद्वितीय) पापाचार; कलुषित कर्म । 'आरत काह न करइ कुकरमू ।' मा० २.२०४.७ कुकाठ : अनुपयोगी काठ, अशुभ काष्ठ, अमङ्गलकारी लकड़ी। 'कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजलू । मा० २.२१२.४ कुकाठ : कुकाठ+कए । दूषित लकड़ी, गठीला अनुपयोगी काष्ठ । 'दत आठ को पाठ कुकाठ ज्यों फाएँ ।' कवि० ७.१०४ कुकृत : (सुकृत का विलोम) कुकृत्य कलुषकर्म । विन० २६३.२ कुखेत : कुत्सित क्षेत्र, अशुभ भूभाग (जो स्वत: अपशकुन हो) । 'रटहिं कुभांति कुखेत करारा।' मा० २.१५८.४ कुगहनि : कुत्सित पकड़, दुराग्रह+ऐसी दबोच जिससे स्वयं छूटना असंभव हो। _ 'मीचु बस नीच हठि कुगहनि गही है ।' गी० ५.२४.२ कुगांव : असभ्य निवासियों वाला गांव, निन्दित+उपेक्षित बस्ती। 'बसहिं कुदेस कुवि कुबामा।' मा० २.२२३.७ घरी : कुअवसर, अनुपयुक्त घड़ी, ऐसी घड़ी जिसमें कोई प्रस्ताव उपयुक्त नहीं होता । 'घरी कुघरी समुझि जिय देखू ।' मा० २ २६.८ कुघाइ : कुघाय । दो० ३२५ कुघाउ : कुघाय+कए । अति कष्टकर घाव जिसका उपचार असंभव हो, असाध्य क्षत । 'निज तन मरम कुघाउ ।' विन. १००.६ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 173 कुधातु : कुघाड़ा । कड़ी चोट, विश्वासघात+दुःसाध्य आघात । 'बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहं जाहु ।' मा० २.२२ कुघाय : (दे० घाय) । मर्मान्तक आघात, असाध्य आघात, करारी चोट । 'असन बिनु बन, बरम बिनु रन, बच्यो कठिन कुघाय।' गी० ७.३१.२ कुच : सं०पू० (सं०) मुकुलितप्राय स्तन । विन० १४.५ . कुचरचा : कुत्सित चर्चा, अपवाद, लोकनिन्दा । 'राम कुचरचा करहिं सब सीतहि __ लाइ कलंका।' रा०प्र० ६.६.४ कुचाल : कुचालि । कृ० ६१ कुचालि, ली : सं०स्त्री० (सं० कुचाल>प्रा० कुचल्ली) (१) कुत्सित गति (नृत्य की गतिविशेष को प्राकृत में 'चल्ली' कहते हैं) । लयहीन गति, असंगत चाल, छलना, प्रपञ्च । 'फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली।' मा० १.२६.६ (२) वि० । छली, प्रपञ्ची, धूर्त । 'बिधन मनावहिं देव कुचाली।' मा० २.११.६ 'कुपथ कुतरक कुचालि कलि ।' मा० १.३२ कुचाह : अशुभ समाचार । 'कठिन कुचाह सुनाइहि कोई ।' मा० २.२२६.७ कुछ : कछु । कृ० ४५ कुज : सं०० (सं०) । कु=पृथ्वी का पुत्र= मङ्गल ग्रह । गी० १.२६.५ कुजंतु : क्षुद्र कीट-पतङ्ख, दूषित (अभक्ष्य) जीव । 'जनम भरि खाइ कुजंतु जियो हौं।' गी० ३.१४.२ कुजंचू : सं०० (सं० कुयन्त्र)+कए। अटपटा यन्त्र, बढ़ई आदि का रद्दी-सा उपकरण जिसमें फंसाकर वह लकड़ी ठीक से नहीं गढ़ पाता फिर भी अपटू कारीगर उसी से काम करता है । मा० २.२१२.४ । कुजन : (१) कु=पृथ्वी भर के लोग । (२) कुत्सित जन, दुष्टजन। 'कुजनपाल गुन बजित अकुल अनाथ ।' बर० ३५ कुजाचक : अनुचित प्रार्थना करने वाला, अदेय या अलभ्य वस्तु की मांग करने वाला । विन० १७७.४ कुजाति, ती : (१) अधम जाति वाला। 'साधु असाधु सुजाति कुजाती।' मा० १.६५ (२) अधम जाति । 'धिग तव जन्म कुजाति जड़ ।' मा० ६.३३क कुजुगति : दूषित तर्क (हेत्वाभास) । गी० २.७८.१ कुजोग : (दे० जोग) प्रतिकूल योग, मिश्रण, मिलावट आदि । 'ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग । होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग । मा० १.७क कुजोर्गान : कुजोग+संब० । कुयोगों (ने), ग्रह आदि के पापयोगों ने । 'धेरि लियो रोगनि कुजोगनि कुलोगनि ज्यों।' हनु० ३५ कुजोगी : दम्भी योगी, योगभ्रष्ट पति। मा० ६ ३४.१४ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 तुलसी शब्द-कोश कुजोग : कुजोग+कए। (१) पापग्रह-योग+विपरीत परिस्थिति । 'मिटिहि कुजोगु राम फिरि आएँ ।' मा० २.२१२.६ (२) दम्भपूर्ण समाधि (योगी का भ्रष्ट योग)। जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू ।' मा० २.२६१.२ कुटि : वि० (सं० कुटि=कौटिल्य) । कुटिल, वक्र । 'बड़े नयन कुटि भृकुटी भाल बिसाल ।' बर०१ कुटिल : वि० (सं०) (१) वक्र, टेढ़ा। 'माखे लखनु कुटिल भई भौहैं ।' मा० १.२५२.८ (२) कुञ्चित । 'कुटिल केस जन मधुप समाजा।' मा० १.१४७.५ (३) मानस स्तर पर ग्रन्थियुक्त, कपटी। 'कुटिल कुबन्धु'-मा० २.२२८.४ कुटिलई : कुटिलाई । मा० ७.१२१.३४ कुटिलपन : (दे० पन) । कुटिलता । रचि पचि कोटिक कुटिलपन ।' मा० २.१८ कुटिलपनु : कुटिलपन+कएं । (यही एक) कुटिलता । 'कारन कवल कुटिलपनु ___ठाना।' मा० २.४७.६ कुटिलाई : (१) कुटिलता ते । सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाई ।' मा० २.१७८.१ (२) कुटिलता से । 'कपट कुटिलाई भरे ।' कवि० ७.११६ (३) कुटिलता में। 'तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाई ।' मा० २.१८४.६ कुटिलाई : सं०स्त्री० (सं० कुटिलता>प्रा० कुटिलया)। टेढ़ाई, वक्रता । मा० २.६ कुटी : सं०स्त्री० (सं.)। पर्णशाला, झोंपड़ी । गी० २.४६.५ कुटीर : सं०० (सं०-हस्वा कुटी कुटीरः) । छोटी कुटी । मा० २.३२१ कुटीरा : कुटीर । मा० २.३२३.२ कुटुंब : सं०० (सं.)। परिवार, परिजन, पारिवारिक कार्यकलाप । एक रसोई में ___ सम्मिलित जनसमूह । मा० १.१७२ कुटुंबी : वि.पु. (सं० कुटुम्बिन्) । गृहपति, परिवार का स्वामी। मा० ४.१६.८ कुटेब : (दे० टेव) कुत्सित स्वभाव । 'मेरिओ देव कुटेव महा है ।' कवि० ७.१०१ कुठाकुर : (दे० ठाकुर) । अनाचारी स्वामी, अभीष्ट विरोधी राजा आदि। विन० १७०.५ कुठाट : कलुषित साजसज्जा, अनुचित कार्यों की प्रवृत्ति । 'काया नहिं छाड़ि देत ठारिबो कुठार को।' कवि० ७.६६ कुठाटु : कुटार+कए ० । अनोखा दुःखद साज । 'सोहि लगि यहु कुठाटु तेहिं ठाटा।' मा० २.२१२.५ कुठाय : (१) कुत्सित स्थान पर+ (२) मर्म स्थान पर (३) रक्षक हीन शून्य स्थान पर । 'मारेसि मोहि कुठायें ।' मा० २.३० कुठाय : (१) अरक्षित स्थान (२) मर्म प्रहार । 'देखि बंधु सनेह, अंब सुभाउ, लखन कुठाय ।' गी० ६.१४.५ कुठार : सं०० (सं०) । कुल्हाड़ा, परशु । मा० १.२७६ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 175 कुठारघर : परशुराम । कवि० ७.११२ कुठारपानि : परशुपाणि =परशुराम । कवि० ५.१६ कुठारा : कुठार । मा० ६.२६.२ कुठारी : सं० स्त्री० (सं०) । कुल्हाड़ी, छोटा कुठार । मा० १.११४.२ कुठारु, रू : कुठार+कए० । 'भा कुठारु कुंठित नृपधानी ।' मा० १.२८०.१ कठाहर : प्रतिकूल स्थान, विपरीत परिस्थित, कुअवसर । मा०२.३६.२ कणप : सं०० (सं०) । शव । (२) वि० (सं.)। शव के समान दुर्गन्धयुक्त, वीभत्स, जुगुप्सित । 'कुणप अभिमान सागर भयंकर घोर ।' विन० ५८.३ कुतरक : (१) कुत्सित तर्क मिथ्यातर्क (हेत्वाभास) । 'मिटि गै सब कुतरक के ___ रचना।' मा० १.११६.७ (२) मिथ्या तर्क वाला। 'कुपथ कुतरक कुचालि कलि ।' मा० १.३२ कुतरको : वि० स्त्री। मिथ्या तर्क वितर्क वाली। 'हरि हर पद रति, मति न कुतरकी।' मा० १.६.६ कुतरु : निष्फल वृक्ष । कुत्सित फल वाला वृक्ष । 'कुतरु सुफर फरत।' विन० १३४.४ कृतरुक : कुतरु । गुणहीन छोटा वृक्ष, एक निष्फल वृक्ष । 'कुत रुक सुरपुर राज मग . लहत भुवन बिख्याति ।' दो० १६ । कुतर्क : (दे० कुतरक) । 'तजि कुतर्क संसय सकल ।' मा० ७.६० ख कुत्रापि : अव्यय (सं०) । कहीं भी । विन० ५७.८ कुदाउ : कुदाय+कए। (१) पासे आदि का विपरीत दाब। (२) प्रतिकूल परिणाम का कार्य । 'पापिनि दीन्ह कुदाउ ।' मा० २.७३ कुदाना : (सं० कुदान) । अनुचित दान-दक्षिणा । प्रेतकर्म आदि का दान । 'मेलि __ जनेऊ लेहिं कुदाना।' मा० ७.६६.२ कदाम : खोटा सिक्का । वि० १५१.१ कुदाय : (दे० दाय) । कपट का पास आदि (छल धूत) । प्रतिकूल परिणाम वाला आचरण (धोखा, विश्वासघात)। 'त्योंहि राम गुलाम जानि निकाम देत कुदाय ।' विन० २२०.४ कुदारिद : दुरन्त दारिद्रय, अतिशय निर्धनता । कवि० ७.५६ कुदारी : सं०स्त्री० (सं० कुछाली)। भूमि खोने का उपकरण विशेष फावड़ा । मा० ___७.१२०.१४ कदिन : प्रतिकूल समय, विपरीत परिस्थिति, कुयोग का दिवस । संकट आदि । 'कुदिन हितू सो सुदिन हित ।' दो० ३२२ कृाष्टि : कलुषित दृष्टि । पापदृष्टि । मा० ४.६.८ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 तुलसी शब्द-कोष कुदेव : अपूर्ण देव-भूत, प्रेतादि जो देवरूप में पूजे जाते हैं । विन० १७०.५ कुदेस : निन्दित देश, सुविधाहीन भू-भाग, असभ्य निवासियों का देश । 'बसहि कुदेस कुगाँव कुबामा ।' मा० २.२२३.७ कुधर : सं०० (सं०)। कु=पृथ्वी का धारण कर्ता=पर्वत । 'कुधर डगमगत डोलति धरा।' मा० ६.७०.८ कुधरम : (सं० कुधर्म) । धर्म का पापपूर्ण आडम्बर, तामस धर्माचरण । विन० . २४६.४ कुधरु : कुधर+कए । पर्वत । कवि० ७.११५ कुघात : (सं० कुधातु) । लोह आदि नीच कोटिका धातु, अपवित्र धातु, मलिन धानु । 'पारस परसि कुधात सुहाई ।' मा० १.३.६ कुनय : (दे० नय) । अनाचारी नीति, अनीति, अन्याय दो० ५१४ कुनाज : (दे० नाज) कदन्न, क्षुद्र अन्न । दो० ५०६ कुनारि, री : पापाचारिणी स्त्री। मा० ४.७.६ कुनप : अन्यायी राजा । दो० ५१४ कुपंथ : कुपथ । कुमार्ग । मा० १.१२.२ कुपथ : संपु० (१) (सं० कुपन्थाः) । असन् मार्ग, निषिद्य मार्ग । कुपथ निवारि सुपंथ चलावा ।' मा० ४.७.४ (२) कुमार्ग पर चलने वाला। 'कुपथ कुतरक कुचालि कलि ।' मा० १.३२ (३) (सं० कुपथ्य)। अस्वास्थ्यकर भोजन आदि । 'कुपथ भाग रुज ब्याकुल रोगी ।' मा० १.१३३.१ कुपथ : कुपथ+कए० । कुमार्ग, अनाचार युक्त । 'राज काजु कुपथु ।' कवि० ७.६८ कुपथ्य : सं०० (सं०) । रोग बढ़ाने वाला आहार आदि । मा० ७.१२२.४ कुपीर : (दे० पीर) । कठिन व्यथा, असाध्य पीडा। कवि० ७.१६६ कपूत : कपूत । कवि० ७.५ कुपेटक : कुत्सित पेटक, पापमय पेटारा, कलुष-पेटिका । कवि० ७.८६ कुफेर : (दे० फेर) कुत्सित चाल, घुमाव, भूलभुलैया, अटपटा चक्कर । दो० ४३७ कुफेरै : कुफेर को। 'डरौं कठिन कुफेरै ।' गी० ५.२७.१ ।। कुबन्धु : पापाचारी या प्रतिकूलकारी बन्धु । मा० २.२२८.४ कुबरन : वि० (सं० कुवर्ण) । (१) कलुषित रूप वाला+(२) कुजाति । 'हौं सुबरन कुबरन कियो।' विन० २६६.२ कुबरिहि : कुबरी को । 'कुबरिहि रानि प्रान प्रिय जानी।' मा० २.२३.१ कुबरी : (१) वि० स्त्री० । कूवर वाली स्त्री । (२) सं० स्त्री० । कुब्जा सुन्दरी = कृष्ण की मथुरा में प्रेयसी। (३) मन्थरा । मा० २.१३ कुबलय : सं०० (सं० कुबलय) नील कमल । मा० ५.१५.३ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोष 177 कुबस्तु : अग्राह्य वस्तु । मा० १.७ क कुबानि : (१) अनुचित वाणी। 'मन मानि गलानि कुबानि न मूकी।' कवि० ७.८८ (२) कलुषि स्वभाव गहित प्रकृति । कृ० २७ कुबामा : असभ्य स्त्री, संस्कारहीन जंगली स्त्री । मा० २.२२३.७ कुबासना : कलुष विषयवासना ने, पापामय इच्छा ने । 'करम् उपासना कुबासना न सायो ग्यानु ।' कवि० ७.८४ कुबिचारी : कलुषित विचारों वाला। मा० १.८.१० कुबिहग : हिंसक पक्षी । मा० २.२८.८ कुबुद्धि : (१) वि० (सं०) । दुष्ट बुद्धि बाला, वाली। 'करइ बिचारु कुबुद्धि ___ कुजाती।' मा० २.१३.३ (२) सं० स्त्री० (सं०) । दुबुद्धि, कलुषित बुद्धि । ___ 'मठि कुबुद्धि धार निठुराई।' मा० २.३१.२ कुबुद्ध : कुबुद्धि+सम्बोधन ए० । ह्य दुर्बुद्धि । मा० ६.६४.५ कुबेर : सं०पू० (सं०)। यक्षों का राजा रावण का वैमात्र अग्रज। मा० १.१७६.८ कुबेरै : कुबेर को। 'कृपानिधी को मिलौं 4 मिलि के कुबेरै।' गी० ५.२७.१ ।। कुबेलि : (दे० बेलि) । विषफल आदि की लता, कुत्सित लता । 'कुल कुबेलि ___ कैकेई ।' गी० २.१०.२ कुबेष (षा) : (१) सं०पु० । कुत्सित वेष, अभव्य रूप रचना । 'किएहुं कुबेष साध सनमानू ।' मा० १.७.७ (२) वि० । कुत्सित वेष वाला। 'निर्गुन निलज कुबेष कपाली।' मा० १.७६.६ कुबेषता : सं० स्त्री० । कलुष वेष युक्त का आचरण, कुत्सित वेष की स्थिति । __'कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी।' मा० २.२५.७ कुबेषु, पू : कुबेष+कए । अशुभ वेष । 'बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषु ।' मा० २.२६.७ कुबोल : कड़वा बोल । दो० ४६६ कुब्याज : कुत्सित ब्याज (सूद); चक्रवृद्धि से लगने वाला बड़ा ब्याज जो मूलधन से भी अधिक होकर दिया न जा सके । दो० ४७८ कुभाँति, ती : वि०+क्रि०वि० । (१) प्रतिकूल रीति से, विपरीत रीति वाला। अनुचित, अननुरूप । 'रामु कुभांति सचिव सँग जाहीं।' मा० २.३६.८ (२) अस्वाभाविक, अवसर-विरुद्ध, रीति-विपरीत । 'प्रिया बचन कस कहसि कुभांतो।' मा० २.३१.५ (३) अमङ्गल, अशुभ । 'रटहिं कुभांति कुखेत करारा ।' मा० २.१५८.४ कुमाउ, ऊ : (दे० भाउ) दुर्भावना, कलुषपूर्ण मनः स्थिति । मा० २.२५७ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 तुलसी शब्द-कोश कुभाग्य : दुर्भाग्य । मा० ६.६४.५ कुभामिनी : दुष्ट स्त्री गी० २.३६.४ कुभायें : (दे० भायें, भाय) । दुर्भावना से, कलुष भाव के साथ। 'भायें कुभायं __ अनख आलसहूं।' मा० १.२८.१ कुभोग : कलुषित भोग, पापवासनापूर्ण विषयविलास । मा० ७.१४ छं० ४ कुमंत : कुमन्त्र । 'कंत बीस लोचन बिलोकिए कुमंत फलु । कवि० ६.२७ कुमंत्र : (१) पापपूर्ण मन्त्रणा, नीति विरुद्ध मन्त्र । 'कीन्ह कुमंत्र कुठाटु ।' मा० २.२६५ (२) अभिचार मन्त्र, मारण आदि के प्रयोग का तालिका मन्त्र । कुमंत्रिन : कुमंत्री+संब० । दुष्ट मन्त्रियों। 'कह्यो कुमंत्रिन को न मानिये ।' गी० ५.१२.४ कुमत्रु, त्रू : कुमंत्र+कए । (१) कलुषित मन्त्रणा, षड्यन्त्र । करि कुमंत्रु मन साजि समाजू ।' मा० २.२२८.५ (२) मारण आदि का ताकि अभिचार-जप। 'गाडि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रू ।' मा० २.२१२.४ कुमग : (दे० मग) कुमार्ग, कुपथ । मा० २.३१५.५ कुमत : कलुषित मत, अशुभ विचार, अमाङ्गलिक अभिप्राय । 'मातु कुमत बड़ई अघमूला ।' मा० २.२१२.३ कुमति : कुबुद्धि । (१) कलुषित बुद्धि, पापबुद्धि । 'सुमति कुमति सब के उर रहहीं।' मा० ५.४०.५ (२) पापबुद्धि वाला-वाली । 'कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी । मा० २ २५.७ कुमयाँ : (दे० मया) कलुषित ममता से, छलपूर्ण आत्मीयता से । 'कुमयाँ कछु हानि न औरन की।' कवि० ७.४७ कुमाच : सं० (तुर्की-कुमाच=मोटी रोटी; सं० कुम्बा = पेटीकोट जैसा परिधान विशेष) । दुसाला, रेशमी वस्त्र (?) 'काम जु आवै कामरी का लै करिअ कुमाच ।' दो० ५७२ कुमात : कुमातु । गी० २.६५.२ कुमाता : दुष्ट माता ने । 'साइँ-द्रोह मोहि कीन्ह कुमाता ।' मा० २.२०१.६ कुमरतु : दुष्ट माता, पुत्र का कष्ट न समझने वाली मां । २.१८३ कुमार (रा) : सं०० (सं०) । (१) पांच वर्ष का बालक । ‘भए कुमार जबर्हि सब भ्राता ।' मा० १.२०४.३ (२) बालक, पुत्र (राजकुमार)। 'एक राम अवधेस-कुमारा ।' मा० १.४६.७ (३) कार्तिकेय । 'तब जनमेउ षटबदन कुमारा।' मा० १.१०३.७ कुमारग : कुपंथ । मा० ३.४६.६ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 179 कुमारगगामी : दुराचारी, अनीति पर चलने वाले । 'मारहिं मोहि कुमारग-गामी ।' मा० ५.२२.४ कुमारि, रि : कुमार+स्त्री० (सं० कुमारी) । मा० १.६७.३ कुमारिका : कुमारी । 'चाहति काहि कुधर कुमारिमा ।' पा०म० छं० ५ कुमार : कुमार+कए० । 'सुमिरि समीर कुमारु ।' दो० २३० कुमित्र : दुष्ट मित्र, छली मित्र । मा० ४.७.८ कुमुख : (१) दुष्ट मुख, कटुवादी मुख । 'लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे ।' मा. २.४३.७ (२) सं०० (सं०) । एक राक्षस-यूथप । मा० १.१८० कुमुद : सं०पु० (सं.)। (१) जलाशयों में होने वाला पुष्पविशेष जो चन्द्रोदय __से खिलता है । 'अरुनोदय सकुचे कुमुद ।' मा० १.२३८ (२) एक वानरयूथप । 'संग नीलनल कुमुद गद ।' रा०प्र० ३.७.२ कुमुदबंधु : चन्द्रमा । मा० १.२४३.५ कुमुदिनि : (सं० कुमुदिनी) कुमुद पुष्प । 'बिलखित कुमुदिनि चकोर।' गी० १.३६.१ कुमुदिनी : कुमुदिनी+ब० । कुमुदिनियां । 'जनु कुमुदिनी कौमुदी पोषीं।' मा० - २.११८.४ कुमुलानी : भूकृ०स्त्री० (सं० कुम्लाना) । मुरझा गई, सूख गई । 'हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी।' मा० १.२०८.१ कम्हड़ : सं०पु० (सं० कूष्माड>प्रा० कुम्हंड)। क छ । कुम्हड़बतिया : कछू का कच्चा छोटा फल । मा० १.२७३.३ कुम्हड़े : 'कुम्हड़' का रूपान्तर । 'कुम्हिलहै कुम्हड़े की जई है ।' विन० १३६.८ कुम्हारा : सं०० (सं० कुम्भकार>प्रा० कुंमार)। घड़ा बनाने वाली जाति, कुमार । मा० ७.१००.५ कुम्हिलाहिं, हीं : आ०प्रब० । मुरझाते हैं, सूख से जाते हैं। 'बागन्ह बिटप बलि कुम्हिलाहीं ।' मा० २.८३.८ कुम्हिलैहे : आ०भ० प्रए । कुम्हला जायगी, मुरझायगी । 'कुम्मिलैहै कुम्हड़े की जई है।' विन० १३९.८ कुयोगिनां : (सं० पद) मिथ्या योगसाधना करने वाले यतियों के । मा० ३.४.छं० कुरंग : सं०पू० (सं०) । हरिण । मा० २.८६.८ कुरंगा : कुरंग । मा० १.४६.४ कुरंगिनि, नी : सं०स्त्री० (सं० कुरंगी)। हरिणी। 'चितवत चकित कुरंग कुरंगिनि ।' गी० ३.२.५ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 तुलसी शब्द-कोश कुदरी : सं०स्त्री० (सं०) । पक्षिविशेष । मा० ३.३१.३ कुरव : सं०पु० (सं०) । न म रझाने वाले फूलों का एक वृक्ष जिसे 'महासहा' भी कहते हैं । गी० २.४८.१ कुराई : कुराय+स्त्री०ब० । लताओं के लिपटने से बनी हुई जालियाँ। मा० २.३११.५ कुराज : बुरा राज्य, दुष्ट शासकों का राज्य । दो० ५१३ कुराय : सं०पू० (सं० कुलाय) । लता आदि का जाला । 'काँट कुराय लपेटन लोटन ।' विन० १८६.४ । करितु : प्रतिकूल ऋतु । मा० ६.५.५ कुरी : सं०स्त्री० (सं० कुल)। जातीय वर्ग । 'हरषित रहहिं लोग सब कुरी।' मा० ७.१५.८ कुरु : आ०-प्रार्थना-मए० (सं०) । तू कर । मा० ५ श्लोक २ कुरुखेत : सं०० (सं० कुरुक्षेत्र) । तीर्थ विशेष जहाँ महाभारत संग्राम हुआ था। ___ कवि० ७.१६२ कुरुचि : कलुषित इच्छा, अनुचित वासना । मा० २.१६१.७ कुरुपति : कुरुराज । विन० २४०.३ कुरुराज : कुरुवंश का राजा+दुर्योधन । विन० ६३.६ कुरूप : वि० (सं०) । असुन्दर, विकृत वेष वाला-वाली। 'करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा ।' मा० २.१६.५ कुरूपता : सौन्दर्यहीनता। कृ० २६ कुरूपा : कुरूप । मा० ७.६६.३ कुरोग, गा : असाध्य रोग, अति कष्टकर स्थायी रोग। 'एहि कुरोग कर औषधु नाहीं।' मा० २.२१२.२ कुर्वन्ति : आ०प्रब० (सं०) । करते हैं । 'मधुरतर मुखर कुर्वन्ति गानं ।' विन० ५१.५ कुल : सं०० (सं.)। (१) वंश । 'जलदाता न रहहिं कुल कोऊ ।' मा० १.१७४.३ (२) वर्ग । 'साधु बिबुध कुल हित गिरिनन्दिनि ।' मा० ३१.६ (३) समूहा 'सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा ।' मा० १.३७.५ कलकेतु : वंश में पताका के समान सर्वोपरि । मा० ३.११.१४ कुलखन : सं०० (सं० कुलक्षण>प्रा० कुलक्खण)। अपशकुन, दुर्भाग्यसूचक आदि । 'मिटे कलुष कलेस कुलखन ।' गी० ७.१.२ कुलगुर : कुलगुरु । मा० ५.५० Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 181 कुलगुरु : सम्पूर्ण कुल का गुरु । (१) वंश का आचार्य (वसिष्ठ) । मा० २.२६३.२ (२) वंश का पूर्वपुरुष (सूर्य) । 'बिधुहि जोरि कर बिनवति कुलगुरु जानि ।' बर० ४१ कुलघाती : (दे० घाती) । सम्पूर्ण वंश का विनाश करने वाला । मा० ५.५२.८ कुलदीपा : वि०० (सं० कुलदीप) । वंश में प्रकाश करने वाला=कुलश्रेष्ठ । मा० २.२८३.५ कुलदेवा : (सं० कुलदेव) । सम्पूर्ण वंश में पूज्य देव । मा० २.६.८ कुलपूज्य : सम्पूर्ण वंश में पूजनीय । मा० २.६.८ कुलबधू : कुलीन स्त्री, कुलङ्गना, कुल की मर्यादाओं का पालन करने वाली वधू । गी० १.३४.६ कुलब्दद्ध : वंश भर में बड़ा-बूढ़ा । मा० १.२८६ कुलमान्य : वंश भर में सम्मान योग्य =कुलपूज्य । मा० २.४६.३ कुलरीति : सम्पूर्ण वंश में प्रचलित रीति, परम्परागत मर्यादा । मा० १.३३६.१ कुलवंति : वि. स्त्री० (सं० कुलवती>प्रा० कुलवंती)। कुलीना। 'कुलवंति निकारहिं नारि सती।' मा० ७.१०१ छं० कुलह : सं०स्त्री० (फ्रा०) । टोपी (आँखों का आवरण) । 'कुमत कुबिहग कुलह जन खोली।' मा० २.२८.८ कुल हि : (१) कुल को। 'कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसो।' मा० १.२८४.४ (२) कुलह कुलही : कुलह । टोपी । 'कुलही चित्र, बिचित्र झंगूलीं।' गी० १.३१.५ कुलम्हण : कोलाहल । गी० १.४.६ कुलि : वि० (अरबी-कुल =तमाम, पूरा; सं० कुल्य = कुल समूह) सम्पूर्ण । 'कलि कुचाल कुलि कलुष नसावन ।' मा० १.३५.१० कुलिपि : कुत्सित लिपि, प्रतिकूल लेख, दुर्भाग्य रेखा, 'लोपति बिलोकत कुलिपि भोंड़े भाल की।' कवि० ७.१८२ कुलिस : सं०० (सं० कुलिश) । (१) वज्र, इन्द्र का आयुध । मा० १.११३.७ (२) पैरों की रेखा विशेष । 'रेख कुलिश ध्वज अंकुम सोहे।' मा० १.१६६.३ (३) लोहो विशेष । 'सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा।' मा० १.२१४.१ (४) हीरा : 'मानिक मरकत कुलिस पिरोजा।' मा० १.२८८.४ कुलिसनि : कुलिस+संब० । कुलिश हीरों (ने)। 'मनहुं सोन सरसिज महें कुलिसनि तड़ित सहित कृत बासा ।' गी० ७.१२.६ कुलिसरद : वज्र तुल्य दांतों वाला=राक्षस विशेष । मा० १.१८० Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 तुलसी शब्द-कोश कृलिसादिक : सामुद्रिक की चार रेखाएं-कुलिश, ध्वज, अंकुश तथा धनुष । मा० ७.७६.७ कुलिसु : कुलिस + कए । वज्र । 'निदरि कुलिसु जेहिं लही बड़ाई।' मा० २.१७६८ कुलीन : वि० (सं०) उत्तम कुल वाला =अभिजात । मा० २.१४५.१ कुलीना : कुलीन । मा० ५.७.७ कलु : कुल+कए । 'जौं घरु बरु कुल होइ अनूपा' मा० १.७१.३ कुलोग : दुर्जन । दो० १७८ । कुलोगनि : कुलोग+सं०ब ० दुष्ट लोगों । 'घेरि लियो रोगनि कुजोगनि कुलोगनि __ज्यों।' हनु० ३५ कुवँर : कुअर । कृ० २७ कुष्ट : सं०पु० (सं० कुष्ठ) । रोगविशेष, कोढ़ । मा० ७.१२१.३४ कुस : सं०० (सं० कुश) । (१) तृणविशेष जो यज्ञोपयोगी होता है-दर्भ । मा० २.३११.५ (२) सीताजी के ज्येष्ठ पुत्र का नाम । मा० ७.२५.६ कुसंकट : अति विषम परिस्थिति। मा० १.२२.५ कुसंग : दुष्टों का साथ । मा० १.७.८ कुसंगत : दुष्टों की मित्रता (संगत=मित्रता) । 'बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं।' मा० १.३.१० कुसंगति : कुसंग । मा० १.७.११ कुसकेतु : जनकराज सीरध्वज के अनजा=कुशध्वज सीता के पितृव्य =माण्डवी तथा श्रुतकीति के पिता । मा० १.३२५ छं. कसगुन : दुनिमित्त, अशुभसूच शकुन । मा० २.८१.४ कुसपने : (कुसपन+ब०-दे० सपन) दुष्ट स्वप्न, अशुभ स्वप्न । मा० २.२०.६ कुसमउ : कुसमय+कए० । 'तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता।' मा० २.२५३.५ कुसमय : कुसमय में-पर । 'कुसमय तात न अनुचित मोरा ।' मा० २.३०६.७ कुसमय : प्रतिकूल समय । मा० १.५०.२ कुसमाज : पापपूर्ण समुदाय, कलुष-समूह । 'परिबारु बिलोकु महा वु समाजहि रे ।' कवि० ७.३० कसमाजु : कुसमाज+कए । 'तुलसी तजि कुसमाजु ।' दो० २२ कुसल : (१) सं० (सं० कुशल) । मङ्गल, शुभ । 'संभु बिरोध न कुसल मोहि ।' मा० १.८३ (२) वि० । दक्ष, निपुण, प्रवीण । 'केवट कुसल उतर सबिबे का।' मा० १.४१.२ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 183 कुसलाई : सं०स्त्री० (सं० कुशलता>प्रा० कुसलया)। शुभ दशा, उत्तम समाचार । 'कहि असीस पूछी कुसलाई ।' मा० १.३०८.२ कुसलात, ता : सं०स्त्री० (सं० कुशलवार्ता)। शुभ समाचार, हालचाल । 'हँसि पूछी कुसलात ।' मा० १.५५ 'बार-बार बूझी कुसलाता ।' मा० ७.२.१२ कुसली : वि० (सं० कुशलिन्) । कुशलमङ्गलयुक्त । मा० २.१५१ छं० कुसांसति : (दे० साँसति) असाध्य क्लेश । विन० २५६.१ कसाज : (१) कुत्सित साज, प्रतिकूल रीति । कृ० ६१ (२) कुत्सित साज वाला कुसाजु : कुसाज+कए० । (१) कलुषित साज। 'राजकाजु कुपथु कुसाजु भोग रोग ही के ।' कवि० ७.६८ (२) प्रतिकूल साज वाला। 'नरपति निपट कुसाजु ।' मा० २.३६ कुसाथ : कुसंग । कवि० ७.२६ कुसासन : सं०० (सं० कुशासन) । कुश निर्मित का आसन । मा० ७.१ख कुसाहेब : कष्ट-दायक स्वामी । कवि० ७.१२ कुसुमि : वि० (सं० कुसुम्भिन् = कोसुम्भ) । कुसुम्भ पुष्प के (समान) रंग वाला। - 'कुसुभि चीर तन सोहहीं । गी० ७.१६.४ कुसुम : सं०० (सं०) । पुष्प । मा० ३.१.३ कुसुमांजलि : पुष्पाञ्जलि । मा० १.२६५.३ । कुसुमित : वि० (सं०) । पुष्पसम्पन्न । 'कुसुमित नव तरु राजि बिराजा।' मा० १.८६.६ फुसूत : (१) सं०पु० (सं० कुसीप-दे० सूत) =कुब्याज+ (२) (अरबी-किसूत) परिधान, घेरा+(३) (अरबी-कुसूत) जुल्म, दुर्दान्त अन्याय + (४) (सं० कुसूत्र) उलझा धागा जो कभी सुलझे ही नहीं। 'रोग भयो भूत सो कुसूत भयो तुलसी को।' कवि० ७.१६७ कुसेवकु : कुसेवक+कए० । दुष्ट परिचारक । मा० १.२८.४ कुसोदक : कुश और जल (जो दान-संकल्प में विहित है)। 'अगिनि थापि मिथिलेस कुसोदक लीन्हेउ ।' जा०म० १४४ कुहत : वकृ०पु । वध करता, मारता । 'कासी कामधेनु कलि कुहत कसाई है।' कवि० ७.१८१ कुहर : सं०पु० (सं०) । बिल, कन्दरा . कुहरनि : कुहर+संब० । कुहरों, बिलों, कन्दराओं (में) । 'भुजग रहे कुहरनि ।' गी० १.२७.४ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 तुलसी शब्द-कोश कुहू : (१) कोकिलनाद का अनुकरण शब्द । 'कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं।' मा० ३.४०.६ (२) अमावस्या तिथि । 'मोहमय कुह निसा ।' विन० ७४.२ कुही : आ०-संभावना-प्रए । चाहे मार ही डाले । 'आपु ब्याध को रूप धरि ___कुही कुरंगहि राग ।' दो० ३१४ कडि : सं०स्त्री० (सं० कुण्डी) । लोहे की टोपी, शिरस्त्राण । मा० २.१६१.२ कूकर : कूकुर । कवि० ७.५७ कूकरु : कूकर+कए० । 'जनि डोलहि लोलप कूकरु ज्यों ।' कवि० ७.३० कूकुर : सं०० (सं० कुकुर कुक्कर) । कुत्ता। कवि० ७.२६ कूच : सं० (फ्रा०) । प्रस्थान, यात्रा। ‘सोच न कूच मुकाम को ।' विन० १५६.३ कूजत : वकृ०० (सं० कूजत्) । कूजन (पक्षिध्वनि विशेष) करते। कूजत मंजु ___ मराल मुदित मन ।' मा० २.२३६.६ कूजहिं : आ०प्रब० । कूजन करते हैं । 'कूजहिं खग।' मा० ७.२३.३ कूज : कूजहिं । 'कल कूज न मराल ।' गी० ३.६.२ कूट : सं०० (सं०) । (१) समूह (२) पर्वत शिखर (३) कपाल की हड्डी (४) धनुष आदि की कोटि । 'कमठ पीठि पबि-कूट कठोरा ।' मा० १.३५७.४ (५) छल, भ्रान्ति, मिथ्या। 'कारमन कूट कृत्यादि हंता।' विन० २६.७ (६) गुप्त विरुद्धाचरण (अभिचार आदि, मारण आदि प्रयोग)। 'घोर जंत्र मंत्र कूट कपट कुरोग जोग ।' हनु० ३२ कूटकृत्या : गुप्त छलपूर्ण आचरण, षड्यन्त्र । विन० २६.७ ।। कूटस्थ : वि०पू० (सं०) । अचल, सुप्रतिष्ठ, निर्विकार (अन्तर्यामी ब्रह्म) । विन० ५३.६ कुटि : सं०स्त्री० (सं० कूट) । कूट वचन, गूढ परिहासादि-वाक्य । 'कूटि करहिं नारदहि सुनाई।' मा० १.१३४.३ कूट्यो : भूकृ०पु०कए० । कूट डाला, चकनाचूर कर दिया। हाकि हनुमान कुलि __कटकु कूट्यो ।' कवि० ६.४६ कूदत : वकृ०० (सं० कूर्दत् >प्रा० कुइंत) । कूदता-ते, उछाल भरते। 'कूदत कपि कुरंग की नैया।' कृ० १६. कूहि : आ०प्रब० (सं० कूर्दन्ति>प्रा० कुइंति>अ० कुद्द हिं)। उछाल भरते हैं। ____ 'कूदहिं गगन मनहुँ छिति छोड़े।' मा० २.१६१.६ कूदि : पूकृ० । कूद कर, उछाल लेकर । 'कूदि परा पुनि सिंधु मझारी।' मा० ५.२६.८ कूदिए (ये) : आ० भाववाच्य । उछाल ली लाय। हनु० २३ कूदिबे : भकृ०० । कूदने । 'पवन के पूत को न कूदिबे को पलु गोर।' कवि० ४.१ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 185 कूदे : भूकृ०पुब० (सं० कूदित>प्रा० कुद्दिय) । उछले । 'कूदे जुगल बिगत अम।' ____ मा० ६.४५ कूदें : कूदहिं । कूर्दै कपि कौतुकी।' कवि० ५.२६ कुद्यो : भूकृपु० कए० । उछल गया । 'कपीसु कूद्यो बातघात उदधि हलोरि के ।' कवि० ५.२७ कूप : सं०पु० (सं.)। कूआ, गहरा गर्त । मा० २.२१ कूपक : कूप । 'संसार तम कूपक ।' विन० २०६.५ (तम कूपक=अन्धा कुआ) कूपा : कूप । मा० ३.१५.५ कूबर : संपु० (सं० कुव्र, कुब्ज) । पृष्ठ गुल्म विशेष । मा० २.१६३.४ कूबरी : कुबरी। (१) कृष्ण की प्रेयसी विशेष (२) मन्थरा । मा० २.३१.२ कबरे : वि०पू०ब० । कुब्ज लोग । 'काने खोटे कूबरे ।' मा० २.१४ कूर : वि० (सं० क्रूर) (१) छली, प्रपञ्ची। 'हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी।' मा० १.८.१० (२) नृशंस, निर्दय, कर्कश, कठोर । मा० २.२६६.२ (३) अकर्मण्य, आलसी । 'सूरनि उछाहु, कू र कायर डरत हैं।' कवि० ६ ४६ (४) मूर्ख । 'लात के अघात सहै, जीमें कहै, कूर है।' कवि० ५.३ (५) सं०० (सं०) । उबला चावल आदि । 'तुलसी परोसरे त्यागि भाग कर कौर रे ।' विन० ६६.५ (६) (सं० कूट>प्रा० फूड) । ढेर, ऊंची राशि, शिखर कुरुम : सं०० (सं० कूर्म) । कच्छप । मा० १.२६१ छं० कूरो : कूट+कए० (सं० कूट>प्रा० कूडो)। पर्वताकार ढेर । “भांग धतूरो बिभूति को कूटो।' कवि० ७.१५५ कूल : सं०० (सं०) । तट, पार्श्वभाग । मा० १.३६ कूलद्रुम : नदी तट का वृक्ष जो सहजही धारा बढ़ने से किसी क्षण ढह सकता है । 'तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ ।' मा० ६.२३.३ कूला : कूला । मा० १.३६.१२ कृकलास : सं०० (सं०) । शरट=गिरगिट (राजा नृग विप्र-शाप से कृकलास होकर गर्त में पड़े थे जिनका उद्धार श्रीकृष्ण ने किया)। विन० २३६.३ यह तीर्थ 'कृकलास-तीर्थ नाम से द्वारका के पास है। कृकाटिका : संस्त्री. (सं.)। ग्रीवा-पश्चाद्-भाग । सुगढ़ पुष्ट उन्नत कृकाटिका, कंबु कंठ सोभा मन भावति ।' गी० ७.१७.१० कृत : (१) भूकृ० (सं.)। किया हुआ, किये हुए। किया। 'सीता ते मम कृत अपमाना।' मा० ५.१०.१ (२) वि० (सं० कृत्)। करने वाला । 'कल्पांतकृत।' विन० ५४.६ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 तुलसी शब्दकोष कृतकृत्य : वि० (सं.)। जो अपना कार्य सम्पन्न कर चुका हो, सफल, कृतार्थ । मा० ७.१२६ कृतग्य : वि० (सं० कृतज्ञ) । किये हुए को जानने वाला= उपकार मानने वाला। 'अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना।' मा० ६.६२.१ कृतयुवा : सं०० (सं०) । चतुर्युगी का प्रथम युग जो सत्त्व प्रधान होता है= सत्त्वयुग= सतजुग । मा० ७.४० कृतांत : सं०० (सं०) । यमराज, मृत्यु; काल । मा० ३.२६.१२ कृतारथ : वि० (सं० कृतार्थ)। कृतकृत्य, सफल-मनोरथ । मा० २.२५७ कृतिन् : वि० (सं०) । कृती, कुशल, कृतार्थ । मा० ४ श्लोक २ कृतु : कृत+कए० । एकमात्र कर्म । 'सुमिरिए छाडि छल भलो कृतु है ।' विन० २५४.२ कृत्या : सं०स्त्री० (सं०) । (१) कृत्य, कर्म (२) इन्द्रजाल (३) एक प्रकार की देवी जिसे पशुबलि दी जाती है और जो जादू की देवी तथा पिशाची मानी गई है । 'कारमन कूट कृत्यादि हंता ।' विन० २६.७ कृपन : वि० (सं० कृपण) (१) कन्जूस । 'सेवक सठ नप कृपन कुनारी।' मा० ४.७.६ (२) दरिद्र, दीन । 'जैसें परम कृपन कर सोना ।' मा० १.२५६.२ ।। कृपनाई : कृपणता से, दीनतावश । 'आगम लाग मोहि निज कृपनाईं।' मा० १.१४६.४ कृपनाई : सं०स्त्री० (सं० कृपणता) । कन्जूजी। 'दानि कहाउब अरु कृपनाई।' मा० २.३५.६ कृपनु : कृपन+कए० । एकमात्र कन्जू स । 'कृपन देइ पाइअ परो।' रा०प्र० ७ ४.३ कृपाँ : कृपा से । 'तुम्हारी कृपा सुलभ सोउ मोरे ।' मा० १.१४.११ कृपा : सं०स्त्री० (सं०-कृपू सामर्थ्य) । समर्थ द्वारा की हुई दया; अनुग्रह । मा० कृपाकर : वि० (सं०) । (१) कृपा+आकर= दयानिधान (२) कृपा-कर == कृपा ___करने वाला=कृपालु । 'जानि कृपाकर किंकर मोहू ।' मा० १.८.३ कृपाना, ना : सं०० (स० कृपाण) । तलवार । मा० ५.१०.१ कृपापात्र : वि० (सं.)। कृपा का आलम्बन, कृपा पाने योग्य । मा० ७.७०.२ कृपामई : वि०स्त्री० (सं० कृपामयी) । कृपापूर्ण । वि० १७०.७ कृपामृत : कृपा रूपी अमत; अमृतवत् अमरत्व देने वाली कृपा । मा० १.१४५.६ कृपायतन : कृपा का आगार=परमकृपालु । मा० १.६१ कृपाल, ला : कृपालु । मा० १.१३.५; १६२ छं० कृपालु (लू) : वि० (सं०) । कृपायुक्त, दयालु । मा० १.२८.क Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 187 कृपाहीं : कृपा में, कृपा से । 'तात बात फुरि राम कृपाहीं।' मा० २.२५६.१ कृपिन : कृपन। मा० ६.३१.२ कृपिनतर : वि० (सं० कृपणतर)। अतिशय कृपण । 'हमरि बेर कस भयह कृपिनतर ।' विन० ७.२ कृमि : स०पू० (सं.)। क्षुद्जन्तु=कीट । मा० ७.६५ ख कृशानु : सं०पु० (सं०) । अग्नि । मा० ३.११.५ कृषी : सं०स्त्री० (सं० कृषि) । खेती, सस्य क्षेत्र । मा० ४.१५.८ कृष्न : सं०पु० (सं० कृष्ण) । द्वापर का ईश्वरावतार । मा० १.८८.१-२ कृस : वि. (सं० कृश)। क्षीण, दुर्बल । मा० ५.८.८ कृसगात : वि० (सं० कृशगात्र>प्रा० कसगत्त) । दुर्बल शरीर । कवि० ७.४६ कृसधन : वि० (सं० कृशचन)। अल्प धन वाला । दो० ३३५ कृसानु, नू : कृशानु । मा० १.४.५ कृस्न : कृष्न । विन० १०६.४ के : क्रि०वि० परसर्ग । (१) के पास, के अधीन । 'जिन्ह के बिमल बिबेक । मा० १.६ । (२) के..... पर । 'तिन्ह के बचन मानि बिस्वासा।' मा० १.७६.५ (३) के..... से । 'कहा हमार न सुनेहु तब नारद के उपदेस ।' मा० १.८६ (४) के..... में । 'पितु के जग्य जोगानल जरी ।' मा० १.६८ छं० (५) के __ यहाँ । 'तेहिं के भए जुगल सुत बीरा ।' मा० १.१५३.४ । केंकरहिं : आ०प्रब० (सं० कें कुर्वन्ति>प्रा० केंकरंति>अ. केंकरहिं) । के-के ध्वनि करते हैं । 'केंकरहिं फेरु कुभांति ।' रा०प्र० ३.१.५ केंचुरि : सं०स्त्री० (सं० कञ्चुलिका>प्रा० कंचुलिआ>अ. कंचली=कंचुलि) । सांप की चमड़ी का खोल जो पूरे शरीर से निकल जाता है = केंचुल = काँचुरी। 'तुलसी केंचुरि परिहरें होत साँपहू दीठि ।' दो० ८२ । (कहते हैं कि केंचल जब तक नहीं निकलती, सांप को सूझना बन्द हो जाता है ।) के : (१) सम्बन्धार्थक परसर्ग-पुं० । 'नाहिन राम राज के भूखे ।' मा० २.५०.३ (२) उपयुक्त, के निमित्त । 'बरिबे कौं बोले बयदेही बर काज के।' कवि० १.८ केई : किसने । 'अनहित तोर प्रिया के इ कीन्हा ।' मा० २.२६.१ केउ : (१) कुछ भी । 'मोहि के उ सपनेहुं सुखद न लागा।' मा० २.६८.६ (२) ____ कोई । 'होइहि के उ एक दास तुम्हारा ।' मा० १.२७१.१ केकई : कैकई । मा० १.४१.८ के कि, की : सं०० (सं० केकिन्) । मयूर (जिसकी बोली=के का) । 'तुलसी केकिहि पेखु ।' मा० १.१६१ ख 'केकी काक अनंत ।' वैरा० ३२ केत : केतु । धूमकेतु । “उदय केत सम हित सबही के ।' मा० १.४.६ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 तुलसी शब्द-कोश केतकि : सं०स्त्री० (सं० केतकी) । केतक जाति का पुष्प विशेष । बर० ३२ केता : वि०पु० (सं० कियत >किअत्त) । कितना 'ग्यानहि भगतिहि अंतर केता।' मा० ७.११५.११ केतिक : (१) केता+इक। कितना-सा। 'केतिक बीच बिरह परमारथ ।' क० ३३ । (२) केती+इक । कितनी-सी। नर पार्वर के केतिक बाता।' मा० ७.१०६.३ केतु, तू : सं०पु० (सं०) (१) ध्वज । 'पताका केतु गृह-गृह सोहहीं।' मा० १.६४ छं० (२) ग्रह-विशेष, जो राहु का धड़ कहा गया है । 'राहु केतु उलटे चलहिं ।' रा०प्र० ७.२.३ (३) धूमकेतु, उल्का । 'जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू ।' मा० ७.१२१.२० (४) (समासान्त में) पताका के समान सर्वोपरि= श्रेष्ठ । 'कहि जय जय जय रघुकुल-केतू ।' मा० १.२८५.७ (५) सामुद्रिक की रेखा विशेष । 'कुलिस केतु जव जलज रेख बर।' विन० ६३.२ । केतुजा : सुकेतु राक्षस की पुत्री ताड़का । हनु० ३६ केते : केता का रूपान्तर (ब.) कितने । 'सून रावन रावन जग वेते ।' मा० ६.२४.१२ केतो : केतो+कए । कितना । 'रोष केतो बड़ो कियो है।' कृ० १६ केदार : केदार+कए । क्यारी, खेत । कवि० ७.११५ केन : (सं० पद) सर्वनाम । किससे । 'जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान ।' मा० ७.१०३ ख (येन केन विधिना=जिस किसी प्रकार से) केयूर : पु०सं० (सं.) । बहूरा, अङ्गद=बाहुभूषण विशेष । विन० ५१.६ केर : सम्बन्धार्थक परसर्ग-पुं० (अ.) । का। 'नहिं निसिचर कुल केर उबारा।' __ मा० ५३६.२ केरा : (१) केर । का। 'धुआँ देखि दसकंधर केरा।' मा० ३.२१.५ (२) सं० पु० (सं० कदल>प्रा० केल) केला, कदली वृक्ष । 'सफल रसाल, पूग फल, केरा।' मा० २.६.६ केरि, री : केर+स्त्री० । की । 'सीता केरि करेहु रखवारी ।' मा० ३.२७.६ 'पुनि ____ कहु खबरी बिभीषन केरी।' मा० ५.५३.४ केरें : के। के लिए, के प्रति । 'परहित हानि लाभ जिन्ह के रें।' मा० १.४.२ केरे : के । केर का रूपान्तर । 'चरन कमल बंदउ तिन्ह केरे । मा० १.१४.३ केरो : केर+कए । का। 'बहिबो ताहू केरो।' विन० ८७.३ केलि : संस्त्री० (सं.)। क्रीडा, कौतुक, विनोद । मा० २.१०.५ ।। केलिगृह : क्रीडागृह, विलास भवन, रतिमन्दिर, कोहबर । गी० १.१०७.३ केलिमग : क्रीडामृग, विनोदार्थ पालितमृग । मा० २.८३ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 189 केवट : सं०० (सं० कैवर्त>प्रा० केवट्ट)। मल्लाह, नाविक, नौका व्यवसायी जाति (निषाद)। मा० १.४१.२ केवट : केवट+कए. । 'केवटु भेटेड राम ।' मा० २.२४१ केवल : वि. (सं०) । एकमात्र, अमिश्रित, अद्वितीय, शुद्ध । मा० १.१३.५ केश : (१) दे. केस । (२) क+ईश= ब्रह्मा तथा शिव । 'केश बंदित पदद्वन्द्व ।' विन० ४६.५ केस : सं०० (सं० के श) । शिरोरुह, सिर के बाल । मा० १.१४७.५ केसरिणि : केसरी+स्त्री. (सं० केसरिणी)। सिंही। विन० १५.४ केसरी : संपु० (सं० केसरिन्)। (१) सिंह । मा० ६.१२.२ (२) हनूमान् ___ के पिता । कवि० ५.१२ केसव : सं०० (सं० केशव) । विष्णु, राम, कृष्ण । कृ० ६१ केसा : केस । मा० २.२.७ केहरि, री : केसरी । मा० १.३२.७ केहरिनख : सं०० (सं० केसरिनख) = व्याघ्रनख । बघमहा । गी० २५.३ केहरिनाद : सिंहगर्जन । मा० ५.३५.१०' । केहि : किस..... से । 'को जानै केहि सुकृत सयानी। मा० १.१३५.४ केहि : सर्वनाम (सं० कीदृशृ>अ० केह) (१) किस । 'कहहु तूल केहि लेखे - माहीं।' मा० १.१२.११ (२) किसे, किसको। 'मिज कबित्त केहि लाग न नीका ।' मा० १.८.११ (३) किसके । 'दुइ माथ केहि ।' मा० १.८४ छं० केही : के हिं। (१) किसी ने। 'पुर नर नारि न जाने उ केहीं ।' मा० ११७२.४ (२) किसी...... से। 'सोभा कहि न जात बिधि केहीं।' मा० १.३२५.८ (३) किसी..... के द्वारा । 'अनुचित कहब न पंडित केहीं।' मा० २.१७५.५ (४) किसी....... में । 'तुम्ह जानहु जिय जो जेहि के हीं।' मा० २.२६१.२ केही : केहि । 'सो बरनै असि मति कबि केही।' मा० १.२८६.४ केह : किसी को। 'नाम सत्त्य अस लाग न केह। मा० २.२७१.२ के : के इँ। किसने । 'तुम सों मन भावत पायो न के।' कवि० ७.३८ के : (१) अव्यय (सं० कृत>प्रा० कए) । के लिए, के प्रति, के स्थान पर । 'दुइ के चारि भागि मक लेहू।' मा० २.२८.३ (२) सम्बन्धार्थक वि० परसर्गस्त्री० । की। 'जनम लाभ के अवधि अघाई।' मा० २.५२.८ (३) पूकृ० = करि । करके । 'लोचन लाहु लेत अघाइ कै । गी० १.५.२ (४) के। किसने । 'के न लह्यो कौन फरु ।' कृ० १७ (५) कि । अथवा । 'साधु के असाधु के भलो के पोच ।' कवि० ७.१०७ (६) और । 'ख्वै हौं ना पठावनी के हहौं ना हँसाइ के ।' कवि० २.६ ककइ, ई : कैकेई । मा० २.२४.२.१२ कैकय : सं०० (सं० केकय) । जनपद विशेष । मा० १.१५३.२ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 तुलसी शब्द-कोश कैकेई : सं०स्त्री० (सं० कैकयी) । केकय राजकुमारी दशरथ को मध्यमा रानी। मा० १.१६०.३ कैक : करि के । करके । तैसो कपि कौतुकी डेरात ढीले गात कैर्भ ।' कवि० ५.३ कैटभ : सं०पू० (सं.)। एक असुर जिसे सृष्टि के पूर्व प्रलय सागर में विष्णु ने मारा था। मा० ६.४८ क कैटभारे : 'कैटभारि' का सम्बोधन (सं.) । हे कैटभ के शत्रु । गी० १.३८.३ कंधौं : अव्यय (सं० किं ध्रुवम् ) के+धौं । क्या निश्चय ही, क्या भला, अथवा क्या। 'तुलसी सुटेस चापु कैधौं दामिनी कलापु कैधों चली मेरुतें कृसानु सरि भारी है ।' कवि० ५.५ कैरव : कुमुद (सं.)। मा० २.१० कैलास : सं०पु० (सं.) । हिमालय पर्वतमाला का शिखिर विशेष । मा० १.५८ कैलासहि : कैलास में । 'जपहिं संभ कैलासहिं आए।' मा० १.१०३.३ कैलासा : कैलास । मा० १.५८.६ कैलासु, स : कैलास+कए । 'परम रम्य गिरिबर कैलासू ।' मा० १.१०५.८ कंवल्य : सं०० (सं०) । मुक्त दशा, माया रहित जीव की शुद्ध अवस्था, मोक्ष । मा० ७.११६.३ कैसा : कस । मा० ३.३५.६ कैसी : कसि । मा० १.७७.१ कैसें : क्रि०वि० । किस प्रकार से । ‘सो मो सन कहि जात न कसें ।' मा० १.३.१२ कैसे : 'कैसा' का रूपान्तर (अ० कइस=क इसय) । किस प्रकार के । 'घायल बीर ___ बिराजहिं कैसे ।' मा० ६.५४.१ कैसे उ : कैसे भी, किसी प्रकार के । 'कसेउ पावर पातकी।' विन० १६१.८ कैसेहुं : किसी प्रकार भी । 'एक बार कैसे हुं सुधि पावौं ।' मा० ४.१८.२ कसो : कैसो+कए। (१) कैसा। 'सुद्धता लेसु कसो।' विन० १०६.४ (२) के जैसा, के सदृश । 'सहित समाज गढ़ राँउ कसो भांडिगो।' कवि० ६.२४ केहूं : किसी प्रकार से । ज्यों का त्यों करके । 'पठयो है छपदु छबीले कान्ह केहूं कहूं।' कवि०.१३५ को : (१) का+कए० । बंदउँ नाम राम रघुबर को।' मा० १.१६.१ (२) सर्व नाम (सं० क:>प्रा० को)। कौन । 'को बड़ छोट कहत अपराधू ।' मा० १.१२१.३ (३) कोई । 'राम सो न साहेबु न कुमति कटाइ को।' कवि० ७.२२ (४) कौं। के लिए, के प्रति । 'भरत की मातु को भी ऐसो चहियतु है।' कवि० २.४ । 'मोसो दोस कोस को भुवन कोस दूसरो न ।' विन० २५८.२ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 191 कोइ, ई : सर्वनाम (सं० कोऽपि>प्रा० कोइ= कोई) मा० १.३क; १.३.२ कोउ, ऊ : कोई । मा० १.१०क; १.५८ कोए : सं०पु० (सं० कोच>प्रा. कोच)+ब० । सिकुड़ा भाग, कोण । 'कहत ___भरे जल लोचन कोए।' मा० २.१६८.७ कोक, का : स०पु० (सं०) । चक्रवाक पक्षी । मा० २.८६ कोकनद : सं०पु० (सं०) । रक्तकमल । कृ० २६ कोका : कोक । चकवा । 'निसि दिन नहिं अवलोकहिं कोका।' मा० १.८५.५ कोकिए : आ० कर्मवाच्य-प्रए । पुकारिए, पुकारा जाए । 'धाइ जाइ तहाँ जहाँ और कोऊ कोकिए।' कवि० ५.१७ कोकिल : (१) संपु० (सं.)। पक्षीविशेष, कोयल। मा० २.६२.७ (२) (समासान्त में) वि० । श्रेष्ठ । 'कबि कोकिल' कवि० ७.८६ कोकिलन : कोकिल+संब० । कोयलों (ने) । 'धरी कोकिलन मौन ।' दो० ५६४ कोकिलबयनी : (दे० बचन) वि० स्त्री०बहु० । कोकिलवत् मधुर बोलने वाली स्त्रियाँ । 'करहिं गान कल कोकिलबयनी।' मा० १.२८६.२ कोकिला : कोकिल+ स्त्री० । मा० ३.३०.१० कोकी : कोक+स्त्री० । चक्रवाकी । मा० २.६६.४ कोकू : कोक+कए । एकाकी चकवा पक्षी। 'ससि कर छुअत बिकल जिमि कोक ।' मा० २.२६.४ कोखि : सं०स्त्री० (सं० कुक्षि>प्रा० कुक्खि = कोक्खि) । उदर, गर्भ । 'कोखि के ___ जाए सो रोषु ।' कृ० १६ कोछे : कोछ में, क्रोड में । 'गयउ तुम्हारेहिं कोठे घाली।' मा० ७.१८.२ कोट : सं०० (सं.)। गढ़, दुर्ग । मा० ६.४० कोटर : सं०० (सं०) । खोह, वृक्षादि का बिल । मा० ७.१०७.८ कोटि, टी : संख्या स्त्री० (सं०) । करोड़ । मा० ६.४० कोटिक : (कोटि+इक) । एक करोड़, लगभग करोड़ । 'करहिं कलप कोटिक भरि लेखा।' मा० १.३४२.२ । कोटिन्ह : कोटि+समवाचार्थक ब० । करोड़ों (एक साथ)। 'हय गय कोटिन्ह केलिमृग ।' मा० २.८३ कोठरी : सं०स्त्री० (सं० कोष्ठक>प्रा० कोटुअ>अ० कोटुडी)। छोटा कमरा। गी० ३.१७.७ कोठि : सं०स्त्री० (सं० कोष्ठिका>प्रा० करोट्ठिआ>अ० कोट्ठी= कोट्ठी) । भण्डार, कोठा। ‘सोक कलंक कोठि जनि होह।' मा० २.५०.१ अवधी में बांस की धान को भी 'कोठि' कहते हैं जहां सदैव बाँस उगा करते और बढ़ते रहते हैं। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 तुलसी शब्द-कोश कोठिला : सं०० (सं० कोष्ठ>प्रा० कोट्ठ= कोटिल्लअ) कोठा, मिट्टी का अन्ना गार, डहरा । 'ह है कीच कोठिला धोए ।' कृ० ११ कोढ़ : सं०पु० (सं० कुष्ठ, कोठ>प्रा० कोढ़)। संक्रामक चर्म रोग विशेष जो ___ असाध्य होता है । कवि० ७.१७७ कोढ़ी : कोढ़ रोग वाला (सं० कुष्ठी)। दो० ४६६ कोतल : सं०पु० (सं० कोन्तल)। कुन्तल देशीय अश्व । 'ओतल संग जाहिं ___ डोरिआए ।' मा० २.२०३.४ कोतवाल : सं०० (सं० कोटपाल >प्रा० कोट्टवाल) । रक्षक, पहरेदार, रक्षाधि___ कारी । कवि० ७.१७१ कोदंड : सं०० (सं०) । धनुष । 'संदेह हर कोदंड ।' मा० ३.२५ कोदंडकला : धनुर्विद्या, बाण-चालन कोशल । गी० १.७४.२ कोदंडा : कोदंड । मा० ६.८०.८ कोदंडु : कोदंड+कए । एक धनुष को ही । 'ताकेउ हर कोदंडु।' मा० १.२५६ कोदेव : सं०० (सं० कोदव>प्रा० कोद्दव) । क्षुद्र अन्न विशेष । 'फरइ कि कोदेव __ बालि सुसाली।' मा० २.२६१.४ कोदो : कोदेव । गी० २.४०.४ कोना : सं०पु० (सं० कोन) । मा० २५९.२ कोने : 'करेना' का रूपान्तर । कोर । 'परसपर लखतर सुलोचन कोने ।' गी० १.१०७.१ कोप : सं०० (सं०) । रोष, क्रोध, अमर्ष । मा० १.१२३ कोपर : सं०० (सं० कर्पर>प्रा० कप्पर=पात्र) बड़ा थाल, परात । 'कनक कलस मनि कोपर रूट।' मा० १.३२४.५ अधिकतर 'कर्पर' लौह पान का अर्थ देता है अतः कढ़ाई की सी गहराई वाला पात्र ही-जो अधिक नतोदर हो'कोपर' कहा जाएगा, सामान्य थाल नहीं । कनक कलस भरि कोपर थारा।' मा० १.३०५.१ कोहि : आ०प्रब० (सं० कुप्यन्ति, कुप्यन्तु>प्रा० कोप्पंति, कोप्पंत >अ. कोप्पहि)। कोप करते हैं या करें । 'जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं।' मा० १.१६६.४ कोपा : (१) को। 'सुनहु बचन प्रिय परिहर कोपा।' मा० ६.६.४ (२) भूक०पु० । कुपित हुआ । 'समुझि राम प्रताप कोपि कोपा।' मा० ६.३४.८ कोपि : (१) प्रकृ० । कुपित होकर, कोप करके। 'सुनत कोपि कपि कुंझर धाए।' मा० ६.४७.२ (२) (सं० कोऽपि) कोई । 'गुन दूषक बात न कोपि गुनी।' मा० ७.१०१.६ कोपित : वि० । कोपमुक्त । विन० २४.१ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुमसी शब्दकोश 193 कोपिहि : आ०म०प्रए• । कोप करेगा। जबहिं समर कोपिहि रघुनायक ।' मा० ६.२७.६ कोपिहैं : आ०भ०प्रब० । कोप करेंगे । 'को है रन रारि को, जो कोसलेसु कोपिहैं।' ___ कवि० ६१ कोपी : (१) कोपि । कोई । 'सो गोसाइँ नहिं दूसर कोपी।' मा० २.२६६.७ (२) वि०० (सं० कोपित्) । क्रोधी। 'रन दुर्मद रावन अति कोपी।' मा० ६.८२.४ कोपु : कोप+कए । जरा भी क्रोध । 'सपनेहुं तो पर कोपु न मोही।' मा० २.१५.१ कोपें : कुपित होने से, कोप करने से । 'कोपें सोच पोच कर ।' दो० १८६ कोपे : भू०००ब० । कोपयुक्त, क्रुद्ध । 'रिपु परम कोपे जानि ।' मा० ३.२०.७ कोपेउ : भू.कृ.पु.कए० । कुपित हुआ । 'कोपेउ समर श्री राम । मा० ३.२०.२ कोप्यो : कोपेउ । 'समरभूमि दसकंधर कोप्यो।' मा० ६.६३.३ कोबिद : वि०पु० (सं० कोविद) । अनुभवी, शास्त्र मर्मज्ञ, निपुण, प्रतिभाशाली, विशेषज्ञ, विवेकी, पण्डित । 'बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी ।' मा० १.३.११ कोमल : वि० (सं०) । सुकुमार। (१) सुख स्पर्श । 'कोमल कलिस सुपेती नाना ।' मा० १.३५६.२ (२) सुख-श्रव्य, सुकुमारता नामक काव्यगुण से युक्त । 'पुनि उमा बचन बिनीत कोमल ।' मा० १.६७ छं० (३) दर्शनीय+मृदुल । 'कोमल चरन चलत बिनु पनहीं।' मा० २.३११.४ (४) सरस, सानुग्रह । संवेदनशील । 'कोमलचित कृपालु रघुराई ।' मा० ५.१४.४ कोमलता : संस्त्री० (सं०) । सुकुमारता, मृदुलता । मा० ७.१०२ छं० कोमलताई : कोमलता। मा० ७.११.६ कोय : कोई । 'सुनत सब समझत कोय ।' बर० ६३ कोर : सं०स्त्री. (सं० कोर=कलिक)। कोना, कलिकाकार संकुचित भाग ।' ____ 'कीजै राम बार यहि मेरी ओर चख कोर ।' कवि० ७.१२३ कोरि : पूकृ० (सं०कोटयित्वा>प्रा. कोडिअ>अ. कोडि-कुट छेदे) । काट-छील कर, रन्द कर, खुरचने द्वारा चिकना कर । चीरि-कोरि पचि रचे सरोजा।' १.२८८.४ कोरी : संख्या (सं० कोटि>प्रा० कोडी)। करोड़ । नहिं निस्तार कलप सत कोरी।' मा० ७.१.५ कोरें : कोरे पर, अलिखित पर, बिना प्रयोग किए हुए पर । 'सत्य कहहुं लिखि कागद कोरें।' मा० १.६.११ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '194 तुलसी शब्द-कोश कोल : सं०० (सं०) । (१) वन्य जाति विशेष । 'कोल किरात भिल्ल बनबासी।' मा० २.२५०.१ (२) शूकर, वराह । 'कोल कराल दसन छबि गाई ।' मा० १.१५६.७ कोलनी : कोल जातीय स्त्री शबरी । कवि० ७.१६ कोलन्हि : कोल+संब० । कोलों (ने) । 'सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि ___अवसर कहे।' मा० २.२२६ छं० कोला : कोल । शूकर (जो पौराणिक मत से पृथ्वी को रोके हुए हैं वराह भगवान्) । मा० १.२६०.१ कोलाहल : सं०० (सं०) । जनख, भीड़-भाड़ का समुदित शब्द । मा० २.१५३ कोलाहलु : कोलाहल+कए । 'राउर नगर कोलाहलु होई ।' मा० २.२३.८ कोलिनि, नी : कोलनी । गो० ३.६.२ कोलु : कोल+कए० । वराह भगवान् । 'कोल कमठ अहि कलमल्यो।' ___ कवि० १.११ कोल्हुन्ह : कोल्हू+संब० । कोल्हुओ (में) । 'मूल्यो सूज करम कोल्हुन्ह तिल ज्यों बहु बारनि पेरो।' विन० १४३.२ . कोल्हू : सं०० (सं० कोष्टु>प्रा० कोल्हु) यन्त्रविशेष, तैलादिपीडनयन्त्र । 'पेरत कोल्हू मेलि तिल ।' दो० ४०३ कोशोछ : (सं०) शरीर-रचना के कोश समूह, पाँच कोश । (१) अन्नमय कोश= स्थूल शरीर, (२) प्राणमय कोश=पञ्च प्राण+पञ्चकर्मेन्द्रि, (३) मनोमय कोश =मन+पञ्चज्ञाननेन्द्रिय, (४) विज्ञानमय कोश =बुद्धि+पञ्चज्ञानेन्द्रिय, (५) आनन्दमय कोश =कारण शरीर या सुषुति दशा) । विन० ५८.२ कोस : सं०० (१) (सं० क्रोश>प्रा० कोस)। लगभग दो मील की दूरी । 'गए कोस दुइ दिनकर ढरकें ।' मा० २.२२६.१ (२) (सं० कोष, कोश>प्रा० कोस) । धनागार । 'पावा राज कोस पुर नारी।' मा० ४.१८४ (३) तलवार आदि का खोल या म्यान । (४) खानि । 'कठिन काल मल कोस ।' मा० ३.६ख (५) खोह या अन्य घेरा। 'मो सो दोस कोस को भुवन-कोस दूसरो न ।' विन० २५८.२ (६) पुष्पादि का आकार तथा भीतरी भाग। 'अरुन कंज कोस ।' गी० १.२५.४ "पंकज कोस-ओस कन जैसे ।' मा० २.२०४.१ (७) रेशम को खोल जिस में कीड़ा रहता है (अत एव रेशम को कौशेय कहते हैं) । 'कीर कोस-कृषि कीस ।' दो० २४३ कोसकृमि : (दे० कोस) रेशम का कीड़ा। दो० २४३ . कोसल : सं०० (सं०) । अवध जनपद । मा० २.२७० कोसलपनी : कोसल का राजा। मा० ६.८६.८ कोसलनाथ : कोसल का राजा । मा० ५.३५.छं० १ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश कोसलपति : कोसलनाथ । मा० १.११८ कोसलपाल : कोसलनाथ । मा० २.३१३ कोसलपुर : कोसल की राजधानी = अयोध्या । मा० १.२०४ कोसलपुरी : कोसलपुर । मा० ६.११५ कोसलराऊ : कोसलराय + कए० । कोसलपति । मा० १.२८.१० कोसलराज : कोसलपति । मा० १.२४२ कोसलराय : (दे० राय) = कोसलराज । मा० २.१३५ कोसला : कोसल । मा० २.१०३ कोसलाधीस, सा : (सं० कोसलाधीश ) । कोसलराज मा० ६.७.७ कोसलाधीसु : कोसलाधीस + कए० । राम । कवि० ६.१६ कोसलेन्द्र : (सं० ) = कोसलराज | मा० ७ श्लो० कोसलेस : (सं० कोसलेश ) । कोसलराज । (२) राम । २ (१) दसरथ । 195 मा० ४.७.२ε कोसले : कोसलेस + क९० । राम । कवि० ६.१ कोसा : कोस । खजाना । मा० १.२०८३ कोसु : कोस + कए० । (१) खजाना । 'देसु कोस परिजन परिवारू ।' मा ० १.३१५.७ (२) आगार, खोल । 'लोभ मोह काम कोह दोस कोस ।' कवि० ७.६२ कोह, हा : सं० पुं० (सं० क्रोध > प्रा० कोह) । मा० १.१२.३ कोहबर : सं०पु० । कौतुकागार, मङ्गल कार्य का देवगृह, क्रीडागार जिसमें विवाह के अनन्तर वर-वधू को ले जाकर बिठाते हैं । मा० १.३२६.छं० ५ कोहबर हि : कोहबर में । 'कोहबरहिं आने कुअँर कुअँरि ।' मा० १.३२७.छं० २ कोहा : कोह । मा० ४.१८.७ कोहातो: क्रियाति०पु०ए० । यदि तो • क्रोध करना । 'काल करम कुल कारनी कोऊ न कोहातो ।' विन० १५१.४ 1 कोहानी : भूकृ० स्त्री० । कुद्ध हुई । 'रिधि सिधि तिन्ह पर सबै कोहानी । गी १.४.११ कोहाब : भक०पु० (सं० क्रोद्धव्य > प्रा० कोहि अव्व) । क्रोध करना । रूठना । 'तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई ।' मा० २.२८ कोही : वि० (सं० क्रोधिन् > प्रा० को ही ) । कोपशील, द्वेषी । 'काम लोभ मद रत अति कोही ।' मा० ६.११०.६ कोह, हू : कोह + ए० । क्रोध । 'अस विचारि उर छाड़हु कोहू ।' मा० २.५०.१ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 तुलसी शब्द-कोश को : (१) कौन। किस । 'उपमा ताकि ताकत है कवि कौं की।' कवि० ७.१४३ (२) कहुं । के लिए। 'बरिबे कौं बोले बयदेही बर काज के ।' कवि० १.८ कोड़ी : सं० स्त्री. (सं० कपर्दिका>प्रा० कमड्डिआ>अ० कवड्डी) । एक प्रसिद्ध समुद्री वस्तु जिसका उपयोग छोटे सिक्के के रूप में किया जाता था। मा० ७.६६ क कौतुक : सं०० (सं०)। (१) आश्चर्य, विस्मय । 'सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी।' मा० १.२०४.५ (२) विस्मयपूर्ण कार्य, इन्द्रजाल (जादू)। 'काम कृत कौतुक अयं ।' मा० १.८५ छं । (३) खेल, तमाशा, स्वांग, अभिनयादि । 'करहिं विदूषक कौतुक नाना ।' मा० १.३०२.८ (४) विस्मयपूर्ण मङ्गलोत्सव। कौतुक देखि पतंग भुलाना।' मा० १६५.८ (५) मङ्गलोत्सव (मात्र)। 'कालि ही कल्यान कौतुक ।' गी० ७.३२.१ (६) आनन्द-विनोद, हास-परिहास । 'कौतुक बिबिध होहिं मग जाता।' मा० १.६४.१ (७) लीला। 'मुनि कर हित मम कौतुक होई ।' मा० १.१२६.६ (८) क्रीडा-विनोद । 'कौतुक देखहिं सैल बन भूतल भूरि निधान ।' मा० १.१ कोकिनन्ह : कौतुकी कौतुकिआ+संब० । कौतुकियों, तमाशबीनों, ब्याह आदि करा कर विनोद करने वालों (को) । 'ती कोतुकिअन्ह आलसु नाहीं । मा० १.८१.४ कोतुको : वि०० (सं० कौतुकिन्) । (१) मायावी, लीलाकारी। 'प्रगदेड प्रभु कौतु की कृपाला।' मा० १.१३२.३ (२) कौतुक देखने का इच्छुक । 'मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ ।' मा० १३०.७ (३) परिहासप्रिय, विनोदी। 'परम कोतकी तेउ ।' मा० १.१३३ कौतुकु : कौतुक+कए । एक कौतुक, एक तमाशः । 'कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ ।' मा० १.२५३.७ कौतूहल : कौतुक (सं.)। (१) आश्चर्य । 'यह कौतूहल जानइ सोई ।' मा० ६.५५.३ (२) मङ्गलोत्सव । 'नभ नगर कौतूहल भले।' मा० १.३२६ छं० ४ कोन : कवन । मा० २.२२७.८ कोनु : कोन+कए । कौन-सा । 'दहउँ उतरु कौनु मुहु लाई ।' मा० २.१४६.७ कौनें : किसने । 'पारु कबि कौने लह्यो।' मा० १.३६१ छं० कौने : कोनें। (१) किसने । 'कोने यह रस रीति चलाई ।' कृ० ५० (२) किस .....से । 'कोने जतन बिसारौं ।' कृ. ३३ । (३) किस । 'देहि धौं कौने को दोष ।' क० ३७ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश कौमार : सं०पु ं० (सं०) । (१) कुआरापन - १६ वर्ष की वयस् तक (२) बचपन पाँच वर्ष की वयस् तक । 'कौमार सैसव अरु किसोर अपार अघ को कहि सके ।" विन० १३३.६ 197 कौमुदी : (सं० कौमुदी) कौमुदी ने, चाँदनी ने । 'जनु कुमुदिनों कौमुदीं पोषीं ।" मा० २.११८.४ कौमोदकी : सं० स्त्री० (सं० ) । विष्णु की गदा का नाम । विन० ४६.५ कौर : कवल । कवि० ७.२६ 1 कौरव : सं०पु० (सं०) कुरु वंश का क्षत्रीय = दुर्योधन आदि । दो० ४२८ कौल : सं०पु० (सं० ) । वाममार्गी तान्त्रिक जा पञ्चमकारी कहलाते हैं - मांस, मद्य मत्स्य, मैथुन और मुद्रा (एक प्रकार की रोटी) ये पाँच मकारादि पदार्थ उनकी साधना के अङ्ग हैं । 'कौल कामबस कृपिन बिमूढा । मा० ६.३१.२ कौशेय : वि० पुं० (सं० ) । रेशमी । विन० ५१.२ कौसल : कोसल । 'कोसलनाथ ।' मा० ७.५.छं० २ 'कोसलपुरी । मा० ७.१५.८ कौसल्या : कौसल्या ने । 'कौसल्याँ अब काह बिगारा ।' मा० २.४६.८ कौसल्या : सं० स्त्री० (सं० ) । राम की माता = दशरथ की बड़ी रानी । मा० १.१६.४ कौसिक : सं०पु० (सं० कौशिक ) । कुशिक - वंशज = विश्वामित्र । मा० १.३३१ कौसिकु : कौसिक + कए० । मा० १.३६९.३ कौसिलहि : कौसल्या को । 'भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन ।' मा० ३.१४.३ कौसिलाँ : कौसल्यौं । कौसल्या ने । 'जस कोसिला मोर भल ताका ।' मा० २.३३.८ कौसिला : कौसल्या । मा० २.२८२ कौसिल्यहि : कौसल्या को । मा० २.१५४.४ क्यों : किमि (सं० किम् = कथम् > अ० केवं) । (१) किस हेतु । 'सो नर क्यों दस कंठ अभागा ।' मा० ६.३३. क ( २ ) किस प्रकार । 'जट जूट बाँधन सोह क्यों ।' मा० ३.१८. छं क्योंहू : किसी प्रकार । 'क्योंहू कोऊ पालि है ।' कवि० ५.१० क्रम : (१) कर्म । 'राम भगत तुम मन क्रम बानी ।' मा० १.४७.३ (२) यथा संख्य (सं० ) । मानस में अप्रयुक्त है । *मनासा : करनास । 'कासीं मग सुरसरि क्रमनासा ।' मा० १.६.८ क्रियन्ह : क्रिया + सं०ब० (सं० क्रियाणाम् ) । क्रियाओं । ' क्रियन्ह सहित फल चारि ।' मा० १.३२५ यज्ञ = देवकार्य, आद्ध = पितृकार्य, योग = साधना, उपासना, ज्ञान == ब्रह्मसाक्षात्कार – ये चार क्रियाएँ अभिप्रेत हैं । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 तुलसी शब्द-कोश क्रिया : सं० स्त्री० (सं०) । (१) कर्म, व्यापार । 'जेहिते बिपरीत क्रिया करिऐ ।' मा० ६.१११.२० (२) नित्यकर्म, दिनचर्या आदि । 'प्रात क्रिया करि गे गुर पाहीं ।' मा० १.३३०.४ ( ३ ) कर्मकाण्ड आदि की व्यवस्था वाले आचारto हि । ( ४ ) पितृ कर्म, और्ध्वदेहिक आङ्ग आदि । 'करि पितु किया बेद जसि बरनी ।' मा० २.२४८.१ क्रीड़त: वकृ० पु ं० (सं० क्रीडत् > प्रा० कीडंत ) । खेलता, खेलते । 'प्रभु क्रीडत ।' मा० ६.१०१ख कोहि : आ० प्रब० । खेलते-ती हैं । 'बहु बिधि क्रीड़ हि पानि पतंगा ।' मा० १.१२६.५ क्रीड़ा : सं० स्त्री० (सं० ) । खेल, विनोद, लीला । 'जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा ।' मा० ७.५८.३ क्रुद्ध : भूकृ०वि० (सं० ) । कुपित, रोषाविष्ट । मा० ५.५२ क्रुद्धा: क्रुद्धा । मा० ६.६७.१ क्रुझे 'क्रुद्ध' का रूपान्तर ( ब० ) । क्रुद्ध हुए । 'देखिअत बिपुल काला जनु क्रुद्धे ।' मा० ६.८१.८ कोड़ : सं०पु० (सं०) वूकर, वराह । विन० ५२.२ क्रोध : सं०पु० (सं०) । कोप, रोषावेश, द्वेष, कमर्ष |मा० ३.४३ क्रोधवंत : वि०पु० (सं० क्रोधवत् ) । क्रोधयुक्त | मा० ६.३२.१ क्रोधा : क्रोध । मा० १.६३.८ कोषातुर : वि० (सं० ) । क्रोध से छटपटाया हुआ, कोपावेश में व्याकुल । 'क्रोध से त्व ( हड़बड़ी) करने वाला । 'सुनत गीध क्रोधातुर धावा । मा० ३.२६.१५ कोषानल : क्रोधरूपी अग्नि, अग्नितुल्य भस्मान्तकारी क्रोध मा० ६.५५.१ षिहि : क्रोधी को, से । क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा ।' मा० ५.५८.४ क्रोषी : वि०पु० (सं० क्रोधिन् ) । कोपाविष्ट, क्रोधशीय मा० २.१६८. १ क्रोधु : क्रोध + कए० । एक मात्र क्रोध । 'क्रोधु पाप कर मूल ।' मा० १.२७७ क्लेशह (दे० ह) क्लेशनाशक । विन० ४६.५ (सं० ) । क्लेशों का निवारण करने वाली । मा० शहारिणी : वि०स्त्री० १. श्लो०५ बलेस : कलेस । मा० ७.१०९ घ क्वचित् : अव्यय ( सं ० ) । कहीं, कहीं-कहीं । मा० १. श्लोक ७ : कोइ । 'करनिहूं न पूजे क्वै ।' कवि० ७.१६३ ब : कोउ । नहि मानत क्वी अनुजा तनुजा । ' मा० ७.१०२.३ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्दकोश 199. क्षत्रिय : सं०० (सं०) । क्षत्रवंशज, क्षत्रजातीय माता-पिता की सन्नति । विन० ५१.६ क्षुरधार : सं०स्त्री. (सं० क्षुरधारा) छुरे की धारा तद्वत् तीव्र काट करने वाली। ऐसी तीव्र कि उस पर चलना असम्भव है, जिस से आत्मरक्षा असम्भव हो जाय यदि उस पर गति की जाय । · बिकटतर वक्र सुरधार प्रमदा।' विन० ६०.७ खंचाइ : पूक० । खींचकर, (रेखा) बनाकर । 'देख खेंचाइ कहउँ बलु भाषी।' मा० २.१६.७ खेसेउ : भू.कृ.पु.कए० (सं० कसितः>प्रा० खसिओ>अ. खसियउ)। गिर __ गया, खिसक गया, पतित हुआ। 'सुरपुर तें जनु खसेउ जजाती।' मा० २.१४८.६ ख : सं०० (सं०) । आकाश, शून्य । खग, खद्योत आदि में प्रयुक्त है। खंजन : सं०० (सं.)। खञ्जरीट, खड्चा पक्षी । मा० २.११७७ खंजरीट : सं०० (सं०) । खञ्जन । कृ० २२ खंड : सं०० (सं०) (१) टुकड़ा, टुकड़े । 'खंड खंड होइ हृदउ न गयऊ ।' मा० २.१६२.१ (२) भाग, अंश । 'धरि कुधर खंड प्रचंड मर्कट...।' मा० ६.४१छं० खंडन : वि०० । विच्छेदकारी, विनाशक । 'खल खंडन मंडन रम्य छमा।' मा० ६.१११.२१ खंडनि : वि.स्त्री० । विच्छेदकारिणी, विनाश करने वाली। 'चंड भुजदंड खंडनि ।' विन० १५.४ खंडहिं : आ०प्रब० (सं० खण्डयन्ति>प्रा० खंडंति>अ० खंडहिं)। काटकर टुकड़े टुकड़े कर देते हैं । 'रघुबीर बान प्रचंड खंडहिं भटन्ह के उर भुज सिरा।' मा० ३.२० छं०१ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 तुमसी सम्द-कोश खंडा : (१) खंड भाग। भारत आदि भू-भाग । 'असि रव पूरि रही नव खंडा ।' मा० ६.५३.७ (२) टुकड़े । 'बहुतक बीर होहिं सत खंडा।' मा० ६.६८.५ खंडि : प्रकृ० (सं० खण्डयित्वा>प्रा० खंडिअ>अ० खंडि)। (१) टुकड़े-टुकड़े करके ।। 'खंडि खंडि डारे ते बिदारे हनुमान के ।' कवि० ६.४८ (२) मतवाद का प्रत्याख्यान (खण्डन) करके। 'खंडि सगुनमत अगुन निरूपा।' मा० ७.१११.१२ खंडित : भूकृ वि० (सं.)। (१) छिन्न-भिन्न, टुकड़ों में विभक्त । कटे हुए। 'मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ।' मा० ५.११.४ (२) काट डाला, विनष्ट किया । 'भुज बल बिपुल भार महि खंडित ।' मा० ६.५१.५ खंडेउ : भूकृ.पु०कए० (सं० खण्डितम् >प्रा० खंडिओ>अ० खंडियउ) । उच्छिन्न किया (तोड़ा)। 'खंडेउ हर कोदंडं ।' मा० ३.२५ खंड्यो : खंडेउ । 'चंडीस कोदंड खंड्यो ।' कवि० १.२१ खंभ : सं० (सं० स्तम्भ स्कम्भ>प्रा० खंभ) । 'मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची।' मा० ७.२७ छं० खंभन, नि : खंभ+संब० । खंभों । 'जगमगात मनि खंभन माहीं।' मा० १.३२५.३ खंभा : खंभ । मा० ६.४४.६ खंई : सं०स्त्री० (सं० क्षति:>प्रा० खई)। (१) हानि, क्षय । 'गति कहे प्रगट, खुनिस खासी खई है।' गी० १.६६.५ (२) कलह 'काहूं सों न खुनिस खई।' गी० ५.३७.१ खग : सं०० (सं.)। ख=आकाश में ग=चलने वाला । (१) पक्षी । 'खग मृग बृद अनंदित रहहीं।' मा० ३.१४.३ (२) ग्रह-नक्षत्र । 'देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब ।' मा० १.७५ (३) देव जाति विशेष । खगईसा : खगेस । मा० १.११४.१० खगकेतू : पक्षियों में पताकावत् सर्वोपरि=गरुड़ । मा० ६.४२.११ खगनाथ, था : पक्षिराज गरुड़ । मा० ७.१०६.५ खगनायक : गरुड़। मा० ७.७६१ खगनायकु : खगनायक+कए । 'गति बिलोकि खगनायकु लाजे।' मा० १.३१६.७ खगनाहा : खगनाथ (दे० नाह) । मा० ७.६३.५ खगपति : (१) गरुड़। मा० ३.२६.१३ (२) पक्षि श्रेष्ठ जटायु । गी० ३.१३.२ खगभूपा : गरुड़ । मा० १.११४.१४ खगराई : खगराया। गरुड़ । मा० ७.८६.३ खगराऊ : खगराय+कए । गरुड़ । 'पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ।' मा० ७.१२१.१ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 201 खगराज, जा : (१) गरुड़ । मा० ७.६०.५ (२) जटायु । 'राम काज खगराज आजु लर्यो।' गी० ३.८.३ ।। खगराय, या : खगराज (दे० राया) । मा० ७.७८.१ खगहा : सं०० (सं० खड्गिन् =खड्गभृत>प्रा० खग्गी खग्गह)। गैड़ा (पशु विशेष) । मा० २.२३६.३ खगही : पक्षी ही । 'समझइ खग खगही के भाषा।' मा० ७.६२.६ खगी : खग+स्त्री० (सं०) । पक्षिणी, चिड़िया । गी० ५.२०.२ खगे : भूकृ०० । धुसे, खप गये, छुप गये । 'खग्गे खग खपुआ खरके ।' कवि० ६.३५ खगेस, सा : सं०पु० (सं० खगेश) । गरुड़ । मा० ४.७.२४ खग्ग : (१) खग=पक्षी । 'खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं ।' मा० ६.८८ छं० (२) (सं० खग्ग>प्रा० खग्ग) तलवार । 'भिरे भट, खग्ग खगे, खपुआ खरके ।' कवि० ६.३५ खचाई : भू००स्त्री० । खींची। 'रामानुज लघुरेख खचाई ।' मा० ६.३६.२ खचित : भूकृ वि० (सं.) जटिल =जड़ा हुआ । गहरी रेखाएँ बना कर जड़ा हुआ; पच्चीकार किया हुआ । कनक कोट मनि खचित दृढ ।' मा० १.१७८क खची : भू.कृ०स्त्री० (सं० खचिता)। जड़ाऊ, पच्ची की हुई। 'मनि खंभ, भीति बिरंचि बिरची कनक, मनि मरकत खची।' मा० ७.२७ छं० खचे : खचित (बहु०) । जटित । 'प्रति द्वार द्वार, कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे ।' मा०६.२७ छं० खच्चर : सं०० (सं० खचर)। पशु विशेष जो अश्व-गर्दभ-योग से उत्पन्न होता है । मा० ५.३ छं० १ खजानो : सं.पु.कए० (अरबी-खजान:-न कही का गोदाम) । मुद्राकोश, बैंक । 'तुलसी को खुलैगो खजानो खोटे दाम को।' कवि० ७.७० सरि : सं०स्त्री० (सं खजूरी>प्रा० बज्जूरी) । खजूर का पेड़। दो० ५१४ खटा खटाइ : (सम्बन्ध निभाना, किसी के साथ निभना)। आ० प्रए । निभता है, निभ सकता है । 'कहो, ऐसे साहेब की सेवा न खटाइ को।' कवि० ७.२२ खटाइ : खटाई । 'विषय बिरत खटाइ नाना कस।' विन० २०४.२ खटाई : सं०स्त्री० (प्रा० खट्ट) । अम्ल । मा० १.५७ख खटाहि : आप्रब० । निभते हैं, निभती हैं । 'सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुं कि नारि खटाहिं ।' मा० १.७६ खटोला : सं०० (सं० खट्वा>अ० खट्टोल्लअ) छोटी हल्की खाट (पालकी आदि का आसन)। विन० १८९.२ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 तुलसी शब्द-कोश खड़ग : खड्ग । 'दान खड़ग सूरो।' विन० ८०.२ खड्ग : सं०पु० (सं० ) । तलवार । विन० ३६.२ खड्गधारा: तलवार की धार । विन० ६०.७ खद्योत : सं०पु० (सं० ) । आकाश ( ख = शून्य) में चमक ( द्योत ) करने वाला = जुगनू । मा० ५.६ खन : छिन (सं० क्षण > प्रा० खण) 'धन्य आलि ए दिन ए खन ।' गी० १.७५.२ / खन खनइ : (सं० खनति > प्रा० खणइ - खनु अवदारणे - खोदना) आ०प्र० । खोदता है, खोद निकालता है, खोद फेंकता है । 'मंगलमूल प्रनाम जासु जग, मूल अमंगल के खनै ।' गी० ५०४०.२ खनत: व पुं० (सं० खनत् > प्रा० खणत ) । खोदते । 'सर खनतहि जनम सिरान्यो ।' विन० ८८.४ खनावत : (१) वकृ पू० (सं० खानयत् > प्रा० खणावंत ) । खुदवाता -ते । (२) क्रियाति०पु० | तो खुदवाते । 'न तरु सुधासागर परिहरि कत कूप खनावत खारे ।' गी० १.६८.६ खनावौं : आ०उए० । खोदकर बनवाता हूं, खुदवाता हूं। 'सुधागृह तजि नभ कूप खनावों ।' विन० १४२.६ वनि : (१) पूकृ० । खोदकर । 'महि खनि कुस साँधरी सँवारी ।' मा० २.२३४.३ (२) सं० स्त्री० (सं० ) । खानि, आकर । ' राम प्रनाम महा महिमा खनि ।' गी० ५.३६.५ खने : भूकृ०पु०ब० (सं० खाता: > प्रा० खणिआ ) । खोदे । 'सागर सृजे खने अरु सोखे ।' गी० ५.१२.५ खनं : दे० खन खर्नगो : आ०भ०पु०प्रग० । खोदेगा, खोदकर बनाएगा । 'जोइ जोइ कूप खनेगो पर कहँ ।' विन० १३७.५ खन्यो : भू० कृ०पु०कए० । खोदा, खोदकर तैयार किया । 'यह जलनिधि खन्यो ।' गी० ६.११.५ खपत : वकॄपुं० । खपता, क्रय-विक्रय व्यापार में खप जाता, बाजार में बिक जाता । 'कलिजुग बर बनिज बिपुल नाम नगर खपत ।' विन० १३०.४ खपर: खप्पर । कवि० ६.५० खपु : सं०पु०कए० (सं० क्षप ) । क्षय, कष्ट सहकर देहादिशोषण, वलेश सहन । जाकी न तप-खपु कियो न तमाइ जोग ।' कवि ० ७.७७ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 203 खपुमा : वि०पू० (सं० खपुर=आकाश में नगर बसाने वाला) । जो विजय आदि __ की हवाई कल्पना (मनोराज्य) करता है पर युद्ध से घबराता है=कायर । खग्ग खगे खपुआ खरके ।' कवि० ६.३५ ।। खप्पर : सं०० (सं० खर्पर>प्रा० खप्पर) । कपाल, कपालाकार पात्र । 'जोगिनि भरि भरि खप्पर संचहिं ।' मा० ६.८८.७ खप्परिन्ह : खप्परी+संब० । छोटे खप्परों (में, से)। 'खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जज्झहिं ।' मा० ६.८८ छं० । खबरि : सं०स्त्री० (अरबी-खबर) । सन्देश, समाचार । 'खबरि लेत हम पठए नाथा ।' मा० २.२७२.७ खभार : सं०० (सं० अक्षभार>प्रा० अन्मवभार-शकटभार)। एक बैलगाड़ी का बोझ, मानसिक बोझ जो दबोच दे, अनिश्चय या हड़बड़ी, इन्द्रिय यामन (अक्ष) का भार (तुर्की-खाबूर=पच्चर या खूटी)। 'देखि निबिड तम दहुं दिसि कपिदल भयउ खभार ।' मा० ६.४६ खभारु : खभार+कए । (१) एकमात्र दुश्चिन्ता का बड़ा बोझ, मनोव्यथा । 'फिरहु त सब कर मिट खभारु ।' मा० २.६७.३ (२) अद्वितीय खभार=अनिश्चय का दबाव । 'लखन लखेउ प्रभु हृदय खभारु ।' मा० २.२२७.६ (३) सन्नाटा, अवसाद का भार । 'सोक मगन सब सभा खभारु ।' मा० २.२६३.२ खय : सं.पुं० (सं० क्षय>प्रा०खय) । विनाश । 'नपति निकर खयकारी ।' गी० १.१०६.४ खये : सं०० (सं० ख) ब० । अङ्ग-विशेषतः भुजमूल तथा पादमूल जिन्हें पहलवान लोग लड़ाई में ठोंकते हैं। 'मन कसि कसि ठोंकि ठोंकि खये।' गी० १.४५.२ खर : (१) वि०० (सं.)। तीक्ष्ण । 'खर कुठारु मैं अकरुन कोही।' मा० १.२७५.६ (२) तीब्र, दुःसह । 'पंथ कथा खर आतप पवनू ।' मा० १.४२.४ (३) शुद्ध, निर्दोष । 'परख्यो न फेरि खर खोट ।' विन० १६१.८ (४) वि०पू० (सं०) गधा । 'खर स्वान सुअर सुकाल ।' मा० १.९३ छं० (५) एक राक्षस जिसे जनस्थान में राम ने मारा था। 'खर दूषन पहिं मइ बिलपाता ।' मा० ३.१८.२ खरके : भूकृ०० (बहु०) । खिसक गये, चुपके भाग खड़े हुए। 'खग्ग खगे खपुआ खरके ।' कवि० ६.३५ खरखौको : भूकृ० स्त्री० (सं० खर+खोल्का तीव्र पुच्छल तारा) । पुच्छल तारे के समान आकाशव्यापी रेखा बनाती हुई दमक उठी; धूमकेतू के समान आर-पार Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 तुलसी शब्द-कोश तीब्रता के साथ लीक बना गई । 'लहकी कपि लंक जथा खरखोकी ।' कवि० ७.१४३ खरगोस : सं०पु०कए० (फ्रा० खरगोश) । गधे (खर) के समान कान (गोश) वाला जंगली जन्तुविशेष सशक । 'चहत केहरि जसहि सेइ सुगाल ज्यों खरगोसु ।' विन० १५६.३ खरच : सं०० (अरबी-खर्ज=फा० खर्च-प्रवास में जाना अरबी अर्थ है, फारसी में व्यय में आया धन अर्थ हे) । (हिन्दी में) व्यय । दो० ४७१ खरतर : वि० (सं०) । तीव्रतर, अति तीक्ष्ण । 'अवलोकि खरतर तीर ।' मा० ३.२०.३ खरनि : खर+संब० । गधों (पर)। 'भए खर निमि असवार ।' गी० २ ४७.१५ खरभर : सं०० (ध्वनि-चेष्टानुकरण)। खलभली, कान्दिशीकता, किंकर्तव्यमूढ दशा में एक प्रकार का कलख, क्षुब्ध ध्वनि । 'कपिदल ख रभर भयउ धनेरा। मा० ६.१००.१० ('खर' तिनकों के 'भर' भार का-सा शब्द तथा अव्यवस्था का अर्थ अभिप्रेत रहता है।) खरभरी : खरभर । विफलता । 'सिय हिय की बिसेषि बड़ी खरभरी है।' गी० १.९२.३ यहां घड़े में जल की खलभलाने वाली ध्वनि का अर्थ आता है जिससे हृदय के उमथने का अभिप्राय निकलता है। खरभरु : खरभर+कए । समुदित खलभली, सामूहिक विकलता। 'खरभरु नगर सोचु सब काहू ।' मा० २.४६.२ खरभरे : भूकृ०पु०३० । क्षुब्ध हो उठे, खलभल ध्वनिपूर्ण हुए। 'लोल सागर खरभरे।' मा० ५.३५ छं० १ खरारि, री : खर राक्षस के शत्रु =राम । मा० ५.२२ खरि : (१) सं०स्त्री० (सं० खलि, खली)। तिल आदि का वह बचा भाग (या तलक्षट) जो तेल निकालने के बाद रह जाता है । 'दै दै सुमन तिल बासि के खरि परिहरि रस लेत ।' विन० १६०.३ (२) वि०स्त्री० । तीव्र, खरी, तीखी। 'झरि झकोर खरि खीझि ।' दो० २८४ खरिया : सं०स्त्री० (सं० क्षारिका>प्रा० खारिया)। (१) घास-भूसा आदि बाँधने की जाली । 'घरबात घरे खुरपा खरिया ।' कवि० ७.४६ (२) झोली (साधुओं की)। 'खरिया खरी कपूर सब उचित ।' दो० २५५ ।। खरी : (१) सं०स्त्री० (सं.)। गधी । 'खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी।' मा० ७.११०.७ (२) सं०स्त्री० (सं० खटिका, खडिका, खडि)। खड़िया मिट्टी Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 205 (जिससे तिलक आदि करते हैं) । दो० २४६, २५५ (३) भू.कृ०स्त्री० । खड़ी हुई । 'मंदिरनि पर खरी नारि ।' गी० ७.५.७ खरु : खर+कए । (१) गधा, अन्यतम मूर्ख । 'सोइ नरु खरु है।' विन० २५५.३ (२) राक्षस विशेष । 'बालि बली खर दूषनु ।' कवि० ६.१२ खरे : (१) भूकृ००ब० । खड़े हुए । 'जहें सो तहँ चितवत खरे।' मा० ६.८६ ई० (२) वि.पुब० । शुद्ध, निर्दोष। 'खोट खरे होत ।' कवि० ७.१६ खरो : बरु । (१) निर्दोष, शुद्ध । 'जनु खोटो खरो रघुनायक ही को।' कवि० ७.५६ (२) तीखा, चुभने वाला। अधिक । 'चले मुदित मन डरु न खरो सो।' मा० २.३२१.८ खरोइ : खरा ही, अत्यन्त ही। 'तुलसी राम जो आदर्यो खोटो खरो खरोइ।' दौ० १०६ खर्पर : सं०० (सं.)। (१) भिक्षापात्र, कपाल, कपालाकार पात्र; खोपड़ी या तदाकार पात्र, पात्र का गोलाकार खण्ड । 'भूत प्रेत पिसाच खर्पर संचहीं।' मा० ३.२० छं० (२) कछुए की पीठ जो उक्त आकार की होली है। 'जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत ।' मा० ५.३५ छं० २ खर्ब : (१) वि० (सं० खर्व)। बीना, छोटा ।। 'महामत्त गजराज कहुं बस कर अंकूस खर्ब ।' मा० १.२५६ (२) क्षुद्र, नीच । 'रे कपि बर्बर खर्ब खल।' मा० ६.२५ खर्वीकरण : वि०पू० । अखर्व (बड़े) को खर्व (लघु) करने वाला । 'राहु रवि शक्र पवि गवं खर्चीकरण ।' विन० २५.२ खर्यो : भूकृ००कए । खड़ा हुआ। 'जोवट पंथ खर्यो ।' विन० २३६.७ खल : सं०+वि.पु. (सं०)। (१) दुष्ट जन । 'बंदउँ खल जस सेष सरोषा।' मा० १.४.८ (२) (स०) खरल (जिसमें दवा पीसी जाती है) । 'रावन सो रसराज, सुभट रस सहित, लंक खल, खलतो।' गी० ५.१३.२ (३) (सं.) खली तेल रहित तिल की पिण्डी। 'भए मुख मलिखाइ खल खाजी।' कृ०६१ खलई : सं०स्त्री० (सं० खलता>प्रा० खलया)। दुष्टता। 'खल बिलसत हुलसत खलई है।' विन० १३६.५ खलउ : दुष्टजन भी । 'खलउ करइ भल पाइ सुसंगू।' मा० १.७.४ खलक : संस्त्री० (अरबी-खलक) । (१) सृष्टि, सम्पूर्ण लोक समूह । 'पात न छत्री-खोज खोजत खलक मैं ।' कवि० ६.२५ (२) पैदायश, सृष्टि की उत्पत्ति । 'कियो कलिकालु कुलि खललु खलक ही।' कवि० ७.६८ खल-खाजी : (दे० खल तथा खाजी) । खली का बना हुआ खाद्य । कृ०६१ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 तुलसी शब्द-कोश खलतो : क्रियाति.पु०ए० । खरल करता, घोटता, पीस कर मिलाता । (जो... तो) रावन सो रसराज सुभट रस सहित लंक खल खलतो।' गी० ५.१३.२ खलनि, न्ह : खल+संब० । दुष्टों (के) । 'खलन्ह हृदय परिताप विसेषी।' मा० ७.३६.३ खलता : सं०० (अरबी-खलल) । बाधा, प्रत्यवाच, छलप्रपञ्च । 'देखि खलल अधिकार प्रभू सो भूरि भलाई भनि हैं।' विन० ६५.२ खललु : खलल+कए । 'कियो कलिकाल कुलि खलल खल कहीं।' कवि० ७.६८ खलहु : खल+सम्बोधन ब०। ऐ दुष्टो ! 'खलहु जाहु कहँ मोरे आगे।' मा० ६.६७.७ खलाइ : (दे० खलाय) पूकृ० । नीचा करके, खाली करके । खलाईं। खलाई से, दुष्टतावश । 'गए खल खेचर खीस खलाई।' कवि० ७.१३१ खलाई : (१) खलई (दे० खलाई)। (२) पूकृ० । खल कर, भीतर को झुका कर, नीचा कर । 'प्रभु सों कह्यो बारक पेटु खलाई।' कवि० ७.५७ । खलाए : भूकृ० । भीतर धंसाए हुए, गर्ताकार किए हुए । 'फिरते पेट खलाए।' विन० १६८.३ खलानां : (सं.)= खलन्ह । मा० ६ श्लोक ३ । खलाय : खलाइ । धंसा कर । 'फिरत पेटी खलाय ।' कवि० ७.१२५ बलायो : भूकृ००कए० । गर्ताकार बनाया, धंसाया। खिन खिन पेट खलायो।' विन० २७६.३ खलु : (१) अव्यय (सं०) । निश्चय ही । 'आजु करउँ खलु काल हवालो।' मा० ६.९०.८ (२) तो, वस्तुतः । 'माया खलु नर्तकी बिचारी । मा० ७.११६.४ । खलेल : सं०० (सं० खलतल>प्रा. खलेल्ल)। खलीमिश्रित तेल; तेल का तलछटा । गी० १.४.१३ । खलो : खलउ । दुष्ट भी। तरि गयो अजामिल सो खलो।' गी० ५.४२.३ खवासु : सं००कए० (अरबी-खबास = खिदमतगार+मुसाहब)। परिचारक या सभासद् । 'खोजि के खवासु खासो कुबरी सी बाल को । कवि० ७.१३५ खस : सं० (सं०) । जाति विशेष । मा० २.१९४ खस, खसइ : (सं० कसति-कस गती>प्रा० खसइ-खिसकना, गिरना) आ. प्रए । खिसकता है, खिसके, गिरे । 'न्हात खस जनि बार ।' जा०म० २६ खसत : वकृ०० (सं० फसत्>प्रा० खसंत)। खिसकता-ते । 'पट उड़त भूषन खसत ।' गी० ७.१९.४ खसम : सं०पू०-पति, स्वामी। 'राम के प्रसाद गुरु गौतम खसम भए ।' गी० १.६७.३ . Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 207 तुलसी शब्द-कोश खसमु : खसम+कए । एकमात्र स्वामी । 'लसम के खसमु तुहीं 4 दसरथ के।' कवि० ७.२४ खसाई : भूकृ०स्त्री० । गिरियो । 'मीच बस नीच सोऊ चाहत खसाई है।' कवि० ७.१८१ खसि : पूकृ० । गिर कर, खिसक कर । 'मुरुछित बिकल धरनि खसि परी।' मा० ६.१०४.१ खसी : भक०स्त्री० । छूट गिरी, खिसक गई 'खसी माल मूरति मुसुकानी ।' मा० १.२३६.५ खसे: भूकृ००ब० । गिर पड़े, खिसके । 'डोलत धरनि सभासद खसे ।' मा० ६.३२.४ खसेउ, ऊ : भूकृ०पु०कए । खिसका, गिरा। 'जब तें श्रवनपूर महि खसेऊ ।' मा० ६.१४.६ खसै : दे० /खस । खसहौं : आ० भ०उए । गिराऊँगा, खिसकने दूंगा। 'उरकर तें न खसहौं।' विन० १०५.२ खांगिहे : आ०म०प्रए । कम रहेगा, कम पड़ेगा। 'तुलसीदास स्वारथ परमारथ न खांगिहै।' विन० ७०.५ खांगें : कम होने से, कमी से, कमी पूरा करने हेतु । ‘राखौं देह नाथ केहि खांगें ।' मा० ३.३१.७ खाँगो : भूकृ००कए । अल्प हुआ, कम पड़ा। 'न खाँगो कछु, जनि माँगिए थोरो।' कवि० ७.१५३ खांची : भूकृ० स्त्री० । खींची। 'पूछेउँ गुनिन्ह रेख तिन्ह खांची।' मा० २.२१.७ खांचो आ० आज्ञा--प्रए । खींच देबे । 'कोड रेख दूसरी खांचो।' विन० २७७.१ खांड़ : पुं०सं० (सं० खण्ड)। (१) खाँडा, आयुध (धनुष) शकर । 'अयमय खाँड़ न ऊखमय ।' मा० १.२७५ खांड़े : खांड का रूपान्तर (ब०)। आयुध । 'एक कुसल अति ओड़न खांड़े ।' मा० २.१६१.६ खा, खाइ: (१) (सं० खादति>प्रा० खाइ-भोजन करना-खाद भक्षणे) आ.प्रए० । खाता है (भोजन करता है) । 'बिन बोले संतोष जनित सुख खाइ सोइ पै जाने ।' विन० १२३.४ (२) (सं० खायति-खै अदने हिंसासां च)। चबा जाता है, मार कर खा लेता है । केहि जग कालु न खाइ।' मा० २.४७ खाइ : पूक० । खाकर । :सागु खाइ सत बरष गंवाए।' मा० १.७४.४ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 तुलसी शब्द-कोश खाइअ : आ० कर्मवाच्य-प्रए । खाया जाता है । 'खाइअ पहिरिम राज तुम्हारें।' मा० २.१६.४ खाई : सं०स्त्री० (सं० खातिका>प्रा० खाइआ)+ब । खाइयाँ, गढ़ के आसपास के गहरे गर्त । 'खाई सिन्धु गभीर अति ।' मा० १.१७८ क खाई : (१) खाइ । खा जाती है । 'यहि बिधि सकल गगनचर खाई । मा० ५.२.२ (२) खाइ। खाकर । 'कंदमूल फल खाई.....'चले ।' मा० २.१२४.४ (३) भूकृस्त्री० । 'बेलपाती..... 'खाई।' मा० १.७४.६ खाउँ, ऊ : आ०उए । खाता हूं (खाया करता था) । 'जूठनि........ खाउँ ।' मा० ७.७५ क खाउँगो : आ०भ०० उए । खाऊँगा । 'ऊबरी जूठनि खाऊँगो।' गी० ५.३०.४ खाउ : आ० आज्ञा-प्रए । खाए । 'सो नर खेहर खाउ ।' विन० १००.१ खाएँ : खाने से, खाने पर । 'वहि के खाएं मरत है।' दो० ५०२ खाए (ये) : भूकृ००(ब०) । 'सिय सौमित्रि राम फल खाए।' मा० २.१२५.४ . खाएसि : आ०-भूकृ.पु+प्रए। उसने खाया, खाये । 'फल खाएसि तर तोर लागा।' मा० ५.१८.१ खाको : (फा० खाक=मिट्टी) खाक भी, धूल भी, जरा भी । धूल के बराबर भी। ___'बालिस बासी अवध को बुझिऐ न खाको।' विन० १५२.१० खाजी : सं०स्त्री० (सं० खाद्य>प्रा० खज्ज>अ० खज्जी) । खाजा, भक्ष्य । ‘भए मुख मलिन खाइ खल-खाजी।' कृ० ६१ (दे० खलखाजी) खाजु : सं०स्त्री० (सं० खजु =खर्जु>प्रा० खज्जु =खज्जू)। खुजली रोग । ___'कोढ़ में की खाजू सी सनीचरी है मीन की। कवि० ७.१७७ खाटी : वि.स्त्री० (प्रा० खट्ट) । खट्टी, अम्ल । मा० १.२६०.५ खात : वकृ पु । खाता, खाते । 'चलत पयादें खात फल ।' मा० २.२२२ खाती : खात+स्त्री० । 'खाती दीपमालिका, ठठाइअत सूप हैं।' कवि० ७.१७१ खातेउँ : आ.क्रियति००उए । मैं खा लेता, खा जाना। पितहि खाइ खातेउँ अब तोही ।' मा० ६.२४.१० खातो : कियाति.पु०ए० । यदि..तो.. खाना । 'बाजीगर के सूम ज्यों खल बेह न खातो।' विन० १५१.२ खान : (१) सं०० (सं.)। खाने की क्रिया । 'खान पान को एक।' मा० २.३१५ (२) भकृ० अव्यय । खाने । 'जहँ तह लागे खान फल ।' मा० ५.३५ खानपान : सं०० (सं०) । खाना-पीना। मा० २.३१५; कवि० ७.१६८ खानि : सं०स्त्री० (सं.)। (१) आकर (जिससे धातु, रत्न आदि खनिज निकलते हैं) । 'हा गुन खानि जानकी सीता।' मा० ३.३०.७ (२) जाति, जीव प्रकार Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 209 (जो विशेष खनि या वंश-परम्परा से संबद्ध है)। 'चारि खानि जग जीव अपारा।' मा० १.३५.४ (चारि खानि = अण्डज, पिण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज) खातिक : खान का, खान सम्बन्धी । 'गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिका ।' मा० १.१.८ खानी : खानि+ब० । खाने । 'सोभासील तेज की खानी ।' मा० १.१६०.७ खानी : खानि । 'सुजन समाज सकल गुन खानी।' मा० १.२.४ खाब : भकृ०पु० (सं० खातव्य>प्रा० खाअन्व) । (हमें) खाना (है) । 'सो भनु __ मनुज खाब हम भाई।' मा० ६.६.६ खायउँ : आ.भूकृपु+उए । मैंने खाया-खाये । 'खायउँ फल मोहि लागी भूखा।' मा० ५.२२.३ खायगो : आ०भ०० (१) प्रए० । वह खाएगा। (२) मए० तू खाएगा। "ह है बिष भोजन जो सानि सुधा खायगो।' विन० ६८.४ खाया : भूकृ०० । भक्षित किया। 'चिंता साँपिनि को नहिं खाया।' मा० ७७१.४ खायो : खाया+कए । 'खायो कालकूट ।' कवि० ७.१५८ खारा : वि०० (सं० क्षार>प्रा० खार) । नमकीन, क्षारयुक्त । मा० २.११६.४ खारे : 'खार' का रूपान्तर (ब०)। क्षारयुक्त । 'कूप खनावत खारे।' गी. १.६८.६ खारो : खारा+कए । 'सकति खारो कियो चाहत मेघहू को बारि ।' कृ० ५३ खाल : सं०स्त्री० (सं० खल्ला) । चर्म, चमड़ा, त्वचा। 'खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई।' मा० ७.१२१.१७ खाले : क्रि०वि० (सं० खल्ले गर्ते>प्रा० खल्लेण>अ० खल्लें)। गढ़े में, नीचे (संकट आदि में) । 'चलेहुं कुमग परपरहिं न खालें।' मा० २.३१५.५ खावा : खाया । 'पुरोडास चह रासभ खावा ।' मा० ३.२६.५ खास : वि० (अरबी-खास) । विशेष । 'मरिये तो अनायस कासीबास खास फल ।' कवि० ७.१६६ खाती : खास+स्त्री० । 'खुनिस खासी खई है।' गी० १.६६.५ खातो : खास+कए। विशिष्ट, निजी । 'खोजि के खवासु खासो कूबरी सी बाल को।' कवि० ७.१३५ खाहि, हीं : आ०प्रब० । खाते-ती-हैं । 'निसि न नींद दिन अन्न न खाहीं। मा० ३.२८.८ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 तुलसी शब्द-कोश खाहिगो : आ०भ००मए । तू खायगा। 'भागे तें खिरिरि खेह खाहिगो।' कवि० ६.२३ खाहु, हू : आ०मब० । खाओ, खालो, खा डालो । 'खाहु सुरस सुदर फल नाना।' ____ मा० ४.२५.२ खिझाइ : पू० । खि झाकर, खिन्न करके । कृ० २२ /खिझाव खिझावइ : (सं० खेदयति>खिज्जावइ-खेद देना, रुष्ट या क्षुब्ध करना) आ०प्रए । खिशाता है । 'जरै बरै अरु खीझि खिझावै ।' वैरा० ५७ खिझावतो : क्रियाति.पु०ए० । (यदि तो...) खिझाता। 'ती हौं.."खि झावतो न. जो होतो कहूं ठाकुर ठहरु ।' विन० २५०.१ खिन : (१) खिन्न । थका हुआ। 'उस्नकाल अरु देह खिन ।' दो० ३१० (२) खन । क्षण खिनु : खिन+कए० (सं० क्षणम् >प्रा० खणं>अ० खणु-क्रि०वि०)। क्षण भर, एक क्षण । 'खिनु खिनु पेट खलायो।' विन० २७६.३ खिन्न : भूकृ०वि० (सं.)। (१) आर्त (भक्त), दीन जन । 'बंदउँ सीता राम पद जिनहि परम प्रिय खिन्न ।' मा० १.१८ (२) थका हुआ, परिआन्त । 'खेद खिन्न छुद्धित तृषित ।' मा० १.१५७ (३) मानसिक क्लान्ति से युक्त, क्षब्ध । 'खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई ।' मा० ७.५९.२ • खिरिरि : पूकृ० । घिसटने की खरोंचें खाकर; खरोंचों के साथ घिसिट कर । 'भागे तें खिरिरि खेद खाहिगो।' कवि० ६.२३ खिलाए : भू० कृ०पु०ब० । खेलाए, दुलराए । 'जियत खिलाए राम ।' दो० २२१ खिसिआइ : पूकृ० । लज्जित होकर । 'चले खिसिआइ।' मा० ६.५४ खिसिमाई : खिसिआइ । मा० ६.६१.४ खिसिआन, ना : भूकृपु । लज्जित हुआ । 'बोला अति खिसिआन ।' मा० ५.६ खिसिआनि, नी : भू० कृ०स्त्री० । लज्जित हुई । 'तब खिसिआनि राम पहिं गई।' मा० ३.१७.१६ खीझ : खीझि । अमर्ष, खेद, हल्का रोष, क्षोभ । 'खीझहूं मैं रीझिबे की बानि ।' कवि० ७.१३६ खीझत : वकृपु । खेद करता-ते, रुष्ट होता-ते। 'देखत दोष न खीझत ।' विन० १५७.४ खीझति : खीझत+स्त्री० रुष्ट होती । 'खीझति मदोवै सबिषाद देखि मेघनादु ।' कवि० ५.४२ खीझन : भा०कृ० अव्यय । खीझने, रुष्ट होने । 'निज सारथि सन बीझन लागा।' मा० ६.१००.७ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 211 खोझि : (१) सं०स्त्री० । रोष, खेद । 'झरि झकोर खरि खीझि ।' दो० २८४ (२) पूकृ० । खीझ कर, खिन्न होकर । 'जरै बरै अरु खीझि खिझावं ।' वैरा० ५७ खोझिन : आ० भावा० । खेद किया जाय, खीझा जाय, अमर्ष किया जाय । 'काहे ___को खीझिअ, रीझिअ पै।' कवि० ७.६३ खीभिबे : भक०पु । खीझने, रुष्ट होने । 'खीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु ।' विन० २५२.५ खीझे : भूकपु० । अमर्षयुक्त हुए (होने पर), रुष्ट हुए (पर)। रीझे बस होत, खीझे देत निज धाम रे ।' विन० ७१.६ खीन : वि० (सं० क्षीण>प्रा० खीण) दुर्बल, कृस । 'तन खीन कोउ अति पीन।' ___ मा० १.६३ छं० खीर : सं०० (सं० क्षीर>प्रा० खीर) । दूध । 'खीर नीर बिबरन गति हंसी।' मा० २.३१४.८ खीरु : खीर+कए । ‘सगुनु खीरु अवगुनु जलु ताता ।' मा० २.२३२.५ खीर : क्षीर की, क्षीर से । 'उपमा..... क्यों दीजै खोरै नीर ।' गी० ६.१५.३ खीस, सा : वि० (सं० क्षि=क्षी-विनाश+ष=अन्त)। नष्ट, अस्त-व्यस्त, बिखेरा हुआ कि समेटा-सकेला न जा सके; उच्छिन्न किया हुआ, छिन्न-भिन्न; सर्वथा नष्ट कि अंशतः भी शेष न पाया जा सके। 'जनि घालसि कुल खीस ।' मा० ५.५६फ 'केहिं के घालेहि बन खीसा ।' मा० ५.२१.१ । खुआर : वि० (फा० स्वार=जलील, खराब, बेऐतबार)। दुष्ट+निन्दित+ अविश्वनीय । 'बचन बिकार, करतबउ खुआर।' कवि० ७.६४ खुआरु, रू : खुआर+कए । 'हमहि सहित सबु होत खुआरू ।' मा० २.३०५.६ खुटानी : भू.कृ०स्त्री० । खुट गई, समाप्ति पर पहुंची (मौत आ पहुंची)। 'सो जानइ जनु आइ खुटानी।' मा० १.२६६.३ खुनिस : सं०स्त्री० (अरबी-खन्स =सुस्ती, टेढ़ाई)। ग्लानि, वक्रता, अमर्ष आदि का मिश्रभाव । 'खेलत खुनिस न कबहूं देखी।' मा० २.२६०.६ (इसका विशेषण 'मुखन्नस' होता है जो 'कुटल हृदय' का अर्थ देता है अतः कुटिलतापूर्ण रोष मुख्य अर्थ है।) खुर : सं०० (सं०) । पशु का पैर । 'होत अजाखुर बारिधि बाढ़े।' कवि० २.५ खुरपा : सं०पू० (सं० क्षरप्न>प्रा० खुरप्प) । घास छीलने का उपकरण विशेष । 'घरबात घरे खुरपा खरिया ।' कवि० ७.४६ खुलाहिं : आ०प्रब० । खुलते-ती-हैं; उघड़ते-ती-हैं। 'खुलहिं सुमंगल खानि ।' रा०प्र० १.१.५ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 तुलसी शब्द-कोश खुली : भृकृ०स्त्री० । अनावत हुई, प्रकट होकर शोभित हुई। 'पियरी झीनी झंगुली सांवरे सरीर खुली।' गी० १.३३.२ खुले : भूक०० (ब०) । अनाक्त हुए, प्रकट हुए। 'एहो अनुराग खुले भाग तुलसी के हैं ।' गी० २.३०.६ खुलेउ : भूकृ०पु०कए । अनावृत होकर प्रकाशमान हुआ। 'भरत दरसु देखत खुलेउ मृग लोगन्ह कर भागु ।' मा० २.२२३ खुलंगो : आ०भ००कए । खुलेगा, उजागर होगा । 'तुलसी को खुलैगो खजानो खोटे दाम को।' कवि० ७.७० खूट : सं०० (सं० खुण्ट खुण्ड=खण्ड-खुटि खण्डने) । भाग, टुकड़ा, अञ्चल, छोर । 'देखि अति लागत आनंदु खेत खूट सो।' कवि० ७.१४१ संद : सं०स्त्री. (सं० क्षोद>प्रा. खंद) । एक ही स्थान पर निरन्तर परों की गति; अनवरत चाल जो एक ही लक्ष्य पर हो (एकाग्रता)। 'तुलसी जो मन खूद सम, कानन बसहुं कि गेह ।' दो० ६२ खुब : वि० (फा० खूब) । उत्तम, दृढ़ । 'कोऊ कहै राम को गुलाम खरो खूब है ।' कवि० ७.१०८ झूसर : सं०प० । खूसट, उल्लू । 'राजपराल के बालक पेलि के पालत लालत खूसर को । कवि० ७.१०३ खूसरो : खूसर भी, उल्लू भी। 'सुमिरे कृपाल के मराल होत खूसरो।' कवि० ७.१६ खे : (दे० ख) आकाश में (सं०) । ‘गो खग, खे खग, बारि खग।' दो० ५३८ खेइ : पूक० । खे (कर), नाव चला (कर) । 'सकहिं न खेइ।' मा० २.२७६ खेचर : सं०० (सं०) । (१) पक्षी, खग । 'बानर बाज, बढ़े खल खेचर ।' हनु० १८ (२) ग्रह, बेताल आदि । 'डाकिनी शाकिनी खेचरं भूचरं ।' विन० ११.६ (३) आकाशगामी राक्षस आदि । 'गए खल खेचन्ह खीस खलहिं ।' कवि० ७.१३१ खेत, ता : सं०० (सं० क्षेत्र>प्रा० खेत) । (१) निश्चित परिमाण का भू-भाग । (२) कृषि योग्य भू-भाग । वैरा० ५ (३) रणक्षेत्र । 'सानुज निदरि निपातउँ खेता।' मा० २.२२३०.७ (४) तीर्थ आदि पावन भू-भाग । 'देखि अति लागत अनंदु खेत खूट सो।' कवि० ७.१४१ खेती : सं०स्त्री० । कृषि, अन्नोत्पादन की आजीविका । कवि० ७.६७ खेद : सं०० (सं०)। (१) श्रम । 'जिनहिं न सपनेहुं खेद बरनत रघुबर बिसद जसु ।' मा० १.१४ छं० (२) शारीरिक थकावट । 'खेद खिन्न छुद्धित तृषित ।" Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 213 मा० १.१५७ (३) मानसिक क्लान्ति, विषाद । 'खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई।' मा० ७.५६.२ खेदा : खेद । 'उभय हरहिं भवसंभव खेदा।' मा० ७.११५.१३ खेदु : खेद+कए. । 'सोई है खेदु जो बेदु कहै.......।' कवि० ७.६० खेम, मा : छेम (सं० क्षेम>प्रा० खेन)। जीवनचर्या की निर्विघ्न व्यवस्था; ___ अव्याहत आजीविका (योगक्षेम) । 'होइ कि कुसल खेम रोताई। मा० २.३५.६ खेरें : खेरे में, लघु ग्राम में । 'घरु ब्याध अजामिल खेरें।' कवि० ७.६२ खेरे : सं०० (सं० खेटक>प्रा० खेडय) ब० । छोटे गाँव। 'जनु पुर नगर गाउँ ___ गन खेरे ।' मा० २.२३६.१ खेरो : सं०पु०कए० (सं० खेटम्, खेटकम् >प्रा. खेडयं>अ० खेडउ)। छोटा पहाड़ी गाँव । 'आप पाप को नगर बसावत सहि न सकत पर खेरो।' विन० १४३.४ खेल : सं०० (सं.)। (१) क्रीडा, विनोद आदि। 'हारेहुं खेल जितावहिं मोही।' मा० २.२६०.८ (२) स्वाँग, लीला । 'प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई ।' मा० ६.६४.३ खेल : आ०ए० (सं० खेलामि>प्रा० खेल्लमि>अ० खेल्ल) । खेलता रहता हूं (था) । 'खेल' तहूं बालकन्ह मीला।' मा० ७.११०.४ खेलक : वि० (सं.)। खिलाड़ी । गी० १.४५.३ खेलत : वकृ०० (सं० खेलत्>प्रा० खेलंत) । खेलता-ते। 'खेलत मनसिज मीन जुग ।' मा० १.२५८ ।। खेलन : भकृ. अव्यय । खेलने । 'पुरुषसिंघ बन खेलन आए।' मा० ३.२२.३ खेलनि : सं०स्त्री० (सं० खेलन) । क्रीडन क्रिया । गी० १.२१.२ खेलनिहारे : वि० ब० । खेलने वाले । गी० १.४६.१ खेलवार : सं०+वि.पु. (सं० खेलकार>प्रा० खेल्लआर)। खिलाड़ी या ___ शिकारी । 'मुनि आयूस खेलवार ।' मा० २.२१५ खेलहि, हीं : आ०प्रब० (सं० खेलन्ति>प्रा० खेल्लति>अ० खेलहिं) । खेलते हैं । __'खेलहिं खेल सकल नृपलीला ।' मा० १.२०४.६ खेलहु : आ०मब० (सं० खेलत>प्रा० खेलह>अ० खेल्लहु) । खेलो। 'खेलहु ___मुदित नारि नर, बिहँसि कदेउ रघुबीर ।' गी० ७.२१.४ खेला : खेल । मा० ५.२५.५ खेलाइ, ई : पूक० । खिलाकर, खेल कराकर (नचाकर)। 'हतौं न समर खेलाइ __ खेलाई ।' मा० ६.३५.११ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 तुलसी शब्द-कोश खेलाउब : भकृ०० (सं० खेलयितव्य>प्रा० खेल्लाविअल्व) । खेलना (होगा)। 'तह तह तुम्हहि अहेर खेलाउब ।' मा० २.१३६.७ खेलारू : सं०० (सं० खेलिता>प्रा० खेल्लारो>अ० खेल्लारू) कए । खिलाड़ी। 'चढ़ी चंग जनु खैच खेलारू ।' मा० २.२४०.६ खेलावत : वकृ.पु० (सं० खेलयत् >प्रा० खेल्लावंत)। खेल कराता-ते (हुए)। 'जुआ खेलावत गारि देहिं गिरि नारिहि ।' पा०म० १३५ खेलावन : सं०० (सं० खेलना>प्रा० खेल्लावण)। क्रीड़ा करना । 'जुआ खेलावन कौतुक कीन्ह सयानिन्ह ।' जा०म० १५० खेलावहिं : आ०प्रब० (सं० खेलयन्ति>प्रा० खेल्लावंति>अ० खेल्लावहिं) । खेल कराते हैं; खेलने को प्रेरित करते हैं, खेल में सम्मिलित रखते हैं । 'संतत संग खेलावहिं ।' कृ० ४ खेलावहु : आ०मब० (सं० खेलयत>प्रा० खेल्लावह>अ० खेल्लावहु) । खेल करावो । 'अब जनि नाथ खेलावहु एही।' मा० ६.८६.६ । खेलावा : भूकृपु० (सं० खलित>प्रा० खेल्लाविअ)। खेल कराया। ‘एहि __ पापिहि मैं बहुत खेलावा ।' मा० ६.७६.१४ खेलि : पूकृ० (सं० खेलित्वा>प्रा० खेल्लिअ>अ० खेल्लि)। खेलकर, खिलवाड़ करके । 'डगरि चले हँसि खेलि ।' कृ० २६ खेलिबे : भ० कृ०० (सं० खेलितव्य >प्रा० खेल्लिअन्वय) । खेलने । खेलिबे को खग मृग।' विन० २३१.३ खेलिबो : भकृ००कए। (सं० खेलितव्यम् >प्रा० खेल्लि अव्वं>अ० खेल्लिव्वउ) । खेलना । 'इन्ह के लिए खेलिबो छाँड्यो।' कृ० ४ । खेलिय : आ०कवा०प्रए० (सं० खेल्यते>प्रा० खेल्लीअइ)। खेला जाय, खेलिए। 'खेलिय अब फागु।' विन० २०३.१७ खेलिहहिं : आ०भ० प्रब० (सं० खेलिष्यन्ति>प्रा० खेलिहिति>अ० खेल्लिहिहिं)। खोलेंगे । 'खोलि हहिं भानु कीरू चौगाना ।' मा० ६.२७.५ खेलिहौ : आ० भ०मब० (सं० खेलिष्यथ>प्रा० खेल्लिहित>अ० खेल्लिहिहु) । खेलोगे । 'छगन मगन अँगना खेलिही मिलि ।' गी० १.८.३ खेलै : खेलहिं । खोलते हैं । 'साँपनि सों खोलें ।' कवि० ५.११ खेलौना : सं०० (सं० खोलनक>प्रा० खोल्लावणअ)। जीडनक, खोल का उपकरण ।' गी० १.२२.१ खेल्यो : भूकृ०पु०कए । खेला, खेल किया। 'बाल दसाहू न खेल्यो खेल त सुदाउ मैं ।' विन० २६१.२ खेवां : खेवे में । 'प्रात पार भए एकहि खेवा ।' मा० २.२२१.३ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 215 खेवा : सं०० (सं० क्षेप>प्रा० खेव) । नाव की खेप, एक बार पार जाने वाला नौकाभार। खेवैया : वि०। खेने वाला, नाविक । 'न बोहित नाव न नीक खेवैया।' कवि० ७.५२ खेस : सं०० (अरबी-खेश)। मोटे धागों से घना बुना वस्त्र-विशेष जो ओढ़ने बिछाने के काम आता है । 'साथरी को सोदूबो, ओढ़िबो झूने खेस को।' कवि० ७.१२५ खेह : सं०स्त्री० । राख, धूल । 'भागे तें खिरिरि खेह खाहिगो।' कवि० ६.२३ खेहर : खेह । 'सो नर खेहर खाउ ।' विन० १००.१ Vखंच बैंचइ : (सं० खच्चाति>प्रा. खंचइ-खींचना, अपनी ओर को तानना) आ.प्रए० । खींचता है, खींच ले। 'चढ़ी चंग जनु खैच खेलारू ।' मा० २.२४०.६ बचत : वकृ०० (सं० खच्चत् >प्रा० खंचंत) । खींचते, तानते (हुए) । 'लेत चढ़ावत बँचत गाढ़ें।' मा० १.२६१.७ खंचहि : आ०प्रब० (सं० खच्चन्ति>प्रा० खंचंति>अ.खंचहिं) । खींचते-तानते हैं। 'खैहि गीध आंत तट भए।' मा०६.८८.५ बँचहु : आ०मब । खींचो, तान कर चढ़ाओ। 'खैचहु चाप मिटै संदेहू ।' मा० १.२८४.७ वंचि : पूर्व० । खींच कर, तान कर। 'बंचि सरासन छाँड़े सायक ।' मा० ६.६२.६ खैबो : भूकृ००कए० ((सं० खादितव्यम् >प्रा० खाइअव्वं>अ.खाइव्वउ) । खाना । 'मागि के खैबो मसीत को सोइबो।' कवि० ७.१०६ खैहों : आ०भ०उए० (सं० खादिष्यामि>प्रा० खाइहिमि>अ० खाइहिउँ)। खाऊँगा । सिगरिये होंही खैहौं ।' कृ० २ खोंच : सं०स्त्री० (सं० क्रुञ्चा>प्रा० कुंचा=कोंचा) । उलझने से बनने वाली __ वस्त्रादि की फटन, खरोंच । 'तुलसी चातक प्रेम-पट मातहुं लगी न खोंच ।' ___ दो० ३०२ खो : को। का । 'दूजो को कहैया औ सुर्नया चख चारि खो।' कवि० १.१६ खोइ : पूर्व० (सं० क्षपयित्त्वा>प्रा० खविअ>अ० खवि) । खोकर, क्षपित कर, ___ मिटा कर, गवां कर । 'पूछ बुझाइ खोइ श्रम ।' मा० ५.२६ खोई : (१) खोइ । 'गुजा ग्रहइ परस मुनि खोई ।' मा० ७.४४.३ (२) भू० कृ० स्त्री० (सं० क्षपिता>प्रा० खविआ)। खो गई, मिटी। 'राम प्रताप बिषमता खोई ।' मा० ७.४४.३ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 तुलसी शब्द-कोश खोएँ : (सं० क्षपितेन>प्रा० खविएण>अ० खविएँ) । खोने, गवां देने पर । 'खोएँ राखें आपु भला ।' दो० २५२ खोज : (१) सं०स्त्री० । गवेषणा, ढूंढ़ना । 'सीता खोज सकल दिसि धाए।' मा० ७.६७ १ (२) पता, ढूंढ़ने के चिन्ह । 'रथकर खोज कतहुं नहिं पावहिं ।' मा० २.८६.२ (३) भेद, रहस्य । दो० ४०६ खोज, खोजइ : (सं० खोजति-स्तेये-खोई वस्तु का पता लगाना, ढूंढ़ना) आ.प्रए । खोजता है । 'खोजइ सो कि अग्य इव नारी।' मा० १.५१.२ ।। खोजत : वकृ.पु । खोजता-खोजते । 'खोजत रहेउँ तोहि सुत घाती।' मा० ६.८३.२ खोजन : भक० अव्यय । खोजने, ढूंढ़ने । 'सुग्रीवहिं तब खोजन लागा। मा० ६.६६.४ खोजहु : प्रा०मब० । खोजो, ढुंढ़ो। 'जनक सुता कहुँ खोजहु जाई।' मा० ४.२२ ७ खोजि : पूक० । ढूंढकर । 'देखेउँ खोजि लोक तिहु माहीं।' मा० ३.१७.६ खोजौं : आ० उए । ढूंढू । 'आपु सरिस कहें खोजौं जाई ।' मा० १.१५०.२ खोट : वि०पू० (सं० खोट=-खज, लंगड़ा) । त्रुटिपूर्ण, दोषयुक्त, दुष्ट । 'ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति-खोट ।' मा० ६.५१ ।। खोटाई : सं०स्त्री० । खोटापन, दुष्टता। 'अहह बंधु ते कोन्हि खोटाई ।' मा. मा०६.६३.४ खोटि, टी : खोट+स्त्री० । दुष्टा । तोहि सम को खोटी।' मा० ३.५.१७ खोटें : खोट होने से, कपट से । 'तुलसी खोटें चतुरपन ।' दो० ५४६ खोटे : 'खोट' का रूपान्तर (ब.)। दोषयुक्त। 'निखोट होत खोटे खल ।' कवि० ७.१७ खोटेउ : खोटे भी । 'अँकरे किए खोटेउ छोटेउ बाढ़े ।' कवि० ७.१२७ खोटने : खोट+कए० । कलुषित, सदोष । 'जनु खोटने खरो रघुनायक है। को।' कवि० ७.५६ खोयो : भूकृ००कए. । (१) खो दिया, गवाया। 'खोयो सो अनूप रूप । विन. ७४.२ (२) खो गया, भटक गया। निकटहि रहत दूरि जनु खोयो।' विन० २४५.२ खोरि, री : (१) सं०स्त्री० (सं० खोड, खोर, खोल लंगड़ाना) । त्रुटि, हीनता, क्षति, दोष, अपराध । 'कहहु त हमहि न खोरि ।' मा० १.१६५ (२) चचित रेखाएँ । 'तन अनुहरत सुचंदन खोरी।' मा० १.२१९.४ (३) गली । 'खोरि खोरि धाइ आइ बाँधत लँगूर हैं।' कवि० ५.३ (४) पूकृ० । स्नान करके । तीर तीर बैठीं सो समर सरि खोरि के।' कवि० ६.५० Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 217 खोरे : (१) सं०+वि.पु०ब० (सं० खोर, खोड, खोल लँगड़ा)। लंगड़े, __ सदोष । 'काने खोरे कूबरे ।' मा० २.१४ (२) भूक०० । स्नान किए हुए। 'ज्यों नव घन सुधा सरोवर खोरे ।' गी० ३.२.२ (३) नहाने से । 'हम सों कहत बिरह श्रम जैहै गगन कूप खनि खोरे।' कृ० ४४ । खोलन : सं०० (सं० खोलन-खोल्ट अपनयने) । अनावरण क्रिया। 'अधराधर पल्लव खोलन की।' कवि० १.५ खोलि : पूकृ० (१) खोल कर, अनावृत करके । 'खोलि दिखाई ।' कृ० ४१ । (२) दुराव हटाकर । 'क्यों मिलाए मन खोलि ।' दो० ३३२ खोलिअ, ऐ : आ०कवा०प्रए० (सं० खोल्यते>प्रा० खोल्लीअइ)। प्रकट कीजिए, निकालिए । 'रोष न रसना खोलिए, बरु खोलिअ तरवारि ।' दो० ४३५ खोली : (१) खोलि । 'तुरत देब मैं थैली खोली।' मा० १.२७६.४ (२) भूकृ. स्त्री० । अनावृत की । 'कुमत् कुबिहग कुलह जनु खोली।' मा० २.८८.८ खोले : आ०प्रब० । खोलते हैं, बन्धन मुक्त करते हैं। 'बोलै खोलें सेल असि चमकत चोखे हैं।' गी० १.६५.१ खोवत : वकृ०० (सं० क्षपयत्>प्रा० खवंत) । गाता-ते। 'खोवत अपान ।' - कवि० ७.१६२ खोवहिं : आ०प्रब० । खो देते हैं, खो जाते हैं। 'बहुत दुख खोवहिं हो।' रान० १७ खोवै : भकृ० अव्यय । खोने, मिटाने को। 'सो खोवै चह कृपानिधाना ।' मा० ७.६२.८ खोह, हा : सं०पु० । कन्दरा, गुहा । भीतरी भाग। 'सरिता सर गिरि खोह ।' मा० ४.२३ खोही : सं०स्त्री० । घोंघी, तृणनिमित छतरी । 'तौसिए लसति नव पल्लव खोही ।' गी० २.२०.२ खौंदि : पूकृ० । खुरों से कुचल कर, चूर-चूर करके । 'भारी भीर ठेलि पेलि रौंदि खौंदि डारहीं।' कवि० ५.१५ खोरि : सं०स्त्री० । आड़ी रेखा रचना । 'चंदन खोरि सुहाई।' गी० १.५२.३ ख्याल : (१) खोल । 'ख्याल ही पिलाकु तोर्यो। कवि० १.२ (२) संपुं० (अरबी-खयाल)। कल्पना, मानस बिम्ब, ध्यान । 'जौं जमराज काज सब परिहरि इहै ख्याल उर अनिहैं ।' विन० ६५.१ ख्याली : वि० कोतुकी, क्रीडाशील । कवि० ७.१५५ ख्वहौं : आ०भ० उए० । खोऊँगा, गाऊँगा । 'ख्वहौं न पठावनी ।' कवि० २.६ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 तुलसी शब्द-कोश गंभीर, रा : गंभीर । 'बोले बचन गंभीर ।' मा० ६.८६; 'कियो मगनायक नाद गंभीरा ।' मा० ६.६६.२ गंवाइ : (१) गाइ । गवां कर, खोकर, हारकर । 'मधवा अपने सों करि गयो गर्व गवाइ ।' कृ० १८ (२) आ० आज्ञा-मए । तू बिता, गवां दे । 'लखि दिन बेठि गवाइ।' दो० २५७ गंवाई : (१) गँवाइ । खोकर । 'जहउँ अवध कौनु महु लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गवाई ।' मा० ६.६१.११ (२) गवाँई । खोदी, खो गई । 'मानहुं संपति सकल गंवाई।' मा० ६.३५.५ गवायो : भू०००कए० । खो दिया, बिता डाला । 'जनम गंवायो तेरे ही द्वार ___किंकर तेरे ।' विन० १४६.१ गवार : गवार । कवि० ७.३६ गँवारि, री : गवारी कृ० ५३ गॅवार : गवाँरु । गी० ७.१०.५ गॅवाव गॅवावइ : (सं० गमयति>प्रा० गमावइ>१० गवांवइ-खोना, बिताना) । आ०प्रए । खोता है, गाँता है । 'राग द्वेष महँ जनम गवावे ।' वैरा०५७ गॅवावौं : गांवौं । खो रहा हूं । 'सो बिनु काज गँवावौं ।' विन० १४२.६ गॅस : सं०स्त्री० । तीर आदि की नोक, नोक की चुभन; मन के भीतर की चुभन, . दुर्भाव । 'जननिहु गॅस न गही।' गी० ७.३७.२ ग : (समासान्त में) वि० (सं.)। चलने वाला । खग, अनुग आदि गंग : गंगा । मा० १.३२.१४ गंगा : सं०स्त्री० (सं०) । नदी विशेष, देवनदी। मा० १.६२.३ गंगाधर : वि०+सं०० (सं.)। गङ्गानदी को धारण करने वाला=शिव । विन० १२.३ गंगोझ : वि० (सं० गङ्गा-वाह्य>प्रा. गगउज्ज) । गङ्गाजी से बाहर का । 'सोई सलिल सुरा सरिस गंगोझ ।' दो०६८ गंजन : वि.पु. । विनाशकर्ता । 'गंजन बिपति बरुथा।' मा० १.१८६ छं० गंजनिहार : वि०पुं० । विनाशकारी । 'कुंजर गंजनिहार ।' दो० ३८१ गंजय : आ०-प्रार्थना-मए । तू नष्ट कर । 'हृदि बसि राम काम मद गंजय ।' मा० ७.३४.८ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 219 गंजा : भूकृ.पुं० । नष्ट किया। 'तेहि समेत नृप दल मद गंजा।' मा० ५.२७.८ गंजेउ : भूकृ००कए० । नष्ट किया, मार गिराया। 'जन मृगराज किसोर महागज गंजेउ ।' जा०म० १०४ गंड : सं०० (सं.)। कपोल । गी० ७.४.३ गंडकि : सं०स्त्री० (सं गण्डकी)। एक नदी जिसके काले पत्थर से। बने हुए शालग्राम पूजे जाते हैं। गढ़ि गुढ़ि पाहन पूजिऐ गंडकि सिला सुभाउँ।' __ दो० ३६२ गंता : वि०पु० (सं० गन्त) । जाने वाला , गमनशील । 'भूमि पाताल जल गगन गंता ।' विन० २५.८ गंध : सं०पु० (सं.)। (१) घ्राणग्राह्य गुण जो पृथ्वी का विशेष गुण है । 'बिनु महि गंध कि पावइ कोई ।' मा० ७.६०.४ (२) सांख्यादि दर्शनों में पञ्च तन्मात्रों या सूक्ष्मभूतों में अन्यतम । 'परम रस शब्द गंध अरु रूप ।' विन० २०३.६ गंधरब : गंधर्ब । गी० १.२.१५ गंधर्ब, बर्बा : सं०० (सं० गन्धर्ब)। संगीतज्ञ देवजाति विशेष । मा० १.७५; गंभीर : वि० (सं०) (१) गहरा । निर्मल जल गंभीर ।' मा० ७.२८ (२) घना, गहन । 'निसा घोर गंभीर बन ।' मा० १.१५६क (३) मन्द्र (स्वर)। 'गगन गिरा गंभीर भइ ।' मा० १.१८६ (४) भरापूरा, परिपूर्ण (५) धैर्यशाली गंभीरतर : आरीशय गंभीर । विन० ५१.५ गंभीरा : गंभीर । (१) परिपूर्ण । 'नील कंज बारिद गंभीरा ।' मा० १.१६६.१ (२) धैर्यशाली । 'कहि न सकत कछु अति गंभीरा ।' मा० १.५३.२ गह : गई । 'धरि पंच गइ राति ।' मा० १.३५४ गइउँ : आ०-भूक०स्त्री०+उए । मैं गई । 'गइउँ न संग न प्रान पठाए ।' मा०. २.१६६.५ गई : गई+ब० । 'सिधि सब..गईं जहाँ जनवास ।' मा० १.३०६ गई : भूक०स्त्री० (सं० गता>प्रा० गया=गई) । मा० १.७२.५ गईबहोर : वि.पु. । गई = खोई वस्तु को लौटा लाने वाला, शरणदाता । 'गईबहोर गरीबने वाजू ।' मा० ९.१३.७ । गईबहोरि : सं०स्त्री० । 'गईबहोरि' होने का भावकर्म । खोई वस्तु को पुनः देने की क्रिया । 'कहि पारथ सारथिहि सराहत गईबहोरि गरीबनेबाजी।' कृ० ६१ गएँ : जाने पर, जाने से । 'गएँ जान सबु कोइ ।' मा० १.४८क गए : भूकपु० (ब०)। मा० १.४८.१ गगन : सं०पु० (सं०) । आकाश, शून्य (अन्तरिक्ष) । मा० १.७.६ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 तुलसी शब्द-कोश गगनगिरा : आकाशवाणी, देवी अदृश्य वाणी। मा० १.१८६ ।। गगनचर : आकाश में विचरण करने वाले जीव (पक्षी आदि) । 'एहि बिधि सकल गगनचर खाई ।' मा० ५.३.३ गगनपथ : अन्तरिक्षमार्ग, वायुमार्ग । मा० ३.२८ गगनु : गगन+कए । सब-का-सब (एकीभूत) आकाश । ‘गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई ।' मा० २.२३२.१ गगनोपरि : (गगन+उपरि-स०) आकाश पर । मा० ६.७१.११ गच : सं०स्त्री० (फा०) । पक्की (जड़ाऊ) फर्स । 'नाना रंग चारु गच ढारों ।' मा० ७.२७.३ गचकांच : कांच की बनी फर्स । 'ज्यों गचकांच बिलोकि स्येन जड़ छाँह आपने तन की।' विन० ६०.३ गच्छन्ति : आ०प्रब० (सं०) । जाते हैं, पहुंचते हैं, प्राप्त करते हैं । विन० ५७.५० गज : सं०० (सं०) । हाथी । मा० १.११.१ गजगवनि, नी : गजगामिनि (सं० गजगमना) । पा०म० ११६ गजगामिनि : वि०स्त्री० (सं० गजगामिनी) । हाथी के समान मत्त चाल चलने वाली । मा० १.३१७ गजगाह : (दे० गाह) हस्तिसेना अथवा हाथी का होदा । 'साजि - सनाह गजगाह सउछाह दल ।' कवि० ६.३१ गजछाल : (दे० छाल) हाथी का चर्म । पा०म० छं० १२ गजबदन : गजानन । गणेश । मा० १.२३५.६ गजमनि, नी : गजमुकुता । मा० ७.६.३ गजमनियां : गजमनि+ब० । गजमुक्ताएँ । 'कंठुला कंठ मंज गजमनियां ।' गी० १.३४.३ गजमुकता : (दे० मकुता) हाथी के कुम्भमण्डल के भीतर उत्पन्न होने वाली मुक्ता । रा०न०४ गजमोति : गजमुकुता (दे० मोती) । गी० ७.२१.८ गजराज : (सं०) श्रेष्ठ हाथी । मा० १.२५६ गजराजा : गजराज । मा० ५.१६.७ गजराजु : गजराज+कए । मा० २.३६ गजानन : सं०० (सं.)। गज के मुख के समान मुख वाला=गणेश गजाननु : गजानन+कए । 'सुमिरि गजानन कीन्ह पयाना।' मा० १.३३६.८ गजारि, री : हाथी का शत्रु =सिंह । मा० ६.३०.३ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 221 गजाली : सं०स्त्री० (सं०) । गज समूह, हाथियों की श्रेणी। 'केहि सोहाति रथ बाजि गजाली।' मा० २.२२८.७ गजु : गज+कए० । एक वह हाथी=गजेन्द्र जिसका भगवान् ने उद्धार किया था। ____ 'अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ ।' मा० १.२६.७ गज्जत : गर्जत (सं० गर्जत् >प्रा० गज्जत) । 'बीरु बारिदु जिमि गज्जत ।' कवि. ६.४७ गठिबंध : सं०० (सं० ग्रन्थिबन्ध>प्रा. गंठबंध) । गठजोड, गठबन्धन (विवाह का ग्रन्थि बन्धन) । मेल-मिलाप । 'गठिबंध ते परतीति बड़ि ।' दो० ४५३ गढ़त : वकृ.पु । (गर्त में) फँसता-ते । 'गड़त गोड़ मानो सकुच पंक महँ ।' गी.. गड़ी : भूकृ०स्त्री० । धंसी, चुभ गई, प्रविष्ट होकर (मानों गर्त में) अदृश्य होकर बैठ गई । 'छबि गड़ी कबि जियरे ।' मी० १.४३.२ गड़े : भूक०० (ब०)। (मानों गर्त में) धंस गये । 'जिय जात जनु सकुचनि गड़े।' विन० १३५.४ गढ़ : सं०पू० (प्रा०) । दुर्ग, किला। मा० १.७६.३ /गढ़ गढ़ : (सं० घटयति>प्रा० घडइ= घढ़इ-रचना, संवार कर बनाना, कलात्मक निर्माण करना) गढ़त : वकृ.पु. (सं० घटयत्>प्रा० गत) (१) रचना, रचते । (२) बातें बनाताते । 'अब ये गढ़त महरि मुख जोए ।' कृ० ११ गडाइहौं : आ० भ० उए० (सं० घटयिष्यामि>प्रा० गढाविहिमि>अ० गढाविहिउँ)। गढाऊँगा, बनवाऊँगा । 'हौं दीन बित्तहीन कैसें दूसरी गढ़ाइहौं ।' कवि० २.८ गढायो : भूकृ००कए । बनवाया। 'आनि के सबै को सारु धनुष गढ़ायो है।' कवि० १.१० गढ़ि : पूकृ० (सं० घटयित्त्वा>प्रा० गढ़िअ>अ० गढि) । रचकर । 'सुर प्रतिमा खंभन गढ़ि काढ़ीं।' मा० १.२८८.६ गढ़ीवै : गढ़ी हुई बातें (दे० गढ़ोवै) गढ़ : गढ़+कए । एकमात्र (अद्वितीय) दुर्ग । 'छेत्रु अगम गढ़ गाढ़ सुहावा ।' मा० २.१०५.५ गढ़े : भूकृ०० (ब०) (सं० घटित>प्रा. गढिय)। (१) छील डाले, रन्द दिये। 'रावन राढ़ सुहाड़ गढ़े।' कवि० ६.६ (२) कृत्रिम रूप से छील छाल कर रचे हुए । 'चित्र से नयन अरु गढ़े से चरन कर ।' गी० ५.१८.२ गया : वि० गढ़ने वाला, कृत्रिम रचना करने वाला, कपोल कल्पित करने वाला । 'ग्यान को गढ्या ।' कवि० ७.१३५ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 तुलसी शब्द-कोश गढ़ोव : गढ़े में, गढ़ में-किले या गर्त में (आज-कल अवधी में गतं और दुर्ग दोनों को 'गढ़वा' या 'गढ़ोवा' कहते हैं) । 'हो भले नगफँग परे हो गढ़ोवै ।' कृ० ११ गणति : वकृ० स्त्री० (सं० गणयन्ती>प्रा. गणंती)। गिनती = गणना करती। ___ 'यस्य गुणगण गणति बिमलमति शारदा ।' विन० ११.६ गत : भूक०वि० (सं०) । (१) स्थित, उपस्थित । 'अंजलि गत सुभ सुमन जिमि।' मा० १.३ (२) गया=पहुंचा। 'मेधा महि गत सो जलु पावन ।' मा० १.३६.८ (३) बीत गया। ‘एहि प्रकार गत बासर सोऊ ।' मा० २.२७३.३ (४) रहित । संत हृदय जस गत-मद-मोहा ।' मा० ४.१६.४ (५) समाप्त हुआ। 'नाथ कृपा मम गत संदेहा ।' मा० ७.१२६.८ गतक्रोध : वि० (सं०) । क्रोध रहित । मा० ६.११० छं० गतव्यलोक : (दे० ब्यलीक) माया-मिथ्या-रहित । गी० १.३६.१ गतभेदा : वि. (सं० गतभेद) । भेदभावना रहित, मायाकृत विविधाताओं से परे द्वतहीन । 'सकल बिकार रहित गतभेदा ।' मा० २.६३.३ गतत्ताज : वि० (सं० गतलज्ज) । मा० २.१७८ गति : सं०स्त्री० (सं)। (१) चाल । 'चलेउ बराह मरुत गति भाजी।' मा० १.१५७.१ (२) उपाय । 'भनिति भगति नति गति पहिचानी।' मा० १.२८.६ (३) पहुँच । 'गति सर्वत्र तुम्हारि ।' मा० १.६६ (४) लक्ष्य, गन्तव्य । 'गति परमिति लहिबे ही।' कृ० ४० (५) मार्ग, पन्थ । 'अब निर्गुन गति गही है।' कृ०४२ (६) प्राप्यक, रोय । 'जाना चहहिं गूढ़ गति जैऊ ।' मा० १.२२.३ (७) दशा, परिणाम । 'भै जगबिदितदच्छगति सोई।' मा० १.६५.३ (८) बनाव, साज । 'कोउ अपावन गति धरें।' मा० १.६३.छं० (8) शक्ति, क्षमता। 'सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी।' मा० १.१२५.४-५ (१०) प्रपत्ति, शरण । 'गति अनन्य तापस नृप रानी ।' मा० १.१४५.५ (११) पुरुषार्थ प्राप्ति, लक्ष्यसिद्धि । 'जो सुख पावहिं जो गति लहहीं।' मा० १.१५०.८ (१२) प्रवृत्ति, इच्छा । 'मन की गति जानी।' मा० १.२१८.३ (१३) प्रशिक्षित विशेष चाल । 'फेरहिं चतुर तुरग गति नाना ।' मा० १.२६६.२ (१४) (संगीत में) लय । 'अनुहरि ताल गातिहि नटु नाचा।' मा० २.२४१.४ गतिकारी : वि०० (सं.) । चाल लेने वाला । 'अजर अमर मन सम गतिकारी।' मा० ६.८६.४ गती : गति । सद्गति, उत्तम मार्ग । 'गह आनहिं चेरि निबैरि गती।' मा० ७.१०१.३ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश गथ : सं०पु ं० (सं० ग्रन्थ > प्रा० ग्रंथ ) | धन । 'बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए ।' मा० ७.२८ छं० गद : सं०पु० (सं०) । (१) रोग । (२) एक वानर यूथप का नाम । मा० ५.५४ गदगद : (१) वि० (सं० गद् गद) । कण्ठरोधयुक्त | 'गदगद गिरा गंभीर ।' मा० १.२१५ (२) रुद्धस्वर । 'गदगद कंठ न कछु कहि जाई ।' मा० १.७२.७ गदा : सं。स्त्री० (सं०) । मुद्गराकर आयुधविशेष । मा० १.१८२.४ 223 गन : सं०पु ं० (सं० गण) । (१) समूह । 'किएँ तिलक गुन गन बस करनी ।' मा० १.१.४ ( २ ) ( शिव के ) पार्षद | 'दिए मुख्य गन संग तब । मा० १.६२ ( ३ ) ( यम के ) दूत । 'जन गन मुहँ मसि जग जमुना सी ।' मा० १.३१.११ (४) कष्टप्रद देवदूत आदि । 'रुचिहि कामादि घन घेरे । विन० २१०.३ (५) कर्मचारी, अधिकारी । 'प्रभु तें प्रभु गन दुखद ।' दो० ५०१ (६) लोग (बहु० ) । ' बहुरि बंदि खल गन सति भाएँ ।' मा० १.४.१ /गन गनइ : (सं० गणयति - गण संख्याने > प्रा० गणइ – (१) गिनती करना (२) मानना, अपेक्षा करना) आ०प्र० । (१) गिनता है । ' इन्ह सम कोटिन्ह गनइ के नाना मा० ५.५५.१ (२) मानता या अपेक्षा करता है । 'अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन । मा० ६.६८ छं० गनक : सं० + वि०पु० (सं० गणक) । (१) गणना करने वाला, गणितज्ञ । 'तेरें हेलो लिपि बिधिहु गनक की ।' कवि० ७.२० (२) ज्योतिषी । 'गनक वोलि दिनु साधि ।' मा० २.३२३ 1 गनकन्ह : गनक+संब० । गणकों, ज्योतिर्विदों (ने) । 'गनी जनक के गनकन्ह जोई ।' मा० १.३१२.७ गनत : वपु ं० ( गणयत् > प्रा० गणंत ) । गिनता -गिनते । 'राम भरत गुन गनत सप्रीती ।' मा० २.२६०.१ गनति : गनत + स्त्री० । गिनती, अपेक्षा करती, मानती । 'गनति न सो सिसु पीर ।' मा० ७७४क (२) आ०प्र० (सं० गणयति ) । गिनता है । 'बिमल गुन गति शुकनारदादी ।' विन० २६.८ गनती : गिनती । विम० २०८.३ गननायक : रुद्र गणों में श्रेष्ठ = विनायक = गणेश । मा० १.२५७.७ गनन्ह : गन+संब । गणों । 'गनन्ह समेत बसहि कैलासा ।' मा० १.१०३.५ · गनप: सं०पु० (सं० गणप) गणपति । मा० २.२७३.४ गनपति: सं०पु० (सं० गणपति ) । सद्गुनों में श्रेष्ठ गणेश । मा० २.६.८ अनुश्रुत के अनुसार व्यासकृत महाभारत तथा पातञ्जल महाभाष्य के लेखक गणेश जी थे । 'तुलसी गनपति सों तदपि महिमा लिखी न जाइ ।' वैरा० ३५ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 तुलसी शब्द-कोश गनपु : गनप + कए । गणेश । रा०प्र० १.१.६ गनराऊ : गनपति (सं० गणराज: > प्रा० १.१६.४ गनराजा : सं०पु० (सं० गणराज ) । गणेश । मा० १.३४७.८ गह, हीं : आ०प्र० (सं० गणयन्ति > प्रा० गणंति > अ० गणहि ) । (१) गिनते हैं । (२) समझते- मानते हैं । 'तुम्ह समान लोकहि गनहीं ।' मा० ५.५५.२ (३) मन में लाते हैं, महत्त्व देते हैं । 'बाल दोष गुन गनहिं न साधू ।' मा० गणराओ >> अ० गणराउ ) । मा० १.२७५.५ गनहि : आ० आज्ञा-मए० (सं० गणय > प्रा० गहि । तूगिन । 'मेसादिक क्रम तें नहि ।' दो० ४५६ गना : गन। मा० ४.६० छं० नाये, ए : भू०पु०ब० । परिगणित कराये, गिनाये । 'अति असीम नहि जाहि गनाये ।' विन० १३६.६ नाव : आ०उए । गिनाता हूं, अपनी गिनती करता हूं। 'सब संतन माझ गनावौं । विन० १४२.८ नि: कृ० । (१) गणना कर । बिजन बहु गनि सकइ न कोई ।' मा० १.१७३.२ (२) वर्णन करके । 'मति अनुहारि सुबारि गुन गन गनि मन अन्हवइ ।' मा० १.४३ (३) विवेचित करके । 'गनि गुन दोष बेद बिलगाए । ' मा० १.६.३ (४) एक के बाद एक - निरन्तर । ' देहि गनि गारौं ।' मा० १.७.१० गनिअ : आ० – कवा ० - प्र० (सं० गण्यते > प्रा० गणीअइ) । (१) गिनिए, गिना जाता है, गिना जाय । ( २ ) मानिए, समझना चाहिए । 'लघु करि गनिअ न ताहु ।' मा० १.१७० (३) स्थान दिया जाय । ' प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा । मा० २.४२.२ afoni : गणिका ने । 'गनिकां कबहीं मति पेम पगाई ।' कवि० ७.६३ गनिका : सं० स्त्री० (सं० गणिका) । वेश्या । मा० ७.१३० छं० १ afterऊ : गणिका भी । 'अपतु अजामिनु गज गनिकाऊ ।' मा० १.२६.७ ( एक भक्त गणिका का भगवान् ने उद्धार किया था । ) गनिबो : भकृ०पु०कए० (सं० गणायितभ्यः > प्रा० गणिअव्वो ) । गिनना, योग्य । 'न्यारो के गनिबो ।' विन० ७७.३ गनियत: वकृ०पु० ० - कवा० । गिना जाता -गिने जाते । ' तेइ गनियत बड़भागी ।" विन० ६५.४ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 225 गनिहि : गनी को, धनी को। 'गहिहि गुनिहि साहिब लहै ।' विन० २७४.२ गनी : (१) वि.पु. (अरबी-गन्नी) । धनाढ्य, निश्चिन्त, अमीर । गनी गरीब ग्रामनर नागर ।' मा० १.२८.६ (२) भू० कृ०स्त्री० । गिनी, गणित करके निकाली । 'गनी जनक के गनकन्ह जोई ।' मा० १.३१२.७ गने : (१) गनइ । गिन सकता है। बिबिध बाहन को गने।' मा० ६.८७ छं० (२) भूकृ००ब० । परिगणित=गिने-चुने । 'गने लोग लिए साथ।' मा० २.२४५ (३) गिने गये । 'जहां गने गरीब गुलाम ।' विन० ७७.३ गनेस : सं०० (सं० गणेश) । गणपति । मा० १.२५५.८ गनेसु, सू : गनेस+कए । मा० १.३०१ गर्ने : गनहिं । 'चारि पदारथ में गनै ।' दो० ३५९ गनै : (१) गनइ । गिनता है, गिने, गिन सकता है। 'गन बेष अगनित को गर्न ।' मा० १.६३ छं० (२) भकृ० अव्यय । गिनने को। 'गने को पार निसाचर __ जाती।' मा० १.१८१.३ गपत : (फा० गप=मिथ्या कथन, चापलूसी, बकवास) वकृपु । गप मारता, बकता । 'गाल गूल गपत ।' विन० १३०.२ गभीर : गंभीर (सं.)। (१) सघन । 'विंध्याचल गभीर बन गयऊ।' मा० - १.१५६.४ (२) मन्द्र । 'गदगद गिरा गभीर ।' मा० १.२१५ (३) गहरा, गहरी । 'खाई सिंधु गभीर अति ।' मा० १.१७८क (४) अज्ञेय । मा० ७.१०८.५ गभीरा : गभीर । मा० १.८४.८ गभुआरे : वि०पू०बहु० । गर्भ के बालों आदि का विशेषण । गर्भ के। 'चिक्कन ___कच मेचक गभुआरे ।' मा० १.१६६.१० गम : सं०० (सं.)। गति, पहुंच । 'गम नहिं गिरा गुन ग्यान गुनी को।' कवि ७.१४६ गमन : सं०० (सं०) । प्रस्थान, जाने की क्रिया। गमनु : गमन+कए । 'सीतां गमनु राम पहिं कीन्हा ।' मा० १.२६३.८ गमिहैं : (अरबी-गम रन्ज, दु:ख) आ०भ०प्रब० । ग्रम करेंगे, दुःखी होंगे। _ 'खल अनखे हैं तुम्हें, सज्जन न गमिहैं।' कवि० ७.७१ गमु : गम+कए० । कोई गति । 'सेस महेस गिरा गम नाहीं।' मा० २.३२५.८ गम्य : वि०पू० (सं०) । गन्तव्य, लक्ष्य, प्राप्य, साध्य, प्रमेय, ज्ञेय । संवेदनीय या अनुभवनीय । 'अनुभव-गम्य भजहिं जेहि संता।' मा० ३.१३.१२ गय : (१) गज (प्रा० गय) । 'अगनित हय गय सेन समाजा।' मा० १.१३०.२ (२) (सं० गत>प्रा० गय)-दे० गयउ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 तुलसी शब्द-कोश गयंद : सं०पु ं० (सं० गजेन्द्र > प्रा० गइंद) । हस्तियूथप, गजराज । 'रजनीचर मत्त गयंद घटा ।' कवि० ६.३६ गयंदु : गयंद + कए० । अद्वितीय गजेन्द्र । 'नव गयंदु रघुबंसमनि । मा० २.५१ गयउँ, ऊँ : आ० - भूकृ०पु० + उए० । (१) मैं गेया । 'मैं पुनि गयउँ बंधु सँग लागा ।' मा० ४.६.४ ( २ ) मैं मिट गया, समाप्त हो गया । 'गयउ नारि बिस्वास ।' मा० २.२६ गयउ, ऊ : भूकृ०पु०कए० । गया । 'राउ गयउ सुरधाम ।' मा० २.१५५ गयहु : आ० - भूपु ० + मब० । तुम समाप्त हो गये । 'गर्भ न गयहु व्यर्थ तुम्ह जायहु ।' मा० ६.२१.६ गयादिक : गया इत्यादि । 'गया' तीर्थविशेष का नाम है जो पितृ कर्म के लिए प्रसिद्ध है । मा० २.४३.७ गये : गए गयो : गयउ | ( सारथी ) 'तुरत लंका ले गयो ।' मा० ६.८४ छं० गर : सं०पु० (सं० गल ) । गला, कण्ठ, ग्रीवा । मा० ६.३३.४ / गर गर : (सं० गलति - गल स्रवणे > प्रा० गलइ - गलना, घुलना, पिघलना, बहना) आ०प्र० । घुलता ती है । 'गरइ गलानि कुटिल कैकेई । मा० २.२७३.१ गरज : सं० स्त्री० ( १ ) ( अरबी - गरज = निशान:, हाजत, मकसद ) । लिप्सा, प्रयोजन, लालसा । 'गरज आपनी सबन को ।' दो० ३०० (२) (सं० गर्ज - गज शब्दे ) शब्दों में व्यक्त करना । 'गरज करत उर आनि ।' दो० ३०० / गरज गरजइ : (सं० गर्जति - गजं रखे - मेघ गर्जन ) आ०प्र० । गरजता है । 'मधुर मधुर गरजइ घन घोरा ।' मा० ६.१३.२ गरजत : वकृ०पु ं० (सं० गर्जत्) । गरजता, गरजते । 'घन घमंड गरजत नभ घोरा ।' मा० ४.१४.१ (२) गरजते ( होने पर ) । ' पलुहत गरजत मेह ।' दो० ३१६ गरजनि : सं०स्त्री० (सं० गर्जन ) । गरजने की क्रिया । 'दु'दुभि धुनि घन गरजनि घोरा ।' मा० १.३४७.५ गरज हि : आ० प्रब० । गरजते हैं । ' गरजहिं गज घंटा धुनि घोरा । मा० १.३०१.१ गरज : पूकृ० । गरज कर, गम्भीरनाद करके । 'गरज अकास चलेउ तेहि जाना ।' मा० ६.६६.६ गरजी : (दे० गरज) वि०पु० । चाहने वाला । 'अनंगु भयो जिय को गरजी । कवि ० ० ७.१३३ गरज : गरजइ । कवि० ६.३६ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश गरत : वकृ०पुं० । घुलता, घुलते । 'गुरु गलानि गरत ।' बिन० १३४.५ गरद : गर्द । 'गथ गाठरी गरद की ।' कवि० ७.१५८ गरदनि: सं ० स्त्री० (सं० गल + दुणि= बाल्टी - - फा० गर्दन) । ग्रीवा । (गले का भाग जो बाल्टी के आकार का होता है) । मा० २.१८५.६ I गरन : सं०पु० (सं० गलन ) । घुलना । 'तुलसी पं चाहत गलानि ही गरन ।' विन० 227 २४६.४ गरब : गर्ब । मा० २.१४.३ गरबित : वि० (सं० गर्वित ) । गर्वयुक्त, साभिमान । 'गरबित भरत मातु बल पी के ।' मा० २.१८.३ गरम : गर्भ । विन० १३६.३ गरम : वि० (सं० धर्म = फा० विन० २४६.१ गरल : सं०पु० (सं० ) । विष, हालाहल । मा० १.५ गरह : (१) सं० स्त्री० (सं० गर्हा > प्रा० गरहा) । निन्दा (२) सं०पु० (सं० गलहन्) । गले का रोग, कण्ठमाला आदि रोग । 'हरष बिषाद गरह बहुताई ।" मा० ७.१२१.३३ मा० २.१६२.२ ( २ ) गी० ५.३६.५ गर्म ) । उष्ण । 'जूड़े होत थोरे, थोरे ही गरम ।' गहि, हीं : आ०प्र० (सं० गलन्ति >> प्रा० गलंति > अ० गलहि ) । घुलते हैं, पिघल जाते हैं । 'जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं ।' मा० १.४.७ गरि : (१) भूकृ ० स्त्री० । गली, घुल गेई । 'गरि न जीह मुहँ परेउ न कीरा ।" पूकृ० । गल कर । 'गए गरब गरि गरि गनी । * गरिमा : सं ० स्त्री० (सं० गरिमन् —पुं० > प्रा० गरिमा - स्त्री० ) | गौरव, भारीपन । 'उग्र भार्गव गर्व गरिमापहर्ता ।' विन० ५०.४ गरिमागार : गौरव का भाण्डम्; महिमा का आकार । विन० ५४.५ गरीब : वि० (अरबी - गरीब = प्रवासी ) । परदेसी, असहाय, बेसहारा, निर्धन, अकिंचन । मा० १.२८.६ गरीबनवाज : वि० ( अरबी - गरीब + फा० निवाज ) । अशरण को शरण देने वाला, दीनपालक । 'नाथ गरीबनिवाज हैं ।' विन० १४८.५ गरीब नवाजी : दीनपालकता, शरणदातृत्व । ' सराहत गईबहोरि गरीबनिवाजी ।" कृ० ६१ गरीबी : सं० स्त्री० । दीनता, निर्धनता । 'मैं गहीन गरीबी ।' विन० १४८.५ गरीसा : वि०पु० (सं० गरीयस् ) । बढ़कर भारी, अतिगुरु । 'परनिंदा सम अघ न गरीसा ।' मा० ७.१२०.२२ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 तुलसी शब्द-कोश गरु : गरुअ (सं० गुरु) । भारी । 'न टरें पगु मेठहु तें गरु भो ।' कवि० ६.१५ गरुन : वि०पु० (सं० गुरुक > प्रा० गरुअ ) । भारी । मा० १.२५०.१ / गरुआ गरुनाइ : (सं० गुरुकायते > प्रा० गरुआइ - भारी होना) आ०प्र० । भारी होता है, भारी होता जाता है । 'मनहुं पाइ भट बाहुबल अधिक-अधिक गरुआइ ।' मा० १.२५० गरुप्राई सं० स्त्री० (सं० गुरुकता > प्रा० गरुआया) । (१) भारीपन । 'करि हितु हरहु चाप गरुआई ) ।' मा० १.२५७.६ (२) भार । हरहि धरनि गरुआई । गी० १.१६.३ गरुइ : गरुई । 'जानि गरुइ गुरु गिरि बहोरी ।' मा० २.२१३.२ गरुई : वि० स्त्री० (सं० गुरुका > प्रा० गरुई) । भारी 'तुलसी त्यों त्यों होइगी गरुई ज्यों ज्यों कामरि भीजं ।' कृ० ४६ गरुड़ : सं०पु ं० (सं०) । सर्वभक्षी पक्षि विशेष जो विष्णु-वाहन कर के पुराण प्रसिद्ध है । मा० १.१२०ख गरुरु : गरुड़ +कए० । 'चितव गरुरु लघु ब्याल हि जैसे ।' मा० १.२५६.८ गरूर : सं० पु ं० (अरबी – गरूर ) । क्षुद्र अहँकार, मिथ्याभिमान । 'गोरो गरूर गुमान भर्यो ।' कवि० १.२० - गरें गले में । 'बिषु पावकु ब्याल कराल गरें ।' कवि० ७.१५४ गरे : (१) गरें (सं० गले ) । ग्रीवा में । 'गरे (२) भू० कृ०पु०ब० (सं० गलित > प्रा० उहाँ ग्लानि गरे गात ।' कवि० ५.२० आसा डोरि ।' विन० १५८.५. गलिय ) । 'इहाँ ज्वाल जरे जात, गरे : गाइ । पिघल कर बह जाता है । 'ताप गरे गात की ।' कवि० ७.१३८ गरंगी : आ० - भ स्त्री० प्र० । गल जायगी । 'गरैगी जीह जो कहीं और को हौं ।" विन० २२६.१ गरी आ० - आज्ञा, संभावना - प्रए० (सं० गलतु > प्रा० गलउ ) । गल जाय । 'तो जरि जीह गरो ।' विन० २२६.६ गर्ज गर्जइ : (सं० गर्जति > प्रा० गज्जइ - गरजना ) आ०प्र० । गरजता है । 'गर्जा घोर रव बारहिबारा ।' मा० ६.७६.५ गर्जत : गरजत । 'गर्जत तर्जत सनमुख धावा । मा० ६.१०.२ गर्जह, हीं : गरजहिं । मा० ३.१८.८ 1 गर्जा : भू० कृ०पु० । गर्जन किया, मेघरव किया । 'गर्जा अति अंतर बल थाका ।' मा० ६.६२.२ गज : पूकृ० | गरज कर, मेघ ध्वनि करके । 'गर्जि परे रिपु कटक मझारी ।' मा ६.४४७ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसो शब्द-कोश 229 गर्जेउ : भूक००कए. । गरज उठा, मेघरव किया। 'गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा ।' मा० ६.४३.५ गर्जेसि : आ० -भूकपु+प्रए । वह गरजा, उसने मेघनाद किया। 'गर्जेसि जाइ निकट बलु पावा।' मा० ४.७.२६ गतं : सं०० (सं०) । खात, गड्ढा । विन० ४३.५ गर्द, द्वा : सं०स्त्री० (फा०) । धूल । 'मदि गर्द मिलवहिं दस सीसा।' मा० . ५.५५.७ गर्दा : गर्द । मा० ६.६७.३ गर्ब : सं०० (सं० गर्व) । रूप, धन, यौवन, विद्या, बल, कुल, पद, प्रभाव आदि से अपने महत्त्व का ज्ञान करके दूसरे की अवहेलना करने वाला अभिमान गर्व है। मा० ६.२६.४ गर्बु : गर्ब+कए० । अद्वितीय गर्व । 'परसुधर गर्ब जेहि देखि बीता।' कवि० ६.१७ गर्भ : सं०० (सं.)। (१) गर्भाशय, स्त्री के उदर का भाग विशेष जिसमें भ्रूण पलता है । 'गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु ।' मा० ६.२१.६ (२) भ्रूण, गर्भस्थ शिशु । 'एहि बिधि गर्भसहित सब रानी ।' मा० १.१९०.५ (३) किसी का भीतरी भाग । जैस, कदलीगर्भ, गर्भगृह, गर्भाङ्ग। विन० १५.२ गर्भन्ह : गर्भ+संब० । गर्भो । 'गर्भन्ह के अर्भक दलन ।' मा० १.२७२ गर्भहिं : गर्भ में । 'जा दिन तें हरि गर्भहिं आए।' मा० १.१६०.६ । गर्यो : भूकृपु०कए । गल गया, घुला । 'जात गलानिन्ह गर्यो।' गी० ५.२७.१ गर्वघ्न : वि० (सं०) । गर्वनाशक । विन० ५४.५ गर्वहर : वि० (सं.) । गर्व हरने वाला=गर्वघ्न । विन० ३६.५ गर्वापहरी : वि० (सं.) । गर्वहर । 'मनोभव कोटि गर्वापहारी।' विन० ४४.३ गल : गर । ग्रीवा । 'गल अँतावरि मेलहिं ।' मा० ६.८१ छं० गलकंबल : सं०० (सं.)। गाय के गले में झूलता हुआ कम्बलाकार चर्मीङ्ग विशेष । विन० २२.३ गलगाजे : भूकपु० (सं० गल+गजित>प्रा० गलगाज्जिय)। गल-गल ध्वनि के साथ गरज उठे, कण्ठ से विजयनाद कर चले। 'अलसी हमसे गलगा।' कवि० ७.१ गलबल : सं०पू० (सं० गल्ल=कपोल+वल्ल गती)। गाल चलाने का ध्वनि समूह, अस्पष्ट कोलाहल, चिल्लपों, भगदड़ की चिल्लाहट । ‘पर पुर गलबल भो।' हनु०६ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 तुलसी शब्द-कोश गलानि : सं०स्त्री० (सं० ग्लानि>प्रा० गिलाजि-ग्ल हर्षक्षये) । उल्लासहीनता। (१) कुंभलाहट, भुरझाहट । (२) मानसिक क्लान्ति, एक प्रकार की मन की पश्चात्तापपूर्ण स्थिति । 'गरइ गलानि कुटिल कैकेई ।' मा० २.२७३.१ मलानिन्ह : गलानि+संब० ग्लानियों, विविध अवसादों (से)। 'जात गलानिन्ह __ गर्यो।' गी० ५.२७.१ गलानी : गलानि । मा० १.४३.३ गलित : भूकृ०वि० (सं०) । घुला, समान्त । 'तुम्ह सरिखे गलित अभिमाना । मा० १.१६१.१ गलिन, न्ह : गली+संब० । गलियों, वीथियों (में)। 'तुलसी गलिन भीर ।' गी० १.६२.४ 'गलिन्ह रह्यो पूरि ।' गी० ७.२१.२३ गली : (१) गलियाँ । 'मग गृह गली संवारन लागे।' मा० १.२६६.४ (२) गली में 'बलवान है स्वानु गली अपनी ।' कवि० ६.१३ गली : सं०स्त्री० (सं० गति>प्रा० गई गइल्ली)। गैल, बीथी, पतला मार्ग । गी० १.२.५ गले : (सं० पद) । गले में । मा० २ श्लोक १ नवं सं०० (सं० गम>प्रा० गम>१० गवे) । (१) उपाय, लक्ष्य, ताक, दावें। जिमि तकइ लेउँ केहि भांती ।' मा० २.१३.४ (२) बहाना, ब्याज, छल । गहि : गर्व से, बहाने से । “गहिं जोहारहिं जाहिं।' मा० २.१५८ गवन : गमन (अ० गवण) । प्रस्थान, यात्रा । मा० १.१४३ गवनत : गवन+वकृ०० । गमन करता-ते। 'तुरत पवनसुत गवनत भयऊ ।' मा० ६ १२१.३ गवनब : गवन+ भक० पु । जाना (होगा)। “गवनब अवहिं कि प्रात ।' मा. २.११४ मवनहिं : गवन+आ०प्रब० । (१) प्रस्थान करते हैं। 'मकर भज्जि गवनहिं मुनि बदा ।' मा० १.४५.२ (२) जाते हैं =बीतते हैं । 'पात खात दिन गवनहिं ।' पा०म०३८ पवनहु : गवन+आ० मब० । जाओ, प्रस्थान करो। 'तुम्ह गृह गवनहु भयउ ___ बिलंबा ।' मा० १.८१.७ गवनि : गवन =पूकृ० । जाकर । 'गृह तें गवनि परसि पद पावन घोर साप तें तारी।' विन० १६६.२ गवान हैं : गवन+आ०भ०प्रब० । प्रस्थान कर जायेंगे। 'गवनि हैं गहि गवाँइ गरब गृह ।' गी० १.७०.६ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 231 गवनी : गवन+भूकृ०स्त्री०ब० । गईं। 'छबि खानि मातु भवानि गवनी ।' मा० १.१०० छं० गवनी : (१) गवन+भूकृ०स्त्री० । गयी, चली । 'गवनी बाल मराव गति ।' मा० १.२६३ (२) (समासान्त में) गति वाली । 'सुरसरी सोहै तीनि-गवनी ।' गी० १.५८.३ गवनु : गमनु (गवन+कए०) । मा० १.२६३.२ गवने : गवन+भूक पुब० । प्रस्थित हुए, चल पड़े। 'हरषि सप्त रिषि गवने गेहा ।' मा० १.८२.३ गवनेउ : गवन+भूकृ००कए । गया, प्रस्थान किया। 'निज भवन गवनेउ सिंधु ।' __ मा० ५.६० छं० गाइअ : आo-कवा०-प्रए । बिताइए, दूर कीजिए। 'कहहिं, गाइअ छिन कु श्रमु ।' मा० २.१४४ गवांइ, ई : प्रकृ० । गवा कर, खोकर । 'फिरेउ बनिकु जिमि मूर गाई ।' मा० २.६६.८ गवाई : भूकृ०स्त्री० । खोदी, गवां दी। ‘मनहु कृपन धनरासि गाई ।' मा० २.१४४.७ गवाए, ये : भूकृ०० (ब०)। (१) बिता दिए । 'सागु खाइ सत बरष गाए।'. मा० १.७४.४ (२) खो दिए, खो गये। 'मद अभिमान गाये ।' विन० २०१.४ गायउँ : आ०-भूकृ.पु+उए । मैंने बिताया। 'तहँ पुनि रहि कछु काल ___ गायउँ ।' मा० ७.८२.२ गवार : वि०पु० (सं० ग्रामड, ग्रामीण>प्रा. गामाल>अ० गावाल) । असभ्य, मूर्ख, असंस्कृत। मा० ५.५६.६ गवारी : गवार+स्त्री० । 'बिलगु न मानव न जानि गवारी । मा० २.११६७ गरु : गवार+कए । अद्वितीय मुर्ख, बेजोड़ असभ्य । 'अति मति मंद गारु ।' मा० १.१०३ गवांवा : भूक०० (सं० गमित>प्रा० गमाविम>म० गाविअ)। खोया, बिताया। 'बैठि, बिटप तर दिवसु गवावा ।' मा० २.१४७.४ गावों : आउए० (सं० गमयामि>प्रा. गमावमि>अ० गाँवउँ) । खोऊँ, दूर करूँ। 'फहि भ्रम कहा गांवौं ।' विन० २३२.२ गवासा : वि०+सं०० (सं० गवाश>प्रा० गवास)। गोभक्षी, गोमांसव्यवसायी। 'मरु मारव महिदेव गवासा ।' मा० १.६.८ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 तुलसी शब्द-कोश गव्य : सं०पु० (सं०) । गाय के पांच बिकार:-दूध, दधि, घी, गोमय और गोमूत्र जिन्हें पञ्चगव्य कहते हैं। विन० २२.७ /गह गहइ, ई : (सं० गृहणाति>प्रा० गहइ-पकड़ना, घेरना, हस्तगत करना) आ०प्रए । पकड़ता-ती-है। 'गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई ।' मा० ३.४३.६ 'गहइ छाँह सक सो न उड़ाई।' मा० ५.३.३ 'करि माया नम के खग गहई ।' मा० ५.३.२ गहगहि, ही : वि०स्त्री० । 'गहगह' ध्वनियुक्त । गहगहि गमन दुदुभी वाजी।' मा० १.१६१.७ 'बाज दुंदुभि गहगही ।' मा० ६.१०३ /० १ गहगहे : वि.पु०बहु० । 'गहगह' ध्वनि-युक्त । 'हरषि हने गहगदे निसाला ।' मा० १.२६६.१ गहडोरिहौं : आ० भ० उए० सं० गाहू विलोडने+दुल उत्क्षेपे)। अवगाहन करके उथल-पुथल कर डालूंगा=मथ कर गन्दा कर दूंगा । 'सुधा सो सलिज सूकरी ज्यों गहओरिहौं ।' विन० २५८.३ गहत : वकृ०पु० (सं० गृह णति>प्रा० गहंत) । पकड़ता, पकड़ते । 'भूमि परा कर गहत अकासा ।' मा० ५.५७.२ गहति : वकृस्त्री० । पकड़ती। 'माया..... गहाये तें गहति ।' विन० २४६.३ गहतु : गहत+कए । पकड़ता । 'गाज्यो मृगराजु गजराजु ज्यों गहतु हौं ।' कवि० १.१८ गहते : क्रियाति ००ब० (सं० अग्रहीष्यन् >प्रा. गहत) । यदि ग्रहण करते-तो) । 'जो हरि जने के अवगुन गहते ।' विन० ६७.१ गहन : (१) सं०पु० (सं०) । वन । ‘गयउ दूरि घन गह्न बराहू ।' मा० १.१५७.५ (२) वि० (सं०) । सघन, विषम, घोर । पंगु चढ़इ गिरिबर गहन ।' मा० १.०.२ (३) (सं० ग्रहण) ग्राह्म । 'त्यागन गहन उपेच्छनीय ।' विन० १२४.२ (४) दुष्कर (सं० गहन)। 'मयन महनु पुरदहनु गहनु जानि ।' कवि० १.१० (५) उपराग (सं० ग्रहण) सूर्य-चन्द का राहुग्रास । (६) भकृ० अव्यय । पकड़ने, ग्रहण करने । 'जाउँ समीप गहन पद ।' मा० ७.७७क गहनि : (१) सं०स्त्री० (सं० ग्रहण) । पकड़ (ग्रहण की क्रिया)। 'ग्राह अति गहनि गरीबी गाढ़े गह्यो हौं ।' विन० २६०.२ (२) आग्रह पूर्ण पालन । 'सील गहनि सबकी सहनि ।' वैरा० १७. गहनु : गहन+कए० । (१) कठिन । 'पुरदहनु गहनु जानि ।' कवि० १.१० (२) वन । 'गहनु उज्जारि गो कीसु ।' कवि० ६.२१ (३) उपराग । 'समउ रबि गहनु।' रा०प्र० ७ २.४ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 233 गहबर : वि० (सं० गह्वर)। सघन, घोर, दुष्प्रवेश । 'नगरु सकल बून गहबर भारी ।' मा० २.८४.२ (२) संकुल, भरा हुआ (भावपुञ्जित, भावशबल), उलझा हुआ । 'गहबर मन पुलक सरीर ।' विन० १६३.८ गहबरि : गहबर+पूक० । भाव संकुल होकर । गहबरि हृदयँ कहहिं बर बानी ।' मा० २१२१.२ गहरू : सं०पु०कए० (सं० गह्वर =ग्रन्थि, समस्या)। रोक, विलम्ब । 'होइहि __ जात गहरु अति भाई ।' मा० १.१३२.१ गहसि : आ०मए० (सं० ग्रह्लासि>प्रा० गहसि) । तू पकड़ता है । 'गहसि न राम चरन सठ जाई।' मा० ६.३५.३ गहहि, हीं : आ०प्रब० (सं० गह्णन्ति>प्रा० गहति>अ० गहहिं)। (१) ग्रहण करते हैं, स्वीकार करते हैं । 'संत हंस गुन गहहिं पय ।' मा० १६ (२) पकड़ते हैं । 'गहहिं सकल पद कंज ।' मा० ६.१०६ गहहु, हू : आ०मव० (सं० गृह्णीत>प्रा० गहह>अ० गहहु)। (१) ग्रहण करो= पकड़ो (दबाओ)। 'दसन गहहु तृन ।' मा० ६.२०.७ (२) समझो, मानो। 'सुनि मम बचन हृदयं दृढ़ गहहू ।' मा० ७.४५.१ (३) घेर लो। 'गहहु घाट भट समिटि सब ।' मा० २.१६२ गहा : भूकृ०० (सं गृहीत>प्रा० गहिअ)। पकड़ा। ‘सर पैठत कपि पद गहा, मकरी ।' मा० ६.५७ गहागह : वि०+क्रि०वि० । ध्वनिविशेषयुक्त । 'बाज गहागह अवध बधावा ।' मा० २.७.३ गहागहे : गहगहे। गी० १.६.१ गहाये : भूकृ०० । पकड़ाये (पकड़ाने) । 'गहाये तें गहति ।' विन० २४६.३ गहि : पूकृ० (सं० गृहीत्वा>प्रा० गहिअ>अ० गहि)। (१) पकड़ कर । 'गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने ।' मा० ६.११७.२ (२) ग्रहण कर चुन कर । 'गहि गुन पय तजि अवगुन बारी ।' मा० २.२३२.७ (३) कस कर । 'अपने कर नि गाँठि गहि दीन्ही ।' विन० १३६.३ गहिबे : भक० (सं० ग्रहीतव्य>प्रा० गहिअव्व =गहिअव्वय) । ग्रहण करने योग्य । 'ज्ञान गिरा कूबरी खन की सुनि बिचारि गहिबे ही।' कृ० ४० गहिबो : भक०कए० (सं० ग्रहीतव्यम्>प्रा० गहिअव्वं>अ० गहिअव्वउ)। पकड़ना (होगा) । 'जीवत दुरित दसानन गहिबो।' गी० ५.१४.२ गहियतु : वक-कवा०-पु०कए० (सं० गृह्यमाणः>प्रा० गहीअंतो>अ० गहीअंतु)। पकड़ा जाता, ग्रस्त किया जाता। 'ताहू पर बाहु बिनु राहु गहियतु है।' कवि० २.४ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 तुलसी शब्द-कोश गहिसि : आ-भूकृ०स्त्री०+प्रए० । उसने पकड़ी। 'गहिसि पूंछ कपि सहित उड़ाना ।' मा० ६.६५.५ गहिहौं : आ० - भ०-उए० (सं० ग्रहीष्यामि>प्रा० गहिहिमि>अ० गहिहिउँ) । __पकड़ लगा । 'कहत पानहो गहिही ।' विन० २३१.४ गही : भू० कृ०स्त्री० । पकड़ी, स्वीकार की। 'अब निर्गुन गति गही है।' कृ० ४२ गहीले : वि०० (स० अहिल>प्रा० गहिल्लय) । आग्रही, हठी (अभिमानी) । हठ पकड़े हुए । 'सो बल गयो, किधौं भये अब गरब गहीले ।' विन० ३२.३ गहु : आ०-आज्ञा-मए० (सं० गृहण>प्रा० गह>अ० गहु) । तू पकड़। 'सखीं ___ कहहिं, प्रभु पद गहहु सीता।' मा० १.२६५ ८ गहें : (१) पकड़ने से। 'मम पद गहें न तोर उबारा।' मा० ६.३५.२ (२) पकड़े हुए (तत्पर मुद्रा में) । 'चहरि चपेटे देत नित केस गहें कर मीच ।' दो० २४८ गहे : भूकृ००ब० । पकड़े । 'गहे राम पद कंज।' मा० ६.३५ ब गहेउ : भूकृ००कए० (सं० गृहीतः>प्रा० गहिओ>अ० गहियउ)। पकड़ लिया। _ 'गहेउ चरन गहि भूमि पछारा।' मा० ६.६६.७ गहेसि : आo-भूक००+प्रए । उसने पकड़ा-पकड़े। 'यातुर सभय गहेसि पद जाई ।' मा० ३.२.११ गहेहु, हू : आ०भ०+आज्ञा-मब० । तू पकड़ना । 'बार बार पद पंकज गहेहू ।' मा० २.१५१.६ गहौं : आ०उए० । ग्रहण करता हूं। 'उलूक ज्यों....'कुतरु कोटा गहौं ।' मा० २.१५१.६ गहोंगो : आ०भ००उए । ग्रहण करूंगा । 'संत सुभाव गहौंगो।' विन० १७२.१ गह, यो : गहेउ । (१) ग्रहण किया। 'कारण इहै गह्यो गिरिजाबर ।' कृ० ३१ (२) पकड़ा हुआ । 'गरीबी गाढ़ें गह्यो हौं ।' विन० २६०.२ गांठरी : सं०स्त्री० (सं० ग्रन्थि>प्रा० गंठी>अ. गंठडी) । गठरी, बकुचा, पोटली। 'लियो रूप दे ज्ञान गाँठरी ।' कृ० ४१ गांठि, ठी : सं०स्त्री० (सं० ग्रन्थि>प्रा० गंठि, गंठी) । (१) पोटली या उसकी घुडी । 'मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी।' मा० १.१३५.५ (२) रस्सी की घुडी । 'ऐसी हठ जैसी गाठि पानी परे सन की।' विन० ७५.१ (३) पोटली। 'गाँठी बाँध्यो दाम ।' विन० १६१८ (४) विवाह में वर-वधू के वस्त्र की माङ्गलिक ग्रन्थि । 'गाँठि जोरी, होन लागी भांवरीं ।' मा० १.३२४ छं० ४ गांडर : सं० । तृण विशेष जो 'गण्ड' ग्रन्थियों से युक्त नाल वाला होता है और जिससे सीक निकलती है। 'बाज सुराग कि गांडर तांती।' मा० २.२४१.६ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 235 गांव : सं०० (सं० ग्राम>प्रा० गाम>अ० गांव)। छोठी बस्ती। मा० २.११३.१ गा : भ००० (सं० गत>प्रा० गअ) । गया। 'अति सप्रेम गा निसरि दुराऊ ।' ___मा० ५.५२.१ 'हरि पुरहिं न गा को।' विन० १५२.१२ गाइ : (१) गाय । 'मारसि न गाइ नहारू लागी।' मा० २.३६.८ (२) पूकृ० । गाकर कीर्तन करके । 'सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं।' मा० १.१२२.१ गाइअ, गाइए : गाइए । जेहिं यह सुजसु लोक तिहं गाइअ ।' मा० ५.६०.४ आ०कवा०प्रए० (सं० गीयते>प्रा० गाईअइ)। गाया जाय, गाया जाता है। मा० ७.२८. छं० गाइन्ह : गाइ+सं० । गायों गाइबी : भकृ०स्त्री० । गाने योग्य (गाई जायगी) । 'तुलसी सो तिहुं भुवन गाइबी नंदसुबन सनमानी।' कृ० ४८ गाइबे : भकृ०० (सं० गातव्य>प्रा० गाइव्व) । गाने (को) । 'गाइबे को ध्याइबे को सेइबे सुमिरिबे को।' गी० २.३३.३ गाइय : गाइअ माइये : गाइए । 'गाइये गनपति जगवंदन ।' विन० १.१ गाइहैं : आo-भ०-प्रब० (सं० गास्यन्ति>प्रा० गाइहिंहिं) । गायेंगे। मा० ६.१०६ छं० गाइहौं : अ०भ०उए० (सं० गास्यामि>प्रा० गाइहिमि.>म० गाइहिउँ) । गाऊँगा। 'चारु चरित गाइहौं ।' गी० १.२१.४ गहि : गाई+ब० गान कर चलीं ! 'बरषि प्रसून अपछरा गाईं।' मा० १.२४८.५ गाई : (१) सं०स्त्री० (सं० गो>प्रा० गाई, गावी) गाय । 'सुर महिषुर हरिजन अरु गाई ।' मा० १.२७३.६ (२) गाइ। गानकर । 'रामु न सकहिं नाम गुन गाई ।' मा० १.२६.८ (३) भू.कृ.स्त्री० । वणित की। 'मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई।' मा० १.१३.१० गाउँ, ॐ : गावें+कए० । 'गाउँ जाति गुह नाउँ सुनाई......।' मा० २.१६३.८ 'आवा सो प्रभु हमरे गाऊँ ।' मा० ४.६.२ गाउ : आ० आज्ञा-मए० (सं० गाहि>प्रा० गाहि>अ० गाउ) । तू गा । 'सुनत कहत फिरि गाउ ।' विन० १००६ गाए : भूक.पु. (सं० गीत>प्रा० गाइय) ब० । वणित किये। 'बेद पुरान बिदित मनु गाए।' मा० २.२८.६ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 तुलसी शब्द-कोश गाज : सं०स्त्री० (सं० गर्जा-गर्जने वाली>प्रा. गज्जा>अ० गज्ज)। बिजली, वज्र । 'लाज गाज उनवनि कुचाल कलि ।' कृ० ६१ 'मदे कान जातु धान मानो गाजे गाज के ।' कवि० ६.६ गाजहि, हीं : गर्जहिं (सं० गजन्ति>प्रा० गज्जति>अ. गजहिं)। 'हय गय ___ गाजहिं हने निसाना ।' मा० १.३०४.४ गाजी : भूक०स्त्री० । गरजी, गर्जन कर उठी । कृ० ६१ गाजे : गरजने पर । 'मूदे कान जतुधान मानो गाजे गाज के।' कवि० ६.६ गाजे : भूकृपु० (सं० गजित>प्रा० गज्जिय) ब० । गरज उठे । 'भयउ कोलाहल हय गय गाजे ।' मा० १.३०२.५ गाज्यो : भूक०पु०कए० । गरज उठा । 'गाज्यो मृगराज गजराजुज्यों गहतु हौं ।' कवि० १.१८ गाठरी : गाँठरी । पोटली । 'भवन मसानु, गथ गाठरी गरद की।' कवि० ७.१५८ गाड़ : सं०० (सं० गत>प्रा. गड्ड) । गड्ढा, गड्ढे । 'रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो।' मा० ६.५३ गाड़हिं : आ०प्रब० । गर्त में तोप देते हैं। निसिचर भट महि गाडहिं भालू ।' मा०६८१.७ गाड़ि : पूक० । गाड़कर, गर्भस्थ करके । मा० २.२१२.४ गाड़ी : सं०स्त्री. (सं० गन्त्री>प्रा० गड्डी) । प्रवहण । रा०न० १७ गाड़े : भूकृ.पु. (सं० गतित>प्रा० गड्डिय) । (गर्त में) आवृत किये । 'गाड़े __ भली, उखारे अनुचित ।' कृ० ४० गाड़ें : गाड़+ब० । गड्ढे । 'कमठ की पीठि जाके गोड़नि की गाड़ें। हनु० ७ गाड़ो : भूक.पु०कए ० । गड़ा हुआ, गर्तस्थ किया हुआ । 'हरो धरो गाड़ो दियों ।' दो० ४५७ गाढ़, ढ़ा : वि०० (सं० गाढ)। (१) सघन, दुर्गम, विषम । 'छेत्रु अगग गढ़ गाढ़ सुहावा ।' मा० २.१०५.५ (२) अधिक, कठोर । 'कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा ।' मा० ३.२८.१४ (३) उग्र, भयानक । 'तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा।' मा० १.१३५.८ गाढ़ी : गाढ़+स्त्री० । (१) गहन, दुरतिक्रम । 'देखी माया सब बिधि गाढ़ी।' मा० १.२०२.३ (२) प्रचुर, अविरला प्रगाढ। 'हरिजन देखि प्रीति अति गाढ़ी।' मा० ५.१४.१ (३) घोर, प्रचंड । 'बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी ।' मा० ६.६३.१ (४) सघन । 'छूटी त्रिबिध ईषना गाढ़ी।' मा० ७.११०.१३ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 237 तुलसी शब्द-कोश गाढ़ें: क्रि०वि० । (१) प्रगाढ़ता के साथ, निष्ठर होकर । 'लेत चढ़ावत बचत गाढ़ें।' मा० १.२६१.७ (२) संकट में । 'राम सही दिन गाढ़ें।' कवि० ७.५४ (३) दृढ़ता से । 'गरीबी गाढ़ें गह्यो हौं ।' विन० २६०.२ गाढ़े : (१) गाढ़ का रूपान्तर (ब०)। दुर्घर्ष, कठोर, प्रचण्ड । 'मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े।' मा० १.२७६.७ (२) गाढ़ें । विषम संकट में । 'एक परे गाढ़े, एक डाढ़त ही काढ़े।' कवि० ५.१८ गात : सं०० (सं० गात्र>प्रा० गत्त) । (१) अङ्ग (२) शरीर । 'पुलक गात गिरिजा हरषानी ।' मा० १.७५.५ गाता : (१) गात । 'परसि अखयबटु हरषहिं गाता।' मा० १.४४.५ (२) वि.पु. (सं०) । गायक, गानकर्ता । 'राम गुण गाथ गाता ।' विन० ३६.५ गातु : गात+कए। शरीर । 'पुनि पुनि हरषत गातु।' मा० १.८१ गाथ, गाथा : संस्त्री० (सं०) । गेय कथा, गानर (वर्णन) । 'बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा।' मा० १.१०५.७ गाथे : भूकृ०० (सं० ग्रन्थित>प्रा० गत्थिय) ब० । बाँधे, पहने हुए । 'गाथे महामाने मोर मञ्जुल ।' मा० १.३२७ छं. १ गादुर : सं००=चमगादर । दो० ३८७ गाधि : सं०पुं० (सं०) । विश्वामित्र के पिता, कुशिक राजा के पुत्र । मा० १.३६० माधितनय : विश्वामित्र । मा० १.२०६.५ गाघिनंदन : विश्वामित्र । गी० १.८७.२ गाधिसुत : विश्वामित्र । मा० १.३५२.५ गाधिसुवन : विश्वामित्र । गी० १.८६.६ गाधिसूनु : विश्वामित्र । मा० १.२७५ गाधेय : सं०० (सं०) । गाधिपुत्र==विश्वामित्र । विन० ३८.३ गान : सं०पू० (सं०) । (१) गायन क्रिया । 'करहिं निरन्तर गान ।' मा० २.१२ (२) गीत, गेय । 'गावत हरिगुन गान प्रबीना।' मा० १.१२८.३ गाना : गान । मा० १.११.७ गामिनी : गामिनी+ब० गामिनियाँ । 'कुंजरगामिनीं ।' जा०मं.छं० २३ ‘मत्त ___ कुंजर गामिनीं ।' मा० १.३२२ छं० गामिनी : (समासान्त में) चलने वाली । जैसे, कुंजर गामित्री हाथी के समान चलने वाली। गामी : वि.पु. (सं०)। चलने वाजा-ले। 'कठिन भूमि कोमल पद गामी ।' मा० ४.१.८ गामो : (सं० ग्राम>प्रा० गाम)+उ । ग्राम भी, गांव भी । जेहि किये नगर गत गामो।' विन० २२८.५ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 तुलसी शब्द-कोश गाय : गाइ । पशुविशेष । हनु० ४३ गायंति : आ.प्रब० (सं० गायन्ति) । गाते हैं । विन० ५२.१ गायउ, ऊ : भूकृ.पु०कए० (सं० गीतम् >प्रा० गाइयं>आ० गाइयउ) । गाया, वर्णन किया । दास तुलसी गायऊ ।' मा० ५.६० छं० गायक : वि०० (सं०) । गानकर्ता, वर्णनकर्ता । मा० १.१६४.६ गाया : भूकृ०० । गीतबद्ध किया, वाणित किया। मा० १.१०६.३ गाये : गाए। गायो : गायउ । 'बेद पुरान जासु जसु गायो।' मा० ६.४८.८ गारि, रो : (१) सं०स्त्री० (सं० गालि, गाली) । दूसरे के लिए अपशब्द । 'देइ देवतन्ह गारि पचारी।' मा० १.१८२.८ (२) पू० (सं० गालयित्वा>प्रा० गालिअ>अ० गालि) निचोड़ कर । 'आमिअ गारि गारेउ गरल गारि कोन्हि करतार ।' दो० ३२८ गारी : गारी+ब० । गालियाँ । 'लागीं देन गारी मदु बानी।' मा० १.६६.८ गारुड़ि : सं०० (सं.)। विष वैद्य, सर्प विष दूर करने वाला । मा० ७.६३.६ गारेउ : भूकृ००कए० (सं० गालितम्>प्रा० गालियं>अ० गालियऊ) । निचोड़ा, रस निकाला। 'अमिअ गारि गारेउ गरल गारि कीन्हि करतार । दो० ३२८ गारो, रौ : सं०० (सं० गौरव>प्रा० गारव)। महत्त्व, यश । 'गारो भयो पंच ___मैं पुनीत पच्छु पाइ के ।' कवि० ७.६१ गाल : (१) सं०पू० (सं० गल्ल)। कपोल। ब्यर्थ करहु जनि गाल बजाई।' मा० १.२४६.१ (२) सं०० (फा०) जालसाजी (मकर-फरेब), धोखाधड़ी। ___फरियाद, प्रपञ्च । गाल गूल गपत ।' विन० १.३०.२ गालव : सं०० (सं०) । एक ऋषि का नाम । मा० २.६१ गाला : गाल । कपोल । मा० २.३५.५ गाल : गाल+कए। कपोल+फरियाद या फरेब । 'गालु करब केहि कर बल पाई।' मा० २.१४.१ /गाव गाबइ, ई : (सं० गायति>प्रा० गावइ-गान करना, कीर्तन करना) आ०प्रए । गाता है । 'श्रुति पुरान मुनि गाव ।' मा० १.४५ 'देइ गारी रनिवास हि प्रमुदित गावइ हो।' रान० ८ 'दास तुलसी गावई ।' मा० ३.६ छं० गावउँ : आ०ए० । गाता हूं । 'मति अनुरूप राम गुन गावउँ ।' मा० १.१२.६ गावत : वकृ०पु० (सं० गायत्>प्रा० गावत) । गाता, गाते । ‘गावत हरि गुन गान प्रबीना।' मा० १.१२८.३ गावति : गावत+स्त्री० । गाती। ‘गावति गीत सबै मिलि सुदरी ।' कवि० १.१७ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 239 तुलसी शब्द-कोश गावती : गावति+ब० । गाती हुईं। 'बर नारि चलीं गावतीं।' कवि० १.१३ गावन : भकृ० । गाने । 'सुमन बरषि जसु गावन लागे ।' मा० १.३२०.४ । गावहि, हीं : आ.प्रब० (सं० गायन्ति>प्रा. गावंति>अ० गावहिं)। गाते हैं, ____ गाती हैं । 'सुभग सुआसिनि गावहिं गीता ।' मा० १.३१३.४ गावहिंगे : आ०भ००प्रब० । गायेंगे। 'जस नारदादि मुनिजन गावहिंगे ।' गी० ५.१०.४ गावहि : अ०मए० (सं० गायसि, गाय>प्रा. गायसि, गावहि>अ० गावहि)। 'तू ___गान कर, तू गाता-गाती है । 'काहे न रसना रामहि गावहि ।' विन० २३७.१ गावा : (१) माया । 'रिपु कर रूप सकल ते गावा।' मा० ६.१६.४ (२) गावइ । __ जहें तहँ राम ब्याहु सब गाबा।' मा० १.३६१.४ गावै : गावहिं । गाते हैं। रा०न० २० गाव : गावइ । 'तुलसीदास जाचक जस गावै ।' विन० ६.५ गावौं : गावउँ । गाता हूं, गाऊँ । 'कहा एक मुख गावौं ।' विन० १४२.६ गाह : (१) सं० (फा०) । शिविर (खेमा); सिंहासन (तख्त)। दे० गजगाह । (२) गाहा गाहक : (१) वि.पु. (सं० ग्राहक) । ग्रहण करने वाला । (२) क्रयकर्ता । 'स्याम सो गाहक पाइ सयानी खेलि देखाई गौं ही।' क० ४१ (२) अङ्गीकार करने वाला । 'असरन सरन दीन जन गाहक ।' मा० ७.५१.४ (३) लेबा, लेने वाला। 'गाहक जी के।' विन० १७६.२ गाहकताई : सं०स्त्री० (सं० ग्राहकता) । ग्रहण करने की प्रवृत्ति, ग्रहणशीलता। 'कह कपि तव गुन गाहकताई...।' मा० ६.२४.५ गाहा : गाथा (प्रा० गाहा) । 'करन चहउँ रघुपति गुन गाहा ।' मा० १.८.५ गाहैं : गाह+ब० । गाथाएँ, गेय गाथाएँ । 'रघुनायक की अगनी गुन गाहैं।' कवि० ७.११ गिनती : सं०स्त्री० (सं० गणित, गणिति ?)। (१) गणना, संख्या। विन० २००.३ (२) स्थान या पद, मान्यता । 'केहि गिनती महँ गिनती जस बन घास ।' बर० ५६ गिरत : वकृ.पु । धराशायी होता-होते। मा० ४:१० गिरन : भक० । गिरने । 'भूमि गिरन न पावहीं ।' मा० ६.६२ छं० गिरहिं : आ०प्रब० । गिरते हैं । 'भट गिरहिं धरनि पर आइ।' मा० ६.४१ गिरहुं : गिरा=वाणी में भी। 'हरि हर जस सुर नर गिरहुं बरनहिं सुकबि समाज।' दो० १६१ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 तुलसी शब्द-कोश 1 गिरौं : वाणी से । 'गदगद गिरी बिनय करन ।' मा० ६.११४ ख गिरा : (१) सं० स्त्री० (सं० ) । वाणी, सरस्वती । 'सिर धुनि गिरा व्लात पछताना । ' मा० १.११.७ (२) बोली । 'गिरा ग्राम्य ।' मा० १.१० ख (३) शब्द । 'गिरा अरथ जल बीचि सम ।' मा० १.१८ (४) भूकृ०पु० । गिर पड़ा भूपतित हुआ । 'जानु टेकि कपि भूमि न गिरा ।' मा० ६.८४.१ गिराए : भूक०पु०ब० । पातित किए। मा० ६.७६.६ गिरापति : सं०पु० (सं०) । (१) गीष्पति = वाचस्पति = बृहस्पति । 'गुरु गनपति गिरिजापति गौरि गिरापति ।' जा०मं० १ ( २ ) वाणी के प्रेरक अन्तर्यामी राम । 'सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी । मा० १.१०५.४ ( ३ ) सरस्वती के पति ब्रह्मा । 'सुरे सुर गौरि गिरापति नहि जपने ।' कवि० ७.७८ गिरायो : भूकृ० पु०कए० । गिराया, धरा- पतित किया । मा० ६.६७.८ गिरावा : भूकृ०पु० । गिराया, अध:पतित किया । मा० ६.९२.५ गिरि: (१) सं०पु० (सं० ) । पर्वत । मा० १.११.१ ( २ ) प्रकृ० । पतित हो हो (कर), गिर कर | 'गिरि गो गिरिराजु ज्यों गाज को मारो ।' कवि ० ६.३८ गिरिद, दा: सं०पु० (सं० गिरीन्द्र > प्रा० गिरिद) । श्रेष्ठ पर्वत । मा० ५.३५.३ गिरिजा : सं० स्त्री० (सं० ) । पार्वती । मा० ५.१५.५ गिरिजाऊ : गिरिजा भी, पार्वती भी । 'जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ ।' मा० ५. ४८.१ गिरिजापति: शिवजी । मा० ६ श्लोक २ गिरिधर : (दे० धर ) गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले = श्रीकृष्ण । कृ० ३२ गिरिनाथा : पर्वतराज हिमालय । मा० १.४८.५ गिरिन्ह : गिरि + संब० । पर्वतों । 'मानहुं अपर गिरिन्ह कर राजा ।' मा० ४.३०.७ गिरिपति : हिमालय । मा० १.६१.१ गिरिबर : श्रेष्ठ पर्वत । मा० ४.६.५ गिरिबरु : गिरिबर + क० । मा० १.१०५.८ गिरिराई : गिरिराज (दे० राई) । मा० १.२०३.१ गिरिराऊ : गिरिराय + कए० । हिमालय (दे० राऊ ) । मा० १.६८.८ गिरिराज : हिमालय । मा० १.११५ गिरिसंभव : वि० (सं० ) । पर्वत से उत्पन्न (जड़) । मा० १.७८ गिरिहि : आ०प्र० । गिरेंगे, निपतित होंगे ( होंगी ) । गिरिहहि रसना संसय नाहीं ।' मा० ६.३३.ε Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 241 तुलसी शब्द-कोश गिरीस, सा: सं०पु० (सं० गिरीश ) । (१) शिव । 'चली तहाँ जहँ रहे गिरीसा ।' मा० १.५५.८ (२) हिमालय । 'गहि गिरीस कुस कन्या पानी ।' मा० १.१०१.२ गिरे : भूकृ०पु० । (१) निपतित हुए । 'कहँ रत भट घायल तट गिरे ।' मा० ६.८८.४ (२) गिरने पर । 'सिरउ गिरे संतत सुभ जाही ।' मा० . ६.१४.४ गिरौं : आ०उए । मैं गिर पड़ । 'तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं ।' मा० १.१६ छं० गिर्यो : भूकृ० पु० कए० । गिर गया । 'गिर्यो धरनि दसकंधर ।' मा० ६.८४ छं० गिल गिलइ, ई : (सं० गिलति – गृ निगरवे > प्रा० गिलइ - निगलना ) आ०प्र० । निगलता है, निगल जाय, निगल सके । 'तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई ।' मा० २.२३२.१ गिलह : आ० प्रब० (सं० गिलन्ति > प्रा० गिलंति > अ० गिलहि ) । निगल जाते हैं । 'सहबासी काचो गिलहिं ।' दो० ४०४ गो : भविष्य सूचक शब्द स्त्री० । 'तरनी तरंगी मेरी ।' कवि ० २.८ गीत : सं०पु० (सं० ) । गेय पद । मा० १.६३ गीता : गीत । 'सुभग सुआसिनि गावहिं गीता ।' मा० १.३१३.४ गोध : (१) सं०पु० (सं० गृध्र > प्रा० गिद्ध ) । पक्षिजातिविशेष । मा० ६.८६.१ (२) गीधराज = जटायु । 'सबरी गीध सुसेवकनि ।' मा० १.२४ गोधपति : जटायु । मा० ३.३०.१८ गोधराज : जटायु । मा० ३.१३ गोधु : गीध + कए० । जटायु । कवि० ७.२४ गोरबान : सं०पु० (सं० गीर्वाण) । देव । हनु० ३३ गोवाँ : ग्रीवा में, कण्ठ में । 'रेखें रुचिर कंबु कल गीव । मा० १.२४३.८ गीवा : सं०स्त्री० (सं० ग्रीवा > प्रा० गीवा) । कण्ठ | मा० १.२३३.७ गूंजारे : भूकृ०पु ०ब० (सं० गुञ्जारुता: > प्रा० गुंजारिय) । गुञ्जनरब कर चले । 'मंजुतर मधुर मधुकर गुजारे ।' गी० १.३७.४ गुंज, गु ंजइ : (सं० गुञ्जति – गुञ्जशब्दे - गू ंजना, गुञ्जा (करना) आ०प्र० । गुञ्जन करता है- करती है । 'गुंज मंतर मधुकर श्रेनी ।' मा० २.१३७.८ गुंजत: वकृ०पु० (सं० गुञ्जत् > प्रा० गुं ंजंत ) । गुञ्जन ( अव्यक्तरव) करते । 'गुंजत मंजु मधुप रस भूले ।' मा० २.१२४.७ गुंजमि : गुंजा + सं०ब० । गुञ्जाओं (ने) । 'गुंजनि जितो लतामो ।' विन० २२८.४ गृह : आ०प्र० (सं० गुञ्जन्ति > प्रा० गुंजंति > अ० गुंजहि ) । गुञ्जन करते हैं । 'कूर्जाह कोकिल गुजहि भृंगा । मा० १.१२६.२ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 तुलसी शब्द-कोश गुजा : सं०स्त्री० (सं०) । घुघची, रत्ती । 'गिरि समहोहिं कि कोटिक गुंजा।' __ मा० २.२८.५ गुजारहीं : गुजहिं (सं० गुजा+रुवन्ति>प्रा० गुजारंति>अ० गुजारहिं)। ___ गुजा= गुञ्जन करते हैं । मा० ७२६१ छं० गुंड : सं०० (सं.)। मधुर ध्वनि, मधुर ध्वनि का संगीत । 'राम सुजस सब ___ गावहिं सुसुर सुसारंग गुड ।' गी० ७.१६.४ गुंडमलार : सं०० (सं० गुण्डमल्लार-गुण्ड =मधुर तान+मल्लार=राग विशेष) । गोंडमलार गम का संगीत राग । गी० ७.१६.४ गुच्छ : सं० पु० (सं०) । स्तवक, गुच्छा। 'गुच्छ बीच बिच कुसुमकली के ।' मा० १.२३३.२ गुड़ी : सं०स्त्री० (सं० गुडिका>प्रा० गुड्डिया>अ० गुड्डी। पतंग, पंग)। 'जनु बाल गुड़ी उड़ावहीं ।' मा० ३.३० छं० गुढ़ि : पूकृ० (सं० घुटित्वा-घुट परिवर्तने>प्रा० घुडिअ>अ० घुडि)। उलट पुलट कर, घोट-पीट कर, संवार कर । 'गढ़ि गढ़ि छोलि छाजि कुंद की सी भाईं बातें ।' कवि० ७.६३ गुण : सं०० (सं०) । वस्तु का विशेष धर्म । मा० ५.श्लो० ३ दे० गन गुणग्राम : गुण समुह । मा० ३.११.१६ गुणनिधि : गुणों का सागर, सर्व गुण सम्पन्न, कल्याण गुण युक्त । मा० ६.श्लो० २ गुणगार : कल्याण गुणों के आगार । मा० ७.१०८.४ गुथए : भूकृ००ब० (सं० ग्रथिताः>प्रा० गुत्थविया) । गुम्फित, पोहे हुए । 'बचन प्रीति गुथए हैं।' गी० ६.५.२ गुदरत : वकृ.पु० (अरबी- गुदर=वेवफा)। उपेक्षा या अवज्ञा करते, कृतघ्न __ होते । 'मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई ।' मा० २.२४०.५ गुदरि : पू० कृ० । कृतघ्नता करके । 'प्रभु सों गुदरि निबर्यो हौं ।' बिन० २६६.४ गुदारा : सं० । पहला खेवा (?) (सं० गोदारण =हन्न) लंगर । भर भिलुसार गुदारा लागा।' मा० २.२०२.७ गुन : गुण । (१) रूप-रस आदि द्रव्य-धर्म । (२) माया (प्रकृति) के तीन गुण-सत्त्व, रजस् और तमस् । 'माया गुन गोपार ।' मा० १.१९२ (३) तीन संख्या (त्रिगुण के आधार पर) दो० ४५६ (४) वैष्णव मन में ब्रह्म के कल्याण गुणसत्य संकल्पता, सत्य कामता, क्षुधापिपाखाहीनता, अजरामरता, सर्वकर्तता, सर्वज्ञता, व्यापकता, अन्तर्यासिता आदि। 'नेति नेति कहि जासु गुन करुहिं निरंतर गान ।' मा० १.१२० (५) विशेषता । 'सुनि गुनभेदु समुझि हहिं साधू ।' मा० १.२१.३ (६) शुभ लक्षण । 'कहहु सुता के दोष गुन ।' मा० १.६६ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 243 (७) लाभ पुष्टि आदि। 'अद्भुत सलिल सुनत गनकारी।' मा० १.४३.२ (८) गणितीय गुणन-दुगुन आदि (8) दया, ज्ञान, वैराग्य, श्रद्धा आदि मानवीय उदात्त धर्म । 'ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं।' मा० १.११६.६ (१०) वस्तु का अपरिहार्य धर्म । 'जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं।' मा. १.५.५ (११) रस्सी, धागा, डोरी । 'नाथ एव गुनु धनुष हमारे।' मा० १.२८२.७ (१२) ब्राह्मण के नव सात्त्विक धर्म-शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान, आस्तिकता। 'नव गुन परम पबित्र तुम्हारें।' मा० १.२८२.७ (१३) अच्छाई । 'बिधि प्रपंच गुन अवगुन साना ।' मा०१.६.४ (१४) चारित्रिक उदात्तता आदि । 'करन चहउँ रघुपति गुन गाहा।' मा० १.८.५ (१५) निष्क लङ कता, शुद्धता आदि । 'साक बनिक मनि गन गुन जैसे ।' मा० १.३.१२ (१६) काव्य गुण-श्लेष, प्रसाद, समता, समाधि, माधुर्य, ओजस्, सुकुमारता अर्थव्यक्ति, उदारता और कान्ति । 'कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा।' मा० १.६.१० /गुन, गुनइ : (सं० गुणति-गुण आमन्त्रणे>प्रा० गुणइ-सोच बिचार करना, निर्णय खोजना, मन में तर्क-वितर्क करना या उधेड़ बुन करना, उलझन को मन में सुलझाने का प्रयास करना) आ.प्रए । सोच विचार करता है। 'अस मन गुनइ राउ नहिं बोला ।' मा० २.४५.३ गुनउँ, ऊँ : आ.उए० (सं० गुणामि, प्रा० गुणमि>अ० गुणउँ) (१) सोच बिचार करता हूँ। 'समुझउँ सुनउँ गनउँ नहिं भाबा ।' मा० ७.११०.५ (२) गुण-दोष पर विचार करता हूं। 'एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ ।' मा० ७११२.११ गुनउ : गुण भी । ‘गुनउ बहुत कलिजुग कर।' मा० ७.१०२ । गुनकारी : वि.पुं० (सं० गुणकारिन्) । लाभकारी (दे० गुन) मा० १.४३.२ गुनखानी : सभी गुणों का उत्पत्ति स्थान । गुणरूपी रत्नों का आकार। मा० १.१४८.३ गुनगन : गुण समूह । मा० १.३५८.६ गुनगाथा : गुण कीर्तन । गुणों का आख्यान । मा० १.४२.७ गुनगान, ना : गुण कीर्तन । मा० १.१६६.१ गुनगायक : गुण कीर्तन करने वाला-वाले । मा० १.३००.५ गुनगाहक : वि० (सं० गुण ग्राहक) । दोषों की उपेक्षा कर केवल गुणों का लेने वाला। गुनकहकताई : (दे० गाहकताई) गुण ग्राहिता । मा० ६.२४.५ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 तुलसी शब्द-कोश गुनगाहक : गुन गाहक + कए० । अनन्य गुण ग्राही । मा० १.२६८.३ गुनग्य : वि० (सं० गुणज्ञ ) । गुणों का ज्ञाता, विद्वान् । मा० ४.२३.७ T "नाही : वि०पु० (सं० गुण ग्राहिन् ) । गुन गाहक । ' मधुकर सरिस संत गु ग्राही ।' मा० १.१०.६ गुनत : व०कृ०पु० (सं० गुणन > प्रा० गुणंत) । (१) सोच बिचार करता-करते । 'सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं ।' मा० २.२६२ . २ ( २ ) गुणन ( गणित ) करता-ते । 'हनत गुनत गनि गुनि हनत जगत जोतिषी काल ।' दो० २४६ गुनति: गुनत + स्त्री० । सोच बिचार करती । कृ० ६० गुनद : वि० (सं० गुणद ) । गुणदायक, लाभकारी । 'बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी ।' मा० २.३१७.३ गुनधाम : सभी गुणों से सम्पन्न, कल्याणकारी गुणों से युक्त । गुनधामा : गुनधाम । मा० ६.१७.६ गुनि : गुन + संब० । गुणों (से) । 'कालकर्म गुननि भरे । ' मा० ७.१३.छं० २ गुननिधि : (१) गुनाकर । गुण सम्पन्न । मा० ५.१७.३ (२) पौराणिक कथा में एक ब्राह्मण का नाम । 'कवनि भगति कीन्ही गुननिधि द्विज ।' विन० ७.३ गुनमंदिर: गुणधाम मा० १.१८६. छं० = गुनमय: वि० (सं० गुणमय) । (१) गुणरूप, गुणों का मूर्तरूप + ( २ ) सूत्ररूप = सदाचारादिरूप धागों से पूर्ण । 'साधु चरित सुभ चरित कपासू । निरस बिसद गुनमय फल जासू । मा० १.२.५ गुनमई : गुनमय + स्त्री० । गुण युक्त = त्रिगुणात्मिका । 'जा की विषम माया गुनमई ।' विन० १३६.४ गृनरहित: प्रकृति के तीन गुणों से परे ( फिर भी कल्याण गुण युक्त ) | निर्गुण ( + सगुण ) ; विरुद्धनानाधर्माअय = ब्रह्म । वैरा० ४ (२) काव्य के गुणों से शून्य । 'सब गुनरहित कुकबिकृत बानी ।' मा० १.१०.५ गुनरासी : (दे० गुनरहित ) । गुणों का पुञ्ज । सर्व कल्याण गुणाअय । 'चिदानंदु निर्गुन गुनरासी । १.३४१.६ गुनवंत, ता: विοपुं० (सं० गुणवत् > प्रा० गुणवंत ) । गुण युक्त | मा० ७.६८.६ गुनवान : गुनवंत । नु० ८ गुनवारि : वि०स्त्री० । गुणों वाली, कल्याण गुण सम्पन्न । 'स्यामघन गुनवारि छबि मनि मुरलि तान तरंग ।' कृ० ५४ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 245 गुनह : सं०० (फा० गुनाह ) । अपराध, दोष । 'गुनह लखन कर हम पर रोषू।' मा० १.२८१.५ गुनहिं : गुणों में । 'जब तजि दोष गुनहिं मनु राता ।' मा० १.७.१ गुनहु, हू : आ०मब० (सं० गुणत>प्रा० गुणह>अ० गुणहु) । समझो, मानो। ___ 'जनि मन गुनहु मोहि करि कादर ।' मा० ६.६.७ गुनाकर : गुणों की खानि; गुणपूर्ण । मा० १.१७.८ गुनागार : गुनधाम । मा० ३.४६ गुनानीत : वि० सं० गुणातीत) । माया के त्रिगुण से परे। 'गुनातीत सचराचर स्वामी ।' मा० ३.३६.१ गुनानी : गुन+कब० (सं० गुणा:>प्रा० गुणाणि)। गुण समूह । 'राम अनंत __ अनंत गुनानी ।' मा० ७.५२.३ गुनि : पूव० (सं० गुणित्वा>प्रा० गुणिअ>अ० गुणि)। (१) सोच बिचार करके। ‘सुनि गुनि कहत निषादु ।' मा० २.२३४ (२) गणना में गुणनफल निकाल कर । 'हनत गुनत गनि गुनि हनत जगत जोतिषी काल ।' दो० २४६ गुनिप्र : गुनिए । 'देखिअ सुमिअ गुनिअ मन माहीं।' मा० २.६२.८ गुनिए : आ० कव०प्रए० (सं गुण्यते>प्रा० गुणीअइ) । विचारिए, समझिए । 'मेरे ___ जान और कछु न मन गुनिए।' कृ० ३७ गनित : वि० (सं० गुणित) । गुना । 'कोटि गुनित ।' गी० २.६.१ गुनिन्ह : गुनी+संब० । गुणीजनों (से) । 'पूंछेउँ गुनिन्ह रेखतिन्ह खाँची।' मा० २.२१.७ गुनय, ये : गुनिअ, गुनिए। गुनिहि : गुणी को। गनिहि गुनिहि साहिब लहै ।' विन० २७४.२ गुनी : (दे० गुन) वि०० (सं० गुणिन्) । (१) गुण युक्त। मा० ३.२१.११ (२) भूकृ०स्त्री० । समाकी, सोच-बिचार ली । 'नीकें मन गुनी मैं ।' कवि. ७.२१ गुनु : गुन +कए । (१) विशेषता+(२) डोरी । 'नाथ एक गुनु धनुष हमारें।' मा० १.२८२.७ गुपुत : गुप्त । 'गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ।' मा० १.१.८ गुप्त : भूकृ०वि० (सं.)। छिपा हुआ (रक्षित) ; निगूढ । 'गुप्त रूप अवतरेउ मेभु ।' मा० १.४८ क गुमान : सं.पु. (फा० गुमान् = शक) । सन्देह । 'ग्यानी भगत सिरमनि त्रिभुवन पति कर जान । ताहि मोह माया नर पावर करहिं गमान ।' मा० ७.६२ क इसका अभिमान अर्थ में भी हिन्दी प्रयोग होता है । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 तुलसी शब्द-कोश गुमानी : वि०पु । अभिमानी (संशयाल) । लोभी जसु यह चार गुमानी ।' मा० ३.१७.१६ गुमानु : गुमान+कए। अभिमान । 'कलपांत न नास गुमानु असा।' मा० ७.१०२.छं० गुर : (१) गुरु । आचार्य । 'गुरगृहं बसहं राम तजि गेहू।' मा० २.५०.४ (२) भारी । 'धीरज धरम धरनिधरहू तें गुर धुर घरनि धरत को।' गी. ६.१२.२ (३) बृहस्पति । 'गुर सन कहे उ करिअ प्रभु सोई ।' मा० २.२१७.८ (४) सं०० (सं० गुड) । मधुर पदार्थ विशेष । गुरकल : सं०० (सं० गुरुकुल) । गुरु वंश, गुरु का आश्रम जहाँ शिक्षस कार्य होता है । 'राजकुल>राउर' के समान 'गुरु' के अर्थ में भी इसका प्रयोग देखा जाता है। 'तात, तात बिन बात हमारी। केवल गुरवु.ल कृपा संभारी।' मा० २.३०५.५ गुरजन : (सं० गुरुजन) बड़े वयस्क लोग - माता-पिता, अग्रज आदि । मा० १.२४८ गुरतिय : (सं० गुरु स्त्री) गुरु पत्नी । मा० २.३२० गुरदछिना : संस्त्री० (सं० गुरुदक्षिणा) । शिक्षा, मन्त्र आदि ग्रहण के अनन्तर आचार्य को दिया जाने वाला धन आदि । मा० ६.५८.४ गुरु : सं०+वि० (सं०) । (१) आचार्य । 'बंदउं गुरु पद पदुम परागा।' मा० १.१.१. (२) वयस्क जन, अपने से बड़े । गीधु मानो गृरु, कपि भालु माने मीत के :' कवि० ७.२४ (३) भारी। 'बंध बैर कपि बिभीषन गुरु गलानि गरत ।' विन० १३४.५ (४) महान, बड़ा, आदरणीय । 'तुलसी गुरु लघुता लहत ।' दो० ३६० (५) पिता-माता । 'गुरु गिरा..... राज्य त्यक्त ।' विन० ५०.५ (६) श्रेष्ठ, उत्तम । 'प्रति छांह छबि बि साखि दै प्रति सों कहै गरु होरि ।' गी० ७.१८.१ (७) बृहस्पति । 'बचन सुनत सुर गुरु मुसुकाने ।' मा० २.२१८.१ (८) बृहस्पति दिन । 'सुदि पांच गुरु टिनु ।' पा०म० ५ (६) गुर +कए० गृड़ । 'मीजो गुरु पीठि ।' बिन० ७६३ गुरुता : सं०स्त्री० (सं०) । भारीपन । 'करहु चाप गुरुता अति थोरी।' मा० १.२५७.८ गुरुदिनी : सं+वित्री० (सं० गुदिणी) । गणिी स्त्री। 'गुर बिनी सुकुमारि सियमनि ।' गी० ७.२६.२ गरू : गरु । अपवृष्ट गृरु । कोटि कुटिलमनि गुरू पढ़ाई ।' मा० २.२७.६ गुवि : वि०स्त्री० (सं० गुर्वी) । (१) भारी, गरुई । 'डिगति उवि अति गुवि ।" Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 247 कवि० १.११ (२) गौरव शालिनी, महती। 'निगम आगम गुवि ।' विन० १५५ गुलाम : सं०० (अरबी-गुलाम) । लड़का, सेवक, भृत्य, पाल्य । पालितदास । 'महाराज को सुभाउ समुझत मनु मुदित गुलाम को।' कवि० ७.१४ (२) (दास-प्रथा में) क्रीत-पाल्य । ‘साहही को गोतु गोतु होतु है गुलाम को।' कवि० ७.१०७ गुलामनि : गुलाम+संब० । गुलामों=पालित पुत्रों या पाल्य अनुचरों। 'काम रिपु राम के गुलामनि को कामतरु।' कवि० ७.१६७ गुलामु : गुलाम+कए० । अनन्य पाल्य । 'हौं गुलाम राम को ।' कवि० ७.७० गुलाल : सं०पू० । लाल अबीर, रोली। गी० २.४७.१६ गुलुक : सं०० (सं० गुल्फ) । टखना, पैर की ग्रन्थियाँ जो चरण पीठ के ऊपर दोनों ओर होती हैं। 'चरनपीठ उन्नत नतपालक, गूढ़ गुणक, जंघा कदली जाति ।' गी० ७.१७.८४ गुसाईं : गोसाईं। स्वामी । विन० १४३.१ गुहें : गृहने । 'गाउँ जाति गृह नाउँ सुनाई ।' मा० २.१९३.८ गुह : सिंगरौर का निषादराज मा० २.१०२.१ गहाँ : गहा में । 'गिरिबर गुहां बैठ सो जाई ।' मा० ४.६.५ गुहा : सं०स्त्री० (सं०) । कन्दरा । मा० ४.१२ गहिबे : भूकृ०० (सं० गुफितव्य>प्रा० गुहिअव्वय) । गूंथने, पोहने । 'तेहि ___ अनुराग ताग गुहिबे कहँ मति मृगनयनि बुलावौं ।' गी० १.१८.२ गृहौं : आ०ए० (सं० गुफामि>प्रा० गृहमि> अ० गुहउँ) । गुह दूं, पोहूं। 'उबटौं न्हाहु गृहौं चोटिया बलि ।' कृ० १३ गूगेहि : गूंगे को, मूक को, वाणीहीन व्यक्ति को । 'भा जनु गूंगेहि गिरा प्रसादू ।' मा० २.३०७.४ गूढ़ : वि० (सं०) । गुप्त, रहस्यमय, दुर्बोध, सामान्यतः अज्ञेय । मा० १.३० ख गूढ उ : गुप्त भी । 'गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं ।' मा० १.११०.२ गूढ़ा : गूढ़ । मा० १.४७.४ गूढाचि : सं० स्त्री० (सं० गूढाचिष ) । गुप्त ज्योति, अन्तर्यामी रूप से सर्वव्यापक ब्रह्मज्योति । विन० ५३.६ गूढार्थबित : वि० (सं० गूढार्थविद्) । गुप्त पदार्थों का ज्ञाता=अन्तर्यामी=सर्वज्ञ । विन० ५४.५ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 तुलसी शब्द-कोश लुगदी, भेजा । गूदा : सं०पु० (सं० गोर्द > प्रा० गोछ = गुछ) । मस्तिष्क की 'श्रोतों सानिसानि गूदा खात सतुआ से ।' कवि० ६.५० गून : वि०पु० (सं० गुण्य > प्रा० गुण) । गुणनीय, गुना, गुणित । 'अंक रहें दस गून ।' दो० १० गूल : सं०पु ं० (फ्रा० ) (१) जालसाजी ( मकर - फरेब ), छलना । (२) मूख ( अहमक ) ' गाल गुल गपत ।' विन० १३०२ गूलर : सं० स्त्री० । उदुम्बर वृक्ष । गूलर फल का वृक्ष जिसके फल के भीतर उड़ने वाले छोटे कीड़े (भुनगे ) रहते हैं । ' गूलर फल समान तव लंका ।' मा० ६ ३४.३ गृध्र : सं०पु० (सं०) गीध । विन० ४३.६ I गृहँ : घर में । 'बालक बृन्द बिहाइ गृहूँ ।" मा० २.८४ गृह : सं०पु० (सं० ) । घर । मा० १.३८.८ गृहका : (दु० काजु) । घरेलू काम । मा० २.११४.२ गृहककरी : सं० स्त्री० (सं० ) । घरेलू काम काज करने वाली दासी । मा० १.१०१ गृहपसु : सं०पु० (सं० गृहपशु) । घरेलू पालतू पशु – कुत्ता ( आदि) । 'लोलुप म गृह-प ज्यों जहँ तहँ सिर पदत्रान बजे ।' विन० ८६.३ गृहपाल : सं०पु० (सं० ) । गृहपति, परिवार का स्वामी । विन० १३६८ गृहादी : घर, वृक्ष इत्यादि मूर्त पदार्थ । 'बालक भ्रमहि न भ्रमहि गृहादी ।' मा० ७.७३.६ गृहासक्त : वि० (सं०) गृहस्थी में संलग्न + पत्नी में अनुरक्त = रागयुक्त | मा० ७.७३ क गृही : वि० (सं० गृहिन्) । गृहस्थ, गृहस्वामी, गाहस्र्थ्यं नामक आश्रम में स्थित, दारधर्म का पालन करने वाला । मा० २.१७२ .: सं०० (सं० गेन्दुक > प्रा० अ) । तकिया, सोते में सिर के नीचे रखने वाला उपधान : ‘करत गगन को गेंडुआ सो सठ तुलसीदास ।' दो० ४६१ गे : (१) गए । 'प्रात क्रिया करि गे गुर पाहीं ।' मा० १.३३०.४ (२) भविष्य दर्थक विकारी शब्द- पुं० बहु० । 'आवहिंगे' इत्यादि । गेरु : सं०पु ं० (सं० गैर = गैरिक > प्रा० गेर = गेरिअ ) । पर्वत से निकलने वाली लाल खड़िया । मा० ३.१८.१ गेहूँ : घर में । 'नृषु गयउ कैकई गेहूँ ।' मा० २.२४ गेह : सं०पु० (सं० ) । घर । मा० १.७८ गेहा : गेह । मा० १.६२.५ गेहिनी : सं०पु० (सं० ) । गृहिणी, पत्नी, गृहस्वामिनी । विन० ५८.७ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 249 गेहु, हू : गेह+कए । 'गुर गृहँ बसहं राम तजि गेहू ।' मा० २.५०.४ गै : गइ। (१) गई। बीती। 'मुरुछा गै बहोरि सो जागा।' मा० ६.८४.३ (२) खोई हुई। 'गै मनि मनहुं फनिक फिरि पाई।' मा० २.४४.३ (३) (सहायक क्रिया) । खेलत रहा सो होइ गै भेदा ।' मा० ६.१८.३ गया : गाय । 'हेरि कन्ह गोबर्धन चढ़ि गया।' कृ० १६ गैहहिं : गाइहैं (सं० गास्यन्ति>प्रा० गाइहिंति>अ० गाइरिहिं)। गायेंगे, कीर्तन ___करेंगे । 'नारदादि जस गैहहिं ।' मा० ५.१६.५ गैहैं : गाइहैं । 'कबि कुल कीरति गैहैं ।' गी० १.५०.३ गहै : आ०भ० प्रए० (सं० गास्यति>प्रा० गाइहिइ)। गायेगा, कीर्तन करेगा। 'तुलसीदास पावन जस गैहै ।' गी० ५.५०.६ गहौं : आ०भ० उए० (सं० गास्यामि>प्रा० गाहिनि =गाइहिमि>अ० गाइहिउँ >गाइहउँ.> गाइहौं)। गाऊँगा। गाऊँगी। 'रसना और न गैहौं ।' विन० १०४.३ गोंड़ : सं०पु० (सं० गोण्ड) । शूद्र जाति विशेष । 'गोंड़ गार नृपाल महि ।' दो० ५५६ गो : सं००+स्त्री० (सं.)। (१) गाय । 'गो द्विज हितकारी ।' मा० १.१८६.छं १ (२) इन्द्रिय । 'माया गुन गो पार ।' मा० १.१६२ (३) पृथ्वी। 'गो खग, खे खग, बारि खग।' दो० ५३८ (४) गयो । गया। 'बंक गढ़ लंक सो ढकां ढके लि ढाहि गो।' कवि० ६.२३ (५) बीता । 'न कूदिबे को पलु गो।' कवि० ४.१ (६) समाप्त हुआ। 'औरनि को कलु गो।' कवि० ४.१ (७) भविष्य सूचक बिकारी शब्द-पु०ए० । 'टूट्यो सो न जुरैगो ।' कवि० १.१६ (८) रूप में बदला, परिणत होकर समाप्त हो गया । 'सब होइ न गो।' मा० ६.१११.१५ गोइ : पूकृ० (सं० गोपित्वा>प्रा० गोविअ>अ० गोवि)। गुप्त रखकर, छिपा __ कर । 'राखेउँ कछु नहिं गोइ ।' मा० ७.१२३ ख गोइयाँ : सं०० ब० । खेल के साथी जो एक पाली में साथ-साथ विपक्ष पाली के विरुद्ध खेलते हैं। गमि गनि गोइयाँ बांटि लये।' गी० १.४५.१ गोहहहिं : आ०भ०प्रब० (सं० गोपिष्यन्ति>गोविहिति>अ. गोविहिहिं) छिपाएंगे । 'निरखि नगर नर नारि बिहँसि मुख गोइहहिं ।' पा०म० ५७ गोई : भूकृ०स्त्री०बहु । छिपाईं, रक्षित की। ‘फनिकन्ह जनु सिर मनि उर गोईं।' __मा० १.३५८.४ गोई : (१) गोइ । छिपा कर । 'लोचन ओट बैट मुहु गोई ।' मा० २.३६.६ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 तुलसी शब्द-कोश (२) भूकृ०स्त्री० (सं० गोपायिता>प्रा. गोविआ=गोविई)। छिपायी। 'ऐसिउ पीर बिहँसि तेहिं गोई ।' मा० २.२७.५ गोऊ : आ० अ ज्ञा मए० । तू छिपा रख। 'कृपिन ज्यों सनेह सो हिये सुमेह गोऊ।' गी० २.१६.३ गोए : भकृ०० (सं० गोपित>प्रा० गोविय) ब० । छिपाये । 'जे हर कमल हृदय महुं गोए ।' मा० १.३२८.५ गोकुल : सं०पु० (सं०) (१) गो समूह (२) मथुरा मण्डल का एक भू-भाग । कृ० ४२ गोखुरनि : गोखुर+संब० । गाय के खुरचिह्नों (में) । 'कुंभज के किंकर बिकल ___ बूड़े गोखुरनि ।' हनु० ३८ गोगन : इन्द्रियगण विन० २६१.३ गोघात : सं०पु० (सं०) । गोवध, गोहत्या मा० ६.३२ २ गोचर : सं०० (सं०) । गो= इन्द्रियों के विचरण की वस्तु =विषय । 'इन्द्रिय बोध्य पदार्थ । प्रत्यक्ष । 'लोचन गोचर सुकृत फल ।' मा० २.१०६ । गोठ : सं०पु० (सं० गोष्ठ>प्रा० गोट्ठ) । खरिक, गायों का निवास स्थान, गायों का बाड़ा, ब्रज । मा० २.१६७.५ गोड़ : सं०० । पर । 'गड़त गोड़ मानो सकुच पंक महँ ।' गी० २.६९.३ गोड़नि : गोड़+संब० । पैरों । 'कमठ की पीठिजा के गोड़नि की गाड़े मानो।' हनु० ७ गोड़िए : आ०-कवा०-प्रए० । खोदिए, कुदाल से सँवारिए । 'तुलसी विहाइ के ___ बबूर रेंड गोड़िए।' कवि० ७.२५ । गोड़ियाँ : सं०स्त्री०ब ० । बच्चों के सुन्दर कोमल पर (गोड़)। 'छोटी-छोटी गोड़ियाँ अंगुरियाँ छबीली छोटीं।' गी० १.३३.१ ।। गोत : सं०० (सं० गोत्र प्रा. गोत्र) । वंश परम्परागत जाति जो पूर्व पुरुष के नाम से चलती है। गोतीत : गोपर (सं०) । इन्द्रियातीत, अतीन्द्रिय । 'अविगत गोतीत चरित पुनीतं ।' मा० १.१८६.छं० ३ गोतु : गोत + कए । एक ही गोत्र । 'साह ही को गोतु गोतु होत है गुलाम को।' कवि० ७.१०७ गोतो : सं०पु०कए० (अरबी-गोतः) । डुबकी । 'ज्यों मुदमय बसि मीन बारि तजि उछरि भभरि लेत गोतो।' विन० १६१.३ गोद : संस्त्री० । क्रोड़, गोदी, अंकवार, अङ कपाली । मा० १.७२.६ गोदहि : गोदा=गोदावरी को । 'पंचबटी गोदहि प्रनाम करि ।' मा० ३.११.२ गोदावरि : गोदावरी। मा० ३.३०.५ गोदावरी : सं०स्त्री० (सं.) । दक्षिण की एक नदी । मा० ३.१३ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 251 तुलसी शब्द-कोश गोधन : सं०पु० (सं० ) । पालित पशु- समूह । 'दूध दधि माखन भो, लाखन गोधन धन ।' कृ० १६ गोप: सं०पु० (सं० ) । ग्वाला । कृ० १७ गोपद : गाय का खुर, खुरका चिह्न ( जिसमें वर्षा जल भर जाता है) । 'गोपद जल बड़हि घट जोनी ।' मा० २.२३२.२ गोपर : वि० (सं०) गो = इन्द्रिय से परे, अतीन्द्रिय | मा० ३.३२ छं० २ गोपार : गोपर । इन्द्रिय बोध से पार = परे । 'माया गुन गो पार ।' मा० १.१६२ गोह आ०प्र० (सं० गोपायन्ति > प्रा० गोप्पंति > अ० गोप्प हि ) । छिपाते हैं । 'प्रेम प्रमोद परस्पर प्रगटत गोपहिं ।' जा०मं० ८५ गोपाल : सं०पु० (सं०) । (१) ग्वाला, अहीर, पशुपालक । ( २ ) इन्द्रियों का स्वामी = कृष्ण, गोचारक अवतारी ब्रह्म । कृ० ४ गोपिकनि गोपिका + संब० । गोपिकाओं | 'गोपिकनि पर कृपा अतुलित कीन्ह ।' विन० २.४.३ गोपिका : गोपी । विन० १०६.४ गोपित : भूकृ० (सं० ) । गूहित, छिपाया, तोपदिया । 'खनि गर्त गोपित बिराधा ।' विन० ४३.५ गोपी : सं० स्त्री० (सं० ) | ग्वालिन । कृ० १७ कृष्ण भक्तिमत में 'गोपी भाव' एक महा भाव है जिसे उपलब्ध कर भक्त अपने को गोपीवत् कृष्ण की प्रेमिका मान कर मधुर - रति में लीन रहता है । गोप्यमपि : (सं०) गोप्यम् + अपि । गोपनीय भी । 'गोप्यमणि सज्जन करहिं प्रकाश ।' मा० ७.६६ ख गोबर : सं०पु० (सं० गोमय > प्रा० गोवर ) । गाय-भैंस का पुरीष । दो० ७३ गोबर्धन : सं०पु० (सं० गोवर्धन ) । ब्रजमण्डल में एक पर्वत । कृ० १६ गोविंद : सं०पु० (सं० गा विन्दते इति गोविन्दः) । गायों को प्राप्त करने वाला + इन्द्रिय धारण कर अवतीर्ण होने वाला = इन्द्रियाधीश । कृष्ण । परमात्मा । मा० ३.३२.छं० २ गोमति : संस्ी० (सं० गोमती ) । एक नदी । मा० २१८८.८ गोमती : गोमती नदी में । 'सई उतरि गोमती नहाए ।' मा० २.३२२.५ गोमर : सं०पु० (सं०) । गाय मारने वाला, गोमांसव्यवसायी । 'कामधेनु धरनी, कलि गोमर ।' विन० १३६.६ गोमाय : सं०पु० (सं० गोमायु) । सियार । मा० ६७८ छं० गोमुख : क्रि०वि० (सं० ) । गाय के सम्मुख, गाय की ओर । 'देखि हैं हनुमान गोमुख नाहरनि के न्याय ।' विन० २२०.७ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 तुलसी शब्द-कोश गोयो : भूक०पु०कए० (सं० गोपितम् >प्रा. गोविअं>अ० गोवियउ) । छिपाया । 'मैं निज दोष कछु नहिं गोयो।' वि० २४५.४ ।। गोर : वि०० (सं० गौर>प्रा. गोर) । गौरवर्ण । रा०न० १२ गोरख : सं०पु० (सं० गोरक्ष>प्रा. गोरकख)। योगी गोरखनाथ जो हठयोग प्रणाली के प्रचारक तथा नाथपंथ के प्रवर्तक थे। 'गोरख जगायो जोगु ।' कवि० ७.८४ गोरस : सं०० (सं०) । दही, दूध आदि । (मुख्यत:) दही । कृ. ३ । गोरसहाई : वि०स्त्री०ब० (सं० गोरस-धान्य:>प्रा० गोरसहाईओं>अ० गोरस हाईई) । ग्वालिने । गोरस रखने वाली स्त्रियाँ । ग्वालिनी गोरसहाई ले-ले आईं बावरी दांवरी घर-घर तें ।' कृ० १७ गोरी : वि०स्त्री० (सं० गौरी>प्रा० गोरी) । गौरवर्णा । 'गोरी सोभा पर तन तोरी।' कवि० १.१४ गोरे : 'गोर' का रूपान्तर। गौरवर्ण । 'सहज सुभाय सुभग तन गोरे ।' मा० २.११७५ गोरो : गोर+कए । 'गोरो गरूर गुमान भरो।' कवि० १.२० गोरोचन : सं०० (स्त्री) । एक प्रकार का सुगन्धित माङ्गलिक द्रव्य जो उत्तम गाय के पेट से निकलता है । मा० ७.७७.५ गोलक : संपु० (सं.)। (१) गोला। (२) आँख की पुतली । 'पलक विलोचन गोलक जैसें ।' मा० २.१४२ १ गोला : गोलक (प्रा० गोलअ) । तोप आदि से फेंका जाने वाला गोलाकार प्रहरण । मा० ६.४६ छं० गोली : सं०स्त्री० (सं० गोलिका)। (१) बच्चों का विशेष खिलौना । 'गोली भौंरा चक डोरि ।' गी० १.४३.३ (२) बन्दूक आदि का छोटा गोला । ‘गोली बान सु मंत्र सर ।' दो० ५१६ गोवति : वकृ०स्त्री० (सं० गोपायन्ती>प्रा. गोवंती)। छिपाती । 'सकुचि गात ___ गोवति कमठी ज्यों।' कृ० ६० गोसाइ : गोसाईं । मा० २.२९७.४ गोसाँई : गोसाईं। मा० २.२५१.२ गोसाइँ : गोसाईं । मा० २.६४ गोसाई : सं०+वि.पु० (सं० गोस्वामी>प्रा. गोसामी)। पालक, स्वामी (इन्द्रियों पर प्रभुता रखने वाला) । मा० १.५६.२ गोसुत : बछड़ा, बछड़े । कृ० १८ गोहारि, री : सं०स्त्री०। (१) रक्षा । 'कीनि गोहारी आनि ।' दो० ५३६ (२) रक्षक, शरण । 'बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी।' मा० २.३१७.३ गौं : गर्दै । (१) अवसर, दाँव । 'जो हम तजे पाइ गौं मोहन ।' कृ०६ (२) गम Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोम 253 चाल, गति । 'चलत मत्त गज गौं हैं।' गी० १.६३.३ (३) लक्ष्य, धागा 'गौं हैं तकत सुभौंह सिकोरे ।' गी० ३.२.४ गौड़मलार : गुडमलार । राग विशेष । 'गावै सुहो गोंडमलार ।' गी० ७.१८ गौतम : सं०० (सं०) । एक मुनि == अहल्या के पति =शतानन्द मुनि के पिता = __ जनकवंश के पुरोहित । मा० १.२१० गौन : गवन । कवि० ७.४४ गौनु : गवनु । मा० २.१६० गौने : गवने । गये । 'समउ केलि गृह गौने । गी १.१०७.३ गौर : वि० (सं०) । गौरवर्ण, उज्ज्वल । मा० १.७२ गौरव : सं०० (सं०) । नहत्त्व, गरिमा । मा० २.१३२.८ गौरि : गौरी । मा० १.१५ गौरी : सं०स्त्री० (सं.)। पार्वती गौरीनाथ : शिव जी । कवि० ७.१६६ गौरीस, सा : सं०० (सं० गौरीश)। शिव । मा० ६.२८ ग्याता : वि.पु. (सं० ज्ञातृ, ज्ञाता)। जानकार, विद्वान्, ज्ञानवान् । मा० मा० २.१४३.२ ग्याति : सं०स्त्री० (सं० ज्ञाति) । बन्धु-बान्धव, भाई बन्धु, वंश सम्बन्धी । मा० १.२१४ ग्यान : सं.पु. (सं० ज्ञान)। (१) बोध, प्रत्यय । 'रूप ग्यान नहिं नाम बिहीन ।' मा० १.२१.४ (२) चेतनगुण =चैतन्य या संवेदन। 'ग्यानघन' आदि । (३) शास्त्रीय बुद्धि । 'कहब ग्यान बिग्यान बिचारी।' मा० १ ३७.६ (४) योग साधना से साक्षात्कार । 'सदगुर ग्यान बिराग जोग के ।' मा० १.३२.३ (५) ज्ञाननिष्ठा जो भक्तिरूप होती है। 'ग्यानगम्य जय रघुराई ।' मा० १.२११ छं० (६) विवेक । 'उपजा ग्यान बचन तब बोला ।' मा० ४.७.१५ ग्यानगम्य : वि० (सं० ज्ञानगम्य)। स्वसंवेदनसिद्ध, ज्ञाननिष्ठा (भक्ति) की अपरोक्ष अनुभूति से प्राप्य (ऐन्द्रिय बोध से अप्राप्य)। 'ग्यान-गम्य जय रघुराई ।' मा० १.२११ छं० ग्यानधन : घनीभूत ज्ञानरूप, चैत-यमय, संवेदनों के आधार । मा० ६.१११ छं० ग्यानदृष्टि : योगी की अपरोक्षानुभूति, दिव्यदृष्टि जो अदृश्य को भी दृश्य बनाती है । मा० ६.५७६ ग्यानवंत : वि.पु. (सं० ज्ञान वत्) । ज्ञानी, योगजनित परसाक्षात्कार तथा शास्त्रीय ज्ञान-सम्पन्न, परमतत्त्व का द्रष्टा । ग्यानवंत कोष्टिक मह कोऊ । जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ ।' मा० ७.५४.४ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 — तुलसी शब्द-कोश ग्यानातीत : ऐन्द्रिय प्रत्ययों से तथा शास्त्रीय ज्ञान से पर। 'माया गुन ग्यानातीत अमाना ।' मा० ७.१६२.६ ग्यानिन्ह : ग्यानी+संब० (सं० ग्यानिनाम्) । ज्ञानियों । 'जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई ।' मा० ७.५६.५ ग्यानी : ज्ञानी ने । 'बैठत सकल कहेउ गुर ग्यानीं ।' मा० १.२४७.१ ग्यानी : ग्यानवंत (सं० ज्ञानिन्) । मा० १.२२.७ ग्यानु, न : ग्यान+कए । विवेक, समझ । 'भाबी बसन ग्यान उर आरा ।' मा० १.६२.७ (२) आत्म साक्षात्कार, परमात्मानुभूति । 'भएँ ग्यान बरु मिट न मोहू ।' मा० २.१६९.३ (३) व्यावहारिक वस्तु बोध । रहा न ग्यानु न धीरजु लाजा ।' मा० २.२७६.७ (४) अपरोक्षानुभूति, प्रकृतिपुरुषविवेक । · सोहन राम पेम बिनु ग्यानू ।' मा० २.२७७.५ (५) शास्त्रीय बोध । 'लखि गति ग्यानु बिरागु बिरामे ।' मा० २.२६२.१ ग्रंथ : सं०० (सं०) । प्रबन्धात्मक शब्दरचना । शास्त्र । मा० ७.१२२.१४ पंथनि, न्हि : ग्रंथ+संब० । ग्रन्थों (मैं ने आदि) । 'सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाये।' मा० ५.५६.३ 'सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।' मा० ७.४३.७ अंथि : सं०स्त्री० (सं०) । (१) गांठ, जोड़। 'जड़ चेतनहिं ग्रंथि परि गई। मा० ७११७.४ (२) मानसिक उलझन, भावग्रन्थि । 'भ्रमित पुनि समझि चित प्रथि अभिमान की।' विन० २०६.४ (३) विवाह आदि में जोड़ी जाने वाली गाँठ; गठबन्धन प्रथिबिधि : सं०स्त्री० । वर-वधू के वस्त्रों में बाँधी जाने वाली वैवाहिक रीति । पा०म० १३२ ग्रंथित : भूकृ० (सं०) । ग्रन्धिविधि से बंधे हुए। 'ग्रथित चूनकी पीत पिछोरी।' गी० १.१०५.३ प्रस, असइ : (सं० ग्रसति-ग्रस अदने>प्रा० गसइ>अ० ग्रसइ-खाना, __ निगलना, घेरना, पकडना-ग्रासयति-ग्रस ग्रहण) । आ०प्रए० । पकड़ता है, निगलता या घेरता है । ‘ग्रसइ राहु निज संधिहि पाई।' मा० १.२३८.१ प्रसत : वकृ०० । घेरते, ग्रास करते, निगलते । मा० ५.३६ प्रसन : (१) सं०पु० (सं.)। निगलना। 'मानहं प्रसन चहतहहिं लंका।' मा० ५.५५.८ (२) वि० । निगलने वाला। 'संसय सर्व ग्रसन उरगाद: ।' मा० प्रससि : आ०मए० (सं०) । तू निगल या घेर । 'अससि न मोहि कहा हनुमाना।' मा० ५.२.६ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 255 प्रसि : पूकृ० । ग्रस्त करके, निगलकर । 'जनु बन दुरेउ ससिहि प्रसि राहू ।' मा० १.१५६.५ ग्रसित : भूकृ० । आवृत, निगला हुआ, ग्रस्त । 'कलिमल ग्रसित बिमूढ़ ।' मा० १.३० ख असिहि : आ ०भ०प्रए । ग्रस्त करेगा, निगलेगा। 'ग्रसिहि न केकइ करतब राहू ।' मा० २.२०६.४ ग्रसे : भूकृ००ब० । निगल लिये । 'लोभ ग्रसे सुभ कर्म ।' मा० ७.६७ ग्रसेउ : भूकृ००कए । निगल लिया। 'संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता।' मा० ७.६३.६ (डसने से तात्पर्य है) ग्रस : ग्रसइ । कवलित करता है । 'बदनहीन सो ग्रस चराचर ।' विन० १११.३ अस्यो : ग्रस्यो। झषराज ग्रस्यो गजराज ।' कवि० ७.८ ।। ग्रह : सं०० (सं.) । (१) सूर्यादिनवग्रह । मा० १.१६० (२) देवविशेष जो आवेश में लेता है । ‘ग्रह ग्रहीत पुनि बान बस ।' मा० २.१८० (३) धूमकेतु, पुच्छल तारा । 'जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू ।' मा० ७.१२१.२० /ग्रह, ग्रहइ : (सं० गृह जाति>प्रा० गहइ>अ० ग्रहइ-पकड़ना, बोध प्राप्त करना, ग्रहण या धारण करना) आ०प्रए० । ग्रहण वरता है । 'ग्रहइ घ्रान बिनु -बास असेष ।' मा० १.११८.७ ग्रहीत : भूकृ० (सं० ग्रहीत)। पकड़ा हुआ। ‘ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस ।' मा० प्राम : सं०पू० (सं.)। (१) समूह । 'जग मंगल गुन ग्राम राम के ।' मा० १.३२.२ (२) बस्ती । 'ग्राम बासु नहिं उचित ।' मा० २.८८ ग्रामदेबि : ग्राम पूज्य देवी (ग्राममातृका) । मा० २.८.५ प्रामनर : ग्राम्य जन, ग्रामीण । 'ग्रामनर नागर ।' मा० १.२८.६ प्रामा : ग्राम । मा० १.१४.४ ग्राम्य : वि० (सं०) । ग्रामीण, ग्राम सम्बन्धी । 'गिरा ग्राम्य सियराम जस ।' मा० १.१० ख प्रास : सं०पू० (सं.)। कवल । 'चंडकर मंडल-ग्रास-कर्ता ।' विन० २५.२ प्राह : सं०० (सं०) मगर । विन० २६०.२ ग्रीव : ग्रीवा ग्रीवा : सं०स्त्री० (सं०) । गला, कण्ठ । मा० १.१४७.१ ग्राषम : सं०० (सं० ग्रीष्म) । वसन्त के अनन्तर आने वाला गरमी का ऋतु विशेष । मा० १.४२.४ ग्लानि, नी : गलानि (सं.)। अवसाद, हर्षनाश । मा० १.१८४.४ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 तुलसी शब्द-कोश ग्वाल : सं०० (सं० गोपाल>प्रा० गोपाल) । अहीर । कृ० १८ ग्वालि, ली : संस्त्री० (सं० गोपाली>प्रा० गोवाली) । ग्वालिन । कृ० ५ ग्वालिनि : ग्वाली। क० ४ घंट : सं०पु० (सं०) । वाद्यविशेष । 'चले मत्त गज घंट बिराजी।' मा० १.५०.२ घंटा : घंट । मा० १.३०१.१ घंटि : सं०स्त्री० (सं० घण्टा=घण्टिका>प्रा० घंटा=घंटिआ>अ० घंटी=घंटि)। छोटा घंटा। मा० १.३०२.७ घई : सं०स्त्री० । गर्व, कुण्ड, गहरा प्रवाह का आवर्त । 'थके बचन पर न सनेह सरि, पर्यो मानो घोर घई है ।' गी० २.७८.३ घट : सं०० (सं०) । (१) घड़ा, कलश । 'सजे जबहिं हाटक घट नाना ।' मा० १.६६.३ (२) शरीर । 'जय जय अबिनासी सब घट बासी।' मा० १.१८६ छं० Vघट घटइ : (१) (सं० घटते-घट चेष्टायाम>प्रा० घट्टइ-होना) आ०प्रए । होता है, घटना में प्रकट होता है, आ पड़ता है। 'दारुन दोष घटइ अब मोही।' मा० १.१६२ ४ (२) (सं० घट्टते-घट्ट चलने >प्रा० घट्टइ-कम होना) आ०प्रए० । कम होता है, क्षीण होता है। 'घटइ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई ।' मा० १.२३८.१ घटउ : आ०प्र० संभावना (सं० घट्टताम् >प्रा. घट्टउ) । चाहे क्षीण हो जाय । _ 'घटउ सकल बल देह । दो० ५६३ घटकर्ण : कुम्भकर्ण । रावण का भाई । विन० २८.५ घटज : कुम्भल, अगस्त्य मुनि । मा० २.२६७.२ घटजोनी : घटज (सं० घटयोनि) । मा० १.३३ घटत : वकृ००। (१) (सं० घटयत्) ? करता, सम्पन्न करता। 'घटत न काज पराए ।' विन० २०१.१ (२) क्षीण होता । 'घटत न तेज। कृ० २६ घटति : घटत+स्त्री० । क्षीण होती। 'राम दूरि माया बढ़ति, घटति जानि मन माह।' दो० ६६ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी सन्द-कोश 257 घटन : वि.पु. । घटित करने वाला, निर्माताः । 'अप्पटित घटन सुघट बिघटन ।' विन० ३०.२ घटना : सं०स्त्री० (सं.) । रचना, क्रिया, चेष्टा, सृष्टि । अधट घटना सुघट ।' विन० २५.८ घटनि : घटा+संब० । घटाओं, मेघमालाओं । "सांवरे बिलोके पर्ब घटत घटनि __ के।' कवि० २.१६ घटब : भक०० (सं० घटितव्य>प्रा० घट्टिअम्व) । (मुझे) करना (होगा) । 'सब बिधि घटब काज मैं तोरे ।' मा० ४.७.१० । घटसंभव : घटज (सं०) । अगस्त्य मुनि । मा० ७.३२.७ घटहुं : आ० संभावना-प्रब । चाहे क्षीण हो जायें। 'श्रवन घटहुं पुनि दृग घटहुं।' दो० ५६३ घटा : संस्त्री० (सं०) । समूह, यूथ । (१) हस्तिसमूह । 'चितवत मनहुं मगराज प्रभु गजराज घटा निहारि के ।' मा० ३.१८'छं० (२) 'मेघसमूह । 'मानहुँ जलद घटा अति कारी।' मा० ६.१३.५ (एकाको प्रयोगों में 'मेषसमूह' अर्थ ही चलता है-दो घटनि) घटाइ : पूक० । कम करके । 'कहेंगो घटाइ को।' 'कवि० ७.२२ घटाटोप : सं०० (सं.)। घटाओं का आडम्बर, मेघ समूह के समान सधन साज___ सज्जा । 'घटाटोप करि चहुं दिसि घेरी।' मा० ६.३६.१० घटि : (१) पूक० । कम होकर, तुच्छ होकर । 'चातकु रटनि घटें घटि जाई ।' २.२०५.४ (२) कम या कमी । 'कहेहूं तें कछु दुख घटि होई ।' मा० ५.१५.५ घटित : भूकृ०वि० (सं०) । गढ़ा हुआ, गढ़े हुए । 'हाठक घटित जटित मनि कटि___तट रट मंजीर ।' गी० ७.२१.११ घटिहि : आ०भ०प्रए० (सं० घटिष्यते, घट्टिष्यते>प्रा० घट्टिहिइ)। (१) कम पड़ेग। घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना ।' मा० २.२०६.२ (२) घटित करेगा, सम्पादित करेगा । 'सो सब भांति घटिहि सेवकाई ।' मा० २.२५८.५ घटिहै : घटिहि । क्षीण हो जायगा । 'घटिहै चपल चित चाय ।' विन० २२०:८ घटु : घट+कए । घड़ा। विष रस भरा कनक घटु जैसें ।' मा० १.२७८.८ घट : कम होने से । 'चातकु रटनि घटें घटि होई ।' मा० २.२०५.४ घटे : भूकृ.पु.ब० । कम हुए, क्षीण हो गये। मिटे घटे तमीचर तिमिर भुवन के।' कवि० ६.३ घट : घटइ। (१) कम पड़े, क्षीण हो। 'कवहं घट जनि नेह ।' मा० ७.४६ (२) हो, घटित हो । 'सपने नृप कहें घट विप्र बध ।' विन० १२२.२ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 तुलसी शब्द-कोश घटेगी : आ०भ०स्त्री०प्रए । कम होगी। 'घटें घटेगी आनि।' दो० २७६ घट्टा : सं०० (सं० घट्ट) । विशाल जमाव, संघर्षपूर्ण धावनशील समूह, भीड़ भाड़ । 'प्रलय काल के जनु घनघट्टा ।' मा० ६.८७.२ घट्ठा : सं०पू० (सं० पृष्टक>प्रा. घट्टअ) । कठोर घर्षण से जनित मोटा कठिन ... धब्बा । 'कमठ कठिन पीठि घट्टा पर्यो मंदर को।' कवि० ६.१६ घट्यो : भूक००कए । किया। 'घट्यो तो न सहाय ।' गी० ६.१४.२ घन : (१) सं०० (सं०) । मेघ । 'प्रलय काल के जनु घन घट्टा।' मा० ६.८७.२ (२) लोहे का बड़ा हथोड़ा । 'अनलदाहि पीटत घनहि ।' मा० ७.३७ (३) वि० पुजीभूत, राशीभूत । 'सत चेतन घन आनंद रासी।' मा० १.२३.६ (४) घना, अविरल । ‘गयउ दूरि घन गहन बराहू ।' मा० १.१५७.५ (५) मूर्त, साकार । 'गुनागार घन बोध । मा० ६.४८ ख घनघोर : वि० (सं०) । घनीभूत घोर, अतिशय घोर, मेघाडम्बरवत् आवरण कारी । 'पाप संताप घन-घोर संसृति ।' विन० ११.८ घननाद, दा : मेघनाद=रावणपुत्र । मा० ७.६७, ६.५१.५ घनस्याम : सं०+वि०पू० (सं० घनश्याम) । (१) काला बादल । 'राम घनस्याम तुलसी पपीहा।' विन० १५.५ (२) मेघ के समान श्याम वर्ण । मा. २.११३.५ घनस्यामा : घनस्याम । मा० १.१६२.३ घनहि : घन से, बड़े हथौड़े से । पीटत घनहिं ।' मा० ७.३७ घनहि : मेघ को । 'निदरि घनहि घुर्मरहिं निसाना ।' मा० १.३०१.२ घना : घन । (१) ठोस, सुदृढ । 'कनक कोट......... सुदगयतना घना।' मा० ५.३ छं० १ (२) प्रचुर, अधिक । 'गजादि खल तारे घना।' मा० ७.१३० छं. १ घनी : घना+स्त्री० । (१) अधिक । 'दुदुभी बाजहिं घनी।' मा० १.३१७ छं. (२) संघर्षयुक्त अविराल । 'निसाचर अनी। कसमसात आई अति घनी।' मा० ६.८७.१ घनु : घन+कए० । एक मेघ । 'भूषित उड़गन तड़ित घनु ।' मा० १.३१६ घने : 'घना' का रूपान्तर (ब०) । अधिक, अविरल । 'अनेक पर्व सुमन घने ।' मा० ७.१३ छं० ५ धनेरा : वि.पु. (सं० घनतर>प्रा० घणयर)। अतिशय घना, अधिकतर; अत्यधिक 'नगर कोलाहलु भयउ घनेरा।' मा० ६.४६.६ (घन के सभी अर्थ) । घनेरी : वि०स्त्री० (सं० घनतरा>प्रा० घणयरी)। अत्यधिक । तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ।' मा० ५.४०.८ (घन के सभी अर्थ) Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 25 घनेरे : 'घनेरा' का रूपान्तर । (१) प्रचर तथा सघन -संघर्ष यक्त अविरल । 'चले मत्त गजजूथ घनेरे । मा० ६.७९.३ (२) बहुसंख्यक । 'जे आचरहिं ते नर न घनेरे ।' मा० ६.७८.३ घनेरो : घनेरा+कए० । अत्यन्त घना । तिन्ह सों प्रेम घरो।' विन० १४३.३ घने : घनहि । मेघ को । 'भयो जातक राम स्याम सुदर घने ।' गी० ५.४०.४ घनो : घना+कए० । प्रचुर, अधिक । 'हाटकु पिघिलि चलो घी सो घनो।' कपिल ५.२४ घमंड : सं० । (१) धमड़ना, गर्वारेक से घुमड़ने-घेरने की क्रिया, आवरणकारी आडम्बर या आटोप । 'घन घमंड गरजत नभ घोरा।' मा० ४.१४.१ (२) उत्साहतिरेक, समारोह, अतिशय उल्लास । 'भूप भवन घर घर घमंड ।' गी० १.४६.४ घमंड : घमंड+कए । अद्वितीय आडम्बरपूर्ण घेरा । 'सावन घन घमंडु जन ठयऊ ।' मा० १.३४७.१ घमोई : सं०० (सं० गमत्) । (१) तण विशेष जो बांस के समान होता है। (२) बांस को ही जाति का वनस्पति विशेष । 'बाँस बंस सुत भयहु घमोई।' मा० ६.१०.३ 'घर : सं०० (१) (सं० घर = गृह>प्रा० घर) । मा० १.७५.३ (२) (सं० घट >प्रा० घड) । घड़ा । 'करि पुटपाक नाक-नायक हित, घने घने घर घलतो।' गो० ५.१३.२ (यहाँ घर रूपी घट का श्लेष है) घरजायऊ : घर जाया भी। 'घरजायऊ है घर को।' कवि० ७.१२२ घरजाया : सं०पु० (सं० घर जात>प्रा० घर जाय) । घर में ही पैदा हुआ सेवक । घरनि : (१) घरनी। पत्नी । 'जपत सादर संभ सहिति घरनि ।' विन० २४७.२ (२) घर+संब० । घरों (में)। 'जग जगदीस घर-घरनि घनेरे हैं।' विन० १७६.२ घरनी : सं०स्त्री० (सं० गृहिणी>प्रा० घरिणी)। पत्नी 'स्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी।' मा० ५.३६.७ घरन्यो : घरनीभी। 'घरन्यो बरदा है।' कवि० ७.१५५ घरफोरी : वि०स्त्री० (सं० घरस्फोटी>प्रा० घडप्फोडी+घरस्फोटी>प्रा घरप्फोडी)। घर (परिवार) में फूट डालने वाली+घडे फोड़ने वाली (बेशऊर)-दासी । 'घरेहु मोर घरफोरी नाऊँ ।' मा० २.१७.३ ।। घरबसी : वि०स्त्री० (सं० गृहोषिता) । घर बैठी, उपपति के घर जाकर रहने वाली या घरजाई दासी (एक प्रकार को गाली)। दुष्ट, नीच । 'डारि दै घरबसी लकुटी बेगि कर तें।' कृ० १७ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी सन्दकोश घरबात : सं०स्त्री० (सं० गृहवार्ता>प्रा० घरवता>अ० घरवत्त)।-घरेलू आजीविका, कृषि या वाणिज्य के उपकरण, जीवन साधन । 'घरबात घरे खुरपा खरिया।' कवि०७ ४६ घरिक : घरी+इक । एक घड़ी, घड़ी भर । घरिक बिलंबु कीन्ह बट छाहीं।' मा० २.११५.३ घरिनि : घरनि । मा० २.२८५.२ घरिनी : घरनी । मा० २.१००.६ घरी : (१) घरी+ब० । घड़ियां । 'मान हुं मीच घरी गनि लेई ।' मा० २.४०.२ (२) घरी+अधिकरण कारक । घड़ी में । केहि सुकृती केहि घरी बसाए।' मा० २.११३.२ घरी : संस्त्री० (सं० घटी>प्रा० घडी) । दिन का सातवां भाग, दण्ड। 'घरी पंच गइ राति ।' मा० १.३५४ (२) प्रतीक्षा (का समय) । 'घरी करोहम जोही।' कृ० ४१ (३) अवसर । 'घरी कुघरी समुझि जियं देखू ।' मा० २.२६.८ धरीक : घरोक । घड़ी भर, थोड़ी देर । परिखो पिय छाहे घरीक ह ठाढ़े।' कवि०. २.१२ घर : घर+कए । “घरुन सुगम बनु बिषमु न लागा।' मा० २.७८.५ घरें : घर में । 'घरबात घरे खुरपा खरिया। कवि० ७.४६ घरो : सं००कए । (१) (सं० घट:>प्रा० घडो)। मिट्टी का घड़ा । (२) घर +कए० । वृक्ष आदि के आस-पास बनाया हुआ मिट्टी का घेरा। 'बिगरत मन संन्यास लेत, जल नावत आम घरो सो।' विन० १७३.४ घरौंधा : सं.पु । बच्चों के खिलवाड़ का घर जो धूल से थोड़ी देर के लिए बनाया और साँझ होते ही बिगाड़ दिया जाता है । 'बापुरो बिभीषनु घरौंधा हुतो बालु को।' कवि० ७.१७ घाशु : सं०० (सं.)। उष्ण किरणों वाला सूर्य । विन० २८.६ घलतो : क्रियाति०पू०ए० । यदि तो नष्ट कर देता। 'घने घने घर घलतो।' गी० ५.१३.२. घवरि : सं०स्त्री० (सं० गह्वर ?)। फलों या फलियों का गुच्छा (प्रायः कदली फल-स्तवक के अर्थ में चलता है; आम्रफल-गुच्छ आदि अर्थ भी प्रचलित हैं)। 'हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि ।' मा० १.२८८ घसीटन : भकृ० (संघर्ष+इट गो) । घसीटने, घिसते हुए भूमि पर खींचने, घर्षण पूर्वक चलाने । 'लगे घसीटन धरि धरि झोटी।' मा० २२१६३.७ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी 'शब्द-कोश 'घहरात: वकृ०पु० । घर्वर ध्वनि करते, लहराते, वज्र ध्वनि करते । 'घहरात जिमि पबिपात गरजत जनु प्रलय के बादले ।' मा० ६.४९ छं० घाउ, ऊ : घाय + कए० । (१) आघात । 'अस कहि पर निसस्नहि घाऊ ।' मा० १.३१३.७ (२) चोट, मार । 'हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा ।' मा० ६.७६.८ (३) चोट से होने वाला क्षत ( घाव ) । 'हृदय घाउ मेरे पीर रघुबीरं ।' गी० ६.१५.१ : घाएं घात में, लक्ष्य बनाकर, दाँव लगाये हुए । 'संकर साखि रहेउँ एहि घाएँ ।' मा० २.२६२.५ घा : घाएँ (सं० घाते > प्रा० घाए ) । चोट में, प्रहार में । 'ओडिअहिं हाथ असनिहुं के घाए ।' मा० २.३०६.८ घाट, टा: सं०पु० (सं० घट्ट) । जनावतार, जलाशय में उतरने का मार्ग ।' मा० १.३६ मा० ३ ७.४ 2617. घाटारोह : सं०पु०कए० (सं० घट्टारोधः > प्रा० घट्टारोहो > अ० घट्टारोहु) । घाट के चारों ओर घेराबन्दी । 'कीजिअ घाटारोहु ।' मा० २.१८६ घाटि : पूकृ० । घटकर ( कम, हीन) । हम तुम्ह सन कछु घाटि ।' मा० ७०६६ ख 'घाटू : घाट +कए० । एक (उत्तम) घाट । 'रघुबर कहेउ, लखन भल घाटू ।" मा० २.१३३.१ घात, ता: सं० स्त्री० (सं० घात > प्रा० घता > अ० घत) । (१) लक्ष्य, साधना, निशाना | 'चुकइ म घात मार मुठभेरी । मा० २.१३३.४ (२) प्रहार (सं० पु ं०) । 'उर लात घात प्रचंड लागत ।' मा० ६.६८ छं० (३) वध । 'कहि बिप्र गुर घात ।' मा० ७.६६ (४) संहार । 'देखि भालु कपि निज दल घाता ।' मा० ६.६८.१५ (५) घातक । 'घात चंद्र जियँ जानु ।' दो० ४५६ 'घातक : वि० (सं० ) । विनाशकारी । 'भ्राता कुंभकरन रिपु घातक ।' गी० ६.३.२ घातिनी: ( समासान्त में) वि०स्त्री० (सं० ) । विनाश करने वाली जैसे, बीरघातिनी । मा० ६.५४.७ घाती : ( समासान्त में) (१) वि०पु० (सं० घातिन् ) । विनाशकारी, घातक । 'या कुठारु कुठित नृपघाती । मा० १.२८०.१ ( २ ) पतनकारी, अधोगतिदायी । 'ते जड़ जीव निजात्मक घाती ।' मा० ७.५३.६ 'घानों : घानी में । 'मारि दहपट दियो जम की घानीं ।' कवि० ६.२० I 'घानी : सं० स्त्री० (सं० ग्रहणी) । तेल के कोल्हू में एक बार में डाला जाने वाला तिल आदि; उसके ग्रहण की मात्रा या तौल । (२) तिल डाले जाने वाला कोल्हू का भाग । 'समय तोलिक यंत्र, तिल समीचर निकर, पेरि डारे सुभट घालि घानी ।' विन० २५.७ ( 'ग्रहणी' शब्द मूलतः अंत के प्रारम्भिक अंश के Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 तुलसी शब्द-कोशः . अर्थ में है जो आमाशयगत भोजन को लेकर आंतों में प्रेरित करता है । उसी का लाक्षणिक प्रयोग कोल्हू के उस भाग के लिए होता है जिसमें पेरने वाली वस्तु डाली जाती है।) 'घाम, मा : सं०पू० (सं० धर्म>प्रा० घम्म)। (१) धूप, ऊष्मा। 'मध्य दिवस अति सीत न घामा ।' मा० १.१६१.२ (२) ताप, क्लेश । 'सुमिरे त्रिबिध घाम हरत।' विन० २५५.१ घामु : घाम+कए० । 'घोर घामु हिम बारि बयारी।' मा० २ ६२.४ घाम : घाम को। 'चल्यो सुरतरु तकि तजि घोर घाम ।' गी० ५.२५.४ घामो : घाम भी । 'करत छाँह घोर घामो।' विन० २२८.२ चार्य : घावों से, चोटों या वृणों से । 'घूमत घायल घायें घने हैं।' कवि० ६.३६ घाय : सं०० (सं० घात>प्रा० घाय)। (१) चोट, व्रण, क्षत । 'मनहुं घाय महुं माहुर देई ।' मा० २.३५.३ (२) प्रहार । 'मुएहि घालत घाय।' विन.. - २२२.३ घायनि : घाय+संब० । घावों (से) । 'घन घायनि अकुलान्यो।' गी० ३.८.२ घायल : वि०पू० (सं० घातवत् >प्रा० घाइल)। व्रणयुक्त, आहत, क्षतविक्षत । "कछु मारे कछु घायल ।' मा० ६.४७ घाल : (समासान्त में) घालक । 'घरघाल चालक कलहप्रिय।' पा०म०छं० १३ Vघाल घालइ : (प्रा० घलइ-फेंकना, नष्ट करना, भीसना) आ०प्रए । (१) नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है। 'धरि सब घालइ खीसा।' मा० १.१८३ छं० (२) संकटग्रस्त करता है । जिमि कपि ल हि घालइ हरहाई।' मा० ७.३६.२ चालक : वि० । विनाशक । 'उपजेहु बंस अनल कुल घालक ।' मा० ६.२१.५ चालकु : घालक+कए । अकेला ही विनाशकारक । 'कुटिल काल वस निज कुल घालकु ।' मा० १.२७४.१ घालत : वकृ०० (प्रा० घल्लंत) । डालता, छोड़ता (मारता)। 'मुएहि घायत घाय।' विन० २२०.३ । घालति : पलित+स्त्री० । बिगाड़ती, नष्ट करती, अस्त-व्यस्त करना । 'घने कर घालति है घने घर घालिहै।' कवि० ७.१२० घालसि : आ०मए० । (प्रा० घल्लसि) । तू मिटा, नष्ट कर (मिटाता है) । जनि घालसि कुल खीस ।' मा० ५.५६ क घालहिं : आ०प्रब० (प्रा० घरलंति>अ० घरलहिं) । 'मिटाते हैं। 'आपु गए अर घालहिं आनहिं ।' मा० ७.४०.५ घाला : भूकृ०० (प्रा० घहिल अ) । नष्ट किया, बिगाड़ डाला। चित्रकेतु कर घरू उन्ह घाला।' मा० १.७६.२ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसो शब्द-कोश 263 घालि : पूकृ० (प्रा० घल्लिय>अ० घल्लि)। (१) डालकर । 'कबहुं पालने घालि झुकावै ।' मा० १.२००.८ (२) घाते या पासंग के बराबर करके । 'बिभीषन घालि नहिं ता कहुं गर्न ।' मा० ६.६४ छं० घालिहै : आ०भ०ए० (प्रा० धल्लिहिइ) । नष्ट करेगा-गी। 'बानरू बड़ी बलाइ घने घर घालिहै ।' कवि० ५.१० घाली : (१) भूक स्त्री० । डाल दी, छोड़ दी। 'राम सेन निज पाछे घाली।' मा० ६.७०.६ (२) घालि । डालकर (छिपाकर) । 'सो भुजबल राखेहु उर घाली ।' मा० ६.२६.८ (३) डालकर । ‘गयउ तुम्हारेहिं कोछे घाली।' मा० ७.१८.२ घालें : घालने से, छोड़ने से (मारने से) । 'भलो न घालें घाड ।' दो० ४२४ घाले : (१) भूकृ००ब० । नष्ट किये, उखाड़ फेंके । 'थप थिर के कपि जे घर घाले ।' हनु० १७ (२) घालें । मिश्रण से, डालने से, ओत-प्रोत करने से । 'अब देह भई पट नेह के घाले ।' कवि० ७.१३३ घालेसि : मा० भूकृ००+प्रए । उसने नष्ट कर डाला । 'घालेसि सब जग बारह बाटा ।' मा० २.२१२.५ घालेहि : आ०-भूकृ००+मए० । तूने नष्ट किया। 'केहि के बल घालेहि बन खीसा।' मा० ५.२१.१ घाले : (१) घालइ (२) भकृ० अव्यय । घालने, नष्ट करने । 'घाल लिए सहित समुदाई ।' मा० १.१७४.१ घालो : भूकृ००कए । बिगाड़ा, नष्ट किया। 'जाहि घालो चाहिए, कही धौं, राखै ताहि को।' कवि० ७.१०० घास : सं०पू० (सं०) । पशु खाद्य तृण । बर० ५६ घासी : घास । तृण, चारा । विन० २२.८ धाहैं : सं०स्त्री०ब० । घाटियां, कुण्ड । 'धारै बान, कूल धनु, भूषन जलचर, भंवर सुभग सब घाहैं।' गी० ७.१३.३ घिन : सं०स्त्री० (सं० घणा>प्रा० घि >अ० घिण)। जुगुप्सा । 'काल चाल हेरि होति हिथे घनी घिन ।' विन० २५३.२ घिनात : वकृ०० । घृणा करता-ते । 'जो 4 अधिक घिनात।' विन० २१७.६ घिय : सं०० (सं० घृत>प्रा० घिय) । घी । पिघले हैं आँच माठ मानो घिय के ।' गी० ४.१.२ घी : घिय । 'सोइ आदरौ आस जाके जिय बारि बिलोबत घी की।' कृ० ४३ घीय : घी। विन० २६३.३ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264. तुलसी शब्दकोश घुटरुवनि : (घटुरुबा=पैरों का घुटना, लानु)=घुटुरुवा+संब० । घुटनों (से) । 'आँगन फिरत घुटुरुवनि धाए।' गी० १.२६.१ घुन : सं०० (सं० घुण) । एक क्षुद्र कीट जो अन्न, काष्ठ आदि के भीतर ही जन्म पाता और उसी को खाता है (घुन पैदा होने की क्रिया 'घुनना' कहलाती है)। 'कीट मनोरथ दारु सरीरा । जेहि न लाग घुन, को अस धीरा ।' मा० ७.७१.५ घनाच्छर : (घुन+अच्छर) लकड़ी को घुन काटता-खाता है तो अकस्मात कभी. कभी अक्षर का आकार बन जाता है, इसे 'घुणाक्षर' कहते हैं। इसी प्रकार अनायास कोई काम बन जाय तो वहाँ 'घुणाक्षर न्याय' से काम होना कहा जाता है-दे० न्याय । 'होइ घुनाक्षर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक ।' मा० १.११८ व घुनिए : आ०कवा०प्रए । घुन लगने की-सी स्थिति में रहा जाय, मन में जर्जर ___होकर जिया जाय । 'सुमिरि सुमिर बासर निसि घुनिए ।' कृ० ३७ ।। घुरबिनिआ : वि० घरे में दाना चुगने वाला, मलराशि में अन्न बीनने वाला। 'तुलसी मन परिहरत नहिं घुरबिनिआ की बानि ।' दो० १३ घुरघुरात : वकृ.पुं० । घुमघुर बनि करता। 'घुरुषुरात हय' आरो पाएँ ।' मा. १.१५६.८ घुर्मरहिः : आ०प्रब० । घूम रहे हैं+घुमड़ रहे हैं+तरङ्गाकार गति लेते हैं। मिदरि घनहिं घुर्मरहिं निसाना ।' मा० १.३०१.२ घुमि : पूकृ० । चनकर खाकर । 'घुमि धुमि घायल महि परहीं।' मा० ६.६८.६ घुमित : भूकृ० (सं० घूणित) । चकराया हुआ। 'घूर्मित भूतल परेउ तुरंता।' ____ मा० ६ ६५.८ पूघट : सं० । मुखावरण । 'का घूघट मुख मूदहु अबला नारि ।' बर० १७ घुटक : घूट+एक । एक घूट भर । 'लेत जो घूटक पानि ।' दी० २८७ घूघरवारे : वि०० ब० । घुघराले, छल्लेदार । 'कच घुघरवारे।' मा० १.२३३.४ घटी : संस्त्री० । घुट्टी। (शिशुओं को दी जाने वाली औषधि) । 'लोच न सिसुन्ह देहु अमिय घटी।' गी० २.२१.२ घुमत : वकृ.पु० (सं० घूर्णत्>प्रा० घुम्मत) । घूमता, घूमते । 'घूमत घायल घाय घने हैं।' कवि० ६.३६ घूमि : पूकृ० (सं० पूणित्वा> घुम्मिअ>अ० घुम्मि) । घूमकर, चक्कर या पछाड़ खाकर । 'भूमि परे भट घूमि कराहत ।' कवि० ६.३२ घूर : सं० । कूड़े का ढेर, मल राशि । 'चाहत अहारन पहार दारि घर ना।' कवि० ७.१४८ घृत : सं०० (सं०) । घी। मा० १.४.४ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी मान्द-कोश 2,65 घृतु : घृत+कए.० । एकमात्र घी । लियो काढ़ि पामदेव नाम घतु है ।' विन० २५४.२ Vघेर घेरइ : (सं० गहेरयति-गुहेर=आवरण>प्रा. गुहेरइ. आवत करना), आ०प्रए० । घेरता है। सावन सरित सिंधु रुख सूप से घेरइ ।' पा०म० ५६ धेरत : वकृ.पु० । घेरता, घेरते । 'बाल रबिहि घेरत दनुज ।' मा० ३.१८ घेरहिं : आ.प्रब० । घेरते हैं, मण्डलाकार बत्त में आस-पास पहुंचते हैं । 'कोउ मुनि मिलइ ताहि सब घेरहिं।' मा० ४.२४.२ घेरा : भृकृ.पु० । घेर लिया। 'कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ घेरा ।' मा० ६.४६.६ घेरि : प्रकृ० । घेरकर । 'कीसन्ह.घेरि पुनि रावनु लियो ।' मा० ६.१०० छं० घेरी : (१) घेरि । मा० ६.३६.१० (२) भूकृ०स्त्री० । घेर ली, छाप ली। 'धरम सनेह उभय मति घेरी।' मा० २.५५.३ घेरें : घेरा डाले (स्थिति में) । 'महाबिष ब्याल दवा अरि घेरें ।' कवि० ७.५० घेरे : भूकृ००ब० । 'तिन्ह राम घेरे जाइ।' मा० ६.१०१७ . घेरेन्हि : आ०-भूक००+प्रब० । (उन्होंने) घेर लिय थे। 'घेरेन्हि नगर निसान बजाई ।' मा० १.१७५.५ घेरेसि : आ०-भूक००+प्रए । (उसने) घेर लिया-ये । 'सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई ।' मा० १.१७६.३ घेरो : भूक००कए । घेर लिया (गया), घेरे में पड़ा हुआ। 'तू निज करम जाल जहें घेरो।' विन० १३६.४ घेरोइ : घेरा हुआ ही । 'घेरोइ ५ देखि बो लंक गढ़।' गी० ५.५१.२ धैया : (१) घई । गर्त, कन्दरा, उदर गर्त । 'भूख न जाति अघाति न घेया।' कृ० १६ (२) गाय आदि का स्तनमण्डल, आयना । 'पय सप्रेम घनी घया।' गी० १.२०.३ घर : सं० । गुपचुप वार्ता, फुसफुसाहट, गोपनीय चर्चा । घेर : घेर+कए । एक ही चर्चा । 'समुझि तुलसीस कपि कर्म घर घर छरु।' कवि० ६.४ घोर : (१) वि० (सं०) । भयानक, आतङककारी, विषम । 'घोर धार भृगुनाथ रिसानी।' मा० १.४.१.४. (२) तीव्र, असह्य । 'घोर घामु हिम बारि बयारी।' मा० २.६२.४ (३): सं०पु० (सं० घोट>प्रा० घोड)। घोड़ा, अश्व । दे० घोरसार । घोरत : (१) वक०० (सं० घूर्णत्>प्रा० घोलंत) । घुमड़ता, घुमड़ते । 'सोहत स्याम जलद मृदु घोरत धातु-रंगमने सृगनि ।' गी० २.५०.३ (२) घोर इव Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 तुलसी शब्द-कोश - करता-करते। (३) घोलते, द्रव मिश्रण करते। (ऊपर तीनों अर्थ एक साथ देखे जा सकते हैं ।) घोरसार : सं०स्त्री० (सं० घोटशाला>प्रा० घोडसाला>अ० घोडसाल)। अश्व शाला । 'हाथी हथसार जरे घोरे घोर-सार ही ।' कवि० ५.२३ घोरा : (१) घोर । तीव्र, भयानक । 'घन घुमंड गरजत न घोरा।' मा० ४.१४.१ (२) सं०० (सं० घोट क>प्रा. घोडअ)। घोड़ा, अश्व । 'हाथी छोरी घोरा छोरो।' कवि० ५.६ घोरि : पूक० (१) (सं० घूणित्वा>प्रा० घोलिअ>अ० घोलि) । घुमड़कर । 'बरर्षे मुसलाधार बार बार घोरि के ।' कवि० ५.१६ (२) घोलकर, घोल बनाकर । 'प्रेत एक पिअत बहोरि घोरि घोरि के ।' कवि० ६.२० (३) घोर शब्द करके। 'कंद बृद बरषत छबि मधुर घोरि घोरी।' गी० ७.७.५ । घोरी : (१) घोरि । घोलकर । 'देति मनहुं मधु माहूरु घोरी।' मा० २.२२.३ (२) घोर रव करके या घुमड़ कर । 'कंद बृद बरषत छवि मधुर घोरि घोरी।' गी० ७.७.५ घोरे : घोरा+ब० । अश्व । 'चर कराहिं मग चलहिं न घोरे।' मा० २.१४३.५ घोसु : आ०-आज्ञा-मए० । तू कह, जप, घोष कर । 'नित राम नामहि घोसु।' विन० १५९.४ घ्रान : सं०पू० (सं० घ्राण) । नासिका, गन्धग्राहक इन्द्रिय । 'लहइ घ्रान बिन बास आसेषा ।' मा० १.११८.७ चंदोवा : सं०० (सं० चन्द्रोदय = चण्डातक>प्रा० चंदोवअ) । वस्त्रमण्डप, पट वितान । 'रतनदीप सुरि चारु चंदोवा ।' मा० १.३५६.४ चंवर : सं०० (सं० चमर>प्रा० चमर>अ० चर)। चमर नामक वन्य पशु की पूंछ का बना व्यजन (मोर छल) । मा० १.२६६.४ च : अव्यय (सं०) । और मा० १ श्लोक १ . Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 267 चंग : सं० स्त्री० ( फा० चंग = पन्ज:, हाथ ) | पतंग, कनकोआ । 'चढ़ी चंग जनु खैच खेलारू ।' मा० २.२४०.६ (सं० 'चङ्ग' दक्ष तथा उत्तम का वाचक है जो यहाँ अभिप्रेत नहीं) चंगु : सं०पु० ( फा० चंग = पन्जा) । हाथ की पकड़, चंगुल । 'चरग चंगु गत चातकहि ।' दो० ३०१ चंगुल : चंगु । पन्जा, पकड़ । दो० ३०३ चंचरीक : सं०पु० (सं० ) । भ्रमर । मा० ५.३.६ चंचल : वि० (सं०) । (१) चपल, निरन्तर गतिशील । 'चंचल तुरग मनोहर चारी ।' मा०६.८६.४ (२) अस्थिर, अधीर । 'कपि चंचल सबहीं बिधि होना । " मा० ५.७.७ चंचलता : सं० स्त्री० (सं० ) । चपलता, अस्थिरता । विन० ८३.४ चंचलताई : चंचलता । विन० ६२.१० चंड : वि०पु० (सँ०) । (१) तीक्ष्ण, तीव्र । 'चंड सर मंडन मही ।' मा० ३.३२ छं० १ (२) उग्र, भयानक । 'कोदंड धुनि अति चंड ।' मा० ६.६१ छं० (३) उष्ण, गरम । दे० चंडकर । (४) सं०पु० (सं० ) । असुर विशेष जिसे दुर्गा ने मारा था । 'चंड भुजदंड खंडनि ।' विन० १५.४ चंडकर : सं०पु० (सं० ) । उष्ण किरणों वाला = सूर्य । 'चंदिनि कर कि चंडकर चोरी ।' मा० २.२६५.६ चंडा : (१) सं०पु० (सं० चाण्डाल ) । शूद्र जाति विशेष । (२) वि०पुं० धूर्त, नीच, क्रूर । 'सपदि होहि पच्छी चंडाला ।' मा० ७.११२.१५ चंडिका : सं० [स्त्री० (सं० ) । दुर्गा, पार्वती । कवि० ६.४१ चंडीपति : सं०पु० (सं० ) । पार्वतीपति = शिव । कवि० ६.४१ चंडीस : चंडीपति (सं० चण्डीश ) । शिव । कवि० १.१८ चंडी : चंडीस + कए० । कवि० ६.४५ चंद : चंद्र ( प्रा० ) । (१) चन्द्रमा । मा० १.१०६.८ (२) मोर पंख का चन्द्रक 'मोर के चंद की झलकनि ।' गी० १.२२.३ चंदन : सं०पु० (सं०) । मा०१.१९४.८ चंदनु : (१) चंदन + कए० । चन्दन के समान शीतल । 'धीर कृपाल भगत उर चंदनु ।' मा० २.१४१.७ (२) चंदन | मा० २.१७६ ७ चंदबदन : वि०स्त्री० (सं० चन्द्रवदनी) । चन्द्रमा के समान आह्लादक मुख वाली, चन्द्रमुखी । मा० २.६३.८ चंदबदनियाँ : चंदबदन + ब० । चन्द्रमुखियाँ, सुन्दरियाँ । गी० १.३४.६ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 तुलसी शब्दकोश चंदभूषन : सं०० (सं० चन्द्रभूषण)। शिव । पा०म०/०१ चंदा : चंद । (१) चन्द्रमा (चन्द्रवत् आलादकारी) । कीन्हा दंडवत रघुकुलचंदा।' मा० २.१३४.६ (२) मोरपंख का चमकीला गोलक । 'मोर चंदा चारु सिर ।' __कृ० २० चंदिनि, नी : सं०स्त्री० (सं० चन्द्रिका>प्रा. चंदिणी) । चाँदनी । 'चंदिनि कर कि चंडकर चोरी ।' मा० २ २६५.६ चंदु, दू : चंद+कए० । चन्द्रमा । “चंदु चवै बरु अनल कल ।' मा० २.४६; २.१२२.१ चंद्र: सं०० (सं.)। चन्द्रमा । मा० १.३२१ चंद्रमहि : चन्द्रमा को । 'बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू ।' मा० १.२८१.६ चंद्रमा : सं०पुं० (सं० चन्द्र मस्) । (१) चन्द्र । मा० १.२३८.२ (२) एक मुनि का नाम । 'मुनि एक नाम चंद्रमा ओही।' मा० ४.२८.५ चंद्रमाललाम : चन्द्रभूषण । शिव । कवि० १.६ चंद्रमुखी: चंद्रमुखी+ब० । चन्द्रमुखिया, सुन्दरियां। ‘ह है सिला सब चंद्रमुखी।' ___ कवि० २.२८ चद्रमुखी : चन्द्रमा के समान आह्लादकारी मुख वाली, सुन्दरी, प्रिया। कवि० ७.४४ चंद्रमौलि : सं०० (सं०) । शिवजी । मा० १.६४.७ चंद्रहास : सं०० (सं०) । (१) चाँदनी (२) रावण की तलवार । 'चंद्रहास हरु मम परितापं ।' मा० ५.१०.५ चंद्रलालाम : चंद्र माललाम । शिव । विन० १५७.२ चंद्रार्क : (चन्द्र+अकं) । चन्द्रमा और सूर्य । विन० १०.६ चंद्रिका : सं०स्त्री० (सं.)। चांदनी, ज्योत्स्ना । मा० २.६७.६ चंपक : सं०० (सं.)। चम्पा, पुरुषविशेष । (जिसके पास भ्रमर नहीं जाते, ऐसी कवि प्रसिद्धि है) । 'चंचरीक जिमि चंपक बागा ।' मा० २.३२४७ चउथि : वि०+सं-स्त्री० (सं० चतुर्थी>प्रा० चउत्थी>अ० चउत्थि) । (१) चौथी (संख्या) (२) पाख की चौथी तिथि । 'तसउ च उथि के चंद कि नाई।' मा० ५.३८.६ चउथिउ : वि०पू० (सं० चातुर्थिक:>प्रा० चउत्यिओ>अ. चउत्थिउ) । चौथ तिथि का; चौथिया । 'चउथें चउथिउ चंद ।' दो० ४६६ चउथे : (सं. चतुर्थे>प्रा० चउत्थे =चउत्थेण>अ० चउत्थे)। चौथे स्थान पर । 'चउथें चउथिउ चंद ।' दो० ४६६ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुलसी मान्दकोश 269 कलहट्ट : संपु. (सं०. चतुईट स्वतु घट्टप्रा० चउहट्ट)। बाजार का बोक, चौरमहा । चनहट्ट हट्ट सुबट्ट बी थीं।'. मा० ५.३ छं० १ चए : चय । समुच्चय, पुञ्ज । 'बरहिं सुमन चय।' गी०.१.३.२ चक : सं०० (सं० चक्र>प्रा० चक्क) । (१) चकवा पक्षी । 'संपति चलई भरतु __ चक ।' मा० २.२१५ (२) चकरी, एक प्रकार का खिलौना, - लटू । गोली भौंरा चकडोरि।' गी० १.४३.३ चकइहि : चकई को। 'चकइहि सरद चंद निसि जैसें।' मा० २.६४.२ चकई : सं-स्त्री० (सं० चक्रिका>प्रा० चक्किा >अ० चक्कई)। स्त्री-चकवा __ पक्षी । मा० २.२१५ चकचौंधी : सं०स्त्री० । किरण आदि से होने वाला दृष्टिदोष, प्रकाश में आँखों की दर्शन शक्ति का अभाव तथा झिलमिलाहट । गी० २.२०.३ चकाचौंधी : चकचौंधी । 'लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खमीर सो।' हनु० ४ चकार : आभू०प्रए० (सं.)। किया। मा० ७.१३० श्लोक १ चकि : पूक० । चकित होकर, दिग्भ्रान्त होकर, विस्मित होकर । 'तुलसी प्रभुमुख निरखि रही चकि।' कृ० १० चकित : भूकृ०वि० (सं०-'चक प्रतिघाते+क्त)। (१) विस्मित । गिरिजा चकित भई निम्बानी।' मा० १.१२४.६ (२) अनिश्चिय ग्रस्त, 'विमूढ । 'चकित भए भ्रम हृदयं बिसेषा ।' मा० १.५३.१ चके : आ०प्रब० । चकित होते हैं । ‘मृगी मृग चौंकि चकै चितवै चितु दै।' कवि० २.२७ चकोट : सं०पु+स्त्री० । चिकोटी, नखाघात, पजे का आघात । "चंचल चपेट 'चोट चरन चकोट । कवि० ६.४० (२) चपेटा-ध्वनि, थप्पड़ आदि की चटाक। 'चरन चोट चटकन चकोट अरि उर'सिर बज्जत ।' कवि० ६.४७ चकोर : सं०० (सं०) । पक्षि विशेष । मा० १.४७.७ चकोरक : चकोर । विन० २५१ चकोर कुमारि : चकोर कुमारी। मा० २.३०३ कोर कुमारी : चकोरी। मा० २.१४०.२ चकोरा : चकोर । मा० २.२०६.१ चकोरी : चकोरी+ब । चकोरियाँ । 'मानहं चकोरी चारु बैठी निज नीड ।' कवि० १.१३ चकोरी : चकोर+स्त्री० (सं.)। मा० १.२३१.६ चकोर, रू: चकोर+कए । एकमात्र चकोर । मनु तब जानन चंद चकोरू।' मा० २.२६.४ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 तुलसी शब्दकोश चक्क : चक । चकवा पक्षी । 'चक्क चक्कि सम पुर नर नारी।' मा० २.१८७.१ चक्कवइ : सं०० (सं० चक्रपति>प्रा० चक्कवइ)। चक्रवर्ती राजा, सम्राट, राजाधिराज । 'ससुर चक्कवइ कोसलराऊ ।' मा० २.६८.३ चक्कवनि : चक्कवा=चकवा+संब० । चकवा पक्षियों, चक्रवाकों (को)। 'ज्यों चकोर चय चक्कवनि तुलसी चाँदनि राति ।' दो० १९४ चक्कवै : चक्कवइ । जा०म०/० १७ चक्कि : चक्क+स्त्री० । चकई पक्षिणी । मा० २.१८७.१ चक्र : सं०पु० (सं०) । (१) चक्क । चकवा पक्षी। (२) (रथ का) पहिया । मा० ६.८७ छं० (३) मण्डल, समूह। 'नऋचक्रा-कुला..... तीव्र धारा।' विन० ५६.८ (४) आयुधविशेष । 'कोटिन्ह चक्र त्रिसूल पवारै ।' मा० ६.६१.६ (५) विष्णु का सुदर्शन चक्र । 'जथा चक्र भय रिषि दुर्वासा ।' मा० ३.२.३ (६) राजमण्डल, राष्ट्रमण्डल-जिसका प्रयोग 'चक्रवर्ती' आदि में होता है। (७) शासनतन्त्र । 'सरल दंडे चक्र ।' दो० ५३७ चक्रधर : सुदर्शन चक्र धारण करने वाले विष्णु । विन० ६०.६ चक्रपानि, नी : (सं० चक्रपाणि) । विष्णु । कवि० ७.१७२ चक्रवति, ती : सं०० (सं० चक्रवतिन्) (१) सम्राट् । मा० १.१५६.४ __(२) श्रेष्ठ, सर्वोपरि । 'भट-चक्रबर्ती ।' विन० २७.३ चक्रबाक : सं०० (सं० चक्रवाक) । चकवा पक्षी । मा० ४.१७.४ चख : सं०० (सं• चक्षन्, चक्षु ण्>प्रा० चक्ख, चक्खु) । नेत्र । मा० २.२३.३ चटकन : सं०० । चटकना, थप्पड़, चपेटा । 'बिकट चटकन चोट ।' कवि० ६.४६ चटाक : (सं० चटत्कार>प्रा० चटक्क) । ध्वनि विशेष जो मिट्टी के पात्र आदि के फूटते समय होती है । 'चपेट की चोट चटाक दै फोरौं।' कवि० ६.१४ चढ़ : चढ़इ। चढ़ता है (था) । ‘मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ।' मा० ५.२६.१ /चढ़, चढ़इ : (प्रा०चडइ-आरोहरण करना, लेप आदि से चमकना, अभिमान करना, बलि हो जाना) आ०प्रए । (१) आरोहण करता है । 'गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा।' मा० १.७.६ (२) (लेप से) चमकता है। 'कनकहिं बान चढ़इ जिमि दाहें ।' मा० २.२०५.५ चढ़त : वकृ.पुं० (प्रा० चडंत) । (१) आरोहण करते । 'चढ़त मत्त गज जिमि लघु तरनी।' मा० ६ २५.७ (२) भेंट किया जाता । 'तातें सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्री खंड ।' मा० ७.३७ चढ़ति : चढ़त+स्त्री० । आरोहण करती। 'लातहुं मारें चढ़ति सिर...धूरि ।' मा० २.२२६ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी-शब्द-कोश 271 चढ़हु : आ.मब० । चढ़ो, आरूढ होओ। 'तात चढ़हु रथ ।' मा० २.१८८.५ चढ़ा : भूकृ०० (प्रा० चडिअ) । आरुढ हुआ। मा० ५.१६.८ चढ़ाइ, य : पूकृ० । (१) चढ़ा कर =आरुढ करा कर । 'रथ चढ़ाइ देखराइ बन फिरेहु ।' मा० २.८१ (२) तान कर । 'चाप चढ़ाइ बान संधाना ।' मा० ६.१३.८ चढ़ाइन्हि : आ०-भूकृ०स्त्री०+प्रब० । उन्होंने चढ़ाईं, तानी, संधान की । 'भाथीं बांधि चढ़ाइन्हि धनहीं।' मा० २.१६१.४ चढ़ाइहि : आ०भ०प्रए। चढ़ाएगा=उपहार देगा। 'जो गंगा जलु आनि चढ़ाइहि ।' मा० ६.३.२ चढ़ाइहौं : आ०भ० उए० । चढ़ाऊँगा=चढ़ने दूगा । 'नाथ न नाव चढ़ाइहौं जू ।' कवि० २.६ चढ़ाई : भूकृ०स्त्री०ब० । आरुढ करायीं । 'कुरि चढ़ाई पालकिन्ह।' मा० १.३३८ चढ़ाई : (क) भूकृ०स्त्री० । आरुढ़ करायी। (ख) चढ़ाइ । चढ़ा कर । (१) भेंट करके । 'दूजेउँ निज सिर सुरन चढ़ाई ।' मा० ६.२५.२ (२) स्वीकृत करके । 'लीन्हि आप मैं सीस चढ़ाई।' मा० ७.११२.१६ (३) आरुढ कराकर । ‘लिए दुओ जन पीठि चढ़ाई ।' मा० ४.४१५ चढ़ाउब : भक००। (१) चढ़ाना, संधान करना । ‘रहउ चढ़ाउब तोरब भाई।' मा० १.२५२.२ (२) चढ़ाना होगा (चढ़ाएँगे) । 'अजहुं अवसि रघुनंदन चाप चढ़ाउब ।' जा०म०७१ चढ़ाएं' : चढ़ाए हुए (आकार में), संधान किये हुए (मुद्रा में) । 'अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ।' मा० ४.६.२ चढ़ाए : भूक००ब० । (१) भेंट किये । 'सादर सिव कहुं सीस चढ़ाए।' मा० ६.६४.६ (२) आरुढ कराये । 'कबि बिनती रथ राम चढ़ाए।' मा० २.८३.१ चढ़ाय : चढाइ। चढ़ायो, यो : भूक०कए । (१) चढ़ाया=आरोहण कराया। 'तिहारोइ नामु गयंद चढ़ायो।' कवि० ७.६० (२) प्रत्यञ्चायुक्त किया, ताना। 'चपरि चढ़ायो चापु चंद्रमा ललाम को।' कवि० १.६ चढ़ावत : वकृ०० (प्रा० चडावंत)। चढ़ाता, चढ़ाते संधान करते । 'लेत चढ़ावन बचत गाढ़ें ।' गी० १.२६१.७ चढ़ावन : सं०० (प्रा० चडावण)। चढ़ाना, संधान करना । 'चहन चपरि सिव चाप चढ़ावन ।' गी० १.६०.५ चढ़ावनु : चढ़ावन+कए । चढ़ाना। 'राम चहत सिव चापहि चपरि चढ़ावन ।' जा०म०६८ . Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 तुलसी शब्दकोश चढ़ावह : आ०प्रब० (प्रा० चडावंति अ० चडावहि ) । चढ़ाते-ती हैं । करि कुल रीति कलस थपि तेलु चढ़ावहि ।' ज०मं० ११५ चढ़ावा : भूक०पु० | चढाया । (१) उपहृत किया । 'करि पूजा नैवैध चढ़ावा ।' मा० १.२०१.३ (२) संधान किया । 'काहुं न संकर चाप चढ़ावा ।' मा० १ २५२.१ चढ़ाव : आ० उ० (प्रा० चडावमु> अ० चडावउँ ) । चढ़ाता हूँ, संधान कर सकता हूं, चढ़ा सकता हूं । 'कमल नाल जिमि चाप चढावौं ।' मा० १.२५३.८ ० । (१) आरूढ होकर । 'गिरि पर चढ़ि लंका तेहि देखी ।' मा० ५. ३.१० ( २ ) अभियान करके । रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई ।' मा० ३.१६.१३ चढ़ि : चढ़िहहि : आ०भ० प्रब० ( प्रा० चडिहिति > अ० चडिहिहि ) । आरूढ होंगे-गी, तत्पर होंगी । 'तिय चढ़िहहि पतिव्रत असिधारा ।' मा० १.६७.६ चढ़ीं : भूकृ० स्त्री०ब० । आरूढ़ हुई । मा० ६.१० क चढ़ी : भूकृ० स्त्री० । आरूढ हुई । मा० १.३०१.४ चढ़ : आ० आज्ञा मए० (प्रा० सायक सेल समेता ।' मा० ६.६०.६ अ० चड़) । तू आरोहण करा 'बढ़ मम चढ़े : भूक०पु ं०ब० (प्रा० चडिय) । (१) आरूढ हुए । 'देखहि सुर नम बढ़े विमाना ।' मा० १:२४६.८ ( २ ) अभियान में तत्पर हुए । 'चपरि बढ़े संग्राम ।' दो० ४२२ (३) चढ़इ | चढ़ता है । 'पाथ माथे चढ़े तृन ।' विन० ७२.४ चढ़े : भू०पु० क० ( प्रा० चडिओ > अ० चडियउ) । (१) आरुढ़ हुआ । 'तेहि पर चढ़ेउ मदन मन माखा । मा० १.८७.१ ( २ ) प्रभाव डाला । 'तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ ।' मा० १.६३.५ चढ़े : चढ़उ । चढ़ सके । 'जो चित चढ़े नाम महिमा अति ।' विन० ९६.३ चढ़ौ : चढ़हु | चढ़ो, आरूढ होओ । 'कुधर सहित चढ़ौ बिसिख बेगि पठवीं ।' गी० ६.११.३ बढ्यो : चढ़ेउ । 'परम बर्बर खर्ब गर्व पर्बत चढ्यो ।' विन० २०८.३ चतुर : वि० (सं०) । (१) कुशल, दक्ष, निपुण । 'उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी । मा० १.२१.८ (२) विवेकशील । 'चहू चतुर कहुं नाम अधारा ।' मा० १.२२.७ (३) लोक, शासन, काव्य आदि से प्राप्त निपुणता (व्युत्पत्ति ) से युक्त । कबि न होउँ नहि चतुर कहावउँ ।' मा० १.१२.६ (४) सतर्क' गोपन कुशल । परम चतुर न कहेउ निजनामा । मा० १.१५८.८ (५) तत्पर । 'तेइ एहि ताल चतुर रखवारे ।' मा० १.३८.१ (६) अब सरोचित कार्य करने वाला =s = प्रत्युत्पन्नमति "जो बरु नाथ चतुर नृप मागा । मा० १.१५०.४ (७) चालाक, "गुप्त स्वार्थनीति वाला- वाली । 'चतुर गंभीर राम महतारी ।' मा० २.१८. १ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 273 चतुरंग : वि० =चतुरंगिनी । 'सेन संग चतुरंग अपारा।' मा० १.१५४.३ चतुरंगिनी : सं०+वि० स्त्री० (सं० चतुरङ्गिणी)। चार अङ्गों-हस्ति, अश्व, ___रथ और पैदल-से युक्त सेना । मा० ३.३८.१० चतुरता : सं० स्त्री० (सं०)=चतुराई । मा० १.१६३ चतुरदसि, सी : सं० स्त्री० (सं० चतुर्दशी)। पाख की चौदहवीं तिथि । गी० १.५.२ चतुरसम : सं० ० (सं० चतु:सम) । चार गन्ध द्रव्यों-कपूर, चन्दन, केसर और कस्तूरी-का मिश्रित पङ क । अरगजा । 'बीथीं सींची चतुरसम ।' मा० १.२६६ चतुराई : सं० स्त्री. (सं० चतुरता>प्रा० चतुरया, चतुराया) । (१) चातुरी, निपुणता आदि (दे० चतुर)। 'चतुराई तुम्हारि मैं जानी।' मा० १.४७.३ (२) चालाकी, धूर्तता । 'रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई ।' मा० ३.१६.१३ चतुरानन : सं०० (सं०) । चार मुखों वाला=ब्रह्मा । मा० १.२०२.१ चतुर्भुज : सं०० (सं०)। चार भुजाओं वाला=विष्णु । मा० ३.१०.१८ चनक : सं० (सं० चणक) । अन्न विशेष=चना । 'जानत हो चारि फल चारि ही चनक को।' कवि० ७.७३ चना : चनक (सं० चणक>प्रा० चणअ)। कवि० ७ ९६ चनार : सं०० कचनार वृक्ष । गी० २.४३.३ चपत : वकृ० पु० (सं० चपत् -चप सान्त्वने) । शान्त या मन्द पड़ जाता। 'राम नाम महिमा की चरचा चले चपत ।' विन० १३०.३ (२) टाल जाता, ध्यान नहीं देता। 'निज करुना करतूति भगत पर, चपत चलत चरचाउ ।' विन० १००.६ चपरि : पूकृ० (१) चपल होकर (फुर्ती के साथ) । 'चपरि चलेउ हय ।' मा० १.१५६ (२) उत्साह करके (सोल्लास) । ‘रोप्यो पाउ चपरि ।' कवि० ६.२३ चपल : वि० (सं०) । चञ्चल । मा० १.२०३ चपलता : सं०स्त्री. (सं.)। चञ्चलता (१) दैहिक अस्थिरता। (२) मानसिक अस्थिरता । 'साहस अनृत चपलता माया ।' मा० ६.१६.३ चपला : सं०स्त्री० (सं०) । बिजली । 'चपला चमकै घन बीच ।' कवि० १.५ चपेट : चपेटा। (१) दबाव । 'चारिहं चरन के चपेट चायें चिपिटि गो।' कवि० ४.१ (२) थप्पड़ । 'चपेट की चोट चटाक दै फोरौं ।' कवि० ६.१४ चपेटन्हि : चपेट+सं०ब० । थप्पड़ों (से) । 'मारहिं चपेटन्हि।' मा० ६.८१ छं० चपेटा : सं०स्त्री०+पु० (सं० चपेट, चपेटा) । थप्पड़, तलप्रहार । 'प्रान लेहिं एक एक चपेटा।' मा० ४.२४.१ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 तुलसी शब्द-कोश चपेटे : सं०पू०ब० । थप्पड़+दबाव । 'चपरि चपेटे देत नित केस गहें कर मीच ।' दो० २४८ चबाइ : पूकृ० । चबाकर । 'आपने चना चबाइ हाथ चाटियतु है ।' कवि० ७.६६ चबेना : सं०० (सं० चयन्निक>प्रा० चव्वियन्नअ) । चना आदि चबाने योग्य अन्न । मा० २.३०.६ चमकहिं : आप्रब० (सं० चमत्कुर्वन्ति>प्रा० चमक्कंति>स० चमक्कहिं)। चमचमाते हैं । मा० ६.८७.३ चमकत : वकृ०० । चमकते । 'असि चमकत चोखे हैं।' गी० १.६५.१ /चमकाव, चमकावइ : (सं० चमत्कारयति>प्रा० चमवकावइ-चमकान्म, दीप्ति से चकचौंधना, प्रकाश फेंकना, मटकाना) आ.प्रए । चमकाता है, चमकाती है = मटकाती है । 'न उनिया भौं चमकावइ हो ।' रा०न० ८ चमकै : (१) चमंकहिं । चमचमाती हैं । (२) चमक+ब० । चमचमाहटें । 'चपला चमकै धन बीच जग छबि ।' कवि० १.५ चमगादर : सं० । एक जन्तु जिसे दिन में नहीं सूझता, जिसके पैर नहीं होते चमड़े के पंख जैसे होते हैं और उन्ही में कांटे होते हैं जिनके सहारे वृक्ष आदि में उलटा लटक जाया करता है; मुंह खरगोश के जैसा होता है; इसे पशु-पक्षी का मध्यस्थ माना जाता है। मा० ७.१२१.२७ चमर : सं०० (सं.)। चवर (मोरछल) । मा० २.२२६.२ चमू : सं०स्त्री० (सं०) । सेना । कवि० ६.२३ चय : सं०० (सं०)। समूह । 'ज्यों चकोर चय चक्कवनि तुलसी चाँदनि राति ।' दो० १६४ चयन : चेन । चैन, आनन्द । 'भसुर उर चले उमगि चयन ।' गी० १.५१.२ चयनरूप : आनन्दस्वरूप । 'करुना रस अयन चयन रूप भूप माई ।' गी० ७.३१ चये : चय, चए । गी० १.४५.३ चर : (१) वि० (सं०) । जंगम, गतिशील (स्थावर का विलोम) । 'जे सजीव जग अचर चर ।' मा० १.८४ (२) सं०० (सं०) । गुप्तचर, भेदिया, दूत । 'बोले चर बरजोरें हाथा ।' मा० २.२७०.७ (३) चल । चञ्चल । 'चलदल को सो पात करै चित चर को।' गी० १.६६.३, /चर, चरइ, ई : (सं० चरति-चर गतिभक्षणयोः>प्रा० चरइ-आहार करना; चलना, आचरण करना) आ०प्रए । खाता है । 'चरइ हरित तृन बलि पसु जैसें ।' मा० २.२२.२ चरग : सं०पू० (सं० चरक>प्रा० चरग) । बाजपक्षी । 'चरग चंगु गत चातकहि नेम प्रेम की पीर ।' दो० ३०१ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 275 चरचा : सं०स्त्री० (सं० चरचा)। वार्ता, बातचीत का प्रसंग । पा०म०/० २ चरचाउ : चर्चा भी। 'चपत चलत चरचाउ ।' विन० १००.६ चरचित : भूकृ०वि० (सं० चचित) । लिप्त, लेप किये हुए । 'स्याम सरीर सुचन्दन चरचित ।' गी० ७.१७ ६ चरची : भूकृ०स्त्री० । बात चलाई, बहाने से प्रसंग । चलाई। 'चरचा चरनि सों चरची जान मनि रघुराइ ।' गी० ७.२७.१ चरन : संपु० (सं० चरण)। पैर । मा० १.२०७.३ चरननि, न्हि : चरन+संब० । चरणों। 'चरनन्हि लागी।' मा० १.२११ छं० चरनपीठ : सं०पु० (सं० चरण पीठ=पाद पीठ)। (१) पीढ़ा, पैर रखने का आसन । मा० २.३१६.५ (२) पादुका, खड़ाऊँ । 'तुलसी प्रभु निज चरनपीठ मिस भरत प्रान रखवारो।' गी० २.६७.४ चरना : चरन । मा० १.२.३ । चरनांबुज : (सं० चरणाम्बुज)। कमलतुल्य कोमल-ललित चरण । मा० ६.१११ छं० चरनि : (१) चलनि । चलने-फिरने की क्रिया । 'लसत कर प्रतिबिंब मनि आँगन घुटुरुवनि चरनि ।' गी १.२७.५ (२) चर+संब० । चरों, दूतों। 'चरचा - चरनि सों चरची जानमनि रघुराइ ।' गी० ७.२७.१ चरफराहिं : आ०प्रब० । चञ्चल होकर फड़फड़ाते हैं, एक ही स्थान पर गति करने एवं तिलमिलाते हैं । 'चरफराहिं मग चलहिं न घोरे ।' मा० २ १४३.५ चरम : (१) सं.पु. (सं० चर्म) । चमड़ा। 'चामर चरम बसन बहु भाँती ।' मा० २.६.३ (२) वि० (सं०) । अन्तिम । 'चरम देह द्विज के मैं पाई ।' मा० ७.११०.३ चरवाहै : चरवाहे को, पशुपालक को। 'भजे बिनु बानर के चरवाहै।' कवि० ७.५६ चरवाहो : सं००कए० । पशुओं को चराने वाला, पशुपालक । 'कहूं कोउर भो न चरवाहो कपि भालु को।' कवि० ७.१७ चरहिं, हीं : आ०प्रब० । (१) बिचरते-घूमते हैं । 'बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा।' ___ मा० २.२३६.४ (२) खाते हैं । 'नर अहार रजनीचर चरहीं।' मा० २.६३.१ (३) आचरण करते हैं । 'चरहिं बिस्वप्रतिकूल ।' मा० १.२७७ चरहि : आ०मए० (सं० चर>प्रा० चरहि) । तू विचरण कर । 'दुइज द्वैत मति छाडि चरहि महिमंडल धीर ।' विन० २०३.३ चरहु, हू : आ०प्रब० (सं० चरत>प्रा० चरह>अ. चरहु) । विचरण करो। 'तात बिगत भय कानन चरहू ।' मा० २.३०८.५ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 तुलसी शब्द-कोश चराचर : (१) वि० (सं० चराचर=चर+अचर)। स्थावर तथा जंगम । ____ सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी।' मा० १.११६.२ (२) सं०० (सं०) = __चर । गतिशील, जंगम । 'सेवहिं सकल चराचर ताही ।' मा० १.१३१.४ ।। चरिअ, ऐ : आ०-कवा०-प्रए । आचरण-विचरण कीजिए, रहिए । 'दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ।' मा० ६.१११ छं० चरित : (१) सं०पू० (सं०) । आचरण, व्यवहार, कार्यकलाप, जीवनचर्या, क्रिया चिति, कार्यपद्धति, शील-सम्पति, शास्त्रीय मर्यादा । (२) (सं० चारित्र>प्रा० चरित्त)। कर्तव्य, प्रकृति, व्यवहार आदि । मा० १.१२.२ चरिता : चरित । मा० १.१५.१ चरित्र : चरित्र (सं०) । आरचण, व्यवहार, लीला आदि । मा० १.२०५ चग्यि, ये : चरिऐ। चरू : सं०पु० (सं० चरु) । (१) खीर, पायस जो दूध-चावल तथा घी के मिश्रण से बनता है। (२) पायस-पाय । 'प्रगटे आगिनि चरु कर लीन्हें ।' मा० १.१८६.६ चरेरी : वि० स्त्री० । सूखी पत्तियों के समान 'चरचर' ध्वनि करने वाली, नीरस, सूखी-रूखी । 'यह बतकही चपल चेरी की निपट चरेरीऐ रही है।' कृ० ४२ चरें : चरहिं । भक्षण करते हैं । 'मानो हरे तृन चारु चरै ।' लवि० ७.१४४ चरं : चरइ । भक्षण करे । 'तेइ तृन हरित चरै जब गाई।' मा० ७.११७ ११ चर्म : सं०० (सं० चर्मन्) (१) चमड़ा, खाल । 'आनहु चर्म कहति बैदेही ।' मा० ३.२७.५ (२) ढाल । 'बिरति चर्म संतोष कृपाना ।' मा० ६.८०.७ चर्माम्बर : वि० (सं०) । चर्म-वस्त्र बाला। विन० ११.६ चर्मासि : (चर्म+असि) ढाल-तलवार । विन० ४४४ चल : (१) वि० । चञ्चल । 'अजामिल की चलिग चल चूकी।' कवि० ७.८६ (२) चलइ । 'चल न ब्रह्म कुल सन बरिआई ।' मा० १.१६५.५ /चल, चलइ : (सं० चलति>प्रा० चलइ-गति करना, प्रस्थान करना, विचलित होना, काँपना) आ०प्रए । चलता-ती है । ‘पद बिनु चलइ सुनइ बिनु काना।' मा० १.११८.५ चलउँ, ऊँ : आ०उए० (सं० चलामि>प्रा० चलमि>अ० चलउँ)। चलता हूं, चलू । 'चलउँ भाजि तब पूप देखावहिं।' मा० ७.७७.१० चलत : वकृ०० (सं० चलत्>प्रा०चलंत) । चलता, चलते । मा० १.१२.२ चलति : चलत+स्त्री० । चलती। मा० २.१२३.५ । चलते : चलत+ब० । चलते थे, चला करते । 'जे चलते बहु छत्र की छाहीं।' कवि० ७.१३२ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 277 चलतो : क्रियाति० पु एक. यदि चलता.. तो । 'जों हौं प्रभु आयसु ले चलतो।" ____गी० ५.१३.१ चलदल : संपु० (सं.)। चञ्चल पत्तों वाला=पीपल वृक्ष । गी० १.६६.३ चलन : सं०० (सं.)। चलना । 'प्रान नाथ चाहत चलन ।' मा० २.१४६ चलनि, नी : सं०स्त्री० । चलने की क्रिया या रीति । 'राम बिलोकनि बोलनि चलनी।' मा० ७.१६.४ चलनु : चलन+कए० । चलना । 'प्रान' 'चलनु चहेरी।' गी० ५.४६.३ चलनो : चलनु । 'चलनो अब केतिक ।' कवि० २.११ चलब : भूक.पु । चलना (पड़ेगा)। 'चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना।' मा० २.६२.५ (२) चलना (होगी-चलेंगे) । 'जों न चलब हम कहें तुम्हारें।' मा० १.१६६.७ चलहि, हीं : आ०प्रब० (सं' चलन्ति>प्रा० चलंति>अ० चलहिं)। चलते हैं। 'ठुमुक-ठुमम प्रभु चलहिं पराई ।' मा० १.२०३.७ (२) विचलित होते या डिगते हैं । 'परम धीर नहिं चलहिं चलाए ।' मा० १.१४५.३ चलहिंगे : आ०भ००प्रब० । चलेंगे । 'बाहु जोरि कब अजिर चलहिंगे।' गी० २.५५.४ चलहु : आ०मब० (सं० चलत>प्रा० चलह>अ० चलहु) । चलो। 'बेगि चलहु सुनि सचिब जोहारे ।' मा० २.१८८.४ । चला : भूकृ०० (सं० चलित>प्रा० चलिअ)। मा० १.१७१.६ चलाइ : पू० (सं० चालयित्वा>प्रा० चलाविअ>अ० चलावि) । चला (कर)। 'दीन्हेहु कटकु चलाइ ।' मा० २.२०२ चलाइहि : आ० भ०प्रए । (सं० चाल.ष्यियति>प्रा० चलाविहिइ) । चलाएगी। 'अरुंधती मिलि मैनहि बात चलाइहि ।' पा०म० ७६ चलाई : (१) चलाइ । 'जल भाजन सब दिए चलाई।' मा० २.३१०.१ (२) भूकृ० स्त्री० । चालित की, फेंकी। 'बान संग प्रभु फेरि चलाई।' मा० ६.६१.४ (३) चालू की, आरम्भ कर दी, प्रचारित की। 'कायर कोटि कुचालि चलाई।' कवि० ७.१३० (४) मुद्रा चालू की। 'नाम राम रावरो तो चाम की चलाई है।' कवि० ७.७४ चलाए : भूकृ.पु.ब. (सं० चालित>प्रा० चलाविय)। मा० १.१४५.३ चलाकी : सं०स्त्री० । चालूपन, कुटिल चातुरी । 'ये अब लही चतुर चेरी 4 चोखी चालि चलाकी ।' कृ० ४३ । संस्कृत में चलाक प्रचलाक मोर या सर्प को कहते हैं अतः मोर के समान मधुर वाणी के साथ सर्प भक्षण का क्रूर व्यवहार तथा सर्प के समान गुप्त-विषतुल्य आचरण 'चलाकी' है । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 तुलसी शब्द-कोश चलायउ : भूकृ००कए० (सं० चालित:>प्रा० चलाविओ>अ० चलावियउ)। ___चालित किया। 'सचिवें चलायउ तुरत रथु ।' मा० २.८५ चलायहु : आ०-भ+आज्ञा-मब० । तुम चलाना । 'जाहु हिमाचल गेह प्रसंग चलायहु ।' पा०म० ७८ चलाये : चलाए। चलायो : चलायउ । 'अस कहि तरल त्रिसूल चलायो।' मा० ६.७४.६ चलावहिं : आ०प्रब० (सं० चालयन्ति>प्रा० चलावंति>अ० चलावहिं) । चलाते हैं । 'लंका सनमुख सिखर चलावहिं ।' मा० ६.५.६ चलावा : भूकृ०० (सं० चालित>प्रा० चलाविअ) । चलाया। मा० १.१५७.३ चलि : (१) पूकृ० (सं० चलित्वा>प्रा० चलिअ>अ० चलि)। चलकर । 'नहिं अचिरिज जुग जुग चलि आई।' मा० २.१६५.१ (२) आ० -आज्ञा-मए. (सं० चल>प्रा० चल>अ० चलि)। तू चल । 'चलि री आली देखन ।' कृ० २० (३) चली । 'चालि त्रिबिध बयारी ।' मा० ६.११६.७ चलिअ चलिए : 'अवसि चलिअ बन राम जहै।' मा० २.१८४ आ०-कवा० प्रए० (सं० चल्यते>प्रा० चलीआइ)। चला जाय, चलना चाहिए । 'रहि चलिए सुदर रघुनायक ।' गी० २.३.१ चलिबे : भकृ०पु० (सं० चलितव्य>प्रा० चलि अन्वय) । चलना । गी० २.३१.३ चलिय : चलिअ। चलिहउँ : आ०भ० उए० (सं० चलिष्यामि>प्रा. चलिहिमि>अ० चलिहिउँ) । चलूगा-गी। 'प्रात काल चलिहउँ प्रभु पाहीं ।' मा० २.१८३.२ चलिहहिं : आ०भ०प्रब० (सं० चलिष्यन्ति>प्रा० चलि हिंति>अ. चलिहिहिं) । चलेंगे। 'किमि चलिहहिं मारग अगम ।' मा० २.१२० चलिहि : आ०भ०प्रए० । (सं० चलिष्यति>प्रा० चलिहिइ)। चलेगा। 'तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू ।' मा० २.१८८.६ चलिहैं : चलिहहिं । 'प्रानी चलिहैं परमिति पाई ।' कृ० २५ चलिहै : चलिहि । कवि० २.१८ चलिही : आ०-भ०मब० (सं० चलिष्यथ>प्रा. चलिहिह>अ० चलिहिहु) । चलोगे-गी। क्यों चलिही मदु पद गज गामिनि ।' गी० २५.२ चली : भूकृ०स्त्री०ब० । मा० १.५२.४ चली : भूक०स्त्री०ए० । मा० १.३६.११ चलु : आo-आज्ञा-मए । तू चल । 'चलु देखिअ जाइ ।' कवि० २.२३ ५.लें : चलने पर, चलने से । 'बात चलें बात को न मानिबो बिलगु ।' कवि० ७.१६ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश चले : भूकृ०पु ं०ब० । चल पड़े । मा० १.४८.६ चलेउं : आ०भूकृ०पु० + उए । मैं चला । 'सिला देइ तहँ चलेउ पराई ।' मा० 279 ४.६.८ चलेउ, ऊ : भूकू०पु०कए० (सं० चलितः > प्रा० चलिओ > अ० चलियउ) । चला । 'चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना।' मा० ४.२३.१२ चलेसि : आ० - भूकृ०पु० + मए० | तू चला है । 'निर्भय चलेसि न जानेहि मोही ।' मा० ३.२६.११ चलेहुं : (१) चलने पर भी । 'चलेहुँ कुमग पग पहि न खालें ।' मा० २.३१५.५ (२) छिड़ने पर भी । 'चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूं ।' मा० १.१२७.८ चलें : चलहिं । चलते हैं । कवि० ६.७ चल : (१) चलइ | चले, चल सके । 'चले कि जल बिनु नाव ।' मा० ७.८६ ख (२) भकृ० । चलने । 'सकल चल कर साजहिं साजू ।' मा० २.१८५.५ चलेगो : आ०भ० पुं० प्र० । चलेगा । 'नाथ न चलंगो बलु ।' कवि० ५.८ चलो : (१) चल्यो । चला । 'हाट बाट हाटकु पिघिलि चलो ।' कवि० ५.२४ (२) चलहु । तुम चलो । 'अवलोकन तीरथराज चलो रे ।' कवि० ७.१४४ 1 चलौं : चलउ । चलू । 'नाथ चलों मैं साथ ।' मा० २.२६८ चलो : चलहु । चलो । 'चलो मराली चाल ।' दो० ३३३ चल्यो : चलेउ | चला । 'सनमुख चल्यो बजाइ ।' मा० ६.४६ चवँर : चँवर (सं० चमर > प्रा० चमर > अ० चर ) | पा०मं० ८७ / चव चवइ : (सं० च्यवते > प्रा० चवइ - टपकाना, स्राव करना) आ०प्र० । टपकाता है, टपकाए, चुवाए । 'बिधु बिष चवं स्रवे हिम अगी ।' मा० २.१६६.२ चर्चा, हीं : आ०प्रब० । (सं० च्यवन्ते > प्रा० चवंति > अ० चवहि ) । चुलाते हैं, गिराते हैं । 'लता बिटप मार्गे मधु चवहीं ।' मा० ७.२३.५ चव : चवइ । बहाए, चुलाए । 'वंदु चवै बरु अनल कन ।' मा० २.४८ चह : चहइ । 'जो नहाइ चह एहिं सर भाई ।' मा० १.३६.८ / चह, चहह, ई : (सं० स्पृहयति > प्रा० छिहइ — इच्छा या अपेक्षा करना, आशक्ति या संभावित होना) आ०प्र० । (१) इच्छा करता है । 'छल कीन्ह चहइ निज काजा ।' मा० १.१६०.६ ( २ ) आशङ्कित या संभावित है । 'यह निसिचर दुकाल सम अहई । कपि कुल देस परन अब चहई ।' मा० ६.७०.३ चहउँ, ऊँ : आ० उए० । चाहता हूं । 'कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा । मा० ५.२२.६ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 तुलसी शब्द-कोश चहत : वकृ.पु । चाहता, चाहते । 'चलन चहत अब कृपानिधाना ।' मा. ३.३१.४ चहति : वकृ०स्त्री० । चाहती। मा० २.२८ चहतु : चहत+कए । एक बार चाहता । 'ता को देखिए चहतु हौं।' कवि० १.१८ चहते : क्रियाति पु० ब० । यदि चाहते । 'जौं जप जाग जोग ब्रत बरजित केवल प्रेम न चहते।' विन० ६७.२ चहनि : सं०स्त्री० । चाहने की क्रिया (प्रेम) । 'तुलसी तजि उभय लोक राम चरन चहनि ।' गी० १.८१.३ चहसि, सी : आ०मए । तू चाहता है । 'महामंद मन सुख चहसि ।' मा० ३.३६ चहहिं, हीं : (१) आप्रब० । चाहते हैं । 'रामु चहहिं संकट धनु तोरा ।' मा० १.२६०.२ (२) आप्रब० । (हम) चाहते हैं । 'बिनु पंखन्हि हम चहहिं उड़ाना।' मा० १.७८.६ चहहु, हू : आ०मब० । चाहते-ती हो । 'केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू ।' मा० १.७८.३ चहिन, य : आ०कवा०प्रए । चाहिए अभीष्ट है । 'चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी।' मा० १.२८२.४ चहिबो : भकृ०पु०कए ० । अपेक्षित होगा। 'उतरिबो उदधि, न बोहित चहिबो।' गी० ५ १४.२ चहियतु : वकृ००-कवा०-कए । उचित होता । 'भरत की मातु को की ऐसो चहियतु है ।' कवि० २.४ | चहिहौं : आ०भ० उए । चाहूंगा । 'तउ फल चारिन चहिहौं ।' विन० २३१.२ चही : भूक-स्त्री० । चाही, अभीष्ट मानी । 'होइगी पै सोई जो बिधाता चित चही ___ है।' गी० २.४१.२ चहुं : चारों। 'चहुं जुग चहुं श्रुति नाम प्रभाऊ ।' मा० १.२२.८ चहु : चहुं । बाल चरित चहु बंधु के ।' मा० १.४० चहूं, चहू : चारोहीं । 'चितवति चकित चहुं दिसि सीता ।' मा० १.२३२.१ 'चहु ___ चतुर कहुं नाम अधारा ।' मा० १.२२.७ चहे : भूक.पुब० । इच्छा किये हुए । 'प्रान....''चलनु चहे री।' मा० ५.४६३ चहैं : चहहिं । चाह करते हैं । 'जो जेहि समय मुनि मन महुं चहैं।' मा० १.३२३ छं० १ चहै : (१) चहइ । चाहता है, चाह करे। 'सब संपदा चहै सिवद्रोही ।' मा० २.२६७.२ (२) चहसि । तू चाहता है, चाह करे । 'राम जपु जो भयो चहै सुपासी ।' विन० २२.६ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 281 च हैगो : आ०-भ०० -प्रए । चाहेगा। 'तोहि बिनु मोहि कबहूं न कोऊ चहैगो।' विन० २५६.४ चहौं : चहउँ । 'न नाथ उतराई चहौं ।' मा० २.१०० छं० चहौंगो : आ० भ०० उए । चाहूंगा । 'काहू सों कछु न चहौंगो।' विन० १७२.२ चहयो : भूकृ.पु.कए । चाहा । 'उतरु न देन चह्यो ह ।' गी० ४.२.३ चांकी : चाकी । भूकृ.स्त्री० । चक्रित कर दी, मुद्रित की, घेर दी। (खलियान की राशि को गोबर के मण्डल के समान) सुरक्षित कर दी। 'तिलक देख सोभा जनु चांकी।' मा० १.२१६.८ चांचार : सं०स्त्री० (सं० चर्चरी>प्रा. चच्चरी) । सामूहिक गीत विशेष, होली गीत । 'तुलसीदास चाँचरि मिस कहे राम गुनग्राम, गावहिं सुनहिं नारि नर ।' गी० २.४७.२२ चाँद : चंद । 'चाँद सरग पर सोहत ।' बर० १७ चाँदनि, नी : चंदिनि । ज्योत्स्ना । कवि० ७.१५८ चापि : पू० । (१) दबाकर, संवाहन करके । 'चरन चापि कहि कहि मृदु बानी।' मा० २.१९८.३ (२) अधिकार में कर। 'सीम कि चापि सकइ कोउ तासू ।' मा० १.२२६.८ चांपी : भूकृ०स्त्री० । दबायी । 'कुबरी दसन जीभ तब चांपी।' मा० २.२०.२ चाउ, ऊ : सं०'०कए० (सं० चायः- चाय पूजानिशामनयो:>प्रा० चाओ>अ० चाउ) । (१) चाह, स्ने हादर । 'राम चरन आश्रित चित चाऊ।' मा० २.२३५.८ (२) उत्साह । 'चमू को चाउ चाहि गो।' कवि० ६.२३ चाउर : सं०० (सं० तन्दुल>प्रा०चाउल)। चावल । कवि० ६.२४ चाकर : सं०० (फा०)। दास, किंकर । कवि० ७.६६.६७ चाकरी : सं०स्त्री० । चाकर का कार, दासता । कवि० ७.६७ चाका : सं०० (सं० चक्र = चक्रक>प्रा० चक्क = चक्कअ) पहिया । 'सौरज धीरज तेहि रथ चाका।' मा० ६.८०.५ चाखा : (१) भूकृ.पु । आस्वादित किया । (२) चाखइ। आ.प्रए । चखता है, भोगता है । 'जो जस करइ सो तस फल चाखा ।' मा० २.२१६.४ चाख्यो : भूकृ.पु०कए । चखा, स्वाद लिया। 'नाहिन रास रसिक रस चख्यो, ता तें डेल सो डारो।' कृ० ३४ चाटत : वकृ०० । चाटता, जीभ से लेता-खाता। 'चाटत रह्यो स्वान पातरि ज्यों।' विन० २२६.३ चाटि : पूकृ० । जीभ से लुप्त कर । 'जाहिंगे चाटि दिवारी को दीयो ।' कवि० ७.१७६ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 तुलसी शब्द-कोश चाटियत : वकृ०-कवा०-पु । चट किया जाता-चाटे जाते । 'आपने चना चबाइ हाथ चाटियत है।' कवि० ७.६६ चाड़ : सं०स्त्री० (सं० चाट>प्रा० चाड़)। हित, स्वार्थ । 'तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई।' मा० १.२६६.४ ('चाट' का मूल अर्थ वञ्च क है और 'चाटु' प्रशंसा. पर्याय है । हिन्दी में अर्थ बदला है ।) चातक : सं०० (सं.)। पपीहा, पक्षिविशेष । मा० १.२२७.६ चातकही : चातक को । 'दादुर चातकही-हँसहिं ।' मा० १.६.२ चातकि : चातकी । मा० २.५२ चातको : चातक+स्त्री० (सं.)। 'जन चातकी पाइ जल स्वाती।' मा० २.२६३.६ चातकु : चातक+कए ० । 'चातकु रटनि घटें घटि जाई ।' मा० २.२०५.४ चातुरी : (१) सं०स्त्री० (सं०) । निपुणता, कौशल । कृ० ४ (२) धूर्तता । 'चल न चातुरी मोरि ।' मा० ४.६ चाप : सं०० (सं०) । धनुष । मा० १.१७ चापत : वकृ०० (सं० चपत्>प्रा० चप्पंत) । दबाता, दबाते । 'चपत चरन लखनु उर लाएँ।' मा० १.२२६.७ चापन : भक० अव्यय । चापने, दबाने । 'लगे चरन चापन दोऊ भाई।' मा० १.२२६.३ चापमख : धनुर्यज्ञ (सीता-स्वयंवर) । मा० १.२२१ चापलता : सं०स्त्री. (सं० चपलता) । चञ्चलता । मा० २.३०४.१ चापा : चाप । 'रावन बान छुआ नहिं चापा ।' मा० १.२५६.३ चापि : पूकृ० । चाप कर, दबा कर । 'बोले बचन चरन चापि ब्रह्मड।' मा० १.२५६ चापु, पू: चाप+कए । एक मात्र धनुष । 'संकट चापु जहाजु ।' मा० १.२६१ चापें : चपने से, दबाने से । 'चारिहं चरन के चपेट चा चिपिटि गो।' कवि० ४.१ चापौंगी : आ०भ०स्त्री० ए० । दबाऊँगी। 'थाके चरन कमल चापौंगी।' गी. २.६.२ चाम : सं०पु० (सं० चर्म>प्रा. चम्म) । चमड़ा । वैरा० ३७ (२) चमड़े (का सिक्का) । 'नाम नरेस प्रताप प्रबल जग, जुग-जुग चालत चाम को ।' विन० ६६.४ चामर : चवर (सं.)। 'व्यजन चार चामर सिर ढरहीं।' मा० १.३५०.४ (चमर गाल सम्बन्धी व्यजन)। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 283 चामीकर : सं०० (सं०) । सुवर्ण । 'रसना रचित रतन चामीकर ।' गी० ७.१७.५ चामुडा : सं०स्त्री० (सं०) । चण्ड.मुण्ड दैत्यों का संहार करने वाली दुर्गा । मा० ६.८८.८ चाय : सं०० (सं०-चाय पूजानिशामनयोः)। आदर, स्नेह, ममता, लगाव । 'मान सनमान के जेवाए चित चाय सो।' कवि० ५.२५ (२) उल्लास, उत्साह । 'सखी, भूखे प्यासे पै चलत चित चाय हैं।' गी० २.२८.२ चार : सं०० (सं.)। (१) दूत =चर । 'चार चले ते रहूति ।' मा० २.२७१ (२) सेवक । 'स्वामी सरबग्य सो चले न चोरी चार की।' विन० ७१.४ (३) चाल गति । 'पदचार' गी० २.४१.३ (४) सद्गति । 'लोभी जसु चह चार गुमानी ।' मा० ३.१७.१६ (५) आचरण करने वाला । 'जे अपकारी चार मा० ७.६८ ख चारा : सं०० (सं० चार =चर भक्षणे+घन)। पशु पक्षियों का भोज्य । 'चारा चाषु बाम दिसि लेई ।' मा० १.३०३.२ चारि : संख्या (सं० चत्वारि>प्रा० चयारि) । चार मा० १.२ चारिउ : चारों ही । 'जहँ खेलहिं नित चारि उ भाई।' मा० ७.७६.३ चारिक (चारि+इक) । चतुष्टय, एकीभूत चार का समूह । 'कनक बिंदु दुइ चारिक देखे।' मा० २.१६९.३ चारिखो : (दे० खो) । चार का । 'दूजो को कहैया औ सुनया चख चारिखो।' कवि० १.१६ चारिदस : संख्या । चौदह । मा० २.१.२ चारिहुं : चारोंही । 'लगे भालु कपि चारिहुं द्वारा ।' मा० ६.७८.३ चारिह : चारिहुं । 'चारिहु बिधि तेहिं कहि समुझावा।' मा० ४.१६.२ चारी : (१) चारि । चार (संख्या)। 'करतल होहिं पदारथ चारी।' मा०. १.३१५.२ (२) वि० (सं० चारिन्) । विचरण करने वाला या वाली। 'सुरसर सुभग बनज बन चारी।' मा० २.६०.५ चार : वि० (सं.)। (१) पवित्र । चित्रकूट चित चारु ।' मा० १.३१ (२) मनोहर _ 'पुरइनि सघन चारु चौपाई ।' मा० २.३७.४ चारुतर : अतिशय चारु, अत्युत्तम । मा० ७.१४.छं ३ चारू : चारू । · अमिअ मूरिमय चूरन चारू ।' मा० १.१.२ चारों : चार्यो, चारिहुं । 'तुलसी फल चारों करतल ।' विन० ३१.६ चारो : (१) चारों । 'जागत चारो जुग जाम सो।' विन०१५७.४ (२) सं०० Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 तुलसी शब्द-कोश (फा० चार:- सं० चार=गति) । उपाय, उपचार, दवा, मार्ग । 'कहा करम सों चारो।' कृ० ३४ चार्यो : चारिउ । चारों । 'चिरू जिअहुं जोरी चारु चार्यो।' मा० १३७.छं० ४ चाल : चालि (सं.)। गति, छलना आदि । 'चेरी की चाल चलाकी ।' कवि० ७.१३४ चालक : वि० (सं०) । चलाने वाला, विचलित करने वाला, डिगाने वाला। 'पारवती मन सरिस अचल धनु चालक ।' जा०म० ६३ चालत : वकृ०पु० (सं० चालयत्>प्रा० चालंत) । चलाता, चलाते । 'नाम नरेस प्रताप प्रबल जग जुग-जुग चालत चाम को।' विन० ६६.४ चालति : वकृ०स्त्री० । चलाती । 'चालति न भुजबल्ली।' मा० १.३२७ छं० चालहिं, हीं : आ०प्रब० (सं० चलयन्ति>प्रा० चालेंति>अ० चालहिं) । चलाते-ती हैं । 'घर की न चरचा चालहीं।' गी० १.५.६ चालहि, ही : आ०मए० (सं० चालय>प्रा. चालहि)। तू चला। 'जनि बात दूसरि चालही।' मा० २.५०.छं चालि : सं०स्त्री० (सं० चाल) (१) गति । "चाटिन बिलोकि मत्त गज लाजहिं ।' मा० १.३१८.४ (२) धूर्तता, कुटिल चाल । 'अब ये लही चतुर चेरी पै चोखी चालि चलाकी ।' कृ० ४३ (प्राकृत में 'चल्ली' एक प्रकार की नृत्यगति को कहते हैं जिसमें नर्तक नाचते-नाचते दर्शक को चकमा देकर घूम जाता है; इसी का उक्त अर्थ में लाक्षणिक प्रयोग है।) (३) स्वभाव । 'नीति औ प्रतीति प्रीतिपाल चालि प्रभु ।' कवि ७.१२२ चाली : चालि । गति, आचरण । 'सीलु सनेहु सरिस, सम चाली।' मा० २.२२२.२ चालु : (१) चाल+कए । 'पीरे पट ओढ़े चले चारु चालु ।' गी० १.४२.२ (२) आ०-आज्ञा-मए । तू चला, आरम्भ कर । 'चरचा न दूसरी चालु ।' विन० १९३.७ चाष : संपु० (सं०) । नीलकण्ठ पक्षी । दो० ४६० चाष : चाष+कए ० । एक नीलकण्ठ (कटनास) । 'चारा चाषु बाम दिसि लेई।' मा० १.३०३.२ चाह : सं०स्त्री० (सं० चाया-चाय पूजानिशामनयोः) । इच्छा, अपेक्षा, खोज, आदर । 'करिहहिं चाह कुसल कवि मोरी।' मा० २.१२.७ (२) प्रेम, स्नेह, आसक्ति, राग । 'निगम अगम साहेब सुगम राम सांचिली चाह ।' दो० ८० (३) समाचार, हालचाल, सन्देश । 'कोउ सखि नई चाह सुनि आई ।' कृ० ३२ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसो शब्द-कोश 285 चाहउ': (दे० चाह) आ०ए० । चाहता-ती-हूं । 'चाहउँ तुम्हहि समान सुता' मा० १.१४६ चाहत : वकृ००। चाहता-ते । (१) इच्छा करता। 'बैठो सकुचि साधु भयो चाहत ।' कृ० ३ (२) स्नेह करते । जेहि चाहत नर नारि सब ।' मा० २.५२ (३) संभावित या आशङिकत होता । 'सोहिं, चाहत होन अकाजू ।' मा० २ २६५.१ चाहति : चाहत+स्त्री० । 'चरन कमल रज चाहति ।' मा० १.२१० चाहन : भकृ० अव्यय । खोजने । 'फल चाहन चली।' गी० ३.१७.१ चाहसि : आ०भए० । तू चाहता है । 'जौं चाहसि उजिआर ।' मा० १.२१ चाहहिं : आ० प्रब० । चाहते हैं। (१) इच्छा करते हैं। 'राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई ।' मा० १.१२८.१ (२) देखते हैं। 'मधुर मनोहर मूरति चाहहिं ।' जा० मं० २० चाहतु : आ०मब० । चाहते या चाहती हो। 'चाहहु सुन राम गुन गूढा ।' मा० १.४७.४ चाहा : (१) चाह । 'हरिपद बिमुख परम गति चाहा।' मा० १.२६७.४ (२) चाहइ । इच्छा करता है । जिमि पिपीलिका सागर थाहा । महा मंदमति पावन चाहा।' मा० ३.१.६ (३) भूकृ.पु । इच्छा की। 'कथा आरंभ करें सोइ चाहा ।' मा० ७.६३.५ (४) देखा (सतृष्ण अवलोकन किया) । ‘सीय चकित चित रामहि चाहा ।' मा० १.२४८.७ चाहि : (१) चाह । 'जाके मन ते उठि गई तिल-तिल तुस्ना चाहि ।' वैरा० २६ (२) पूक० । देखकर । 'लेहि दस सीस अब बीस चख चाहि रे ।' कवि० ५.१६ (३) तुलना में लेकर, अपेक्षाकृत । 'कुलिसटु चाहि कठोर अति कोमल __ कुसुमहुं चाहि ।' मा० ७.१६ ग चाहिम (य) : चाहिऐ । अभीष्ट है । 'चाहिअ सदासिवहि भरतारा।' मा० १.७८.७ चाहिऐ, ये : आ०कवा०प्रए । अभीष्ट है, अपेक्षित होता है । 'मुखिआ मुख सो चाहिए।' मा० २.३१५ चाही : चाहि । (१) देख कर । 'अस मानस-मानस चख चाही । भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही।' मा० १.३६.६ (२) तुलना में लेकर (अपेक्षाकृत)। 'मरनु नीक तेहि जीवन चाही ।' मा० २.२१.२ चाहु : आ० आज्ञा– भए । तू चाह, देख । 'चारि परिहरें चारि को दानि चारि चख चाहु ।' दो० १५१ चाहें : देखने से, देख कर । 'चकोट चाहें, हहरानी फौज महरानी जातुधान की।' कवि० ६.४० Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 नुलसी शब्द-कोश चाहे : भूकृ००ब० । (१) अभीष्ट माने, अपेक्षित किये । 'दिए उचित जिन्ह जिन्ह तेइ चाहे ।' मा० ७.५०.४ (२) चाहें । देखने पर । 'चाहे चकचौंधी लागे।' गी० २.२०.३ चाहैं : चाहहिं । 'बहुरो भरत कह्यो कछु चाहैं ।' गी० २.७३.१ चाहै : चाहइचहइ । इच्छा करे । 'जौं आपन चाहै कल्याना।' मा० ५.३८.५ चाहौं : चाहउँ । 'कही चाहौं बात ।' गी० १.७२.२ चिचिनी : सं०स्त्री० (सं०) । इमली। विन ० ३३.२ चित : चिंता। सारसंभाल । 'सो करउ अघारी चिंत हमारी।' मा० १.१८६ छं० चितत : वकृ०० (सं० चिन्तयत् >प्रा. चितंत)। स्मरण या ध्यान करते । ___ 'सारद सेस संभ निसि बासर चितत रूप।' गी० १.१०८.१० चितहिं : आ०प्रब० (सं० चिन्तयन्ति>प्रा० चितंति>अ० चितहिं) । ध्यान में लाते हैं । 'जेहि चिंतहिं परमारथबादी ।' मा० १.१४४.४ चिता : चिन्ता से । 'चिंता जर छाती।' मा० ४.१२.३ चिता : सं०स्त्री० (सं.)। (१) सारसँभाल, रक्षाव्यवस्था (दे० चित) । (२) सोच, खुटका, मानसिक अस्थिरता । 'चिंता अमित जाइ नहिं बरनी।' मा० १.५८.१ (३) उधेड़ बुन, उलायन । 'गाधि तनय मन चिंता ब्यापी।' मा० १.२०६.५ (४) चिन्तइ । सोच-विचार कर रहा है । 'कह गए नृप किसोर मनु मनु चिंता।' मा० १.२३२.१ (५) ध्यान (व्यवस्था का भार)। 'चिंता गुरहि नपहि घर बन की।' मा० २.३१५.१ चितामनि : सं०स्त्री० (सं० चिन्तामणि) । (१) स्वर्ग की एक मणि जिससे अभीष्ट वस्तु की तत्काल प्राप्ति बताई गयी है। (२) ध्यान रूपी मणि, मणितुल्य प्रकाशकारी ध्यान । 'रामचरित चिंतामनि चारु ।' मा० १.३२.१ चिउरा : सं०पू० (सं० चिपिट>प्रा० चिविड) । उबले या भुने धान कूटकर बनाया हुआ विशेष चबेना, पोहा । मा० १.३०५.६ चिकनाई : सं०स्त्री० (सं० चिक्कणता>प्रा० चिक्कणया)। स्निग्धता । जिमि खगपति जल के चिकनाई ।' मा० ७.८६.८ चिकने : वि०पु०ब० (सं चिक्कण) । स्निग्ध । 'चिकने राम सनेह ।' दो० ६१ । 'चिकार, रा : सं०० (सं० चीत्कार>प्रा० चिक्कार)। (१) चिंघाड़ । 'तब धावा करि घोर चिकारा ।' मा० ६.७६.६ (२) नादविशेष का समूह । 'गजरथ तुरग चिकार कठोर ।' मा० ६.८७.४ (३) ची-ची ध्वनि । 'परेउँ भूमि करि घोर चिकारा ।' मा० ४.२८.४ चिकुर : सं०पु० (सं०) । केश । गी ० ७.५.३ चिकुरावली : सं०स्त्री० (सं.) । केशकलाप । गी० १.२५.५ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 287 चिक्कन : वि० (सं० चिक्कण) । स्निग्ध । मा० १.१६६.१० चिक्करत : वकृ०० (सं० चीत्कुर्वत् >प्रा० चिक्करंत)। (१) चिंघाड़ते । 'गज चिक्करत भाजहिं ।' मा० ६.७८ छं० (२) चीखतें, चीं-ची ध्वनि करते ।' 'चिक्करत लागत बान ।' मा० ३.२०.१० चिक्करहिं : आ०प्रब० (सं० चीत्कुर्वन्ति>प्रा० चिक्करंति>अ.चिक्करहिं) । चीत्कार करते हैं, चिंघाड़ते हैं। चिक्करहिं दिग्गज ।' मा० १.२६१ छं० (२) चिखते हैं, चिचियाते हैं । 'चिक्करहिं मर्कट भालु । मा० ६.८१ छं० १ चिक्करहीं : चिक्करहिं । मा० ५.३५.१० चिच्छाक्ति : (चित्+शक्ति-सं०)। चैतन्य, जीव, पुरुष तत्त्व । विन० ५४.२ चित : (१) चित्त । मा० १.३ क (२) सं० स्त्री० (सं० चित्) । चैतन्य, आत्मा । 'सीतानाथ नाम नित चितहू को चितु है।' विन० २५४.३ चितइ : (१) पू० (सं० चित्रयित्वा>प्रा० चित्तविअ>प्रा० चित्तवि)। विस्मय पूर्वक देख कर, ताक कर । 'प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि ।' मा० १.२५८ (२) चिनई ।। देखी । 'तुलसी प्रभु सुग्रीव की चितइ न कछू कुचालि ।' दो० १५७ चितइए, ये : आ०कवा०प्रए० (सं० चिन्यते>प्रा. चित्तवीअइ)। देखिए । 'जो चितवनि सौंधी लगे, चितइये सबेरे ।' विन० २७३.३ चितइहो : आ०भ०मब० (सं० चित्रयिष्यथ>प्रा० चित्तइहि>अ० चित्तइहिहु)। देखोगी। 'तुम अति हित चितइही नाथ तनू ।' गी० ५.५१.६ चितई : भूकृ०स्त्री.<सं० चित्रिता>प्रा. चित्रविआ)। देखी। चितइ सीय कृपायतन ।' मा० १.२६० चितए : भूकृपु०ब० । देखे । 'जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे ।' मा० २.२१७.१ चितग्रंथि : सं०स्त्री० । चित्त की गांठ, मनोग्रन्थि, कुण्ठा (जो मन की असामान्य निम्न अवस्था है); अनाचार की ओर ले जाने वाली मनोवृत्ति (जिसे मानस शास्त्र तथा दर्शन में गहित माना गया है)। 'भ्रमित पुनि समुझि चितग्रंथि अभिमान की।' विन० २०६.४ चितष्टत्ति : सं०स्त्री० (सं० चित्तवृत्ति)। अन्तःकरण के व्यापार--(१) मनो व्यापार = संकल्प-विकल्प, मनोवेग; (२) अहंकार-वृत्ति =बोध के साथ 'अहं' का केन्द्रीभूति प्रत्यय; (३) बुद्धि =निश्चयात्मक बोध व्यापार । विषयों के प्रति चित्त की प्रतिक्रियाओं का समवायात्मक व्यापार । विन० ५६.३ बिबिध चितवृत्ति खग निकर श्येनोलूक काक बक गृध्र आमिष अहारी । वृत्तयः पत्यतच्यः क्लिष्टाः आबिलष्टा। प्रमाण-विपर्चम-विकल्प-निद्रा-स्मृतयः। योग १.५-६ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 तुलसी शब्द-कोश ('चित्त' उक्त तीनों- मन, अहंकार और बुद्धि की समदशा है जिसकी विषमता तीन व्यापारों में प्रकट होती है।) चितभंग : सं.पु० (सं० चित्तभङ्ग)। (१) चित्त की टूटन, समूचे अन्त:करण मन अहंकार और बुद्धि-की शक्तियों का भङ्ग उत्साह की पूर्ण हानि+ (2) वदरिकाश्रम के मार्ग की एक पर्वतमाला जो यात्रियों का उत्साह भङ्ग करती है (चित्त को तोड़ देती है) । 'मान मनभंग, चितभंग मद, क्रोधलोभादि पर्वत दुर्ग ।' विन० ६०.६ चितय : आ० भूकृ०पु०+उए । मैंने देखा ।' चितयउँ आँखि उधारि ।' मा० ७.७६ क चितयउ : भूकृ०पु०कए० । देखा । 'नपु चितयउ आँखि उधारि ।' मा० २.१५४ चितव, चितवइ : (सं० चित्रयति>प्रा० चित्तवइ-विस्मय आदि से देखना, ताकना) आ० प्रए । साश्चर्य देखता है या देखती है । 'चकित चितव मुदरी पहिचानी।' मा० ५.१३.२ चितवत : वकृ०० (सं० चित्रयत्>प्रा. चित्तवंत)। (१) देखता, देखते । 'चितवत चकित धनुष मखसाला।' मा० १.२६८.६ (२) देखते ही। 'चितवत कामु भयउ जरि छारा ।' मा० १.८७.६ चितवति : चितवत+स्त्री० । देखती। चितवति चकित चहूँ दिसि सीता ।' मा० १.२३२१ चितवनि : सं०स्त्री० (सं० चित्रण>प्रा० चित्तवण) । ताकने या देखने की क्रिया जिसमें विस्मय का चित्र रंग हो । 'चितवनि चारु मार मन हरनी।' मा० १.२४३.३ चितवनियां : चितवनि+ब० । चितवने । गी० १.३४.५ चितवनिहारा : वि.पु । देखने वाला, ताकने वाला (दृष्टि डालने वाला)। 'को प्रभुसँग मोहि चितवनिहारा।' मा० २.६७.७ चितर्वाह : आ०प्रब० (सं० चित्रयन्ति >प्रा० चित्तवंति>अ० चित्तवहिं) देखते-ती. हैं । 'जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना ।' मा० १.५४.६ चितवा : भूकृ.पु । ताका, साश्चर्य निहारा। 'फिरि चितवा पाछे प्रभु देखा।' मा० १.५४.५ चितवै : चितवहिं । ताकते हैं । 'मृग चौंकि चकै चितवं चितु दै।' कवि० २.२७ चितहि : चित्त को । 'चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं ।' मा० १.२१६.७ चिता : सं०स्त्री० (सं.)। शवदाह की काष्ठ रचना विशेष । मा० २.१७०.४ चितु : चित+कए । अन्तःकरण । 'रघुपति पद सरोज चितु राचा।' मा० १.२५६.४ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 289 चितरें : सं०० कर्त कारक (सं० चित्रकरेण>प्रा० चित्तयरेण>अ० चित्तयरें)। चित्रकार द्वारा । 'चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें।' मा० १.२१३.५ चितेरे : (१) सं००ब० (सं० चित्रकरा:>प्रा० चित्तयरा)। चित्रकार । (२) वि.पुब. (सं० चित्रीकृता>प्रा० चित्तयरिया)। चित्रित, चित्र में उरेहे हुए । 'रहे नर नारि ज्यों चितेरे चित्रसार हैं।' कवि० २.१४ चितेरो : सं०+वि.पु.कए० (सं० चित्रकर:>प्रा० चित्तयरो)। चित्रकार । पिय चरित सिय चित चितेरो लिखत नित हित भीति ।' गी० ७.३५.४ चित : (१) चितइ । देखकर। 'सैल सिखर चढ़ि चित चकित चित अति हित बचन ___ कह्यो बल भैया ।' कृ० १६ (२) आ०-आज्ञा-मए० । तू देख । 'प्रात काल रघुबीर बदन छबि चितै चतुर चित मेरे ।' गी० ७.१२.१ चिते हैं : आ.भ.प्रब० । देखेंगे । 'बार-बार प्रभु तम्हहि चित हैं।' गी० ५.५१.६ चितहौं : आ०भ० उए० । देखूगा । 'भूलि न रावरी ओर चितहौं ।' कवि० ७.१०२ चितही : आ०भ०मब० । देखोगे । 'रघुबीर मोहू चितैहो ।' विन० २७०.१ । चितौ : आ० आज्ञा-मए । तू देख । 'नेकु सुमुखि चितलाइ चितो री।' गी० १.७७.१ चित्त : सं०० (सं.)। अन्तःकरण =संकल्पात्मक मन, अभिमानात्मक अहंकार और निश्चयात्मक बुद्धि का समवेत सम स्वरूप । शैवदर्शन में चित्त प्रकृति पर्याय है जो उक्त तीनों की साम्यावस्था है-तीनों अन्तःकरण चित्त में एकीभूत रहते हैं; विषय की प्रतिक्रिया के रूप में तीन व्यापार हो चलते हैं जो मन, अहम् और बुद्धि कहलाते हैं जो क्रसशः राजस, तामस तथा सात्त्विक हैं । 'अहंकार सिव, बुद्धि अज, मन ससि, चित्त महान् ।' मा० ६.१५ क चित्तनि : चित्त+सं०ब० । चित्तों (में) । हनु० ४ । चित्र : (१) सं०० (सं.)। आलेख्य । मा० १.२६० (२) आश्चर्य, विस्मयपूर्ण दश्य । 'खगमग चित्र बिलोकत बिच-बिच ।' गी० १.५५.५ (३) वि० । चित्रपर्ण, विविध रंगों से युक्त । 'चित्र चारु चौंके रचीं।' गी० १.६.७ चित्रकूट : सं०० (सं०) । विविध रंगों से युक्त विस्मयजनक शिखरों वाला= पर्वत विशेष । मा० १.३१ चित्रकेतु : एक निशाचर का नाम । मा० १.७६.२ चित्रलिखित : चित्र में बनाया हुआ। 'चित्रलिखित कपि देखि डेराती।' मा० २.६०.४ चित्रसार : चित्रसाला । कवि २.१४ चित्रसाला : सं०स्त्री० (सं० चित्रशाला) । वह शाला जिसमें चित्र बने हों। मा० ७.२७ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 तुलसी शब्द-कोश चित्रित : भूकृ०वि० (सं०) । चित्र किया हुआ । 'चित्रित जनु । रतिनाथ चितेरें ।' मा० १.२१३.५ चिदबिलास : सं०० (सं० चिद्विलास)। चैतन्य का विलास, आत्मतत्त्व का प्रसार । परमात्मा का प्रपञ्च रूप में लीला विस्तार । विन० १२४.५ चिदानंद : (चित्+आनन्द) । चैतन्य तथा आनन्द । 'चिदानंद सुखधाम सिव ।' मा० १.७५ चिदानंदमय : चैतन्य तथा आनन्द गुणों से परिपूर्ण। मा० २.१२७.५ चिदानंद : चिदानंद+कए । चैतन्य तथा आनन्द कल्याण गुणों वाला=ब्रह्म । 'चिदानंदु निरगुन गुनरासी ।' मा० १.३४१.६ चिनमय : वि० (सं० चिन्मय)। चैतन्यस्वरूप, चैतन्यपूर्ण । 'राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी।' मा० १.१२०.६ चिन्तक : वि०० (सं०) । ध्यान करने वाला । मा० ७ श्लो० १ चिन्ह : सं०० (सं० चिह्न>प्रा. चिण्ह) पहचान, लक्षण । 'द्विज चिन्ह जनेउ ।' मा० ७.१०१.७ चिन्हारी : सं०स्त्री० (सं० चिह्नकारि:>प्रा० चिण्हारी)। परिचयक्रिया। ___ 'असमय जानि न कीन्हे चिन्हारी।' मा० १.५०.२ चिपिटि : पूकृ० । चिपटा हो (कर) । 'चारिइ चरन के चपेट चा चिपिटि गो।' कवि० ४.१ चिबुक : सं०पु० (सं.) । ठोड़ी, ठुड्डी । मा० १.१४७.१ चिया : सं०स्त्री० । फली (इमली आदि की) । विन० ३३.२ चिर : अव्यय (सं.)। बहुत समय, सदा। 'सकल तनय चिर जीवहुं ।' मा० १.१६६ चिरजीबी : वि०० (सं० चिरजीविन्) । दीर्घायुष्म। मा० २.२८६.७ चिराना : भू००० (सं० चिरायित >प्रा. चिराण)। अधिक समय ठहरा हुआ । 'सुखद सीत रुचि चारु चिराना ।' मा० १.३६.६ /चिराव, चिरावइ : (सं० चिराययति-चिरि हिंसायाम् +प्रेरणा>प्रा. चिरावइ-चीरा लगवाना, शल्यक्रिया करवाना) आ० प्रए० । चीरा लगवाता ती-है । 'मातु चिराव कठिन की नाईं।' मा० ७.७४.८ चिरु : क्रि०वि० (सं० चिरम् >प्रा. चिरं>अ० चिरु) । सदैव, बहुत समय तक । 'चिरु जीवहुं सुत चारि ।' मा० १.२६५ चोखा : भू००० (प्रा० चक्खिअ)। चखा, स्वाद लिया। 'डारि सुधा विषु चाहत चीखा ।' मा० २.४७.३ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश चीठी : सं० स्त्री० । चिट्ठी, पत्र । 'राम लखन उर कर बर चीठी ।' मा० १.२६०.५ चीठे : सं०पु०ब० । चिट्ठ े, परवाने, आदेशपत्र ( उच्चपद के ) नियुक्ति पत्र | ' नाम की लाज राम करुनाकर केहि न दिए कर चीठे ।' विन० १६६.३ चीत, ता : चित्त । 'जा को हरि बिनु कतहुं न चीता ।' वैरा० १४ चीन्हा : ( १ ) चिन्ह । लक्षण, प्रतीक | 'मन कपटी तन सज्जन चीन्हा ।' मा० १.७६.४ (२) भूकृ०पु० । पहचाना, चिन्हों से जाना । 'नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा । मा० १.२८२.२ चीन्ही : पूकृ० । पहचान कर । 'हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही ।' मा० ४.२.७ चीन्हें: पहचान लेने पर । 'कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हें ।' 'मा० ७.११२.३ चीन्हे : भूकृ०पु०ब० । पहचाने, लक्षित किये । 'तिन्ह कहं कहिअ नाथ किमि चीन्हे |' मा० १.२६२.३ चीन्हो : चीन्ह्यो । ( १ ) पहचाना, लक्षित किया । १५ (२) पहचान में आया हुआ । 'चीन्हो २६६.४ 'चीन्हो री चोर जिय 291 सुभाय तेरो ।' कृ० मारिहै ।' विन० चीन्हयो : भूकृ०पु० कए० । पहचाना, जाना । 'तं तउ न चीन्ह्यो । कवि ६.१८ चोर : सं०पु० (सं० ) ( १ ) वस्त्र | मा० १.२६२ ( २ ) वस्त्रखण्ड | 'पहिरे बलकल चीर ।' मा० २.१६५ चीरा : चीर । मा० १.१०६.६ चोरि : पूकृ० । चीरकर, फाड़कर । 'चीरि कोरि पचि रचे सरोजा ।' मा० १.२८८.४ चीरी : सं० स्त्री० (सं० चीरि, चीरिका = झींगुर ) । पतिंगा । 'चीरी को मरनु खेल बालकन को सो है ।' हनु० २६ ( बच्चे पतिंगे को तांगे में बाँध कर खेलते हैं ।) चुंबत वकृ०पु० (सं० चुम्बत् > प्रा० चुबंत ) | चूमता चूमते । 'धवल धाम ऊपर नभ चुंबत ) ।' मा० ७.२७.७ चुबति : चुंबत + स्त्री० । चूमती । 'मुख चुं बति माता । मा० २.५२.३ चुआ : चौपाया ( ? ) । चारु चुआ चहुं ओर चलें ।' कवि० ७.१४३ चुक, चुक : (सं० च्युत्करोति > प्रा० चुक्कइ — चूकना, हुचना, लक्ष्य का असफल रह जाना) आ०प्र० । चूकता - ती है । 'चुकइ न घात मार मुठभेरी ।" मा० २.१३३.४ चुकाहीं : आ०प्रब० । चूकते हैं, अवसर खोते हैं । 'तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं ।" मा० २.४२.४ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292 तुलसी शब्द-कोश चुकें : समाप्त होने पर, चूक जाने पर, खोदने के बाद । 'समय चुके पुनि का पछिताने ।' मा० १.२६१.३ चुके : चुर्के । 'चुके अवसर मनहुं सुजनहि सुजन सनमुख होइ।' गी० ५.५.४ चुके : चुकइ । चूक जाय । 'अवसर कौड़ी जो चुके, बहुरि दिएं का लाख ।' दो० ३४४ चुचाते : वकृ००ब० । अतिशय स्राव करते, धारा बहाते । 'झूमत द्वार अनेक मतंग जंजीर जरे मद अंबु चुचाते ।' कवि० ७.४४ चुचुकारि : पूकृ० । चू-चू ध्वनि करके। (१) बालक को दुलराने की ध्वनि । गी १.११.२ (२) पशु को रोकने की ध्वनि । 'उतरि-उतरि चुचुकारि तुरंगनि सादर जाइ जोहारे ।' गी० १.४६.१ चुचकारे : भूकृ००ब० । मुख ध्वनि विशेष से दुलराए हुए । गी० २.८७.२ चुटकी : सं०स्त्री० । अंगुलियों से की हुई ध्वनि विशेष-चुटचुटाहट । 'किलकि किलकि नाचत चुटकी सुनि ।' गी० १.३२.५ /चन, चनइ : (सं० चिनोति>प्रा. चुणइ-बीनना, चयन करना या चुगना) आ०प्रए । चुनता-ती है । 'मुकुताहल गुनगन चुनइ ।' मा० २.१२८ चुनि : पूकृ० । चुनकर, चयन करके । मा० ३.१.३ चुनिन : चुनी+संब० । चुनियों, जड़ाव की मूल्यवान् कणिकाओं । 'कनक चुनिन सों लसित नहरनी लिए कर हो।' रा०न० १० (सं० 'चूणि' मूलत: चूर्ण-पर्याय है । परन्तु उससे निष्पन्न 'चुन्नी' या 'चुनी' सोने-चांदी आदि के उन दोनों का अर्थ आता है जो जड़े जाते हैं। उन दोनों से युक्त गोटे को भी 'चुनी' कहा जाता है।) चुनौती : सं०स्त्री० (सं० चय+पत्री>प्रा० चुणवत्ती)-लड़ाई के लिए चयन करने की चिट्ठी, ललकार, आह्वान । 'ताके कर रावन कहुं मनहुं चुनौती दीन्हि ।' मा० ३.१७ चप : (१) वि० (सं० चुप-चुप मन्दायां गतो)। मौन, वाचंयम । 'चुपहिं रहे रघुनाथ सकोची।' मा० २.२७०.३ (२) सं०स्त्री० । चुप्पी । 'देखि दसा चुप सारद साधी ।' मा० २.३०७.२ चुपकि : पूकृ० । चुप्पी साध कर, मौन होकर । 'चुपकि न रहत, कह्यो कछु, चाहत ।' कृ० ११ चुपचाप : वि०+क्रि०वि० (सं० चुप मन्दायां गतौ+चप सान्त्वने) । मौन शान्त । सब चुपचाप चले मग जाहीं।' मा० २.३२२.२ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 293 चुपरि : पू० । चुपड़कर । (१) घी आदि से स्निग्ध करके । 'रोटी चिकनी चुपरि के तू दे री मैया।' कृ० २ (२) तेल लगाकर । 'चुपरि उबटि अन्हवाइ के।' गी० १.१०.१ Vचुव चुवइ : (सं० श्चोतते>प्रा०चुअइ-चूना, टपकना, स्राव करना) ___ आ०प्रए । चूता है, टपकती है । 'बोलत बोल समृद्धि चुवै ।' कवि० ७.१८० चुवत : वकृ.पु । चूता, चूते । 'जलकन चुवत लोचन चारु ।' कृ० १४ चुवन : भूकृ. अव्यय । चूने , टपकने । 'लागे लोचन चुवन ।' गी० ५.४८.२ चुवाइ : पूकृ० (सं० श्चोतयित्वा>प्रा. चुआइअ>अ० चुआइ) । रस टपकाकर । _ 'सुचि बचन कहैं चुवाइ ।' कवि० ७.११६ चूक : सं०स्त्री०। (१) भूल । 'छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी ।' मा० २.१६.८ (२) दोष, अपराध । 'रहति न प्रभु चित चूक किए की।' भा० १.२६.५ चूका : भूकृ०० (सं० चुत्कृत>प्रा० चुक्कअ)। चूक गया, खो बैठा । 'अहह मंद _मैं अवसर चूका।' मा० २.१४४.६ चूकिबो : भक०पु०कए । चूकना, खो देना । 'औसर को चूकिबो सरिस न हानि।' गी० ५.७.२ चूकी : चूक । 'अजामिलकी चलिग चल चूकी।' कवि० ७.८६ चूको : भूकृ००कए० । चक गया। 'कलिकाल कराल न चूको।' कवि० ७.६० चूडाकरन : सं०० (सं० चूडाकरण) । चौलकर्म, बालक का मुण्डन संस्कार । मा० १.२०३.३ चूडामनि : सं० स्त्री० । (१) शिरोभूषण विशेष । मा० ५.२७.२ (२) शिरोमणि __ =श्रेष्ठ । 'उदार-चूड़ामनि ।' विन० १८५.६ चूनरी : सं०स्त्री० । नव बधू का परिधान विशेष । गी० १.१०५.३ चूमि : पूकृ० (सं० चुम्बित्वा>प्रा० चुबिअ>अ० चुबि)। चूमकर, चुम्बन लेकर । गी० १.११.२ चूरन : सं०पू० (सं० चूर्ण) । (१) धूलि । विन० ३१.४ (२) धूलि बनाया हुआ ___ औषध । 'अमिअ मूरिमय चूरन चारू ।' मा० १.१.२ चेटक : सं०० (सं.)। (१) दास, कर्मचारी (२) जार, उपपति (३) बाजीगर । 'नटुज्यों जनि पेट कुपेटक कोटिक चेटक कौतुक ठाट ठटो।' कवि० ७.८६ (चेटक कौतुक =इन्द्रजाल) चेटकी : सं०स्त्री० । चेटक कौतुक । इन्द्रजाल । कवि० ७.६६ चेटुवा : सं०० । अण्डे से निकला नवजात शिशु । 'अंड फोरि कियो चेटुवा ।' दो० ३०३ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 तुलसी शब्द-कोश चेत : सं०० (सं० चेतस्) । संज्ञा, बोध, होश (स्मरण) । 'भ्रम बस रहा न चेत ।' मा० १.१७२ चेतन : वि० (सं.)। चेतनायुक्त । जे जड़ चेतन जीव जहाना।' मा० १.३.४ चेतनहिं : चेतन में । 'जड़ चेतनहिं ग्रंथि परि गई ।' मा० ७.११७.६ चेता : (१) चेत । 'पठवन चले भगत कृत चेता।' मा० ७.१६.१ (२) भूकृ००। सोचा हुआ, चाहा हुआ । 'होइ चित चेता।' मा० २.११.५ चेति : पूकृ० । चेत कर, चेतना में आकर। 'अब चित चेति चित्रकूटहि चलु ।' विन० २४.१ चेतु, तू : (१) चेत + कए० । 'रहत न आरत के चित चेतू ।' मा० २.२६६.४ (२) आ०-आज्ञा - मए । तू चेत, होश कर, स्मरण कर । 'चित्रकुट को चरित्र चेतु चित्त करि सो।' विन० २६४.५ । चेते : भूकृ००ब० (सं० चेतित) । चेतना में आये । ध्यानयुक्त हुए । 'हौं अब लों करतूति तिहारिय चितवत हुतो, न रावरे चेते ।' विन० २४१.५ (२) सावधान हुए । 'सेवहि ते जे अपनपी चेते ।' विन० १२६.२ चेन : चैन । आमोद-प्रमोद, सुख । 'सुभटन्ह के मन चेन ।' मा० ६.८७ चेरा : सं०० (सं० चेटक>प्रा० चे उअ) । दास । मा० २.१३१.८ चेराई : सं० । दासता, सेवा भाव । जो 4 चेराई राम की करतो न लजातो।' विन० १५१.१ चेरि : चेरी । मा० २.१३.८ । चेरी : सं०स्त्री० (सं० चेटी>प्रा० चेडी) । दासी। मा० २.२२.५ चेरे : चेरा का रूपान्तर (ब०) । दास । मा० १.१८.४ चेरो : चेरा+कए । दास । 'चेरो रामराय को।' कवि० ७.१६६ चैत : सं०पु० (सं० चैत्र>प्रा० चइत्त)। मासविशेष जिसकी पुर्णिमा को चित्रा नक्षत्र रहता है । गी० १.२.२ चैतन्य : सं०० (सं०) । चेतना, संज्ञा । 'जड़ हि करइ चैतन्य ।' मा० ७.११९ख चैन : सं०स्त्री० (सं० चेतना>प्रा० चेअणा) । सुख, आनन्द, हर्षोल्लास । ‘मनु बुड़न लग्यो सहित चित चैन ।' गी० ५.२१.२ चैल : सं०० (सं.)। वस्त्र । 'चल चारु भूषन पहिराईं।' मा० १.३५३.४ चोंच : सं०स्त्री० (सं. चञ्चु) । टोंट । मा० ३.१.७ चोंचन्म : चोंच+संब० । चोंचों (से)। 'चोंचन्ह मारि बिदारेसि देही।' मा० __३.२६.२० चोथे : भूक०० (सं० चुण्टित>प्रा० चुटिय) नोचे हुए (नोच डालने पर)। 'आयो सरन सुखद पद पंकज चौथे रावन बाज के ।' गी० ५.२६.३ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 295 चोखा : वि.पु. (सं० चोक्ष>प्रा० चोक्ख)। उत्तम, विचित्र, मनोहर, दक्ष । ____ 'चला बिमान तहां तें चोखा ।' मा० ६.१२०.४ चोखी : वि.स्त्री० (सं० चोक्षा>प्रा० चोक्खी) । उत्तम, विलक्षण । 'ये अब लही चतुर चेरी पै चोखी चालि चलाकी।' कृ० ४३ चोखें : चोखे से । 'लेखें जोखें चोखें चित... ।' कवि० ७.२४ चखे : चोखा+ब० । (१) दक्ष, उत्तम, विलक्षण । 'असि चमकत चोखे हैं।' गी० १.६५.१ (२) तीखे, नुकीले । 'बिसिख काल दखननि तें चोखे ।' गी० ५.१२.१ चोट : सं०स्त्री० (सं० चुट छेदने)। आघात । 'चपेट की चोट चटाक दै फोरौं ।' कवि० ६.१४ चोटिया : सं०स्त्री० (सं० चोटिका?>प्रा० चोट्टिया)। छोटी शिखा, केश शिखा। चोटी : चोटिया। (१) शिखा (२) (लक्षणा से) मर्यादा, प्रतिष्ठा । 'हाथ कपिनाथ ही के चोरी चोर साहु की।' हनु० २८ चोप : सं०पु+स्त्री० । उत्साह । 'सिंघ किसोरहि चोप ।' मा० १.२६७ चोर : सं०+वि० (सं०) । तस्कर । मा० १.२४२ चोरऊ : चोर भी । 'नाथ ही के हाथ सब चोरऊ पहरु ।' विन० २५०.३ चोरत : वकृ०० (सं० चोदयत्>प्रा० चोरंत) । चुराता, चुराते । 'चोरत चितहि सहज मुसुकात ।' गी० २.२ चोरति : वकृ० स्त्री० (सं० चोरयन्ती>प्रा० चोरंती>अ. चोरंति)। चुराती; ___ अपहरण करती । 'चोरति चितहिचारु चितवनियाँ ।' गी० १.३४.५ चोरहि, हीं : आ०प्रब० (सं० चोरयन्ति>प्रा० चोरंति>अ० चोरहिं)। चुराते हैं । 'अंग सब चित चोरहीं।' मा० १३२७.छं० चोरा : चोर । मा० ५.४.३ चोराइ : पूकृ० । चुराकर । 'लेत चितहि चौराइ ।' गी० ७.३३.५ चोराई : चोराइ । 'लेहिं न बासन बसन चोराई ।' मा० २.३५१.३ चोराए, ये : भूकृ००। अपहृत किये । 'अरुन अधर चित लेत चोराये।' गी० १.३२.३ चोरि : चोराइ (सं० चोरयित्त्वा>प्रा० चोरिअ>अ० चोरि) । (१) चुराकर, अपहृत कर । 'लिए चोरि चित राम बटोहीं।' मा० २.१२३.८ (२) छिपाकर। 'अघ हृदय राखे चोरि ।' विन० १५८.३ चोरी : सं०स्त्री० (सं० चौर्य =चौरी>प्रा० चोरी)। चोर-कर्म, अपहरण । 'चंदिनि कर कि चंडकर चोरी ।' मा० २.२६५.६ (२) गोपन । 'औरउ एक Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 तुलसी शब्द-कोश कहउँ निज चोरी।' मा० १.१६६ (३) चोरि । चुराकर । 'लेत चितवत चित चोरी ।' गी० ७.७.७ चोरु : चोर+कए । 'ऐसे हू साहब की सेवा सों होत चोरु रे।' विन० ७१.१ चोरें : चुराकर, चुराए हुए । 'चले लै चितु चोरें।' कवि० २.२६ चोरे : भूकृ००ब० । चुराये । गी० ३ २.३ चोर्यो : भूकृपु०कए० । चुरा लिया। 'चोर्यो है चित चहुं भाई ।' गी० १.१५.३ चोलना : सं०० (सं० चोल) । अंगरखा, परिधान विशेष । गी० १.७४.१ /चौंक, चौंकइ : (सं० चमत्करोति>प्रा० चमक्कइ>अ० चक्कइ- चमत्कृत होना, विस्मित होना, चकपकाना) आ०ए० । चौंकता है, विस्मय पाता है । 'कोन की हांक पर चौंक चंडीसु ।' कवि० ६.४५ चौंकि : पूकृ० । आश्चर्यचकित होकर । चौंकि चकै चितवै चितु दे।' कवि० २.२७ चौंके : भूकृ०० (सं० चमत्कृत>प्रा० चमक्किय>अ० चवं क्किय) ब०। चकित हो गये । 'चौंके बिरंचि संकर सहित ।' कवि० १.११ चौंधी : चकचौंधी । 'चितवत मोहि लगी चौंधी सी।' गी० २.३५.३ चौक : सं०स्त्री० (सं० चतुष्क>प्रा० चउक्क) । चौकोर रचना विशेष । रंगोली आदि । 'गजमनि रचि बहु चौक पुराई ।' मा० ७.६.३ चौकी : सं० स्त्री० (सं० चतुष्किका>प्रा० चउक्किआ>अ० चउक्की)। चौकोर रचनाविशेष जो आभूषण आदि में बनायी जाती है । लवि० ७.१४७ चौके : चौक+ब० । रंगोलियां । मा० १.२६६ चौगान, ना : सं० । गेंद का एक खेल । 'खेलहहिं भालु कीस चौगाना।' मा० ६.२६५ (फ्रा० चौगान बल्ले या तिरछे डंडे का अर्थ देता है। उसका प्रयोग पोलो की कन्दुकक्रीडा के लिए हुआ है।) चौगान : चौगान+ब० । बल्ले, गेंद खेलने की तिरछी लकड़ियां । 'करकमलनि बिचित्र चौगान ।' गी० १.४५.२ चौगुन : वि०पू० (सं० चतुगण>प्रा० चउग्गुण) । चौगुना । मा० २.५१.८ चौगुने : 'चौगुन' का रूपान्तर (प्रा० चउग्गुणय)। "चंचलता चौगुने चाय ।' विन० ५३.२ चौगुनो : चौगुन+कए । गी० १.१०४.१ चौतनि : चौतनी । 'चौतनि सिरनि, कनक कली काननि ।' गी० १.६२.२ चौतनियाँ : चौतनी । गी० १.३४४ चौतनी : चौतनी+ब० । चौकोर टोपियां । रुचिर चौतनी सुभग सिर ।' मा. १.२१६ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 297 चौतनी : सं०स्त्री० । चार बन्दों वाली चौकोर टोपी । 'कल कुंडल चौतनी चारु ____ अति ।' गी० १.६३.३ चौथ : वि.पु. (सं० चतुर्थ>प्रा० चउत्थ) । चौथा । मा० १.१४२ चौथि : चउथि । चौथी । मा० ३.३५ ।। चौथे : चौथे...... में । 'चौथेपन जेहिं अजसु न होई ।' मा० २.४२.५ . चौदसि : सं०+वि०स्त्री० (सं० चतुर्दशी>प्रा० चउद्दसी>अ० चउद्दसि)। (१) चौदस तिथि+(२) चौदहवीं । विन० २०३.१५ चौदह : संख्या (सं० चतुर्दशन् >प्रा० चउद्दह) । मा० २.२८.३ चौपट : सं०+वि० (सं० चतुष्पट्ट>प्रा० चउप्पट्ट)। चौरस, समतल (ध्वंस से __ किया हुआ समतल भूतल) । मा० ६.३० चौपाई : चौपाई+ब० । चौपाइयाँ । 'सत पंच चौपाईं मनोहर ।' मा० ७.१३० । छं० चौपाई : सं०स्त्री० (सं० चतुष्पादिका>प्रा० चउप्पाइआ>अ. चउप्पाई)। एक ___ छंद जिसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएं होती हैं । मा० १.३७.४ चौबारे : सं०पु०ब० (सं० चतुरिक>प्रा० चउव्वारय)। चार दरवाजों वाले __ हवादार बंगले । 'मनिमय रचित चारु चौबारे ।' मा० २.६०.८ चौरासी : संख्या (सं० चतुरशीति>प्रा० चउरासीइ) । मा० १.८.१ चौर : चोर । विन० २८.४ चौहट : चउहट्ट । चौक, चौराहा । मा० ७.२८.८ च्व : पूकृ० । चू कर, स्राव करके, बह (कर) । 'अंखियाँ अति चारु चलीं जल च्वं ।' कवि० २.११ च्च हैं : आ०भ० प्रब० (सं० श्चोतिष्यन्ते>प्रा० चुइहिति>अ० चुइहिहिं) । चुलाएंगे, बहाएंगे, स्राव करेंगे, चुयेंगे। 'खग मृग मुनि लोचन जल च्चे हैं।' गी० ६.१८.३ छगनमँगन : (दे०छगन) क्रि०वि० । बालगणों के बीच क्रीडा में मग्न । 'छंगनमैगन अँगना खेलत ।' गी० १.३०.१ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 तुलसी शब्द-कोश छटि : भूकृ.पुं०ब० । छटे हुए, चुने हुए । 'साजि चढ़े छटि छैल छबीले ।' कवि० ६.३२ छ : संख्या (सं० षष्>प्रा० छ) । छह । 'साथ किरात छ सातक दीन्हे ।' मा० २.२७२८ छंड : छाँडइ । छोड़ दे, ग्याग करे । 'जाय सो जती कहाय बिषय बासना न छंडें ।' कवि० ७.११६ छंद, दा : सं०पु० (सं० छन्दस्) । (१) पद्य । 'जनु तनु धरै सकल श्रुति छंदा ।' मा० १.३००.४ (२) पद्य विशेष-हरिगीतिका आदि । 'छंद सोरठा सुन्दर दोहा ।' मा० १.३७.५ (३) (सं० छन्द) अभिप्राय, स्वेच्छा । 'रिषिबर तह छंद बास ।' गी० २.४३.२ छई : (१) भूकृस्त्री० । छा गई, व्याप्त हुए । 'अंग पुल कावलि छई।' मा० १.३१८.छं० (२) छय (सं० क्षय) । राजयक्ष्मा रोग । ‘पर सुख देखि जरनि __ सोइ छई।' मा० ७.१२१.३४ छए : छये। छगन : सं०० (सं० छ=शिशु+गण) । बालक (दुलराने में प्रयुक्त) । 'छगन छबीले छोटे छया ।' गी० १.२०.२ छगनमगन : क्रि०वि०+वि० (सं० छगण-मग्न) । शिशुगण के मध्य क्रीडारत । 'छगनमगन अंगना खेलिही मिलि ।' गी० १.८.३ छछुदरि : सं०स्त्री० (सं.)। मूषिक जातीय जन्तुविशेष जो छू-छू ध्वनि करता है और कहा जाता है कि उसे साँप निगल ले तो मर जाता है तथा पकड़ने के बाद छोड़ दे तो अन्धा हो जाता है। 'भइ गति साँप छछंदरि केदी ।' मा० २.५५.३ छटनि : छटा+संब० । छटाओं। ‘बिधि बिर, बरुथ बिद्युत छटनि के।' कवि० २.१६ छटा : सं०स्त्री० (सं०) । (१) द्युति, आभा-पुञ्ज (२) समवाय (३) निरन्तर रेखा, श्रेणी। छटानि : छटनि । छटाओं (से) । 'श्रोनित छीट छटानि जटे ।' कवि० ६.५१ छठ : वि० (सं० षष्ठ>प्रा० छ?) । छह संख्या का पूरक, छठा । मा० ३.३६.२ छठी : छठ+स्त्री०। (१) छह संख्या की पूरणी। (२) तिथिविशेष । (३) कार्तिकेय-पत्नी देवसेना देवी जो नवजातकों की रक्षिका तथा प्रसवदेवी मानी गयी हैं=षष्ठी देवी । (४) जन्म से छठे दिन षष्ठी देवी के उपलक्ष में किया जाने वाला उत्सव । गी० १.४.१२ छठे : छठे...में । 'छठे श्रवन यह परत कहानी।' मा० १.१६६.२ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 299 छड़ाइ : पू० (सं० छर्दयित्वा=मोचयित्वा>प्रा० छड्डाविअ>अ० छड्डावि) । छुड़ा (कर), छीन (कर) । 'लेहु छड़ाइ सीय कहें कोऊ ।' मा० १.२६६ ३ छड़ाइसि : आ०-भूकृ०स्त्री०+प्रए (मए) । तूने (उसने ) छुड़ा दी। ‘सठ रच भूमि छड़ाइसि मोही।' मा० ६.१००.८ ('शठ ने छुड़ा दी' या 'ऐ सठ तूने छुड़ा दी') छड़ाई : छड़ाइ । (१) छीन कर । 'जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई।' मा० १.१५८.२ (२) वियुक्त कर, अलग कर । 'तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई।' मा० १.२५२.२ (३) मुक्त करा (कर) । 'भरतु दयानिधि दीन्हि छड़ाई ।' मा० २.१६३.८ छड़ावा : भूकृ.पु । छुड़ाया, हटाया, दूर किया। 'देह जनित अभिमान छडावा।" मा० ४.२८.६ छत : सं०पु० (सं० क्षत)। व्रण, घाव । 'पाकें छत जनु जाग अहारू ।' मा०. २.१६१.५ छतज : सं०० (सं० क्ष तज)। (घाव से निकला ताजः रुधिर) रक्त (लाल)। 'छतज नयन उर बाहु बिसाला।' मा० ६.५३.१ छति : सं०स्त्री० (सं० क्षति)। (१) हानि । 'का छति लाहु जून धनु तोरें। मा० १.२७२.२ (२) भङ्ग, नाश । 'टूटत अति आतुर अहार बस छति बिसारि आनन की।' विन० ६०.३ छत्र : (१) सं०० (सं.)। छाता, आत पत्र । 'छत्र मेघ डंबर सिर धारी।' माल ६.१३.५ (२) (सं० क्षत्र) क्षत्रिय । 'छत्र जाति कर रोष ।' मा० ६.२३ घ छत्रक : सं०० (सं.)। छत्राकार उद्भिज्जविशेष, कुकुरमुत्ता। 'तोरौं छत्रक दंड जिमि ।' मा० १.२५३ छत्रबंधु : संपु० (सं० क्षत्रबन्धु) । क्षत्रियाधम, नीच क्षत्रिय । 'छत्रबंधु तै बिप्र: बोलाई ।' मा० १.१७४.१ छत्रि : छत्रिय । 'छत्रि जति रघुकुल जनम ।' मा० २.२२६ छत्रिय : सं०पु० (सं० क्षत्रिय) । क्षत्र वंशज (क्षत्र जातीय माता-पिता की सन्तान) । मा० ३.१६.६ छत्री : छत्रिय । 'बैरी पुनि छत्री पुनि राजा।' मा० १.१६०.६ छत्रु : छत्र+कए० राजा का छत्र । 'एकु छत्रु एकु मृकुटमनि ।' मा० १२० छन : सं०० (सं० क्षण) । लघुतम कालखण्ड । 'छन महुं मिटे सकल श्रुति सेतू।' मा० १.८४.६ (२) (दे० /छन) छन, छनइ : आ.प्रए । छनता-ती है (झंझरे अवकाश में से निकलती है)। 'घन छांह छन प्रभा न भान की।' गी० २.४४.२ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 तुलसी शब्द-कोश छनभंगु, गू : छनभंग (सं० क्षणभङ्ग)+कए । क्षणिक, क्षणविनाशी, क्षणों में परिवर्तन लेकर नष्ट होने वाला क्षणभंङ्ग र । मा० २.१६०.३, २११.७ छपत : व००० (सं० क्षप्यमाण>प्रा० छप्पंत) । नष्ट होते । (२) छिपते । 'कलिमल छल छपत ।' विन० १३०.१ छपद : सं०० (सं० षट्पद) । भ्रमर । 'छपद सेनहु बर बचन हमारे।' कृ० ५७ छपदु : छपद+कए । भ्रमर (प्रतीकरूप में उद्धव) । 'पठयो है छपदु छबीलें कान्ह काहूं कहूं।' कवि० ७.१३५ छपन : वि०० (सं० क्षपण) । नाशक । 'छोनिप छपन बांको बिरदु बहुत हौं।' कवि० १.१८ छपनिहार : वि.पु.०=छपन । विनाशकर्ता । 'कीन्ही छोनी छत्री बिन छोनिप छपनिहार ।' कवि० ६.२६ छपा : सं०स्त्री० (सं० क्षपा) । रात्रि । गी० १.१६.३ /छपा, छपाइ, ई : (छिपना, अन्तहित होना) आ०प्र०ए० । छिपता है, अन्तर्धान हो जाता है । 'कबहुंक प्रगटइ कबहुं छपाई ।' मा० ३.२७.१२ छपाइ, ई : पूकृ० । छिप (कर) । 'उठी रेनु रषि गयउ छपाई ।' मा० ६.७९.७ छपाए : भूकृ०० ब० । छिपा लिए, ढक लिए । 'नील जलद पर उडुगन निरखत ___ तजि सुभाव मानो तड़ित छपाए ।' गी० १.२६.६ छप्यौ : भूकृ.पु०कए । छिपा हुआ । कवि० १.१८ छबि, बी : सं०स्त्री० (सं० छबि) । आभा, कान्ति, दीप्ति । 'जैसे दिवस दीप छबि छूटे ।' मा० १.२६३ ५ छबीली : छबीली+ब० । आभा युक्त । 'अंगुरियां छबीली छोटी।' गी० १.३३.१ छबीलें : छबीले..'ने । 'पठयो है छपदु छबीलें कान्ह ।' कवि० ७.१३५ छबीले वि०० (सं० छविमत् >प्रा० छविल्ल = छविल्लय) ब०। आभायुक्त, सौन्दर्यच्छटा सम्पन्न, शोभाशील । 'छरे छबीले छयल सब।' मा० १.२६८ छबीलो : वि०पु०कए० (सं० छविमान् >प्रा० छविल्लो)। शोभाशाली। गी० १.१६.५ छम : वि०पु० (सं० क्षम)। समर्थ । 'ब्रह्मांड दहन-छम ।' विन० २३६.४ 'दुख दोष दलन छम ।' विन० २७५.१ छमत : सं०० (सं० षट् / प्रा० छ+मत) । षड्दर्शन-न्याय, वैशेषिक, सांख्य; योग, मीमांसा, वेदान्त । 'पढ़िबो पर यो न छठी छमत ।' विन० १५५.२ 'छ-मत बिमत न पुरान मत एकमत ।' विन० २५१.४ छमब : भूकृ०० (सं० क्षन्तव्य>प्रा० छनिअव्व) । क्षमा करना (चाहिए)। 'अनुचितु छमब जानि लरिकाई ।' मा० १.४५.६ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 30+ छमबि : छमब+स्त्री० । छमा करनी (चाहिए)। "छमबि देबि बड़ि अबिनय मोरी ।' मा० २.६४.५ छमहु : आ०मब० (सं० क्षाम्यत>प्रा० छमह>अ० छमहु) । क्षमा करो। 'छमहु च क अनजानत केरी । ' मा० १.२८२.४ छमहूं : आo-प्रार्थना-प्रब० । (वे) क्षमा करें । 'लघुमति चापलता कबि छमहूं।' मा० २.३०४.१ छमा : क्षमा से । 'तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै ।' मा० ७.११७.१४ छमा : सं०स्त्री० (सं० क्षमा) । (१) सहिष्णुता, दूसरे के अपराध के प्रति सहन शीलता । 'छमा दया दमलता बिताना ।' मा० १.३७.१३ (२) पृथ्वी। 'बिस्व भार भर अचल छमासी ।' मा० १.३१.१० (३) शक्ति, सामर्थ्य-'नीति सुनहि करहि छमा।' मा ६.९० छमाइ : पूकृ० । क्षमा करवा कर । 'छमि अपराध छमाइ कृपा करि ।' विन० १००.५ छमासील : वि० सं० क्षमा शील) । क्षमा की प्रकृति वाला । मा० ७.१०६.५ छमि : पूकृ० । क्षमा करके । 'छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी ।' मा० २.१८३.४ छमिअ. य : छमिए । 'कौसिक कहा छमिअ अपराधू ।' मा० १.२७५.५ छमिए : आ०-कवा०-प्रए० (सं० क्षम्यते>प्रा० छमीअइ) । क्षमा किया जाय, क्षमा कीजिए ।' छमिए अघ औगुन मेरे ।' गी० २.७६.२ छमिबो : भूक.पु.कए० (सं० क्षन्तव्यः>प्रा० छमिअव्वो>अ० छमिअव्वउ) । क्षमा करना । 'अपराधु छमिबो।' मा० १.३२६.छं छमिहहि : आ०भ०प्रब० (सं० क्षस्यति>प्रा० छमिहिंति>अ० छमिहिहिं) क्षमा __करेंगे । 'छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई।' मा० १.८.८ छमिहि : आ० भ०प्रए० (सं० क्षस्यति.>प्रा० छमिहिइ)। क्षमा करेगा। 'छमिहि देउ अति आरति जानी ।' मा० २.३००.८ छमिहैं : छमिहहिं ।' सोचें सब, या के अघ कैसे प्रभु छमिहैं।' कवि ७.७१ छमुख : षण्मूख । कार्तिकेय । कवि० ७.१७६६ छमेहु : आ०.-भ+प्रार्थना-मब० । तुम क्षमा करना । 'छमेहु सकल अपराध __ अब ।' मा० १.१०१ छमया : वि० (सं० क्षन्तक>प्रा. छमिइय) । क्षमा करने वाला। 'अपराध सबै छलु छाडि छमैया ।' कवि० ७.५३ छय : सं०० (सं०) । (१) विनाश । 'जेहिं रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाई ।' मा०. १.१७०.८ (२) रोगकिशेष—दे० छई छयल : वि.पु. (प्रा० छइल्ल=विदग्ध) । चतुर, दक्ष, निपुण, कुशल । 'छरे. छबीले छयल सब ।' मा० १.२६८ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 तुलसी शब्द-कोश छये : भूक०पु०ब० । आच्छादन किये हुए । 'ब्योम विमाननि बिबुध बिलोकत खेलक पेषक छाँह छये ।' गी० १.४५.३ छर : संपु० (सं० छल) । (१) ब्याज, बहाना, कपट । (२) धान कूटने की क्रिया विशेष । 'तहाँ तहाँ नर नारि बिन छर छरिगे।' गी० २.३२.१ (जैसे धान बिना कूटे ही कुट जाय, उसी प्रकार बिना जपतप आदि का ब्याज लिप ही लोग कलुषमुक्त हो गये ।) छरनि : सं०स्त्री० (सं० छलता) (१) प्रवञ्चना, प्रतारण। (२) कूटने की क्रिया। ___ 'बीच पाइ एहि नीच बीच ही छरनि छर्यो हौं ।' विन० २६६.२ छरमार : (दे० छरुभारु) उत्तरदायित्व । 'यह छरभार ताहि तुलसी जग जाको दास कहैहौं ।' विन० १०४.४ छरस : (सं० षड्रस>प्रा० छरस) छह प्रकार के स्वाद-मधुर, अम्ल, लवण, कटू, कषाय और तिक्त । मा० १.१७३.१ छरि : पूकृ० (१) छले हुए हो (कर) । (२) धान कूटे जाकर । 'जेहि जेहि मग सिय राम लखन गए, तह तह नर नारि बिनु छर छरि गे।' गी० २.३२.१ (जैसे धान बिना कुटे ही बूसी से मुक्त हो जाय उसी प्रकार बिना जप-तप के व्याज के ही लोग मायावरण-मुक्त हो गये) छरी : सं०स्त्री० । छड़ी, पतली यष्टि । लिये छरी बेंत सोधें विभाग ।' गी० ७.२२.५ छरु : सं०० (सं० त्सरु =तलवार की मूठ>प्रा० छरु) । (लक्षणा से ) युद्धकार्य, संघर्ष-कार्य का कठिन उत्तरदायित्व; विपत्ति में उलझा कार्य भार । मा० २.३१५.७ छरुमारू : (दे० छरु तथा भारु) । सम्पूर्ण कठिन उत्तरदायित्व । 'लखि अपने सिर सब छरु.भारू ।' मा० २.२६.२ छरे : वि.पुब० । (सं० छलिक>प्रा० छलिय) । चुस्त, चतुर, सतर्क, विदग्ध । _ 'छरे छबीले छयल सब ।' मा० १.२६८ छरेगी : आ०भ०स्त्री०प्रए । (१) छलेगी, ठगेगी। (२) कुचल डालेगी, धान के समान कूटेगी । 'बाहुबल बालक छबीले छोटे छरेगी।' हनु० २५ छरो : छर्यो । छल लिया, ठगा । 'निगम नियोग तें सो केलिडी छरो सो है।' कवि० ७.८४ छर्यो : भूकृ००कए० (सं० छलित:>प्रा० छलिओ)। (१) छला हुआ, ठगा गया (२) कूटा गया, कुचला हुआ। 'बीच पाइ एहि नीच बीच ही छरनि छर्यो हौं ।' विन० २६६२ 'छल : सं०पू० (सं.)। छन, धूर्तता, वञ्चना, व्याज=बहाना । 'सब मिलि करहु छाडि छल छोहू ।' मा० १.८.३ 'बोले मधुर बचन छल सानी।' मा० १.६८.८ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 303 छलक : सं०स्त्री० । (द्रव पदार्थ का) उबरा कर उछलना, तरङ्ग लेकर बाहर बह ___ चलना । 'बूड़ि गयो जा के बल बारिधि छलक मैं ।' कवि० ६.२५ छलकारी : छल करने वाला । मा० ३.२५.२ छलकि है : आ०भ० प्रए । छलकेगी, उबर कर लहरायगी। 'छबि छल किहै भरि अंगनैया ।' गी० ५.६.३ छलके : आ०प्रब० । छलकते-ती हैं । उबर कर लहराते-ती हैं 'मनहुं उमगि अंग अंग छबि छलके ।' गी० १.३१.२ छलग्यानी : कपट से ज्ञानी बना हुआ, धूर्त । मा० १.१७०.१ छलन : वि०० । छलने वाला । 'छलन बलि ।' विन० ५२.५ छलहि, हीं : आ०प्रब० । छलते हैं, ठगते हैं । 'बंचक बिरचि बेषु जगु छलहीं।' __ मा० २.१६८.७ छलाई : छलना में, धोखा देने में । 'सुजोधन भो कलि छोटो छलाईं। कवि० छलि : पूकृ० (सं० छलित्वा>प्रा० छलिअ>अ० छलि)। छल करके, छघ्न अपना ___ कर । 'कहै काह, छलि छुअति न छांही ।' मा० २.२८८.५ छलिन : छली+संब० । छलियों। 'छलिन की छोड़ी।' कवि० ७.१८ छली : वि.पु. (सं० छलिन्) । छलनायुक्त, धूर्त, कपटी। 'छली मलीन कतहुं न प्रतीती।' मा० २.३०२.२ छलु : छल+कए । अद्वितीय छल । 'करि छलु मूढ़ हरि बैदेई ।' मा० १.४६.५ छले : भूकृ०० (सं० छलित>प्रा. छलिय) ब० । ठगे, प्रवञ्चित किये। 'सिव __बिरंचि बाचा छले।' गी० ५.४१.२ छलो : भू.कृ.पु०कए । प्रवञ्चित किया (ठगा)। बिबुध काज बावन बलिहि छलो भलो जियें जानि ।' दो० ३६६ छवनी : सं०स्त्री० । छोनी, बालिका । “भई है प्रगट अति दिब्य देह धरि मानो त्रिभुवन छबि छवनी ।' गी० १.५८.१ छवा सं० । (१) पैर, चरणतल। (२) (सं० सव=प्रसव) शावक, शिशु । __'बिदले अरि कुंजर छैल छवा से ।' हनु० १८ छहु, छ हूं : (छ+हूं) छहों, सभी छह । 'कीरति सरित छहूं रितु रूरी।' मा० १.४२.१ /छाँड़ छाड़ इ : (/छाड़+छाड़इ) छोड़ता है, फेंकता है, चलता है । 'सर छोड़ होइ लाहिं नागा।' मा० ६.७३.१० छाँड़त : वकृ०० (च्छाड़त)। छोड़ता। 'भूमि न छाँड़त कपि चरन ।' मा. ६.३४ छोड़हु : (छाड़हु) । 'छांडहु तात मृषा जल्पना ।' मा० ६.५६.५ छोडि : (छाड़ि)। छोड़ (कर) । 'सब छूछे के के छाँड़ि गो।' कवि० ६.२४ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 तुलसी शब्द-कोश छोड़, य, ए (छाड़अ ) । छोड़ा जाय । 'का छाँड़िअ का संग्रहिअ ) ।' दो० ३५१ छाँड़ियो : आ० - भवि० + प्रार्थना - मब० । तुम छोड़ना । 'तहँ तहँ जनि चित छोह छाँड़ियो ।' विन० १०३.३ छाँड़िहि : ( छाड़िहि) छोड़ेगा । 'मम कर तीरथ छाँड़िहि देहा ।' मा० ३.२६.१४ छाँड़ी : (छाँड़ी) छोड़ी, चलायी । 'छाँड़ी सक्ति प्रचंड ।' मा० ६३ छाँड़ : आ०—आज्ञा - मए० । तू छोड़ दे। 'तुलसी राम नाम जपु आलस छाँड़ ।' 。 बर० ६६ छाँड़े : (छाड़े) (१) छोड़े, चलाये, फेंके । 'खचि सरासन छाँड़े सायक ।' मा० ६. १२.६ (२) छोड़े हुए ( त्याग कर ) । 'चलहि कुपंथ बेद मग छाँड़े ।' मा० १.१२.२ - छाँड़ेउँ : आ० – भूकृ०पु० + उ० । मैंने छोड़ा, मुक्त किया। 'बूढ़ जानि सठ छाँड़ उ तोही ।' मा० ६.७४.५ छाँउ : ( छोड़ेउ) छोड़ा, चलाया । 'पावक सर छाँड़ ेउ रघुबीरा ।' मा० ६.६१.३ छाँडेसि : (छाड़ सि) (१) उसने चलाया, फेंका । प्रभु कहँ छाँड़सि सूल प्रचंडा । ' मा० ७.७६.७ (२) उसने फेंके । 'अस्त्र सस्त्र छाँड़े सि बिधि नाना ।' मा० ६.ε२.३ (३) छोड़, त्यागे । 'अस कहि छाँड़े सि प्रान ।' मा० ६.७६ छाँड़े : (छाड़ ) । छोड़ने, फेंकने । 'कुलिस समान लाग छाँड़ सर ।' मा० ६.६१.१ छाँड्यौं : (छाँड़ उँ) । मैंने छोड़ दिया, त्याग दिया । ' इन्ह के लिए खेलिबो छाँड़ यौं तऊ न उबरन पावहिं ।' कृ० ४ छाँह : सं० स्त्री० (सं० छाया > प्रा० छाहा > अ० छाह ) । प्रतिबिम्ब । 'तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी ।' मा० २.६७.५ ant : छाँह (प्रा० छाही ) । मा० २.२८८.५ छाँहू : छाया भी । ' सकुचत छुइ सब छाँहू ।' विन० २७५.२ छाइ : पूकृ० (सं० छादयित्वा > प्रा० छाइअ > अ० छाइ) । (१) छप्पर आदि से छाया करके । 'रहे परनगृह छाइ । मा० ३.१३ ( २ ) व्याप्त होकर, आच्छादित कर । 'रहे छाइ नभ सिर अरु बाहू ।' मा० ६.६२.१४ (३) आ० – आज्ञा - म० । तू छा । 'तुलसी घर बन बीचहीं प्रेम पुर छाइ ।' दो० २५६ छाईं : भू० कृ० स्त्री०ब० । फैल गयीं, व्याप्त थीं । 'सकल सिद्धि संपति तहं छाईं ।' मा० १.६५.७ छाई : (१) छाइ । रह्यो उर नभ पर छाई ।' कृ० २६ (२) भूकृ० स्त्री० । आवृत हो गयी । 'फूलें कास सकल महि छाई ।' मा० ४.१६.२ (३) व्याप्त हुई, भर गयी । 'मूक बदन जन सारद छाई । मा० १.३५०.८ (४) सजाई । 'पुरी रुचिर करि छाई ।' गी० १.१.६ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 305 छाउ : छाए+कए० (सं० छाद:>प्रा० छाओ>अ० छाउ)। आवरण, दुराव । 'तिन न तज्यो छल छाउ ।' विन० १००८ छाए : भूक.पु. (सं० छादित>छाइय) ब०। (१) भर गये । 'आश्रम देखि नयन जल छाए ।' मा० १.४६.६ (२) फैल गये, व्याप्त कर रहे। 'जथा जोगु जहं तहं सब छाए।' मा० १.६४.७ (३) परिपूर्ण हुए । 'सकल लोक सुख संपति छाए।' मा० १.१६०.६ (४) आवृत । 'मनहुं मनोहरता छबि छाए।' मा० १.२४१.१ (५) घेरे हुए । 'मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए।' मा० १.३२७.२ (६) रहे, विराजमान हुए । 'चित्रकूट रघुनंदनु छाए । मा० २.१३४.५ (७) छावनी डाल कर रहे । 'जनु भट बिलग-बिलग होइ छाए।' मा० ३.३८.४ (८) (छप्पर आदि) डाल कर बनाए। 'ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए।' मा० ३.४०.५ छाक : सं०स्त्री० (सं० चक्षा>प्रा० चक्खा)। तृप्तिकारी भोजन । 'बलदाऊ देखियत दूरि ते आवति छाक पठाई मेरी मैया ।' कृ० १९ (सं० चक्षण दो अर्थ देता है-(१) भूख उद्दीप्त करने वाला खाद्य पदार्थ, चटनी आदि । इसी 'चखना' या 'चीखना' हिन्दी में चलता है जिसका 'चक तृप्ती' से भी सम्बन्ध है। (२) मदिरा पीने के साथ जो नमकीन आदि खाते हैं उसे भी 'चक्षण' कहा . गया है। इस 'चक्ख>छक्क>छाक' मद्य, मद्यपान तथा मद के अर्थों में ब्रजभाषा में चलता है-'छाके' में इसी का प्रयोग है।) छाके : भूक०० ब० (दे० छाक) । नशे में धुत्त, मत्त, पान किये हुए । 'जाहिं सनेह सुरा सब छाके ।' मा० २.२२५.३ छाछी : सं०स्त्री० । छाछ, दही का तोड़, तक्र । 'चहिअ, अमिअ जग जुरइ न छाछी।' मा० १.८.७ छाज, छाजइ : (सं० छाद्यते-विराजते>प्रा० छज्जइ-सुशोभित होना, विराजना) आ०प्रए । सोहता है, फबता है, फबती है। 'छोनी में के छोनीपति, छाजे जिन्हें छत्र छाया ।' कवि० १.८ छाजति : वक०स्त्री० । सुशोभित होती । 'पीत दुकूल अधिक छबि छाजति ।' गी० ७.१७६ छाजा : छाजइ । फबता है । 'जो कछु करहिं उन्हहि सब छाजा ।' मा० ३.१७.१४ छाड़ : आ०-आज्ञा-मए । तू छोड़ दे। 'नाहिं त छाड़ कहाउब रामा।' मा० १.२८१.२ /छाड़, छाड़इ : (सं० छर्दयति-मुच्चति>प्रा० छड्डुइ-छोड़ना, फेंकना, बाहर करना) आ०प्रए । छोड़ता या छोड़ती है (उगलती है) । 'छाड़इ स्वास कारि जनु सांपिनि ।' मा० २.१३.८ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 तुलसी शब्द-कोश छाड़त : वक०पु० (सं० छर्दयत् >प्रा० छड्त) । छोड़ता, छोड़ते । हनु० ३२ छाड़न : सं०० (सं० छर्दन>प्रा० छड्डुण)। छोड़ना, फेंकना । 'मिल्लिनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकर बाजु ।' मा० २.२८ छाड़ब : भकृ०० (सं० छर्दितब्य >प्रा० छड्डिअव्व) । छोड़ना (चाहिए) । देबि न हम पर छाड़ब छोहू ।' मा० २.११८.१ छाड़हिं : आ०प्रब० (सं० छर्दयन्ति>प्रा० छड्डुति>अ० छड्डहिं)। छोड़ते-ती-हैं। 'छाड़हिं नचाइ हाहा कराइ ।' गी० ७.२२.७ छाड़ह : आ०मब० (सं० छर्दयत>प्रा० छड्डह>अ० छड्डह)। छोड़ो। 'अस बिचारि उर छाडहु कोहू ।' मा० २.५०.१ छाड़ा : भूक०० (सं० छदित>प्रा. छड्डिअ) । छोड़ा, फेंका । 'छाड़ा बान, माझ उर लागा ।' मा० ६.७६.१६ छाडि : पूकृ० (सं० छर्दयित्वा>प्रा० छड्डिअ>अ० छड्डि) । (१) त्याग कर । 'सब मिलि करहु छाडि छल छोहू।' मा० १८.३ (२) मुक्त कर । 'ल ल दंड छाडि नृप दीन्हे ।' मा० १.१५४.७ (३) अतिरिक्त, बिना। ‘रामहि छाडि कुसल केहि आजू ।' मा० २.१४.२ छाडिअ, य : आ०कवा०प्रए । छोड़िए, त्यागा जाय । 'लेइअ संग मोहि छाडिअ 'जनि ।' मा० २.६६.७ छाडिसि : आ०-भूकृ स्त्री०+प्रए । उसने छोड़ी, फेंकी। 'बीरघातिनी छाडिसि सांगी।' मा० ६.५४.७ छाडिहउँ : आ०भ० उए० (सं० छर्दयिष्यामि>प्रा० छड्डिहिमि>अ० छड्डिहिउँ) । छोड़गा। तब मारिहउं कि छाडिहउं ।' मा० १.१८१ छाडिहि : आ०भ०प्रए० (सं० छर्दयिष्यति>प्रा० छड्डिहिइ)। छोड़ेगा। 'सील सनेह न छाडिहि भीरा ।' मा० २.७६.३ छाड़ी : भूकृ०स्त्री० । त्यागी। 'सेवक छोह तें छाड़ी छमा।' कवि० ७.३ छाड़े : भूकृपु० (सं० छदित>प्रा० छड्डिअ) । छोड़े, फेंके । 'छाड़े सर एक तीस ।' मा० ६.१०२ छाड़ेउ : भूकृ०पु०कए । छोड़ दिया। 'प्रभु छाड़ेउ करि छोह ।' मा० ३.२ छाड़ेन्हि : आ०-भूकृ.पु+प्रब० । उन्होंने छोड़े, चलाये, फेंके । 'छाड़ेन्हि गिरि तरु जूह ।' मा० ६.६६ छाड़ेसि : आ०-भूक००+प्रए । (१) उसने छोड़े, त्यागे । 'राम राम कहि छाडेसि प्राना।' मा० ६.५८.६ (२) चलाये, फेंके, फेका । 'संधानि धनु सर निकर छाड़ेसि ।' मा० ६.८२ छं० । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 307 छाई : (१) छाड़इ । छोड़ दे । 'सहुज छमा बरु छाई छोनी।' मा० २.२३२.२ (२) भकृ० । छोड़ने । 'सर समूह सो छाई लागा।' मा० ६.५०.५ छाड्यो : छाड़ेउ । 'छोनी में न छाड्यौ छप्यो छोनिप को छोना छोटो।' कवि० १.१८ छाता : छत्र (प्रा० छत्तअ) । रा०न० ८ छाती : सं०स्त्री० । (१) वक्षःस्थल । 'नारि बंद कर पीटहिं छाती।' मा ६.४४ ४ (२) अन्तःकरण, मन-प्राण । 'हृदय लगाइ जुड़ावहिं छाती।' मा० १.२६५.५ (३) कलेजा । 'बिटरति नहिं छाती।' मा० ६.३३.४ . छानि, नी : पूक ० । (१) छान कर, छन्ने से शुद्ध करके । 'मज्जन पान कियो के सुरसरि कर्मनास जल छानी ।' कृ० ४६ (२) भटक कर, इधर-उधर निरुद्देश्य घुमघाम कर, थक कर । 'कोटिक कलेस करो मरो छार छानि सो।' कवि० ७.१६१ छाम : वि.पु० (सं. क्षाक) । क्षीण, कृश । 'राम छाम लरिका लखन ।' गी० ५.२३.२ छाय : सं०० (सं० छाद>प्रा० छाय) । आवरण, छिपख-दुराव । 'राम राज न चले मानस मलिन के छल छाय ।' विन० २२०.३ छायउ : भूक००कए (सं० छादितम् >प्रा० छाइयं >अ० छाइयउ)। छा गया, ब्याप्त हुआ। 'जग जनु छायउ ।' जा०म० १८० छायां : छाया में । 'बट छायां बेदिका बनाई।' मा० २.२३७.८ छाया : सं०स्त्री० (सं०) (१) प्रतिबिम्ब । त्रिविध समीर सुसीतलि छाया ।' मा० १.१०६.३ (२) छाता आदि । 'नहिं पदत्रान सीस नहिं छाया।' मा० २.२१६.५ (३) झलक, आभा। 'केहि छाया कबि मति अनुसरई।' मा० २.२४१.३ (४) संस्कार, अवशेष, छाप । 'अजहुं न छाया मिटति तुम्हारी।' मा० १.१४१.५ (५) छाय । आवरण । 'पालु बिबुधकुल करि छल छाया .' मा० २.२६५.२ छायो : छायउ । (१) व्याप्त । 'सब सनेह छल छायो ।' विन० २००.२ (२) व्याप्त हुआ, भर गया। 'हरष उर छायो।' मा० ६.१०७.८ (३) आवृत हुआ । 'बिपति जाल जग छायो ।' विन० २४३.४ छार, रा : सं०पु० (सं० क्षार) । (१) भस्म, राख । 'तन छार ब्याल कपाल भूषन ।' मा० १.६५.छं० 'चितवत कामु भयउ जारि छारा ।' मा० १८७६ (३) धूल, मिट्टी । 'छार तें संवारि के पहारहूं तें भारी कियो ।' कवि० ७.६१ छार : छार को, मिट्टी को। 'पब्बय तें छार, छारै पब्बय पलकहीं।' कवि० ७.६८ छाल : सं०० (सं० छल्ल) । चर्म, त्वचा । पा०म०छं० १२ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 तुलसी शब्द-कोश छाला : छाल । 'एहि मृग कर अति सुन्दर छाला ।' मा० ३.२७.४ . छालि : पूक० । छाल निकाल कर । 'गढ़ि गुढ़ि छोलि छालि कुंद भीसी भाई बातें ।' कवि०७ ६३ (२) प्रक्षालन करके, स्वच्छ कर छालिका : वि.स्त्री० (सं० क्षालिका) । धो बहाने वाली, स्वच्छ करने वाली। ___ 'पाप छालिका ।' विन० १७.१ छालित : भूक०वि० (सं० क्षालित) । धो कर स्वच्छ किया हुआ । 'रघपति भगति . बारि छालित चित ।' विन० १२४.५ छावत : वकृ०० । आच्छादित करता-ते, आपूरित करता-ते । 'जनु सुनरेस प्रजा सकल सुख छावत ।' गी० २.५०.२ छावन : भक० । छाने को, आच्छादन करने , 'गुनिगम बोलि कहेउ नप मांडव छावन ।' जा० मं० ११३ चावहिंगे : आ००००प्रब। भर देंगे, व्याप्त करेंगे। 'अंग-अंग छबि भिन्न भिन्न सुख निरखि निरखि तह तह छावहिंगे । गी० ५.१०.२ छावा : भूकृ.पुं० (सं० छादित>प्रा० छाविअ) । छाया हुआ, आवृत किया। 'ध्वज पताक तोरन पुर छावा ।' मा० १.१९४.१ (२) छा गया, व्याप्त हुआ, फैला। 'सुजसु पुनीत लोक तिहुं छावा ।' मा० १.३६१.४ (३) छावइ। व्याप्त होता है, फैलेगा। 'धरम् .. तजें तिहूं पुर अपजसु छावा ।' मा० २ ९५.६ छावौं : आ०उए० (सं० छादयामि>छावमि>अ० छावउँ)। छाता हूं, छप्पर .. बनाता हूं । 'कपट दल हरित पल्लवनि छावौं ।' विन० २०८.२ छाह : छाया में । 'परिखो पिय छाहं धरीक है ठाढ़े।' कवि० २.१२ छाहीं : (१) (सं० छायायाम् >प्रा० छाहीहिं) । छाया में । 'पाय पखारि बैठि तरु छाहीं।' मा० २.६७.३ (२) छांही। आभा, दीप्ति, छटा। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं।' मा० २.३४४.४ (३) प्रतिबिम्ब । 'सुन्दर सिला सुखद तरु छाहीं ।' मा० २.२४६.८ छाहैं : (१) छांह+बहु० । छायाएँ । 'आरत दीन अनाथन को रघुनाथ करें . निज हाथ की छाहैं ।' कवि० ७ ११ (२) छाहीं। छायाओं में । 'बिलम न __ छिन छिन छाहैं ।' विन० ६५.५ छिटकि : पू० । छटा बिखेरकर। 'छपा छिटकि छबि छाई ।' गी० १.१६.३ छिति : सं०स्त्री० (सं० क्षिति) । (१) भूलोक । 'बन चर देह धरी छिति माहीं।' मा० १.१८८.३ (२) पृथ्वी, भूतल । 'कूदहिं गगन मनहुं छिति छाँड़े।' मा० २.१६१.६ (३) पञ्च महाभूतों में पृथ्वी तत्व । 'छिति जल पावक गगन समीरा ।' मा० ४.११.४ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 309 छितिपाल : राजा । कवि० ७.१८१ छिद्यो : भूक०० कए० । (सं० छिद्रित:>प्रा० क्षिद्दिओ) । विद्ध हुआ। 'छिद्यो न तरुनि कटाच्छ सर ।' दो० ४३८ । छिद्र : सं०० (सं.)। (१) छेद, रन्ध्र, सन्धि । 'छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं।' मा० ६.१२.८ (२) दुराव-छिपाव । 'मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।' मा० ५४४.५ (३) गुप्ताङ्ग (४) गोपनीय बात । 'जो सहि दुख पर छिद्र दुरावा।' मा० १ २.६ (५) घात करने का अवसर । 'अखिल खल.. छिद्र निरखत सदा।' विन० ५६३ छिन : सं०० +क्रि०वि० (सं० क्षण>प्रा० खण = छण) समय का अत्यन्त सूक्ष्म भाग जो क्रियाखंड के संयोग-विभाग से नापा जाता है। 'बिलमु न छिन छिन छाहैं।' विन० ६५.५ छिनि : छीनि । छुड़ा (कर) । 'देखि बधिक बस राजन्मरालिनि लखन लाल छिनि लीज।' गी० ३.७.२ छिनु : छिन+कए । क्षण भर, एक क्षण । प्रतिक्षण । मा० २.६६.४ छिनुकु : छिनु । एक क्षण, क्षण भर, थोड़ा-सा । 'कहहिं गाइअ छिनुकु भ्रम।' मा० २.११४ छिपाइ : छपाइ । छिपा कर, छिप कर । गी० १.८४.४ छिया : (१) सं०स्त्री० (सं.)। विनाश । (२) अव्यय (सं० छि:) । धिक्कार । (३) (अवधी में घृणार्थक) निष्ठा । 'हौं समुझत साईं द्रोह की गति छार छिया रे।' विन० ३३.६ छिरकत : वकृ०० (सं०क्षरत् +कुर्वत् >प्रा० छरक्कंत) । छिड़कते । 'मनहुं अर गजा छिरकत, भरत गुलाल अबीर ।' गी० २.४७.१६ छिरकहिं : आ.प्रब० । छिड़कते हैं। 'कुंकुम अगर अरगजा छिरकहिं ।' गी. १.२.१६ छिरके : छिरकहिं । 'छिटकै सुगंध भरे मलय रेनु ।' गी० ७.२२.३ छींक : सं०स्त्री० (सं० छिक्का) । अकस्मात् नाक से तीव्र वायु-निःसरण । 'एतना ___ कहत छींक भइ बाएँ।' मा० २.१६२.४ छीके : सं०० अधिकरण (सं० शिक्ये>प्रा० सिक्के)। सिकहर पर । ‘यों कहि मागत दहिउ धर्यो जो है छीके ।' क० १० /छोज छीजइ : (१) (सं० छिछते>प्रा० छिज्जइ) आ.प्रए । विछिन्न या खंडित होता है, कटता या टूटता है । 'सखि सरोष प्रिय दोष बिचारत प्रेम पीन पन छीज।' कृ० ४५ (२) (सं० क्षीयते>प्रा० छिज्जइ)। क्षीण या कृश होता है । 'कोन दिनहुं दिन छीज ।' कृ० ७ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 तुलसी शब्द-कोश छोहि. ही : आ.प्रब० (सं० छिद्यन्ते, क्षीयन्ते>प्रा० छिज्जति>अ० छिज्जहिं)। कटते-मिटते हैं । 'छीजहिं निसिचर दिन अरु राती।' मा० ६.७२.३ छीजे, जे : छी जइ । (१) विच्छिन्न हो (सं० छिद्यते । 'जेहिं छोज निमिचर सम दाई।' मा० ६.७५.६ (२) क्षीण हो (सं० क्षीयने) । 'मज्जन करिअ समरश्रम छोजे ।' मा० ६.११६.५ (३) क्षीण+विछिन्न हो । 'प्रौढ अभिमान चितष्टत्ति छीजै ।' वि०न ४७२ छोट : सं०स्त्री० । छींट, बूदों की श्रेणी। 'श्रोनित छीट छटानि जटे ।' कवि० छोन : वि०पू० (सं० क्षीण, छिन्न >प्रा० क्षीण, छिन्न) । दुर्बल तथा विच्छिन्न = ___व्यग्रचित्त । 'छधा छीन बलहीन सुर ।' मा० १.१८१ छीनत : व०कृ००। दूसरे से बलात् लेते; छीनते, झपट लेते । खेलत खात परसपर डहकत छीनत ।' कृ० १६ छीनता : सं०स्त्री० (सं० क्षीणता+छिन्नता)। अल्पता+नाश । 'सुमिरत होत कलिमल छल छीनता।' विन० २६२.५ छीना : छीन । रहित, शून्य । 'उदासीन सब संसय छीना ।' मा० १.६७.८ छोनि : पूक० । छीन कर, झपट-लेकर । 'एक ते एक छीनि लै खाहीं ।' मा० ६८८.२ छीनी : भूकृ०स्त्री० । छीन ली, बलात् स्वायत् कर ली। 'दामिनी की छबि छीनी।' गो० १.४४.१ छीने : भकृ०० । (१) छीने हुए, झपटकर स्वायत्त किए हुए । 'लेत जनु छीने ।' मा० २.११८.७ (२) छीने हुए, क्षीण किये हुए । 'बिकल मनहुं माखी मधु छीने ।' मा० ७६.४ (३) काट दिए, छिन्न कर दिये । 'राम बहोरि भुजा सिर छीने ।' मा० ६६.११ छोबो : भक०कए० (सं० छोप्तव्यम>प्रा० छिविअव्वं>अ० छिविअव्वउ)। छूना, स्पर्श करना। 'भलो न भूमि पर बादर छीबो ।' कृ. ६ छोर : सं०० (सं० क्षीर) । दूध । मा० २.६१.१ छोरनिधि : छीर सागर । छोरसागर : सं०० (सं० क्षीरसागर)। पुराण प्रसिद्ध समुद्र विशेष जिसमें जल के स्थान पर दूध माना गया है और जिसमें प्रलय में विष्णु शयन करते हैं । मा० १.०.३ छोरसिंधु : छीरसागर । मा० २.२३१ छोरु : छीर+कए । दूध । मा० २.१५१.२ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 311 /छअ, छअइ : (सं० छुपति-छुप स्पर्श>प्रा० छुअइ=छुवइ) आ०प्रए । छूता __ है, छुती है। दे० छुऐ। छअत : वक पु० (सं० छुपत्>प्रा० छुअंत)। छूता, छूतेः छूते ही । 'छुमत टूट रघुपतिहि न दोषू ।' मा० १.२७२.३ छप्रतहि : छूते हो।' छुअतहिं टूट पिनाक पुराना।' मा० १.२८३.८ छअति : वकृ०स्त्री०। स्पर्श करती। 'कहै काह, छलि छुअति न छांही।' मा० २.२८८.५. छुपा : भूकृ०० (सं० छुप्त>प्रा० छुविध=छुइअ)। स्पर्श किया। 'रावन बान छुआ नहिं चापा।' मा० १.२५६.३ छइ : पूकृ० छूकर । 'जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा।' मा० २.१६४.३ छएँ : छू जाने से । 'जा की छाँह छुएं सहमत व्याध बाधको।' कवि ७.६८ छ ए : भूक ०० ब० । स्पर्श किए हुए । 'जनक बचन छुए बिरवा लजारू कैसे बीर ___ रहे सकल सकुचि सिर नाइ के ।' गी० १.८४.६ छऐ : छ अइ । रान० १३ छौ : आ०मब० (सं० छुपत>प्रा० छु अह>अ० छुअहु) स्पर्श करो। 'छुओ माथे हाथ अमी के ।' गी० १.१२.३ /छट, छटइ : (सं० छुटति-छुटछेदे>प्रा० छुट्टइ-छटना, मुक्त होना, बन्धन हटना) आ०प्रए । छुटता-ती है । 'छुट न बिपति भजे बिनु रघुपति ।' विन. ८७.४ छटकाये : छुड़ाने से । 'डरपति जननि पानि छ्ट काये ।' गी० १.३२.५ छटि : पू०० । विच्छिन्न हो (कर) । 'छु टि जाइहि तव ध्यान ।' मा० ६.६६ छटिहहिं : आ०भ०प्रब० । छूटेंगे, मुक्त हो चलेंगे। 'छु टिहहिं अति कराल बहु सायक ।' मा० ६.२७.६ छुटिहि : आ० भ०प्रए । छूटेगा-गी। 'मोह शृखला छुटिहि तुम्हारे छोरे ।' विन० ११४.५ छुड़ाई : पूकृ० (सं० छोटयित्वा>प्रा० छुड़ाविअ>अ० छुड़ावि) । छुड़ा कर । . 'लियो छुड़ाइ चले कर मीजत ।' विन० २४१.२ छद्धित : छुधित । मा० १.१५७ छद् : वि० (सं० क्षुद्र) । तुच्छ, निःसार, अल्प, लघु, अधम । मा० ३.२८.१५ छत्रा : सं०स्त्री० (सं० क्षुध) । बुभुक्षा, भूख । मा० ७.१०२ छं० छुधावंत : वि०० । भूखा, भूखे । मा० ६.४०.३ छधित : भूकृ.पु (सं० क्षुधित) । बुभुक्षित, भूखे । मा० २.२३५.२ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 तुलसी शब्द-कोश छुभित : भूकृ०वि० (सं० क्षुभित) । विचलित उत्तरङ्गित । 'छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं।' मा० ६.७६.६ छुरा : सं०० (सं० छुर, क्षुर)। चाकू, कटार । 'मेल गरे छुरा धार सों।' कवि० ५११ छरी : सं०स्त्री (सं० क्षुरिका, छुरिका) । कटार, कतरनी, चाकू । 'कपट छरी उर पाहन टेई ।' मा० २.२२.१ छुवत : छुअत । 'सिला छोर छुवत अहल्या भई दिब्य देह ।' गी० १.६७.३ छुवन : भकृ० (सं० छोटतुम् >प्रा० छुविउं>अ० छुवण) । छूने (को)। 'मन के __ करन चाहैं चरन छुवन ।' गी० ५.४८.२ छुहे : वि०पु० (सं० सुधित= सुधालिप्त>प्रा० छुहिम लिप्त) ब० । रोचना आदि के लेप से युक्त । 'छुहे पुरट घर सहज सुहाए।' मा० १.३४६.६ छूछा : छूछा । वि०पू०ए० (सं० तुच्छ>प्रा० छुच्छ) । सार शून्य, सूना, रिक्त । _ 'प्रेम भरा मन निज गति छूछा।' मा० २.२४२.७ छछी : छूछा+स्त्री० । 'बोली असुभ भरी सुभ छूछी।' मा० २.३८.८ छूछे : रिक्त में, अभाव में, शून्य में । 'परेउ मनोरथु छूछे ।' मा० २.३२.२ छूछे : छूछा+ब० । रिक्त, सार शून्य । 'सब छूछे के के छोड़ि गो।' कवि० ६.२४ छूछो : छूछा+कए । निस्सार । 'कह्यो है पछोरन छूछो।' कृ० ४३ छट : (१) छूटइ । 'हठ न छूट छूट बरु देहा ।' मा० १.८०.५ (२) भूकृ.पु । छूटा हुआ, मुक्त । 'छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान ।' मा० १.५१ /छूट, छूटइ : (१) सं० छुटति -छुट छेदे>प्रा० छुट्टइ-विच्छिन्न होना; (२) सं० क्षोटति-क्षोट क्षये>प्रा० छुट्टइ-क्षीण या समाप्त होना) आ० प्रए० । (१) समाप्त होता है । 'छूटइ मल किमलहि के धोएं।' मा० ७.४६.३ (२) विछिन्न होता-ती-है। 'छुट इ राम करहु जब दाया।' मा० ४.२१.२४ (३) मुक्त तीव्र गति लेता है । 'छुटइ पबि परबत कहुं जैसें ।' मा० ३.२६.८ छटउ : आ०-- आशंसा, कामना-प्रए० (सं० छुटतु>छुट्टउ) । छूटे, समाप्त हो । 'छूट उ बेगि देह यह मोरी ।' मा० १.५६.७ छटत : वकृ००। (१) छूटत, छूटते । 'अति मचत छूटत कुटिल कच।' गी० ७.१६.४ (२) छूटते हुए (छूटने में)। 'जदपि मृषा छूटत कठिनई ।' मा० ७.११७.४ छुटति : छुटत+स्त्री० । छूटती । 'छूटति छोड़ाए तें ।' विन० २४६.३ छटहिं : आ०प्रब० । (१) भङ्ग हो जाते हैं । 'छूटहिं मुनि ध्याना।' मा० १.६१.४ (२) त्यक्त या समाप्त होते हैं। 'जासु कृपा छूटहिं मद मोहा ।' मा० Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसा शब्द-कोश 313 ४.१८.६ (३) मुक्त होते हैं । 'भव बंधन ते छूटहिं ।' मा० ७.५८ (४) खुलते हैं । 'छूटहिं भव पासा ।' मा० ७.१२६.१ छटि : (१) छटी । भङ्ग हुई। 'छटि समाधि संभु तब जागे।' मा० १.८७.३ (२) खुल गयी। 'मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी ।' मा० १.१३५.५ (३) पूक० । मुक्त होकर, छूट कर । 'चलि हैं छूटि पुज पापिन के।' विन० ६५.२ छू टिबे : भ०००। छूटने । 'छुटिबे के जतन बिसेष बाँधो जाय गो।' विन० ६८.४ छटी : छूटी+ब० । छोड़ी गयीं । 'कुसुमांजलि छूटी।' मा० १.२६५.५ छटी : भूक०स्त्री०ए० । (१) समाप्त हुई । 'छूटी त्रिबिधि ईषना गाढ़ी।' मा० ७.११०.१३ (२) बच रही । 'रत्यौ रची बिधि जो छोलत छबि छूटी।' गी० २.२१.१ छटे : भूक ००ब०। (१) खुले। 'मुक्त भए छुटे भव बंधन ।' मा० ६.११४.७ (२) बन्धन से विमुक्त हुए। 'छूटे कच नहिं देह संभारा।' मा० ६ १०४.३ (३) मुक्त होकर तीव्रता से चले। 'छूटे तीर सरीर समाने ।' मा० ६.७०.७ (४) छूटइ। समाप्त हो जाती है। जैसें दिवस दीप छबि छूटे ।' मा० १.२६३.५ छट : छूटइ । (१) समाप्त हो सकता है, व्यक्त हो जाय । 'हठ न छूट छूट बरु देहा ।' मा० १.८०.५ (२) खुल मकता-ती-है । 'अभ्यंतर ग्रंथि न छूट ।' विन० ११५.१ छट्यो : भूकृ०पू०ए० । छूट गया, समाप्त हो गया । 'सतु सब को छूट्यो।' कवि० छति : सं०स्त्री० (सं० छुप्ति>प्रा० छुत्ति) । अस्पृश्यता, अशुद्धि । 'करतब छल छूति ।' दो० ४११ छेका : भूक०पू० । घेर लिया। 'गुढ़ पुनि छेका आइ ।' मा० ६.४६ छेकी : भूकृ०स्त्री०। (१) रुद्ध कर दी, रोक दी। 'सो गोसाइँ बिधि गति जेहि छेकी।' मा० २.२५५.८ (२) रोकी हुई । 'तनु तजि रहति छांह किपि छेको।' ___ मा० २.६७.५ छेत्र : संपु०कए० (सं० क्षेत्रम्>प्रा० छेत्तं>अ० छेत्रु)। (१) रक्ष क्षेत्र (२) तीर्थ स्थल (३) भू-भाग । 'छेत्रु अगम गढ़. गाढ़ सुहावा ।' मा० २.१०५.५ छेदन : सं० पु. (सं.) । काटना । 'भव खेद छेदन दच्छ ।' मा० ७.१३ छं० २ छेदनिहारा : वि००। काटने वाला। 'सहसबाहु भुज छेदनिहारा ।' मा० १.२७२.८ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 तुलसी शब्द-कोश छेदे : भूक००० (सं० छेदित) । काट डाले । 'एक एक सर सिर निकर छेदे ।' मा० ६.६२ छं० छम : सं०पु० (सं० क्षेम)। (१) शुभ, कल्याण । 'छेमकरी कह छेय बिसेषी।' मा० १.३०३.७ (२) 'योग-क्षेम' के युग्म में क्षेम का अर्थ 'प्राप्त वस्तु की रक्षा' होता है । 'जोग जाय बिनु छेम ।' दो० १०३ छेमकरी : संस्त्री० (सं० क्षेमकरी) । मङ्गल सूचक लाल रङ्ग की, चमकीली चील (जिसका उत्तम वर्णन कवि० ७.१८० में हुआ है)। 'छेमकरी कह छम बिसेषी।' मा० १.३०३.७ छेमा : छम । मा० ७.६५.६ छेरी : सं०स्त्री० (सं छेली, छेलिका, छगली)। बकरी । कवि० ५.६ छया : संपु । छौना, दुलारा शिशु । 'छगन छबीले छोटे छया।' गी० १.२०.२ छल : छयल । कवि० ६ ३२ छहै : आ०भ०प्रए । छा जाएगा, व्याप्त होगा । 'नभ तल बिमल बिमाननि छहै ।' गी० ५.५०.३ छोट : वि.पु । छोटा, ह्रस्व, लघु । मा० १.२१.३ छोटाई : सं०स्त्री० । छुटपना, लघुता । विन० २६२.१ । छोटि : छोटी । 'आपु छोटि महिमा बड़ि जानी ।' मा० २.३०३.७ छोटिए : छोटी ही । 'छोटिए कछोटी कटि, छोटिए तरकसी।' गी० १.४४.१ छोटी : वि०स्त्री० । कवि० ७.१८ । छोटे : 'छोट' का रूपान्तर । 'छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता।' मा० २.२६३.६ छोटेउ : छोटे भी । 'छोटेउ बाढ़े।' कवि० ७.१२७ । छोटो : छोट+कए । एकमात्र छोटा। ‘राम सों बड़ो है कोन, मो सों कौन छोटो।' विन० ७२.२ छोड़ : आ० उए । छोड़ता हूं। बचा देता हूं। 'उतर देत छोड़उं बिन मारें।' मा० १.२७५७ छोड़ति : वकृ०स्त्री० । छोड़ती, मुक्त करती। 'छोड़ति छोड़ाये तें गहाये तें गहति ।' विन० २४६.३ छोड़ाई : छड़ाई । छुड़ा, मुक्त करा। 'दया लागि बलि दीन्ह छोड़ाई ।' मा० ६.२३.१४ छोड़ाए : भूक००० । मुक्त कराये । 'दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए।' मा० ५.५२.७ छोड़ाये : छोड़ाए। विन० २४६.३ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 315 छोड़ावा : भुक.पु०ए० । मुक्त करा दिया। 'सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़ावा ।' मा० • ६.२४.१६ छोडिए : आ०कवा०प्रए । 'दोष दु:ख दारिद दरिद्र के के छोड़िए।' कवि० ७.२५ छोड़ी : सं०स्त्री० । छोटी लड़की । 'छलिन की छोड़ी सो निगोड़ी भोंड़े भील की।' __ कवि० ७.१८ छोड़ो : भूकृ.पु.कए । छोड़ दिया। 'आपन छोड़ो साथ जब ।' दो० ५३४ छोना : छोना । कवि० १.१८ छोनिप : सं०० (सं० क्षोणीप) । राजा । मा० १.२४१.७ छोनी : संस्त्री० (सं० क्षोणी) । पृथ्वी । मा० २.२३२.२ छोनीपति : छोनिप (सं० क्षोणीपति) । कवि० १.८ छोभ : सं०० (सं० क्षोभ) । खलबली, हलचल, अशान्ति, आवेग । 'मुनि बिग्यान __ धाम मन करहिं निमिष महुं छोभ ।' मा० ३.३८ छोभा : भू००० । क्षुब्ध हुआ, अशान्त हो गया । 'सहज पुनीत मोर मनु छोभा।" मा० १.२३१.३ छोभु : छोभ+कए । 'संकर उर अति छोभु ।' मा० १.४८ ख छोर : (१) (समासान्त में) वि०पू० । छोड़ने वाला, मुक्त करने वाला । 'बिबुध बन्दी छोर ।' हनु० ६ (२) संपु० । अन्तिम भाग, सिरा । 'सिला छोर छुअत अहल्या भई दिब्य देह ।' गी० १.६७.३ छोर, छोरइ : (सं० क्षोरयति-क्षर छेदे; छोरति-छुर छेदे>प्रा० छोरइकाटना, बन्धन उच्छिन्न करना) आ०प्रए० ! बन्धन मुक्त करता है। 'देखी भगति जो छोरइ ताही ।' मा० १.२०२.४ छोरत : वकृ०० । छोड़ते, खोलते, काटते । 'छोरत ग्रंथि जानि खगराया.....।' मा० ७.११८.६ छोरन : भकृ० अव्यय । खोलने, काटने । 'छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई ।' मा० ७.११८.५ छोरि : (१) पूर्व० । खोलकर, निकाल कर । 'दीन्ही है असीस चारु चूड़ामनि छोरि के।' कवि० ५.२६ (२) आ० - आज्ञा-मए । तू काट, खोल । 'दुसह दावरी छोरि बावरी ।' कृ० १५ छोरिबे : भक० पु । छोड़ने, मुक्त करने । 'छोरिबे को महाराज, बाँधिबे को कोटि भट ।' विन० २६०.२ छोरी : (१) छोरि । 'कवन सकइ भव बंधन छोरी।' मा० १.१००३ (२) भूकृ. स्त्री० । खोली, काट दी। गाँठि बिनु गुन की कठिन जड़ चेतन की छोरी अनायास ।' गी० १.८८.३ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 तुलसी शब्द-कोश 'छोरे : भू०००। (१) खोले, आवरण मुक्त किये । 'प्रान कपान बीर सी छोरे ।' गी० २.११.२ (२) अलग किये । 'सुदिनु सोधि कल कंकन छोरे ।' मा० १.३६०.१ (३) काटे (काटने या खोलने से)। 'मोह शृंखला छुटिहि तुम्हारे छोरे ।' विन० ११४.५ (४) छीने (छीनकर) । 'लेत सरद ससि की छबि छोरे।' गी० ३.२.३ छोरै : छोरइ । खोल सकता है । जेहिं बाँध्यो सोइ छोरै ।' विन० १०२.५ छोरौ : आ०मब० । खोलो, बन्धनरहित करो। 'हाथी छोरो, घोरा छोरो, महिष बृषभ छोरौ।' कवि० ५.६ छोलत : वक०० । छोलते हुए, छोलते समय । 'रत्यो रची बिधि जो छोलत छबि छूटी।' गी० २.२१.१ छोलि : पूक० । छोलकर । 'गढ़ि गुढ़ि छोलि छालि कुंद कीसी भाई बात ।' कवि० ७.६३ छोली : छोलि । गढ़ि छोली । अवध साढ़साती तब बोली।' मा० २.१७.४ छोह : संपु । कृपापूर्ण ममत्व, दयाभाव, वात्सत्य । 'प्रभु छाड़ेउ करि छोह ।' मा० ३.२ छोहरा : सं० । लड़का, छोकरा, छोरा । कवि० ५.७ छोहा : छोह । मा० ४.३.२ छोहु, छोहू : छोह+कए । 'करहिं छोहु सब ।' मा० २.३.४ छौना : सं०पू० (सं० सवन) । शावक, शिश । 'मनहुं बिनोद लरत छबि छोना ।' __ गी० १.२४.५ छु वै : छुइ । छू कर । 'सकुचाति मही पद पंकज छवै ।' कवि० २.१८ जंजीर : सं०स्त्री० (फ्रा० जन्जीर) । लोह-शृखला । कवि० ७.४४ जंभात : वकृ०० (सं० जृम्भमाण+प्रा. जंभंत)। जंभाई लेते। 'हो जंभात __ अलसात तात।' गी० १.१६.४ ज : सर्वनाम (सं० यद्>प्रा० ज)। जो, जा, जिन आदि का मूल शब्द । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 317 जं : सर्वनाम (सं० यम्>प्रा० जं)। जिसे, जिसको । मा० ३.३२ छं० ४ । जंगम : वि०पू० (सं०) स्थावर का विलोम । (१) गतिशील, चलता-फिरता । 'जो जग जंगम तीरथराजू ।' मा० १.२.७ (२) परिव्राजक साधु जो चलते रहते हैं। 'जागें जोगी जंगम ।' कवि ७.१०६ जंघ, घा : सं०स्त्री० (सं.)। पैरों के टखने और घुटने के मध्य का मांसल अंङ्ग। ___ 'चरन सरोज, चारु जंघा, जानु, अरु, कटि ।' गी० ७.७३.३ । जंजाल, ला : सं० । पाश, जाल, बन्धन, झंझट । मा० १.२११ .. जंतु : सं०० (सं.)। (१) प्राणी। 'खग मग जीव जंतु जहँ नाहीं।' मा १.११०.११ (२) छुद्र कीट-पतङ्ग। 'गूलरि फल समान तव लंका। बसहु मध्य तुम्ह जंत असंका।' मा० ६.३६.३ जंत्र : सं०० (सं० यन्त्र) । (१) बन्धन, शृंखला। (२) बांधने का स्तम्भ ___ आदि । (३),शल्य आदि उपकरण । (४) ज्योतिष के चक्र आदि । (५) तन्त्र __ शास्त्र के रहस्यलेख । 'जंत्र मंत्र' हनु० २६ (६) कोल्हू । 'सुकृत सुमन तिल मोद बासि बिधि जतन जंत्र भरि घानी।' गी० १.४.१३ जंत्रित : भूकृ० (सं० यन्त्रित)। आबद्ध, नियन्त्रित, संसक्त । 'लोचन निज पंद जंत्रित ।' मा० ५३० जंत्री : भूक०स्त्री० (सं० यन्त्रिता>प्रा० जतिआ>अ० जंत्री) । बाँध दी, कील दी, नियन्त्रित कर दी । 'भरत भगति सब के मति जंत्री।' मा० २.३०३.२ . जंबु : सं०० (सं०) । जामुन का वृक्ष, फरेंद वृक्ष । मा० २.२३७.२ . जंबुक : सं०० (सं०) । सियार । मा० ३.२० छं० १ (२) नीच मनुष्य ।। जंबुकनि : जंबुक+संब० । (१) सियारों (ने) । (२) नीच लुरेरों (ने) । 'हाट सी उठति जंबुकनि लूट्यो।' कवि० ६.४६ जंबुकादि : सियार इत्यादि । कवि०६.२ जइहैं : आ०भ०प्रब० (सं० यास्यन्ति>प्रा० जाइहिति>अ० जाइहिहिं) । जायंगे (नष्ट होंगे)। 'जइहैं सहित समाज ।' दो० ४१६ जए : (१) जय । 'सुर बिकल बोलहि जय जए।' मा० ६.१०२ छं० (२) भूक०० ब० । जीत गये । 'रिपु जनु रन जए।' जा०म०छं० १७ जग : सं०० (सं० जगत्)। (१) विश्वप्रपञ्च । 'जग जस भाजन चातक मीना।' मा० २.२३४.३ (२) जंगम (स्थावर का विलोम) । 'अगजगमय सब रहित विरागी।' मा० १.१८५.७ (३) दोनों का एकत्र प्रयोग : 'अगजगमय जंग मम उपराजा ।' मा० ७.६०.५ जग जगह : (सं० जागति>प्रा० जग्गइ-प्रबुद्ध होना, सोकर संचेतन होना, सावधान होना, जगमगाना) आप्रए । जगमगाती है । 'जग छबि मोतिन माल अमोलन की।' कवि० १.५ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 तुलसी शब्द-कोश जगजननि : सं० स्त्री० (सं० जगज्जननी ) । जगदम्बा, परमात्मा की मूल शक्ति । मा० १.४८.२ जगजानी : वि。स्त्री० । विश्व में विदित । कृ० ४६ जगजाल : विश्वप्रपञ्च, विश्वविस्तार । 'को है जगजाल जो न मानत इताति है ।' हनु० ३० जगजोनी : (सं० जगद्योनि) विश्व की उत्पत्ति का मूल कारण । मा० २.२६७ ३ जगत् : सं०पु० (सं० ) । विश्व | मा० ५ श्लो० १ जगत : जगत्, जग । मा० ९.३ ख । जगतपति : (१) जगत्पति (२) (सं० जाग्रत्पति) जागने वालों में श्रेष्ठ । 'गुर तें पहिलेहि जगतपति जागे राम सुजान ।' मा० १.२२६ जगतबंध : विश्व भर के प्रणम्य । मा० १.५०.६ जगतमनि : जगत् में शिरोमणि, विश्व में सर्वोत्तम । कवि ७.११३ जगती : सं० स्त्री० (सं० ) । पृथ्वी । 'जगती जामति बिनु बई ।' गी० ५.३८.५ जगतीतल : भूतल । पृथ्वीमण्डल । मा० २.४६.१ जगतु : जगत + कए० । मा० २.२६२.१ जगत्पति: परमेश्वर । कवि० ७.२७ जगद् : जगत् । विन० १८.१ 'जगदंब जगदंबा | जगदंबा : (सं०) जगन्माता । दुर्ग, महालक्ष्मी, सीता । 'जगदम्बा जानहु जियँ सीता ।' मा० १-२४६.२ जगदंबिका : जगदंबा । मा० १.२४७.१ जगदंब जगदंबिका + सम्बोधन (सं० ) । हे जगदीश्वरि ! जय जय जगदंबिके भवानी ।' मा० १.८१.४ जगदातमा: सं०पु० (सं० जगदात्मन्) । अन्तर्यामी । 'जगदातमा महेस पुरारी ।' मा० १.६४.५ जगदाधार : विश्व का आधार । शेषनाग = लक्ष्मण | 'जगदाधार सेष !' मा० ६.५४ जगदाधारा : जगदाधार । मा० ६.७७.४ जगदीस, सा: सं०पु० (सं० जगदीश ) । परमेश्वर । मा० २.१२१.४; १.६.७ जगदीसु : जगदीस + कए० । एक मात्र ईश्वर । 'हेतु जान जगदीसु ।' मा० २३८ जगद्गुरु : वि० सं० (सं० ) । विश्व में श्रेष्ठ + विश्व का उपदेशक = परमेश्वर । मा० ३.४६ जगनिवास : जगन्निवास । मा० १.१६१ जगन्निवास: विश्व के अधिष्ठान = राम । 'भई आस सिथल जगन्निवास दील की ।' कवि० ६.५२ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 319 जगपति : जगत्पति । विन० १३६.६ जगपावनि : वि०स्त्री० (सं० जगत्पावनी)। जगत् को पवित्र करने वाली। 'गए जहाँ जगपावनि गंगा ।' मा० १.२१२.१ जगमगत : वकृ.पुं० । जगमग प्रकाश करता, चमचमाता । 'जगमगत जीनु जराव ।' मा० १.३१६ छं० जगमगति : वक०स्त्री० । जगमगाहट फैलाती, चमचमाती-सी। विद्यमान । 'जग मगति जोरी एक ।' कवि० १.१६ जगमगात : जगमगत । मा० १३२५३ जगमगि : पू० । देदीप्यमान हो (कर) । 'मनि जटित दुति जगमगि रही।' गी० ७.१६.३ जगमय : वि०० (सं० जगन्मय)। विश्वरूप, विश्वव्याप्त । 'जगमय प्रभु का. बहु कलपना ।' मा० ६.१५.८ जगमूला : जगत् का मूल कारण । मा० १.१४८.२ जगहि : जगत् को । 'जो माया सब जगहि नचावा ।' मा० ७.७२.१ जगाइ : पूकृ० । जगा कर । 'रावन भाइ जगाइ तब कहा प्रसंगु अचेत ।' रा०प्र० ५.७१ जगाईबो : भकृ.पु०कए । जगाना, सावधान या सचेत करना । 'उपदेसिबो जगाइबो तुलसी उचित न होइ ।' दो० ४८६ जगाई : भूकृ००ब० जगाये। गी० १.१०३.४ जगाएहि : आ० - भूकृ००+मए० । तू ने जगाया । 'अब मोहि आइ जगाएहि __काहा ।' मा० ६.६३.१ जगायो : भूकृ००कए । जगाया, उजागर किया। गोरख जगायो जोगु, भगति भगायो लोगु ।' कवि० ७.८४ जगावति, ती : वकृ०स्त्री० । जगाती, शयन से उठाती । 'कबहुं प्रथम ज्यों जाइ जगावति ।' गी० २.५२.२ जगावहु : आ०मब० (सं० जागरयत>प्रा० जग्गावह>अ० जग्गावहु) । जगावो, नींद से उठाओ ।' 'जाहु सुमंत्र जगावहु जाई ।' मा० २.३८.२ जगावा : भूकृ०० (सं० जागरित>प्रा० जग्गाविअ) । जगाया। सचेत किया । 'मुनि हि राम बहु भाँति जगावा ।' मा० ३.१०.१७ .. नगावी : जगावहु । 'सोवै सो जगावी, जागि जागि रे।' कवि० ५.६ जगु : जग+कए । जगत् । मा० १.२१६ जग : जगह । दे० /जग । जग्य : सं०० (सं० यज्ञ) । हवन आदि वैदिक कर्म । मा० १.१८३.८ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 तुलसी शब्द-कोश जग्य उपबीत : यज्ञोपवीत । जनेऊ । 'पीत जग्य उपबीत सुहाएं ।' मा० १.२४४.२ जग्यकु ंडु : सं०पु ं०कए० । यज्ञकुण्ड, गहरी हवन वेदी । 'तुलसी समिध सौंज लंक Gra's fख ।' कवि० ५.७ o जग्योपबीत : जग्यउपबीत । गी० १.१०८.६ च्छ : सं०पु० (सं० यक्ष ) | देवजाति विशेष । मा० १.१७६.४ अच्छपति : यक्ष जाति के राजा = कुबेर । मा० १.१७६.२ जच्छेस: जज्छपति (सं० यक्षेश ) । कुबेर । कवि० ७.११५ जाति, ती : सं०पु० (सं० ययाति ) । चन्द्रवंश का एक राजा । मा० २.१७३.८ जाती : जजाति । 'सुरपुर तें जनु खसेड जजाती ।' मा० २.१४८.६ जजुट : सं०पु० (सं० यजुर्वेद) 'रिगु जजुट अथर्बन साम को ।' विन० १५५.२ जटाजूट : जटाजूट मा० ३.१८ छं० जनि : जटा + संत्र० । जटाओं । 'माथे मुकुट जटनि के ।' कवि० २.१६ जटा : सं०स्त्री० (सं०) । अप्रसाधित केशकलाप, लुटाये - उलझे केशों का पुञ्ज । मा० १.२६८.५ जटाइ : जटायु । ' सराधु कियो सबरी जटाइ को ।' कवि० ७.२२ 1 जटाजूट : सं०पु० (सं० ) । जटाओं का जूड़ा, लुटराये केशकलाप का बंधा हुआ 1 स्तूपाकार पुञ्ज । मा० २.३२४.३ जटापटल : सं०पु० (सं० ) । जटाओं का समूह, जटाजूट । गी० ५.२२.२ जटाय : जटायु । 'गीध जसी जटाय ।' गी० ७.३१.४ जटायु यू : सं०पु० (सं० जटायुष्) । रामायण कथा में एक गृध्र का नाम । मा० ३.२६.१४ जटित : वि० (सं० ) । जड़ा हुआ, जड़ी हुई, खचित । किकिनी कलित कटि हाटक जटित मनि ।' गी० १.३३.२ जटिल : वि० ० (सं० ) । जटाधारी । ' जोगी जटिल अकाम मन ।' मा० १.६७ जटे : भूकृ०पु० (सं० जटित ) । जड़े हुए, गुम्फित । श्रोनित छीट छटानि जटे तुलसी प्रभु सोहैं ।' कवि० ६.५१ 1 जट : भूक०पु०क० । जटित, जड़ा हुआ, जकड़ा हुआ, गुंफा हुआ। 'सबु लागत फोकट झूठ-जटो ।' कवि० ७.८६ जठर : सं०पु ं० (सं०) । उदर, गर्भ । ' जठर धरेउ जेहि कपिल कृपाला ।' मा० १.१४२.६ जठरागी : सं०पु० + स्त्री० (सं० जठराग्नि) । आमाशय की पाचक शक्ति । 'जिमि सो असन पचवै जठरागी ।' मा० ७.११६.६ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश _321 जठोरि, री : वि०स्त्री० (सं० ज्येष्ठतरा>प्रा. जेट्टयरी), श्रेष्ठ तथा वय में ___ बड़ी । 'बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी ।' मा० २.४६.३ जठेरिन्ह : जठेरि+संब०। वयस्काओं (ने) । बड़ी-बूढ़ो स्त्रियों ने । 'जरठ जठेरिन्ह आसिरबाद दये हैं।' गी० १.११.४ । जड़ : (१) वि०+सं० (सं.)। स्थिर, गतिहीन । कृ. २४ (२) मूर्ख । 'छीनि लेइ जानि जानि जड़।' मा० १.१२५ (३) अचेतन तत्त्व । 'जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार ।' मा० १.६ (४) महाभूत-पृथ्वी, जल, तेज, वाय, आकाश । 'जड़ पंच मिल जेहिं देह करी।' कवि० ७.२७ जड़ता : सं०स्त्री० (सं.)। कठोरता, अचेतनता । मा० १.२५८.७ जड़ताई : जड़ता से, व्यामोहवश । 'अपनी जड़ताई-तुम्हहि सुगाइ ।' मा० २.१८४.६ जड़ताई : जड़ता । मा० १.७८.४ जड़न्त : जड़+संब० । जड़ तत्त्वों। 'जहँ असि दसा जड़न्ह के बरनी।' मा० १.८५३ जड़मति : वि० (सं०) । मूढ़बुद्धि, दुर्बुद्धि । मा० ६.१०१ क जड़हि : जड़ को, अचेतन को। 'जड़ हि करइ चैतन्य ।' मा० ७.११९ख जत : वि.पु । जितना, जितने । 'जड़ चेतन जग जीव जत ।' मा० १.७ग जतन : सं०० (सं० यतन, यत्न)। (१) उपाय । ' नाम निरूपन नाम जतन तें।' मा० १.२३.८ (२) प्रयास । 'करि देखा हर जतन बहु ।' मा० १.६२ (३) युक्ति । 'करौं जादू सोइ जतन बिचारी।' मा० १.१३१.७ (४) साधना । 'जेहि कारन मुनि जतन कराहीं।' मा० १.१४६.४ जतनु : जतन+कए० । 'करेहु जाइ सोइ जतनु बिचारी ।' मा० १.५२.३ जति, ती : (१) सं०० (सं० यति) । संयमी, योगी। 'जतिहि अबिधा नास ।' मा० २.२६ (२) सं०स्त्री० (सं० यति)। विराम, सीमा। 'जंघा कदली जाति ।' गी० ७.१७.४ जतिन्ह : जाति+संब० । यतियों, योगियों। 'दंड जतिन्ह कर भेद जहँ ।' मा. ७.२२ जती : जति । योगी । 'सोचिअ जती प्रपंचरत ।' मा० २.१७२ जत्रु : सं० (सं.)। गले की दो हड्डियां जिन्हें हँसुली कहते हैं । 'गूढ जत्रु बनि पीन अंस तति ।' गी० ७.१७.१० जथा : अव्यय (सं० यथा)। जिस प्रकार, जैसा, जैसे । 'जथा बंस ब्यवहारु ।' मा० १.२८६ (२) समान । 'सोउ सर्बग्य जया त्रिपुरारी।' मा० १.५१.१ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 तुलसी शब्द-कोश जथाजोग : क्रि०वि० (सं० यथायोग्य>प्रा० जहाजोग्ग)। योग्यतानुसार । 'जथा जोग सनमानि प्रभु ।' मा० २.१३४ (२) यथोचित । जथाजोगु : जथाजोग (सं० यथायोग्यम् >प्रा० जहाजोग्गं>अ० जहाजोग्गु) । 'जथाजोगु निज कुल अनुहारी ।' मा० १.२२४.७ जथाथिति : क्रि०वि० (सं० यथास्थिति)। स्थिति के अनुरूप; जैसा था वैसा, पूर्ववत् स्थिति में । 'भयउ जथाथिति सब संसारू ।' मा० १.८६.२ जथाबिधि : क्रि०वि० (सं० यथाविधि) । विधिपूर्वक, विधान के अनुसार । 'मिले जथाबिधि सबहि प्रभु । मा० १.३०८ जथामति : क्रि०वि० । बुद्धि के अनुसार । मा० २.२७२.१ जथारथ : क्रि०वि० (सं० यथार्थ) । अर्थ के अनुसार, जैसा अर्थ है उसी के अनुरूप । 'बोध जथारथ बेद पुराना।' मा० ३.४६.५ जथारथु : जथारथ । तत्त्वतः, वस्तु स्वभाव के अनुसार, यथार्थतः । 'नीति प्रीति , परमारथु स्वारथ । कोउ न राम सम जान जथारथु ।' मा० २.२५४.५ जथारुचि : क्रि०वि० । रुचि के अनुरूप । 'अबिनय बिनय जथारुचि बानी ।' मा० २.३००.८ जथालाभ : क्रि०वि० । जितना मिले उतने में ; लाभ के ही अनुसार । 'जथालाभ संतोषा।' मा० ३.३६.४ जथाश्रुत : क्रि०वि० (सं० यथाश्रुत) । (१) आगमों के अनुसार (२) जैसा सुना है उसी के अनुसार । 'तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी।' मा० १.११४.५ जथोचित : जथाजोगु (सं० यथोचित) । जैसा उचित हो तदनुसार । 'सबहि जथो चित आसन दीन्हे ।' मा० ११००.१ जदपि : क्रि०वि० अव्यय (सं० यदपि, यद्यपि) । मा० १.१५०.५ जदु : सं०० (सं० यदु) । यादवों के पूर्वपुरुष =ययाति के पुत्र जिनके वंश में कृष्ण ने अवतार लिया था । मा० १.८८.१ जदुनाथ : यादवों के स्वामी+यदुवंश में श्रेष्ठ = श्रीकृष्ण । जदुराइ, ई : (दे० राई) । यदुराज श्रीकृष्ण । कृ० १ अद्यपि : जदपि । मा० १.२६४.२ जन : सं०० (सं.) (१) लोग। 'जोगिजन' - मा० २.२७६ छं० (२) भक्त, दास । 'कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं।' मा० १.१२२.१ जन, जनइ : (सं० जनयति>प्रा० जणइ-उत्पन्न करना, प्रादुर्भूत करना) आ० प्रए । जनन करता है । 'जो फल चारि चार्यो जन ।' गी० ५.४०.१ जनक : वि०+सं० (सं०) । (१) उत्पादक । 'तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी ।' मा० १.१५०.६ (२) पिता। 'जननी जनक बंधु सुखदाता।' मा० २.४३.३ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 323 (३) मिथिला देश-जैसे, जनकपति । (४) मिथिला का राजा । (५) मिथिला नरेश =सीरध्वज जिनकी पुत्री सीता थीं। 'जनकतनया' मा० १.२३१.१ जनकपति : जनक देश का राजा-सीरध्वज = सीता के पिता । मा० २.२७५.२ जनकपुर : जनक देश की राजधानी । मा० १.२१८.१ जनकपुर : जनकपुर+कए० । मा० १.३१४.४ जनकराज : जनकपति । मा०२.२८१३ जनकसुत हि : जानकी को । 'जनकसुतहि समुझाइ करि ।' मा० ५.२७ जनकसुता : जानकी=सीता । मा० १ १८.८ जनकु : जनक+कए । राजा सीरध्वज == जानकी के पिता । मा० १.२४४.४ जनको : जनक भी, पिता भी। हितू जननी न जनको।' कवि० ७.७७ जनकौर : सं०० (सं० जनकपुर)। सिय नैहर जनकौर नगर नियराइन्हि ।' जा० मं० १२० जनकौरा : वि.पु. (सं जनकपौर) । जनकपुर-वासी । 'कोसलपति गति सुनि जनकोरा । भे सब लोक सोक बस बोरा ।' मा० २.२७१.१ जनतेउँ : क्रियाति० पु० उए । (यदि) मैं जानता। 'जौं जनतेउँ बिनु भट भुवि भाई । तो पनु करि होतेउँ न हँसाई ।' मा० १.२५२.६ जननि : सं०+वि०स्त्री० (सं.)। जन्म देने वाली, माता । मा० १.१८.७ जननिन्ह : जननि+संब० । माताओं (ने) । 'जननिन्ह सादर बदन निहारे ।' मा० १.३५८.८ जननिहि : माता को । मा० १.६७.५ जननी : (१) जननी+ब० माताएं । 'निमखहिं छबि जननी तनतोरी ।' मा० १.१६८.५ (२) जननी ने । 'बहु बिधि जननी कीन्ह प्रबोधा ।' मा० १.६३.८ जननी : जननि । मा० १.२०१.५ जनपद : सं०० (सं०) । देश, राज्य, राष्ट्र । गी० १.४.३ जनपालक : भक्तों के तथा जनता के रक्षक , मा० ७.२८.७ जनम : सं०० (सं० जन्मन्) । (१) उत्पत्ति, प्रसव । मा० १.३४.६ (२) सम्पूर्ण जीवन । 'जनम गयउ हरि भगति बिनु ।' मा० १.१४२ /जनम, जनमइ : जनम+प्रए० । जन्म लेता है। 'जग जनमइ बायस सरीर धरि ।' मा० ७.१२१.२४ जनमत : जनम +वकृ० । (१) उत्पन्न होता । 'जनमत जगत जननि दुख लागी।' विन० १४०.३ (२) उत्पन्न होते ही। 'जनमत काहे न मारे मोही ।' मा० २.१६१.७ (३) जन्म देती। 'सुन्दर सुत जनमत मैं ओऊ ।' मा० १.१६५.१ जनमथल : जन्म का स्थान । कवि० ७.१३८ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 तुलसी शब्द-कोश जनमपत्रिका : जन्म कुण्डली जिसमें जन्मकाल की ग्रहस्थिति आदि का ब्योरा रहता है। दो० २६८ जनमफल : जनमफल+कए । जीवन का एकमात्र फल, परम पुरुषार्थ । मा० २.१२१.८ जनमा : जनम+भू००० । उत्पन्न हुआ। 'नहिं अस कोउ जनमा जग माहीं।' मा० १.६०.८ जनमि : (१) जनमी। उत्पन्न हुई। 'जौं जनमि त भइ काहे न बांझा।' मा० २.१६४ ४ (२) पूकृ० । जन्म लेकर, उत्पन्न होकर । 'भए जग जनमि जनकपुर बासी।' मा० १.३१०.४ जनमी : जनमी+ब० । उत्पन्न हुई । 'जनमी पारवती तनु पाई।' मा० १.६५.६ जनमी : जनम+भूकृ०स्त्री० । उत्पन्न हुई। 'जनमी जाइ हिमाचल गेहा ।' मा० १.८३.२ जनम् : जनम+कए । 'जद्यपि जनम कुमातु तें।' मा० २.१८३ जनमे : जनम+भूकृ००ब० । उत्पन्न हुए। 'जनमे एक संग सब भाई ।' मा० २.१०.५ जनमेउं : आ० - भूक००+उए । मैंने जन्म लिया। 'कवन जोनि जनमेउं जग ___ नाहीं ।' मा० ७.६६.८ जममेउ : जनम+भूकृपु०कए । उत्पन्न हुआ। तब जनमेउ षटबदन कुमारा।' ___ मा० १.१०३.७ . जनम्यो : जनमेउ । कवि ७.३२ जनयत्री : वि०स्त्री० (सं० जनयित्री)। उत्पन्न करने वाली, जननशीला । 'द्विज __ पद प्रीति धर्म जनयत्री ।' मा० ७.३८.६ जनवास : सं०० (सं० जन्य =दूल्हा तथा सहयात्री+बास>प्रा० जन्नवास)। बारात ठहरने का स्थान । 'गईं जहाँ जनवास ।' १.३०८ । जनवासा : जनवास मा० १.३०८.६ जनवासे : (१) जनवासा का रूपान्तर । 'जनवासे कहुं चले लवाई।' मा० १.३०६.४ (२) (सं० जन्यवासे-प्रा० जण्णवासे) । जनवास में । 'गे जनवासे राउ।' जा०म० १५८ जनवासेहिं : जनवास में । 'उबरा सो जनवासेहिं आवा।' मा० १.३२६.७ जनवासेहि : जनवासे को । 'जनवासेहि चले ।' जा०म० छं० २० जनाइ : (१) पक० (सं०ज्ञापयित्वा>प्रा० जाणाविअ>अ० जाणावि । जता कर । 'कहिबी नाम दसा जनाइ।' विन० ४१.३ (२) जनाई। बतायी। 'आपनि बात जनाइ।' रा०प्र० ५.२.७ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 325 जनाई : (१) भूक०स्त्री० (सं० ज्ञापिता>प्रा० जाणाविआ)। निवेदित की, जताई । 'भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई।' मा० १.२६०.२ (२) विदित की हुई । 'अपराध अगाधनि में ही जनाई ।' कवि० ७.४३ (३) जनाइ । जता कर । 'बोले उ अधिक सनेह जनाई ।' मा० १.१६१.७ (४) सं०स्त्री० (सं० ज्ञप्ति>प्रा० जाणाविई)। पहचान, परख, प्रकटीभाव । 'कपट चतुर नहिं होइ जनाई ।' मा० २.१८.४ जनाउ : सं०पु०कए० (सं० ज्ञाप:>प्रा० जाणावो>अ० जाणावु) । सूचना। 'भीतर करहु जनाउ ।' मा० १.३३२ जनाएँ : (सं० ज्ञापितेन>प्रा० जाणाविएण>अ० जाणाविएँ) जताने से, विज्ञापित करने से । 'प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ ।' मा० १.१६२.२ जनाए : भूकृ०० (सं० ज्ञापित>प्रा० जाणाविअ) ब०। (१) जताए, प्रकट किये। 'लिखि नाम जनाए।' गी० १.६.७ (२) प्रकट हुए । 'राम सीय तन सगुन जनाए।' मा० २.७.४ जनायउ, ऊ : भूकृ.पु.कए० (सं० ज्ञापित>प्रा० जाणाविओ>अ० जाणावियउ)। जताया, सूचित किया। 'लखि रुख रानि जनायउ राऊ।' मा० २.२८७.८ जनायो : जनायउ । 'मख राखि जनायो आपु ।' गी० ६.१.२ /जनाव, जनावइ : (सं० ज्ञापयति>प्रा० जाणावइ-बताना, जतलाना, सुचित करना, प्रकट करना) आ.प्रए० । ज्ञापित या सुचित करता है । 'मन अति हरष जनाव न तेही ।' मा० ३.२६.८ जनावउँ : आ० उए० (सं० ज्ञापयामि>प्रा० जाणावमि>अ० जाणावउँ) । जताता हूं, ज्ञापित करता हूं । 'मैं न ज नावउँ काहु ।' मा० १.१६१ जनावत : वकृ०० (सं० ज्ञापयत् >प्रा० जाणावंत) । प्रकट करता, जान पड़ता। 'हरि निरमल मल ग्रसित हृदय असमंजस मोहि जनावत ।' विन० १८५.३ जनावहिं : आप्रब० (सं० ज्ञापयन्ति>प्रा० जाणावंति>अ० जाणावहिं) प्रकट करते हैं । 'बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा।' मा० १.२५५.३ जनावहु : आ०मब० (सं० ज्ञापयत >प्रा० जाणावह>अ० जाणावहु) । जताओ, ज्ञात कराओ। 'तो कहि प्रगट जनावहु सोई ।' मा० २.५०.६ जनावा : भूकृ०० (सं० ज्ञापित>प्रा० जाणाविअ) । जताया, व्यक्त किया। 'निज प्रभाउ कछ प्रगटि जनावा।' मा० १.५४.३ जनावौं : जनावउँ । विन० १४२.७ जनि : निषेधार्थक अव्यय (अ० जाणि) । 'सोक कलंक कोठि जनि होहू ।' मा० २.५०.१ जनिहिं : आ०-कवा० प्रब० (सं० ज्ञायन्ते>प्रा० जाणीअंति>अ० जाणीअहिं)। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 तुलसी शब्द-कोश (१) जान पड़ते हैं । पल सम होहिं न जनिअहिं जाता ।" मा० २.२८०.८ (२) जाने जायें । 'रहत न जनिअहिं प्रान ।' मा० २०६६ नित: भूकृ० (सं० ) । उत्पादित । 'देहजनित अभिमान छड़ावा ।' मा० ४.२८.६ निबे : जानिबे । जानने । 'जनिबे को रघुराउ ।' दो०२०२ अनियत : जानियत । जाने जाते रहे ( हैं ) । 'तुलसी राम जनमहिं तें जनियत ।' गी० १.४६.३ जन हैं : (१) जानिहैं। समझेंगे । (२) आ०प्रब० (सं० जनयिष्यन्ति > प्रा० जणिहित > अ० णिहिहि ) । जनेंगे, उत्पन्न करेंगे । 'चलिहैं छूटि पुंज पापिन के, असमंजस जिय जनि हैं ।' विन० ६५.२ जती : (१) वि०स्त्री० (सं० जनि = जनी ) । स्त्री + माता, जननी । 'सकल सुमंगल मनि जनी ।' गी०५३६.५ (२) भूकृ०स्त्री० । उत्पन्न की। पुरी सुमति जननी जनु जनी ।' गी० १.५१ (३) उत्पन्न हुई । 'सरस सुषमा जनी ।' गी ७५.३ । जैसे । 'जनु बहु मनसिज रति तनु 'जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू ।' जनु : (१) अव्यय ( अ० जणु ) १. १३०.१ ( २ ) मानों । (३) जन + कए० | अनन्य जन । 'जब लगि जनु न तुम्हार ।' मा० २.१०७ जनेउ : जनेऊ । 'चारु जनेउ माल मृग छाला ।' मा० १.२६८.७ जनेऊ : सं०पु० (सं० यज्ञोपवीत > प्रा० जण्णोवईअ ) । द्विजों द्वारा धारणीय यज्ञ धारी ।' मा० मा० २३७.१ सूत्र । मा० १.१४७.७ जनेत : सं० स्त्री० (१) (सं० जन्य यात्रा - जन्य : - दूल्हा तथा उसके साथी > प्रा० जण्णयत्ता > अ० जण्णयत्त ) । बरात । 'भूत पिसाच प्रेत जनेत ऐहैं साजि के ।' पा०मं०छ० ७ (२) (सं० जन्यायात्रा ) । बधू को साथ लिए हुए बरात (जन्या: वधू) । पहुंची आइ जनेत ।' मा० १.३४३ जनेसु : जनेस + कए० । ' जेहि जनेसु देइ जुबराजू ।' मा० २.१४.२ जन : दे० / जन | जनेषु : (सं० पद) लोगों में । 'अह मम मलिन जनेषु ।' मा० २.२२५ जनेस : सं०पु० (सं० जनेश ) । राजा । 'हमरें जान जनेस बहुत भल कीन्हेउ ।' जा० मं० ६७ = जन्म : जनम | मा० १.३४.८ जन्मत: जनमत । 'जन्मत भयउँ सूद्र तनु पाई ।' मा० ७.६७.१ जनंगी : आ०भ० स्त्री०प्र० । उत्पन्न करेगी + प्रसव करेगी । ' प्रभु की बिलंब अंब दोष दुख जगी ।' विन० १७६.५ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 327 जन्म दरिद्र : जन्म से दरिद्र, दरिद्र होकर (दरिद्र माता-पिता से) उत्पन्न । मा० १.२८६३ जन्मभूमि : सं०स्त्री० (सं०) अपने जन्म का भूभाग। मा० ७.४.५ जन्म : जन्म+कए । 'पारबती कर जन्म सुनावा।' मा० १.७६.७ जन्मौं : जन्म+उए । जन्म लूं । 'जेहिं जोनि जन्मौं कर्मबस तहँ राम पद अनुरागऊँ ।' मा० ४.१० ७० २ जन्यो : भूक०कए० (सं० जनित:>प्रा० जणिओ>अ० जणियउ)। उत्पन्न किया । 'अदिति जन्यो जग भानु ।' गी० १.२२.११ जप : सं०० (सं०) । मन्त्र (आदि) का सूक्ष्म उच्चारण—जिसके तीन भेद किये गये हैं (१) किंचित् श्रव्य (२) उपांशु = जिसमें मुख के बाहर ध्वनि न निकले (३) मानस जप-जिस में मंत्र के अक्षरों का ध्यान मात्र होता है। उत्तरोत्तर फल में अधिकता बताई गयी है । जपयज्ञ । मा० १.१३१.८ जपंत : जपत । मा० ३.३२ छ० जप, जपइ : (सं० जपति>प्रा० जप्पइ-जप करना) आ०प्रए० । जपता-ती-है। _ 'जागिबो जो जीह जपै नीके राम नाम को।' कवि० ७.८३ जप : आ० उए । जपता हूं, जपा करता हूँ (था)। 'जपउँ मंत्र सिव मंदिर जाई ।' मा० ७.१०५.८ जपजाग : अनुष्ठान के रूप में जपकर्म ; जप का नियम से विधान के अनुसार अनुष्ठान । 'समन अमित उतपात सब भरत चरित उपजाग।' मा० १.४१ जपत : वकृ०० (सं० जपत् >प्रा० जप्पंत) । जपता, जपते । 'उमा सहित जेहि ____ जपत पुरारी।' मा० १.१०.२ ।। जपति : जपत+स्त्री० । जपा करती। मा० ५.८.८ जपन : भक० । जप करने । 'अस कहि लगे जपन हरि नामा ।' मा० १.५२ ८ जपने : भक००ब० (सं० जपनीय) । 'गौरि गिरापति नहिं जपने ।' कवि० ७.७८ जयहि : आ०प्रब० (सं० जपन्ति>प्रा० जप्पंति>अ० जप्पहिं)। जप करते हैं । . 'साधक नाम जपहिं लय लाएं ।' मा० १.२२.४ जपहि : जपु (सं० जप>प्रा० जप्पहि) । तू जप । 'मंत्र सो जाइ जपहि ।' विन० २४.४ जपहु : आ० मब ० (सं० जपत.>प्रा० जप्पह>अ० जप्पडु)। जपो । 'जपहु जाइ संकर सत नामा ।' मा० १.१३८.५ जपामि : आ० उए० (सं०)। जपता हूं । मा० ७.१४ छ । जपि : पूक० । जप करके । जपि जेई पिय संग भवानी।' मा० १.१६.६ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 तुलसी शब्द-कोश जपिए, ये : आ०कवा०प्रए० (सं० जप्यते>प्रा. जप्पीअइ) । जपा जाय । 'महामंत्र जपिये सोई जेहि जपत महेस ।' विन० १०८.२ जपिहै : आ०भ० (१) प्रए० (सं० जपिष्यति>प्रा० जप्पिहिइ)। वह जपेगा। (२) मए० (सं० जपिष्यसि>प्रा० जप्पिहिसि>अ० जप्पिहिहि)। तू जपेगा । 'राम जीह जौ लौ तू न जपिहै ।' विन० ६८.१ जपु : आ०-आज्ञा-मए० (सं० जप>प्रा० जप्प>अ० जप्पु)। तू जप । 'जपु राम नाम षटमास ।' दो० ५ जपें : जपने से । 'जहाँ बालमीकि भए ब्याध ते मुनिंद साधु 'मरा मरा' जपें।' कवि० ७.१३८ जपे : जपें । 'राम नाम के जपे जाइ जिय की जरनि ।' विन० १८४.१ जपेउ : भूक००कए ० । जपा, जप किया। 'ध्र वं सग लानि जपेउ हरि नाऊँ।' ___ मा० १.२६.५ ज4 : जपहिं । 'हर से हरनिहार जपं जाके नाम ।' गी० ५.२५.२ जप : दे०जप। जप्यो : जपेउ । 'जीहहू न जप्यो नाम ।' विन० ३६१.२ जब : अव्यय । जिस समय । मा० १.३.५ जबहि, हीं : जभी, ठीक जिस समय, ज्योंही। 'आदि सष्टि उपजी जबहिं ।' मा० १.१६२ जबहू : जब भी, जो कभी । 'सुरपति सरिस होइ नप जबहूं।' मा० ७.१२८.५ जब : जबहिं । कवि० ७.५१ जम : सं०० (सं० यम) । (१) यमराज, मृत्युदेव । मा० १.१७५ (२) अष्टाङ्ग योग का प्रथम अङ्ग. जिसके पाँच भाग हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । 'क्षम जम नियम फूल फल ग्याना ।' मा० १.३७.१४ जमकातरि : संस्त्री० (सं० यमकर्तरी>प्रा० जमकत्तरी>अ० जमत्तरि)। मृत्यु देव की तलवार, यमधारा (जमधार)। 'तोरि जमकातरि मदोदरी कढोरि आनी।' हनु० २७ जमगन : सं०० (सं० यमगण) । यमदूत । विन० ६६.३ जमघट : सं०पू०। यमदूत । तो जमघट साँसतिहेर हम से बषभ खोजि खोजि बहते ।' विन० ६७.४ 'जमघट' समूह या जमाव का अर्थ भी देता है जिसे त्रिदोषज सन्निपात रोग का आशय भी निकलता है-'धक्का दे दै जमघट थके।' विन० २६७.२ जमजातना : सं०स्त्री० (सं० यम-यातना) । नारकीय व्यथा । नरक । 'जमजातना सरिस संसारू।' मा० २.६५.५ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 329 जम जातनामई : (दे० मई) । यमयातना से व्याप्त, नरक की प्रचुरता। कीजै मो को जम जातनामई ।' विन० १७१.१ जमदूत, ता : सं०० (सं० यमदूत)। मृत्यु-सन्देशवाहक देवविशेष ।' मा० २.८३.७ जमधार : (१) सं०० (सं० यमधार) । दुधारी तलवार । (२) सं०स्त्री० (सं० यमधारा) । यमराज की सेना, धारा प्रवाह यमदूतों की श्रेणी । 'जमधार सरिस निहारि सब नर नारि चलिहहिं भाजि के ।' पा०म० छं० ७ जमघारि : जमधार । 'करि बिचार भव तरिय, परिय न कबहुँ जमधारि ।' विन० २०३.१८ जमन : (१) यवन । मा० २.१९४ (२) मेच्छ, मुस्लिम । 'जमन महा महिपाल ।' दो० ५५६ जमनिका : सं०स्त्री० (सं० जवनिक=यमनिका)। आवरण, पर्दा, (नाटक का पर्दा) । 'हृदयें जमनिका बहु बिधि लागी।' मा० ७.७३.८ जमपास : सं०पु० (१) सं० यमपाश>प्रा० जमपास) । मृत्यु जाल । (२) (सं० यमपार्श्व>प्रा० जमपास) । मृत्यु के समीप । 'नामु रटो, जम-पास क्यों जाउँ, को आइ सकै जम किंकरु नेरें।' कवि० ७.६२ जमपुर : सं०० (सं० यमपुर)। यमलोक । मा० १.२८०.६ जमराज : सं०० (सं० यमराज)। यमदेव, मृत्युदेव । रा०प्र० ५.३.६ जमात : सं०स्त्री० (अरबी-जमाअत) । यूथ, समुदाय । 'जोगि जमात बरनत __ नहिं बने ।' मा० १.६३ छं. जमाति : जमात । 'जोगिनी जमाति कालिका कलाप तोषि हैं।' कवि० ६.२ जमाती : (१) जमाति (२) जमात या मण्डली बनाकर रहने वाला। 'जती जमाती ध्यान धरै ।' कवि० ७.१०६ जमानो : संपु०कए० (फा० जमानः) । युग, कालखण्ड, दौर । 'जाहिर जहान में जमानो एक भांति भयो।' कवि० ७.७६ जमालय : सं०० (सं० यमालय) । यमलोक, नरक । विन० १४४.२ /जमाव जमावइ : (१) (सं० यम यति>प्रा० जमावइ-स्थिर करना, रोपना, घमीभूत करना (२) सं० जनयति-जन्मयति >प्रा० जम्मावइ-उत्पन्न करना) आ०प्रए । स्थिर करे+घनीभूत करे (दूध से दही करने का उपक्रम करे) । 'धृति सम जावन देइ जमाव ।' मा० ११७.१४ । जमिहहिं : आ०भ० प्रब० (सं० जनिष्यन्ते>प्रा. जम्मिहिंति>अ० जम्मिहहिं) । जमेंगे, उगेंगे । 'जमिहहिं पंख करसि जनि चिता।' मा० ४.२८.६ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 तुलसी शब्द-कोश जमी : वि०० (सं० यमिन् >प्रा० जमी)। संयमी, योगी। 'देखि लोग सकुचात जमी से ।' मा० २.२१५.५ जमु : जम+कए । मृत्यु देवता । 'केहि जम यह लीन्हा ।' मा० २.२६.१ जमुन : जमुना । मा० १.१४७ जमुनहिं : यमुना पार, यमुना में 'बीच बास करि जमुनहिं आए।' मा० २.२२०.८ जमुनहि : यमुना को । 'जमुनहि कीन्ह प्रनामु बहोरी।' मा० २.११२.१ जमुना : सं०स्त्री० (सं० यमुना>प्रा० जमुणा) । नदी विशेष । मा० १.३१.११ जमुहात : वकृ०० (सं० जम्मभाण>प्रा० जंभंत>अ० जम्हंत) । जंभाई लेता ते । 'राम कहत जमुहात । मा० २.३११ जमुहान : भूकृ०पु० (प्रा० जम्माण> जम्हाण) । जंभाया (जंभाई ली)। "कुंभकरन जमुहान ।' रा०प्र० ५७.२ जमुहाहि, हीं : आ०प्रब० । अँभाते हैं। 'राम राम कहि जे जमुहाहीं।' मा० २.१६४.५ जम्यो : भूकृ००कए । जम गया, घनीभूत हो गया। 'रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ।' मा० ६.५३ जय : सं००+स्त्री० (सं.)। (१) विजय, जीत । 'निज पुर गवने जय जसु पाई।' मा० १.१७५.८ (२) विष्णु के एक द्वारपाल का नाम । मा० १.१२२.४ (३) प्रणाम सूचक शब्द । जय हो । 'जय जय सुर नायक ।' मा० १.१८६.१ (४) एक संवत्सर का नाम । 'जय संबत फागुन सुदि ।' पा०म० ५ (५) अभ्युदय कामना में जय शब्द । 'जय जय धुनि पूरी ब्रह्म डा।' मा० ६.१०३.१० (६) दे० जयति । जयंत, ता : सं०० (सं० जयन्त) । इन्द्र का पुत्र । मा० २.१४१; ३.२.६ जयऊ : भूकृ.पु०कए । जीत गया । 'भरत धन्य, तुम्ह जसु जग जयऊ ।' मा० २.२१०.६ दे० जयति । जयकर : वि० (सं.)। विजेता । 'जय जयंत जयकर ।' कवि० ७.११३ जयकार, जय जयकार : जयध्वनि, जयघोष, 'जय जय' ध्वनि । ६.७६ जयजीव : (जय = विजयी हो, सर्वोपरि रहो+जीव=जिओ) । ब्राह्मण द्वारा राजा को कहा हुआ आशीर्वाद-विजय प्राप्त करो और चिरंजीवी होओ। 'कहि जयजीव बैठ सिंह नाई।' मा० २.३८.६ जयति : आ.प्रए० (सं० जयति =सर्वोत्कर्षेण वर्तते)। सर्वोपरि सत्तावान है, परात्पर रूप में विद्यमान है । 'जयति सच्चिदानंदा।' मा० १.१८५ छं० ४ (सर्वोपरि सत्ता से प्रणाम अर्थ की स्वत: व्यञ्जना होती है ।) जयमय : वि० (सं०) । विजयपूर्ण, अभ्युदयसूचक । 'जय' शब्द सहित नाम युक्त । 'जयमय मंजुल माल उर ।' रा०प्र० ४.७.३ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 331 जयमाल : जयमाला । मा० १.१३१ जयमाला : सं०स्त्री० (सं०) । (१) विजेता को विजयोपलक्ष में पहनाई जाने वाली माला । 'सोहत जन जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला ।' मा० १.२६४.७ (२) वरमाला जो स्वयंवर में कन्या वर को पहनाती है । 'कुआँरी हरषि मेले उ जयमाला ।' मा० १.१३५.३ जयसील : वि० (सं० जयशील) । विजेता, विजयी। 'कपि जयसील राम बल ताते ।' मा० ६.८१.३ जये : भूकृ.पु०व० । जीत लिये गये (हारे हुए)। 'प्रभु खात........ आदर जनु जये।' गी० ३.१७.५ जयो : जयऊ । (१) विजयी हुआ । 'जनक को पनु जयो।' कवि० १.१४ (२) पूर्ण किया । 'चहत महामुनि जाग जयो।' गी० १.४१.१ जर : (१) सं०० (सं० ज्वर>प्रा० जर) । रोग विशेष+संताप । 'जरहिं दुसह जर पुर नर नारी ।' मा० २.२६२.२ (२) सं०स्त्री० (सं० जटा>प्रा० जडा >अ० जड) । मूल 'तहाँ क्रोध की जर जरि गई।' वैरा० ५१ (३) जइइ । जलता-ती है । चिता जर छाती।' मा० ४.१२.३ /जर जरइ, ई : (१) (सं० ज्वलति>प्रा. जलइ-दग्ध होना, जलना) आ०प्र० । जलता है, भस्म हो रहा है । 'जरइ नगर या लोग बिहाला।' मा० ५.२६.२ (२) (सं० ज्वरति-ज्वर संतापे>प्रा० जरइ-सन्तप्त होना, ज्वर ग्रस्त होना, आर्त होना) 'सूखहिं अधर जरइ सब अंगू ।' मा० २.३८.१ (३) (सं० जीर्यति ज़ वयोहानौ>प्रा. जरइ-जीर्ण होना, क्षीण होना) 'रिस तन जरइ होइ बल हानी ।' मा० १.२७८.६ (यहाँ तीनों अर्थ एक साथ हैं)। (४) जलता है+सन्तप्त होता है+क्षय ग्रस्त होता है । 'महाघोर त्रयताए न जरई ।' मा० १.३६.६ 'राम रोष पावक सो जरई ।' मा० २.२१८.५ जरउँ : आ० उए । दग्ध+सन्तप्त+क्षीण होता हूं (था)। 'हरिजन द्विज देखें जरउँ ।' मा० ७.१०५ जर उ : आ०-संभावना-प्रए० (सं० ज्वलत>प्रा० जल उ+सं० जीर्यतु>प्रा० जरउ) । जल जाय, नष्ट हो जाय । 'जरउ सो संपति सदन सुखु ।' मा० २.१८५ जरकसी : वि०स्त्री० (सं० जट संघाते.+कस बन्धने) । जड़ाऊ, हीरक-मण्डित, जड़ाव से खचित । 'सुन्दर बदन सिर पगिया ज रकसी।' गी० १.४४.१ जरजर : जर्जर । हनु० ३८ जरठ : वि० (सं०) । (१) वृद्ध । 'बाल जुवान जरठ नर नारी।' मा० १.२४०.६ (२) जराग्रस्त, जर्जर। 'जाना जरठ जटायू एहा ।' मा० ३.२६.१४ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 तुलसी शब्द-कोश (३) कठोर ( ४ ) परिपक्व । ' मिलहि जोगी जरठ तिन्हहि दिखाउ निरगुन खानि ।' कृ० ५२ (सभी अर्थ मिले रहते हैं ।) जरठपनु: (जरठ + पनु – दे० पन) कए० । बुढ़ापा । 'मनहुं जरठपनु अरु उपदेसा ।' मा० २.२.७ जरठाइ, ई : सं० स्त्री० (सं० जरठता) । बुढ़ापा । 'जरठाइ - दिसाँ रबि कालु उग्यो ।' कवि० ७.३१ जरत : वकृ०पु ं० (१) (सं० ज्वरत् > प्रा० जरंत ) । संतप्त । 'अय इव जरत परत पग धरनीं ।' मा० १.२९८.५ (२) (सं० ज्वलत् > प्रा० जलंत ) । प्रज्वलित होता-ते । 'पावक जरत देखि हनुमंता । मा० ५.२५.८ (३) दग्ध होता-ते । 'जरत निकेतु धावो धावो लागि आगि रे ।' कवि० ५.६ ( ४ ) संतप्त + दग्ध हो रहा है । 'अजहूं हृदउ जरत तेहि आँचा । मा० २.३२.५ (५) जाज्वल्यमान, ज्वालाकुल + संतप्त 'आगें दीखि जरत रिसि भारी ।' मा० २.३१.३ जरती : क्रियाति० स्त्री०प्र० । 'यदि जलती + सन्तप्त होती + क्षीण होती रहती ! 'घरहीं सती कहावती जरती नाह बियोग ।' दो० २५४ जरनि, नी : सं०स्त्री० (दे० / जर- सं० ज्बलन > प्रा० जलण + सं० जरण, जरण > प्रा० जरण) । (१) दाह । 'जिय के जरनि न जाइ । मा० २.१८२ (२) सन्ताप । 'राम स्याम सावन भादौ बिनु जिय के जरनि न जाई ।' कृ० २६ ( दोनों प्रयोगों में तीनों अर्थ गुथे मिलते हैं ) ( ३ ) परसन्ताप, ईर्ष्या । 'पर सुख देखि जरनि सोइ छई ।' मा० ७.१२१.३४ ( यहाँ तीनों अर्थ सम्पृक्त हैं - क्षीण होना + सन्तप्त होना + दग्ध होना ) जहि : आ०प्र० (१) (सं० ज्वलन्ति > प्रा० जलंति > अ० जलहि ) । दग्ध होते हैं । 'जहि पतंग मोह बस ।' मा० ६.२६ (२) (सं० ज्वरन्ति > प्रा० जरंति > अ० जरहिं) सन्तप्त होते हैं । 'जरहिं विषमजर लेहिं उसासा ।' मा० २.५१.५ (३) दग्ध + सन्तप्त + क्षीण होते हैं = ईर्ष्याग्रस्त हो जाते हैं । 'सुरत जरहि खल रीति ।' मा० १.४ ज: जरा से, बुढ़ापे के कारण । 'अधरो अधम जड़ जाजरो जराँ जवनु ।' कवि० ७.७६ जरा : (१) सं० स्त्री० (सं० ) । बुढ़ापा । 'जरा मरन दुख रहित तनु । ' मा० १.१६४ (२) भूकृ०पु ं० (सं० ज्वलित + ज्वरित > प्रा० जलिअ + जरिअ ) : भस्म हो गया + सन्तप्त हुआ । 'सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी ।' मा० ३.२६.१ जए, ये : दे० जराय । जड़ाऊ । नगों से खचित ।' गी० १.३२.२ जराय: सं०पु० । जवाव, नगों की पच्चीकारी । 'हिएँ जग जीति जराय की चौकी ।' कवि० ७.१४३ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तलसी शब्द-कोश 333 जराव : वि०पू० । जड़ाऊ, नग जटित । 'जगमगत जीनु जराव ।' मा० १.३१६ छं० जरि : (१) सं०स्त्री० । जड़, मूल । जरि तुम्हारि चह सवति उखारी।' मा० २.१७.८ (२) पूकृ० (सं० ज्वलित्वा>प्रा० जलिअ>अ० जलि)। दग्ध होकर । 'चितवत कामु भय उ जरि छारा ।' मा० १.८७.६ (३) (सं० ज्वरित्वा >प्रा० जरिअ>अ० जरि) । सन्तप्त होकर । 'तुलसी कान्ह बिरह नित नव जर जरि जीवन भरिबे हो।' कृ० ३६ (४) (सं० जीर्वा>प्रा० जरिअ>अ० जरि) जीर्ण होकर, क्षीण होकर । 'अब जोर जरा जरि गातु गयो।' कवि० ७२८ जरिए, ये : (दे०जर) आ०-कवा०-प्रए० । दग्ध+सन्तप्त+क्षीण हुआ ___ जाय । 'देखि पर सुख बिनु कारन ही जरिये ।' विन० १८६.३ ।। जरित : भूकृ०वि० (सं० जटित) । जड़ाऊ । 'जरित कनक मनि पलंग डसाए।' मा० १.३५६१ जरिबे · भकृ०० (सं० ज्वलितव्य>प्रा. जलिअव्वय)। जलने । 'तनु जरिवे कह रही न कछू सक ।' गी० ५.६.२ जरिहि : आ०भ०प्रब० (सं० ज्वलिष्यन्ति+ज्वरिष्यन्ति>प्रा० जलिहिति+ जरिहिंति>अ० जलिहिहिं+जरिहिहिं) । दग्ध एवं सन्तप्त होंगे। 'जौं पं कृपा जरिहिं मुनि गाता।' मा० १.२८०.५ जरिहि : आ०प्रए०भ० (सं० ज्वलिष्यति+ज्वरिष्यति>प्रा० जलिहिइ+ जरिहिइ)। जलेगी, सन्तप्त रहेगी। 'नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती।' मा०. २.२४.८ जरी : जरी+ब० । दग्ध हुईं, जलीं। "पितु के जग्य जोगानल जरी ।' मा० १.९८ छं० जरी : (१) भूकृ०स्त्री० । जली, दग्ध हुई । (२) जर । जड़, मूल । (३) जड़ी जो औषधि के काम आए । 'अवधि जरी जोरति हठि पुनि-पुनि ।' कृ० ५६ (३) अभिन्त्रित बूटी जिससे वशीकरण, मोहन आदि किया जाता है । 'जरी 'सुघाइ कूबरी कौतुक जोगी बधा जुड़ानी । कृ० ४७ जरे : (१) भूकृ०० (सं० ज्वलित>प्रा. जलिअ)। जल गये । 'छन महुं जरे निसाचर तीरा ।' मा० ६.६१.३ (२) (सं० ज्वरित+ज्वलित)। सन्तप्त+ दग्ध हो गये। 'सुता बिलोकि जरे सब गाता।' मा० १.६३.३ (३) (सं० जटित>प्रा. जड़िय) । जड़े, जकड़े, बंधे । 'झूमत द्वार अनेक मतंग जंजरि नरे मद अंबु चु चाते ।' कवि० ७.४४ जरें : भक० अव्यय । जलने । 'जरै न पाव देह बिरहागी।' मा० ५.३१.८ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 तुलसी शब्द-कोश जर : जरइ । जले तथा सन्तप्त होवे । 'सो नित मान अगिनि में जरै ।' वैरा० ४१ (२) सन्तप्त तथा ज्वरग्रस्त होता है 'जरै बरै अरु खीझि खिझावै ।' वैरा० जरैगो : आ०भ०पू०प्रए। जल जायगा। सासन सलभ जरंगो।' गी० . १.६८ ११ जरौं : जरउँ । जल जाऊँ । 'पावक जरौं, जलनिधि महुं परौं ।' मा० १.६६ छं० जर्जर : वि० (सं.)। झाँझर, क्षतविक्षत, जीर्ण शीर्ण । 'तन जर्जर भए ।' मा० ६.४६ छं० जर्यो : भूकृपु०कए० । (१) जला हुआ । 'दूध को जर्यो पियत फूकि-फंकि मह्यो ___हौं ।' विन ० २६०.३ (२) जला । 'गर्भ न नृपति जर् यो ।' विन० २३६.४ जल : सं०० (सं.) । पानी । १.७.६. जलंधर : सं०० (सं० लंधर) । एक असुर का नाम । मा० १.१२३.५ जलकुक्कुट : सं०पू० (सं०) । बन मुर्गी, पक्षिविशेष । मा० ३.४०.२ जलखग : जलाश्रयवासी पक्षी । मा० १.२२७.८ जलचर : सं०० (सं०) । जल जन्तु । मा० १.३४ जलचरकेतू : जलचर=मकर रूपी पताका वाला: मकरध्बज==कामदेव । मा० १.१२५.६ जलचरन्हि : जलचर+सं०ब० । जलचरों (के) । अन्य जल चरन्हि ऊपर ।' मा० ६.४ जलच्चर : जलचर । 'कोटि जलच्चर दंत टेवैया। कवि० ७.५२ जलज : सं०० (सं०) । कमल । मा० २.२६६ जलजन्तु : जलचर । मा० ६.८७ छं० जलजाए : सं०० (सं० जलजात>प्रा० जल जाय)। कमल । 'लोचन मनहुं जुगल __जलजाए।' गी० १.२६.४ जलजात : सं०० (सं०)=जलज । कमल । मा० ७.१ ख जलजाता : जलजात मा० ५.४२.५ जलजान, ना : सं०० (सं० जलयान>प्रा० जलजाण) । पोत, जहाज । 'उपल किए जलजान ।' मा० १.२० जलजानू : जल जान+कए० । (कोई एक) जहाज । 'करनधार बिन जिमि जल जानू ।' मा० २.२७७.५ जलजाभ : वि० (सं०) कमल की आभातुल्य आभा वाला, कमल समान । 'नील पीत जलजाभ सरीरा।' मा० १.२३३.१ जलजारुन : कमल के समान अरुण वर्ण । मा० ६.१११ छं० Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 335 जलज : जलज+कए० मा० १.३२५.६ जलठाउँ : (दे० ठाउँ)। जलाश्रय (स्थान जहाँ जल मिल सकता है) । मा० २.१३५.७ जलद : सं०० (सं०) मेघ । मा० १.२३२ जलदाता : (१) जल देने वाला+(२) जलदान =तर्पण आदि प्रेतकर्म करने वाला (वंशधर) । 'जलदाता न रहिहि कुल कोऊ ।' मा० १.१७४.३ जलदाभ : जलद=मेघ की आभातुल्य आभा वाला= मेघ सदृश । 'नील जलदाभ - तनु स्याम ।' विन० ४६.४ जलदु : जलद+कए० । 'जलदु जनम भरि सरति बिसारउ ।' मा० २.२०५३ जलधर : सं०० (सं०) । मेघ । मा० १.३२.१० जलधरनि : जलधर+संब० । मेघों (को) । निरखत बिबुध..... ओट दै जल- धरनि । गी० १.२८.५ जलधार : (१) सं०० =जलधर (२) संस्त्री० जल प्रवाह। मा० १.२११ छं० जलधारा : (१) जलधार । मेघ । 'उठइ धूरि मान हुं जलधार' । बुद भइ बृष्टि अपारा।' मा० ६.१७.६ (२) जल प्रवाह (दे० धार) । महि तें प्रगट होहिं जलधारा :' मा० ६.५२.१ जलधि : सं०० (सं.)। ममुद्र। मा० १.५.६ जलनाथ : समुद्र । 'जेहिं जलनाथ बंधायउ हेला ।' मा० ६.३७.१ ('जलनाथ' - रुण का नाम है जो 'पाशधर' हैं। उन्हें भी बांध डाला- इस अर्थ की व्यञ्जना जलनिधि । जलधि । मा० १६६ ० . जलपति : जल्पति । कृ स्त्री० (सं० जल्पन्ती)। क रही, प्रलाप करती । ‘जल पति जननि दुख मानई ।' पा०म०/० १३ जलपात्र : कमण्डलु (घड़ा आदि) । विन० १८.२ जलपाना : (सं० जलपान) जल पीने की क्रिया। मा० ७.६३.३ जलपानु : जलपान+कए । (१) एक बार जल पीना (२) केवल जल पीना (निराहार) । 'न्हाइ रहे जलपानु करि ।' म ० २.१५० जल बिहग : जल खग । मा० १.३७.११ जलमल : सं०पू० (सं०) । कीचड़ , पङ क । मा० १.४१ जलयान : जलजान (सं०) । विन० २६.५ जलरथ : जलयान । विन० १३६.६ जलरासी : सं०० (सं० जलराशि) । समुद्र । मा० २.२५७.२ जलरुह : सं०० (सं०) कमल । मा० २.१५६.२ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 तुलसी शब्द-कोश जलाश्रय : सं०० (सं०) । सरोवर, नदी, कूप आदि । 'पुन्य जलाश्रय भूमि ____ बिभागा।' मा० २.३१२.२ जलासय : सं०० (सं० जलाशय) । सरोवर आदि । मा० २.२१५.४ जलु : जल+कए । 'सगुनु खीरु अवगुनु जलु ताता ।' मा० २.२३२.५ जले : जरे । दग्ध हुए। गी० ५.४१.३ जलो : जल भी । 'जो न लहै जाचे जलो।' गी० ५.४२.२ जल्पक : वि० (सं.)। बकवास करने वाला । बाचाल । मा० ६.३३ जल्पत : वकृ०० (सं० जल्पत्) । बकता, बकते। एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना ।' मा० ६.७२.६ जल्पना : सं०स्त्री० (सं.)। बकगस । 'छाँड़हुं नाथ मृषा जल्पना।' मा० ६.५६.५ जल्पसि : आ०मए० (सं.)। (१) तू बक रहा है। 'कटु जल्पसि जड़ कपि ।' मा० ६.३१.८ (२) तू बकवास कर । 'जनि जल्पसि जड़ जंतु कपि ।' मा० ६.२२ जल्पहिं : आ०प्रब० । बकते रहते हैं। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका ।' मा० जव : सं०० (सं० यव) । अन्न विशेष =जौ। मा० ५.५३.५ (कभी- भी यवाका अङ्ग.ष्ठ रेखा के अर्थ में आया है।) जवन : (१) सर्वनाम । जो, जौन । (२) सं०० (सं० यवन>प्रा० जवण)। मेच्छ जाति विशेष । जवन कवन सुर तारे ।' विन० १०१.२ जवनि : जवन+स्त्री० । जो। 'बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा ।' मा० १.१३७.६ जवनु : जवन+कए० । म्लेच्छ विशेष । कवि० ७.७६ जबारु : सं०पु०कए० (फा० जवाल =मानव शरीर, लदी या बोझ, गुदड़ी)। जंजाल, झंझट । जगु जीव को जवारु है ।' कवि० ७.६७ जवास, सा : सं०पु० (सं० चवास, जवास) । एक प्रकार का छोटा पौधा जो ग्रीष्म में हराभरा रहता और वर्षा में सूख जाता है । मा० २.५४.२ जवासे : जवासा का रूपान्तर । 'जरिए जवासे सम ।' हनु० ३५ जस : (१) सं०० (सं० यशस्>प्रा० जस) । कीर्ति । 'सोइ जस गाइ भगत भव नरहीं।' मा० १.१२२.१ (२) वि.पु. (सं० यादृश>प्रा० जरिस>अ० जइस) । जैसा, जैसे । 'जो जस करइ सो तस फल चाखा ।' मा० २.२१६.४ (३) क्रि०वि० । ज्यों, जैसे । 'जस जस चलिअ दूरि तस तस ।' विन० १८६.४ जसि : जस+स्त्री० (अ० जइसी) । जैसी । 'तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।' मा० १.१५६ जसो : वि०० (सं० यशस्वी>प्रा० जसी) । कीर्तिशाली। गीध जसी जटाय।' गी० ७.३१.४ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 337 जसु : जस+कए० । कीर्ति । 'निज पुर गवने जय जसु पाई।' मा० १.१७५.८ जसुमति : जसोमति ।। जसोदा : सं०स्त्री० (सं० यशोदा) । कृष्ण की उपमाता=नन्द पत्नी । जसोमति : (सं० यशोमति =यशोदा) जसोदा । मा० १.२०.८ जहँ : अव्यव (सं० यत्र>प्रा० जहं, जहिं) । जहाँ, जिस स्थान पर । मा० १.१.८ जहर : सं०० (फा० जहर) । विष । 'सुधा तजि पीवनि जहर की।' कवि० ७.१७० जहरु : जहर+कए । 'सुधा सो भरोसो । 'एहु दूसरो जहरु ।' विन० २५०.२ जहवां : जहाँ । मा० ३.२३.७ जहां : जहँ । मा० १.३.५ जहाज : सं०० (फा० जहाज) । समुद्री पोत । 'चढ़े विबेक जहाज।' मा० २.२२० जहाजु, जू : जहाज+कए० । एक मात्र जहाज । 'संकर चापु जहाजु ।' मा० १.२६१ जहान : सं०० (फा०) विश्व । 'जाहिर जहान में।' कवि० ७.७६ जहाना : जहान । मा० १.३.४ जहानु : जहान+कए । 'जांगरु जहानु भो। कवि० ५.३२ जहि : वि० (सं० जहक)। त्यागने वाला । 'नमत राम अकाम ममताजहि ।' मा० ७.३०.५ जहिआ : समय बोधक अव्यय (सं० यदा>प्रा० जइआ) । जब 'भुज बल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ।' मा० १.१३६.६ जह नु : सं०पु । मुनि विशेष जिन्होंने गङ्गा जी को पी लिया था और देवों की प्रार्थना से छोड़ा तो जाह्नवी =जह्न पुत्री नाम से प्रसिद्धि मिली। 'जय जह नबालिका ।' विन० १७.१ जांगरु : जांगरु+कए० (सं० जङ्गल=निर्जन प्रदेश>प्रा० जंगल>अ० जंगल)। शून्य, जन धन रहित (अवधी में उड़द, चना आदि के पुआल को कहते हैं जो मड़नी के बाद उलझा हुआ बच रहता है-जाँगर, जगरा-अन्नरहित (खण्डित पुआल) । 'तुलसी तिलोक की समृद्धि सौंज, संपदा, सके लि चाकि राखी रासि, जांगरु जहानु भो।' कवि० ५.३२ जांघ : जंघ । (१) गुल्फ और जानु का मध्याङ्ग (२) जानु के ऊपर का भाग= ऊरु । 'महाराज लाज आपु ही निज जांघ उघारे ।' विन०१४७.१ जांचत : जाचत । गी० ३.५.४ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338 तुलसी शब्द-कोश जाचिए, ये : आ०-कवा०-प्रए । प्रार्थित किया जाय। 'जांचिये गिरिजापति ___ कासी।' विन० ६.१ जाँची : भूकृ०स्त्री० । मांगी। 'आयसु जाँची जननि ।' गी० २.११.३ जाँचौं : आ०उए० । माँगू, मांगता हूं। 'जाँचौं जल जाहि, कहै, अमिअ पियाउ सो।' विन० १८२.३ जा : (१) 'ज' सर्वनाम का रूपान्तर। जिस जो। 'जा बस जीव परा भवकूपा ।' मा० ३.१५.५ जा के, जासों, जा तें, जाहि, जा की, जा को आदि में परसर्ग सहित प्रयोग में द्रष्टव्य हैं। (२) (समासान्त में) वि०स्त्री० (सं०) । उत्पन्ना । 'बिस्नु पद सरोज-जासि ।' विन० १७.१ । पुत्री। 'बाम दिसि जनकजा ।' विन० ५१.६ /जा जाइ, ई : (१) (सं० याति>प्रा० जाइ) आ०प्रए० । जाता है । 'जाइ मृग भागा। मा० १.१५७.४ (२) कर्मवाच्य सूचक प्रयोग-सकता है । 'सदा एकरस बरनि न जाई ।' मा० १.४२.८ (३) बीतता है । 'एकनिमेष बरष सम जाई।' मा० २.१५८ ३ (४) पहुचता है । 'ताहि तहाँ ले जाइ ।' मा० १.१५६ (५) (सं० जायति-जै क्षये>प्रा० जाइ)। समाप्त होता-ती है, मिटता-ती है। 'जिय के जरानि न जाइ ।' मा० २.१८२ (६) (सं० याति-या प्रापणे> प्रा० जाइ) पाता है । 'आत्माहन गति जाइ।' मा० ७.४४ (७) (सं० जायते >प्रा० जाइ) पैदा होता-ती है । 'दरार न जाई।' गी० ६.६.३ जाइँ : क्रि०वि० । जिससे । 'सकुच स्वामि मन जाइँ न पावा ।' मा० २.२६६.७ जाइ : पूकृ० । जाकर (जा के सभी अर्थ यथावसर)। 'सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी।' मा० १.१२७.३ जाइअ : आ० भावा० । जाइए , जाना चाहिए । 'जाइअ बिनु बोलेहुं न सँदेहा।' मा० १.६२.५ जाइहि : आ०भ०प्रए०। (१) जायगा-गी। 'न जाइहि काऊ।' मा० २.३६.५ (२) जाना चाहिए । 'चौथे पन जाइहि नृप कानन ।' मा० ६.७.३ (३) जा सकेगा । 'नाथ वेगि पुनि जाति न जाइहि ।' मा० ६.७५.५ (४) मिटेगा। 'जाइहि सुनत सकल संदेहा ।' मा० ७.६१.८ जाई : भूकृ०स्त्री०ब० । उप्पन्न हुई। 'उमा सैल गृह जाईं।' मा० १.६५ ७ जाई : (१) जाइ । 'गदगद कंठ न कछु कहि जाई ।' मा० १.७२.७ (२) जाइअ । जाया जाय । 'कहाँ जाई का करी।' कवि० ७.६७ (३) जाइ । जाकर । 'बैठे मुनि जाई ।' मा० १.१३४.१ (४) जाइहि 'राम स्याम सावन भादो बिन जिय के जरनि न जाई ।' कृ० २६ (५) भूकृस्त्री० (सं० जाता>प्रा० जाया =जाई) । उत्पन्न हुई । 'जाई राजघर ब्याहि आई राजघर माह ।' कवि० २.४ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 339 जाउँ, ऊँ : आ० उए । 'हौं बन जाउँ तुम्हहि लेइ साथा ।' मा० २.७१.३ जाऊँगो : आ० भ.पु.उए० । जाऊँगा । गी० ५.३०.१ जाउ, ऊ : आ०-संभावनादि-प्रए० (सं० यात>प्रा० जाउ)। जाय, मिट जाय (आदि-दे०जा) । 'घरु जाउ अपजसु होउ ।' मा० १.६६ छं० जाएँ : जायें । वृथा । 'तात गलानि करहु जनि जाएँ।' मा० २.११०.२ जाए : (१) सं०० (सं० जातक>प्रा० जायय) । पुत्र । 'कोसलेस दसरथ के जाए।' मा० ४ २.१ (२) भूकृ०० (सं० जात>प्रा० जाय)। उत्पादित, उत्पन्न । 'कोखि के जाए सों रोषु केतो बड़ो कियो है ।' कृ० १६ (३) उत्पन्न किए। 'दुइ सुत सूदर सीता जाए।' मा० ७.२५.६ जाएहु : आ० - आज्ञा+भ०-मब० । तुम जाना । 'जाएहु होत बिहान ।' मा० १.१५६ जाग : सं०० (सं० याग) । यज्ञ । मा० १.१५५ /जाग जागइ : (सं० जागति>प्रा० जग्गइ-सोकर उठना, सावधान या जागरूक होना, प्रकट होना) आ०प्रए० । जागता है । 'जाग इ मनोभव मुएहुँ मन ।' मा० १.८६ छं. जागत : वकृ०० (सं० जाग्रत् >प्रा० जग्गंगत)। (१) जागता, जाग ते । 'जागत रहै जो जो सोइ।' दो० ४८६ (२) जगते ही ! 'जागत होइ तिहूं पुर त्रासा।' मा० १.१८०.४ (३) उजागर होता, दीप्त हो रहा । 'जग जगत जासु पवारो।' कवि० ६.३८ जागति : वकृ.स्त्री० (सं० जाग्रती>प्रा० जग्गंती)। जग रही, जगा रही। _ 'जागति मनहूं मसानु ।' मा० २.३६ (२) प्रकाशमान हो रही । 'कासी करामाति जोगी जागति मरद की।' कवि० ७.१५८ जागन : (१) भकृ० अव्यय (सं० जागतुम् >प्रा० जाग्गीउँ>अ० जग्गण)। जगने । 'जागन लगे बैठि बीरासन ।' मा० २.६०.२ (२) सं०० (सं० जागरण>प्रा० जग्गण) । जगने की क्रिया । 'आजु कालिहु परहुं जागन होहिंगे।' गी० १.५.५ जागबलिक : सं०० (सं० याज्ञबल्कि) । मुनिविशेष । मा० १.३० जागरन : सं०० (सं० जागरण) । मा० १.३५८.२ जाहिं : आ.प्रा० (सं० जाग्रति>प्रा० जग्गंति>अ० जग्गहिं)। जगते हैं, जागरूक रहते हैं (तत्त्व ज्ञान के प्रभात में जाग रण करते हैं)। 'नाम जीह जपि जागहिं जोगी।' मा० १.२२.१ । जागहि : आ०मए० (सं० जागर्षि, जागहि>प्रा० जग्गहि)। तू जागता है,जगे। 'अजहूं जड़ जीव न जागहि रे।' कवि० ७.३१ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340 तुलसी शब्द-कोश जागहु : आ०मब० (सं० जागृत>प्रा० जग्गह>अ० जग्गहु) । जगो, जागरू होओ (संज्ञा लाभ करो) । 'अस बिचारि जिय जागहु ताता।' मा० ६.६१.८ जाग : (१) जाग । यज्ञ । 'सती जाइ देखेउ तब जागा।' मा० १.६३.४ (२) भूकृ० पुं० (सं० जागरित>प्रा० जग्गिअ)। जग उठा । 'देखि मुएहुं मन मनसिज जागा।' मा० १.८६.८ (३) जागरूक हुआ। 'जानिअ तबहिं जीव जग जागा।' मा० २.६३.४ जागि : (१) पूकृ० (सं० जागरित्वा>प्रा० जग्गिअ>अ० जग्गि) । जगकर । 'जागि करहिं कटु कोटि कलपना ।' मा० २.१५७.६ (२) आ०-लाज्ञामए० (सं० जागृहि>प्रा० जग्ग>अ० जग्गि)। तू जग उठ। 'सोवै सो जगावी, जागि जागि रे ।' कवि० ५.६ जागिए, य. ये : आ०-भावा० । जाग जाय । 'जागिए न सोइए बिगोइए जनमु ___जायें ।' कवि० ७.८३ बागिबो : भकृ००कए० (सं० जागरितव्यम् >प्रा० जग्गिअव्वं>अ० जग्गिव्वउ)। जागना । 'जागिबो जो जीह जप नीकें राम नाम को।' कवि० ७.८३ जागिहै : आ०म०प्रए० (सं० जागीरिष्यति>प्रा. जग्गिहिइ)। जग उठेगा। 'राम नाम सों विराग जोग जप जागिहै ।' विन० ७०.३ जागी : जागी+ब० । जग उठीं । 'सुदसा जनु जागीं।' गी० १.६.१३ मागी : भूकृ०स्त्री० । (१) संज्ञा मिली, सजगता में परिणत हुई। 'मेघनाद के मुरुछा जागी।' मा० ६.७४.१ (२) प्रकट हुई, विख्यात हुई। 'धरमसीलता तब जग जागी।' मा० ६.२२.८ (३) दीप्त हुई । 'जीवन तें जागी आगि ।' कवि० ५.१६ जागु : (१) जाग+कए । यज्ञ । 'पुत्र जागु करवाइ रिषि राजहि दीन्ह प्रसाद ।' रा०प्र० १.२.५ (२) आ० -आज्ञा-मए० (सं० जागृहि>प्रा० जग्ग>अ० जग्गु) । तू जग, सावधान हो । 'जागु जागु जीव जड़।' विन० ७३.१ जागू : जागु। जग जा, जागरूक हो जा। 'महामोह निसि सूतत जागू।' मा० जाणे : जगने पर । 'जगें जथा सपन भ्रम जाई ।' मा० १.११२.२ मागे : (१) जागें । 'दोष दुख सपने के जागे ही 4 जाहिं रे।' विन० ७३.३ (२) भूकृ०० (सं० जागरित>प्रा० जग्गिय) ब० । सो उठे । 'जागे राम सुजान ।' मा० १.२२६ जागेउ, गो, ग्यो : भूकृ००कए० (सं० जागरित:>प्रा० जग्गिओ>अ० जग्गियउ)। जगा, सोकर उठा । 'जागेउ नृप अनभएँ बिह'ना ।' मा०. १.१७२.२ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 341 जाग : जागहिं । कवि० ७.१०६ जाग : जागइ । (१) जागरण करे । 'काहे को अनेक देव सेवत जागै मसान ।' कवि० ७.१६२ (२) उजागर हो जाय । 'अजसु जग जाग ।' जा०म० ७० (३) जगता है । 'कृपापात्र जन जागे ।' विन० ११६.३ (४) प्रकाशमान है। 'बेद पुरान प्रगट जस जाग। विन० २.५ जागो : जाग्यो । 'निसि जागो है मसानु सो।' कवि० ५.२८ जाग्यो : जागेउ । 'मुरुछित भूप न जाग्यो।' गी० २.१२.३ /जाच जाचइ : (सं० याचते>प्रा० जाचइ-मांगना) आ०प्रए० । मांगता है। 'जांचे बारह मास, पिऐ पपीहा स्वाति जल ।' दो० ३०७ जाचक : वि० (सं० याचक) । प्रार्थी, मँगता। मा० १.२६५ जाचकता : सं०स्त्री० (सं० याचकता) । मंगतापन, भिखारीपन । 'जेहि जाचक जाचकता जरि जाइ।' कवि० ७.२८ जाचकनि, न्हि : जाचक+संब० । याचकों (को)। 'दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा ।' मा० १.३२६.७ जाचत : वकृ०० । (१) माँगता, मांगते । 'गति दीन्ही जो जाचत जोगी।' मा० ३.३३.२ (२) मांगने पर, मांगते समय । 'जाचत जल पबि पाहन डारउ ।' मा० २.२०५.३ (३) माँगते ही । 'जेहि जाचत जाचकता जरि जाइ ।' कवि० ७.२८ जाचति : वकृ० स्त्री० । मांगती। 'अवनि जमहि जाचति कैकेई ।' मा० २.२५२.६ जाचन : भकृ० अव्यय । माँगने । 'मैं जाचन आयउँ नृप तोही।' मा० १.२०७.६ जाहि, ही : आ० प्रब० । मांगते हैं । 'जाचक जन जाहिं जोइ जोई ।' मा० १.३५१.७ जाचा : भूकृ०० । मांगा । 'रावन मरन मनुज कर जाचा।' मा० १.४६.१ जाचिअ : आ० -कवा०-प्रए० । मांगिए, माँगा जाय । 'जग जाचिअ काहु न, जाचिअ जौं, जियँ जाचिअ जानकी जानहि रे ।' कवि० ७.२८ जाचे : भूकृ०० । माँगे (माँगने पर)। 'जो न लहै जाचे जलो।' गी० ५.४२.२ जाचे : जाचइ । मांगे 'जाचे को नरेस ।' कवि० ७.२५ जाज्यो : भूकृ००कए० । मांगा, प्रार्थित किया। 'जोइ जाच्यो सोइ जाचकताबस ।' विन० १६३.१ जाजरो : वि०पु०कए० (सं० जर्जर:>प्रा० जज्जरो)। झांझर, जीर्ण-शीर्ण, शिथिलाङ्ग । 'आँधरो अधम जड़ जाजरो जरा जवनु ।' कवि० ७.७६ जाड़ : सं०० (सं० जाड्य>प्रा० जड्ड) । जाड़ा, शीत । 'जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। मा० १.३६.२ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 तुलसी शब्दकोश बात : (१) भूकृ०वि० (सं०) । उत्पन्न । जल जात आदि । (२) वकृ०० (सं० यात्>प्रा० जंत) । जाता, जाते । 'होइहि जात गहरू अति भाई ।' मा० १.१३२.१ (३) सं०० (सं.)। समूह । एक बन बेगि ही उड़ाने जातु धान-जात ।' गी० १.६७.२ जातक : सं०० (सं०) । शिशु । 'नेन सु खंजन जातक से ।' कवि० १.१ जातकरम : स०पु० (सं० जातकर्म)। षोडश संस्कारों में अन्यतम=पुत्र-जन्म सम्बन्धी कर्णकाण्ड विशेष । मा० १.१६३ जातना : सं०स्त्री० (सं० यातना)। (१) यन्त्रणा, पीडा । 'जमजातना सरिस संसारू ।' मा० २.६५.५ (२) नरक । 'उदर उदधि अधगो जातना।' मा० ६.१५.८ ('याचना' मूलत: यातित या चकता करने-निर्यातन-का अर्थ देता है। पापों के भुगताक का मूल अर्थ है अतः 'नरक' का पर्याय-सा बन गया है।) जातरूप : सं०पू० (सं०) । सुवर्ण । मा० ७.२७.३ जातहिं : जाते ही । 'जातहिं नींद जुड़ाई होई ।' मा० १.३६.१ जातहि : जातहिं । 'जिन्ह जातहि जदुनाथ पढ़ाए।' कृ० ५० माता : जात । (१) दे० जल जाता । (२) 'चले मग जाता।' मा० २.२३४:४ (३) जाते हुए, जाते समय । 'सती दोख कौतुक मग जाता।' मा० १.५४.४ जाति, ती : संस्त्री० (सं० जाति)। (१) काव्य कल्पना विशेष जिसमें दोष न होने पर भी दोष का आभास होता है । 'कवित गुन जाती।' मा० १.३७.८ (२) वर्ग विभाग । 'गनै को पार निसाचर जाती।' मा० १.१८१.३ (३) जन्म । 'अबला अबल सहज जड़ जाती ' मा० ७.११५.१६ (४) उत्तम जाति । 'सब जाति कुजाति भए भगता।' मा० ७.१०२.६ (५) (सं० ज्ञाति)। बन्धु वर्ग, सजातीय । 'जनक जाति अवलोकहिं कैसे।' मा० १.२४२.२ (६) वकृ० स्त्री० । जाती (है)। 'सोभा किमि कहि जाति ।' मा० १.२१३ (७) क्रियाति० स्त्री० । 'मनुज दसा कसें कहि जाती।' मा० १.३३८.३ जाति जन : स्वजातीय जन तथा ज्ञाति जन=बन्धु जन । मा० १.३०८ जाति पाँति : (दे० पांति) जाति तथा जेवनार की पंगत में स्थान । 'मेरें जाति पांति न चहौं काहू की जाति-पाति ।' कवि० ७.१०७ (एक जाति होने पर भी जेवनार की पांति में स्थान नहीं मिलता-अतः दोनों का युग्मक चलता है) जातुधान : सं०पू० (सं० यातुधान) । राक्षस (मायावी)। मा० ३.१८.३ जातुधाननि : जातुधान + संब० । राक्षसों। 'जातुधाननि सों रन भो।' गी० जातुधानी : जातुधानी+बहु० । राक्षसियां । सुनत जातुधानी सब लागी करन विषाद ।' मा० ६.१०८ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 343 जातुधानेस : रावण । गी० ५.४२.३ जाते : (१) (जा+ते) जिससे । 'जा ते लाग न छुधा पिपासा ।' मा० १.२०६.८ (२) क्रियाति० पु०बहु० (सं० अयास्यन् >प्रा० जंतया)। चाहे जाते हों। पोन के गौनहुं तें बढ़ि जाते ।' कवि० ७.४४ (३) यदि तो जाते। 'जो मोहि राम लागते मीठे। तो नवरस षटरस अनरस रस ह जाते सब सीठे।' विन० १६६.१ जातेउँ : क्रियाति० पु.उए । (तो) मैं जाता । 'ल जातेउँ सीतहि बरजोरा ।' मा० ६.३०.५ जातो : क्रियाति० पु०ए० । यदि..तो जाता। 'जो पं चेराई राम की करतो न लजातो... (तो).. सो जड़ जाय न जातो!' विन० १५१.८ जादव, दो : सं०० (सं० यादव) । यदुवंशी क्षत्रिय । विन० २१४.२ जादौ : जादव । दो० ४२५ जान : (१) सं०० (सं० यान>प्रा० जाण)। वाहन, सवारी । 'चले जान चढ़ि ।' मा० १.३००.५ (२) भकृ० अव्यय । जाने को। 'पुर बैकुंठ जान कह कोई ।' मा० १.१८५.२ (३) सं०० (सं० ज्ञान>प्रा० जाण)। बोध, समझ । मेरे जान और कछु न मान गुनिए ।' कृ० ३७ (४) वि.पुं० (संज्ञ>प्रा० जाण) । जानकार, ज्ञानी, प्रबुद्ध । 'जेहि जान्यो सो जान ।' दो० ६० 'जानसिरोमनि कोसलराऊ ।' मा० १.२८.१० (५) जानइ । 'सुर बिजई जग जान ।' मा० १.१२२ (६) दे० जानकी-जान । जान जानइ : (सं० जानाति>प्रा० जाणइ-जानना, समझना) आ०ए० । जानता है, ज्ञान पाता है। 'सोइ जानइ जेहि देहु जनाई।' मा० २.१२७.३ (२) समझता है, संभावना करता है । 'सोइ जानइ जनु आइ खुटानी।' मा० १.२६८.३ जान' : आ० उए० (सं० जानाभि>प्रा० जाणाभि>जाणउँ)। जानता-ती-हं। 'कह तापस, नृप जानउँ तोही ।' मा० १.१६३.८ जानकि : जानकी । मा०२.७३.४ जानकिहि : जानकी को, के लिए । 'जोगु जानकिहि यह बरु अहई।' मा० १.२२२.१ जानकी : जानकी ने । 'सुनि जानकी परम सुख पावा।' मा० ३.६.१ जानकी : सं०स्त्री० (सं०) । जनकराज की पुत्री=सोता। मा० १.१८.७ जानकीजान : जानकी जानि । 'जियँ जाचिअ जानकी जानहि रे ।' कवि० ७.२८ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 तुलसी शब्द-कोश जानकोजानि : वि.पु. (सं०-जानकी जाया यस्य । जानकी जानि:)। जानकी जिनकी पत्नी हैं=राम । 'गढ़ गति जानकी-जानि जानी।' विन० ३६.४ (जायार्थक 'जानि' समासान्त में ही आता है) जानकी जीवन : सीता के प्राणाधार=राम । कवि० ७.४२ जानको जीवन : कए० । एक मात्र राम । :जानकीजीबनु जान न जान्यो। कवि० ७.३६ जानकीस : (सं० जानकीश)। राम । हनु० १२ जानकीसु : कए । कवि० ७.१२१ जानत : वक०० (सं० जानत्>प्रा० जाणंत)। जानता, जानते । 'जानत हौं कछु भल होनिहारा ।' मा० १.१५६.७ जानती हूं : जानते हुए भी । 'जानत पूछि कस स्वामी।' मा० ३.६७ जानति : जानत+स्त्री० (सं० जानती>प्रा० जाणंती)। मा० ७.२४.४ जानन : सं०पू० (सं० ज्ञान>प्रा० जावण) । प्रत्यय, बोध । 'जानें जानन जोइये ।' . दो०६८ जाननिहार, रा : वि०पु । जानकार, जानने वाला। 'और तुम्हहि को जान निहारा ।' मा० २.१२७.२ जाननिहारी : वि०स्त्री० । जानने वाली । 'पिय हिय की 'सिय जाननिहारी।' मा० २.१०२.३ जाननिहारे : वि०००। जानने वाले । 'जे महातम जाननिहारे ।' कवि० ७.१४५ जानपनी : सं०स्त्री० (सं० ज्ञत्व>प्रा० जाणत्तण>अ० जाणप्पण == जाणप्पणी)। विवेकशीलता । 'दम दान दया नहिं जानपनी ।' मा० ७.१०२.६ जानब : भकृ०० (सं० ज्ञातव्य>प्रा० जाणि अव्व)। जानना । (१) जानना चाहिए। 'सो जानब सतसंग प्रभाऊ ।' मा० १.३.६ (२) जाना जायगा, समझ में आयगा। 'जानब से सब ही कर भेदा।' मा० ७.८५.८ जानबि : जानिबी। जाननी चाहिए। गौरि सजीवन भूरि भोरि जियें जानबि ।' पा०म० १४२ जानमनि : दे० जान तथा मनि) ज्ञानियों में श्रेष्ठ । कवि० ७.१५ जानराय : (दे० जान तथा राय) ज्ञानियों में श्रेष्ठ । गी० १.३८.१ जानसि : आ०मए० (सं० जानासि>प्रा० जाणसि)। तू जानती-ती-है । 'जानसि ___ मोर सुभाउ बरोरू ।' मा० २.२६.४ जानसिरोमनि : ज्ञानियों में श्रेष्ठ । मा० १.२८.१० जानहिं : आ०प्रब० (सं० जानन्ति>प्रा० जाणंति>अ० जाणहिं) । जानते हैं । 'ते जानहिं सब भेउ ।' मा० १.१३३ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तलसो शब्द-कोश 345 जानहि : जानसि (अ० जाणहि) । तू जानता है । 'केवल मुनि जड़ जानहि मोही।' मा० १.२७२.५ जानहुँ' : आ० -संभावना-प्रब० । चाहे वे जाने । 'जानहुं रामु कुटिल करि मोही।' मा० २.२०५.१ जानहु : आ०मब० (सं० जानीथ, जानीत>प्रा० जाणह>अ० जाणहु) । (१) तुम जानते हो। 'सो तुम्ह जानहु अंतरजामी ।' मा० १.१४६.७ (२) तुम जानो। 'अग जग नाथ अतुल बल जानहु ।' मा० ६.३६.८ जाना : (१) भूकृ०० । जान गया, समझा, पहचाना । 'देखि सुबेष महामुनि जाना।' मा० १.१५८.७ (२) क्रियाति । यदि जाना होता । 'जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तो कि बराबरि करत अयाना ।' मा० १.२७७.२ (३) जान । जाने हेतु । 'रामहि रायँ कहेउ बन जाना।' मा० २.२६२.३ (४) जान (यान) । 'खग मग हय गय बहु बिधि जाना।' मा० १.३०५.४ (५) जानइ । 'तेहि न जान नृप नपहि सो जाना ।' मा० १.१६०.५ (६) ज्ञान, बोध । समझ । 'हमरें जाना..... सब धनुष समाना।' मा० १.२७२.१ जानाभि : आ० उए० (सं०) । जानता हूं। मा० ७.१०८.८ जानि : (१) पू० । जानकर, ज्ञात कर । 'करहु कृपा जन जानि मुनीसा ।' मा० १.१८.६ (२) आ०-आज्ञा-मए० । तू जान । 'जूझ जुआ जय जानि ।' रा०प्र० २.४.२ (३) (समासान्त में)=जाया। पत्नी । दे० जानकी जानि । जानिअ : आ०-कवा०-प्रए० (सं० ज्ञायते>प्रा० जाणीअइ) । जान पड़ जाता है, ज्ञात रहता है । 'गुर प्रसाद सब जानिअ राजा ।' मा० १.१६४.२ जानि : आ०-भूकृ०स्त्री०+उए। मैं ने जानी। 'जानिउ प्रिया तोरि चतुराई।' मा० ६.१६.६ जानिए : जानिअ । जानना चाहिए । 'संतराज सो जानिए।' वैरा० ३३ जानिऐ : जानिए । 'मोहि जानिऐ निज दास ।' मा० ६.११३.८ जानिबी : भक०स्त्री० (सं० ज्ञातव्या>प्रा० जाणिअव्वा>अ० जाणिव्वी) जाननी (चाहिए, होगी)। 'प्रान प्रिय सिय जानिबी।' मा० १.३३६ छ। जानिबे : भकृ०० (सं० ज्ञातव्य>प्रा० जाणिअव्वय) । जानने (चाहिएं)। 'सेवक जानिबे बिन गथ लएँ ।' मा० १.३२६ छं० २ (२) जान पड़ेंगे। 'दिवस छसात जात जानिधे न मातु ।' कवि० ५.२७ जानिबो : भकृ००कए० (सं० ज्ञातव्य:>प्रा० जाणिअव्वो) । जानना (चाहिए)। 'नीच गुड़ी लौं जानिबो।' दो० ४०१ जानिय, ये : जानिअ । धान को गांव पयार तें जानिय ।' कृ० ४४ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 तुलसी शब्द-कोश जानियत : वकृ० (सं० ज्ञायमान>प्रा० जाणी अंत)। ज्ञात होते (ती)। ___ 'जानिमत सबहीं की रीति राम रावरे ।' हनु० ३७ जानिहहिं : आ०भ०प्रब० (सं० ज्ञास्यन्ति>प्रा० जाणिहिति>अ० जाणिहिहिं)। जानेंगे, समझ लेंगे। 'थोरे महुं जानिहहिं सयाने ।' मा० १.१२.६ जानिहि : आ०म०प्रए० (सं० ज्ञास्यति>प्रा० जाणिहिइ)। जानेगा। 'परम तुम्हार राम कर जानिहि।' मा० २.१७५.७ जनिहैं : जानिहहिं । 'कहिबो जानिहैं लघु लोइ । गी० ५.५.६ जानिहीं : आ०भ० उए० (सं० ज्ञास्यामि>प्रा० जाणिहिमि>अ० जाणिहिउँ)। जानूंगा-गी। 'तो जानिहौं सही सुत मेरे।' गी० २.११३ जानिहौ : आ० भ०मब० (सं० ज्ञास्यथ-प्रा० जाणिहिह>अ० जाणिहिहु)। जानोगे । 'आपनो कबहुँ करि जानिहो ।' विन० २२३.१ जानी : (१) भूक स्त्री० । जान ली, समझी। 'चतुराई तुम्हारि मैं जानी।' मा० १.४७.३ (२) जानि । जानकर । 'तजिअ बिषादु काल गति जानी।' मा० २.१७६.२ (3) पूर्व-निर्धारित । 'सकल सभा ले उठी, जानी रीति रही है।' विन० २७६.२ (४) जानिअ । जाना जाय । 'महाबल बीर हनुमान जानी।' कवि० ६.२० (५) वि० स्त्री० । ज्ञानवती, बुद्धिमती । 'जानी ह्र ग्वालि परी फिरि फीके ।' कृ० १० जानु : (१) सं०० (सं०) । पैर का घुटना । मा० १.१६६.११ (२) आ० आज्ञादि-मए । तू जान । जानू : जानु । तू जान । 'चाप सुवा सर आहुति जानू ।' मा० १.२८३.२ जानें : जानने पर, जानने से । 'जेहि जाने जग जाइ हेराई।' मा० १.११२.२ जाने : भू०००ब० । ज्ञात किये । 'सिसु सब राण प्रेमबस जाने ।' मा० १ २२५.१ (२) जाने-माने हुए, प्रबुद्ध । कृ० ४६ (३) जानें । जानकर । 'फिरी अपनपउ पितु बस जाने ।' मा० १.२३४.८ (४) जानना, ज्ञान । 'सोउ जाने कर फल यह लीला।' मा० ७.२२.५ जाने : आ०-भूक००+ उए । मैं ने जाना। 'जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई।' मा० २.२८.१ जानेउ : भूक००कए० (सं० ज्ञातम>प्रा० जाणिअं> अ० जाणियउ) । जाना, ज्ञात किया । 'जब तेहिं जानेउ मरमु तब ।' मा० १.१२३ जानेसि : आ० भूक ००+प्रए । उसने जाना। 'जानेसि निपट अकेल ।' मा० ३.३७ जानेसु : आ०-भ०+आज्ञा-मए० । तू जानना । 'नहिं आवौं तो जानेसु मारा।' मा० ४.६.६ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 347 तुलसी शब्द-कोष जानेहि : आ०-भू०००+मए । तू ने जाना । 'निर्भय चलेसि न जानेहि मोही।' मा० ३.२६.११ जानेहु : (१) आ० भ+आज्ञा-मब । तुम जानना । 'ते जानेहु निसिचर सब प्रानी।' मा० १.१८४.३ (२) भूकृ००+मब० । तुम ने जाना था। 'जानेहु लेइहि मागि चबेना।' मा० २.३०.६ जाने : (१) जानहिं । जानते हैं, जान लें। 'जग जग जानै जग बेदहू बरनि ।' विन० १८४.४ (२) भक० । जानने । जानें कहुं बल बुद्धि बिसेषा ।' मा० ५.२.१ जाने : (१) जानइ । जान सके । 'को जाने केहि सुकृत सयानी ।' मा० १.३३५.४ (२) जानता हो । 'ता सों करहु चातुरी, जो नहिं जाने मरम तुम्हारा ।' विन ० १८८.५ (३) जानहि । तू जान । 'प्रीति परखि जिय जाने । विन० ६५.३ (४) भ० कृ० । जानने । 'को जग जान जोगु ।' मा० २.७७ जानो : (१) जान्यो । समझा। 'नहिं जानो बियोगु सो रोगु है आगें ।' कवि० ७.१३३ (२) जानहु । जानते हो, जान लो । 'झूठ क्यों कहौंगो जानो सब ही के मन की।' विन० ७५.१ . जानौं : जानउ । (१) जानता हूं। 'जानौं न बिग्यानु ग्यानु ।' कवि० ७.६२ (२) जानता होऊँ । 'जननी जौं जानौं यह भेऊ ।' मा० २.१६८.८ । जान्यो : जानेउ । समझा । 'समय देव करुनानिधि जान्यो।' मा० ६.७१.१ जाप : जप । 'मंत्र जाप मम दृढ़ बिरवासा ।' मा० ३.३६.१ जापक : वि० (सं०) जप करने वाला । मा० १.२७ जापकी : सं०स्त्री० । जापक का कर्म =जप । 'जापकी न तपखपु कियो।' कवि०. ७.७७ जाप, पू : जाप+कए । एक मात्र जप । 'भय उ सुद करि उलटा जापू ।' मा० जाप्य : वि०० (सं०) । जपनीय, मन्त्र देवता । 'वाच्य-वाचकरूप मंत्र जापक जाप्य ।' विन० ५३.७ जाब : भकृ०० (सं० यातव्य>प्रा० जाअव्व)। (१) जाना । 'मोर जाब तव नगर न होई ।' मा० १.१६७.३ (२) जाना होगा । 'जाब जहँ पाउब तहीं।' मा० १.६७ छ जाबालि, ली : सं०पू० । ऋषि विशेष का नाम । मा० २.३१६.६ जाम : सं०० (सं० याम>प्रा० जाम) । पहर । मा० १.१७२ ५ जामति : भूक०स्त्री० । जमती, उगती, अङ करितया अङ कुर सम्पन्न होती।" _ 'जगती जामति बिनु बई ।' गी० ५.३८.५ जामवंत : सं०० (सं० जाम्बवत्>प्रा. जंबवंत)। सुग्रीव के सेना में ऋक्षराज= जाम्बवान् । मा० ५.१.१ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 तुलसी शब्द-कोष जामबंतु : जामवंत+कए । रा०प्र० ३.७ २ जामहिं : आ०प्रब० (सं० जायन्ते, जायन्ताम् >प्रा. जम्मंति, जम्मंतु>अ० जम्महिं) (१) उगते हैं। 'बए न जामहिं धान । मा० ७.१०१ (२) चाहे उगें । 'कमठ पीठ जामहिं बरु बारा।' मा० ७.१२२.१७ जामा : (१) जाम । पहर । 'बैठहिं बीति जात निसि जामा।' मा० ५.८.७ . (२) भूकृ.पु । जमा, उगा, अङ कुरित हुआ। 'पाइ कपट जलु अंकुर जामा।' मा० २.२३.६ जामाता : सं०० (सं० जामात) । जमाई, पुत्री का पति, दमाद । मा० १.३४१.२ जामिक : सं०० (सं० यामिक) । प्रहरी (रक्ष क) । मा० २.३१६.५ जामिनि, नी : सं०स्त्री० (सं० यामिनी>प्रा० जामिणी>अ० जामिणि)। रात । मा० १.३३०.१; २.५० छं० जामी : भूकृ०स्त्री०। (सं० जाता>प्रा. जम्मिआ)। अङ कुरित (उत्पन्न) हुई । 'काहू सुमति कि खल सँग जामी।' मा० ७.११२.४ जामु : जाम+कए । एक पहर मात्र । 'दिस रहा भरि जामु ।' मा० १.२१७ जामो : भूकृ.पु०कए० (सं० जातः, जातम् >प्रा. जम्मिओ, जम्मिश्र>अ० जम्मिय उ>जामियउ>जामेउ>जाम्यो)। उगा। 'सिला सरोरुह जामो।' विन० २२८.३ जायँ : अव्यय । वृथा। 'नतरु जनम जग जायें ।' मा० २.७० जाय : (१) जायें । वथा । 'जाय जोग बिन छेम ।' दो० १०४ (२) जाइ । जाता है । 'जाय जीव जंजाल ।' रा०प्र० ६.३.६ (३) जाइ। जाकर । 'जाय माय पायें परि कथा सो सुनाई है।' गी० ५.२६.१ (४) जाहि । तू जा । 'तू कहूं जाय, तिहूँ ताप तपिहै ।' विन० ६८.१ (५) भूकृ०० (सं० जात>प्रा० जाय) । उत्पन्न । दे० जायऊँ आदि । जायउँ : आ० - भूकृ.पु+उए । मैं उत्पन्न हुआ। 'अहह देव मैं कत जग जायउँ । मा० ६.६०.३ जायउ, ऊ : (१) सं०पु०कए० (सं० जातक:>प्रा० जायओ>अ० जायउ) । पुत्र (२) वि० भूक०० (सं० जातः>प्रा० जाओ>अ० जायउ) । उत्पन्न हुआ (३) संपु०कए० (सं० याचकः =जातक::>प्रा० जायओ>अ० जायउ) भिखारी । 'तुलसी तिहारो घर, जायऊ है घर को।' कवि० ७.१२२ जायगो : आ०भ०० (१) प्रए । वह जायगा (२) मए । तू जायगा । 'छु टिबे के जतन बिसेष बाँधो जायगो।' विन० ६८.४ जायहु : आ०-भूक०पु०+मब० । तुम उत्पन्न हुए, तुमने जन्म जिया। गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु ।' मा० ६.२१.६ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोष 349 जाया : (१) संस्त्री० (सं.)। पत्नी। 'उदासीन धन धाम न जाया ।' मा० १.९७.३ (२) सं०० (सं० जातक>प्रा. जायअ) । पुत्र । 'जीति न जाइ प्रभंजन जाया ।' मा० ५.१६.६ (३) भूक०० (सं० जात>प्रा० जाय)। उत्पन्न हुआ। 'जेहि न मोह अस को जग जाया।' मा० १.१२८.८ . जाये : (१) जाए। उत्पन्न किये। 'पूत जाये जानकी है।' गी० ७.३४.१ (२) उत्पन्न हुए । 'सब के समान जग जाये।' विन० २०१.४ (३) जायें । वथा । 'ते नर जड़ जीवत जग जाये।' गी० १.३२.७ जायो : जायउ । (१) पुत्र । 'असकहि चल्यो बालि नप जायो।' मा० ६.३५.१० (२) उत्पन्न हुआ । 'जायो कुल मंगन ।' कवि० ७.७३ (३) उत्पन्न किया । 'पूत सपूत कोसिला जायो ।' गी० १.२.१ /जार जारइ : (सं० ज्वलयति>प्रा० जालइ-जलाना, दग्ध करना, सन्तप्त करना) आ०प्रए । जलाता है, जला सकता है। 'जारइ भुवन चारिदस आसू।" मा० ६.५५.१ जारत : वकृ०० । जलाता, जलाते हुए । 'जारत नगर कस न धरि खाहू ।' मा. ७.६.३ (२) जला रहा (है)। 'जारत पचारि फेरि फेरि सो निसंक लंक।" कवि० ५.२२ जारति : वक०स्त्री० । जलाती । 'जो जारति जोर जहानहि रे।' कवि० ७.२८ जारनिहारे : वि.पु.ब ० । जलाने वाले । क० ५६ जारा : (१) जाल । 'अस्थि सैल सरिता नस जारा ।' मा० ६.१५.७ (२) जारइ । जलाता, संताप देता। 'क्रोध पित्त नित छाती जारा।' मा० ७.१२१.३० (३) भूकृ०० । जला दिया । 'अस कहि जोग अगिनि तनु जारा।' मा० १.६४.८ जारि : पूकृ० । जलाकर । 'कामु जारि रति कहुं बरु दीन्हा ।' मा० १.८६.२ जारि : आ०-भूक०स्त्री०+उए । मैंने जलाई, सन्तप्त की। 'जारिउँ जायें जननि कहि काकू।' २.२६१.६ जारिए, ये : आ०कवा०प्रए । जलाइए, जलाया जाय । 'जारिये जवासे जस ।' हनु० ३५ जारी : (१) भूक स्त्री० । जला दी । 'सपर्ने बानर लंका जारी ।' मा० ५.११.३ (२) जारि । जलाकर । 'करत बिबिध जोग, काम क्रोध लोभ जारी।' गी० १.२५.६ जारें : जलाने से । 'गाइ गोठ महिसुर पुर जाएँ।' मा० २.२६७.५ जारे : भक००ब० । (१) जलाये । 'जारे हैं लंक से बंक मवासे ।' हनु० १७. (२) जलाये हुए । 'नृपति लाज ज्वर जारे।' गी० १.६८.४ . . . . . . Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 तुलसी शब्द-कोश जारेउ : भूकृ.पु.कए । जला डाला।' 'जारेउ कामु महेस ।' मा० १.८६ जारेहुं : जलाने पर भी । ‘जारेहुं सहज न पीहर सोई ।' मा० १.८०.६ जारें : आ०प्रब० । जलाते हैं । 'छाती पराई औ आपनी जरें।' कवि० ७.१०४ जार : भक • अव्यय । जलाने । 'जार जोगु कपारु अभागा। मा० २.१६.७ जारो : जार्यो। नामहं पाप न जारो।' विन० ६४.६ जार्यो : जारेउ । 'उतरि सिंधु जार्यो पचारि पुर ।' गी० ६.१.६ जाल, ला : सं०० (सं० जाल-जालक>प्रा० जाल =जालअ)। (१) जाली, झालर आदि । 'कनक कलस तोरन मनि जाला ।' मा० १.२६६.८ (२) पाश, फंसाने वाला बागुर । 'जलचर बद जाल अंतर गत होत सिमिटि इक पासा ।' विन० ६२.६ (३) बन्धन । 'सुमिरत समन सकल जग जाला।' मा० १.२७ ५ (४) लपेट, लपट । 'उगिलत ज्वाला जाल ।' दो० ३७५ (५) समूह । 'बिथकी सुनि जुवति जाल ।' गी० २.१७.३ (६) फैलाव, बौंड' प्रतान । 'श्रीफल कुच, कंचुकि लता जाल ।' विन० १४.५ जालिका : जाल (सं.) । जाली। (१) पाश, बागुरा। 'भूत ग्रह बेताल खग मृगालि जालिका।' विन० १६.२ (२) समुदाय । 'प्रनत जन कुमुद बन इंदु कर जालिका।' विन० ४८.५ जाल, लू : जाल+कए । 'जरम मरनु जहँ लगि जग जालू ।' मा० २.६२.६ जाले : जाला+ब० । 'मकरी के से जाले।' हनु० १७ जावक : सं०० (सं० यावक)। महावर, लाक्षानिमित रंग विशेष जिसे सौभाग्य वतियाँ पावों में रचाती हैं। विवाहादि में वर के पैरों में लगाया जाता है। 'जावक जुत पद कमल सुहाए।' मा० १.३२७.२ जावनु : सं०पु०कए । जावन =दही बनाने हेतु दूध में डाला जाने वाला दावन । मा० ७.११७.१४ जासु, सू : सर्वनाम-संबन्ध ए० (सं० यस्य>प्रा० जस्य>अ० जासु) । जिसका-की के। 'जासु गुन....।' मा० १.१२ 'बड़ रखवार रमापति जासू ।' मा० १.१२६.८ जाहि, हीं : आ०प्रब० (सं० यान्ति>प्रा० जांति>अ० जाहिं)। (१) जाते हैं । 'जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ ।' मा० १.२२३ (२) जा सकते हैं (कर्मवाच्यार्थक) । पद राजीव बरनि नहिं जाहीं।' मा० १.१४८.१ (३) आ० उब । हम जाते हैं, जायँ । 'नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं।' मा० २.१०६.१ (४) सर्वनाम-जिसमें, जहाँ । 'सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा ।' मा० १.२३६.८ जाहिंगे : आ०म०प्रब० । जायेंगे । 'नीच जाहिंगे कालि ।' दो० १४५ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 351 जाहि, ही : (१) सर्वनाम । जिसे, जिसको । 'बरइ सीलनिधि कन्या जाही।' मा० १.१३१.४ 'जाहि दूसरो भाव । कृ० ३३ (२) आ०-आज्ञा-मए० (सं० याहि प्रा०>जाहि) । तू जा । 'करिआ मह करि जाहि अभागे।' मा० ६.४६.३ 'अब जनि नाथ कहहु, गृह जाही।' मा० ७.१८.८ जाहिगो : आ०भ००मए० । तू (नष्ट हो) जायगा। देहि सिय, ना तो पिय, परमाल जाहिगो।' कवि० ६.२३ जाहिर : वि० (अरबी-जाहिर)। प्रसिद्ध । कवि० ७.७६ जाहुं : आ०प्रब० । जायें । 'अब ए नयन जाई जित एरी।' गी० १.७८.२ । जाहु : आ०मब० (सं० याथ, यात>प्रा० जाह>अ० जाहु)। (१) जाते हो। 'खलहु जाहु कहँ मोरे आगे।' मा० ६.६७.७ (२) जाओ । 'सहित सहाय जाहु मम हेतू ।' मा० १.१२५.६ जाहू : (१) जाहु । 'बिप्र बद उठि उठि गृह जाहू ।' मा० १.१७३.६ (२) जा+ है। जिसके । 'सकइ न बरनि सहस मुख जाहू ।' मा० १.३३१.८ /जिअ जिअइ : (सं० जीवति-जीव प्राणधारणे>प्रा० जिअइ) आ०प्रए । जीता-ती है; जी सकता-ती है । 'जिअइ कि लवन पयोधि मराली।' मा० जिअत : वकृ०० (सं० जीवत्>प्रा० जिअंत)। जीता, जीते (जीवन धारण करते हुए)। 'देखउँ जिअत बैरी भूप किसोर ।' मा० १.२७६ (२) जीता (है), जीते (हैं) । 'जिअत अवधि की आस ।' मा० २.३२२ जिअन : सं०पु० (सं० जीवन >प्रा० जिअण) । (१) जीवन । 'जिअन मूरि जिमि जोगवत रहऊँ ।' मा० २.५६.६ (२) जीने की क्रिया । 'जिअन मरन फलु दसरथ पावा ।' मा० २.१५६.१ जिअनमूरि : जीवन मूलिका । जीवन-दायिनी जड़ी। जीवन का मूल तत्त्व । ऐसी जड़ जिसमें प्राण निहित ही (जिसके उखाड़े जाने पर प्राणहानि निश्चित हो)। दे० जिअन । जिअब : भकृ०० (सं० जीवितव्य>प्रा० जि इअव्व)। (१) जीवन । 'भूपति जिअब मरब उरआनी ।' मा० २.२८२.७ (२) जीना होगा (जी सकना होगा =जिऊँगा) । 'मै न जिअब जिनि जल बिनु मीना ।' मा० २.६६.८ जिअसि : आ०मए० (सं० जीवसि>प्रा० जिअसि) । तू जीता है। 'जिअसि सदा सठ मोर जिआवा।' मा० ५.४१.३ जिअहिं : आ०प्रब० (सं० जीवन्ति>प्रा० जिति>अ0 जिअहिं)। जीते हैं, जी जायँ । 'जिअहिं बिचारे निसिचर खाई।' मा० ५.३७.३ जिअहं : जीवहुं । जीवित रहें । 'चिर जि अहुँ जोरी ।' मा० १.३२७ छ० ४ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 तुलसी शब्द-कोश जिअ : आ०-आशी:-मब० । जिओ। 'जि अहु जगतपति बरसि करोरी ।' मा० २.५.५ जिप्राइ, ई : पूकृ० । जिला, जीवित कर । 'प्रभु सक त्रिभुवन मारि जिआई ।' मा० ६.११४.४ जिआउ : आ०–आज्ञा-मए० (सं० जीवय>प्रा० जिआव>अ० जिआयु) । तू जीवित कर । 'सकल जिआउ सुरेस सुजाना ।' मा० ६.११४.१ जिआएँ : जिलाने से । 'मारें मरिअ जिआएँ जीज।' मा० ३.२५.४ जिप्राए : भूकृ०पु०ब० । जीवित किये । 'सुधा बरषि कपि भाल जिआए ।' मा० ६.११४५ जिआयउ : भूकृ०पु०कए । जिलाया, जीवित किया । 'मोहि जिमआयउ जन सुख दायक ।' मा० ७.६३.७ जिआयो : जिआयउ । 'धिग बिधि मोहि जिआयो।' गी० २.५६.३ /जिआव जिप्रावइ : (Vजिअ+प्रेरणा-सं० जीवयति>प्रा० जिआवइ_ जिलाना) आ०प्रए । जिलाता है, जीवित रखता है। 'सोइ बिधि ताहि जिआव न आना।' मा० ६.६६.१० जिआवत : वकृ०० (सं० जीवयत्>प्रा० जिआवंत)। जिलाता, जिलाते । 'अरि बस देउ जिआवत जाही।' मा० २.२१.२ जिप्रावनि : सं०स्त्री० (सं० जीवनी>प्रा० जिआवणी) । संजीवनी, जीवनदात्री। 'मृतक जिआवनि गिरा सुहाई।' मा० १.१४५.७ जिआवसि : आ०मए० (सं० जीवसि>प्रा० जिआवसि) । तू जिलाता है। 'संकर बिमुख जिआवसि मोही।' मा० १.५६.४ जिआवा : भूकृ०० (सं० जीवित>जिआविअ) । जिला हुआ। 'जिअसि सदा सठ मोर जिआवा ।' मा० ५.४१.३ (२) जिआवइ । जिलाता है । 'जो एतेहुं दुख मोहि जिआवा ।' मा० २.१६५.८ जिआवै : जिआवइ । जीवित रखे । 'जौं जड़ देव जिआवै मोही।' मा० ६.६१.१० जिहहिं : आ०म०प्रब० (सं० जीविष्यन्ति>प्रा० जिइहिति>अ. जिइहिहिं)। जिएंगे । 'प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें ।' मा० २.१००.१ जिइहि : आ०भ०प्रए० (सं० जीविष्यति>प्रा. जिइहिइ)। जियेगा। नप कि जिइहि बिनु राम।' मा० २.४६ जिउ : (दे० जीव) सं०पु०कए० (सं० जीव:, जीवम् >प्रा० जिओ, जिअं>अ० जिउ) । (१) जीवन, प्राण । 'जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी।' मा० २.१४५.४ (२) जीवात्मा। 'जिउ सुख कबहुं न पावै ।' विन० १२०.५ (३) जन्तु, प्राणी । 'गुह गरीब गत ग्याति जेहिं जिउ न भखा को ।' विन० Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द कोश 353 १५२.७ (४) (आशीर्वाद अर्थ में) जीव, जी। 'काहे राम जिउ सविर लछिमन गोर हो।' रा०न० १२ जिएँ : जीने से । 'तुलसी जग में फल कौन जिएँ।' कवि० १.२ जिए : भूकृ००ब० । जी उठे । 'जिए सकल रघुपति की ईछा ।' मा० ६.११४.८ जिये : (१) जिअइ । जीता है। 'सोई जिऐ जग में तुलसी।' कवि० ७.३६ (२) जी सके, जीता रहे । 'जिऐ मीन बरु बारि बिहीना।' मा० २.३३.१ (३) भकृ० । जीना जाने को । 'जिऐ मरै भल भूपति जाना।' मा० २.१६६.८ जिऔं : आ०उए० (सं० जीवामि>प्रा० जिआमि>अ० जिउँ) । जिऊँ, जीवित रहूं। 'जब लगि जिऔं ।' मा० २.३६.७ । जित : (१) वि. (सं० जित्) जीतने वाला । 'षट बिकार जित अनघ अकामा ।' मा० ३.४५.७ (२) क्रि०वि० अव्यय (सं० यत:>प्रा० जत्तो)। जिधर, जिस ओर । 'ए नयन जाहुं जित हरी ।' गी० १.७८.२ /जित जितइ : (सं० जितं करोति=जितयति-जीतना, पराजित करना) आ० प्रए । जीतता है। जितई : भूकृ०स्त्री० । जितायी, विजययुक्त कर दी । 'सुकृत सेन हारत जितई है।' विन० १३६.११ जितन : भकृ० । जीतने । 'बलिहि जितन एक गयउ पताला ।' मा० ६.२४.१३ जितने : जेते । 'रंक निरगुनी नीच जितने निवाजे हैं।' विन० १८०.८ जितब : भकृ.पु । जीतना, पराजित करना।' भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ।' मा० १.१३६.६ जितहिं : आ.प्रब । जीतते हैं, जीत पाते हैं (थे) । तेहिं बल ताहि न जितहिं पुरारी।' मा० १.१२३.८ जिता : (१) भूकृ.पु । जीत गया, जीत लिया। 'जिता काम अहमिति मन माहीं।' मा० १.१२७.५ (२) जित । जेता, जीतने वाला । 'धरम धुरघर धीर धुर गुन सील जिता को।' विन० १५२.६ जिताये : भूकृ०० । विजयी बनाये । 'तेरे बल बानर जिताये रन रावन सों।' हनु०३३ जिताहि : आ.प्रब० । जिताते हैं, विजय दिलाते थे। 'हारेहुं खेल जिताहिं ___ मोही।' मा० २.२६०.८ जिति : जीति । जीतकर । जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी। गवनु कीन्ह ।' मा० २.२८७.३ जितिहहि : आ०भ०प्रब । जीतेंगे । जितिहहिं राम न संसय या महिं ।' मा० ६.५७.५ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 1 तुलसी शब्द-कोश जिते : भूकृ०पु० ( ब० ) । (१) जीत लिये, पराजित किये। 'जिते असुर संग्राम ।' मा० १.२१६ (२) विजयी हुए । 'हारि जिते रघुराउ ।' दो० ४३३ (३) जीतने पर । 'जिते सकुच सिर नयन नए ।' गी० १.४५.७ जितेउँ : आ० - भूकृ०पु० + उए० । मैं ने जीता - जीते। ' भुजबल जितेउँ सकल दिगपाला ।' मा० ६.८.३ जितेहु : आ० - - भूकृ०पु० + मब० । तुमने जीत लिये । 'जितेहु चराचर झमरे ।' मा० ५.२१ जिते : जितइ । जीते, जीत सके । 'समर जितै जनि कोउ ।' मा० १.१६४ जिर्तया : वि० । जीतने वाला, विजेता । 'दले जातुधान जे जितैया विबुधेस के ।' 1 कवि० १.२१ जितेही : आ०भ० मब० । जिताओगे; विजयी बनाओगे । 'जनम जनम हौं मन जित्यो, अब मोहि जित हो ।' विन० २७०.२ जितो : जित्यो । जीत लिया, पराजित किया । 'कुंकुम रंग सु अंग जितो ।' कवि० ७. १८० (२) जितो जितो : जेतो। जितना । 'कह्यो न परत सुख होत जितो री ।' गी० १.७७.२ 'जिगो : आ० भ०पु० उ० । जीतूंगा । 'कालिहीं जितोंगो रन, कहत कुचालि है ।' कवि० ७.१२० जित हैं : वि०पु०ब० । विजयोन्मुख, विजिगीषु । 'तिन्ह के जितो हैं मन ।' गी० • बड़ाई जित्यो १.८६.३ जियो : भूकृ० ० क ० । जीत लिया । 'बेगि जित्यो मारुत बावनो ।' कवि० ५.६ जिन : जिन्ह । 'सुमिरत जिनहि रामु मन माहीं ।' मा० २.२१७.३ जिनस : सं० स्त्री० ( फा० जिन्स) । जाति जथा उपजाति के भेदोपभेद तथा अवान्तर भेद । 'कामरूप खल जिनस अनेका ।' मा० १.१७६.७ जिनि : जनि । 'मेरो कह्यो मानि तात बाँधे जनि बेरै ।' गी० ५.२७.३ जिन्ह : सर्वनाम + संब० । जिन जिन्हों । ( १ ) जिन । 'परहित हानि लाभ जिन्ह केरें ।' मा० १.४.२ (२) जिन्होंने । 'जिन्ह सादर हरि चरित बखाना ।' मा० १.१४.२ 'जिन्हहि : जिनको । 'जिन्हहि न सपनेहुं खेद ।' मा० १.१४ ङ जन्हे : जिन्हहि । 'छाजं जिन्हे छत्र छाया ।' कवि० १.८ जिमि : अव्यय (सं० यथा = अ० जिम) । ज्यों, जैसे, जिस प्रकार । मा० १.३ क जियँ : जी में । 'अभय भई भरोस जियँ आवा ।' मा० १.१८७.६ जय : सं०पु० (सं० जीव > प्रा०जिअ = जिय) । (१) जीव । ' बरन बिलोचन जन जिय जोऊ ।' मा० १.२० १ (२) मन, चित्त, अन्तःकरण । बिधि बस Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 355 कुमति बसी जिय तोरें।' मा० २.३६.१ (३) प्राण, जीवन । 'जिय बिन देह; नदी बिनु बारी।' मा० २.६५.७ जियत : जियत । दो० २२१ जियति : जियत+स्त्री० । जीती, जीवित । 'कैकेई जोलौं जियति रही।' गी० ७.३७.१ जियबे : जिअब, जीबे । गी० २.१.२ जियरे : (सं० जीवे>प्रा० जिए>अ० जियडे) । जी में, हृदय में । 'कुंडल तिलक छबि गड़ी कबि जियरे।' गी० १.४३.२ जिया : भूकृ००। (१) जी उठा, पुनर्जीवित हुआ। रा०प्र० ६.५.५ (२) जीता रहा । 'आजु लौं जग जागि जिया रे ।' विन० ३३.४ जियाइहौं : आ०भ० उए० (सं० जीवयिष्यामि>प्रा. जिआइहिमि>अ. जिआइहिउँ)। जिलाऊंगा, अजीविका दूंगा । 'लरिका केहि भांति जियाइहीं ___ ज ।' कवि० २.६ जिये : जिए । जीवित रहे । 'सभ सुख जीवन जिये।' गी० १.५.५ जियें : जिअहिं । जीते हैं । 'असि देह धराइ के जायें जिये।' कवि० ७.३८. जिये : जिअइ । (१) जीता है। 'मनि लिये फनि जिय ब्याकुल बिहाल रे ।' विन० ६७.३ (२) जीवित रहे । 'जिये जग में तुम्हारो बिनु हब ।' कवि० ७.४० जियो : (१) आ०-आशी:-प्रए । चिरजीवी होवे । 'जोरी जियो जुग जुग ।' ___ कवि० १.१४ (२) जिया+कए । जीवित रहा। बिछुरें कैसे प्रीतम लोगु जियो है।' कवि० २.२० जिव : जीव । 'होइ अचल जिमि जिव हरि पाई।' मा० ४.१४.८ जिवन : जीवन । 'अस मम जिवन बंधु बिनु तोही ।' मा० ६.६१.१० जिवनु : जिवन+कए । 'जिवनु जासु रघुबीर अधीना ।' मा० २.१४६.६ जिवौ : आo-आशी:-प्रए० (सं० जीवतु>प्रा० जिवउ) । जीवित रहे । 'चिर __ जिवो तनय सुखदाई।' गी० १.१.७ जिष्णु : वि० (सं०) । विजयशील, सर्वोपरि सत्तावान, सर्वशक्तिमान् =विष्णु । जिष्णो : जिष्णु +संबोधन (सं०) । विन० ५४.३ जिसु : जासु । जिसका । 'श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी ।' मा० १.१३०.४ जिहि : जेहि । जिसे । 'जरनि जाइ जिहि जोए।' गी० २.६१.२ जी : जिय । जीवा । 'पूजी सकल बासना जी की।' मा० १.३५१.१ जीअत : जिअत (प्रा० जिअंत=जीअंत)। 'जीअत भबन जाहु द्वो भाई।' मा० ३.१६.६ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356 तुलसी शब्द-कोश जीजी : सं०स्त्री० (सं० आर्या+जीव>प्रा० अज्जा+जीव>अ० अज्जी+जीव)। बड़ी बहन के लिये प्रयुक्त आदर सूचक शब्द । कवि० २.४ जोजे : आ०भावा० (सं० जीव्यते>प्रा. जिइज्जइ) । (१) जिया जाता है, . जीवित रहा जाता है । 'मारें मरिअ जिअएँ जीज।' मा० ३.२५.४ (२) जीवित रहा जाय, जिया जा सकता है । ग्वालिनि तो गोरस सुखी, ता बिनु क्यों जीज।' कृ०७ जीत : जीतइ । जीत सकता है। 'समर भूमि तेहि जीत न कोई।' मा० १.१३१.३ जीत जीतइ : (सं० जितयति>प्रा० जितइ-विजय करना) आ०प्रए । जीतता है, जीत सकता है। एहि जीतइ रन सोइ ।' मा० १.८२ जीतन : भकृ० अव्यय । जीतने । 'जीतन कहुं न कतहुं रिपु ता के।' मा० ६.८०.११ जीतनिहार, रा : वि.पु । जीतने वाला । रामहि समर न जीतनिहारा।' मा. २.१८६.७ जीतह : आ०मब० । जीत लो। 'जीतहु समर सहित दोउ भाई।' मा० १.२६६.५ जीता : भूक०० । 'जीत लिया। 'ख्याल ही बालि बलसालि जीता।' कवि० नीति : (१) पूक० । जीत कर । पुष्पक जानि जीति लै आवा।' मा० १.१७६.८ (२) सं०स्त्री० (सं० जिति>प्रा. जित्ति)। विजय । 'सुन तिन्ह की कोन तुलसी जिन्हहि जीति न हारि ।' कृ० ५३ जीतिअ : जीतिए । जीता जा सकता है । 'सपनेहुं समर कि जीतिअ सोई ।' मा० ६.५६.८ जोतिए : आ०-कवा०-प्रए । जीता जा सकता है । 'तुलसी तहाँ न जीतिए।' दो० ४३० जोतिबो : भक००कए । जीतना । 'प्रभु के हाथ हारिबो जीतिबो।' विन० २४६.४ जोतिहहिं : जितिहहिं । 'जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे ।' मा० ६.४३.१ जीती : (१) भूकृ०स्त्री० । जीत ली । 'सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती।' मा० १.२२०.५ (२) जीति । जीतकर । 'एकहि एक सकइ नहिं जीती।' मा० ६.५४.१ जीतें : जीतने में । 'जीतें हारि निहारु ।' दो० ४२६ जीते : भूकृ००ब० । जीत लिये । 'जीते सकल भूप बरिआई ।' मा० १.१५४.६ जीतेहु : जितेहु । तुमने जीते। 'जीतेहु लोकपाल सब राजा।' मा० ६.२०.४ जीते : जीतइ । जीत सके । 'जो न तुम्हहि जीत समाहीं।' मा० ५.५५.४ जीत्यों : जितेउँ । मैंने जीत लिए । 'जीत्यों अजय निसाचरराऊ।' मा० ६.११२.३ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुमसी शब्द-कोश 357 जीत्यो : भूकृ.पु.कए । (१) जीत लिया गया, पराजित हुआ। 'मातु समर ___जीत्यो दस सीसा।' मा० ६.१०७.७ (२) जीता (जीतना) । 'चहत जीत्यो रारि रन में ।' गी० ५.२३.१ जीन : सं०० (सं० जीन=चमड़े का थैला-फा० जीन) । घोड़े की काठी। 'रचि रचि जीन तुरग तिन्ह साजे ।' मा० १.२९८.४ जोनु : जीन+कए । 'जगमगत जीनु जराव ।' मा० १.३१६ छं० जीविका : सं०स्त्री० (सं० जीविका) । जीवन-वृत्ति, जीवन यात्रा, जीवनयापन हेतु व्यवसाय, रोजी । 'जीबिका बिहीन लोग सीघमान ।' कवि० ७.६७ जोबे : भकृ०० (सं० जीवितव्य>प्रा० जिइअव्वय)। जीने (को)। “जीवे न ठाउँ, न आपन गाउँ ।' कवि० ७.६२ जीबो : भकृ००कए । जीना (जिया जा सकता है)। 'है जग ठाउँ, कहूं वं ___जीबो।' कृ. जीम : सं०स्त्री० (सं० जिह्वा>प्रा० जिब्भा>अ० जिब्भ)। मा० १.६४.४ जीयें : जियें । जी में, मन या अन्तरात्मा में । 'जैसी मुख कहौं तैसी जीयें जब आनिहौं ।' कवि० ७.६३ जीय : जिय । विन० २६३.१ जीव : सं०० (सं.)। (१) प्राणी । 'जड़ चेतन जग जीव जत ।' मा० १.७ (२) चित् तत्त्व, ईश्वरांश आत्मा, (सांख्य में) पुरुष, जीवात्मा। 'ब्रह्म जीव बिच माया जैसें ।' मा० २.१२३.२ (३) जीवन । 'सुदर जुबा जीव परहेलें।' मा० १.१५६.३ (४) (सं० जीवति इति जीवः के अनुसार आशीर्वादार्थक) चिरंजीव, जी । 'कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए।' मा० २.५.२ जीवजाल : (दे० जाल) जीव समूह । हनु० २४ जीनत : वकृ०० (सं० जीवत् >प्रा० जीवंत)। जीता, जीते, जीते हुए। 'जीवत सकल जनम फल पाए।' मा० २.१६१.३ (२) जीते-जी, जीवित रहते । 'जीवत हमहि कुआरि को बरई ।' मा० १.२६६.४ जीवति : वकृ०स्त्री० । जीती, प्राणधारण करती। 'कतहुं रहउ जो जीवति होई।' ___ मा० ४.१८.३ जीवन : सं०० (सं.)। (१) प्राणधारण । 'मम जीवन तिमि तुम्हहिं अधीना।' मा० १.१५१.६ (२) जीवन साधन । 'राम भगत जन जीवन सोई।' मा. १.३६.७ (३) आयुष्य जन्म से मरण तक का समय। 'लघु जीवन संबत पंचदसा ।' मा० ७.१०२.४ (४) भकृ० (सं० जीवितुम्>प्रा० जीविउं>अ. जीवण) जीने । 'कवनि राम बिनु जीवन आसा ।' मा० २.५१.५ (५) जिलाने वाला । 'श्रीजानकीजीवनम् ।' मा० ४ श्लोक २ (६) जीव+संब० । जीवों Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358 तुलसी शब्दकोश (को) । जीवन मुकुति हेतु जनु कासी।' मा० १.३१.११ (७) जल । 'जीवन तें जागी आगि ।' कवि० ५.१९ (८) प्राणधारण+जल । 'होइ जलद जग जीवन दाता।' मा० १.७.१२ बीवनतरु : जीवन रूपी वृक्ष+वह वृक्ष जिसमें जीवन रहता हो (लोक कथाओं में किसी राजा का जीवन एक वृक्ष में स्थित कहा जाता है, वहीं से जीवन वृक्ष की कल्पना है । उस वृक्ष को छलपूर्वक हटा देने पर राजा का मरण कथाओं में आता है।) 'जीवनतरु जिमि जोगवइ राऊ।' मा० २.२०१.१ बीवननाथ : जीवननाथ+कए । जीवन के एकमात्र स्वामी। प्राणाधार । मा० २.५८.३ जीवनमुक्त : वि० (सं० जीवन्मुक्त) । जीवित दशा में ही ब्रह्मलीन रहने वाला यति । 'जीवनमुक्त ब्रह्म पर ।' मा० ७.४२ जीवनि : सं०स्त्री० (सं० जीवनी)। जीवनदात्री, जीवनबूटी, जिलाने वाली औषधि । 'अवधि आस सम जीवनि जी की।' मा० २.३१७.१ जीवन : जीवन+कए । 'सत्य कि जीवन लेइहि मोरा।' मा० २.३१.३ जीवन्ह : जीव+संब० । जीवों। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा ।' मा० ७.७६.१ जीवहिं : आ०प्रब० (सं० जीवन्ति>प्रा० जीवंति>अ० जीवहिं) (१) जीते हैं। _ 'महरि महर जीवहिं सुख जीवन ।' कृ० ४८ (२) जियें (गे)। क्यों जीवहिं, मेरे राम लाडिले, ते अब निपट बिसारे ।' गी० २.८७.२ जीवहि : (१) जीव को। 'जनु जीवहि माया लपटानी ।' मा० ४.१४.६ (२) जीव का । 'ईस्बर जीवहि भेद कहहु कस।' मा० ७.७८.५ बोवहुं : आ०-आशी:-प्रब० । जियें, चिरायु हों । 'सकल तनय चिर जीवहुँ ।' मा० १.१६६ जीवहु : (१) जीवहुं। 'नप सुत चारि चारु चिर जीवहु ।' गी० १.२.१० (२) जोवों के ही । 'सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई।' मा० ७.८६.६ जीवा : जीव । मा० २.२३८.५ जीवे : जीवइ । जी सकता है । 'प्रतिग्राही जीव नहीं।' दो० ५३३ जीवौं : आ० उए० (सं० जीवामि>प्रा० जीवमि>अ० जीवउँ)। जीवित रहूं।' ____ 'जीवौं तो बिपति सहौं निसि बासर ।' गी० २.५४.४ जोहँ : जीभ से । 'नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी।' मा० १.२२.१ जीह : जीहा (अ.) । जीभ । 'जीह जसोमति हरि हरधर से ।' मा० १.२०.८ जोहा : सं०स्त्री० (सं० जिह्वा>प्रा० जीहा)। जीभ । 'हंसिनि जीहा जासु ।' मा० २.१२८ तु : (१) जो। यदि । ‘राबन जु पं राम रन रोषे ।' गी० ५.१२.१ (२) जो। जिसको । 'को जु मोह कीन्हो जय न ।' कवि० ७.११७ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 359 जुआ : सं०पु० (सं० द्यूत>प्रा० जूअ) । द्यूतक्रीडा। 'कहा भयो कपट जुआ जो हौं हारी।' कृ० ६० जुआरा : वि०पू० (सं० द्यूतकार>प्रा० जूआर) । द्यूत खेलने वाला । 'बाढ़े खल , बहु चोर जुआरा।' मा० १.१८४.१ जुआरि, री : जुआरा (सं० द्यूतकारिन्>प्रा० जुआरी) । 'सूझ जुआरिहि आपन दाऊ ।' मा० २.२५८.१ जुग : (१) संख्या (सं० युग्म>प्रा० जुग्ग-सं० युग) युगल, दो। 'सुनि प्रभु बचन ___ जोरि जुग पानी।' मा० १.१४६.१ (२) सं०० (सं० युग.) । प्रसिद्ध चार युग -कृत, त्रेता, द्वापर और कलि । 'जुग कलिजुग मलमूल ।' मा० १.६६ ख 'चहुं .. जुग चहुं श्रुति नाम प्रभाऊ ।' मा० १.२२.८ जुगम : संख्या (सं० युग्म) । युगल । 'भजहि पद जुगम ।' विन० १६६.२ जुगल : संख्या (सं० युगल)। जोड़ा, युग्म, दो। मा० १.१५.१ जुग-षट : (युग+ षट् =६४२) । बारह । 'जुग-षट भानु देखे।' कवि० ५.२० . (प्रलय में उदय लेने वाले द्वादश आदित्यों से तात्पर्य है) जुगति : (सं०स्त्री० (सं० युक्ति) । (१) उपाय । 'मम आधीन जुगुति नृप सोई ।' मा० १.१६७.३ (२) योजना । 'जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ ।' मा० १.१६८.४ (३) चातुरी । 'बोलेउ जुगुति समेत ।' मा० १.१६० (४) तर्क, उपपत्ति । 'एकउ जुगुति न मन ठहरानी ।' मा० २.२५३.७ (५) अनुमान । 'तिन्ह करि जुगुति राम पहिचाने।' मा २.११०.४ (६) बहाना । 'मैया इन्हहि बानि पर घर की नाना जुगुति बनावहिं ।' कृ० ४ (७) गुप्त मन्त्रणा आदि । 'इहां राम असि जुगुति बनाई।' मा० ३.२३.८ (८) कला-कौशल, काव्यगत औचित्य, काव्य-प्रबन्ध- निर्वाह, नाटकीय घटनाक्रम की सम्यक् योजना । 'जुगुति बेधि पुनि पोहिअहि राम चरित बर ताग ।' मा० १.११ जुगुल : जुगल । कृ० २१ जुज्झहिं : आ०ए० (सं० युध्यन्ते>प्रा० जुज्झंति>अ० जुज्झहिं)। लड़ते हैं, युद्ध ___कर रहे हैं । मा० ६८८ छं० जुाझऊ : वि०० । युद्ध सम्बन्धी, रणोत्तेजक । 'कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू ।' मा० २.१६२.३ जुझारा : वि.पु० (सं० योद्ध>प्रा० जुज्झार) । योद्धा । 'अपित सुभट सब समर जुझारा ।' मा० १.१५४.३ जुटत : वकृ० पु । समुदाय में एकत्र होते, जुड़ते । 'मर्कट बिकट भट जुटत।' मा० जुठारि, री: पूकृ० । जूठा करके । 'सब 'उपमा कवि रहे जुठारी।' मा० १.२३०.८ ६.४६ छं० Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 तुलसी शब्द-कोस जुड़ाई : सं०स्त्री० । ठण्ढ, शीत, जाड़ा, जड़ी रोग, शीतज्वर । 'जातहिं नींद जुड़ाई ____ होई ।' मा० १.३६.१ जुड़ाउ, ऊ : आ०-आज्ञा-मए । तू शीतल कर । 'नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ।' मा० २.१९८.६ जुड़ाना : भूकृ०पु । शीतल हुआ । 'तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना।' मा० १.१८७.८ जुड़ानी : भूक०स्त्री० । शीतल हुई। 'देखि रामु सब सभा जुड़ानी।' मा० १.३५६.२ जुड़ाने : भूक पुब० । शीतल हुए । 'प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने ।' मा० १.१३२.४ जुड़ायो : भूकृ०पु०कए । शीतल किया । काहु न हरि करि कृपा जुड़ायो।' विन० २४३.३ जुड़ाव : आ०उए । शीतल करता हूं-करूं-करूंगा। 'आज निपाति जुड़ावउँ • छाती।' मा० ६.८३.२ जुड़ावहिं : आ.प्रब० । शीतल करते हैं। 'हृदय लगाइ जुड़ावहिं छाती।' मा० १.२६५.५ जुड़ावहु : आ०मब० । शीतल करो। 'आजु जुड़ावहु छाती।' मा० २.२२.५ जुड़ावा : भूकृ०पु । शीतल किया। 'निज लोचन जल सोंचि जुड़ावा।' मा० ४.३.६ जुड़ाव : जुड़ावइ । आ०प्रए । शीतल करे। 'तोष मरुत तब छमा जुड़ावै ।' मा० ७.११७.१४ जुत : वि० (सं० युक्त, युत>प्रा० जुत्त) । सहित, संयुक्त । मा० १.१६०.८ जुत्थ : जूथ । 'जुबति जुत्थ महँ सीय सुभाइ बिराजइ ।' जा०म० १४१ जुद्ध : सं०० (सं० युद्ध) । संग्राम । मा० ६.४४.१ जुन्हैया : सं०स्त्री० (सं० ज्योत्स्ना>प्रा० जुण्हा=जुण्हिया)। चांदनी। गी० १.६.४ जुबति : जवति । तरुणी । 'जग असि जुबति कहाँ कमनीया।' मा० १.२४७.४ जुबती : जुबति, ती+ब० । युवतियां । 'जुबती भवन झरोखन्हि लागीं।' मा० १.२२०.४ जुबती : सं०स्त्री० (सं० युवती) । स्त्री। 'पुत्रवती जुबती जग सोई ।' मा० २७५.१ जुबतिन, न्ह : जुबति, ती+संब० । तरुणियों (ने), स्त्रियों (ने)। 'जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए।' मा० १.२६३.२ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्दकोश 361 जुबराज, बा : (१) सं०० (सं० युवराज)। 'आपु अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु।' मा० २.१ (२) (सं० यौवराज्य >प्रा० जुम्वरज्ज)। युवराअपद। 'राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अंगद कहँ जबराज ।' मा० ४.११ (३) किष्किन्धा के अनन्तर 'अङ्गद' के लिए प्रायः प्रयुक्त है। जुबराज, जू : जुबराज+कए । (१) युवराज । 'रामु होहिं जुबराजु ।' मा० २.४ (२) यौवराज्य, युवराजपद । 'जेहि जनेसु देइ जुबराजू ।' मा० २.१४.२ जुबा : सं०पु० (सं० युवन्>प्रा० जुवा) । युवक । मा० १५६.३ खुवान : जुबा (सं० युवन् >प्रा० जुवाण) । मा० १.२४०.६ जुबानू : जुबान+कए । 'सरिस स्वान मघवान जुबानू ।' मा० २.३०२.८ जुर : सं०० (सं० ज्वर) जर । (१) सन्ताप । 'जीबन जरत जुर ।' कवि० ७.६८ (२) दाह । 'कालकूट जुर जरत सुरासुर ।' विन० ३.२ (३) क्लेश, दुख आध्यात्मिक, मानस तथा दैविक ताप । 'मन जरत त्रिविध जुर ।' विन० ८१.१ /जुर जुरइ : (सं० जुडति-जुड संघाते>प्रा० जुडइ-संचित होना, एकत्र होना, मिलना) आ०प्रए । जुड़ता-ती है। 'चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी।' मा० १.८.७ जरन : भकृ० अव्यय । जुटने, इकट्ठा होने । 'लागी जुरन बरात ।' मा० १.२६६ जरहिं : आ०प्रब० । एकत्र हों, जुटते हैं । 'सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा।' मा० २.१८६.७ जुरा : भूकृ०० । एकत्र हुआ । 'भोरन्हाइ सब जुरा समाजू ।' मा० २.३१३.१ जुरि : पूक्र० । जुटकर, समवेत होकर । 'बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं।' कवि० १.१७ जुरिहि : आ०भ०प्रए । (१) जुड़ेगा । 'टूट चाप नहिं जुरिहि रिसाने ।' मा० १.२७८.२ (२) मिलेगा। गिरिजा जोगु जुरिहि बरु अनुदिन लोचहिं ।' पा०म०६ जुरी : भूकृ०स्त्री० । जुड़ी, प्रीति बनी । 'करत जतन जा सो जोरिबे को जोगी जन, तासों क्योंहू जुरी, सो अभागो बैठो तोरि हौं ।' विन० २५८.१ जुरे : भूकृ.पुं०ब० । जुटे, समवेत हुए। 'परब जोग जन जुरे समाजा।' मा० १.४१.७ जुर : जुरइ । 'सायर जुरै न नीर ।' दो० ७२ जुरैगो : आ० भवि०पू०प्रए । जुड़ेगा । 'टूट्यो न जुरैगो।' कवि० १.१६ जुवति, ती : जुबति, ती। जुवा : जुबा । कवि० १.१७ जुवारि : सं०स्त्री० । ज्वार, अन्नविशेष । 'बगरे नगर निछावरि मनिगन जनु जुवारि जव धान।' गी० १.२.१६ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 तुलसी शब्द-कोश मुहारत : वक०० (दे० जोहारु) । जोहार करता-ते। 'मिलत जुहारत भूप ।' रा०प्र० ६.२.७ जूठनि : जूठनि । गी० १.३६.५ जू : जिउ, जीव । जी । 'बालक नृपाल जू के।' कवि० १.१२ /जूझ जूझइ : (सं० युध्यते>प्रा० जुज्झइ-लड़ना, संग्राम करना) आ०प्रए । युद्ध करता है । भिड़ता है लड़ता है। 'राढ़उ राउत होत फिरि के जुझे।' विन० १७६.६ जूझ : संपु० (सं० युद्ध>प्रा० जुज्झ)। संग्राम । 'जूझ जुआ जय जानि ।' रा०प्र० २.४.२ जूझा : जूझ । 'करब कवन बिधि रिपु सौं जूझा ।' मा० ६.८.७ जूझिबे : भकृ०० (सं० योद्धध्य>प्रा० जुज्झिअव्वय)। युद्ध करने । 'जूझिबे जोगु न ठाहरु नाठे।' कवि० ६.२८ जूझिबो : भकृ.पुं०कए० (सं० योद्धव्यम् >प्रा० जुझिअव्वं>अ० जुझिव्वउ)। ___लड़ना । 'के जूझिबो कि बूझिबो।' दो० ४५१ जूझ : युद्ध करने से । 'बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें ।' मा० २.१९२.८ जूझे : (१) भूक००ब० । लड़े, युद्ध में काम आये, लड़ मरे । 'जूझे सकल सुभट करि करनी।' मा० १.१७५.६ (२) 'जूझा' का रूपान्तर । युद्ध । 'जूझे तें भल बूझिबो।' दो० ४३१ जूझ : (१) भक० । जूझने, युद्ध करने । 'पुनि रघुपति से जूझै लागा।' मा० ६.७३.१० (२) जूझइ । 'क्यों कबंध ज्यों जूझै ।' विन० २३८.१ जूट : सं०० (सं०) । समूह, गुम्फ । जूड़ा । 'शिरसि संकुलित कल जूट पिंगल ___ जटा।' विन० ११.२ जूटी : भूकृ०स्त्री०ब० । जुट गईं, एकत्र हुई। 'ल कर खप्पर जोगिनि जूटीं ।' ___ कवि० ६.५१ जूठन : जूठनि । विन० १७०.३ जूठनि : सं०स्त्री० (सं० जुष्टान्न>प्रा० जुटण्ण) । अच्छिष्ट अन्न, खाते समय गिरे या फेंके हुए सीथ । 'जूठनि परइ अजिर महें।' मा० ७.७५ जूड़ी : (१) सं०स्त्री० । शीतज्वर, जाड़ा बुखार । 'स्वरस लेहिं जनु जूड़ी आई ।' मा० ७.४०.२ (२) ठंढक (३) ठंढी । 'राम नाम को प्रभाउ जानि जूड़ी आगि है।' विन० ७०.२ जूड़े : वि०पु०ब० । ठंढे । 'जूड़े होत थोरे, थोरे ही गरम ।' विन० २४६.१ जूथ, था : सं०० (सं० यूथ) । (१) समूह । 'जूथ जूथ मिलि सुमुखि सुनयनीं ।' मा० १.२८६.२ (२) सेना की टुकड़ी। 'सुनहु सकल रजनीचर जूथा।' मा० १.१८१.५ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोन 363 मूवप : वि.पु. (सं० यूधप) । सेना-विभाग का नायक । 'आए जूथप जूथ ।' मा० नून : वि०० (सं० जीर्ण=जूर्ण>प्रा० जुण्ण) । पुराना, सड़ियल । 'का छति लाहु जून धनु तोरें।' मा० १.२७२.२ जूरी : सं०स्त्री० (सं० जूठिका>प्रा० जूडिआ>अ० जूडी)। जट्टी, पूली, आंटी, पुञ्ज । 'कंद मूल फल अंकुर-जूरी।' मा० २.२५०.२ जूह, हा : जूथ (सं० यूथ>प्रा० जूह)। (१) समूह । 'छाड़ेन्हि गिरि तरु जह।' मा० ६.६६ (२) सेना विभाग । 'पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा ।' मा० ४.१६.४ जे : (१) ये। जो लोग, जो सब । 'जे निज भगत नाथ तव अहहीं।' मा० १.१५०.८ (२) जब, ज्यों ही । 'लखन सकोप बचन जे बोले । डगमगनि महि - दिग्गज डोले ।' मा० १.२५४.१ जेईअ, य : आ०कवा०प्रए । भोजन किया जाय। 'बंधु बोलि जइय जो भाव ।' गी० २.५२.३ नेई : भूक०स्त्री०ब० । कृत भोजन हूई (भोजन किया)। 'जपि जेई पिय संग ___भवानी ।' मा० १.१६.६ जेई : (जे+इ) जो सब भी ! 'बू डहिं, आनहि बोरहिं जेई ।' मा० ६.३.८ नेऊ : (जे+उ) (सं० येऽपि>प्रा० जेवि) । जो लोग भी। 'जेठ कहावत हितू हमारे ।' मा० १.२५६.१ जेउ : जेउ । 'जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ ।' मा० १.२२.३ मेठ : वि०पू० (सं० ज्येष्ठ>प्रा० जेट्ठ) । जेठा, सब में बड़ा । मा० १.१५३.५ ।। जेठि : वि०स्त्री० (सं० ज्येष्ठा>प्रा० जेट्ठी>अ० जैट्ठि) (१) बुद्धि, वय आदि में श्रेष्ठ स्त्री । 'कोसल्या की जेठि दीन्ह अनुसासन हो ।' रा०न०६ (२) अग्रजा। .... 'जेठि भरत कहँ ब्याहि ।' जा०म० १५३ जेठे : 'जेट' का रूपान्तर । बड़े । जेठे सुतहि राज नप दीन्हा ।' मा० १.१५३.८ नेतने : जेते । जितने । 'रबि तप जेतनेहि काज।' मा० ७.२३ नेता : (१) वि.पु० (सं० यावत् >प्रा. जेत्तिअ)। जितना। 'किमि कहि जात ___ मोदु मन जेता।' मा० १.३३०.३ (२) वि०पू० (सं० जेतृ-जेता)। विजेता। __'गान गुन गर्व गंधर्व जेता।' विन० २६.३ जेते : 'जेता'+ब० । जितने । 'रघुपति चरन उपासक जेते ।' मा० १.१८.३ जेन : (सं० येन>प्रा० जेण) जिस.......से । 'जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ ___कल्यान ।' मा० ७.१०३ (येन केन बिधिना=जिस किसी प्रकार से) जेन्ह : जिन्ह । जिन । 'मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं।' मा० १.१४८.१ . Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 तुलसी शब्द-कोश जेरो : भूकृ००ए०। (फा० जेर =नीच, निर्बल) । दबोच लिया, निर्बल कर दिया । 'नाम ओट अब लगि बच्यो, मल-जुग जग जेरो।' विन० १४६.४ जे जवइ (सं० जेमति>प्रा. जेमइ>अ० जेवइ-भोजन करना) आ०प्रए । __ भोजन करता है, खाता है । 'पुनि तिन्ह के घर जेवइ जोऊ ।' मा० १.१६८.७ जेवंत : वकृ०० । भोजन करता-करते । 'जेवत देहि मधुर धुनि गारी।' मा० जेवहि : आ.प्रब० (सं० जेमन्ति>प्रा० मंति>अ० जेहिं) । भोजन करते हैं । 'बिबुध जन जेवहिं ।' पा०म० १३८ जेवन : भक० अव्यय । भोजन करने । 'पंच कवल करि जेवन लागे ।' मा० १.३२६.१ जेवनार : सं०स्त्री० (सं० जेमनकार>प्रा० जेमणार>अ० जेवणार)। भोजन व्यवस्था, भोजन की पंगन । 'दिनहिं करबि जेवनार ।' मा० १.१६८ जेवनारा : जेवनार । 'भांति अनेक भई जेवनारा।' मा० १.६६.४ जेवरी : सं०स्त्री० । रस्सी । 'खायो जेवरी को साँप रे ।' विन० ७३.२ जेवाइ : पूक० (पु. जमयित्वा>प्रा. जेमविअ>अ० जेवावि) । भोजन करा कर। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना।' मा० २.१२६.७ जेवाइअ, य : आकवा०प्रए । खिलाइए, भोजन कराइए। 'पेट भरि तुलसिहि ___ जेवाइय भगति सुधा सुनाजु ।' विन० २१६.५ जेवाए : भूकृ००ब० । भोजन कराये । 'छरस असन अति हेतु जेवाए।' मा० जेहिं : सर्वनाम (१) जिसने । 'आदि सक्ति जेहिं जग उपजाया ।' मा० १.१५२.४ ' (२) जिस में । जेहिं समाज बैठे मुनि जाई।' मा० १.१३४.१ (३) जिससे । 'जेहिं न होइ पाछे पछिताऊ ।' मा० २.४.५ जेहि : सर्वनाम । (१) जिस, जिसे । 'जेहि जस रघुपति करहिं जब ।' मा० १.१२४ (२) जिसका-की-के । 'सेष जेहि आनन घने।' मा० ६.७१ छं. जेहीं : जेहिं । मा० २.४६.१ जेही : जेहि । मा० १.४.१० जे: जय । जै जै जानकीस ।' कवि० ५.२७ जए : जाइअ । चलिए, जाया जाय । 'हिंडोलना झूलम जैए।' गी० ७.१८.१ अंबे : भूकृ०० । जाने (को) । 'जबे को अनेक टेक ।' कवि० ७८२ जैसा : जस (अ० जइसअ) । मा० ३.१०.१५ सिए, ये : जैसी भी । 'तैसो मन भयो जाकी जैसिये सगाई है।' गी० १.७१.४ जैसी : वि०स्त्री० (सं० यादृशी>१० जइसी) । मा० १.२८६.६ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 365 मैसें : क्रि०वि० । जिस प्रकार से, यथा। 'सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें ।' मा० १.२४२.२ जैसे : (१) वि०पू०ब० । जिस प्रकार के । 'जैसे होत आए हनुमान के निवाजे हैं।' हनु० १५ (२) जैसें । 'जैसे कोउ एक दीन दुखित अति ।' विन० १२३.३ जैसेहिं : जैप ही, जिस भी अवस्था में । 'जो जैसेहिं तैसेहिं उठि धावहिं ।' मा० ७.३.७ जैसो : वि.पु.कए० (अ० जइसउ)। जैसा, जिस प्रकार का । जैसो तसो रावरो।' दो०८४ जहउँ : आ०भ० उए । जाऊँगा-गी। 'कब जहउँ दुख सागर पारा।' मा० १.५६.१ हसि : आ०म०मए । तू जायगा (मिट जायगा)। 'जैहसि ते समेत परिवारा।' मा० १.१७४.२ बहहि : आ.प्रब० भ० । जायँगे । 'न त मारे जहहिं सब राजा ।' मा० १.२७१.५ जैहैं : जैहहिं । (१) वे जायेंगे । 'अनुज सखा सिसु संग ले खेलन जैहैं।' गी० १.२२.१३ (२) उब० । हम जायँगे । मा० ४.२६.६ है : आ०भ०ए० । (१) जायगा-गी। 'कहिबे कछुकछू कहि जैहै।' कृ० ४७ (२) मिटेगा-गी। राम नाम जपे जैहै जिय की जरनि ।' विन० २४७.१ (३) बिगड़ेगा । 'मेरो कहा है।' कवि० ६.११ जहौं : जैहउँ । उर लाइ वारने जैहों ।' गी० १.८.२ जोंक : संस्त्री० (सं० जलौका) । जल-जन्तु विशेष जो चिपक कर रक्त चसता है। 'जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं।' मा० १.५.५ जो : (१) सर्वनाम-कए । 'गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ।' मा० १.१.८ (२) जौं । यदि । 'स्याम बियोगी ब्रज के लोगनि जोग जोग जो जानी। कृ० ३५ (३) यतः, जिससे । 'ग्लानि जिय जोहो जो न लागै मुहें कारिखी।' कवि० १.१५ जोइ : (१) (जो+इ) । जो भी, जो कुछ । 'मागहु बर जोइ भाव मन ।' मा० १.१४८ (२) पूकृ० । देखकर । 'सम भयो ईस आयसु.. जोइ।' गी० ५.५.३ (३) आ०-आज्ञा-मए । तू देख । 'तिमि प्रपंच जिय जोइ ।' मा० २.६२ जोडऐ : आ०कवा०प्रए । देखिए । 'जानें जानन जोइऐ।' दो० ६८ जोइहि : आ०भ०प्रए । देखागा-गी। 'जननी जिअत वदन बिधु जोइहि ।' मा० २.६८.८ जोई : (१) भूकृ०स्त्री० । देखी । 'भरी क्रोध जल जाइ न जोई।' मा० २.३४.२ (२) जोइ । जो । 'अगुन अरूप अलख अज जोई।' मा० १.११६.२ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 तुलसी शब्द-कोन बोउ : (१) (जो+उ)। जो भी। (२) आ०-आज्ञा-मए । तू देख । 'सब बरननि पर जोउ ।' मा० १.२० जोऊ : जोऊ । (१) जो भी, जो कोई (जो कुछ) । "पुनि तिन्ह के गहँ जे वई जोऊ ।' मा० १.१६८.७ (२) तू देख । 'किसोर लोचन भरि जोऊ ।' गी० २.१६.२ जोए : (१) भूकृ००ब० । देखे । ' जाहिं न जोए।' मा० २.६१.३ (२) देखकर। 'अब ए गढ़त महरि मुख जोए।' कृ० ११ । जोख : सं०स्त्री० । तौल । 'तुलसी प्रेम पयोधि की ताते नाप न जोख ।' दो० २८१ जोखें : तौल में, तोलने में । 'लेखें जोखें चोखें चित तुलसी स्वारथ हित ।' कवि० ७.२४ जोखे : भूकृ०पु । तौले हुए, तौल लिये । 'बल इन को पिनाक नोके नापे जोखे ___ हैं।' गी० १.६५.२ जोग : सं०० (सं० योग)। (१) सम्बन्ध, सम्पर्क । 'देह-जीव-जोग ।' विन० २७७.२ (२) प्राप्ति । 'मनहुं मीन गन नव जल जोगा। मा० २.२६४.५ " (३) अवसर, प्रसंग। 'परब जोम जनु जेरे समाजा।' मा० १.४१.७ (४) जीवनचर्या हेतु अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति (दे० जोग छम)। जायें जोग बिनु छम ।' दो० १०४ (५) ज्योतिष में तिथि और नक्षत्र के सम्बन्ध से बनने वाला योग । 'जोग लगन गृह बार तिथि ।' मा० १.१६० (६) ज्योतिष में ग्रहयोग । मा० १.८ क (७) मिलन, संयोग (वियोग का विलोम)। 'कबहूं जोग बियोग न जा के।' मा० १.४६.८ (८) चित्त की एकाग्रता=समाधि । 'धर्म तें बिरति जोग ते ग्याना।' मा० ३.१६.१ (8) अष्टाङ्गयोग या राजयोग-जिसके यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-ये आठ अङ्ग हैं । मा० १.३७.१० (१०) आयुर्वेद में नुस्खा या औषधियों का मिश्रण । मा० १.७ क (११) वि० (सं० योग्य>प्रा. जोग्ग)। उपयुक्त, उचित । 'हँसिबे जोग हंसें नहिं खोरी।' मा० १.६.४ (१२) उपयुक्त प्राप्य । 'नेगी नेग जोग सब लेहीं।' मा० १.३५३.६ (१३) योगसाधन+ चिकित्सा+उपयुक्त+प्राप्ति । 'जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ । 'फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ।' मा० १.१६८.४ (१४) पात्र, योग्य अधिकारी। 'पटतर जोग बनावै लागा।' मा० २.१२०.५ जोगछेम : (युग्मक-सं० योगक्षेम) योग= अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति+क्षेम प्राप्त वस्तु की रक्षा । जीवनवृत्ति, जीविका का संचार जिसमें प्रयत्न से वस्तु प्राप्त करके प्रयत्न से ही रक्षित की जाती है । गी० १.६६.६ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 367 जोगपट : सं०० (सं० योगपट्ट) । वस्त्र का पट्टा जिसे योगी लोग जनेऊ के समान गले में डाले रहते हैं (२) (सं० योगपट) योगियों के भगवा वस्त्र । 'तुलसी ये नागरिन्ह जोगपट ।' कृ० ४१ जोगबिद : वि० (सं० योगविद्) । योगशास्त्र या समाधि सुख का ज्ञाता। विन० २३६.२ जोगव जोगवइ : (रक्षा या सार संभाल करना) आ.प्रए० । वचाता है, प्रयास पूर्वक रक्षा करता है । 'जीवन-तरु जिमि जोगवइ राऊ।' मा० २.२०१.१ जोगवत : वक०० । रक्षा करता-ते; रुचि का अनुसरण करता-ते । 'मन जोगवत रह नपु रनिवासू ।' मा० १.३५२.७ जोगवति : वक०स्त्री० । रक्षा करती। 'मन जोगवति रहति रमासी।' विन० २२.६ जोगवहिं : आप्रब० । सार-संभाल करते हैं; सप्रयास रक्षित करते हैं। 'जोगवहिं __ जिन्हहि प्रान की नाई।' मा० २.६१.५ जोगा : जोग । मा० २.१७८.५ जोगानल : योग-शक्ति से उत्पन्न की हुई आग । मा० १.६८ छं० जोगि : जोगी। मा० ६.१०४ जोगिनि :संस्त्री० (सं० योगिनी)। (१) दुर्गा की सहचरियां, देवी विशेष । 'संग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि ।' मा० १.६५ छं० (२) श्मशानवासिनी प्रेतसाधिका । 'जोगिनि भरि भरि खप्पर संचहिं ।' मा० ६.८८.७ (३) योग साधिका। जोगिनी : 'जोगिनि'+ब० । योगनियां । कवि० ६.५० जोगिन्ह : जोगी+संब० । योगियों (को) 'जोगिन्ह परम तत्त्वमय भासा ।' मा० १.२४२.४ जोगी : योगी ने । 'पावा परम तत्त्व जनु जोगी।' मा० १.३५०.६ जोगी : वि०+सं.पु० (सं० योगिन्) । (१) योगसाधक (२) यौगिक समाधि को सिद्ध किये हुए यति । ‘भए अकंटक साधक जोगी।' मा० १.८७.८ (३) निर्गुणवादी हठयोगी । कृ० ४७ (४) श्मशानसाधक देव विशेष । मा० १.६३ छं० (५) योग्य । 'बिनु बानी बकता बड़ जोगी।' मा० १.११८.६ जोगींद्र : (सं० योगीन्द्र) श्रेष्ठ योगी, सिद्ध योगी । मा० १.३२७ छं० ४ जोगीस : (सं० योगीश) जोगींद्र । ‘भए काम बस जोगीस तापस ।' मा० १.८५ छं० जोगीसनि : जोगीस+संब० । योगीश्वरों । विन० २४६.३ । जोगीसु : जोगीस+कए । कवि० ७.१५१ जोगु, गू : जोग+कए० । (१) । योग्य । 'राम सरिस सुत कानन जोगू ।' मा० २.५०.७ (२) योग । 'करतल भोगु जोगु जग जेही ।' मा० २.१६६.६ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 तुलसी शब्द-कोश जोग्य : वि० (सं० योग्य) । उपयुक्त, उचित । विन० ११८.५ जोजन : सं०पू० (सं० योजन) । चार कोस की लम्बाई या मार्ग । मा० १.१२६ जोटा : सं०पू० । युगल, यग्म, जोड़ा। मा० १.२२१.३ जोति : सं०स्त्री० (सं० ज्योतिष्) । द्युति, आभा, प्रकाश । मा० १.२३८ नोतिरूपलिग : जोतिलिंग । कवि० ७.१८२ जोतिलिंग : सं०० (सं० ज्योतिलिङ्ग) । प्रकाश पुञ्जरूप शिवलिङ्ग विशेष जो सृष्टि के आदिकाल में उदित हुआ । ब्रह्म और विष्णु दोनों क्रमश: ऊपर और नीचे की ओर उसका अन्त खोजने चले परन्तु पार न पा सके । विष्णु ने पराजय मान ली, परन्तु ब्रह्म ने छल किया-अन्त तक न पहुंच कर भी बीच में एक बिल्वपत्र पाकर बता दिया कि मस्तक पर से उसे ले आये हैं, फलतः उनको शिव ने यज्ञों में अपूज्य होने का शाप दिया। 'जोतिलिंग कथा सुनि ताको अंत पाए बिनु, आए बिधि हरि हारि, सोई हाल भई है।' गी० १.८६.२ जोतिषी : सं०+वि० (वि० ज्योतिषिन्) । दैवज्ञ, ज्योतिर्विद् । मा० १.३१२.८ जोती : जोति । 'अरुन चरन पंकज नख जोती।' मा० १.१६६.२ जोते : (१) भू०००ब० । जोत दिये, नहे । 'ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते।' मा० १.२६६.५ (२) खेत में हल चलाये । 'जोते बिनु, बए बिनु निफन निराए बिनु ।' गी० २.३२.२ जोतो : भूक००कए० । जोता हुआ, हल चलाकर बोने योग्य किया हुआ । 'तेरे राज राय दसरथ के, लयो बयो विनु जोतो।' विन० १६१.४ जोधा : वि०+सं०० (सं० योद्ध'>प्रा. जोडा)। लड़ाकू, सुभट। मा० ३.२६.२ जोनि, नी : योनि । (१) जीवजाति । 'जेहिं जेहिं जोनि करम बस भ्रमहीं।' मा० २.२४.५ (२) उत्पत्ति स्थान, उद्गम । 'जगजोनी ।' मा० २.२६७.३ (३) मूल कारण । 'ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी।' मा० ७.३२.८ जोबन : सं०० (सं० यौवन>प्रा. जोव्वण) । युवावस्था, जवानी । १५ वर्ष के अनन्तर का वय। 'जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा।' मा० ७.७१.२ (२) स्त्रियों के वर्णन में वक्षस्थल के उभार का भी अर्थ देता है-दे० जोबनु । जोबनु : जोबन+कए । जवानी+उरोज । 'उनरत जोबन देखि नृपति मन भावइ हो।' रान० ५ जोर : (१) सं०० (फा० जोर)। बल, दृढ़ता। 'सिला द्रवति जल जोर।' दो० १७३ (२) क्रि०वि० । बलात् । 'जो जरति जोर जहानहि रे।' कवि० ७.२८ (३) वि. बलिष्ठ, दृढ़ । 'अब जोर जारा जरि गातु गयो।' कवि० ७.८८ (४) जोड़, बराबरी । 'न देखत सुहृद रावरे जोर को हौं।' विन० २२६.२ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृलसो शब्द-कोश 369 जोरत : वकृ.पु । जोड़ता-ते, सन्धान करता-ते ।।रघुपति चाप सर जोरत भए।' ___ मा० ६.१०२ छं० जोरहिं : आ०प्रब ० । जीड़ते-ती हैं । ‘सीय सहित सब सुता सौपि कर जोरहिं ।' जा०म० १६७ जोरा : (१) जोर । बल, प्रबलता । उत साहिब सेवा बस जोरा।' मा० २.२४०.४ (२) सं०० (सं० जोडक>प्रा० जोडअ) । युगल, जोड़ा, वस्त्र युगल आदि। 'दरजिनि गोरे गात लिहे कर जोरा हो।' रा०न० ६ जोरि : पूकृ० . (१) जोड़कर, संपुटित करके । 'पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति ।' मा० १.४ (२) एकत्र करके । 'सठ शाखामृग जोरि सहाई ।' मा० ६.२८.१ (३) जोरी जोड़ी। दे० जोरिहि। जोरिअ : आ०कवा०प्रए । जोड़ा जाय, जोड़ लीजिए। 'जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई ।' मा० ५.२७८.३ जोरिबे : भक०पू० । जोड़ने, सम्बन्ध बनाने । 'करत जतन जा सो जोगी जन जोरिबे की।' विन० २५८.१ मोरिहि : (जोरी+हि) । जोड़ी के, बराबरी वाले के। 'भिरे सकल जोरिहि सन जोरी।' मा० ६.५३.४ जोरी : जोरी+ब० । जोड़ियां, जोड़े, युगल । 'चिरु जिअहं जोरी चारु चार्यो।' मा० १.३२७ छं० ४ जोरी : (१) जोरि । जोड़कर । 'करि प्रनामु पूजा करि जोरी।' मा० १.३३०.५ (२) भू००स्त्री० । जोड़ी, बाँधी । 'बिधिवत गांठि जोरी।' मा० १.३२४ छं० ४ (३) सं०स्त्री० । जोड़ी, युगल । 'स्याम गौर सुदर दोउ जोरी ।' मा० १.१६८.५ (४) दम्पती । 'जाइ न बरनि मनोहर जोरी।' मा० १.३२५.२ (५) बराबरी वाला । 'भिरे सकल जोरहि सन जोरी।' मा० ६.५३.४ जोरु : जोर+कए । पौरुष, तेजी । 'जानि के जोरु करौ।' कवि० ७.१०२ जोरें: क्रि०वि० ! जोड़े हुए। 'सतरूपहि बिलोकि कर जोरें।' मा० १.१५०.३ जोरे : (१) भूकृ.पु । जुटाए गये, जोते गये । 'बन मृग मनहुं आनि रथ जोरे।' मा० २.१४३.५ (२) सम्पुटित किये । 'भरत कर जोरे ।' मा० २.२०४.५ (३) सम्बद्ध किये। 'जोरे नए नाते नेह फोकट फीके ।' विन० १७६.२ (४) वि००ब० । जोड़े, युगल । 'राजहंस के से जोरे ।' गी० २.८६.४ (५) जोरें। 'मांगत तुलसिदास कर जोरे । विन० १.४ । जोरें : जोरहिं । 'देबी देव दानन दयावने व जोरै हाथ ।' हनु० १२ जोरो : भूकृ००कए । जोड़ा हुआ, जुटाया । कवि० ७.१५३ जोलहा : सं०० (फा० जोलाह, जोलाहः)। कपड़े बुनने वाली एक जाति । कवि० ७.१०६ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *390 तुलसी शब्द-कोश जोव जोवइ : (सं० द्योतते>प्रा. जोअइ-देखना) आ०प्रए० । देखता है। जोनति : वक०स्त्री० । देखती । गी० ५.१७.३ जोवन : भक० अव्यय । देखने । 'गिरिराज मगु जोवन लगे।' पा०म०छं० ११ जोवहिं : आ.प्रब० । देखते-ती हैं । 'नाचहि नगन, पिसाच पिसाचिनि जोवहिं ।' पा०म० ५० जोवहु, हू : आ०मब० । देखो । देखते हो। 'मधुर मुरति कस न सादर जोवहू ।' जा०म०छं०८ जोवा : भूक०० । देखा । कहत न बनइ जान जेहिं जोवा ।' मा० १.३५६.४ जोषित जोषिता : (१) स्त्री, पुतली । 'दारुजोषित'= कठपुतली ।' मा० ४.११.७ (२) सं० स्त्री० (सं० योषित्) । स्त्री। मा० १.११०.१ जोसि : (सं० योऽसि यः+ असि)। तू जो है । 'जोसि सोसि तव चरन नमामी।' मा० १.१६१.५ जोह जोहइ : (/जोव) आ०प्रए । देखता है । 'रूप न जाइ बखानि, जान जोइ __ जोहइ ।' पा०म० १२ जोहत : वक०० । देखता, देखते । 'तुलसी प्रभु जोहत पोहत चित ।' गी० १.५१.३ जोहन : भकृ० अव्यय । देखने । 'चले. 'नारि नर जोहन ।' पा०म० ११३ जोहा : भूक००। (१) देखा-जाना हुआ । 'सब हमार प्रभु पग पग जोहा।' मा० २.१३६.६ (२) देखा । 'सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा।' मा० २.२८६.६ जोहारत : वकृ०० । 'अभिवादन करता-ते । 'दीप दीप के नप.. जोहारत ।' गी० ६.२३.३ जोहारन : भकृ० अव्यय । अभिवादन करने । 'पुरजन द्वार जोहारन आए ।' मा० १.३५८.६ जोहारहिं : आ०प्रब० । अभिवादन करते हैं । 'गहि जोहारहिं जाहिं ।' मा० २.१५८ जोहरि, री : पूकृ० । अभिवादन करके । 'चले निषाद जोहारि जोहारी।' मा० २.१६१.३ जोहारी : भूक०स्त्री०ब० । अभिवादिन की। 'सादा सकल जोहारी रानी।' मा० २.१६६.४ जोहारु : सं०० कए । अभिवादन । 'पुरजन करि जोहारु घर आए।' मा० २.८६.६ जोहारे : भू०००ब० । अभिवादिन किये । 'पुरबासिन्ह तब राय जोहारे ।' मा० १.३४८.५ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्दकोश 371 बोहि : पू० । देखकर, देखदाख कर । 'जोहि जातु धान सेना चल्यो लेत थाह सी।' कवि० ६.४३ जोही : (१) जोहि । देखकर । 'बार बार मदु मरति जोही । लागिहि तात बयारि न मोही।' मा० २ ६७.६ (२) भूक०स्त्री० । देखी । 'मैं प्रभु कृपा रीति जिये जोही ।' मा० २.२६०.८ जोहे : देखने से । 'लंक जरी जोहें जिय सोच सो बिभीषन को।' कवि० ७.२२ । जोहे : (१) भूकृ००ब० । देखे । 'हरि हित सहित रामु जब जोहे।' मा० १.३१७.३ (२) जोहें । देखने से, पर । 'जोहे जिय आवति सनेह की सरक सी।' गी० १.४४.२ जोहेउ : भूकृ.पु०कए । 'देखा रामहि भाइन्ह सहित जबहिं मुनि जोहेउ ।' जा०म० १८ जोहैं : आ०प्रव० । देख रहे हैं । 'जोरि जोरि हाथ जोधा जोहैं ।' हन० ५ जोहै : (१) जोहइ । देखता है। 'भौंह जासु जन जोहै।' विन० २३०.१ (२) आ० - आज्ञा-मए । तू देख । 'जागु जागु जीव जड़ जोहै जग जामिनी।' विन० ७३.१ जोहो : आ०मब० । देखो। 'जानि जिय जोहो जो न लागे मुहँ कारिखी।' कवि० १.१५ जौं : अव्यय । यदि, जो । 'जौं परिहास कीन्हि कछु होई ।' मा० २.५०.६ जो : (१) जौं । यदि । 'तुलसी उचित न होइ रोइबो, प्रान गए सँग जो न ।' गी० २.८३.३ (२) जब । 'जो लगि करौं निसाचर नासा ।' मा० ३.२४.२ जौन : सर्वनाम । जो। 'बारि धारा उलदै जलदु जोन सावनो।' कवि० ५.८ जोबन : जोबन । जवानी । 'जननी जोबन बिटप कुठारू ।' मा० २.१६०.८ जौबनु : जोबन+कए० । तनय जजातिहि जोबनु दयऊ ।' मा० २.१७४.८ जौलगि : (दे० जो तथा लगि) । जब तक । मा० ३.२४.२ जोलौं : अव्यय । जब तक । कृ० ११ ज्ञान : (दे० ग्यान)। इसका प्रयोग भक्तिविरोधी शास्त्रज्ञान, वाक्यज्ञान तथा योग सम्बन्ध प्रत्यय के अर्थ में हुआ है । 'ज्ञान गाहक नाहिने ब्रज ।' कृ० ५३ ज्याइबे : भक०० (सं० जीबयितव्य>प्रा० जिआविअन्वय)। जिलाने, जीवित ___ करने । 'ज्याइबे को सुधापान भो।' हनु० ११ ज्याइये : आ०कवा०प्रए । (सं० जीव्यते>प्रा० जिअवीअइ) । जिलाइए । 'ज्याइये तो कृपा करि निरुज सरीर हौं।' कवि० ७.१६६ । ज्याए, ये : भूक००ब । जिलाये (पाले-पोसे) । 'सुक सरिका जानकी ज्याए।' मा० १.३३८.१ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 तुलसी शब्द-कोश ज्यायो : जिआयउ । जिलाया। 'को को न ज्यायो जगत में ।' दो० २६१ ज्यों : अव्यय (अ० जेव) जिमि । यथा, जिस प्रकार । मा० १.१० छं० ज्योति : जोति । गी० ७.५.६ ज्योतिमय : वि.पु. (सं० ज्योतिर्मय)। दीप्तिसम्पन्न । गी० ७.१६.८ ज्योतिषी : सं०० (सं.)। दैवज्ञ, गणितज्ञ, ज्योतिविद् ==नक्षत्र विद्यावान् । ___दो० २४६ . ज्योतिष : ज्योतिष+कए । ज्योतिष विद्या, नक्षत्रशास्त्र । 'ज्योतिषु झूठ हमारें भाएँ।' मा० २.११२.५ ज्वर : सं०० (सं.)। (१) सन्ताप । 'नृपति लाज ज्वर जारे ।' मा० १.६८.४ (२) रोगविशेष । 'जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा ।' मा० ७.७१.२ ज्वाल : ज्वाला। ज्वाला : सं०स्त्री० (सं०) । अग्निशिखा, आग की लपट । 'उठि उदधि उर अंतर ज्वाला । मा० ५.५८.६ ज्व : जोइ । जो भी । कवि० ७.१६३ झंगा : सं० । बच्चों का परिधान विशेष; झबला। 'नव नील कलेवर पीत __अँगा।' कवि० १.२ झंगुलिया : सं०स्त्री० । छोटा सँगा । गी० १.३२.३ झंगुली : अँगुलिया । कृ० १३ मँगली : अँगूली+ब० । अंगुलियां, झबले । गी० १.३१.४ मँगली : अँगुली । गी० १.४४.१ झंड़ ले : वि०पु० ब० (सं० झुण्ट>प्रा० झटुल्लय) । घुघराले । 'झंड़ ले केस ।' ___ गी० १.३३.३ झई : पू० (सं० ध्यामित्वा>प्रा० झमिअ>अ० झवि) । झुलस कर, कुंभला कर; विवर्ण होकर । 'मुरुछित अवनि परी झई आई ।' मा० २.१६४.१ झकझोरा : सं० । वायुवेग, धचका, तीव्र धक्का । 'मंद बिलंद अभेरा दलकन पाइअ दुख झकझोरा रे ।' विन० १८६.३ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 373 झकोर : सं०स्त्री० । झोंका, वेग । 'झरि झकोर खरि खीझ ।' दो० २८४ झगर : सं०० (सं० झकट>प्रा० झगड) । विवाद, कलह । रा०प्र० ६.६.२ झगरत : झगर+वक० । विवाद करते । 'खग उलूक झगरत भए।' रा०प्र० झगेरा : झगर । 'गनतिक ए लंगरि झगरा ऊ ।' कृ० १२ झगरें : झगर+प्रव० । कलह या विवाद करते-ती हैं । 'देखि चले झगरै सुरनारि ।' . कवि० ७.१४५ झगरो : झगरा+कए० । विवाद, वैमत्य । 'बहुमति मुनि, बहु पंथ, पुराननि जहाँ तहाँ झगरो सो।' विन० १७३.५ झगलिया : झगुलिया। 'पीत झगुलिया तन पहिराए ।' मा० १.१६६.११ झगुली : अँगुली । पीत झीनि झगुली तन सोही ।' मा० ७.७७.७ झटिति : क्रि०वि० अव्यय (सं०) । झटपट, तत्काल, शीघ्र । 'कटत झटिति पुनि नूतन भए।' मा० ६.६२.१२ झनकार : सं० स्त्री० (सं० झणत्कार>प्रा० झणकार) झनझनाहट, स्वनिविशेष । _ 'कर कंकन झनकार ।' गी० १.२.१३ झपट : सं०स्त्री० (सं० झप्पा+अट गतो, अट्ट अतिक्रमहिंसयो:>प्रा० झंप्पट्टा> अ० झंपट्ट)। झपट्टा, झप्पोमार आक्रमण, दबोचने वाला आक्रमण । 'बाज झपट जनु लवा लुकाने ।' मा० १.२६८.३ झपट झपटइ : (सं० झप्प+अट्ट अतिक्रम हिंसयो:>प्रा० झंपट्टइ-झप्पा मारना, दबोचने हेतु टूट पड़ना) आ०प्रए० । झपटता है, दबोचने हेतु उछलकर टूट पड़ता है । 'झपट भट कोटि मही पटक ।' कवि० ६.३६ झपटहिं : आ०प्रब० । झपट कर टूट पड़ते हैं। 'पुनि उठि झपटहिं सुर आराती।' मा० ६.३४.१३ झपटि : पूकृ० । आक्रान्त कर, झपट्टा मारकर । 'इत उत झपटि दपटि कपि जोधा। ___मर्दै लाग ।' मा० ६.८२.५ झपटे : भूक००ब० । टूट पड़े । 'लखि के गज केहरि ज्यों झपटे ।' कवि० ६.३२ झपटेउ : भूकृ००कए० । झपट कर आक्रमण किया । 'जनु सचान बन झपटेउ लावा ।' मा० २.२६.५ झपट : झपटहिं । 'झपट भट जे सुरदावन के ।' कवि० ६.३४ झपटै : झपटइ। झपेटें : झपटने से, पर । 'लवा ज्यों लुकात तुलसी झपटें बाज के।' कवि० ६.६ /झर झरइ : (सं० क्षरति>प्रा. झरइ-ऊपर से लम्बी धार में बहना) आ०प्रए । झरता है । 'त्रिविध समीर नीर झर झरननि ।' गी० २.४६.५ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 तुलसी शब्द-कोश करकत : झलकत । 'झरकत मरकत भौंर ।' गी० ७.१९.३ झरके : आप्रब० (सं० झट संधाते+अक गती झट+अकन्ति>प्रा० झटक्कंति >अ० झडक्कहिं) । चोट करते चलते हैं, आघात देने चलते हैं । 'मुड सों मुड परे झरके।' कवि० ६.३५ झरत : वकृ०० (सं० क्षरत् >प्रा० झरंत) । धारासंपात करते, झड़ते। 'बोलत बचन झरत जनु फूला।' मा० १.२८०.४ झरननि : झरना+संब० । झरनों (सें, से)। 'त्रिबिध समीर नीर झर झरननि ।' गी० २.४६.५ झरना : सं०० (सं० झरण) । निर्झर), प्रपात । 'झरना झरहिं मत्त मग गाजहिं ।' मा० २.३३५.५ झरहिं : आ०प्रब० (सं० क्षरन्ति>प्रा० झरंति>अ० झरहिं) । धारा या समूह में गिरते हैं । 'झरना सरहिं सुधा सम बारी ।' मा० २.२४६.६ झरावति : वकृ०स्त्री० । झाड़-फूक करती। 'ओझा से दृष्टिदोष आदि दूर कराती। गी० १.१२.४ झरि : सं०स्त्री० (सं० झटी>प्रा० झडी) । निरन्तर वृष्टि । 'देवन्ह सुमन वृष्टि झरि लाई ।' मा० ७.११.१ करें : झरहिं । 'झरै बुदिया सी।' कवि० ५.१४ झरोखन्ह, न्हि : झरोखा+संब० । गवाक्षों (में) । 'जबती भवन झरोखन्हि लागीं।' __ मा० १.२२०.४; जा०म० ७२ झरोखा : सं० । गवाक्ष, मोखा, छोटा वातायन । 'इंद्री द्वारा झरोखा नाना।' मा० ७.११८.११ झरोखें : गवाक्ष में-से । 'झांकती झरोखें लागीं।' कवि० १.१३ करोखे : झरोखा+ब० । 'समुझि हिताहित खोलि झरोखे ।' गी० ५.१२.४ झलक : (१) सं०स्त्री० (सं० झला, झल्लिका) । द्युति, चमक, आभा। 'तिलक झलक भालि भाल ।' विन० ४४.५ (२) झलकइ । 'मुकुता झालरि झलक जनु राम सुजस सिपु हाथ ।' दो० १६० /झलक झलकइ : आ०प्रए । चमचमाता है, दीप्ति फेंकता है । 'नव नील कलेवर पीत अँगा झलकै ।' कवि० १.२ झलकत : वक़ पु । चमकता-ते। 'झलका झलकत पायन्हि कैसें ।' मा० २.२०४.१ झलकति : वक०स्त्री० । चमकती। 'झलकति बाल बिभूषन झाई ।' गी० १.२४.२ झलकनि : सं०स्त्री० । झिलमिलाहट, झलकने की क्रिया, चमक । गी० १.२२.३ अलका : सं० । फफोला । मा० २.२०४.१ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 375 झलकाहीं : आ.प्रब० । चमकते हैं। 'भाल बिसाल तिलक झलकाहीं।' मा. १.२४३.६ झलकि : पूक० । चमक कर, दीप्ति बिखेर कर । 'झलकि झलझलत सोभा की दीयटि ।' गी० १.१०.३ झलकी : भूक०स्त्री०ब० । चमचमा उठीं। 'झलकी भरि भाल कनी जल की।' ___ कवि० २.११ झलक : जलकाहीं । 'तन दुति मोर चंद जिमि झलक ।' गी० १.३१.२ झलक : झलकह। झलमलत : वक० । झिलमिलाता-ते । गी० १.१०.३ झष : सं०० (सं.)। मछली । मा० ६.४.५ झषकेतू : सं०० (सं० झषकेतु) मीनकेतु =मकरध्वज=कामदेव । मा० १.८३.८ झषराज : संपु । मगर, ग्राह । 'झषराज ग्रस्यो गजराज ।' कवि० ७.८ झहराने : भूकृ००ब ० । झुलस गये । 'लपट झपट झहराने ।' कवि० ५.८ Vझहराव झहरावह : आ०ए० । झिटकारता है, झुलसाता है। 'बालधी फिरावै बारबार शहरावै।' कवि० ५.१४ झाई : (१) सं०स्त्री (सं० ध्यामिका>प्रा० शामिआ>अ० झावीं)। कालिमा, काला धब्बा, छाया। 'ससि महुं प्रगट भूमि के झाई।' मा० ६ १२.५ (२) आभा, प्रतिच्छवि, प्रतिबिम्ब । 'तन मृदु मंजुल मेचकताई। झलकति बाल बिभूषन झाई ।' गी० १.२४.२ झांकत : वक०० । ओट से ताकता-ताकते। 'झुकि झांकत प्रतिबिंबनि ।' गी० झांकती : वक०स्त्री०ब० । आड़ में से ताकतीं। 'झांकती झरोखें लागीं।' कवि० १.१३ झांकनि : सं०स्त्री० । झांकने की क्रिया, आड़ से देखने की रीति । गी० १.२८.३ झांकहिं : आ.प्रब० । आड़ से देखते-ती हैं। 'लागि झरोखन्ह झाखहिं भूपति ___ भामिनि ।' जा०म० ७२ झांकी : पूकृ० । झांक कर । कवि० ६.४४ झांखा : भूकृपु० । झींखा, बड़बड़ाया, व्याकुल प्रलाप करता रहा। 'अस कहि __राउ मनहिं मन झांका ।' मा० २.३०.१ झांझ, झि : संस्त्री० (सं० झाञ्झा) । वाद्यविशेष । मा० १.२६३.१ झोपेउ : भूकृ.पु.कए० (सं० झम्पितः>प्रा० झंपिओ>अ० झंपियउ) । आच्छादित हो गया। 'झोपेउ भानु कहहिं कुबिचारी ।' मा० १.११७.२ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 तुलसी शब्द-कोश झांवरे : वि.पुब ० (सं० ध्यामतर>प्रा० झामर>अ० झावर) । झुलसे, कुंभलाये हुए, बेरंग । 'तदपि दिनहिं दिन होत झावरे मनहुं कमल हिम मारे ।' गी० २.८७.३ झार : सं०स्त्री० (सं० झल्ला:= ज्वाला)। आंच, आग की लपट । 'तात तात तौंसिअत झौंसिअत झार हीं।' कवि० ५.१५ (झारहीं =झार में) झारि, री : वि०+क्रि०वि० । (१) सम्पूर्ण, सबके सब । 'जितेउँ चराचर झारि।' मा० ६.२७ (२) निरन्तर, नितान्त । 'झरना झरत झारि सीलत पुनीत बारि।' कवि० ७.१४१ झारी : झरि । सब-के-सब । 'एक नारि ब्रत रत सब झारी।' मा० ७.२२.८ झारौं : आ० उए । झाड़ दूं। 'झारौं हौं चरन सरोरुह धूरि ।' गी० १.१३.२ ।। झालरि : सं० स्त्री० (सं० झल्लरी कुञ्चित केश रचनाविशेष) । झलकों के समान कुञ्चित माला रचना, बन्दनवार, माङ्गलिक कार्यों में पुष्प रचना तथा पत्र रचना । रा०न० ३ (२) माला, हार । 'मुकुता झालरि झलक जनु राम सुजस सिसुहाथ ।' दो० १६० झिग : ध्वनिविशेष । 'झरना झरत झिंग झिंग झिंग जल तरंगिनी।' गी० २.४७.१० झिल्लि झिल्ली : सं०स्त्री० (सं० झल्लिका) । झींगुर, कीटविशेष । गी० २.४७.१० झोनि, नी : वि०स्त्री० (सं० झीर्णा>प्रा० झिण्णी)। झांझर बुनावट वाली। 'पीत झीनि झुगुली तन सोही ।' मा० ७.७७.७ मझनु : घुघुरी आदि का रवविशेष । 'झुझुनु झुझुनु पायें पैंजनी मृदु मुखर ।' ___गी० १.३३.१ झुंड : सं०० (सं० झुण्ट) । समूह । कवि० ६.३१ झंडनि : झुड+संब० । झुन्डों (में) । 'चलीं झुडनि झारि ।' गी० ७.१८.४ झुकनि : सं०स्त्री० । झुकने की क्रिया, नत होना । गी० १.२८.३ झुकरे : वि०पु०ब० । मण्डलाकार गति में झूक भरे हुए+झुके हुए। 'रुंडन के झुड ___ झूमि झूमि झुकरे से नाचे ।' कवि० ६.३१ झुकि : पूकृ० । झुक कर, नत होकर । 'झुकि झांकत प्रतिबिंबनि ।' गी० १.३१.६ झुकी : भक स्त्री० । (१) नत हुई। कवि० ७.१३३ (२) आक्रामक मुद्रा में नत ___ खड़ी हुई । 'झुकी रानि अब रहु अरगानी ।' मा० २.१४.७ झुके : भकृ००ब० । नत हुए, आक्रामण हेतु उद्यत हुए । 'तुलसी उत झुड प्रचंड झुके ।' कवि० ६.३४ झुटुग : झोटिंग (सं० जूटिंग) । झोंटाधारी+समूहवद्य । कवि० ६.५० झुठाई : सं०स्त्री० । झूठापन, मिथ्यावाद । 'मुढ़ सिखिहि वहँ वहुत झुठाई ।' मा० ६.३४.५ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश. 377 झलाइ : पूकृ० । झुला कर, झूले पर आन्दोलित कर । 'मथुर झुलाइ मल्हावहीं।' गी० १.२२.१० अलाव झुलावइ : (सं० दोलयति>प्रा० झुल्लावइ-आन्दोलित करना) __ आ०प्रए० । झुलाता-ती है । 'कवडं पालने घालि झुलावै ।' मा० १.२००.८ अलावत : वकृ.पु । झूले पर आन्दोलित करता-ते । गी० १.१२.१. झलावहिं : आ०प्रब० (सं० दोलयन्ति>प्रा० झल्लावहिं>अ० झुल्लावहिं) । __ झुलाते-ती हैं । 'झूलहिं झुलावहिं ओसरिन्ह ।' गी० ७.१८.५ । झुलावै : झुलावइ । 'पालने रघपति झुलावै ।' गी० १.२३.१ झुलावौं : आ० उए । झुलाऊँ । 'पौढ़िए लालन पालने हौं झुलावौं ।' गी० १.१८.१ झूठ : झूठ । मिथ्यावचन । 'जो कह झूठ मसखरी जाना।' मा० ७.६८.६ । झठ : वि० (सं० जुष्ट>प्रा० झट्ठ) । मिथ्या । मा० ७.३६.७ झूठइ : मिथ्या ही। 'झुठइ भोजन झूठ चबेना। मा० ७.३६.७ झूठा : झूठ । धोखे से भरा, मिथ्या । 'जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठ।' मा० ६.६६७ भूठि . झूठ+स्त्री० । झूठी, मिथ्या । 'झूठि न होइ देवरिषि बानी ।' मा० १.६८.७ झूठे : झूठे से । 'झूठे अघ सिय परिहरी ।' दो० १६६ झूठे : वि.पुब । निरर्थक, मिथ्या। 'देखे सुने भूपति अनेक झूठे झूठे नाम ।' गी० १.८७.२ झूठेउ : झूठ ही । 'झूठेउ सत्य जाहि बिनु जाने ।' मा० १.११२.१ झूठेहुं : झूठमूठ भी। 'झूठेहुं हमहि दोष जनि देहू ।' मा० २.२८.३ झठेहु : झूठेहुं । 'मो कहँ झूठेहु दोष लगावहिं ।' कृ० ४ झूठो : झूठा+कए० ! मिथ्या, निस्सार । 'झूठो है झूठो है झूठो सदा जग ।' कवि० ७.३६ झने : वि०पु० (सं० झूर्ण, जूर्ण>प्रा० झुण्ण =झुण्णय) । झीने, झाँझरे । 'ओढ़िबो झूने खेस को।' कवि० ७.१२५ झूमक : सं०पु० । राग विशेष, लोकगीत विशेष । 'चांचरि झूमक कहैं सरस राग ।' ___ गी० ७.२२.५ झूमत : वकृ० पु । झूमता-झूमते, घूर्णन करते । 'झूमत द्वार अनेक मतंग ।' कवि० ७.४४ झमि : पूकृ० । पूर्णित होकर । कवि० ६.३१ भूरो : वि०पू०कए । सूखा । हनु० ३ झूलत : वकृ०० । झूले पर आन्दोलित होते । 'झूलत राम पालले सोहैं ।' गी० १.२४.१ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 तुलसी शब्द-कोश झूलन : भकृ० अव्यय । झूलने । 'राघो के रुचिर हिंगोलना झूलन जैए।' गी० ___७.१८.१ झलहि : आ०प्रब० । झूलते-ती हैं । 'झूलहिं झुलावहिं ओसरिन्ह ।' गी० ७.१८.५ झोंटी : सं०स्त्री० (सं० झुण्ट>प्रा० झुटी=झोंटी) । उलझा हुआ। केशसमूह । __ मा० २.१६३.७ झोटिंग : सं०० (सं० जोटिङ्ग)। शिव, शिवीपासक श्मशानसाधक योगी+ झोंटाधारी । 'प्रथम महा झोटिंग कराला ।' मा० ६.८८.१ झोपरी : सं०स्त्री० (प्रा० झुपड़ी) । झोंपड़ी, कुटी, तृणकुटीर । 'ख्याल लंका लाई कपि रांड़ की सी झोपरी ।' कवि० ६.२७ झोरी : सं०स्त्री० (सं० झोलिका>प्रा. झोलिआ>अ० झोली)। लम्बी थेली। ओझरी की झोरी काँधे ।' कवि० ६.५० झोलिन्ह : झोली+संब० । झोलियों (में) । 'झोलिन्ह अबीर पिचकारि हाथ ।' गी० ७.२२.२ झौंसिअत : वकृ.पुकवा० । झुलसे जाते । 'तात तात तौंसिअत झौंसिअत झारहीं।' कवि० ५.१५ टकोर, रा : सं०स्त्री० (सं० टं+कोर =कुर शब्दे +घन्) । टंकार ध्वनि । मा० ३.१६ छं० टकोरा : टंकोर । मा० ६.६८.२ टंकिका : सं०स्त्री० (सं.) । टांकी, पत्थर आदि काटने की छेनी । दो० ३४२ टई : (१) सं०स्त्री० (सं० तय गतौ) । चाल, चालाकी । 'करत फिरत बिनु टहल टई है।' विन० १३६.७ (२) बाधा, आतङ क । 'भृगुपति की टारी टई।' गी० ५.३७.४ टकटोरि : पूर्व० । टटोल कर, स्पर्श से देखभाल कर । 'टकटोरि कपि ज्यों नारियरु सिरु नाइ सब बैठत भए।' जा०मं छं० ११ टकोर : टॅकोर । 'ट' ध्वनि । 'प्रभु कीन्हि धनुष टकोर ।' मा० ३.१६ छं० /टर, टरइ, ई : (सं टलति-टल वैक्लव्ये>प्रा० टलइ-चलित होना, खिसकना, हटना) आ०प्रए । टलता है । (१) स्थान से हटता है । :लगे उठावन टरइ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द - कोष न टारा ।' मा० १.२५१.१ ( २ ) मुकरता है, मुकर सके । 'तब मागेहु ह बचनु न टरई ।' मा० २.२२.७ 379 टरत : वकृ०पुं ं० । टलता -ते । 'नेम को निबाह एक टेक न टरत ।' विन० २५१.२ टरति : वकृ० स्त्री० । टलती, हटती । 'नयननि आगे तें न टरति मोहन मूरति । कृ० २८ टह, हीं : आ०प्रब० । टलते हैं, हटते हैं । 'प्रभुहि बिलोकहि टरहि न टारे ।' मा० ६.४.७; ३.४०.६ टरिहै : आ०भ०प्र० (१) (सं० टलिष्यति > प्रा० टलिहिइ ) । टलेगा । चातक ज्यों एक टेक ते न टरिहै ।' विन० २६८.२ (२) (सं० टालयिष्यति > प्रा०टालिहिद्द) । टालेगा, हटायेगा । 'थपिहै तेहि को हरि जो टरिहै ।' कवि० ७.४७ टरी : भू० कृ० स्त्री० । टली, विचलित हुई ( टूटी ) । 'घोर धुनि सुनि सिव की समाधि टरी है।' गी० १.६२.५ टरे : भूकृ०पु० । टले, हटे । मा० ५.३५ छं० १ टर : टरइ । 'टरं न कपि चरन । मा० १.३४ क ट: भूकृ०पु०कए० । टला, हटा । मा० ६.४७.६ टसकतु: वकृ०पु०कए० । टस से मस होता, स्थान से हिलता । 'न नेकु टसकसु है ।' कवि० ६०१६ 1 टहल : (१) सं ० स्त्री० । घरेलू कामकाज । 'नीचि टहल घर के सब करिहौं ।' मा०७.१८.७ (२) कार्य, प्रयोजन । 'करत फिरत बिनु टहल टई है ।' विन०१३६.७ टांकी : टंकिका | 'जो पय फेनु फोर पनि टाँकी । मा० २.२८१.८ टाँच : सं० स्त्री० (सं० तञ्चा -- तञ्चु गतौ ) । चाल, चालाकी । टाँचन : टाँच + संब० । चालाकियों, वञ्चनाओं (से) । देह-जीव-जोग के सखा सब टाँचन टाँचो ।' विन० २७७.२ टाँचो : भूकृ०पु०कए० । ठगा प्रतारित किया । विन० २७७-२ टाँठे : क्रि०वि० । टाँठ = कठोर होकर, उग्रता के साथ । 'कोमल काज न कीजिए टाँठे ।' कवि० ६.२८ टाक : सं०पु० (सं० ट ) । चौथाई खण्ड | 'राम नाम लेत मागि खात टूक-टाक हौं ।' हनु० ४० टाट : सं०पु० । बोरा, सन का फट्टा । 'सिअनि सुहावनि टाट पटोरें ।' मा० १.१४.११ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 तुलसी शब्द-कोष टाटिका : (१) सं०स्त्री० (सं० तटिका>प्रा० तट्टी) । टट्टी, वृति । (२) छप्पर का ठाट जिम पर फूस छाया जाता है । 'बिरचि हरि भगति बर टाटिका कपट दल हरित पल्लवनि छावौं ।' विन० २०८.२ टाप : सं०स्त्री० । घोड़े का खुर । 'टाप न बूड़ बेग अधिकाईं।' मा० १.२६९.७ . टारति : वक०स्त्री० । हटाती (बिताती)। 'सीय निमेष कलप सम टारति ।' गी० ५.१६.१ टारन : भ०० अव्यय । टालने (को); खिसकाने (को)। 'दीप बाति नहिं टारन कहऊँ ।' मा० २.५६.६ टारा : भूकृ.पु । हिलाया-डुलाया, हटाया (हुआ)। 'टरइ न टारा।' मा० १.२५१.१ टारि : पूक । टाल, हटा (कर) । 'भ्रम न सकइ कोउ टारि ।' मा० १.११७ टारी : (१) टारि । 'जौं मम चरन सकसि सठ टारी।' मा० ६.३४.६ (२) भूकृ. __स्त्री० । हटाई । 'ईस अनेक करवरें टारी ।' मा० १.३५७.१ टारें : टालने, हटाने से । 'न चाप सज्जन बचन जिमि टारें टरै ।' जा०म०छं० ११ टारे : भूक००ब० । हटाये । 'प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे ।' मा० ६.४.७ ।। टारेउ : भूक.पु०कए । टाला, विचलित किया। 'छल करि टारेउ तासु ब्रत।' मा० १.१२३ टार्यो : टारेउ । 'भवतरु टरै न टार्यो।' विन० २०२.२ टाहली : वि०पू० । टहलुआ, टहल करने वाला, घरेलू सेवक । 'सबनि सोहात है सेवा सुजान टाहली।' कवि० ७.२३ टिटिभ : सं०पु० (सं०) । टिटिहरी पक्षी । मा० ६.४०.६ टिपारे : सं००ब० । चौतनियाँ, टोपियाँ । 'सीसनि टिपारे, उपबीत पीत पट कटि ।' गी० १.७१.१ टिपारो : सं००कए० । टोपी, चौतनी । गी० १.४३.२ टीका : (१) सं०० (प्रा० टिक्क)। तिलक (राजतिलक, राज्याभिषेक)। 'करह हरषि हियँ रामहि टीका।' मा० २.५.३ (२) श्रेष्ठ, सर्वोत्तम (तिलक के समान सुशोभित) । 'रावनु जातुधान कुल टीका ।' मा० ६.३८.६ टीड़ी : सं०स्त्री० । टिड्डी; पतिंगा विशेष जो समूह में उड़कर खेती आदि पर टूटता और खा जाता है । मा० ६.६७.२ टुक, टूक : वि० (सं० स्तोक) । थोड़ा, छोटा, खण्ड । 'पंख करौ टुक टूक ।' दो० २८२, टुक । (१) टुकड़ा, खण्ड । दो० २८२ (२) रोटी का टुकड़ा, चौथाई रोटी । 'खाए टूक सब के ।' कवि० ७.७३ ।। टूकनि, न : टूक+संब० । टुकड़ों. रोटी के खण्डों। 'कूकर टूकनि लागि ललाई ।' कवि० ७.५७ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश टूका : टूक । खण्ड । 'अजहुं न हृदय होत दुइ टूका ।' मा० २.१४४.६ टूकु : टूक+कए । एक टुकड़ा, एक भी खण्ड । 'चाहै चारु चीर पं लहै न टूकु टाट को।' कवि० ७.६६ टूट : (१) भूकृ०० (सं० त्रुटित>प्रा० तुट्ट)। भग्न हो गया। 'छुअत टूट रघुपतिहि न दोषू ।' मा० १.२७२.३ (२) टूटइ । 'टूट न द्वार परम कठिनाई।' मा० ६.४३.४ /टूट, टूटइ : (सं० त्रुट्यति>प्रा० तुट्टइ-टूटना, विच्छिन्न होना) आ०प्रए । टूटता है। टूटत : वकृ००। (१) भग्न होता, होते । 'टूटत ही धनु भयउ बिबाहू ।' मा० १.२८६.८ (टूटते ही) (२) आक्रमण करता-ते । 'टूटत अति आतुर अहार बस ।' विन० ६०.३ टूटि : (१) प्रकृ० । टूट कर । गी० २.५८.२ (२) भूकृ०स्त्री० । टूटी हुई। टटियो : टूठी हुई भी । 'टूटियो बांह गरे पर ।' विन० २७१.४ टूटिहि : आ०भ०प्रए । टूटेगा। 'अवसि राम के उठत सरासन टूटिहि ।' जा०म०६१ टूटें : टूटने से, टूटने पर । 'होइहहिं टूटें धनुष सुखारे ।' मा० १.२३६.३ टूटे : (१) भूकृ०० ब० । भग्न हुए । 'उर लागत मूलक इव टूटे ।' मा० ६.२५.६ (२) टूटें । टूटने पर । 'श्रीहत भए भूप धनु टूटे ।' मा० १.२६३.५ टूटे उ : भूकृ०पु०कए । भग्न हो गया । 'टूटे उ कुबर फूट कपारू ।' मा० २.१६३.५ टूट : टूटइ। टूट सके । 'माधव मोह फांस क्यों टूट ।' विन० ११५.१ टूट्यो : टूटे उ । कवि० १.१० टेक : टेक । मा० २.३२४ टेई : भूकृ०स्त्री० । तेज की, पैनाई । 'कपट छुरी उर पाहन टेई।' मा० २.२२.१ टेक, टेका : सं०स्त्री०। (१) दृढ़ आग्रह । 'सकइ को टारि टेक जो टेकी ।' मा० २.२५५.८ (२) स्थिरता । 'साधन कठिन न मन कहुं टेका।' मा० ७.४५.३ (३) आश्रय, आधार, अवलम्ब । 'सोक सरि बूड़त करीसहि दई काहु न टेक ।' विन० २१७.३ (४) उपाय (मार्ग)। 'जैबे को अनेक टेक, एक टेक वबे की।' कवि० ७.८२ टेकि : पूक० । सहारा लेकर । 'जान टेकि कपि भूमि न गिरा।' मा० ६.८४.१ टेकी (१) टेकि । पकड़ कर (आग्रह करके, ग्रहण करके) । 'भरद्वाज राखे पद टेकी ।' मा० १.४५.४ (२) भूकृ०स्त्री० । पकड़ी, ग्रहण की। 'सकइ को टारि टेक जो टेकी।' मा० २.२५५.८ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द- कोथ टेढ़ : वि० (सं० तिर्यक + अर्ध > प्रा० तियड्ढ ) । वक्र, कुटिल । 'टेढ़ जानि सब बंद काहू ।' मा० १.२८१.६ टेढ़ी : विoस्त्री० । वक्र । 'तिलक भाल टेढ़ी भो हैं ।' गी० १.६३.३ टेढ़े : वि० ० ( बहु० ) । 'सूधे टेढ़े सम बिषम ।' दो० ५०० 382 टेपारो : टिपारो । 'तनियाँ ललित कटि बिचित्र टेपारो सीस ।' कृ० २ टेरत: वकृ०पु० । पुकारता, पुकारते । 'भुज उठाइ ऊँचे चढ़ि टेरत ।' गी० २.१४.१ टेरि: (१) पू० । पुकार कर । 'अरु हौंहु कहत हौं टेरि ।' विन० १९०.७ (२) आ० - आज्ञा - मए० । तू पुकार । 'टरि कान्ह गोबर्धन चढ़ि गया ।' कृ० १६ टेरी : भूकृ० स्त्री० । पुकारी । 'प्रानबल्लभा टेरी ।' गी० ३.१०.२ टेरें : पुकार कर । 'तेहि तें कहहिं संत श्रुति टेरें ।' मा० १.१६१.३ टेरे : (१) भूकृ०पु०ब० । पुकारे, बुलाये । मा० १.६३.४ (२) टेरें । पुकारने से । 'अभय किये···बारक बिबस नाम टेरे ।' विन० १३८.१ (३) पुकार कर । 'भुज उठाइ कहीं टेरे ।' विन० २२७.१ टेव : सं० स्त्री० । स्वभाव, प्रकृति । 'या की टेव लरन की ।' कृ० ८ वैया : वि० । देने वाला, पैना करने वाला, तेज करने वाला ।' 'कोटि जलच्चर दंत टेवैया ।' कवि० ७. ५२ टोटक : सं०पु० (सं० त्रोटक ) । रोगनिवारण आदि हेतु ओझा आदि द्वारा कराया हुआ तान्त्रिक उपायविशेष जिसमें भोजन आदि कोई अभिमन्त्रित वस्तु को चौराहे आदि पर रख आते हैं, फिर घूम कर नहीं देखते । 'स्वारथ के साथिन्ह तज्योतिजरा को सो टोटक, औचट उलटि न हेरो ।' विन० २७२.२ टोटकादि : त्रोटक आदि तान्त्रिक उपाय | हनु० ३० -टोने : 'टोना' का रूपान्तर । हिमालय की थारू जाति के जन्तर-मन्तर को 'टोना' कहते हैं जिसमें मारण, वशीकरण आदि की क्रिया होती है । वशीकरण आदि का मन्त्रविशेष । 'प्रभु किधौं प्रभु को प्रेम पढ़े प्रगट कपट बिनु टोने ।' गी० २.२३.३ टोलू : सं०पु० ( टोल + कए० ) । टोली, सजातीय दल । ' देखि निषादनाथ निज टोलू ।' मा० २.१९२.३ ( प्रा० 'टोल' टिड्डीदल का अर्थ देता है) Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्दकोष 383 उई : भूक०स्त्री. (सं० स्थापिता>प्रा० ठविआ)। (१) स्थिर की, ठहरायी। 'को जाने चित कहा ठई है ।' विन० १३६.७ (२) रखी। 'सो तो कछु एको चित न ठई ।' कृ० ३६ (३) स्थित हुई, ठनी । 'ठवनि भली ठई है ।' गी० १.६६.२ ठए, ये : भूकृ००ब० । ठाने, आरम्भ किये । 'समय सम गान ठए ।' गी० १.३.२ ठकरसोहाती : सं०स्त्री० । स्वामी (ठाकुर) को अच्छी लगती (सोहाती) हुई बात = चाटुकारिता, चापलूसी । 'हमहुं कहबि अब ठकुरसोहाती।' मा० २.१६.४ ठकुराइनि : ठाकुर+स्त्री० । स्वामिनी । कवि० ७.१७० ठकुराई : सं०स्त्री० । स्वामित्व, राज्य । 'अब तुलसी गिरिधर बिनु गोकुल कौन __ करिहि ठकुराई ।' कृ० ३२ ठग : सं०० (सं० ठक>प्रा० ठग) । वञ्चक, धोखा देकर लूटने वाला । मा० १.७६.७ ठगति : ठग+वकृ०स्त्री० । ठगती, वञ्चित करती। गी० २.८२३ ठगि : (१) पूक० । लुटकर, ठगे जाकर, ठक्क होकर, निस्तब्ध होकर । 'तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं।' मा० ७.६.६ (२) ठगी। 'ठगि सी रहो।' कवि० १.१ (३) ठगे । 'रहे ठगि से नृपति ।' गी० १.५१.१ ठगिनि, नी : ठग+स्त्री० । गी० २.८२.३ ठगी : ठग+भूकृ०स्त्री० । ठग ली गई, धोखा खा गई, स्तब्ध रह गई । 'तुलसिदास ___ग्वालिनी ठगी।' कृ. ८ ठगु : ठग+कए । अद्वितीय वञ्चक । 'भलो ठग्यो ठगु ओही।' कृ० ४१ ठगे : भूकृ.पुब० । लुट गये, स्तब्ध (लुटे-से)। 'बिलोकि सुर नर मुनि ठगे।' ___ मा० १.३१६ छं० ठगोरी ठगौरी : ठगौरी । 'तुलसिदास ग्वालिनी ठगी-सी, आयो न उतर कछु, कान्ह ठगोरी लाई ।' कृ० ८ सं०स्त्री० (सं० ठक-पुटी>प्रा० ठगउड़ी)। ठग द्वारा दी हुई बिसली पुड़िया जिससे मूछित करके ठगी का काम करता है । मोहनी । 'नखसिख अंगनि ठगौरी ठौर ठौर हैं।' गी० १.७३.४ ठग्यो : भूक.पुं०कए । ठग लिया, धोखे में डालकर लूट लिया । 'भलो ठग्यो ठगु ओही।' ० ४१ ठट : सं०० (प्रा० थट्ट=समूह) । झुड । 'उनेह सिथिल गोप गाइन्ह के ठट हैं।' कृ० २० Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 तुलसी शब्द-कोशः ठटहिं : आ०प्रब० । सजाते हैं, जुगाड़ बनाते हैं। 'ठटहिं जे कूर कुठाट ।' दो० ४१७ ठटु : ठट+कए । बनाव, साजसार । गी० १.८०.३ ठटुकि : पूकृ० । अचानक रुके रह कर, ठहर कर । 'ठटुकि रहे एक टक पल रोकी।' मा० ५.४५.३ ठटो : आ०-आज्ञा-मब० । बनाओ। 'नट ज्यों जनि पेट-कुपेटक कोटिक चेटक कौतुक ठाट ठटो।' कवि० ७.८६ ठट् टा : ठट । 'मर्दहु भालु कपिन्प के ठट्टा ।' मा० ६.७६.११ ठठई : सं०स्त्री० । ठट्ठापन, हँसोड़पन, परिहास+नि:सार तथा रूक्ष व्यवहार । ___हरि परे उरि सँदेसहु ठठई ।' कृ० ३६ ठठाइ : पूकृ० । ठट्ठ। मारकर, ठहाका लगाकर । 'हंसब ठठाइ फुलाउब गालू ।' मा० २.३५.५ ठठाइयत : वकृ०-कवा०-पु । ठोंका जाता, ठोंके जाते; आहत किये जाते। ___'खाती दीपमालिका ठठाइयत सूप हैं।' कवि० ७.१०१ ठनियत : वकृ००-कवा । ठाना जाता, किया जा रहा। 'दीनबंधु द्वारे हठ, ठनियत है।' विन० १८३.३ ठनी : भूक०स्त्री० । ठन गयी, होने लगी। राम कृपा और ठनी ।' गी० ५.३६.२ ठयऊ : भूक००कए० (सं० स्थापितम्>प्रा. ठवियं>अ० ठवियउ)। ठाना, आरम्भ किया, स्थापित किया, निश्चित किया । 'एहि बिधि हितु तुम्हार मैं ठयऊ।' मा० १.१३३.२ ठयो : ठयऊ। (१) ठाना, निश्चित किया। 'तब यह मंत्र ठयो।' गी० १.४७.२ (२) सजाया, बनाया। 'चतुर जनक ठयो ठाट इतौ री।' गी० १.७७.३ ठवनि : सं०स्त्री० (सं० स्थापना>प्रा० ठवणा>अ० ठवणी=ठवणि) । (१) खड़े होने में पैरों की विशेष स्थिति । 'ठवनि जुबा मृगराज लजाएँ।' मा० १.२५४.८ (२) बनाव, साज सँवार । 'समय समाज की ठवनि भली ठई है।' गी.. १.९६ २ (३) सदृश स्थिति । 'लंक मृगपति ठवनि ।' गी० ७.५.२ ठहर : सं०। स्थान । 'ठहर ठहर परे कहरि कहरि उठे ।' कवि० ६.४२ ठहरानी : भूकृ० स्त्री० । ठहरी, स्थिर हुई, निश्चित की जा सकी। 'एकउ जुगुति न मन ठहरानी।' मा० २.२५३.७ ठहरु : ठहर+कए । एक भी ठिकाना, आश्रय ! 'जो पै मो को होतो कहूं ठाकुर ठहरु ।' विन० २५०.१ ठही : भूकृ०स्त्री०=ठई । ठहरी, व्याप्त हो रही। 'लागि दवारि पहार ठई।' कवि० ७.१४३ ठाँव : ठावें । विन० १५१.३ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 385 ठाउँ, ऊँ : (१) सं०पु०कए० (सं० स्थाम>प्रा० ठामं>अ० ठा) । स्थान । 'लै रघुनाथहिं ठाउँ देखावा ।' मा० २.८६.५ (२) पद । 'पायउ अचल अनुपम ठाऊँ ।' मा० १.२६.५ (३) आश्रय, सहारा । 'जग दूसरो न ठाकुर न ठाकुर ठाऊँ।' विन० १५३.१ ठाकुर : सं०० (सं० ठक्कुर) । स्वामी, राजा । कवि० ७.१७० ठाट : ठट । (१) समूह, प्रबन्ध, बन्धान । 'चेटक कौतुक ठाट ठटो।' कवि० ७.८६ (२) बनाव, साज । 'चतुर जनक ठयो ठाट इतो री।' गी० १.७७.३ ठाटहु : आ०मब० । ठीक-ठाक करो, जमाओ, सजाओ। 'ठाटहु सकल भर के ठाटा।' मा० २.१६०.१ ठाटा : (१) भूकृ०० । गूथ दिया, जमा दिया। 'सुख महं सोक ठाटु धरि ठाटा।' मा० २.४७.५ (२) ठाट । 'ठाटहु सकल भर के ठाटा ।' मा० २.१६०.१ ठाटिबो : भकृ०पु०कए । सजाना, रचना, ठाट बनाना । 'काया नहिं छाड़ि देत ठाटिबो कुठाट को।' कवि० ७.६६ ठाटु, टू : ठाट+कए० । (१) साजबाज, बन्धान। 'सुख महं सोक ठाटु धरि ठाटा।' मा० २.४७.५ (२) प्रबन्ध, तैयारी । 'करहु कतहुं अब ठाहर ठाटू ।' मा० २.१३३.१ ठाढ़ : भूकृ०० (सं० स्तब्ध>प्रा० ठड्ढ) । खड़ा, खड़े। 'ठाढ़ भए उठि सहज सुभाएँ।' मा० १.३६०.५ ठाढ़ा : ठाढ़ +कए । 'अहमिति मनहुं जीति जगु ठाढ़ा।' मा० १.२८३.६ ठाढ़ि : ठाढ़ी । 'सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती।' मा० २.१२.१ ठाढ़ी : ठाढ़ी+ब० । खड़ी हुईं । 'मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ीं।' मा० १.२८८.६ ठाढ़ी : ठाढ़+स्त्री० (सं० स्तब्धा>प्रा० ठड्ढी) । खड़ी । 'नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी।' मा० १.१०४.२ ठाढ़ें : क्रि०वि० । खड़े-खड़े, स्तब्ध होकर । 'काहुं न लखा देख सबु ठाढ़ें।' मा० १.२६१.७ ठाढ़े : भूकृ००ब० । खड़े । मा० १.१४५.१ ठाढ़ेइ : खड़े ही । 'पंचबटी पहिचानि ठाढ़ेइ रहे।' गी० ३.१०.१ ठाढ़ो : ठाढ़ा । 'रावन भवन चढ़ि ठाढ़ो तेहि काल भो।' कवि० ५.४ ठाना : भूकृ००। चालू किया। 'सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना।' मा० १.१६२ छं० ठानि : (१) पूकृ० । ठान कर, निश्चित कर । 'मरनु ठानि मन रचेसि उपाई।' मा० १.६६.५ (२) आ० -आज्ञा-मए । तू ठान कर। 'भजहि ऐसे प्रभुहि तुलसी कुटिल कपट न ठानि ।' विन० २१५.७ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 तुलसी शब्द-कोश ठानी : (१) भूक०स्त्री० । आरम्भ की । 'अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी।' मा० १.२११ छं० २ (२) ठानि । ठान कर । गी० १.४.२ ठायँ : स्थान पर । 'ते लजात होत ठाढ़े ठायँ ।' विन० ८३.६ ठाली : ठाली+ग० । 'ठाली ग्वालि जानि पठए अलि कह्यो है पछोरन छूछो।' कृ० ४३ ठाली : वि० स्त्री० । निठल्ली, ठलुई, निकम्मी (जिसे कुछ काम न हो)। 'ठाली ग्वालि ओरहने के मिस आइ बकहि बेकामहिं ।' कृ० ५। ठाव : ठायँ । स्थान पर । 'ठावँ ठाएँ राखे अति प्रीती।' मा० २.६०.३ ठाव : सं०० (सं० स्थाम=स्थान>प्रा० ठाम>अ० ठा) स्थान । 'ठावहिं ठाउँ बझाऊ रे ।' विन० १८६.४ (ठावहिं ठाउँ=स्थान ही स्थान =प्रत्येक स्थान) ठाहर : ठहर । ठहराव, स्थान । 'करहु कतहुं अब ठाहर ठाटू ।' मा० २.१३३.१ ठाहरु : ठाहर+कए० । (१) स्थान (अङ्ग, भाग) । 'मरम ठाहरु देखई।' मा० २.२५ छं० (२) अवसर । 'जूझिबे जोगुन ठाहरु ।' कवि० ६.२८ (३) आश्रय, अवलम्ब । 'तुम्ह ही बलि हो मो को ठाहरु हेरें। कवि० ७.६२ ठीक : (१) सं०स्त्री० । ठेका, ठहराव, स्थिरता, विराम, निश्चय । 'नीकें के ठीक दई तुलसी।' कवि० ७.८८ (२) वि० । स्थिर, निश्चित, उचित । 'ठीक प्रतीति कहै तुलसी ।' कवि० ७.१३१ (३) व्यवस्थित, समञ्जस । 'करम बचन मन ठीक लेहि, तेहि न सके कलि धूति ।' दो० ८८ ठीका : ठीक (सं० स्थितिका>प्रा० ठिइक्का) । ठहराव, धैर्य, निश्चय, दृढ़ता। ___'करि बिचारु मन दीन्ही ठीका ।' मा० २.२६६.७ ।। ठुमुक : बच्चों की गति चेष्टानुकरण, ठहर ठहर कर कर निरन्तर चाल । 'ठुमुकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई ।' मा० १.२०३.७ ठूठ : सं०० । स्थाणु, पत्रादिरहित वृक्ष । 'सेवत कलि तरु ठूठ।' दो० ७६ ठेकाने : 'ठेकाना' का रूपान्तर । टिकाव, आधार, स्थान । 'बड़े ठेकाने ठोर को हौं।' विन० २२६.३ ठेलि : पूक० । ठेल कर, धकिया कर, धक्का दे देकर । 'ढकनि ढकेलि पेलि सचिव चले ले ठेलि।' कवि० ५.८ ठोंकि : पूक० । ठोंक बजा कर, पात्रादि पर 'ठों' ध्वनि के साथ आघात देकर, परीक्षा करके । 'ठोंकि बजाइ लखे गजराज ।' कवि० ७.५४ (२) आघात देकर । 'ठोंकि ठोंकि खये ।' गी० १.४५.२ ठोरी : क्रि०वि० । संगम दशा में, स्थान पर । 'छबि सिंगार मनहुँ एक ठोरी।' मा० १.२६५.७ ठोसु : ठोस+कए० । अन्त:सार युक्त, दृढ़, भरा हुआ । 'राम प्रीति प्रतीति पोली, कपट कर तब ठोसु ।' विन० १५६.१ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश ठौर : सं०पु० । (१) स्थान । 'ठौर ठौर दीन्ही आगि ।' कवि० ५.३ (२) आश्रय । 'नाहिन ठौर कहूं ।' विन० ८६.१ ठौरी : ठौरी । 'लोचन लाहु लह्यो एक ठोरी ।' गी० १.१०४.३ ठौरु : ठौर + कए० । एक भी स्थान, आश्रय । 'औरु कहाँ ठोरु रघुबंसमनि मेरे । ' विन० २१०.१ ड 387 डग : सं०पु० । पदविक्षेप, एक पदक्रम | 'धरि धीर दए मग में डग द्वे ।' कवि० २.११ // डग, डगइ : आ०प्र० । चलित होता है, हिलता है, स्थान से कुछ चलता है । 'डगइ न संभु सरासन कैसें । मा० १ २५१.२ गत: वकृ०पु० । विचलित होता ते, लड़खड़ाता - ते । 'बूड़त लखि पग डगत लखि ।" O दो० ५२० डगति : डगत + स्त्री० । हिलती । 'डोलति नहि डगति ।' गी० २.८२.२ डगमगत: वकृ०पु० । लड़खड़ाता ते, हिलता ते । मा० ६.७०.८ डगमगहिं, हीं : आ。प्रब० । हिलते डोलते हैं । "छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं ।' मा० ६.७.६ डगमगानि : भूकृ० स्त्री० । हिल- डोल गयी; काँप उठी । ' डगमगानि महि दिग्गज डोले ।' मा० १.२५४.१ डगमगाहि : डगमगहिं । मा० ५.३५.१० डगमगे : भूक०पु०ब० । डाँवाडोल हो गये । मा० ६.८६ छं० गरि : कृ० । डगर पर चलकर, राह पकड़ कर अपना रास्ता लेकर । 'डगरि चले हँसि खेलि ।' कृ० २६ डगरो : सं०पु०कए० । मार्ग । 'रामभजन .. • मोहि लगत राज-डगरो सो ।' विन० १७३.५ डह, हीं : आ०प्र० । चलित या च्युत होते हैं । 'डगहिं न ताल बँधान ।' मा० १.३०२ (२) कम्पित होते हैं, लड़खड़ाते हैं । 'चलत कटक दिगसिंधुर डगहीं ।" मा० ६.७६.६ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 तुलसी शब्द-कोश डगि : पू० । डगमगा कर, लड़ाखड़ा कर । 'सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं ।' मा० २.२२५.४ डगे : भूकृ०पु०ब० । हिले, डगमगाए । 'डगे दिगकुंजर ।' कवि० ६.७ डग्यो : भूक ००कए० । हिला । 'डग्यो न धनु ।' गी० १.८६.७ डटया : वि० । डाँटने वाला । 'कौन सुन चहुं ओर डटैया ।' कवि० ७.५१ डफ : सं०पु० । ढपली, वाद्य विशेष । खैजड़ी जैसा एक बाजा । डफतार : डफ । ताल देने वाली ढपली । गी० १.२.१३ डफोरि : पूक० । डफार लगाकर, हाँक देकर, ललकार भरी पुकार देकर । 'तुलसी त्रिकूट चढ़ि कहत डफोरि के।' कवि० ५.२७ डमरु, रू : सं०० (सं०) । वाद्य विशेष । मा० १.६२.५ डमरुआ : सं०पु० (सं० डमरूक) । एक रोग जिझमें गांठे सूज कर डमरू के समान हो जाती हैं । 'अहंकार अति दुखद डमरुआ।' मा० ७.१२१.३५ डर : सं०० (सं० दर>प्रा० डर)। मा० १.२१८.५ (२) भय का कारण । _ 'एकहिं डर डरपत मन मोरा ।' मा० १.१६६.८ /डर, डरइ : आ.प्रए । डरता है । 'कान्ह डरै तेरे डर तें ।' क० १७ डरउँ, ऊ : आ० उए । डरता-ती-हूं। 'बसउ भवन उजरउ, नहिं डरऊँ।' मा० १.८०.७ डरत : वकृ.पु । डरता, डरते । 'तव भयँ डरत सदा सोउ काला।' मा० ३.१३.८ डरनि : (१) सं०स्त्री० । डरने की क्रिया । (२) डर+कए० । डरों (से)। हार्यो हिय खारो भयो भूसुर डरनि।' विन० २४७.३ डरपत : वकृ.पु० (सं० दर+आत्मन् >प्रा. डरप्प) । अपने आप में डरता-डरते। 'एकहिं डर डरपत मन मोरा ।' मा० १.१६६.८ डरपति : वक०स्त्री० । अपने-आप में भय खाती । 'ता तें तेहि डरपति अति माया।' मा० ७.११६.५ डरपसि : आ०मए० । तू स्वत: डरे। 'जनि सनेह बस डरपसि भोरें।' मा० २.५३.८ डरहि : आ०प्रब० । स्वतः डर जाते हैं । 'डरपहिं धीर गहन सुधि आएँ। मा० २.८३.४ डरपहि : डरपसि । 'जनि डरपहि ।' विन० ८४.४ डरपहु : आ०मब० । स्वतः (अपने आप ही-अकारण) डरो। 'जनि डरपहु सुर सिद्ध सुरेसा ।' मा० १.१८७.१ /डरपाव, डरपावइ : आ०प्रए० । अपने आप ही, अकारण, भय देता है। 'डरपार्क गहि स्वल्प सपेला ।' मा० ६५१.८ डरपे : भूकृ०ब० । स्वतः डर गये । 'डरपे सुर भए असुर सुखारी।' मा० १.८७.७. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 3891 डरहिं, ही : आ० (१) प्रब० । (वे) डरते-ती हैं । 'कालहु डरहिं न रन रघुबंसी।' मा० १.२८४.४ (२) उब० । (हम) डरते-ती-हैं। तिय सुभायँ कछु पूछत डरहीं।' मा० २.११६.६ डरहि, ही : आ०मए । तू डरता है । 'बायस इव सब ही तें डरही।' मा० ७.११२.१४ डरहु : आमब० । तुम डरते हो । 'डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ ।' मा० २.२१०.२ डरहुगे : आ०भ०पु०मब० । डरोगे । 'कुटिल मन मलिन जिय जानि जो डरहुगे।' विन० २११.४ डरि : कृ० । भय खा कर । 'बिदा भई देबी सों जननि डर डरि ।' गी० २.७२.४ उरिबे : भक०० डरना । 'लौकिक डर डरिबे हो ।' कृ० ३६ डरिये : आ०भावा० । डरा जाय, डरना पड़ता है। 'निज आचरन बिचारि हारि हिय मानि जानि डरिये ।' विन० १८६.१ डरिहैं : आ०भ०प्रब० । डरेंगे । 'डरिहैं सासु ससुर चोरी सुनि ।' क० १३ डरिहै : आ०भ० प्रए । डरेगा । 'सपनें नहिं कालहु तें डरिहै ।' कवि० ७.४७ डरी : भूकृ०स्त्री०ब० । डर गयीं। तासु बचन सुनि ते सब डरी ।' मा० ५.११.८ डरु : (१) डर+कए । एकमात्र भय । ‘मन डरु लोचन लालची।' मा० १.४८ (२) आ०-आज्ञा-मए० । तू डर । 'रामहि डरु करु राम सों ममता प्रीति प्रतीति ।' दो० ६५ डरे : भकृ००ब० । डर गये । 'डरे कुटिल नृप प्रभु हि निहारी। मा० १.२४१.६ डरेउँ : आ०-भूक००+उए । मैं डर गया। 'अपभयँ डरेउँ न सोच समूलें।' मा० २.२६७.३ डरेउ : भूकृ०पु०कए। डर गया। 'निज भयँ डरेउ मनोभव पापी ।' मा० १.१२६.७ डरें : डरहिं । 'कबहूं प्रतिबिंब निहारि डरै ।' कवि० १.४ डर : डरइ । 'सो परि डरै मर रजु अहि तें।' विन० १८८.५ उरंगी : आ०भ० स्त्री०प्रए० । भयभीत होगी। हनु० २५ डरौं : डरउँ । (१) डरता हूँ। तेहि तें बूझत काजु डरौं ।' जा०म० २२ (२) डरूँ, डरता होऊँ । 'अनद्य नाम अनुमानि डरौं ।' विन० १४१.१ डर्यो : डरेउ । 'भव भय बिकल डर्यो।' विन० ६१.४ डसत : वकृ०० (सं० दशत् >प्रा० डसंत)। दंश करता, डसता, डसते रही। ___भव भुअंग तुलसी नकुल डसत ग्यान हरि लेत ।' दो० १८० डसाई : (१) भू० कृ०स्त्री० । बिछायी। 'गुहँ सारि साथरी डसाई ।' मा० २.८९.७ (२) पूकृ० । बिछाकर । 'ठे कपि सब दर्भ डसाई।' मा० ४.२६.१० Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390 तुलसी शब्द-कोश डसाए : भूकु०पू०बहु० । बिछाये । 'पलँग डसाए।' मा० १.३५६.१ उसही : आ०भ० उए । बिछाऊँगा । ' जागें फिरि न डसहौं ।' विन० १०५.१ डहकत : वकृ००। (१) ठगता, प्रवञ्चित करना । 'बहु बिधि डहकत लोग फिरौं ।' विन० १४१.३ (२) छीना झपटी करता-ते । खेलत खात परसपर डहकत ।' कृ० १६ (३) विश्वासघात करते । 'डहकत एकहि एक ।' दो० ५४७ डहकति : वकृ०स्त्री० । (१) छल करती+(२) दहकता, जल जलाती। 'डहकति है उजिअरिआ निसि नहिं घाम ।' बर० ३७ डहकाइबो : भकृ०० कए० । ठगाना, (अपने को) प्रतारित करा लेना। 'डहके तें डहकाइबो भलो।' दो० ४३१ डहकायो : भूकृ००कए । (अपने को) ठगाया। 'अजहं विषय कहँ जतन करत, जद्यपि बहु बिधि डहकायो।' विन० १९९.४ ।। डहकि : पूक ० । वञ्चना करके । 'डहकि डहकि परिचेहु सब काहू ।' मा० १.१३७.३ (२) होड़ लगाकर, अवज्ञा करके । 'बाल बोलि डहकि बिरावत ।' क० २ डहके : भूक००ब० । (१) ठग गये, ठग लिये, प्रतारित किये । 'कलि डहके कहु को न ।' दो० ५४६ (२) ठगने । 'डह के तें डहकाइबो भलो।' दो० ४३१ रहार : सं०० (सं० दहर>प्रा० डहर । बालक । कायर कर कपूत कलि घर घर ___सहस डहार ।' दो० ५६० । डांग : सं० । पशु विशेष । गी० २.४७.१२ डांटति : डाटति । 'निपटहि डॉटति निठुर ज्यों।' कु० १४ डांटे : डाटे । 'डाँटे बानर भालु सब ।' रा०प्र० ३.६.५ डांडि : पूक० (सं० दण्डयित्वा>प्रा० डंडिअ>अ० डंडि) । दण्डित कर । 'केसरी ___ कुमारु सो अदंड कैसो डांडि गो।' कवि० ६.२४ डांडियत : वक पुकबा० (सं० दण्ड्यमान>प्रा० डंडीअंत) । दण्डित किया जाता-किये जाते । 'डांडियत सिद्ध साधक पचारि ।' गी० २.४६.६ डांड़ी : सं०स्त्री० (सं० दण्डिका>प्रा० डंडिआ>आ० डंडी)। छोटा डांडा। 'मरकत भंवर डाँड़ी कनक मनि जटित ।' गी० ७.१६.३ । डोडो : सं०पु०कए० (सं० दण्ड:>प्रा० डंडो)। छड़ी, दण्ड, छत्र आदि का __दण्डाकार भाग । गी० ७.१८.२ डाकिनि, नी : सं०स्त्री० (सं० डाकिनी)। श्मशानादि की देवी, शिश भक्षिणी पिशाची, डायन । मा० २.१३२.६ डाटत : वक०० । डाँटता-ते, भर्त्सना करता-ते । 'खिझे तें डाटत नयन तरेरे ।' कृ०३ डाटति : वकृ०स्त्री० । भर्त्सना करती, फटकारती । 'मातु काज लागी लखि डाटति।' कृ० १० Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 391 डाटन : भक० अव्यय । डाटने, भर्त्सना देने । 'मोहि दास ज्यों डाटन आयो ।' गी० डाहिं : आ०प्रब० । डाटते हैं, भत्संना देते हैं । 'कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं ।' मा० ६.५३.५ डाटि : पूक० । डपट कर, भत्सित करके । 'आँखि देखावहिं डाटि ।' मा० ७.६६ ख डाटे : भूक००ब० । डपटे हुए, भत्सित हुए (पर) । डाटे नवहिं अचेत ।' रा०प्र० डाटेहि : डाटने पर ही, डपटने से ही । 'डाटेहिं पै नव नीच।' मा० ५.५८ डाढ़ : सं०स्त्री० (सं० दाढ़ा-दंष्ट्रा)। दाढ़। जबड़ा । डाढ़त : वकृ० (सं० दग्ध>प्रा० डड्ढ+वक०= डड्ढंत)। जलता-ते । कवि० ५.१२ डाढ़न : भकृ० अव्यय (अ० डड्ढ+ अण=डड्ढण) । जलाने । 'तुलसीदास जगदध ___ जवास ज्यों अनघ मेघ लगे डाढ़न ।' विन० २१.२ डाढ़नि : डाढ़+संब० । दाढ़ो, दंष्ट्राओं, जबड़ों । 'बैठो काज डाढ़नि बीच ।' गी० ५.६.२ डाढ़ा : सं०० । दाहक अग्नि जो दूर.दूर तक तिनकों में फैल जाती है। जिमि तन पाइ लाग अति डाढ़ा ।' मा० ६.७२.२ डाढ़े : भूकृ००ब० । दग्ध हुए, जले । 'तुलसी तिहुं ताप न डाढ़े।' कवि० ७.१२७ डाढ़ो : भूक.पु०कए० (सं० दग्धः>प्रा० डड्ढो)। जल गया। 'सब असबाबु डाढ़ो।' कवि० ५.१२ डाबर : सं०पू० । पोखर, क्षुद्र तालाब । मा० २.१३६.७ डार : (१) सं०स्त्री० (सं० दाला>प्रा० डाला>अ० डाल)। शाखा । 'प्रभु तरु तर कपि डार पर।' मा० १.२६ क (२) डारि । फेंक कर । 'निज निज मरजाद मोटरी सी डार दी।' कवि० ७.१८३ Vडार, डारइ, ई : (सं० दालयति, द्राडयति-दल विशरणे, द्राट विशरणे>प्रा. डालइ) आ०प्रए । डालता है, फेंकता है, गिराता है । 'डारइ परसु परिध पाषाना।' मा० ६.७३.२; ८५ छं० डारउ : आ-आशंङ का, संभावना-प्रए० (सं० द्राडयतु>प्रा० डालउ)। गिराये, डाले । 'जाचत जल पबि पाहन डारउ ।' मा० २.२०५.३ डारत : वक०० (सं० द्राडयत्>प्रा० डालंत)। गिराता-ते । 'डारत कुलिस कठोर ।' दो० २८३ डारन : डार+संब० । डालों, शाखाओं (पर)। 'अवनि कुरंग बिहग द्रुम डारन ।' गी० २.१४.२ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392 तुलसी शब्द-कोश डारहि, ही : आ.प्रब० (सं० द्राडयन्ति>प्रा० डालंति>अ० डालहिं) । गिराते हैं, फेंकते हैं । 'जहँ तह अवनि पटकि भट डारहिं ।' मा० ६.८१.६, ३.२० छं०३ डारा : भूक०० । डाला, फेंका । 'अति रिस मेघनाद पर डारा।' मा० ६.५१.२ डारि : (१) पूक० । डाल (कर)। 'दीन्हि मुद्रिका डारि तब ।' मा० ५.१२ (२) डारु । तू डाल । 'रोम रोम छबि निहारि आलि वारि फेरि डारि ।' गी० २.१७.१ डारिए : आ०कवा०प्रए । डालिए, डाला जाय । 'नीच को डारिए मारि ।' विन० २५८.४ डारिबी : भकृ०स्त्री० । डालनी, छोड़ देनी ।' निपटहि डारिबी न बिसारि ।' गी० ७.२६.३ डारियत : वक०कवापु । डाला जाता । 'रोगसिंधु क्यों न डारियत गाय खुर के।' हनु० ४३ डारिये : डारिए। डारिहउँ : आ०भ० उए । डालूंगा । 'बैगि सो मैं डारिहउँ उखारी।' मा० १.१२६.५ डारी : (१) डारि । 'मम दिसि देखि दीन्ह पट डारी ।' मा० ४.५.४ (२) भूक० . स्त्री० । डाल दी । 'ठगौरी डारी।' गी० १.१००.१ डारु : आ०-आज्ञा-मए० (सं० द्राडय>प्रा० डाल>अ० डालि, डालु) । फेंक, छोड़ दे । 'लकुट कर तें डारु ।' क० १४ डारे : (१) भूकृ.पु०ब० । डाले, फेंके । 'कोटिन्ह आयुध रावन डारे ।' मा० ६.८३.४ (२) डारइ । (३) डाल देवे । 'रुचिर काँचमनि देखि मूढ़ ज्यों कर तल तें चिंतामनि डारे ।' गी० २.२.३ डारेन्हि : आ०-भूकृ००+प्रब० । उन्होंने डाला-डाले । 'डारेन्हि ता पर एकहि बारा ।' मा० ६.१२.२ डारेसि : आ०-भूकृ.पु+प्रए। उसने डाला-डाले । जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि ।' मा० ६.६५.६ डारो : डार्यो । 'डेल सो डारो।' कृ० ३४ डारौं : आ०उए । डालूं, डालता हूँ, डाल सकता हूँ। 'काचे घट जिमि डारौं फोरी ।' मा० १.२५३.५ डार्यो : भूक०पु०कए । डाला, फेंक दिया । दो० ३०३ डावर : सं०० । पुत्र, लड़का । डावरे : डावर ने, लड़के ने । 'सोई बांह गही जो गही समीर डावरे ।' हनु० ३७ डांवाडोल : वि. (सं० दाम+दोल>प्रा० दामाडोल>अ. दावाँडोल ?)। (रस्सी में पड़े झूले के समान) कम्पित, विचलित । 'कालु लोकपाल मेरे डर डावांडोल हैं।' कवि० ५.२१ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसा शब्द-कोश डासत : वकु०पु ं० (सं० दाशयत् > प्रा० डासंत) । बिछाता, बिछाते । 'डासत हो गई बीति निसा सब ।' विन० २४५.४ 393 डासन : सं०पु० (सं० दाशन > प्रा० डासण ) । बिछोना । 'लोभइ ओढ़न लोभइ डासन ।' मा० ७.४०.१ डासि : पूकृ० । बिछाकर । 'ए महि परहिं डासि कुस पाता ।' मा० २.११६.७ डासी : डासि । मा० २.६७.५ डिंडिम : (१) । सं०पु० । ध्वनि विशेष । ( २ ) डिमडि ध्वनि से बजने वाला वाद्यविशेष (सं० ) । 'तांडवित नृत्य पर डमरु डिंडिम प्रवर ।' विन० १०.५ डिंडिमीं : सं ० स्त्री०ब० । डिडिमियाँ, डौंड़ी बाजे | मा० १.३४४.२ डिंब : सं०पु० (सं० ) । शिशु । ' अनुकूल अंबक अंब ज्यों निज डिब हित सनमानि के ।' गी० ३.१७.३ डिंभ : सं०पु० (सं०) डिंब | कवि० ७.८१ डिगति : डगति । 'डिगति उबि अति गुबि ।' कवि० १.११ डिठि : डीठि । नजर (दृष्टि दोष ) । 'डिठि मुठि निठुर नसाइहौं ।' गी० १.२१.२ डिठारो : वि०पु०कए० । दृष्टि वाला, नेत्रयुक्त । 'अंध कहें दुख पाइहै, fsfoआरो केहि डीठि ।' दो० ४८१ डीठ : भू०पु० (सं० दृष्ट > प्रा० दिट्ठ) । देखा, देखे । 'दई पीठ बिनु डीट मैं । ' विन० १४६.४ shor : डी 1 देखा । 'पितु बैभव बिलास मैं डीठा ।' मा० २.६८.१ डीठि : सं० स्त्री० (सं० दृष्टि प्रा० दिट्ठि) । ' नेत्र नेत्र ज्योति । 'लोचन सजल डीठि भइ थोरी ।' मा० २.१४५.३ डोठी : डीठि । मा० १.२३१७ डोठे : भूकृ०पु ं०ब० । देखे । 'अनुभवे सुने अरु डीठे ।' विन० १६६.२ डेरा : सं०पु० (सं० द्वार > प्रा० देर ? ) । शिविर, पड़ाव (मुकाम) । 'राम करहु तिन्ह के उर डेरा ।' मा० २.१३१.८ (२) शिविर के लोग तथा सामान । 'डेरा चले लवाइ ।' मा० २.१६७ / डेरा डेराइ, ई : (सं० दरायते > प्रा० डराइ - भय करना, डरना) आ०प्र० । (१) डरता-ती है । 'अभय होइ जो तुम्हहि डेराई ।' मा० १.२८४.५ (२) डरे, डर जाय । 'जब सिय कानन देखि डेराई ।' मा० २.८२.३ डेराऊँ : आ० उए० । डरता हूं । 'तुम्ह पूछहु मैं कहत डेराऊँ मा० २.१७.३ डेरात : वकृ०पु० । डरता । ' तेसो कपि कौतुकी डेरात ढीले गात के के ।' कवि० ५.३ डेराति, ती : वकृ० स्त्री० । डर जाती । 'चित्र लिखित कपि देखि डेराती ।' मा० २.६०.४ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394 तुलसी शब्द-कोश डेराना : भू००पु । डर गया। 'मुनि गति देखि सुरेस डेराना।' मा० १.१२५.५ डेराने : भूक०० ब० । डर गये । “उग्र बचन सुनि सकल डेराने ।' मा० ६.४२.६ डेरावहिं : आ० प्रब० । डराते हैं, भय दिखाते हैं, भयभीत करते हैं। 'कपि लीला करि तिन्हहि डेरावहिं।' मा० ६.४४.५ डेराहि, हीं : आ०प्रब० । डरते हैं । भय खाते हैं। 'कुटिल काक इव सबहि डेराहीं।' मा० १.१२५.८ डेराहु, हू : आ० मब० । डरो, भयभीत होओ। 'जनि हृदय डेराहू ।' मा० ६.३२.६ डेरे : 'डेरा' का रूपान्तर । शिविर, रुकाव, आश्रय (द्वार)। 'दीन बित्तहीन हौं बिकल बिन डेरे ।' विन० २१०.४ डेरो : डेरा+कए । निवास । 'हृदय करहु तुम डेरो।' विन० १४३.८ डेल : सं० । ढेला, मिट्टी या पत्थर का लोंदा (निरर्थक वस्तु)। 'नाहिन रास रसिक रम चाख्यो ता तें डेल सो डारो।' कृ० ३४ डेवढ़ : वि० (सं० द्वयर्ध>प्रा० देवड्ढ) । ड्योढ़ा, ड्योढ़े। 'बिधि तें डेवढ़ लोचन लाहू ।' मा० १.३१७.५ डोंगर : सं०० (प्रा० डुंगर= डोंगर) । पर्वत, पहाड़ी 'चित्र विचित्र बिबिध मृग डोलत डोंगर डांग ।' गी० २.४७.१२ डोरि : डोरी रस्सी । 'लसति पाटमय डोरि ।' मा० १.२८८ डोरिआए : भूकृ००ब० । डोरी में बाँधे हुए। 'कोतक संग जाहिं डोरिआए।' मा० २.३०३.४ डोरी : सं०स्त्री० (सं० दोरी>प्रा० डोरी) । रस्सी। 'मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ।' मा० ५.४८.५ डोल : (१) डोलइ । 'चिक्करहिं दिग्गज डोल महि ।' मा० १.२६१ छं० (२) हिलती थी । 'तब बल नाथ डोल नित धरनी।' मा० ६.१०४.५ /डोल डोलइ : (सं० दोलते-दुल उत्क्षेपे>प्रा० डोल्लइ-हिलना, आन्दोलित होना, डगमगाना, चलित होना) आ०प्रए । आन्दोलित होता-ती है। 'अचल सुता मन अचल बयारि कि डोलइ।' पा०म०५८ डोलत : वकृ०० । (१) हिलते, घूमते, भटकते । 'दीन मलीन छीन तनु डोलत ।' कृ० ३५ (२) काँपते (में), आन्दोलित होते (समय) । 'डोलत धरनि सभासद खसे ।' मा० ६.३२.४ डोलति : वकृस्त्री० । हिलती, काँपती। 'चलत दसानन डोलति अवनी ।' मा० १.१८२५ डोलहिं : आ०प्रब० (सं० दोलन्ते>प्रा. डोल्लंति>अ० डोल्लहिं)। (१) विचल Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 395. होते हैं । 'समदम नियम नीति नहि डोलहिं ।' मा० ७.३८.८ (२) चलते-फिरते हैं (अचेतनवत् गति लेते हैं)। 'सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं ।' मा० २.२२५.४ डोलहि : आ०मए० । तू डोल, भटकता रह । “जनि डीलहि लोलुप कुकुरु ज्यों।" कवि० ७.३० डोला : (१) भू००० । कांपा, हिला, चलित हुआ। 'पीपर पात सरिस मनु डोला।' मा० २.४५.३ (२) स०पु० (सं० दोल>प्रा० डोल=डोलअ)। झूला, पालकी । 'हमहि दिहल करि कुटिल करमचंद मंद मोल बिनु डोला रे। विन० १८९.२ डोलावा : भकृ०० (सं० दोलित>प्रा० डोल्लाविअ) । हिलाया, विचल किया। 'काहि न सोक समीर डोलावा ।' मा० ७.७१.३ डोलावौं : आ०उए । चलाता हूं। 'जहं तहँ चितहि डोलावौं ।' विन० २३२.२ डोलावौं गी : आ०भ०स्त्री०उए । 'हिलाऊँगी । 'अम भए बाउ डोलावोंगी।' गी० २.६.२ डोलिहैं : आ० भ०प्रब० । हिलेंगे, काँप जायंगे । 'भूलिहैं दस दिसा सीस पुनि डोलि हैं ।' कवि० ६.२० डोली : (१) सं०स्त्री० (सं० दोला>अ० डोली)। पालकी। 'जाइ समीप राखि निज डोली।' मा० २.१८८.४ (२) भूकृ०स्त्री० । विचल हो गयी । 'सो मति डोली।' मा० १.१६२ छं० (३) हिल गयी । 'डोली भूमि गिरत दसकंधर ।' मा० ६.१०३.५ डोले : भूकृ०० ब० । (१) हिले, कांप उठे । 'डगमगानि महि दिग्गज डोले ।' मा० १.२५४.१ (२) विचलित (च्युत) हुए । 'जे सपनेहुँ निज धरम न डोले ।' मा० २.१८६.६ डोल : डोलइ । कवि० ७.१४८ डोल्यो : भूकृ०० कए । हिला । 'परम धीर नहिं डोल्यो।' गी० ३.१३.३ डोल्लाह : डोलहिं । भटक रहे हैं, घूम-घाम रहे हैं । 'कोटिन्ह रुंड मुड बिन ___ डोल्लहिं ।' मा० ६.८८.१० डौआ : सं०० । बड़ा चमचा । 'लकड़ी डौआ करछुली।' दो० ५२६ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 396 तुलसी शब्द-कोश ढंढोरी : भूकृ०स्त्री० (सं० ढुण्ढिता=गवेषिता>प्रा० ढंढोली)। ढंढ़ी, खोजी । 'सारद उपमा सकल ढंढोरी।' मा० १.३४६.७ ढंग : सं०पु । रीति, शैली, प्रकार । गी० १.२.१४ ढकनि : ढका+संब० । धक्कों (से) । 'ढकनि ढकेलि ।' कवि० ५.८ तुका : धक्के से । 'ढका ढकेलि ढाहि गो।' कवि० ६.२३ ढका : (१) सं० । धक्का । 'नेकु ढका दैहैं हैं ढेलन की ढेरी सी।' कवि० ६.१० (२) घेरा । 'बासर ढासनि के ढका।' दो० २३६ ढकेलि : पूकृ० धकेल कर, धक्का देकर । 'ढकनि ढकेलि पेलि सचिव चले ले ठेलि।' कवि० ५.८ ढकेल्यो : भूक.पु०कए० । धक्का देकर गिराया । कवि० ७.७६ ढनमनी : भू०कृ०स्त्री० । ढुलमुला गई, लुढ़क गयी, अस्त-व्यस्त होकर पसर गयी। _ 'रुधि बमत धरनी ढनमनी ।' मा० ५.४.४ ढरके : ढलने पर । 'गए कोस दुइ दिनकर ढरकें।' मा० २.२२६.१ ढरत : वकृ०पू० । ढल रहा । (१) सांचे में ढलता। 'जोबन नव ढरत ढार ।' गी० २.४३.३ (२) अनुकूल प्रवाह में चल रहा । 'राम सब को सुढर ढरत ।' विन० १३४.६ (३) मय ढलता । दरनि : सं०स्त्री० । ढलने की क्रिया । बहाव । (१) चाल, शैली, रीति । 'तुलसी ढरेंगे राम आपनी ढरनि ।' विन० १८४.५ (२) ढर्रा, मार्ग, स्वभाव । 'तो मथुराहिं महा महिमा लहि सकल ढरनि ढरिबे हो ।' कृ० ३६ (यहाँ उचित मार्ग से तात्पर्य है) ढहि, ही : आ०प्रब० । ढलते हैं, चलाए जाते हैं। 'ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं।' मा० १.३५०.४ ।। ढरिए, ये : आ० भावा० । ढलिए, गति लीजिए, चलिए । 'ढरनि आपनी ढरिए ।' विन० २७१.१ ढरिबे : भूकृ०० । ढलने, प्रवाहित होने, चलने । 'सकल ढरनि ढरिबे हो ।' कृ० ३६ ढरिहै : आ०भ०ए० । ढलकेगा, बहेगा । 'नीर नयननि ढरिहै ।' विन० २६८.४ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 397 ढरे : भूकृ.पुब० । ढले, चले, पड़े । 'पासे सुढर ढरे री।' गी० १.७६.३ ढरेंगे : आ०भ००प्रब० । ढलेंगे, गति लेंगे। 'ढरेंगे राम आपनी ढरनि ।' विन०. १८४.५ ढहा : भूक०० । ध्वस्त हो गया , 'राज समाज ढहा है ।' गी० २.६४.२ ढहाए : भूकृ००ब० । गिराये । 'गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए ।' मा० ६.४६.१० ढहावहिं, हीं : आ०प्रब० । (१) ध्वस्त करते हैं। 'सुभट भटन्ह ढहावहीं।' मा० ६.८८ छं० (२) गिराते हैं । 'निसिचर सिखर समूह ढहावहिं ।' मा० ६.४१.८ ढहावा : भूकृ०० । ध्वस्त कर धराशायी किया। 'भवन ढहावा ।' मा० ६.४४.३ ढहे : भूकृ०० ब० । ध्वस्त हुए । 'ढहे समूल बिसाल तरु।' रा०प्र० ६.३.५ ढांकी : पूकृ० । ढाँक कर, आवृत कर । मा० २.११७.६ ढाके : भूक०पुब० । (प्रा. ढक्किय=ढंकिय) । आवत किये। 'भीमता निरखि ____ कर नयन ढांके ।' कवि० ६.४५ ढाबर : वि.पु. । गंदला, कँदैला, मलिन । 'भूमि परत भा ढाबर पानी।' मा० ४.१४.६ ढार : सं०स्त्री० । (१) ढाल, ढलकाव, बहाव । (२) मदिरा ढालने की क्रिया। (३) साँध लेने की क्रिया । 'जोबन नव ढरत ढार दुत्त मत्त मृग मराल । गी० २.४३.३ (नये सांचे में यौबन-मदिरा ढल रही है जिससे मृग आदि मतवाले /ढार, ढारइ : (सं० ध्राडययि-ध्राड्ढ विशरणे>प्रा० ढालइ-ढालना, बहाना, उँडेलना, प्रतिमा अादि को सांचा देना) आ.प्रए । ढालता-ती है । 'नारि चरित करि ढा रइ आँसू ।' मा० २.१३.६ (मन्थरा आँसू साँचे में मानों ढाल कर बहा रही है जैसे कोई स्त्री मदिरा ढलका रही हो) ढारत : वकृ०० । ढलकाता-ते ; बहाते । 'दूध दह्यो माखन ढारत है।' कृ०६ ढारति : वक०स्त्री० । ढालती, बहाती। 'बरत बारि उर ऊपर ढारति ।' गी० ५.१६.२ ढारि : (१) पूक० । उँडेल (कर) । 'ऊपर ढारि देहिं बहु बालू ।' मा० ६.८१.७ (२) प्रतिपा गढ़ कर । 'सोभा को साँचो सँवारि, रूप जातरूप ढारि, नारि बिरचो बिरंचि, संग सोही।' गी० २.२०.३ (३) आ० - आज्ञा-मए । तू ढाल, ढलका । 'जोगि जन मुनि मंडली में जाइ रीती ढारि ।' कृ० ५३ ढारी : भूक०स्त्री०ब० । ढाली गईं, ढाल कर बनाई गई । 'नाना रंग रुचिर गच ढारी ।' मा० ७.२७.३ ढारी : भूक०स्त्री०ए० । ढाली गयी। 'अति बिस्तार चारु गच ढारी।' मा० १.२२४.२ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 तुलसी शब्द-कोश ढारो : ढार्यो । 'मैं ढारो बिगारो तिहारो कहा।' कवि० ७.१०१ ढार्यो : भूक०पु०कए० । ढाल दिया, ढलका कर फेंक दिया, हानि कर डाली। 'खायो के खवायो के बिगार्यो ढार्यो लरिकारी ।' कृ० १६ ढसनि : ढास+संब० । ढासों, ठगों, लुटेरों। 'बासर ढासनि के ढका, रजनी चहुंदिसि चोर ।' दो० २३६ ढाहत : वपु । ढहाता-ते, ध्वस्त कर गिराता-ते । मा० २.३४.४ ढाहि : पूक० । ढहाकर, ध्वस्त-धराशायी करके । 'बंक गढ़ लंक सो ढकां ढकेलि ___ ढाहि गो।' कवि० ६.२३ ढाहिबे : भकृ०० । ढहाने, ध्वस्त करने । कवि० ६.२६ ढाहे : भूक.पु. ० । ध्वस्त कर गिरा दिये । 'ढाहे महीधर ।' मा० ६.४६ छं. ढिग : क्रि०वि० । समीप में । 'अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी।' मा० ६.४६.३ ढिठाई : ढिठाई से, धृष्टता करने से। 'सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाईं।' मा० २.२२७.७ ढिठाई : सं-स्त्री० । धृष्टता । 'सो मैं सब बिधि की न्हि ढिठाई।' मा० २.२९८.८ ढोठ : वि.पु. (सं० धृष्ट>प्रा० धिट्ट) । हठी, दुराग्रही, अशिष्ट । निर्भय । मा० २.२२७.७ ढीठु : ढीठ+कए० । अद्वितीय धृष्ट । 'दिहुं मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू ।' मा० २.३१४.६ ढोठे : ढीठ+ब० । धृष्टतापूर्ण । 'बचन कहत अति ढीठे ।' विन० १६९.३ ढीठो : सं०स्त्री० । धृष्टता भी। 'प्रभु सों मैं ढीठो बहुत दई है।' गी० २.७८.१ ढोठ्यो : ढीठो । 'बहुत हौं ढीठ्यो कई ।' मा० १.३३६ छं०३ ढोल : (१) वि.पु० (सं० शिथिल>प्रा. सिढिल्ल=ढिल्ल) । सुस्त । 'पील उद्धरन सील सिंधु ढील देखियतु ।' विन० २४८.४ (२) सं-स्त्री० । शिथिलता। 'मेरी बार मेरे ही अभाग नाथ ढील की। कवि० ७.१८ ढीलि : (१) ढील । शिथिलता। (२) पूक० । शिथिल करके, ढीला करने पर। ___'ढीलि दिएँ गिरि परत महि ।' दो० ४०१ ढीली : वि०स्त्री० । शिथिल । 'ढीली करि दांवरी बावरी।' क० १६ ढोले : वि०पु०ब० । शिथिल । 'डेरात ढीले गात के के।' कवि० ५.३ ढेक : सं०पु । पक्षिविशेष । मा० ३.३८.५ ढेर : सं०० ! राशि । कवि० ७.४६ ढेरी : ढेर । मा० २.११४.५ ढेरु : ढेर+कए । एकीभूत राशि । 'सुषमा को ढेरु कैधौं ।' कवि० ७.१३६ ढेरै : ढेरहि । ढेर को । 'रंक लुटिबे को मानो मनिग न ढेरै ।' गी० ५.२७३ ढेलन : ढेला+संब० । ढेलों, मृत्पिण्डों। 'ढेलन की ढेरी सी।' कवि ६.१० Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 399 ढेहैं : आ०भ० प्रब० । ढहा देंगे, ध्वस्त कर भूमिसात् करेंगे । कवि० ६.१० ढोटनि : ढोटा+संब० । बालकों । 'जस रावरो लाभ ढोटनि हूं।' गी० १.५०.१ ढोटा : सं०पु । बालक । 'तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा ।' मा० १.३११.३ ढोटो : ढोटा+कए० । यह एक बालक । 'कोसिक, छोटो से ढोटो है काको।' ___कवि० १.२० ढोल : सं०० (सं०) । वाद्य विशेष । मा० १.२६३.१ ढोलू : ढोल+कए । 'कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू ।' मा० २.१६२.३ ढोव : सं०पु० (सं० ढोक>प्रा. ढोव=भार)। उपहार-संभार । 'लै लै ढोब प्रजा प्रमुदित चले।' गी० १.२.११ तबोलिनि : सं०स्त्री० (सं० ताम्बलिनी>प्रा. तंबोलिणी>अ० तंबोलिणि) । ताम्बल व्यवसायी स्त्री। रान०६ त : (१) अव्यय (सं० तु) । तो । 'नयन मूदि न त चलिअ पराई। मा० १.६४.४ (२) (सं० तदा, तर्हि) तब, तो। 'जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि ।' मा० १.१०८ 'कहहु न हमहि न खोरि ।' मा० १.१६५ (३) (सं० त>प्रा० त) सर्वनाम । तिन्ह, ता, ते आदि का मूलरूप तंतु : सं०० (सं०) तागा, सूत्र । विन० ५४.४ तई : भूक०स्त्री० (सं० तप्ता>प्रा तविई) । तची हुई । 'काल के प्रताप कासी तिहुं ताप तई है।' कवि० ७.१७५ तउ, ऊ : अव्यय (सं० तदपि>प्रा० तयि) तो भी, तथापि । 'तउ न तजा तनु प्रान अभागें ।' मा० २.१६६.६ 'तऊ न उबरन पावहिं ।' कृ० ४ तए : भूक.पु०ब० (सं० तप्त>प्रा० तविय) । तचे हुए । 'सब अँग परिताप तए हैं।' गी० ६.५.१ तक : सं०० (सं० तर्क>प्रा० तक्क) । ताकने की क्रिया। 'दोउ लोचन दिन अरु रैनि रहत एकहि तक ।' गी० ५.६.२ (एकहि तक =एक टक ही)। Vतक, तकइ : (सं० तर्कयति.>प्रा० तक्कइ–ताकना, टकटकी लगाना, लक्ष्य साधना, घूरना, लक्षित करना)। प्रा० प्रए० । ताकता-ती है । 'जिमि गएँ तकइ जेउँ केहि भांति ।' मा० २.१३.४ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 तुलसी शब्द-कोश तकत : वकृ• (सं० तर्कप > तात)। ताकता-ते। 'तरनि तकत उलूक ___ज्यों।' विन० २२२.२ तकहि, हीं : आ०प्रब० (सं० तर्कयन्ति >प्रा० तक्कंति>अ० तक्कहिं) । ताकते हैं । भूप बचन सुनि इत उत तकहीं।' मा० १.२६७.८ तकहु : आ०मब० (सं० तर्कयत>प्रा० तक्कह>अ० तक्कहु) । ताको, देखो, खोजो। _ 'तकहु गिरि कंदर ।' मा० ६६६.७ तकि : पूकृ० । ताक कर (लक्ष्य साध कर) । 'तकि तकि तीर महीप चलावा ।' मा० १.१५६.३ तकिया : सं०स्त्री० (फा० तकिय:-आराम की जगह, सिरहाने रखने की चीज)। उपधान, आश्रय । 'मोसे दीन दूबरे को तकिया तिहारिये ।' हनु० २२ तक : आ०.आज्ञा-मए० (सं० तर्कय>प्रा० तक्क>अ० तक्कु)। तू देख, खोज, लक्ष्य कर । 'तुलसी तक ताहि सरन ।' विन० १३३.५ तके : भूकृ०पुब० (सं० तकित>प्रा० तक्किय) । खोजे, लक्ष्य कर चले । 'देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा ।' मा० १.१८२.६ ।। तकेउ : भूकृ०पु०कए । तोका, लक्ष्य किया । 'सियहि बिलोकि तकेउ धन कैसें ।' मा० १.२५६.८ तकै : तकहिं । 'बनिता सुत भौंह तक सब वै ।' कवि० ७.४१० तक : तकइ । 'तक नीचु जो मीचु साधु की।' विन० १३७.२ तक्यो : तके उ । 'जन तक्यो तड़ाग तृषित गज ।' गी० २.६८.३ तग्य, रा : वि० (सं० तज्ज) । उस विषय का ज्ञाता, तत्त्व द्रष्टा । 'सोइ सर्बग्य तग्य सोइ पंडित ।' मा० ७.४६.६ तज : तजु । तू छोड़ दे । 'ती तज बिषय बिकार ।' विन० २०५.१ तिज, तजइ, ई : (सं० त्यजति>प्रा० तजइ-छोड़ना) आ०प्रए० । छोड़ता है। 'तदपि न मृग मग तजइ नरेसू ।' मा० १.१५७.६ (२) छोड़ सकता है। परंतु पन रा उ न तजई ।' मा० १.२२२.४ तजउ : आ० उए । छोड़ता-ती हूं; छोड़ सकता-ती हूं। 'तजउँ न नारद कर उपदेसू ।' मा० १.८१.६ तजउ : आ०-आज्ञा, संभावना-प्रए । वह छोड़ दे (उसे छोड़ देना चाहिए)। 'सो पर नारि..... तजउ ।' मा० ५.३८.६ तजत : वकृ०० । छोड़ता, ते । 'तजत बमन जिमि जन बड़ भागी।' मा० २.३२४ तजन : भकृ० । छोड़ना, छोड़ने को। 'तजन चहत सुचि स्वामि सनेही ।' मा० २.६४.३ तजब : भकृ०० । छोड़ना (चाहिए) । 'तजब छोभु ।' मा० २.६६.५ तहि, हीं : आ०प्रब० । छोड़ते हैं । 'जो दुखु पाइ तजहिं तनु प्राना।' मा० २.८१.७ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 401 तजहि : आ०-प्रार्थना, आज्ञा-मए । तू छोड़ दे। 'सुदरि तजहि संसय महा।' मा० ६.६६ छं० तजहु : आ०मब० । (१) छोड़ो। 'संसय तजहु गिरीस ।' मा० १.७० (२) छोड़ देते हो । 'तुम्ह तजहु त काह बसाइ ।' मा० २.७१ तजा : भूकृ०० । छोड़ा । 'राज तजा सो दूषन काहीं।' मा० १.११०.६ तजि : पूक० । छोड़कर । 'तब तजि दोष गुनहिं मनु राता।' मा० १.७.१ तजिअ, ए, तजिय, ये : आ०-कवा०प्रए । छोड़िए, छोड़ दिया जाय, छोड़ना चाहिए । 'नीति न तजिअ राजपदु पाएँ।' मा० २.१५२.३ 'तुलसी तजिय कुचालि ।' कृ० ४६ 'तजिये ताहि कोटि बैरी सम ।' विन० १७४.१ तजिहउँ : आ०भ०उए । छोड़गा-गी। 'तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू ।' मा० १.६४.७ तजी : भूक०स्त्री० । छोड़ी। 'तजी समाधि संभु अबिनासी ।' मा० २.६०.२ तनु : आ०-आज्ञा-मए । तू छोड़ । 'तजु संसय भजु रामपद ।' मा० १.११५ तजें : छोड़ने से, पर । 'प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ ।' मा० ३.२३.४ तजे : भूक००ब० । छोड़ दिये । 'निमि तजे दिगचल ।' मा० १.२३०.४ तजेउ' : आ०-भक००+उए । मैंने छोड़ा । 'सो तनु तजेउ।' मा० ७.१०६ ख तजेउ : भूक००कए । छोड़ा, छोड़ गया। 'कोउ न मान मद तजेउ निबेही ।' मा० ७.७१.१ तजेहि : छोड़ने से-में-पर ही । 'हरि बियोग तनु तजेहि परम सुख ।' कृ० ५९ तजेह : आ० (१) भूक००+मब० । तुमने छोड़ा-छोड़े । 'मम हित लागि तजेह पितु माता ।' मा० ६.६१.४ (२) भवि०+प्रार्थना+मब० । तुम छोड़ना । _ 'सेवक जानि तजेहु जानि तजेहु जनि नेहू ।' मा० ३.६.३ तजैगे : आ०भ०पू०प्रब० । छोड़ देंगे । 'अंतहु तोहि तजैगे पामर ।' विन० १९८.३ तज : तजइ। (१) छोड़ता है । 'मीन जल बिनु तलफि तनु त ।' कृ० ५४ (२) छोड़े, छोड़ सके । 'चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुं तजे मति मोरि ।' मा० ३.४ (३) तजहि । तू छोड़ता है । 'तू न तजै अब ही ते ।' विन० १६८.३ तजौं : तजउँ। छोड़ दूं। 'भागो तुरत तजौं यह सैला।' मा० ४.१.५ तज्ञ : तग्य । विन० १२.५ तज्यो : तजेउ । 'हौं तज्यो लखन सो भ्राता।' गी० ६.७.२ तट : सं०पू० (सं०) । तीर, किनारा । मा० ३.२३.७ तटन्हि : तट+संब० । तटों (पर)। 'डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं।' मा० ७२३.६ तटिनी : सं०स्त्री० (सं.)। नदी । कृ० २० तड़ागः गा : सं०० (सं० तटाक =तडाग) । ताल, सरोवर । मा० ७.३१.७ ७.२३.१० Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 तुलसी शब्दकोश तड़ागु : तड़ाग+कए० । वह एक सरोवर । 'बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे ।' मा० १.२२७ तड़ित : सं०स्त्री० (सं० तडित्) । बिजली । मा० १.१४७ तत्, द् : सर्वनाम (सं०) । वह, उसे । मा० ७.१३० श्लो० १ ततकाला : क्रि०वि० (सं० तत्काल) । उसी समय, तत्क्षण, तुरन्त । 'मज्जन फलु पेखिअ ततकाला।' मा० १.३.१ तत्पर : वि० (सं०) । उसी एक में संलग्न । मा० ४ श्लो० १ तत्र : क्रि०वि० अव्यय (सं.) । वहाँ । 'यत्र हरि तत्र नहि भेदमाया ।' विन० ४७.५ तत्रैव : (तत्र+एव-सं०) । वहीं, वहाँ ही। विन० ५७.५ तत्त्व : सं०० (सं.)। (१) निष्कर्ष, सार, मर्म । 'तत्त्व प्रेम कर मम अरु तोर ।' मा० ५.१५ (२) रहस्य, अन्तनिहित वस्तु स्वरूप । 'गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं ।' मा० १.११०.२ (३) सांख्य भाव जो सर्वान्तर्यामी हो । 'वेद तत्त्व नृप तव सुत चारी ।' मा० १.१९८.१ (५) वैष्णव दर्शन में तीस तत्त्व-दे० तत्त्व विभाग। तत्त्वदरसी : वि०० (सं० तत्त्वशिन्) । तत्त्व द्रष्टा, मर्मज्ञ, विश्व रहस्य का ज्ञाता, ब्रह्मज्ञानी । विन० ४७.६ तत्त्वाविभाग : सांख्यशास्त्र के २५ तत्त्वों का वर्गीकरण-प्रथमतः प्रकृति और पुरुष (चेतन तत्त्व); फिर प्रकृति का परिणाम महतत्त्व (बुद्धि); उसका विकार अहंकार । प्रकृति और पुरुष अव्यक्त तत्त्व हैं । प्रकृति के विकारों से व्यक्तत्त्व बनते हैं । जो २३ हैं जिनमें से दो ऊपर आ चुके हैं। अहंकार के सात्त्विक (वैकृत), राजस (तेजस) और तामस (भूतादि) भेद होते हैं जिनसे आगे के २१ परिणाम बनते हैं - राजस या तैजस अहंकार शेष दोनों के साथ रहता है । सात्त्विक+राजस से ११ तत्त्वों का परिणाम होता है-मन, ज्ञानेन्द्रिय पञ्चक तथा कर्मेन्द्रियपञ्चक । तामस+तैजस अहंकार से पांच तन्मात्र (शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गन्ध) परिणत होते हैं जिन्हें सूक्ष्मभूत कहा गया है। इन्हीं सूक्ष्म भूतों का परिणाम स्थूल महाभूत हैं-आकाश, तेज, जल, वायु और पृथ्वी । 'बरनहिं तत्त्वबिभाग ' मा० १४४ वैष्णव दर्शन में ईश्वर काल, कर्म, गुण और स्वभाव मिलाकर ३० तत्त्व हैं । मा० ७.२१ तत्त्वमय : वि० (सं०) तत्त्व स्वरूप, निगूढ रहस्यरूप (ब्रह्मस्वरूप) । 'जोगिन्ह परम तत्त्वमय भासा ।' मा० १.२४२.४ तथा : क्रि०वि० अव्यय (सं०) । उस प्रकार, वैसे । मा० १.११४.४ तथापि : क्रि०वि० अव्यय (सं.)। उस प्रकार से भी, फिर भी, वैसे भी । मा० १.१६४.८ तदपि : (तद्+अपि-सं०) तो भी, तथापि । मा० १.६.६ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 403 तद्भात : उसका भाई । विन० ५८.३ तद्यपि : तदपि (यद्यपि के सादृश्य पर बनाया हुआ शब्द) । ‘परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास ।' मा० ६.१० तन : (१) तनु ('फा०)। शरीर । मा० १.१.३ (२) अव्यय । ओर, प्रति । 'चितइ जानकी लखन तन।' मा० २.१००। तनक : वि० (सं० तृणक) । स्वल्प, तुच्छ । 'बातहू केतिक तिन तुलसी तनक की।' कवि० ७.२०१ तनको : तनक भी, थोड़ा-सा भी। 'जाग न बिराग त्याग तीरथ न तनको।' कवि० ७.७७ तनयँ : तनय ने, पुत्र ने । 'तेहि पर वांधेउँ तनयँ तुम्हारे ।' मा० ५.२२.५ तनय : सं०पू० (सं) । पुत्र । मा० १.८८.१ तमरुह : तनोरुह (सं० तनुरुह) । रोम, रोएँ । गी० १.१.२ तनाए : भूकृ.पुं०ब० (सं० तानित>प्रा० तणाविय)। फैलाए, विस्तार में लगवाये । 'धुजा बितान तनाए।' गी० १.६.६ तनियां : सं०स्त्री० (सं० तनी)। (१) परिधान कसने-बांधने का सूत्र, कमरबंद आदि । 'कटि किंकिनी कलित पीत पट तनियां ।' गी० १.३४.२ (२) करधनी, कटिसूत्र । 'तनियां ललित कटि ।' कृ० २ तनी : भक०स्त्री० । विस्तृत की, फैलायी। गी० ७.५.५ तनु : तन+कए। शरीर । 'प्रिय तनु तन इव परिहारेउ ।' मा० १.१६ (२) सं०स्त्री० (सं.)। शरीर । 'बिष्नु जो सुर हित नर तनु धारी।' मा० तनुजा : संस्त्री० (सं०) । पुत्री। मा० १.१७८.२ तनूज : सं०पु० (सं.)। पुत्र । तनूजो : पुत्र भी । पाल्यो ज्यों काहुं न बाल तनूजो।' कवि० ७.५ (तनू = शरीर " से जना हुआ भी) तने : तनय । पुत्र । 'भए राजहँस बायस तन ।' गी० ५.४०.३ तनोतु : आ०-प्रार्थना-प्रए० (सं०) । करे, फैलाए । मा० ३.११.१६ तनोरुह : सं०पु० (सं० तनूरुह, तनुरुह) । रोम । मा० ७.५.३ तप : (१) तपइ । 'रबि तप जेतनेहि काज।' मा० ७.२३ (२) सं०० (सं० तपस्) । तपस्या, साधना । 'भृगुपति गए बनहि तप हेतू ।' मा० १.२८५.७ (३) (सं० तप) ग्रीष्म । 'बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा ।' मा० ७.६०.५ (तपतपस्या+ग्रीष्म) /तप तपइ : (१) (सं० तपति-तप दाहे>प्रा० तप्पइ-जलाना) (२) सं० तपति, तप्यते-तप सन्तापे>प्रा० तप्पइ-तचना, सन्तप्त होना, जलना) आ०प्रए । जलता है, तचता है। 'तपइ अवां इव उर अधिकाई ।' मा० १.५८.४ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 तुलसी शब्द-कोश तपत : (१) व कृ०पु । जलाता, दाहक तेज फेंकता । 'काल करम गुन सुभाउ सब के सीस तपत ।' विन० १३०.३ (२) तचता, जलता । 'तुलसी तपत तिहु ताप जग ।' गी० १.५.६ (३) (सं० तप्त)। तचा हुआ, गर्भ, तपाया हुआ। 'बारिद तपत तेल जनु बरिसा।' मा० ५.१५.३ तपन : सं०० (सं.) । सूर्य । विन० ५५.४ तपनि : सं०स्त्री० । तपने की क्रिया, दाह, सन्ताप। 'तुलसी कोटि तपनि हरे।' वैरा० २१ तपसानल : तपस्या रूपी अग्नि । कवि० ७.५५ तपसालि : वि.पु. (सं० तपः शालिन्) । तपस्वी । मा० १.३३० तपसिन्ह : तपसी+संब० । तपस्वियों । 'मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीति ।' मा० ५.४१.५ तपसी : वि०० (सं० तपस्वी) । तपस्या करने वाला। मा० ७.१०१ छं० तपस्या : सं०स्त्री० (सं०) । समाधि आदि की निष्ठा के साथ कठोर संयम जीवन चर्या ।' मा० १.७८.१ तपस्वी : तपसी (सं.)। तापस । विन० ५५.४ तपहिं : तप में । 'बिसरी देह तपहिं मनु लागा।' मा० १.७४.३ तपिहै : आ०भ०मए । तू तपेगा, सन्तप्त होगा। तो लौं तू कहूं जाय तिहूं ताफ तपिहै।' विन० ६८.१ तपी : वि.पु । तपस्वी । 'द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी।' मा० ७.१०१ छं० तपु : तप+कए० । वही एकमात्र तपश्चर्या । 'कर सो सपु जेहिं मिलहिं महेसू ।' मा० १.७२.२ तपोधन : वि० (सं.) । तपस्ती (जिसका तप धन धन है)। मा० १.१०५ तप्त : भूकृ०वि० (सं०) । तपा हुआ। 'तप्त कांचन ।' विन० ५०.२ तब : अव्यय । उस समय । मा० १.७.१ तबहि, हीं : तभी, उसी समय । मा० १.७७.८ तबहुं, हूं : तब भी, उस समय भी। मा० १.१२७.८ तम् : सर्वनाम (सं०) । उसे, उसको मा० १.श्लोक ६ तम : सं०० (सं० तमस्) । (१) अन्धकार । 'सम प्रकास तम पाख दुहुँ । मा० १.७ ख (२) प्रकृति के तीन गुणों में अन्यतम =तमोगुण । (३) अविद्या, अज्ञान, अविवेक । 'जीव हृदय तम मोह बिसेषी।' मा० ७.११७.७ तमकि : पूकृ० । तमतमाकर, आवेशयुक्त होकर, क्रुद्ध होकर । 'तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप।' मा० १.२५० तमकूप : सं०१० (सं० तमःकूप = अन्धकूप) । अन्धा कुआ, इतना गहरा कि उसके भीतर कुछ सूझता न हो (२) अज्ञान रूपी कूप । 'पर्यो भीम तम-कूप ।' विन०. १४४.५ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसा शब्द-कोश 405 तमकूपक : तमकूप । तमके : भूक.पुब० । तमतमा उठे, रोषावेश से भर गये । 'तमके घननाद से बीर पचारि के ।' कवि० ६.१५ तमक्यो : भू.पु.कए० । तमतमा उठा, रोषाविष्ट हुआ। 'दुसासन दुरजन तमक्यो तकि दुई कर गहि सारी ।' कृ० ६० तमचुर : सं०० (सं० ताम्रचूड>प्रा० तंब चूड)। मुर्गा, कुक्कुट (पक्षिविशेष)। गी० १.३६.१ तमतोम : सं०० (सं० तमःस्तोम>प्रा० तमत्थोम)। अन्धकार समूह । गी. १.१६.३ तमपर : वि० (सं० तमःपर) । अन्धकार, अविद्या तथा तमोगुण से परे-त्रिगुणा तीत, मायातीत । विन० ५५.४ तमसा : सं०स्त्री० (सं०) । नदीविशेष । मा० २.८४ तमाइ : सं०स्त्री० (अरबी-तम=खाहिश, लालच)। लोभ, इच्छा । 'लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक, ताहि तुलसी तमाइ कहा काहू बीर बान की।' हनु० १३ तमारि, री : सं०० (सं० तमोरि) । अन्धवार का शुभ सूर्य । मा० २.८६; २७२.४ तमाल : सं०० (सं.)। वृक्षविशेष जिसकी शाखाएँ नीली होती हैं। मा० २.११५.६ तमाला : तमाल । नील जलज तनु स्याम तमाना।' मा० १.२०६.१ तमी : सं०स्त्री० (सं.)। रात्रि । मा० ५.४७.३ तमीचर : निशाचर । मा० ६.७४ ख तये : तए। तयो, यो : भूकृ०००कए० (सं० तप्तः>प्रा० तविओ)। सन्तप्त । 'तयो है तिहूं ताव रे ।' हनु० ३७ तर : सं०+क्रि०वि० (सं० तल) । नीचे, निचला भाग । 'प्रभु तरु तर कपि डरि पर ।' मा० १.२६ क (२) समीप, सामने । 'अब न आँखि तर आवत कोऊ ।' मा० १.२६३.५ (३) नीचे में। “पर्नकुटी तर बैठे हैं।' कवि० ३.१ (४) अल्प, अवर, लघु । 'पुन्य सिलोक तात तर तोरें।' मा० २.२६३.६ (५) अधीनता में, वश में । 'सो कि बंध तर आवइ।' मा० ६.७३ (६) तरह। पार करता है। 'भव निधि तर नर बिमहिं प्रयासा।' मा० ७.५५.६ (७) (अतिशयार्थक संस्कृत प्रव्यय) अधिक, बढ़कर । 'होहिं बिषयरत मंद मंद तर ।' मा० ७.१२१.११ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 तुलसी शब्द-कोश तरंग, गा : (१) संस्त्री० (सं० तरङ्ग-पु.)। लहर । मा० १.३२.१४ (२) स्वर-लहरी। 'करहिं गान बहु तान तरंगा।' मा० १.१२६.५ (३) उल्लास । 'नाहि नाना रंग तरंग बढ़ावहिं ।' पा०म०६३ तरंगिनि, नी : सं०रत्री० (सं० तरङ्गिणी) । नदी । मा० २.३४.१ तरंगी : वि.पु. (सं० तरङ्गिन्) । मानसिक तरंगों वाला, उल्लासयुक्त, स्वतन्त्र, सनकी, नशे में धुत्त । 'परम तरंगी भूत सब ।' मा० १.६३ तरंति : आ०प्रब० (सं० तरन्ति>प्रा० तरंति) पार करते हैं । दुस्तरं तरंति ते।' मा० ७.१२३ श्लोक १ Vतर तरह : (सं० तरति-त पल्वन-तरणयो:>प्रा० तरइ-उतरना, उतराना, आल्पावित होना, पार जाना, तैरना) आ.प्रए । पार जाता है । 'गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई।' मा० ७.६३.५ तरउँ, ऊँ : आ०उए । पार करूँ । 'प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ।' मा० ३.२३.४ तरक : संस्त्री० (सं० तर्क-पु०)। (१) युक्ति। 'तासु तरक तिय गन मन मानी।' मा० २.२२२.५ (२) अनुमान । 'मन महुँ तरक करै कपि लागा।' मा० ५.६.२ (३) वाद-विवाद, सन्देहवाद, वितर्क-दे० तरका तरकस : सं०० (फा० तरकश) । तूणीर, तीर रखने का चोंगा । मा० २.१६० तरकसी : छोटा तरकस । गी० १.४२.२ तरका : तरक । विवाद । 'दूषहिं श्रुति करि तरका।' मा० ७.१००.४ । तरकि : पूक० । (१) तर्क कर, युक्ति लगा (कर)। 'तरकि न सकहिं सकल अनुमानी ।' मा० १.३४१.७ (२) तड़क कर, कूदकर । 'तरकि चढ़ेउ कपि खेल।' मा० ६.४३ तरको : भूक स्त्री० । तर्क की (हुई), युक्ति या अनुमान से जानी (हुई)। 'प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी ।' मा० २.२८६.५ तरके उ : भूक.पु०कए । तड़क गया, फांद गया। 'तरके उ पवन तनय बल भारी।' मा० ५.१.६ तरजत : तर्जत । तरजति : वक०स्त्री० । डाँटती। 'तरजनिन्ह तरजति ।' कृ० ११ तरजनिन्ह : तरजनी+सं०ब० । तर्जनियों से (कई वार तर्जनी अंगुली चमकाने से)। गरजति कहा तरजनिन्ह तरजति ।' कृ० ११ तरजनी : सं०स्त्री० (सं० तर्जनी) । हाथ के अंगूठे के पास की अंगुली (जिससे तर्जन किया जाता है) । मा० १.२७३.३ तरजि : पूक ० । तर्जन करके, डाँटकर, भय दिखाकर । “उपल बरषि गरजत तरजि ।' दो० २८३ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 407 तरजिए, ये : आ०कवा०प्रए । डाँटिए । 'सरुष बरजि तरजिये तरजनी कुम्हिले है __कुम्हड़े की जई है।' विन० १३६.८ तरत : वकृ०० । पार करता-करते । 'यह लघु जलधि तरत कति बारा ।' मा० तरन : (१) सं०० (सं० तरण) । पार जाना । 'सिंधु तरन कपि गिरि हरन ।' दो० ४४५ (२) वि०० । पार करने वाला । 'होत तरन तारन नर तेऊ ।' मा० २.२१७.४ (३) भक० अव्यय (सं० तत्तुम् >प्रा० तरिउ>अ० तरण)। पार करना । 'भव सागर चाहे तरन ।' विन० १७३.६ (४) सं००-नौका। गी० ५.४३.५ तरनि : (१) सं०पु० (सं० तरणि) । सूर्य । 'तह कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू।' मा० २.२६५.७ (२) सं०स्त्री० । नाव । 'हथवांसहु बोरहु तरनि ।' मा० २.१८६ तरनिउ : नाव भी । 'तरनिउ मुनि घरनी होइ जाई ।' मा० २.१००.६ तरनी : तरनि । (१) सूर्य । 'भे पुनीत पातक तम तरनी।' मा० २.२४८.१ (२) नाव । 'करउँ कथा भव सरिता तरनी।' मा० १.३१.४ (३) पार करने वाली। तरनु : तरन+कए० । पार जाना । 'सेत सागर तरनु भो।' कवि० ६.५६ तरपन : सं०० (सं० तर्पण) । देवों तथा पितरों को जल देने की धार्मिक क्रिया । मा० २.१२६.७ तरपहिं : आ०प्रब० । तड़पते हैं; बिजली की फुर्ती से गति लेते हैं। 'अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं ।' मा० ६.४१ छं० । तरल : वि० (सं.)। चञ्चल, फुर्तीला, वेगशील । 'अस कहि तरज त्रिसूल ___ चलायो।' मा० ६.७४.६ (२) द्रवीभूत । तरवारि : सं०स्त्री० (सं०) । तलवार । मा० २.३१.१ तरसत : वकृ.पु. (सं० तर्षत् >प्रा० तरिसंत)। तृषाकुल होता-ते । इच्छापूर्ति के बिना क्लेश पाते । 'हम पंख पाइ पीजरन तरसत ।' गी० २.६६.४ तरस्यौ : भूकृ.पु०कए० (सं० तृषित:>प्रा० तरिसिओ)। तृष्णाकुल हुआ, ललचाया। 'त्यों रघुपति पद पदुम परस को तनु पातकी न तरस्यौ।' विन० १७०.४ तरहिं, हीं : आ०प्रब० (सं० तरन्ति>प्रा० तरंति>अ० तरहिं) । पार करते हैं। 'तरहिं भव प्रानी ।' मा० ७.१०३.१ 'भव बारिधि गोपद इव तरहीं।' मा० १.११६.४ तरहि : आ०मए । तू पार जा। 'तुलसीदास भव तरहि ।' वि० २३७.५ तराक : तड़-तड़ ध्वनि के साथ । 'बैठो तोरि तरकि तराक हौं ।' हनु० ४० Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 तुलसी शब्द-कोश तरि : (१) पूकृ० । पार कर, तैर (कर)। 'तरि सके सरित सनेह की।' मा० २.२७६ छं० (२) सं०स्त्री० (सं.)। छोटी नाव । 'बहुत पतित भवनिधि तरे बिनु तरि बिनु बेरे ।' विन० २७३.२ ।। तरिअ, ए : आ०कवा०प्रए० (सं० तीर्यते>प्रा० तरीअइ) । पार किया जाय । __'केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा।' मा० ५.५०.५ तरित : क्रियाति । तरता, पार पाता। 'घोर भव अपार सिंधु तुलसी किमि तरित ।' विन० १६.३ तरिबे : भकृ० । पार करने (योग्य) । 'नेह निधि निज भुजबल तरिबे हो।' तरिय, ये : तरिअ । 'पर हित कीन्हें तरिये।' विन० १८६.३ तरिहउँ : आ०भ०उए० (सं० तरिष्यामि>प्रा० तरिहिमि>अ० तरिहिउँ । तरूंगा, पार करूँगा। ‘पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ ।' मा० ७.१८.७ तरिहहिं : आ०म०प्रब० । पार करेंगे । 'गाइ गाइ भव निधि नर तरिहहिं ।' मा० तरिहि : आ०म०प्रए० (सं० तरिष्यति>प्रा० तरिहिइ तरिही)। पार करेगा गी। 'बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भाल कपि धारि ।' मा० ५.५० 'सो श्रम बिनु भव सागर तरिही।' मा० ६.३.४ तरिहैं : तरिहहिं । पार जायंगे । 'ते कुल जुगल सहित तरिहैं भव ।' गी० १.१६.४ तरी : भूकृ०स्त्री० । पार गई, तर गई । 'जे पद परसि तरी रिषि नारी ।' मा० तरीवन : सं०० । तर्योना, कान का बाला, कर्णाभरणविशेष । रा०न० ११ तरु : सं०पू० (सं०) । वृक्ष । मा० १.२६ क तरुजीबी : वि० (सं० तरुजीविन्) । वृक्ष व्यवसायी। दो० ३४१ तरुन : वि.पु. (सं० तरुण)। (१) युवक । 'तब मैं तरुन रहेउ बल भारी।' मा० ४.२६.८ (२) प्रौढ़, पुष्ट, प्रखर ।। 'तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई।' मा० २.२३२.१ (३) विकसित, पूर्ण विकास युक्त । तरुन अरुन अंबुज सम चरना।' मा० १.१०६.७ तरुनतर : अत्यन्त तरुण । विन० २१८.२ तरनता : सं०स्त्री० (सं० तरुणता) । जवानी । विन० १६४.७ तरुनाई : तरुनता। मा० ४.२८.२ तरुनि : तरुनी। दो० ४३८ तरुनी : वि०स्त्री० (सं० तरुणी)। युवती । मा० १.११.२ तरुवर : श्रेष्ठ वृक्ष । मा० २.११६.८ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोष 409 तरुवरन्ह : तरुवर+संब० । तरुवरों। जिन्ह तरुवरन्ह मध्य बटु सोहा ।' मा० २.२३७.३ तरु : तरु । मा० ७.१२१.१६ तरे : भूकृ००ब०। (१) तैरे, उतराये । 'सिंधु तरे पाषान ।' मा० ६.३ (२) उतर गये, पार पा गये । 'खल नर तरे।' विन० २११.१ तरेरी : पूक० । तरेर कर, अमर्षपूर्वक तिरछा करके । 'कहत दसानन नयन तरेरी।' मा०६.२२.३ तरेरे : भूक०००। (१) वक्र किये । 'नयन तरेरे राम ।' मा० १.२७८ (२) वक्र किये हुए (मुद्रा में)। खिझे तें डाटत नयन तरेरे ।' कृ० ३ तर : तरइ । पार जाय । 'जो न तरै भवसागर ।' मा० ७.४४ तरंगी : आ०म०स्त्री०प्रए । तर जायगी। 'गौतम की घरनी ज्यों तरनी तरंगी मेरी।' कवि० २.८ तरो: (१) तर्यो । 'कपि कटक तरो।' विन० २२६.४ (२) आ०-संभावना प्रए० (सं० तरतु>प्रा० तरउ) । तर जाय, पार उतर जाय । 'राम नाम बोहित, भव सागर चाहै तरन तरो सो।' विन० १७३.६ तरौं : तरउँ । पार कर जाऊँ । 'गोपद ज्यों भवसिंधु तरौं।' विन० १४१ तर्क : सं०० (सं.)। (१) उलझी युक्ति । 'खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई।' मा० ७.५६.२ (२) न्याय में अपुष्ट अनुमान । 'दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई ।' मा० ७.४६.८ (३) आनुमानिक कल्पना । 'रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी।' मा० ६.७४.२ (४) युक्ति । तकि : पूकृ० । तर्क द्वारा ज्ञात कर । 'तकिं न जाहिं बुद्धि बल बानी ।' मा० तर्जत : व.पु । डांटता-डराता। 'गर्जत तर्जत सन्मुख धावा।' मा० ६.६०.२ तर्जन : वि.पुं० । तरजने वाला। भय दिखाने वाला । मा० ३.११.१३ तर्जहि, ही : आ०प्रब० । डाँटते-डराते हैं । मा० ३.१८.८; ५.३ छं० २ तर्जा : भूकृ०० । तर्जन किया, डाँटा । 'बाली अति तर्जा ।' मा० ४.८.२ तर्पन : तरपन । दो० ३०४ तर्यो : भूकृ००कए । (सं० तीर्णः>प्रा० तरिओ) । तर गया। 'सुनि सुनि लोक तर्यो।' विन० २३६.२ तर्ष : सं०पू० (सं०) । तृषा, तृष्णा, वासना, विषय-लालसा, तरसना। 'तम तर्ष गण.. विच्छेदकारी।' विन० ५७७ तल : सं०० (सं०) । (१) चौरस भाग, ऊपरी भाग । परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं।' मा० ६.८३.७ (२) प्रदेश । 'नभ तल ।' हनु० ५ (३) अधोभाग। 'काम तून तल सरिस जानु जग ।' गी० ७.१७.५ (४) पर, में, नीचे (दे० तर) । 'सकल सिद्धि करकमल तल ।' रा०प्र० ६.४.१ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 तुलसी शब्द-कोश तलफत : वकृ०० (अरबी-तलफ़ =हलाक)। छटपटाता, तिलोंछता, तिल मिलाता, तड़फड़ाता । 'तलफत मीन पाव जिमि बारी।' मा० ५.२८.५ तलफति : वक०स्त्री० । (आँच में) छटपटाती, खोलती। 'कनक कराही लंक तलफति ताय सों।' कवि० ५.२४ । तलफि : पूकृ० । तड़फड़ा कर, छटपटा कर, (मरणासन्न) तिलमिलाकर । 'मीन जल बिनु तलफि तनु तजै।' कृ० ५४ । तलई : तलाई+ब० । तलैयाँ, पोखरियाँ । 'संगम करहिं तलाव तलाईं।' मा० १.८५.२ तलाव, वा : सं०० (सं० तडाग>प्रा० तलाय) । ताल, पोखर, जलाशय । 'बन सागर सब नदी तलावा।' मा० १.६४.४ तल : तल+कए । 'जगती तलु ।' विन० २४.६ तल्प : सं०० (सं.) । शय्या । विन० ५४.६ तव : सम्बन्धार्थक सर्वनाम (सं०) । तेरा-तेरी-तेरे । मा० १.५१.६ तवा : सं०० (सं० तपक>प्रा० तवअ) । लेहि आदि का छिछला पात्रविशेष । 'तुलसी यह तनु तवा है, तपत सदा त्रयताप ।' वैरा० ६ तवानन : तेरा मुख । मा० ७.५२ ख तस : वि०पु० (सं० तादृश>प्रारिस>अ० तइस) । वैसा। 'जेहि जस रघुपति करहिं जब, सो तस तेहि छन होइ।' मा० १.१२४ तसकर : संपु० (सं० तस्कर) । चोर । विन० १२५.८ तसि : बि००स्त्री० (सं० तादशी>अ० तइसी तइसि)। वैसी। 'तसि पूजा चाहिअ जस देवता ।' मा० २.२१३.७ तह : अव्यय (सं० तत्र>प्रा० तहिं, तह) । वहाँ । मा० १.५५.१ तहइ : वहाँ ही । 'तहँइ दिवसु जहँ भानु प्रकासू ।' मा० २.७४.३ तहँउ : तहहुँ । 'तहउँ तुम्हार अलप अपराधू ।' मा० २.२०७.७ तहहुँ : वहाँ भी । 'तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं।' मा० १.६८.६ तहवा : तह । वहाँ । 'बहुरि मातु तहवां चलि आई।' मा० १.२०१.४ तहसनहस : नष्ट-भ्रष्ट, सत्यानास । कवि० ५.२ तहाँ : तहँ । मा० १.१३.२ तहिआ : क्रिवि. अव्यय (सं० तदा>प्रा० तइमा) । तब । 'धरिहहिं बिस्नु मनुज तनु तहिआ।' मा० १.१३६.६ तहीं : तहँई। वहीं । 'जाब जहँ पाउब तहीं।' मा० १.६७ छं० तहूं : (१) तहँउँ । वहाँ भी। खेलउँ तहूं बालकन्ह मीला।' मा० ७.११०.४ (२) तू भी । 'तहूँ बंध सम बाम ।' मा० १.२८२ तांति, ताँती : सं०स्त्री० (सं० तन्त्री>प्रा० तंती)। तारों वाला वाद्य = वीणा आदि । 'बाज सुराग कि गाँडर तांती।' मा० २.२४१.६ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 411 ता : 'त' सर्वनाम का रूपान्तर । उस । 'ता कहँ यह बिसेष सुखदाई।' मा० ७.१२८.८ ताको, तातें, तासो, ताकी, तामहिं आदि परसर्गीय प्रयोग द्रष्टव्य हैं। तांडव : सं०० (सं.)। उद्धत नृत्य, उग्र नर्तन (जो शिव के लिए प्रसिद्ध है) तांडवित : वि० (सं०) । ताण्डवयुक्त । विन० १०.५ तांबूल : सं०० (सं.)। पान । विन० ४७.३ ताइ : पूकृ० (सं० तापयित्वा =प्रा० ताविअ>अ० तावि)। तपा कर, आंच देकर (खरी परीक्षा लेकर) । 'और भूप परखि सुलाखि तोलि ताइ लेत ।' कवि० ७.२४ ताउ : ताय+कए । ताव, रोषावेश । 'भृगुनाथ खाइ गए ताउ ।' विन० १००.५ ताए : भूकृ००ब०। (सं० तापित>प्रा० ताइय=ताविय) । तचाए हुए, सन्तापित, क्लेशित । 'नाथ बियोग ताप तन ताए।' मा० २.२२६.४ /ताक, ताकइ : तकइ । देखता है, बिचारता या चाहता है। 'ताकै जो अनर्थ सो समर्थ एक आंक को।' हनु० १२ ताकत : (१) वकृ०० =तकत । देखता, देखते । (२) सं०स्त्री० (अरबी ताकत) शक्ति । 'उपमा तकि ताकत है कबि कौं की।' कवि० ७.१४३ ताकर : (ता+कर) उसका । मा० १.१६७.७ ताहि : तकहिं । देखते हैं, लक्ष्य करते। 'जे ताकहिं पर धन पर दारा।' मा० २.१६८.३ ताका : भूकृ०० (सं० तकित>प्रा० तक्किअ)। देखा, लक्ष्य किया, सोचा बिचारा, चाहा । 'जस कौसिला मोर भल ताका।' मा० २.३३.८ ताकि : तकि । लक्ष्य करके, सोच-समझकर । 'तमकि ताकि तकि सिव धन धरहीं।' __ मा० १.२५०.७ ताकिसि : आ०-भूकृ०स्त्री०+प्रए । उसने लक्षित की, निश्चित की। 'तब __ ताकिसि रघुनायक सरना।' मा० ३.२६.५ ताकिहै : आ०भ०प्रए । ताकेगा, घूर कर देखेगा। 'ताकिहै तमकि ताकी ओर को।' विन० ३१.१ ताकी : (१) ताकि । मा० २.२२८.४ (२) (ता+की) उसकी। 'कौन ताकी कानि ।' विन० २१५.२ ताके : (१) (सं० तकितेन>प्रा० तक्किएण>अ० तक्किएँ) ताकने से। 'जिमि गज हरि किसोर के ताकें ।' मा० १.२९३.४ (२) (ता+के) उसके प्रति, ___ उसके लिए । 'मंगल सगुन सुगम सब ताकें ।' मा० १.३०४.१ ताके : (१) (ता+के) उसके । 'ताके जुग पद कमल मनावउँ ।' मा० १.१८.८ (२) भूक.पु.ब० । देखे, लक्षित किये । 'सरन को समरथ तुलसि उ ताके हैं।' गी० १.६४.४ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 तुलसी शब्द-कोश ताकेउ : तकेउ । लक्ष्य किया । 'ताकेउ हर कोदंडु ।' मा० १.२५६ ताक : ताकइ ताको : (१) आ०-आज्ञा-मए । देखो। 'साखी बेद पुरान हैं, तुलसी तन ताको ।' विन० १५२.१३ (२) (ता+को) उसका । 'तहँ ताको काज सरो।' विन० २२६.५ ताग : सं०० (प्रा० तग्ग) । धागा, सूत्र, डोरा । मा० १.११ ताज : सं.पु+स्त्री० (फा०) । मुकुट, टोपी । 'मानो खेलवार खोली सीस ताज बाज की।' कवि० ६.३० ताजी : सं०० (सं० ताजीय) । ताज देश का घोड़ा, तुर्की या ईरानी अश्व । मा० ३.३८.६ ताटंक : सं०पु० (सं०) । तरकी, कर्णाभरण, कर्णपूर । मा० ६.१३ क ताटका : ताटक । मा० ६.१३.६ ताड़का : सं०स्त्री० (सं०) । एक राक्षसी जो सुबाहु और मारीच की माता थी। मा० १.२०६.५ ताड़त : वकृ०० (सं० ताडयत् >प्रा० तारत)। ताड़न (प्रहार) करता-ते । मा० ३.३४.१ ताड़न : सं०पु० (सं.) । प्रहार, पीटना । 'उर ताड़न बहु भांति पुकारी।' मा० ६.७७.७ ताड़ना : सं०० (सं०) ताड़ना । 'उर ताड़ना करहिं ।' मा० ६.१०४.४ थाप या ताल, करतल प्रहार; फटकार; प्रशिक्षण परक वाचिक व्यापार; कामशास्त्री प्रहजन - ढोल गँवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी। मा० ताड़ का : ताड़का। तात : सं०० (सं०) । (१) पिता । 'तात मात गुर सखा तूं सब बिधि हितु मेरो।' विन० ७६ (२) सम्मान्य, माननीय । 'बिनती करउँ तात कर जोरें।' मा० २.६६.१ (३) स्निग्ध जन, प्रिय बन्धु आदि । 'नतरु तात होइहि बड़ दोषू ।' मा० २.७१.५ (४) ममता भाजन । 'तात जाउँ बलि बेगि नहाहू।' मा० २.५३.१ (५) क्लेशादि सूचक प्रयोग में-बाप-रे-बाप । 'तात तात तौं सिअत। मा० ५.१५ (६) वि०० (सं० तप्त>प्रा० तत्त) । उष्ण तातप्यमाव : वकृ०० (सं०) । बार बार अतिशय सन्ताप पाता हुआ। मा० ७.१०८ छं०१६ ताता : तात । (१) पिता, स्निग्ध, प्रिय, सम्मान्य आदि । 'मागहु बर प्रसन्न मैं ताता।' मा० १.१७७.२ (२) उष्ण । 'सब जगु ताहि अनल हुँते ताता।' मा० ३.२.८ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 413 ताति : वि०स्त्री० (सं० तप्ता>प्रा० तत्ती>अ० तत्ति) । उष्ण । 'भुई तरनिहुं ते ताति ।' विन० २२१.३ तातें । (ता+तें) इससे, इस कारण । 'तातें मैं तेहि बरजउँ राजा।' मा०. ताते : (१) तातें । 'ताते मैं अति अलप बखाने ।' मा० १.१२.६ (२) (दे० तात) उष्ण, दाहक । पिय बिनु तियहि तरनिहुंते ताते ।' मा० २.६५.३ तातो : (१) तात+कए । उष्ण (२) क्रियातिपु०ए० । तो सन्तप्त होता । _ 'तुलसी राम प्रसाद सों तिहुं ताप न तातो।' विन० १५१.६ तान : सं०० (सं०) । (१) विस्तार (२) संगीत के रागों में स्वरालाप या स्वर विस्तार । 'करहिं गान बहु तान तरंगा।' मा० १.१२६.५ तानत : वक०० । फैलाता, फैलाते । 'लख्यौ न चढ़ावत, न तानत, न तोरतहू ।' गी० १.६२.५ तानि : पूकृ० । खींचकर, फैलाकर । 'पुनि धनु तानि कोपि रघुनायक ।' मा० तानि हैं : आ०भ०प्रब । खींचेंगे, फैलाएँगे । 'बय किसोर बरजोर बाहुबल मेरु मेलि गुन तानिहैं ।' गी० १.८०.६ तानी : (१) तानि । 'धायउ दसहु सरानन तानी ।' मा० ६.६३.२ (२) आ०भ० प्रए० (सं० तानयिष्यति>प्रा० ताणिटी)। खींचेगा, संधान करेगा । 'कोपि रघुनाथु जब बान तानी।' कवि० ६.२० ताने : भूकृ००ब० । चढ़ाए, फैलाये, खींचे। मा० ६.५०.४ तानेउ : भूकृ००कए । ताना, खींचा। 'तानेउ चाप श्रवन लगि ।' मा० ६.६१ तान्यो : तानेउ। विन० ८८.१ ताप : सं० (सं०) । (१) दाह, ऊष्मा। 'नाथ बियोग ताप तन ताए ।' मा० २.२२६.४ (२) त्रिताप । 'तुलसी यह तनु तवा है तपन सदा त्रय ताप ।' वैरा०६ तापघ्न : वि० (सं०) । सन्ताप-नाशक । विन० ५५.४ तापत्रय : तीन प्रकार के क्लेश- (१) आध्यात्मिक= शारीरिक पीडा आदि तथा मानसिक चिन्ता आदि (आधि-व्याधि); (२) दैविक= शीत, उष्ण आदि; (३) भौतिक =प्राणियों से मिलने वाले दु:ख । 'बदन मयंक तापत्रय मोचन ।' मा० १.२१६.६ तापस : वि० (सं.)। तपस्वी । मा० १.२३.३ तापसनि : तापस+संब० । तपस्वियों। पालि बी सब तापसनि ज्यों।' गी० ७.२६.३ तापसी : तापसी+ब० । तपस्विनियाँ ! कवि० ६.५० तापसी : तापस+स्त्री० । तपस्विनी । गी० ७.२६.२ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश ताप : तापस + कए । वह तपस्वी । 'जिमि तापसु कथइ उदासा । मा० ७.१६२.५ ताप : (दे० ह) तापघ्न । मा० ३ श्लोक १ हर : वि० (दे० हर ) । ताप हरण करने वाला, तापनाशक । मा० २.२४६.६ ताप : आ०प्र० । तापते हैं, शीत से बचने हेतु अपने को उष्ण बनाते हैं । 'हरे चरहिं तापहिं बरे ।' दो० ५२ तापा : ताप । 'दैहिक दैविक भौतिक तापा ।' मा० ७.२१.२ 414 तामरस: सं०पु० (सं० ) । कमल । मा० ३.११.३ तामरसु : तामरस +कए० । 'परसत तुहिन तामरसु जैसें ।' मा० २.७१.८ तामस : (१) सं०पु० (सं० ) । तमोगुण ( अज्ञानकारी प्रकृति का गुण जिससे ज्ञान पर आवरण पड़ जाता है) । ' तामस बहुत रजोगुण थोरा । मा० ७.१०४.५ (२) वि०पु० । तमोगुणी, अज्ञानावरणयुक्त, मोहग्रस्त । ' तामस असुर देह तिन्ह पाई । मा० १.१२२.५ तमसो : तामस भी, तमोगुणी भी । 'जाके भजे तिलोक तिलक भए त्रिजग जोनि तन तामसो ।' विन० १५७.४ ताय : सं०पु० (सं० ताप > प्रा० ताय) । (१) संताप 'दाह, आँच । 'कनक कराही लंक तलफति ताय सों ।' कवि० ५.२४ ( २ ) सन्ताप की अनुभूति, तचन की वेदना । 'तुलसी जागे तें जाय ताप तिहूं- तिहूं ताय रे ।' विन० ७३.४ तायो : भूकृ०पु० ए० । तचाया, जलाया हुआ । ' ग्रीषम के पथिक ज्यों धरनि तरनि तायो ।' गी० ५.१५.२ तार : ताल ( संगीत में ) । 'काम करतल तार ।' गी० ७.१८.५ तारक : सं०पु ं० (सं०) । (१) नक्षत्र ( २ ) एक असुर जिसे कार्तिकेय ने मारा O था (३) आँख की पुतली । ' रुचिर पलक लोचन जुग तारक स्याम ।' गी० ७.१२.१ (४) वि०पु० ० (सं० ) । तारने वाला, पार पहुंचाने वाला । 'भवतारक ।' विन० १४५.६ तारक : वि० (सं० तारकमय ) । नक्षत्रों से पूर्ण । 'मनो रासि महातम तारकमं ।' कवि० २.१३ तारकु : तारक+कए० | तारकासुर । मा० १.८२.५ तारति: वकृ० स्त्री० (सं० तारयन्ती > प्रा० तारंती ) । आप्लावित करती, भिगोती, धोती । गी० ५.१६.२ 1 तारन : वि० । तारने वाला, पार पहुंचाने वाला । ' होत तरन तारन नर तेऊ ।' मा० २.२१७.४ तारनतरन : (दे० तरन ) । पार ले जाने की नौका | 'पाहि कहें काहि कीन्हो न तारनतरन ।' गी० ५.४३.५ ( तारनतरन - पार ले जाने वाली नाव = वे स्वयं दूसरों के लिए नाव बन गये ।) Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 415 तारय : आ०-प्रार्थना-मए० (सं०) । पार पहुंचाओ। 'तारय संसृति दुस्तर ।' मा० ६.११५.६ तारा : (१) सं०० (सं० तारक>प्रा० तारअ)। नक्षत्र । 'अवनि न आवत एकउ तारा ।' मा० ५.१२.८ (२) सं०स्त्री० (सं०) । नक्षत्र । 'मंदिर मनि समूह जनु तारा ।' मा० १.१६५.६ (३) आँख की पुतली (४) वानर-राज बालि की पत्नी । मा० ४.११.२ तारागन : नक्षत्र समूह । मा० ६.३ तारि : पूक० । तार कर, सद्गति देकर । 'सिला तारि पुनि केवट मीत कियो।' गी० ५.४६.२ तारिबो : भकृ०० कए । तारना (चाहिए)। 'तुलसी औ तारिबो।' कवि० ७.१८ तारिहो : आ०-०-मब । तारोगे, पार पहुंचाओगे। तो तुलसिहि तारिहो बिप्र ज्यों ।' विन० ९६.३ तारी : (१) भूकृ० स्त्री० (सं० तारिता) । पार पहुंचाई (संसारमुक्त की) । 'राम एक तापस तिय तारी।' मा० १.२४.६ (२) सं०स्त्री० (सं० ताली)। हथेली, हथेली से ताल देने की क्रिया, थपेड़ी। 'बाहिं ढोल देहिं सब तारी।' मा० ५.२५.७ तारु : आ०-आज्ञा-मए । तू उतार, (तोल कर तराजू से उतार)। 'पन औ कुवर दोऊ प्रेम की तुला धौं तारु ।' गी० १.८२.३ तारुण्य : सं०० (सं०) तरुनाई । तरुण अवस्था । विन० ५१.१ तारे : (१) भूकृ००ब० (सं० तारिता:>प्रा० तारिया) । पार पहुंचाये । 'गजादि खल तारे घना ।' मा० ७.१३० छं० १ (२) सं०पु०ब० । आँख की पुतलियाँ । 'एकटक लोचन चलत न तारे ।' मा० १.२४४.३ (३) नक्षत्र । 'जनु राकेस उदय भएँ तारे ।' मा० १.२४५.१ तारेहु : आ०-भूकृ००+मब० । तुमने तारे-पार पहुंचाये । 'तो कत बिप्र ब्याध गनिकहि तारेहु, कछु रही सगाई।' विन० ११२.२ तारो : तारा+कए० (सं० तारक:>प्रा. तारओ>आ० तारउ) । एक नक्षत्र । _ 'टूटि तारो गगन मग ज्यों होत छिन छिन छीन ।' गी० २.५८.२ तार्यो : भूकृ.पु.कए० (सं० तारितः>प्रा० तारिओ)। पार पहुंचाया । 'निज मातमा न तार्यो ।' विन० २०२.३ ताल : सं०पू० (सं.) (१) संगीत का ताल । अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा ।' मा० २.२४१.४ (२) वाद्य विशेष जिस से ताल दिया जाता है । 'बाहिं ताल पावाउज बीना ।' मा० ६.१०.६ (३) करताल (वाद्य)। 'कपाल ताल बजाइ जोगिनि नंचहीं।' मा० ३.२० छं० १ (४) ताड़ वृक्ष । 'कदलि ताल बर धुजा पताका ।' मा० ३.३८.२ (५) ताली का शब्द । 'उड़त अघ बिहग सुनि ताल Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416 तुलसी शब्द-कोश करतालिका ।' विन० ४८.२ (६) (सं० तल्ल) =तलाव। सरोवर । 'गिरि बन नदी ताल छबि छाए।' मा० ३.१४.२ तालऊ : ताड़ वृक्ष भी। 'तालऊ बिसाल बेधे ।' कवि० ६.११ ताला : ताल । सरोवर । मा० ७.५७.६ तालिका : सं०स्त्री० (सं.)। हथेली। हाथ का चिकना प्रसृत भाग। विन० ४८.२ तालू : (१) ताल+कए० । एक ताड़ वृक्ष । 'दामिनि हनेउ मनहुं तरु तालू ।' मा० २.२६.६ (२) सं०० (सं० तालु) । मुख के भीतर ऊपरी भाग । 'निज तालू गत रुधिर पान करि मन संतोष धरै ।' विन० ६२.४ ताव : सं०० (सं० ताप>ताव) । (१) सन्ताप, दु:ख । 'तयो है तिहूं ताव रे ।' हनु० ३७ (२) क्रोध । 'भृगुनाथ खाइ गए ताव ।' तावत् : अव्यय (सं०) । तब तक । मा० ७.१०८ १४ तावौं : आ० उए० (सं० स्तायति-ष्ट वेष्ट ने; तायति-ताय संवरणे>प्रा० तायमि>अ० ताय) । ढक दू, लेइ से मूद दू', संवृत कर दूं। 'भेदि भुवन करि भानु बाहिरो तुरत राहु दे तावौं ।' गी० ६.८.२ तासु : सर्वनाम (सं० तस्य>प्रा० तस्स>अ० तासु) । उसका-की-के। 'तासु नास कल्पांत न होई ।' मा० ७.५७.१ तासू : तासु । 'नित नूतन मंगल गृह तासू।' मा० १.६६.४ ताहि, ही : उसको । 'सर निंदा करि ताहि बुझावा ।' मा० १.३९.४ 'काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही ।' मा० ७.१०४.७ ताहु, हू : उसे भी। 'हरषु बिरहु अति ताहु ।' मा० ७.४ ख 'आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ।' मा० ५.४४.१ तिकाल : त्रिकाल । कवि० ७ १२१ तिक्खन : वि.पु. (सं० तीक्ष्ण>प्रो० तिक्ख) । (१) तीव्र । 'ते रन तिक्खन लक्खन लाखन ।' कवि० ६.३३ (२) नुकीला । प्रवेश करने वाला । 'लक्ख मैं पक्खर तिक्खन तेज ।' कवि० ६.३६ तिजरा : सं०० (सं० त्रिज्वर>प्रा९ तिज्जर=तिज्जरअ) । एक प्रकार का ज्वर जो तीसरे दिन आता है और स्थायी होता है । विन० २७२.२ तिजारी : सं०स्त्री० (सं० त्रिज्वारिका>प्रा० तिज्जारि">अ० तिज्जारी। ___ तिजरा । मा० ६.१२१.१८ तितीर्षा : सं०स्त्री० (सं०) । पार जाने की इच्छा । मा० १ श्लो० ६ तिथि : संस्त्री० (सं०)। सूर्य और चन्द्र की गतियों के अन्तर से बनने वाला समयभागविशेष । मा० १.१६० Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्दकोश 417 तिन : (१) सं०० (सं० तण>प्रा० तिण) । तिनका । 'बिलोकि सब तिन तोरहीं।' मा० १.३२७ छं०१ (२) घास । 'चरइ हरित तिन बलि पसु जैसें ।' मा० २.२२.२ (३) तिन्ह । उन । 'सोध कीजे तिन को जो दोष दुख देत हैं।' हनु० ३२ तिनु : तिन+कए । एक तिनका । 'गिरि सिर तिनु धरहीं।' मा० २.२८५.३ तिन्ह : त+संब० (सं० तेषाम्>प्रा० ताण)। उन । 'तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा ।' मा० १.५.१ 'तिन्ह कह सुखद ।' मा० १.६.३ (२) उन्होंने । 'तिन्ह पाती दीन्ही ।' मा० १.२६०.३ तिन्हहि, ही : उन्हें । मा० १.६.५ तिन्हें : तिन्हहि । 'तिन्हें समुझाइ कछू मुसुकाइ चली।' कवि० २.२२ तिपुरारि : त्रिपुरारि । मा० १.२७१ तिभुप्रन, तिभुवन : त्रिभुवन । मा० २.२६३.६; १६४.६ तिमि : (१) अव्यय (सं० तथा =अ० तिम)। उस प्रकार, वैसे, त्यों। तिमि सुरपतिहि न लाज ।' मा० १.१२५ (२) सं०० (सं.)। हल मछली । 'महामीनाबास तिमि तोमनि को थलु भो।' हनु० ७ तिमिर : सं०० (सं०) । अन्धकार । मा० १.११६.४ तिमिरु : तिमिर + कए । एक क्षुद्र अँधेरा । 'तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई ।' मा० २.२३२.१ तिमुहानी : सं० स्त्री० । तीन धाराओं का संगम (जहाँ तीन मुहाने हों) । 'त्रिविध ताप भासक तिमुहानी ।' मा० १.४०.४ तिय : ती । स्त्री० । मा० १.१६.७ (२) पत्नी। राम एक तापस तिय तारी।' मा० १.२४.६ तियन, नि, न्हि : तिय+संब० । स्त्रियों। 'देखि तियनि के नयन सम्ल भए ।' गी० १.१०७.३ तियमनि : स्त्रियों में शिरोमणि, श्रेष्ठ स्त्री । 'मैना तासु घरनि घर त्रिभुभव तिय मनि ।' पा०म०६ तिरछी : वि०स्त्री० (सं० तिरश्चीचला>प्रा० तिरिच्छी) । टेढ़ी; वक्र । रान. १४ तिरछे : वि००ब० । 'तिरछे करि नैन, द सैन ।' कवि० २.२२ तिरछौंहैं : क्रि०प० (सं० तिर्यङ मुख>प्रा० तिरिच्छमुह) । तिरछे होकर, तिरछे प्रकार से । 'अचान दिष्टि परी तिरछौं ।' कवि० २.२५ तिरहुति : सं०स्त्री०=तेरहुति । 'भूमि तिलक सम तिरहुति ।' जा०म० ४ तिरहूति : तिरहुति। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418 तुलसी शब्द-कोश तिरा : भूकृ.पु । तीर पर पहुंचा, तैर गया, पार हो गया। 'लोह ल लोका तिरा।' मा० २.२५१ छं० तिरीछी : तिरछी। कवि० २.२१ तिरोछे : क्रि०वि० । वक्रता से, टेढ़े-टेढ़े । 'तिरी, प्रियाहि चित ।' कवि० २.२६ तिरीछे : तिरछे (सं० तिरश्चीन>प्रा. तिरिच्छय)। आड़े-टेढ़े। खंजन मंजु __ तिरीछे नयननि ।' मा० २.११७.७ तिल : सं०० (सं०)। धान्य विशेष जिससे तेल निकलता है। मा० ३.१६ ख (२) शरीर में तिलाकार चिन्ह । 'चारु चिबुक तिल जासु ।' दो० १६१ तिलक : सं०० (सं०) । टीका। (१) मस्तक का ऊर्ध्वपुण्ड । 'किएँ तिलक गुन गन बस करनी।' मा० १.१.४ (२) राज्याभिषेक का टीका। 'रामहि तिलक कालि जौं भयऊ ।' मा० २.१६.६ (३) तिलक के समान उत्तम (शिरोमणि); श्रेष्ठ । 'रघुकुल तिलक जोरि दोउ हाथा।' मा० २.५२.१ (४) तिल का पुष्प-नासा तिलक को बरनै पारे । मा० १.१६६.८ तिलकु : तिलक+कए । मा० १.३२७.६ तिल-तिल : (तिल के समान) थोड़ा-थोड़ा, धीरे-धीरे । 'जा के मन ते उठि गई तिल-तिल तस्ना चाहि।' वैरा० २६ तिलांजलि : सं०स्त्री० (सं.)। पितृ कर्म में तिल सहित जल की अञ्जलि। 'देउ तिलांजलि ताहि ।' मा० ४.२७ तिलांजुलि : तिलांजलि । मा० २.१७०.५ तिली : तेली (प्रा० तेल्लिअ=तिल्लिअ) । 'पेरत कोल्हू मेलि तिल, तिली सनेही ___जानि ।' दो० ४०३ तिल : तिल+कए । एक तिल (की मात्रा)। 'तिल भरि भूमि न सके छड़ाई ।' ___ मा० १.२५२.२ तिलोक : त्रिलोक । मा० २.२०६.३ तिलोकिए : त्रिलोकी भर में तीनों ही लोकों में। ‘मानहुं रह्यो है भरि बानरु तिलोकिए ।' कवि० ५.१७ तिलोकु : तिलोक+कए । एकीभूत सम्पूर्ण त्रैलोक्य । कवि० ६.५६ तिलोचन : कवि० ७.१५७ तिलौ : तिल भी, तिल भर भी, थोड़ा-सा भी । 'तुलसी तिलो न भयो बाहेर अगार को। कवि० ५.१२ तिष्टइ : आ० प्रब० (सं० तिष्ठति>प्रा० मागधी--तिस्टइ)। ठहरता है, रह सकता है। ‘भूत द्रोहँ तिष्टइ नहिं सोई ।' मा० ५.३८.७ तिष्ठन्ति : आ०प्रब० (सं.)। रहते हैं, स्थिति हैं । विन० ५७.५ तिसिरा : त्रिसिरा । मा० ३.२५ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोष 419 M तिहारिय, ये : तेरी ही । 'मोसे दीन दूबरे को तकिया तिहारिये ।' हनु० २२ तिहारी : तेरी। कृ०६ तिहारें : तेरे' से । 'सुजस तिहारें भरे भुअन ।' कवि० १.१६ तिहारे : तेरे । 'महरि तिहारे पायँ परौं ।' कृ. ७ तिहारो : बि.पु.कए । तेरा । 'सदा जन के मन बास तिहारो।' हनु० १६ तिहारोइ : तेरा ही। 'तहरोइ नामु गयंद चढ़ायो .' कवि० ७.६० । तिहं, तिह : तीनों। 'चहुं जगतीनि काल तिहुं लोका।' मा० १.२७.१ 'पुरुषसिंघ, तिहु पुर उजिआरे ।' मा० १.२६२.१ ।। तिहूँ : तिहुं+उ। तीनों ही । 'तजें तिहूं पुर अपजसु छावा।' मा० २.६५.६. तिहुन : तिहूँ । 'प्रीति परिच्छा तिहुन की।' दो० ३५२ ती : (१) हुती थी। (२) तिय । स्त्री। 'किय भूषन तिय ती को।' मा० १.१६.७ तीखी : वि०स्त्री० (सं० तीक्ष्णा>प्रा० तिक्खी)। तीव्र । 'तीखी तुरा तुलसी ___ कहतो, 4 हिएँ उपमा को समाउ न आयो।' कवि० ६.५४ तीखे : वि०पुब० (सं० तीक्ष्ण>प्रा० तिक्ख=तिक्खय)। तीव्र, अति वेगशील । 'तीखे तुरंग कुरंग सुरंगनि ।' कवि० ६.३२ तोच्छन, तीछन : तिक्खन (सं० तीक्ष्ण>प्रा० तिच्छ) । विन० ५५.४ 'राम भजन तीछन कुठार ।' विन० २०२.२ । तीछी : वि०स्त्री० (सं० तीक्ष्णा>प्रा० तिच्छी)। तीखी, तीव्र । 'तजहि बिषम बिषु तामस तीछी।' मा० २.२६२.८ । तोछे : (सं० तीक्ष्णेन>प्रा० तिच्छेण>अ. तिच्छे) तीक्ष्ण से । ‘राम बियोगि बिकल दुख तीछे।' मा० २.१४३.६ तीज : सं०+वि० (सं० तृतीय, तृतीया>प्रा० तिइज्ज, तिइज्जा>अ० तिइज्ज = ___तिज्ज) । (१) पक्ष की तीसरी तिथि+ (२) तीसरी (बात) । विन० २०३.४. तीजे : वि०पु० (सं० तृतीये>प्रा० तिइज्जे) । तीसरे । 'मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे ।' मा० १.१६६.७ तीतर : सं०पु० (सं० तित्तिरि) । पक्षिविशेष । कवि० ६.२६ तीतिर · तीतर । मा० ३.३८.७ तीनि : संख्या (सं० त्रीणि)। तीन । मा० १.२७.१ तीनिअवस्था : तुरीय को छोड़कर चेतन की शेष तीन दशाएँ :-- (१) जाग्रत = स्थूल शरीर =अन्नमय कोश= स्थूल देहाभिमानी जीवदशा। (२) स्वप्न सूक्ष्मश-रीर = (क) पञ्चकर्मेन्द्रिय सहित प्राणपञ्चक का प्राणमय कोश (ख) पञ्चज्ञानेन्द्रिय सहित मन का मनोमय कोश (ग) ज्ञानेन्द्रिय सहित बुद्धि का विज्ञानमय कोश सूक्ष्मशरीराभिमानी-जीवदशा (३) सुषुप्ति =कारणशरीर= -IS : Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 तुलसी शब्द-कोश आनन्दमय कोश=आनन्द रूप आत्मा+सूक्ष्म मायावृत्ति का आवरण= आनन्दाभिमानी जीवदशा । 'तीनि-अवस्थी तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि।' मा० ७.११७ ग । दे० तुरीय तोनिउँ : तीनों ने । 'कीन्हि दंडवत तीनिउँ भाई ।' मा० ७.३३.१ तीनिउ : तीनों। 'तीनिउ भाइ राम सम जानी ।' मा० १.३२८.६ तीनिहुं : तीनिउँ । 'कीन्ह बिबिध तप तीनिहुं भाई ।' मा० १.१७७.१ तीनी : तीनि । मा० ७.७१.६ तीनो : तीनिउ । दो० ५३८ तीव्र : वि० (सं० तीव्र) । तीक्ष्ण, वेगयुक्त । मा० ६.७१.४ तोय, या : तिय । मा० १.२४७.४ तीर : सं०० (सं.) (१) तट । 'जन सरि तीर तीर बन बागा। मा० १.४०.६ (२) (सं०+फा०) बाण । 'तकि तकि तीर महीस चलावा ।' मा० १.१५७.३ तीरथ : सं०० (सं० तीर्थ) । (१) पूज्य स्थानों के अधिदेव । 'तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं ।' मा० १.३४.६ (२) पूज्य पावन भू-भाग। 'तीरथ बर नैमिष बिख्याता।' मा० १.१४३.२ (३) तीर्थाटन । 'आजु सुफल तपु तीरथ त्यागू ।' मा० २.१०७.५ (४) पूज्य जन के जन्म-कर्म का प्रसिद्ध स्थान । 'चरन राम तीरथ चलि जाहीं।' मा० २.१२६.५ (५) उत्तम जलाश्रय=नदी-सरोवर आदि । 'तीरथ.........निमज्जहिं ।' मा० १.२२४.२ 'तीरथ-मज्जन ।' मा० ७.४६.२ तीरथन्ह : तीरथ+संब० । तीर्थो । 'सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए ।' मा० १.१५५.८ तीरथपति : तीरथराज । प्रयाग । मा० २.१०६२ तीरथराऊ : (दे० राऊ) । एकमात्र तीर्थों का राजा, प्रयाग । मा० १.२.१३ तीरथराज, जा : प्रयाग । मा० १.२.११; ४४.७ तीरथराजु, जू : तीरथराज+कए । एकमात्र तीर्थराज ।' मा० १.२.७; २.१०५.२ तीरा : तीर। (१) तट । 'पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा।' मा० १.१४३.५ (२) बाण। ____ 'छन महुं जरे निसाचर तीरा ।' मा० ६.६१.३ तीर्थाटन : (तीर्थ+अटन-सं०) तीर्थ यात्रा । मा० ७.१२६.४ तीस : संख्या (सं० त्रिंशत् >प्रा० तीसा) । मा० ६.६२.१० तीसर : वि०पु । तृतीय । मा० १.८७.६ तीसरि : वि०स्त्री० । तीसरी । मा० ३.३५ तीसरें : तीसरे में, पर । 'तीसरें उपास.. एक दिन दानु भो।' कवि० ५.३२ तीसरे : 'तीसर' का रूपान्तर । 'भरत तीसरे पहर कहें कीन्ह प्रबेस प्रयाग ।' मा० २.२०३ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश तु : अवधारणार्थक अव्यय (सं.)। तो। 'न तु कामी बिषया बस.........। मा० ____७.११५ क तो तु देहिं कबि खोरि ।' दो० ३१७ तुग : वि० (सं.)। उत्तुङ्ग, ऊँचा । मा० ३.१०१ छं० १ तुंड : सं०० (सं.)। (१) नासिका । (२) चोंच । 'सुक तुंड बिनिंदक सुभग सुउन्नत नासा ।' गी० ७.१२.७ (३) मुख । 'सारद ससि सम तुड ।' गी० ७.१६.४ तुबरि : सं०स्त्री० (सं० तुम्बी>अ० तु बडी) । लोकी । मा० १.११३.४ तुअ, व : तव (प्रा.) । तेरा, तेरी, तेरे । मा० २.२१ तुपक : सं०स्त्री० । तोप। दो० ५१५ तुभ्यं : सर्वनाम (सं.)। तुझको, तेरे लिए । मा० ७.१०८ छं० १५ तुम : तुम्ह। मा० १.५६.३ तुम्ह : सर्वनाम (सं० युष्मद्>प्रा० तुम्ह) । तुम । मा० १.४६ तुम्हइ : तुम ही, तुम्ही । 'जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।' मा० २.१२७ ३ तुम्हउ : तुम भी, तुमको भी। 'हमरें बयर तुम्हउ बिसराई।' मा० १.६२.२ तुम्हरिहि : तुम्हारी ही । मा० २.१२७.४ तुम्हरी : तुम्हारी के । 'है तुम्हरी सेवा बस राऊ ।' मा० २.२१.८ तुम्हरी : तुम्हारी । मा० १.१४.११ तुम्हरें : तुम्हारे में, से । 'भरत भगति तुम्हरें मन आई ।' मा० २.२६६.२ तुम्हरे : तुम्हारे । 'तुम्हरे हृदय होइ संदेहू ।' मा० २.५६.६ तुम्हरेई : तुम्हारे ही । 'तुम्हरेई भजन प्रभाव ।' मा० ३.१३.५ तुम्हरेहिं : तुम्हरेईं। मा० २.७५.३ तुम्हरो : तुम्हारो। तुम्हारा । कवि० ७.४१ तुम्हहि, ही : तुमको । 'जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ।' मा० २.१२७.३. तुम्हहि, हीं : तुम्ही, केवल तुम । तुम्हहु, हूं, हु, हू : तुम भी । 'तुम्हहू तात कहहु अब जाना ।' मा० ५.२७.७ तुम्हार, रा: (सं० युष्मदीय>अ० तुम्हार) मा० १.७७.६; ४६.३ तुम्हारि, री: मा० १.४७.३ तुम्हारें : तुम्हरें। तुम्हारे लिए। 'सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारे।' मा० २.६६.२ तुम्हारे : मा० १.१४६.३ तुम्हारो : तुम्हारा+कए० । मा० ६.१०६ छं० तुम्हैं : तुम्हारे । 'तुम्हें विद्यमान.. कपि रोप्यो पाउ ।' कवि० ६.२२ तुम्है : तुम्हीं। परिनाम तुम्है पछितैहो।' कवि० ७.१०२ तुरंग : सं०पू० (सं०) । अश्व । मा० २.१४३ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 तुलसी शब्द-कोश तरंगनि : तुरंग+सब० । घोड़ों (को)। 'चुचुकारि तुरंगनि सादर जाइ जोहारे ।' ___गी० १.४६.१ तुरंगा : तुरंग। मा० १.३१६.५ तुरंत : वि०+क्रि०वि० (सं० त्वरमाण>प्रा० तुरंत) । द्रुत गति लेता हुआ (शीघ्र) । 'जैहउँ नाथ तुरंत ।' मा० ६.६० क तरता : तुरंत । मा० ५.१.७ तुरग : तुरंग (सं०)। मा० २.१८७.४ तुरगा : तुरग । मा० ६.६२.१ तुरत : तुरंत; तुरित । 'तुरत कपिन्ह कहुं आयसु दीन्हा ।' मा० ५३४.७ तुरतहिं : जीघ्र ही । तत्काल ही। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ।' मा० ५.३.४ तुरा : सं०स्त्री० (सं० त्वरा) । अति शीघ्रता, अति वेग । कवि० ६.५४ तुराई : तुराई+ब० । तुलाइयाँ, गद्दे, दुलाइयाँ । 'बिविध बसन उपधान तुराई ।' ___ मा० २.६१.१ तराई : सं०स्त्री० (सं० तूलिका) । रुई का गद्दा-दुलाई आदि । मा० २.१४.६ तरित : क्रि०वि० (सं० त्वरित) । शीघ्र, तत्काल । 'तुरित गयउ कपि राम पहिं । ___ मा० ७.२ ख तुरीय : सं०+वि० (सं.) (१) चतुर्थ । (२) चेतन की चतुर्थ दशा जो तीन अवस्थाओं-जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति-से परे अन्तर्यामी अवस्था होती है और जो ब्रह्म का ही सूक्ष्म रूप है-दे० 'तीनि अवस्था।' 'तूल तुरीय संवारी पुनि ।' मा० ७.११७ ग तुरीयमेव : (सं०) चतुर्थदशामात्र (ब्रह्म) । मा० ३.४.६ तुलसि : तुलसी । क्षुपविशेष । मा० १.३४६ ५ तलसिका : तुलसी (सं.)। (१) क्षपविशेष । 'उरन्हि तुलसिका माल ।' मा० १.२४३ (२) जालन्धर असुर की पत्नी जो तुलसीक्षुप के रूप में अवतीर्ण मानी गयी है । 'अजहुं तुलसिका हरिहि प्रिय ।' मा० ३.५ क तुलसिदास : तुलसीदास । मा० १.१६६ तुलसी : तुलसीदास ने । 'तुलसी लख्यो राम सुभाउ तिहारो।' कवि० ७.३ तुलसी : सं०स्त्री० (सं०) । (१) तुलसी नामक पूछ्य क्षुपविशेष । 'जो सुमिरत भयो भांग ते तुलसी तुलसीदासु ।' मा० १.२६ (२) जालन्ध की पत्नी जो तुलसी वृक्ष होकर अवतीर्ण हुई जब विष्णु ने उसका सतीत्व भङ्ग कर जालंधर को मारा; उसके सतीत्व के कारण विष्णु ने उसे अङ्गीकार किया । ‘रामहिं प्रिय पावनि तुलसी-सी।' मा० १.३१.१२ (३) तुलसीदास कवि । मा०. १.१० छं० Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 423 तुलसीक : तुलसीदास के लिए । 'तो नीको तुलसीक ।' मा० १.२६ ख तुलसीदास : कवि का नाम । मा० १.२८ ख तुलसीदासु : तुलसीदास+कए० । मा० १.२६ तुलसीस : (सं० तुलसीश) तुलसीदास के स्वामी राम । मा० १.३३६ छं० तुलसीस्वरी : (सं० तुलसीश्वरी) तुलसीदास की आराध्या= सीता । कवि० ६.२ तुला : तुला पर, तराजू पर (उपमा में)। 'भले सुकृती के संग मोहि तुला तौलिए।' कवि० ७.७१ तुला : सं०स्त्री० (सं०) । (१) उपमा-जिसके उपमान और उपमेय दो मुख्य ___ अङ्ग होते हैं । (२) तराजू-जिसके अङ्ग दो पल्ले होते हैं । 'घरिअ तुला एक ___ अंग।' मा० ५.४ तष : सं०० (सं०) । भूली, छिलका । दो० ३०३ तुषार : सं०० (सं०) । पाला, हिम (बर्फ) । मा० ६.११५.५ (२) ओस । तुषाराद्रि : सं०० (सं.)। हिमालय । मा० ७.१०८.३ तुषारु : तुषार+कए । ओस । 'मनहुं मरकत मदु सिखर पर लसत बिसद तुषार ।' क० १४ तुसार : तुषार । मा० २.१६३ तुसारु, रू : तुषारु । पाला । 'मनहुं कमल बन परेउ तुषारू ।' मा० २.२६३.२ तुहिन : सं०० (सं०) । तुषार, पाला, हिम । मा० २.७१.८ तुहिनगिरि : हिमाचल । मा० १.६७ तुहिनाचल : हिमाचल । मा० १.६४.६ तुही : तू ही। 'राम गुलाम तुही हनुमान ।' हनु० ३६ तहूं : तू भी । 'तुहूं सराहसि करसि सनेहू ।' मा० २.३२.७ तूं : मध्यम पुरुषीय सर्वनाम (सं० त्वम् >प्रा० तुं) । तू । 'जननी तूं जननी भई।' मा० २.१६१ तू : तू (फ़ा०) । मा० २.१६२.७ तूठनि : स०स्त्री० । तुष्ट (प्रसन्न) होने की क्रिया । 'रूठनि तूठनि किलकनि...।' गी० १.३०.३ तू ठहि : आ०प्रब । सन्तुष्ट होते हैं । 'तूठहिं निज रुचि काज करि ।' दो० ४७६ तूणीर : सं०० (सं.)। निषङ्ग, तरकस । मा० ३ श्लोक २ तून : तूणीर । (सं० तूण) । मा० १.२६८.८ तूनीर : तूणीर । मा० १.२४४.१ तूनीरा : तूनीर । मा० २.११५.८ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 तुलसी शब्द-कोश । वाद्य, वाद्यविशेष = तुड़हो । 'पाछें लागे बाजत निसान तूर : सं०पु० (सं० तूर्य ) ढोल तूर हैं ।' कवि० ५.३ तूरना : तुर । 'डोले लोल बूझत सबद ढोल तूरना । कवि० ७.१४८ तूरी : पूकृ० । तोड़कर । 'मन तन बचन तजे तिन तूरी ।' मा० २.३२४.५ तूल : (१) सं०पु० + स्त्री० (सं० ) । रूई | मा० ७.११७ग ( २ ) वि० (सं० तुल्य > प्रा० तुल्ल) । समान, सदृश । 'तून न तासु सकल मिलि ।' मा० ५.४ तुला : तूल। (१) रूई । 'जासु नाम पावक अघतूला ।' मा० २.२४८.२ (२) तुल्य । दे० समतुला । मा० १.११३.४ तृन : तिन । तिनका, घास । मा० १.१६७.७ (२) पापी से बात करने में तिनके का व्यवधान करके बात करने की परम्परा रही है दे० दूतवाक्यम् ( भासकृत व्यायोग) श्लोक ३५ वासुदेव: - भोः कुरुकुल कलङ्कभूत अयशोलुब्ध वयं किल तृणान्तराभि भाषका: । दुर्योधनः- भो गोपालक तृणान्तराभि भाष्यो भवान् - अवध्यां प्रमदां हत्वा हयं गोवृषमेव च । मल्लानपि सुनिर्लज्जो वक्तुमिच्छसि साधुभिः || ३६॥ अतएव गोस्वामी जी का वचन है तुन धरि ओट कहति बैदेही । मा० ५ तृनासन : (१) (सं० तृणासन ) तिनकों का आसन । (२) (सं० तृणाशन) घास का भोजन = सागपात । 'बार कोटि सिर काटि साटि लटि रावन संकर पै लई । सोइ लंका लखि अतिथि अनवसर राम तृनासन ज्यों दई ।' गी० ५.३८.३ तृनु : तृन + कए० । घास की एक पत्ती । 'देह गेह सब सन तनु तोरें ।' मा० २.७०.६ तृपित : भूकृ०वि० (सं० तृप्त ) । सन्तुष्ट, पूर्णकाम | मा० २.२६० तृपिति : तृप्ति । मा० ७.११६.६ तृप्ति : सं० [स्त्री० (सं० ) । तुष्टि, अघाव, इच्छापूर्ति । 'तृप्ति न मानहि मनु सतरूपा ।' मा० १.१४८.६ तृषा : सं० स्त्री० (सं० ) । प्यास । मा० ४.१७.५ तृषावंत : वि०पु० (सं० तृषावत्) प्यासा । मा० ७.२.६ तृषित: वि० (सं० ) । प्यासा । ' तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा । मा० १.२६१.२ तृस्न : तृष्णा ने । 'तुस्ना केहि न कीन्ह बौराहा ।' मा० ७.७०.८ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 425 तृस्ना : सं०स्त्री० (सं० तृष्णा)। (१) तृषा, प्यास । (२) दृढ़ इच्छा, तीव्र _ लालसा । 'तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी।' मा० ७.१२१.३६ तें: अव्यय (सं० तेन>प्रा० तेण>अ० तें) । से। तेहि तें कछु गुन दोष बखाने ।' मा० १.६.२ ते : (१) तें। से । 'अहि मसक ते हीन ।' मा० ७.१२२ ख (२) हुते। थे। 'तिन्ह के काज साधु समाजु तजि कृपासिंधु उठि गे ते ।' विन० २४१.३ (३) प्रथमपुरुषीय सर्वनाम (सं० ते)। वे। 'ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं।' मा० १.८.१२ (४) मध्यम पुरुष सर्वनाम (सं० ते) । तुझे, तेरे लिए । 'राम नमामि ते।' मा० ७.१३० छं० १ तेई : उसने । “एक मास तेइँ जात न जाना।' मा० १.१६५.८ तेइ, ई : वे ही । तेइ रघुनंदन लखन सिय ।' मा० २.२६२ 'भए उपल बोहित सम तेई ।' मा० ६.३.८ तेउ, ऊ : वे भी । 'परम कौतुकी तेउ ।' मा० १.१३३ 'बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ ।' मा० १.७.५ तेज : सं०० (सं० तेजस्) । (१) आतप (घाम) (२) ओज (आभा आदि)। ___'बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा ।' मा० ७ ९०.५ तेजवंत : वि.पु । तेजस्वी, प्रतापी । 'तेजवंत लघु गनिअ न रानी।' मा० १.२५६.६ तेजसी : वि.पु. (सं० तेजस्वी)। प्रतापी, प्रभावशाली । मा० १.१७० तेजहत : वि० (सं० तेजोहत)। प्रताप से रहित, निठप्रभ, प्रभावहीन । मा० ६.३५.४० तेजायतन : (तेज+आयतन) । प्रतापागार, प्रभावशाली। विन० ४६१ तेजी : वि०स्त्री० (फा० तेज) । महँगी। 'तेजी माटी मगहू की मृगमद साथ जू ।' कवि० ७.१६ तेजु : तेज+कए । एकमात्र प्रताप । 'दुरे नखत जग तेजु प्रकासा ।' मा० १.२३६.४ तेते : वि.०ब० । (सं० तावत्>प्रा० तेत्तिअ)। उतने । 'कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते।' मा० ३.४६.८ तेन्ह : तिन्ह । 'तेन्ह कर मरन एक बिधि होई।' मा० १.१८१.७ तेपि : (सं.) वे भी । 'तेपि कामबस भए बियोगी।' मा० १.८५.८ तेरस : सं०+वि०स्त्री० (सं० त्रयोदशी>प्रा० तेरसी)। (१) तेरहवीं (२) पक्ष ____ की तेरहवीं तिथि ।' विन० २०३.१४ तेरहुति : सं०स्त्री० । जनक देश, मिथिला । मा० २.२७१ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 तुलसी शब्द-कोश तेरहूति : तेरहुति । मा० २.२६२.८ तेरिये : तेरी ही। 'अवलंब मेरे तेरिये ।' हनु० ३४ तेरी : सार्वनामिक वि० (स्त्री०)। हनु० २८ तेरे : वि.पु । 'सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे।' मा० ६.३०.४ तेरेउ : तेरे भी । 'कलि तेरेउ मन गृन गन कीले ।' विन० ३२.२ तेरो: वि.पु.कए । तेरा । हनु० २३ तेल : सं०पु० (सं० तैल>प्रा० तेल्ल) । मा० २.१५७.१ तेला : तेल । मा० ५.२५.५ तेलि : सं०पु० (सं० तैलिक>प्रा. तेल्लिअ)। तैल व्यवसायी जाति । मा० ७.१००.५ तेल : तेल+कए । माङ्गलिक तैलविशेष । 'करि कुलरीति कलस थपि तेलु चढ़ावहिं ।' जा मं० ११५ तेषां : सर्वनाम (सं०) । उनका-की-के । मा० ७.१०८.६ तेहिं : (१) उसने । 'तेहिं अपने मन अस अनुमाना।' मा० ६.४६.४ (२) उससे । 'तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन ।' मा० १.२.२ (३) उस पर । तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई ।' मा० १.१३.१० तेहि : (१) उस । 'सनमुख होइ न सके तेहि अवसर ।' मा० ६.५०.६ (२) उसे, उसके लिए, उसके प्रति । 'जो जेहि भाव नीक तेहि सोई ।' मा० १.५.६ तेही : तेहिं । उसी । तेही समय बिभीषनु जागा।' मा० ५.६.२ तेही : तेहि । उस, उसी। 'बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही ।' मा० १.४.१० ते : मध्यमपुरुष सर्वनाम (सं० त्वया>प्रा० तइ>अ० तइँ)। (१) तूने । 'सीता ते मम कृत अपमाना।' मा० ५.१०.१ (२) तू । 'तै निसिचर पति गर्ब बहूता।" मा० ६.३०.७ (३) परायेपन का भाव (अहंकार का रूप) । 'मैं तें मोर मूढ़ता त्यागू ।' मा० ६.५६.७ तैलिक : तेली। विन० २५.७ तैसइ : वैसा ही । 'तैसइ सीलरूप सुबिनीता ।' मा० ३.२४.४ तैसिअ, य य : वैसी ही । तसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी ।' मा० २.६५.७ तैसी : वि०स्त्री० (सं० तादशी>प्रा० तारिसी>प्रा० तइसी)। वैसी। मा० २.२८६.६ तैसें : उस प्रकार से । 'तेज निधान लखनु पुनि तैसें ।' मा० १.२६३.३ तैसेइ : वैसे ही । 'तैसे इ भूप संग दुइ ढोटा ।' मा० १.३११.३ तैसेहिं : उसी प्रकार से । मा० २.२३०.७ तैसो : वि०पु०कए । वैसा । 'मुख तसो रिस लाल भो।' कवि० ५.४ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 427 तेहैं : आ०म०प्रब० । (१) (सं० तप्स्यन्ति>प्रा० तविहिति>अ० तविहिहिं) । सन्तप्त करेंगे (२) (सं० तायिष्यन्ते>प्रा० ताइहिति>अ० ताइहिहिं) । संवृत करेंगे, छिपा देंगे। 'तनु छबि कोटि मनोजन्हि तेहैं।' गी० ५.५०.४ (दे० तावों) तो : (१) तुअ । तव , तुझ। 'सपनेहुं तो पर को पुन मोही।' मा० २.१५.१ (२) तु । 'अब तो दादुर बोलि हैं।' दो० ५६४ (३) तो (तर्हि) । 'तो तुलसिहि तारिहो।' विन० ६६.३ (४) हुतो । था। ‘मो तें कोउ न सबल तो।' गी० ५.१३.५ तोतरात : वकृ.पु । तुतलाते, रुक-रुक कर शिशुवाणी बोलते, जीभ के व्याघात से अस्पष्ट उच्चारण करते । 'मुनिमन हरत बचन कहैं तोतरात ।' कृ० २ तोतरि : वि०स्त्री० । तुतली, लड़खड़ाती (ध्वनि) । 'जौं बालक कह तोतरि बाता।' मा० १.८.६ तोतरे : वि०पू०ब० । तुतले, लटपटाते। 'अति प्रिय मधुर तोतरे बोला।' मा० १.१६६.६ तोपची : संपु० (फा०) । तोप दागने वाला । दो० ५१५ तोपिएँ : आ०म०प्रब० । पाट देंगे, (गर्त) भर देंगे। 'तुलसी बड़े पहार ले पयोधि तोपिहैं।' कवि० ६.१ तोपं : आ०प्रब । तोपे दे रहे हैं, पाट रहे हैं। 'तोपें तोयनिधि, सुर को समाजु हरषा।' कवि० ६.७ तोप्यो : भूकृ.पु०कए० । तोप दिया, पाट दिया (ढक दिया)। 'बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो।' मा० ६.६३.३ तोम : सं०० (सं० स्तोत्र) । समूह । 'तीतर तोम तमीचर सेन ।' कवि० ६.२६ तोमनि : तोम+संब० । समूहों। 'महामीनाबास तिमि तोमनि को थलु भो।' हनु०७ तोमर : सपु० (सं०) । लोहे का बड़ा भारी भाला । मा० ३.१६ छं० तोय : स०पु० (स०) । जल । मा० २.३०६ तोयनिधि : समुद्र । मा० ६.५ तोर : वि.पु । तेरा । 'जदपि न दूषन तोर ।' मा० १.१७४ (२) परायेपन का भाव । 'मैं अरु मोर तोर ते माया।' मा० ३.१५.२ /तार, तोरइ : (सं० तोडति-तुड छेदे>प्रा० तोडइ-तोड़ना, छिन्न करना) आ०ए० । तोड़ता है, तोड़ सकता है, तोड़े, तोड़ सके। 'धनु तोरै सो बरै जानकी ।' गी० १.८६.३ तोरत : वकृ.पु । तोड़ता-ते । तुलसी तोरत तीर तरु ।' दो० ४६८ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 तुलसी शब्द-कोश तोरन : सं०० (सं० तोरण) (१) बहिरि, फाटक । (२) मङ्गलोत्सव में बनाया सजाया कृत्रिम द्वार । मा० १.१६४.१ तोरब : (१) भकृ०० (सं० तोडितव्य>प्रा० तोडिअव्व)। तोड़ना । 'रहउ चढ़ाउब तोरब भाई ।' मा० १.२५२.२ (२) तोड़ना होगा (तोड़ेंगे) । 'राम चाप तोरब, सक नाहीं ।' मा० १.२४५.२ तोरहीं : आ०प्रब० (सं० तोडन्ति>प्रा० तोडंति>अ० तोडहिं)। तोड़ते हैं । 'बिलोकि सब तिन तोरहीं।' मा० १.३२७ छं०१ तोरहुं : आ०-कामना-प्रब० (ईश्वर करे कि) तोड़ डालें, तोड़ सकें। 'ती सिव धनु मनाल की नाईं। 'तोरहुं राम गनेस गोसाई।' मा० १.२५५.८ तोरा : (१) तोर । तोरा । 'कृष्न तनय होइहि पति तोरा।' मा० १.८८.२ (२) भकृ.पु०ए० (सं० तोडित >प्रा० तोडिअ)। तोड़ा, खण्डित किया । तेहि छन मध्य राम धनु तोरा।' मा० १.२६१.८ तोराइ : पूकृ० (सं० तोडयित्वा>प्रा० तोडाविअ>अ. तोडावि) । तुड़ा कर, बन्धनविच्छेद करके । 'बागुर विषम तोराइ मनहुं भाग मगु भागबस ।' मा० २.७५ तोराई : वि०स्त्री० (सं० त्वरावती) । द्रुतगामिनी । (२) (सं० त्वरयित्त्वा>प्रा० तोराविअ>अ० तोरावि) । शीघ्रता करके । 'छुद्र नदी भरि चली तोराई ।' मा० ४.१४.५ (यहाँ 'तोराइ' वाला अर्थ भी है-जिस प्रकार क्षुद्र स्त्री मर्यादा तोड़कर चलती है, उसी प्रकार नदी सीमा तोड़कर बह चली) तोरावति : वि०स्त्री० (सं० त्वरावती)। द्रुतगामिनी+ (सं० तोडयन्ती>प्रा. तोडावंती) मर्यादा भङ्ग करने वाली =सीमा तोड़कर शीघ्र गति लेती हुई। ____ बिषम बिषाद तोरावति धारा।' मा० २.२७६.३ तोरि : (१) सार्वनामिक वि०स्त्री० । तेरी। 'भूपं प्रतीति तोरि किमि कीन्ही ।' मा० २.१६२.३ (२) पूकृ० (सं० तोडयित्वा>प्रा० तोडिअ>अ० तोडि)। तोड़कर। संभु सरासन तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु ।' मा० १.२८० तोरिए : आ०कवा०प्रए० (सं० तोड्यते>प्रा० तोडीअइ) । तोड़ा जाय । 'तुलसीस तोरिए सरासन इसान को।' गी० १.८८.५ तोरिबे : भूकृ.पु । तोड़ने । 'मैं तव दसन तोरिबे लायक ।' मा० ६.३४.१ तोरिहिं : आ०भ० प्रब० (सं० तोडिष्यन्ति>प्रा० तोडिहिंति>अ० तोडिहिहिं)। ___तोड़ेंगे । 'तमकि ताहि ए तोरिहिं कहब महेस ।' बर० १५ तोरी : भूकृ०स्त्री०ब० । तोड़ी, उच्छिन्न की। 'बहु धनहीं तोरी लरिकाई ।' मा० १.२७१.७ तोरी : (१) तोरि । तेरी । 'अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं ।' मा० १.१६३ छं. Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-काश 429 (२) तोरि । तोड़कर । 'निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।' मा० १.१६८.५ (३) भूकृ०स्त्री० । तोड़ डाली। तोरें: (१) तुझमें । 'सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें।' मा० ३.३६.७ (२) तेरे में। 'कर गत बेद तत्त्व सब तोरें ।' मा० १.४५.७ (३) तेरे.. से । 'अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें।' मा० १.२०५.२ (४) तोड़ने से (सं० तोडितेन>प्रा० तोडिएण >अ० तोडिएँ) । 'तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई ।' मा० १.२६६.४ (५) तोड़े हुए (स्थिति में) । 'देह गेह सब सन तनु तोरें।' मा० २.७०.६ तोरे : (१) सार्वनामिक वि०पू० । तेरे । 'राम प्रताप नाथ बल तोरे ।' मा० २.१६२.१ (२) भूक००ब० (सं० तोडित>प्रा० तोडिय) । उच्छिन्न किये। ____ 'तुलसी जे तोरे तरु, किए देव, दिए बरु ।' कृ० १७ तोरे : आ०-भूक००+उए । मैंने तोड़े । 'कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा।' मा० ५.२२.३ तोरेहुं : तोड़ने पर भी। 'तोरेहुं धनुष ब्याहु अवगाहा ।' मा० १.२४५.६ तोरै : भकृ० अव्यय । तोड़ने । ‘फल खाएसि तरु तोरै लागा।' मा० ५.१८.१ तो : तोरइ । तोरौं : आ०उए० (सं० तोडामि>प्रा० तोडमि>अ० तोडउँ)। तोड़ता हूं, तोड़ डालू , तोड़ सकता हूं। 'तोरौं छत्रक दंड जिमि ।' मा० १.२५३ तोर्यो : भूकृ.पु.कए । तोड़ डाला। 'बालक नृपाल जू के ख्याल ही पिनाकु ____तोर्यो।' कवि० १.१२ तोष : सं०० (सं०) । सन्तोष, तुष्टि । 'तोष मरुत तब छमा जुड़ावै ।' मा० ७.११७.१४ तोषक : वि० (सं.) । तृष्ट करने वाला । मा० १.४३.४ तोषन : वि०० । तुष्ट करने (के शील) वाला । मा० ७.१०६.११ तोषनिहारा : वि.० । तुष्ट करने वाला । मा० २.४१.८ तोषये : सन्तुष्ट करने के लिए। मा० ७.१०८.६ तोषा : तोष । मा० १.४३.४ तोषि : पूकृ० । सन्तुष्ट करके । 'पोषि तोषि थापि आपनो न अवडेरिए।' हनु० ३४ तोषिए, ये : आ०कवा०प्रए । संतुष्ट कीजिए । 'तुलसिदास हरि तोषिये सो साधन नाहीं ।' विन० १०६.५ तोषि हैं : आ० भ०प्रए । तुष्ट करेंगे । 'जोगिनी जमति कालिका कलाप तोषिहैं ।' कवि० ६.२ तोष : तोष+कए । 'बिन अधार मन तोषु न साँती।' मा० २ ३१६.२ तोषे : भूकृ००ब० । तोषयुक्त हुए । 'तोषे राम सखा की से।' मा० २.२२१.३ तोषेउ : भूकृ००कए० । तोषयुक्त हुआ । 'प्रभु तोषेउ ।' मा० १.७७.६ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 तुलसी शब्द-कोश तोहारा : (अ० तुहार) तेरा । मा० १.२८२.६ तोहि : तोहि । 'तोहिं स्याम को सपथ जसोदा ।' कृ० ३ तोहि : तुझे । 'सपन सुनावउँ तोहि ।' मा० १.७२ तोही : तोहि । 'प्रिय बादिनि सिख दीन्हिउँ तोही।' मा० २.१५.१ तोह : तुझे भी। 'तोहू है बिदित बलु।' कवि० ६.११ ।। तौंको : पूकृ० । तौंक कर, तमक कर, आँच से तमतमा कर। 'लपटें झपट सो ___ तमीचर तौंकी ।' कवि० ७.१४३ तौंसिअत : वकृ.पु०कवा० (तमस्+कर्मवाच्य कृ०)। (धुएँ के धुन्ध में) अंधराये जाते (हुए) । 'तात तात तौंसिअत झौंसिअत झारहीं।' कवि० ५.१५ तौ : अव्यय । (१) तो, उस दशा में, तब । 'तो कहि प्रगट जनावहु सोई।' मा० २.५०.६ (२) तु । 'गंगाजल कर कलस तो तुरित मँगाइय हो।' रा०न० ३ (३) (सं तावत् >प्रा० ताव) । पहले, सर्वप्रथम । 'प्रभु कर चरन पछालि तो अति सुकुमारी हो ।' रा०न० १५ (४) त उ । तो भी। ‘ऐसे भए तो कहा तुलसी ।' कवि० ७.४४ तौलि : पूकृ० । तोलकर (आजमाकर) 'मनहुं तौलि निज बाहु बल चला।' मा० १.१७६ तौलिए, ये : आ०कवा०प्रए० । तोला जाय । 'भले सुकृती के संग मोहि तुला तोलिये ___ तो नाम के प्रसाद भारु मेरी ओर नमिहै ।' कवि० ७.७१ तौलौं : तब तक । 'जो लौं कान्ह रही गुन गोए। तोलौं तुम्हहि पत्यात लोग सब।' कृ० ११ तौल्यो : भूकृ०पु०कए । तोल लिया (उठा लिया)। जेहिं तौल्यौ कैलास ।' दो० १६७ त्यक्त : भूकृ० (सं०) । त्यागा हुआ-त्यागे हुए। विन० ५०.५ त्याग : सं०० (सं.)। (१) परिहार, छोड़ना । 'संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने ।' मा० १.६.२ (२) दान, सांसारिकता के प्रति विराग । 'ध्यान को भषन त्याग।' वरा०४४ त्यागइ : त्याग+प्रए । छोड़ता है। 'जलहीन मीन तनु त्यागइ ।' पा०म० ६० त्यागत : त्याग+ वकृ०पु । छोड़ता। मा० ७.१४ छं० ७ त्यागन : त्याज्य । 'त्यागन गहन उपेच्छनी ।' विन० १२४.२ त्याहिं : त्याग+प्रब० । छोड़ते हैं । 'मुनि ध्यान त्यागहिं ।' मा० १.३२२ छं० त्यागहु, हू : त्याग+मब० । (१) छोड़ते हो। यह सामरथ अछत मोहि त्यागहु ।' विन० ६४.५ (२) छोड़ो। 'त्यागहु तम अभिमान ।' मा० ५.२३ त्यागा : त्याग+भूकृ०० । छोड़ दिया। 'सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा।' मा० Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 431 त्यागि : त्याग+पूकृ० । छोड़ (कर) । 'सकउँ पूत पति त्यागि ।' मा० २.२१ त्यागिहहिं : त्याग+भप्रब० । छोड़ेंगे । 'आपन जानि न त्यागिहहिं ।' मा० २.१८३ त्यागिहै : (१) त्याग+भ०प्रए० । छोड़ेगा। (२) मए । तू छोड़ेगा। 'कुटिल कपट कब त्यागिहै।' विन० २२४.१ त्यागी : (१) वि.पु । उदार, दानी । (२) छोड़ने वाला। 'माया त्यागी संत ।' वैरा० ३२ (३) त्यागि। 'सिव समाधि बैठे सब त्यागी।' मा० १.८३.३ (४) त्याग+भूकृ०स्त्री० । छोड़ दी। 'मन हौं तजी, कान्ह हौं त्यागी।' कृ० २५ त्याग, गू : (१) त्याग+कए । दान आदि । 'आजु सुफल तपु तीरथ त्याग ।' मा० २.१०७.५ (२) त्याग+आज्ञा-मए । तू छोड़ । 'मैं तें मोर मूढ़ता त्याग ।' मा० ६.५६.७ त्यागें : छोड़े हुए, छोड़ कर । 'तब चलि गयउ निकट भय त्यागें।' मा० ६.५४.८ त्यागे : त्याग+भूक.पुब० । छोड़ दिये । 'बारि अधार मूल फल त्यागे ।' मा० १.१४४.२ त्यागेउ : त्याग+भक.पु.कए । छोड़ दिया। 'बरस सहस दस त्यागेउ सोऊ।' मा० १.१४५.१ त्याग : त्यागइ । छोड़ दे । 'जो पन त्यागे ।' जा०म० ७० त्यागौं : त्याग+उए । छोड़, छोड़ सकता हूँ। 'हौं तौ नहिं त्यागौं ।' विन० १७७.१ त्यागो : त्यागहु । 'जो तुम त्यागौ राम ।' विन० १७७.१ त्यों, त्यौं : (१) तिमि (अ० तेव)। उस प्रकार । 'तुलसी ज्यों ज्यों घटत तेज तन त्यों त्यों प्रीति अधिकाई ।' गी० २.७६.४ (२) ओर (तन) । 'चित तुम्ह त्यों हमरो मन मोहैं ।' कवि० २.२१ त्रपा : संस्त्री० (सं.)। लज्जा । 'भए बिहाल नपाल पा हैं । गी० ७.१३.५ त्रय : सं०० (सं०) । तीन का समूह (तीन)। 'तपत सदा त्रय ताप ।' वैरा० ६ त्रयताप : तापत्रय । मा० १.३६.६ त्रयो : सं०० (सं.)। (१) तीन का समूह (२) वेदत्रयी=ऋक्, यजुः, साम । 'अदभुत त्रयी किधौं पठई है।' गी० २.२४.३ त्रसित : भूकृ०वि० (सं० त्रस्त) । भयभीत । मा० १.१७४.८ त्रसे : त्रसित । डर गये । 'कमठ भू भूधर त्रसे।' मा० ६.६१ छं० त्रस्त : त्रसित । विन० ५९.६ त्रस्यो : भूक००कए । डर गया । 'बली त्रास त्रस्यो हौं ।' विन० १८१.४ त्रातहि : त्राता को, रक्षक को । मा० ७.३०.३ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 तुलसी शब्द-कोश त्राता : वि०पु० (सं०) । रक्षक । मा० ७ ८३.२ त्रात : आ०-प्रार्थना-प्रए० (सं० त्रायताम् =पातु) । रक्षा करे । मा० ३.११.६ त्रान : सं०० (सं० त्राण) । रक्षा, रक्षा साधन । 'नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया।' मा० २.२१६.५ त्राना : बान । मा० ६.८०.३ त्रास : सं००+स्त्री० (सं०) । भय । मा० १.६३.१ त्रासइ : त्रास +प्रए । भयभीत करता है । 'तेहि बहु बिधि त्रासइ देस निकासइ ।' मा० १.१८३ छं० त्रासक : वि० (सं.)। भयदायक । त्रिविध ताप त्रासक तिमुहानी।' मा० १.४०.४ त्रासक : त्रासक+कए० । एकमात्र भयदाता । 'तरनि त्रासकु।' गी० ६.१४.५ त्रासन : (१) त्रास+संबल । त्रासों (से) । 'त्रासन चकित सो परावनो परो सो है।' कवि० ७.८४ (२) संपु० (सं०) । त्रस्त करना । 'बांधि करि त्रासन दीन्हो ।' कवि० ७.११७ त्रासहु : त्रास+मब० । डराओ, भयभीत करो। 'सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई ।" मा० ५.१०.८ त्रासा : त्रास । 'भाजि भवन पैठी अति त्रासा।' मा० १.६६.५ त्रासित : भूक०वि० (सं०) । डराया हुआ, भयाक्रान्त किया हुआ । 'एक एक रिपु. - तें त्रासित जन ।' विन० ६३.५ त्राहि : आ०-प्रार्थना-मए० (सं० त्रायस्व =पाहि) । तू रक्षा कर । 'त्राहि त्राहि आरत जन त्राता।' मा० ७.८३.२ (२) रक्षा हेतु कहा जाने वाला शब्द । त्राहि तीनि कह्यो द्रौपदी।' दो० १६९ त्रिकाल : तीन काल =भूत, वर्तमान, भविष्यत् । 'तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनि नाथा।' मा० २.१२५.७ त्रिकालग्य : (सं० त्रिकालज्ञ)। तीनों कालों के विषयों का ज्ञाता। मा० १.६६ त्रिकूट : सं०० (सं०) । तीन शिखरों वाला पर्वत विशेष जिस पर लङका बसी थी। मा० १.१७८.५ त्रिकूट : त्रिकूट+कए । 'त्रिकूट उपारि लै बारिधि बोरौं ।' कवि० ६.१४ त्रिगुन : माया (प्रकृति) के तीन गुण - (१) सत्त्व गुण=प्रकाश, सुख, ज्ञान । (२) रजोगुण =चपलता, दुःख । (३) तमोगुण =मोह, अज्ञान । त्रिगुनपर : माया के तीनों गुणों से परे=निगुण । 'त्रिपुरारि त्रिलोचन त्रिगुनपर।" ___ कवि० ७.१५० त्रिजग : सं०० (सं० तिर्यक्-ग) । तमोगुणी सृष्टि = पशुपक्षी आदि । 'त्रिजग देक नर असुर समेते।' मा० ७.८७.६ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 433 त्रिजटा : त्रिजटाने । 'त्रिजटा कहा ।' मा० ६.६६ छं० त्रिजटा : (सं०) एक राक्षसी जो सीता की सखी हो गयी थी। मा० ५.११.१ त्रिताप : तापत्रय । हनु० २८ त्रिदस : सं०० (सं० त्रिदश)। देव । कवि० ७.१५० त्रिदोष : सं०० (सं.)। आयुर्वेद वर्णित तीन तत्त्व- वात, पित्त और कफ जब ___ कुपित होते हैं तो सन्निपात रोग (त्रिदोष) बनता है । हनु० २६ त्रिदोषदाह : सन्निपात रोग की जलन । कवि० ६.२५ त्रिदोषे : भूक००ब० । त्रिदोषग्रस्त, सन्निपात रोगी । 'कैधौं कूर काल बस तमकि त्रिदोषे हैं।' गी० १.६५.२ त्रिपथ : तीन मार्ग (स्वर्ग, पाताल, मर्त्य)। 'त्रिपथ लससि नभ पताल धरनि ।' विन० २०.१ त्रिपथगा : सं०स्त्री० (सं०) । गङ्गा । विन० १७.१ त्रिपथगामिनि : त्रिपथगा। कवि० २.६ त्रिपुंड : सं०० (सं० त्रिपुण्ड)। मस्तक पर भस्म आदि की तीन आड़ी रेखाएँ । मा० १.२६८.४ त्रिपुर : सं०० (सं.)। (१) असुरविशेष के तीन नगर=स्वर्ण, चाँदी तथा लौह के पुर जो त्रिगुण के प्रतीक हैं (२) उन नगरों का स्वामी असुर= त्रिपुरासुर । मा० १.५७.८ त्रिपुरारि, री : त्रिपुर के शत्रु-शिवजी । मा० १.४६; ४८.६ त्रिबलि, ली : सं०स्त्री. (सं० त्रिवलि, त्रिवली)। उदर की तीन सिकुड़नें या रेखाएं । गी० ७.१६.३ 'नाभी सर त्रिबली निसेनिका ।' गी० ७.१७.६ त्रिबिक्रम : सं+वि० (सं० त्रिविक्रम)। विष्णु, विराट् भगवान् जिन्होंने तीनों लोकों को तीन डगों =पादक्षेपों (विक्रमों) में नापा था (ऋग्वेद में त्रिलोक व्यापी परमात्मा) । मा० ४.२६.८ त्रिविध : वि० (सं० त्रिविध)। तीन प्रकारों (विधाओं) वाला। 'त्रिविध ताप त्रासक तिमुहानी।' मा० १.४०.४ त्रिबिधि : त्रिबिध । तीन विधियों (रीतियों प्रकारों) वाला । 'त्रिबिधि ताप भव दाप नसावनि ।' मा० ७.३५.१ त्रिबेनिहिं : त्रिवेणी में । 'त्रिबेनिहिं आए।' मा० २.२०४.३ त्रिबेनी : त्रिवेणी में । 'सादर मजहिं सकल त्रिबेनीं।' मा० १.४४.४ त्रिबेनी : सं०स्त्री० (सं० त्रिवेणी) । प्रयाग में गङ्गा-यमुना-सरस्वती की त्रिधारा (तीन वेणियों) का संगम । मा० २.२०५.६ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश त्रिभंग : सं०पु० (सं० ) । खड़े होने की विशेष मुद्रा जिसमें घुटने, कटि और ग्रीवा टेढ़े रहते हैं । (२) उस मुद्रा में खड़ा होने वाला - ली (कृष्ण) । 'जो हैं मूरति त्रिभंग ।' कृ० २० त्रिभुअन : त्रिभुवन । मा० ६.८३ छं० त्रिभुवन : सं०पु० (सं० ) । स्वर्ग, मर्त्य और पाताल लोकों का समुदाय । मा० 434 ६.११६.४ त्रिय : तिय । मा० १.६७.६ त्रिरेख : त्रिबली । 'उदर त्रिरेख मनोहर ।' गी० ७.२१.११ त्रिलोक : त्रिभुवन | मा० ३.४ छं० त्रिलोचन: वि० सं० (सं० ) । तीन नेत्रों वाला = शिव । कवि० ७.१४६ त्रिविधाति : ( त्रिविध + आर्ति) = त्रिताप । विन० ४३.६ त्रिसंक : सं०पु० (सं० त्रिशङ कु ) । एक सूर्यवंशी राजा हरिश्चन्द्र का पिता । मा० २.२२६.१ त्रिसिरा : सं०पु० (सं० त्रिशिरस् - त्रिशिरा : ) । खर-दूषण बन्धु एक राक्षस । = मा० ५.२१.६ = त्रिसिरारि : (सं० त्रिशिरोडरि ) त्रिसिरा के शत्रु – राम । मा० ४.३० क त्रिसिरु : त्रिसिरा + कए० । कवि० ६.४ त्रिसूल : सं०पु० (सं० त्रिशूल ) । (१) आयुध विशेष जिसमें तीन नोकेँ होती हैं । मा० ६.७६.४-६ (२) शिव का आयुध जो तापत्रय का प्रतीक है । मा० १.६२.५ त्रिसूलन्हि : त्रिसूल + संब० । त्रिशूलों (से) । 'ब्याकुल किए भालु कपि परिध त्रिसूलन्हि मारि ।' मा० ६.४२ त्रेताँ : त्रेता युग में । ' त्रेतां ब्रह्म मनुज तनु धरिही । मा० ४.२८.७ I त्रेता : सं० स्त्री० + पुं० (सं० ) । चतुर्युगी का दूसरा युग । 'सत्त्व बहुत, रज कछु, रतिर्मा । सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा ।' मा० ७.१०४.३ त्रैकटक : (सं० त्रयकटक) तीन तत्त्वों की सेना । 'सत्त्वगुण प्रमुख त्रैकटक कारी ।' विन० ५८.२ नैन : त्रिनयन | त्रिलोचन = शिव । विन० ४६.५ 1 त्रैलोक : त्रैलोक्य | मा० १.१६७.५ 1 त्रैलोका : त्रैलोक | मा० १.८७.५ त्रैलोक्य : (सं०) तोनों लोकों का समूह - दे० त्रिभुवन । कृ० २१ वर्ग: (सं० त्रिवर्ग = वर्गत्रय) अर्थ, धर्म और काम पुरुषार्थों का गण जिसे 'अभ्युदय' कहते हैं (लौकिक मूल्य ) । विन० ५७.२ tours : (सं० व्याधित्रय ) = त्रिविधाति - दे० तापत्रय । विन० ५७.६ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 435 त्रोन : सं०० (सं० तूण) । तूणीर, तरकस । मा० ६.७१.३ त्वं : सर्वनाम (सं०) । तू । विन० ५४.४ त्वच : सं० स्त्री० (सं० त्वच) । चमड़ी, छाल । मा० ७.१३ छं० ५ त्वदांघ्रि : (सं.)। तेरे चरण । मा० ३.४ छं० त्वदीय : सार्वनामिक वि० (सं.)। तेरा, तेरी, तेरे । मा० ३.४ छं० त्वद्भक्ति : (सं०) तेरी भक्ति । विन० ५७.८ त्वद्रूप : (सं०) तेरा रूप, तुझ से अभिन्न, तुझ से एकाकार । 'सर्व मेवात्र त्वद्रूप ।' _ विन० ५४.३ त्वयि : सर्वनाम (सं.)। तेरे..... पर । 'गति त्वयि प्रसन्ने ।' विन० ५७.२ . थकि : पूक० (सं० स्तकित्वा-टक प्रतिघाते, स्थित्वा>प्रा० थक्किअ>अ० थक्कि)। (१) परिश्रान्त होकर। 'जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना।' मा० ४.१५.१२ (२) अकचका कर, स्थिर होकर । 'रामहि चितइ रहे थकि लोचन ।' मा० १.२६६.८ थकित : भूक० (सं० स्तकित, स्थित>प्रा० थक्किय) । (१) एक तान-स्थिर, (मुग्ध तथा अचंचल । 'सहज बिराग रूप मनु मोरा । थकित होत जिमि चंद चकोरा।' मा० १.२१६.३ (२) रुका हुआ। 'चंडकर थकित फिरि तुरग हाँके ।' कवि० ६.४५ (३) परिश्रान्त, स्तब्ध । 'थकित रहे धरि मौन ।' मा० २.१६० थकें : थकने पर, परिश्रान्त होने पर । 'पैरत थकें थाह जनु पाई।' मा० १.२६३.४ थके : भूक पु०= थकित -ब० । एक तान-स्थिर, मुग्ध-स्तब्ध । 'थके नयन रघुपति छबि देखें ।' मा० १.२३२.५ (२) परिश्रान्त । 'थके बिलोकि पथिक हिये हारे।' मा० २.२७६.५ थन : सं०० (सं० स्तन>प्रा० थण) । पयोधन, कुच । मा० २.१६६.५ Vथप थपइ : (सं० स्थापयति>प्रा० थप्पइ>स्थापित करना, स्थायी बनाना, प्रतिष्ठित करना) आप्रए । स्थापित करता है 'उथप तेहि को जेहि राम थप ।' कवि० ७.४७ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 436 तुलसी शब्द-कोश थपत : वकृ०० (सं० स्थापयत्>प्रा० थप्पंत)। स्थापित करता-ते । 'नाम सों प्रतीति प्रीति हृदय सुथिर थपत ।' विन० १३०.५ थपति : सं०० (सं० स्थपति) । थवई, वास्तु कलाकार । 'चले सहित सुर थपति प्रधाना।' मा० २.१३३.६ थपन : (१) वि०पु । स्थापित करने वाला । 'उथपे थपन थिर, थपे उथपनहार।' हनु० २२ (२) सं०० (सं० स्थापन>प्रा० थप्पण) । प्रतिष्ठित करना, स्थायित्व देना । 'उथपे थपन थपे उथपन पन ।' विन० ३१.३ थपि : थापे । स्थापित कर । 'करि कुलरीति कलस थपि तेल चढ़ावहिं ।' जा०म० ११५ थपिहै : आ०भ०ए० । स्थापित करेगा, प्रतिष्ठ देगा। थपिहै तेहि को हरि जो टरिहै।' कवि० ७.४७ थपे : भक०प० । स्थापित किये हए (को)। 'तेरे थपे उथपैन महेस ।' हन०१७ थप : थपइ । थाप सकता है । 'थप थिर को कपि जे घर घाले ।' हन० १७ थप्यो : कृ०० कए० । स्थापित किया। 'बालि सो बीरु बिदारि सुकंठ थप्यो ।" कवि० ७. थर : थल । थरथर : काँपने की चेष्टा । 'नयन सजल तन थर थर कांपी।' मा० २.५४.४ थरु : थर+कए० । स्थान । 'प्रतीति मानि तुलसी बिचारि काको थरु है।' कवि० ७.१३६ थल : सं०० (सं० स्थल>प्रा० थल) । स्थान, भूभाग। मा० १.८.१ थलचर : स्थल (भूमि) पर रहने वाले जीव । मा० १.३.४ थलचारी : थलचर । मा० १.८५.४ थलरुह : सं०० (सं० स्थलरुह) । पृथ्वी पर उगने वाले वृक्षादि । गी० २.४६.३ थलु : थल+कए० । वह स्थान । 'थलु बिलोकि रघुवर सुखु पावा ।' मा० २.१३३.५ थहाइबी : भक०स्त्री० । अवगाहित करनी। 'धाइ न जाइ थहाइबी सर सरिता अवगाह ।' दो० ४४६ थहावौं : आ० उए० (सं० स्ताधयामि>प्रा० थाहावमि>प्रा० थाहावउँ) । थाह लेता हूं। 'गोपद बुडिबे जोग करम करि, बातनि जलधि थहावौं ।' विन० २३२.३ थाका : भूकृ०० (सं० स्थित, स्तकित>प्रा० थक्क) रुक गया, परिश्रान्त हुआ। 'गर्जा अनि अंतर बल थाका । मा० ६.९२.२ थाक : सं००कए । रोक टोक, कभी। 'मेरे कहा थाकु गोरस को।' कृ० ५ थाके : थके । परि परि थाके हैं।' गी० १.६४.३ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 437 थाकेउ : थाका+कए । अचल हुआ, स्तब्ध रह गया। 'रबि समेत रथु थाकेउ ।' मा० १.१६५ थाको : थाकेउ । रुक गया, निष्ट चेष्ट हो गया, थक गया। 'मेरो सब पुरुषारथ थाको ।' गी० ६.७ थाक्यो : थाकेउ । रह गया, रुका पड़ा रहा । 'सो थाक्यो बरह्यो एकहिं तक।' कृ० ५६ थाति, ती : सं०स्त्री० (प्रा० थत्ति)। (१) स्थायी निधि । 'अघ अवगुननि की थाति ।' विन० २२१.२ (२) धरोहर, न्यास । 'दुइ बरदान भूप सन थाती।' मा० २.२२.५ थाना : सं०० (सं० स्थानक>प्रा० थाणअ) । चौकी, पड़ाव । 'तहँ तहं बैठे सुर करि थाना ।' मा० ७.११८.११ थानी : वि०पू० (सं० स्थानिक>प्रा० थाणिअ)। किसी स्थान का स्वामी दिक्पाल आदि । 'सुख सनेह सब दिये दसरथहि खरि खलेल थिर थानी।' गी० १.४.१३ थापन : थपन । स्थापित करने वाला । 'तुम उथपन थापन ।' जा०म० १७२ थापना : सं० स्त्री० (सं० स्थापना) । 'करिहउँ इहां संभु थापना ।' मा० ६.२.४ थापनो : थापन+कए । एकमात्र स्थापन कर्ता । 'राय दस रथ के तू उथपन थापनो।' विन० १८०.१ थापहि : आप्रब० (सं० स्थापयन्ति>प्रा० थप्पंति>अ० थप्पहिं)। स्थिर प्रतिष्ठा देते हैं । 'असुर मारि थापहिं सुरन्ह ।' मा० १.१२१ थापि : थपि । लिंग थापि बिधिवत करि पूजा।' मा० ६.२.६ थापिन, ए, थापिय, ये : आ० कवा०प्रए० । स्थापित कीजिए । 'थापिअ जनु सब __ लोगु सिहाऊ ।' मा० २.८८.७ ।। थापेउँ : आ०-भूकृ००+उए । मैंने स्थापित किया। 'थापेउँ सिव सुखधाम ।' मा० ६.११६ क थाप्यो : थप्यो । कवि० ७.१० थार : सं०० (सं० स्थाल >प्रा० थाल) । मा० १.६६.३ थारा : थार । मा० १.३०५.१ थारी : थाली में । 'लिएँ आरती मंगल थारी ।' मा० १.३०१.४ थारी : सं०स्त्री० (सं० स्थाली>प्रा. थाली)। छोटा थाल । थालिका : (१) थारी (सं० स्थालिका) । (२) आलबाल, थाला जो वृक्षों के आस पास सींचने को बनाते हैं। 'भक्ति कल्प थालिका ।' विन० १७.२ थाह : सं०स्त्री० (सं० स्ताध>प्रा० थाह) । पानी में रुकने को भूमि । 'परत थर्के थाह जनु पाई ।' मा० १.२६३.४ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 तुलसी शब्द-कोश थाहत : वक०पु । थाह लेते । 'सरि थाहत जहँ तह घई।' गी० ५.३८.४ थाहा : थाह । मा० ७.६१.६ थाहैं : थाह में । 'कोउ लांघत कोउ उतरत थाहैं ।' गी० ७.१३.१ थिति : सं०स्त्री० (सं० स्थिति) । (१) स्थिरता, धृति । 'प्रभु चित हित थिति पावत नाहीं।' मा० २.२२७.४ (२) रक्षा, धारण-पोषण । 'उतपति थिति लय ।' मा० २.२८२.५ (३) रहना । 'तुलसी किएँ कुसंग थिति होहिं दाहिने बाम । दो० ३६१ थिर : वि० (सं० स्थिर>प्रा० थिर) । दृढ़, अचल, टिकाऊ । 'मनु थिर करि तब संभु सुजाना।' मा० १.८२.४ थिरता : सं०स्त्री० (सं० स्थिरता) । अचलता, दृढ़ता, स्थायित्व । थिरताइ : थिरता । 'राम भगति थिरताइ ।' दो० १४० थिरथानी : (दे० थानी) अचल स्थान वाला-दिक्पाल, लोकपाल । गी० १.४.१३ थिरातो : क्रियाति पु०ए० । स्थिर हो जाता+निर्मल होता। 'जनम कोटि को कांदलो ह्रद हृदय थिरातो।' विन० १५१.६ थिराना : भूक.पु । (१) स्थिर हुआ (२) निर्मल हुआ। 'भरेउ सुमानस सुथल थिराना ।' मा० १.३६.६ थिराने : 'थिराना' का रूपान्तर । (१) स्थिर हुए (२) निर्मल हुए । 'सदा मलीन पंथ के जल ज्यों कबहुं न हृदय थिराने ।' विन० २३५.३ थोरा : सं०० (सं० स्थैर्य>प्रा० थीर)। दृढता, स्थिरता । 'निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा ।' मा० ७.६०.७ (२) थिर । थनि, नी : सं०स्त्री० (सं० स्थूणा>प्रा. थूणा>अ० थूणी)। स्तम्भ । जा०म०. ८५ थेली : सं०स्त्री० (सं० स्थगिका>प्रा० थविआ=थइल्ली) । रुपया-पैसा आदि रखने ___ का वस्त्र-पात्र । मा० १.२७६.४ थोर : वि.पु० (सं० स्तोक>प्रा० थोअ>अ. थोअड=थोअडअ । थोड़ा । 'मोहि. बुधि बल अति थोर ।' मा० १.१४ ख थोरा : थोर । मा० ७.१०४.५ थोरि : थोरी । 'मति थोरि कठोरि न कोमलता।' मा० ७.१०२.२ थोरिउ : थोड़ी भी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी।' मा० २.१२.२ थोरिक : (थोरि+इक) । कुछ थोड़ी= अल्पतर । 'एहि घाट तें थोरिक दूरि अहै ।" कवि० २.६ थोरिहिं : थोड़ी ही । 'थोरिहिं बात पितहि दुखु भारी।' मा० २.४२.६ थोरी : थोर+स्त्री० । थोड़ी, अल्प । मा० १.४३.६ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 439 थोरें: (१) थोड़े से । 'सिथिल सरीरु सनेह न थोरें। मा० २.१९८.५ (२) थोड़े में। रीझत थोरें।'कवि० ७.४६ थोरे : 'थोर' का रूपान्तर । थोड़े । 'थोरे महुं जानिहहिं सयाने ।' मा० १.१२.६ थोरेहि : थोड़े ही । 'थोरेहि महुं सब कहउँ बुझाई ।' मा० ३.१५.१ योरेहु : थोड़े में भी । 'जस थोरेहुं धन खल इतराई।' मा० ४.१४.५ योरो : थोरा+कए० । 'जनि मागिये थोरो।' कवि० ७.१५३ दंतियां : सं०स्त्री०ब० । शिशु के दांत । कवि० १.३ बतुरियां : दतियाँ । 'दमकति द्वै द्वै दंतुरियां रूरौं ।' गी० १.३१.४ द : (समासान्त में) वि०पू० (सं०) । देने वाला । नर्मद, जलद आदि । दंड : सं०० (सं.)। (१) ध्वज आदि-सम्बन्धी लग्गी। 'रघुपति कीरति बिमल पताका । दंड समान भयउ जसु जाका।' मा० १.१७.६ (२) डंडा, यष्टि । 'काल दंड गहि काहु न मारा।' मा० ६.३७.७ (३) (समासान्त में) दृढ़, पुष्ट, समर्थ । 'उर बिसाल भुजदंड चंड ।' हनु० २ (४) नाल, डंठल । 'तोरौं छत्रक दंड जिमि ।' मा० १.२५३ (५) प्रणाम की साष्टाङ्ग विधि जिसमें दण्डाकार पृथ्वी पर गिरते हैं दंडवत । 'लगे करन सब दंड प्रनामा ।' मा० १.२६६.२ (६) घड़ी भर का समय=६० पल । 'दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर काम कृत कौतुक अयं ।' मा० १.८५ छं० (७) अपराध की निष्कृति=सजा । 'आन दंड कछु करिअ गोसाईं ।' मा० ५.२४.८ (८) पराजित शत्रु से ग्राह्य धन आदि । 'लै लै दंड छाडि नृप दीन्हे ।' मा० १.१५४.७ (६) राजनीति में साम, दान और भेद के अतिरिक्त-चतुर्थ उपाय ==दण्डनीति =शत्रु पर आक्रमण की नीति । 'साम दान अरु दंड बिभेदा ।' मा० ६.३८.६ दंड दंडइ : (सं० दण्डयति>प्रा० दंडइ-दण्ड देना, डाँड़ना) आ०प्रए । दण्ड देता है, डांड़ता है। 'सरल दंडै चक्र।' दो० ५३७ दंडक : संपु० (सं०) । पौराणिक राजा 'दण्ड' के नाम से प्रसिद्ध दक्षिण का वन प्रदेश-विशेष । मा० ३.१३.१६ दंडकारण्य : (दंडक+अरण्य) । दण्डक वन । विन० ५०.६ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 तुलसी शब्द-कोश दंडकारि, री : वि० (सं० दण्ड-कारिन्) । दण्डाधिकारी, न्यायपाल, सजा देने वाला । 'काल नाथ कोतवाल, दंड-कारि दंडपानि ।' कवि० ७.१७१ दंडपानि : वि०+सं० (सं० दण्डपाणि) । (१) हाथ में दण्ड लिये हुए । (२) लठैत। (३) यमराज (४) कालभैरव, भैरवनाथ । कवि० ७.१७१ दंडवत : (सं० दण्डवत् =दण्डतुल्य) प्रणाम की रीतिविशेष जिसमें प्रणामकर्ता भूमि पर साष्टाङ्ग प्रणिपात करता हुआ दण्डाकार हो जाता है । मा० १.१४५ दंडे : दंडइ। दंत : सं०० (सं० दन्त) । दाँत । कवि० १.५ दंतकथा : सं०स्त्री० (सं.)। किंवदन्ती, कहकूत, कही-कहावत, लोक-प्रचलित __ मनगढन्त कहानी । 'इति बेद बदंति न दंतकथा ।' मा० ६.१११.१६ दंतन : दंत+संब० । दाँतों । 'नख दंतन सों भुज दंड बिहंडत ।' कवि० ६.३५ दंति, ती : सं०पू० (सं० दन्तिन्) । दन्तावल, हाथी । गी० १.६०.५ दंपति : सं०० (सं०) । पति-पत्नी (का युगल)। मा० १.६८.७ दंभ : सं०० (सं.)। (१) छलना (२) धर्म, सदाचार आदि का मिथ्या प्रदर्शन (३) धूर्तता (४) मिथ्याभिमान । 'लोभ के इच्छा दंभ बल।' मा० ३.३८ ख बंभा : दंभ । मा० १.३५.६ दंभापहन : वि० (सं० दम्भापहन्) । दम्भनाशक । विन० ५६.१ वंभिन्ह : दंभी+संब० । दम्भियों, पाखण्डियों । 'जनु दंभिन्ह कर जुरा समाजा।' मा०४.१५.६ दंभिहि : दम्भी को । 'दंभिहि नीति कि भावई ।' मा० ७.१०५ ख दंभी : वि०० (सं० दम्भिन्) दम्भ-युक्त । मिथ्याचारी, पाखण्डी। दंस : सं०० (सं० दंश) । एक प्रकार की बड़ी मक्खी जो तीव्र दंशन के लिए प्रसिद्ध है=डाँस । मा० ४.१७.८ दइअ : सं०० (सं० देव>प्रा० दइअ)। भाग्य, नियति, कर्मदेव । 'आह दइअ मैं काह नसावा।' मा० २.१६३.६ दइउ : दइअ+कए । भाग्य । 'दाहिन दइउ होइ जब सबही ।' मा० २.२८०.५ दई : भूक०स्त्री०ब० । दीं। 'असीस सब काहूं दई ।' मा० १.१०२ छं० दई : भूक०स्त्री० । दी । 'बिधि ''तुम्हहि सुंदरता दई ।' मा० १.६६ छं० दए : भूकृ०० । दिये, दिये हुए । 'जनु बंसी खेलत चित दए ।' मा० ६.८८.५ दक्ष : (१) सं०० (सं०) । सती के पिता शिव के श्वशुर=एक प्रजापति । 'दक्षमख अखिल विध्वंसकर्ता।' विन० ४६.७ (२) वि. निपुण । 'यज्ञ रक्षण दक्ष ।' विन० ५०.४ (३) दक्षिण, दाहिना । 'दक्ष दिशि रुचिर वारीश कन्या।' विन० ६१.७ दक्षिण : वि० (सं०) (१) दाहिना; (२) दिशाविशेष। विन० ५१.७ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 441 दखिन : दक्षिण (प्रा० दक्षिण) । 'देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं ।' मा० २.१४२.८ दगा : संस्त्री० (फा० दगा) । धोखा, विश्वासघात । 'जब पलकनि हठि दगा दई।' __ कृ० २४ दगाई : दगा । 'नाम सुहेत जो देत दगाई ।' कवि० ७.६३ दगाबाज : वि० (फा० दगाबाज)। विश्वासघाती, वञ्चक । कवि० ७.१३ दगाबाजि, जी : सं०स्त्री० (फा० दगाबाजी)। विश्वासघाती का कर्म, धोखा-धड़ी। ___ 'सुहृद समाज दगाबाजिही को सौदा सूत ।' विन० २६४.२ दगो : भृकृ००कए । तोप के घोष के समान सर्वत्र विदित । 'लोक बेद हूं लौं दगो नाम भले को पोच ।' दो० ३७३ दच्छ : दक्ष । (१) प्रजापतिविशेष । मा० १.६०.५ (२) निपुण । 'भवखेद छेदन दच्छ।' मा० ७.१३ छं० २ (३) दाहिना । 'दच्छ भाग अनुराग सहित इंदिरा अधिक ललिताई ।' विन० ६२.१२ दच्छिन : दखिन । 'देखु बिभीषन दच्छिन आसा।' मा० ६.१३.१ दछिना : सं०स्त्री० (सं० दक्षिणा) । यज्ञादि में ब्राह्मणों को प्रदेय द्रव्य । 'बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई।' मा० १.२०३.३ दत्त : भूकृ० (सं.)। दिया हुआ, दी हुई। ‘सो ब्रह्म दत्त प्रचंड सक्ति ।' मा० ६.८३ छं० ददाति : आ०प्रए० (सं.)। देता है । मा० ६ श्लोक ३ दधि : सं०० (सं०) । दही । मा० १.२०३ दधिमुख : एक वानर-यूथप । मा० ५.५४ दधीच दधीचि : एक मुनि जिनकी अस्थियों से इन्द्र ने वज्र बनाया था । मा० २.६५.३; मा० २.३०.७ दनियाँ : दानी+ब० । देने वाले। 'नख सिख सुभग सकल सुख दनियाँ । गी० १.३४.१ दनुज : सं०पु० (सं०) । कश्यप-पत्नी दनु के पुत्र दानव जो दितिपुत्र दैत्यों के साथी थे। मा० १.७ घ दनुजारि, री : दनुजों के शत्रु विष्णु । मा० १.१३६.४ दनुजेश : दनुजों के स्वामी (हिरण्याक्ष आदि) । विन० ५२.२ दनुजेस : दनुजेश । दपटि : पूकृ० (सं० दर्प-|-अट्ट अतिक्रमहिंसयोः>प्रा० दप्पट्ट)। डपट कर, डाँट कर। मा० ६.८२.५ दपहि : आ०प्रब० डपटते हैं । 'खाहिं हुआहिं अघहिं दपट्टहिं ।' मा० ६.८८.६ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442 तुलसी शब्द-कोश दबकि : प्रकृ० । दबा कर, रौंद कर । 'दबकि दबोरे एक ।' कवि० ६.४१ दबत : वकृ०० । धसकता, धसकते, दबाते । 'महाबली बालि के दबत दलकति भूमि ।' कवि० ६.१६ । दबाई : भूक०स्त्री० । दबा ली, दबोच रखी। 'दारिद दसानन दबाई दुनी दीनबंधु ।' कवि० ७.६७ दबि : दाबि । 'मैं तो दियो छाती पबि, लयो कलिकाल दबि ।' विन० २५९.२ दबोरे : भूकृ००ब० । दबोच लिये, कुचल डाले । कवि० ६.४१ दम : सं०पु० (सं०) (१) दमन, नियन्त्रण । (२) इन्द्रियों तथा मन का निग्रह, वासनाओं से चित्त को हटाना जो वेदान्त की छह सम्पत्तियों में द्वितीय है। मा० १.३७.१३ दमंकहिं : दमकहिं । 'जनु दहुँ दिसि दामिनी दमकहिं ।' मा० ६.८७.३ दमका : दमक । 'सोइ प्रभु जन दामिनी दमका ।' मा० ६.१३.६ दमक : सं०स्त्री० । दमकने की क्रिया। चकचौंधने वाली तीखी दीप्ति; बिजली की तेज चमचमाहट । मा० १.१४.२ /दमक दमकइ : दमक+प्रए । दमकती है। 'कहत बचन रद लसहिं दमक जनु दामिनि ।' जा०म० ७२ दमकति : वकृ०स्त्री० । दमकती, चमचमाती । कृ० १८ दमकहिं : आ०प्रब० । चमचमाती हैं, तीखी किरणे फेकती हैं। 'चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि ।' मा० १.३४७.४ । दमके उ : भूकृपु०कए । चमचमा उठा। 'दमके उ दामिनि जिमि जब लयऊ।' मा० १.२६१.६ दमकै : दमकहिं । 'दमकै दतियाँ दुति दामिनि ज्यों।' कवि० १.३ दमन : (१) वि० (सं०) । संचत करने वाला, दमन करने वाला। 'संसय समन दमन मन राम सुजस सुख मूल ।' मा० ३.६ क (२) सं० । दमन करने की क्रिया । 'दुवन दल दमन को कौन तुलसीस है।' हनु० ३ दमनीय : भकृ०० (सं०) । दमन-योग्य, खण्डनीय । ‘रचेउ न धनु दमनीय ।' मा० १.२५१ दमन : दमन+कए । एकमात्र दमनकारी। ‘मंगल मूल अमंगल दमनू ।' मा० २.६.५ दमसीला : वि० (सं० दमशील)। मन तथा इन्द्रियों का स्वभावतः निग्रह करने वाले, संयमी । मा० ७.२२.५ दमानक : सं०स्त्री० (फा० दमान =हाथी, अजगर, सिंह, मगर, नदी, बाढ़, जोश)। तीव्र आक्रमण, आक्रामक वेग । 'देव भूत पितर करम खल काल ग्रह मोहि पर दवरि दमानक सी दई है।' हनु० ३८ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 443 दमि : पूकृ० । दमन करके, निग्रह द्वारा वश में करके। 'देह दमि करत बिबिध जोग जप ।' कवि० २.६ दमु : दम+कए० । इन्द्रियनिग्रह+मनोनिग्रह । 'दमु दुर्गम दान दया मख कर्म ।' कवि० ७.८७ दमैया : वि० । दमन करने वाला । 'कौन है दारुन दुक्ख दमैया ।' कवि० ७.५३ दयऊ : भूकृ.पु०कए । दिया। 'तनय जजातिहि जौबनु दयऊ।' मा० २.१७४.८ दया : सं० स्त्री० (सं०) । एक मनोवृत्ति जो दूसरे के कष्ट में रक्षाभाव के साथ द्रवीभाव उत्पन्न करती है। कृपा, करुणा, अनुकम्पा । मा० १.३७.१३ दयाकर : (१) दया करने वाला (२) दया का आकार । मा० ७.१८.१ दयानिधि : दया का सागर । मा० २.१६३.८ दयाल : वि० (सं० दयाल) । दयायुक्त, दयाशील । मा० १.२१ दयाला : दयाल । मा० १.१६२ छं० १ दयालु : दयाल । मा० १.५९.६ दयावने : वि०पुब० । दया उत्पन्न करने वाले = दयनीय, दीन । 'देबी देव दानव दयावने हा जोरै हाथ ।' हनु० १२ दयावनो : वि.पु.कए । दीन । कवि० ७.१२५ दये : दए। दयो : दयऊ । दिया । गी० १.४७.३ दर : सं०० (सं.)। (१) शङ्ख । 'कुंद इंदु दर गौर सरीरा।' मा० १.१०६.६ (२) डर, भय । 'परम दर वारय ।' मा० ६.११५.६ (३) 'दारुन दुसह दर दुरित दरन ।' विन० २४८.१ दरकि : पूकृ० । विदीर्ण होकर । 'दरकि दरार न जाई ।' गी० ६.६.३ दरजिनि : दरजी+ स्त्री० । रा०न० ६ (फारसी में 'दर्ज-जन' सिलाई करने वाली स्त्री को कहते हैं और 'दर्जन' सूई का नाम है; फलत: 'जिन' शब्द सीधा फारसी से विकसित है जबकि 'दरजी' उसका उत्तर विकास (पुंलिङ्गीकृत रूप) है) दरजी : सं०० (फा० दरजी)। सिलाई का व्यवसाय करने वाली जाति विशेष । 'ब्योंत करै बिरहा दरजी ।' कवि० ७.१३३ दरन : वि.पु.। (१) विदीर्ण करने वाला (२) दलन करने वाला। 'दीन दुख दोष दारिद दरन ।' गी० ५.४३.४ दरनि : दरन+स्त्री० । विन० २०.२ दरप : दर्प । विन० ६३.४ दरपन : सं०पू० (सं० दर्पण) । शीशा, आरसी । दो० २४४ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 तुलसी शब्द-कोश दरबार : सं०० (फा० दर्बार)। राजसभा । मा० २.२३ दरबारा : दरबार । मा० २.७६.६ दरस : सं०० (सं० दर्श>प्रा० दरिस) । (१) दर्शनीय रूप । 'देखिबो दरस दूसरेहु चौथे । कृ० ४८ (२) दर्शन । 'दरस परस मज्जन अरु पाना।' मा० १.३५.१ दरसन : सं०० (सं० दर्शन>प्रा० दरिसण) । देखना। मा० १.४८ ख दरसनी : सं०स्त्री० (सं० दर्शनी>प्रा० दरिसणी) । दर्पण । दो० ४६० दरसनु : दरसन+कए । एक बार दर्शन । ‘इन्ह कर दरसनु दूरि ।' मा० १.२२२ दरसाइ : दरस+प्रए । देखने में आता है, दिखता है। यह प्रफुलित नित दरसाइ।' वर० २६ दरसी : (समासान्त में) वि.पु० (सं० दशिन् >प्रा० दरिसी)। देखने वाला। 'तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनि नाथा ।' मा० २.१२५.७ दरसु : दरस +कए० (१) एक बार दर्शन । 'कहें यह दरसु पुन्य परिनामा ।' मा० २.२२३.७ (२) एकमात्र दर्शनीय रूप । 'दीख दरसु भरि नयन तुम्हारा ।' मा० २.१३६.३ दराज : वि० (फा० दराज लम्बा)। दीर्घ । 'उमरि दराज महाराज तेरी चाहिए।' कवि० ७.७६ दरार, रा : सं०स्त्री० (सं० दर=रन्ध्र, सन्धि, छिद्र) । लम्बी फटन (जो वर्षा के बाद सूखी भूमि में गहरी बन जाती है) । 'अजहुं अवनि बिदरत दरार मिस ।' विन० २.१२.२ 'सुनि कायर उर जाहिं दरारा।' मा० ६.४१.३ दरिद्र : (१) वि०पू० (सं.)। दुर्गत, निर्धन, दु:ख पीड़ित । मा० १.१४६.५ (२) सं०पुं० । दरिद्रता । 'सहि कि दरिद्र -जनित दुखु सोई।' मा० १.१०८.३ दरिबे : भकृ०० (सं० दर्तव्य>प्रा. दरिअन्वय)। विदीर्ण करने+दलने । 'दस ___मुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो ।' हनु० ८ दरिया : सं०पु० (फा०) । नदी । 'दसरत्थ को दानि दया दरिया ।' कवि० ७.४६ दरेरो : सं०पु०कए० (प्रा० दड़यड़ो)। दरेरा, कुचलने वाला कसाव, संघर्षण, संमर्द । 'ता पर सहि न जाइ करुनानिधि मन को दुसह दरेरो।' विन० १४३.७ दर्प : सं०पु० (सं०) । उद्दण्ड अहंकार; निरातङ क व्यवहार की प्रवृत्ति । कवि० ७.१५० दर्पा : भूकृ०पु० (सं० दृप्त) । दर्पित । 'रन मद मत्त निसाचर दर्पा ।' मा० ६.६७.५ दर्पित : वि०पु० (सं०) । दर्पयुक्त । 'रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु ।' मा० ६.६४ छं० दर्भ : सं०० (सं०) । कुश (तृणविशेष) । मा० ५.५१.७ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 445 वर्शनादेव : (सं.) दर्शन से ही । 'दर्शनादेव अपहरति पापं ।' विन० ५५.८ दर्शनारत : (सं० दर्शनार्त) दर्शन हेतु विकल । विन० ६०.८ दल : सं०० (सं०) । (१) सेना, समूह, यूथ । 'नृप दल मद गंजन ।' मा० ५.२१.८ (२) पत्ती। 'लगे लेन दल फूल मुदित मन ।' मा० १.२२८.१ (३) फूल की पंखुड़ी। ‘राजिव दल नयन ।' गी० ५.४७.१ दिल, दलइ : (सं० दलति-दल विशरणे>प्रा० दलइ) आ०प्रए० । दलन करता है, छिन्न-भिन्न करता है, नष्ट करता है । जिमि करि निकर दलइ मृगराजू ।' मा० २.२३०.६ दलकति : वकृ०स्त्री० । दलक उठती, विशीर्ण होने-बिखरने लगती, पानी से द्रवीभूत होकर थलथलाती । 'महाबली बालि के दबत दलकति भूमि ।' कवि० ६.१६ दलकन : (१) दलका+संब० । दलकों से, झटकों से लगने वाले हृदय पर आघातों से । 'मंद बिलंद अभेरा दलकन पाइय दुख झकझोरा रे ।' विन० १८९.३ (२) दलकने की क्रिया, बिखराव । दलकि : पूक. । बिखर कर । 'दलकि उठेउ सुनि हृदय कठोरू।' मा० २.२७.४ (२) दलदला कर, द्रवीभूत होकर । 'तुलसी कुलिसहु की कठोरता तेहि दिन दलकि दली।' गी० २.१०.३ (उभयत्र दोनों अर्थ गुम्फित हैं ।) दलत : वकृ.पु । छिन्न-भिन्न करता-करते, नष्ट करता-ते। 'दलत दयानिधि देखिए।' दो० २३४ दलतो : क्रियाति००ए०। यदि.'तो.. उच्छिन्न कर डालता । 'जो हौं प्रभु आयसु ले चलतो। तो यहि रिस तोहि सहित दसानन जातुधान दल दलतो।' गी० ५.१३.१ दलन : (१) सं०० (सं.)। विनाश । 'महामोह निसि दलन दिनेसू ।' मा० २.३२६.६ 'दुख दोष दलन छम ।' विन० २७५.१ (२) वि० । नष्ट करने वाला । 'दलन मोह तम सो सु प्रकासू ।' मा० १.१.६ (३) भक० अव्यय । नष्ट करने । 'चले दलन खल निसिचर अली ।' मा० २.१२६ छं० दलनि : (१) वि०स्त्री० । दलने वाली, बिनाशिनी । 'दुसह दोष दुख दलनि, करु देबि दाया ।' विन० १५.१ (२) दलन्हि । पत्तों (से) । दो० ५२६ दलनिहार : वि०० । विनाशकारी । विन० १५६.१ दलन्हि : दल+संब० । दलों, पत्तों (पर), पंखड़ियों (पर) । 'कमलदलन्हि बैठे जनु मोती।' मा० १.१९६.२ दलमले : भूकृ००ब० (दल विशरणे+मल मर्द ने)। छिन्न भिन्न कर कुचल डाले; रौंद दिये । 'रनमत्त रावन सकल सुभट प्रचंड भुजबल दलमले ।' मा० ६.६५ छं. Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश दला: भूकृ०पु०ए० । नष्ट किया । 'दला दुकालु दयाल ।' रा०प्र० ५.७.३ द : कृ० । नष्ट करके । 'दलि दुख सजइ सकल कल्याना ।' मा० २.२५५.७ दलित भूकृ० (सं० ) । छिन्न भिन्न । 'दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू ।' मा० २.१६३.५ दलिबे : भकृ०पु० । दलन करने, मिटाने । 'धरिबे को धरनि तरनि तम दलिबे को ।' हनु० ११ मिलि : पूकृ० ( युग्म ) । 446 नष्ट कर तथा मर्दन कर= रौंद खौंद कर । रिपुदल दलिल आए जहँ भगवंत ।' मा० ६.४५ दलिहौं : आ०भ० उए० (सं० दलिष्यामि > प्रा० दलिहिमि >> अ० दलि हिउँ ) । उच्छन्न कर दूंगा। धनु को दल्यो, हों दलिहों बलु ताको ।' कवि० १.२० दली : भूकृ० स्त्री० । (१) नष्ट की हुई । 'दुनी दुख दोष दरिद्र दली है ।' कवि० ७.८५ (२) बिखर गयी । 'तुलसी कुलिसह की कठोरता तेहि दिन दल कि दली ।' गी० २.१०.३ .. दलु : दल + कए० । समूह । 'बढ़त धरम दलु ।' मा० २.३२५.२ द: भू०पु०ब० । नष्ट किये । 'निसिचर निकर दले रघुनंदन ।' मा० १.२४.८ दलें : आ० प्रब० (सं० दलन्ति > अ० दलहि ) । नष्ट करते हैं । ' रावन दुरित दुख दलैं ।' गी० १.४२.४ दलै : दलइ । दलन करे; नष्ट कर सकता है । 'दीनता दारिद दर्ल को ।' विन २१६.४ कवि० ६.२२ दया : वि०पु० । दलनकारी, विनाशकर्त्ता । 'दलैया दससीस को दलौं : आ० उए । नष्ट करूँ, ध्वस्त कर सकता हूं । 'खेत में केहरि ज्यों गजराज दलौं दल ।' कवि० ६.१३ दल्यौ : भूकृ०पु०कए० । दलित किया, उच्छिन्न किया, उच्छिन्न किया । ' जबहिं राम सिवधनु दल्यो ।' कवि० १.११ दव : सं०पु० (सं०) । दावानल, वनानि । ' देखे लोग बिरह दव दाढ़े ।' मा० २.८०.१ दवन : दमन (अ० दवण) । (१) वि०पु० । नाशकारी । 'दवन बिषाद रघुपति गुन गना ।' मा० ५.६० छं० (२) विनाश । 'दास तुलसी दोष दवन हेतू ।' विन० ३८.५ दवfर : दौरि । दोड़ कर धावा बोल कर । 'देव भूत पितर मोहि पर दवरि दमानक सी दई है ।' हनु० ३८ दवा : दव | 'सहै तुलसी दुख दोष दवा से ।' हनु० १८ दवानल : सं०पु० (सं० ) । वनाग्नि । कवि० ७.२८ 1 ... Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 447 दवारि, दवारी : सं०स्त्री० (सं० दवाली)। दावानल । सर्वदाही अग्नि । मा० १.३२.८ 'एकइ उर बस दुसह दवारी।' मा० २.१८२.६ दस : संख्या (सं० दश>प्रा० दस)। मा० १.४.६ (२) दस इन्द्रिय । विन० २०३.११ दसई : वि०स्त्री० (सं० दशमी>प्रा० दसमी>अ० दसवीं =दसवि) । (१) दशमी तिथि (२) दसई बात । विन० २०३.११ दसउ : दसों; सभी दस एक साथ । 'दसउ मुख तोरौं।' मा० ६.३४.२ दसकंठ : रावण । मा० ५.२३.७ दसकंध : रावण । मा० ६.१६ क दसकंधर : रावण । मा० ३.२१ ख । दसकंघरु : दसकंधर+कए । 'गयउ गहिं दसकंधरु ।' जा०म० ६२ दसकंधु : दसकंध+कए । 'चलन चहत दसकंधु ।' रा०प्र० ५.१.६ दसगात : सं०० (सं० दशगात्र) । पैतृक कर्म में एकादशाह से पूर्व दस पिण्डदानों की विधि । 'कीन्ह भरत दसगात विधाना।' मा० २.१७७.६ दसगुन : वि० (सं० दशगुण) । दसगुना । रा०प्र० ३.३.६ दसगून : दसगुन (सं० दश-गुण्य>प्रा० दसगुण्ण) । दो० १० दसचारि : चौदह (संख्या) । कवि० ६.१८ ।। दसन : सं०पु० (सं० दशन>प्रा० दसण) । दाँत । मा० १.१५६.७ दसनन, नि, न्हि : दसन+संब० । दांतों (से) । 'दसनन्हि काटि नासिका काना।' मा० ६.५.८ दसमाल : रावण । कवि० ७.२ दसमुख : रावण । मा० ५.६.७ दसमौलि : रावण । मा० ६.२३ च दसरत्थ : दसरथ । मा० १.२६५ दसरथ : सं०० (सं० दशरथ) (१) दश दिशाओं में जिसके रथ की गति हो । (२) दस इन्द्रियों का नायक =चित्त या जीव । (३) राम के पिता । मा० १.१६.६ दसरथु : दसरथ+कए । श्रेष्ठ दशरथ । 'समधी दसरथु जनकु पुनीता।' मा० १.३०४.२ दसीसीस : सं.पु. (सं० दशशीर्ष>प्रा० दससीस) । रावण । मा० ३.२२.१२ दससीसा : दससीस । मा० ५.११.४ वससीसु : दससीस+कए । एकमात्र रावण । 'जो दससीसु महीधर ईस को बीस भुजा खुलि खेलनिहारो।' कवि० ६.३८ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 तुलसी शब्द-कोश दसहि : दशा को 'बरनौं किमि तिन की दसहि ।' गी० २.१७.३ दसहुं, हु, हूं : (१) दसउ । दसों इन्द्रियों । 'दसहु कर संजम ।' विन० २०३.११ (२) दसों। ‘मंगल कलस दसहुं दिसि साजे ।' मा० १.६१.८; मा० १.२८.१ दसा : (१) सं०स्त्री० (सं० दशा) । अवस्था, स्थिति । 'सतीं सो दसा संभु के देखी।' मा० १.५०.५ (२) जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाएँ । 'प्रेम बिबस तन दसा बिसारी ।' मा० १.३४५.८ दसानन : दसमुख । मा० १.१७६.५ दसाननु : दसानन+कए । एकाकी रावण । 'उतहाँक दसानन देत ।' कवि० ६.३६. दसि : पूर्व० । (सं० दष्ट्वा >प्रा० दसिअ>अ० दसि)। काटकर । 'अधर दसन दस भीजत हाथा ।' मा० ६.३१.६ दहँ : दसों। 'जनु दहँ दिसि दामिनी दमंकहिं ।' मा० ६.८७.३ /दह दहइ, ई : (१) (सं० दहति>प्रा० दहइ-जलाना) आ०प्रए० । जलाता है। 'दहइ कोटि कुल भूसुर रोषू ।' मा० २.१२६.४ (२) (सं० दह्यतेजलना) । जलता है, दग्ध होता है। एहिं दुख दाहँ दहइ दिन छाती।' मा० २.२१२.१ वहत : वकृ०० (१) जलाता-ते । 'दारिद दहत अति नित तनु ।' कवि० ७.१२४ (२) जलता-ते । 'अहँकार की अगिनि में दहत सकल संसार।' वैरा० ५३ दहते : क्रियाति.पुब० । (यदि 'तो) जला डालते । जो सुत हित लिये नाम अजामिल के अघ अमित न दहते।' विन० ६७.४ दहन : (१) सं०० (सं०) । दग्ध होना, दग्ध करना । ‘मदन दहन सुनि अति दुख पावा ।' मा० १.६१.१ (२) अग्नि । 'नीच महिपावली दहन बिनु दही है।' गी० १.८७.१ (३) वि०पू० । जलाने वाला । 'सहसबाहु भुज गहन अपारा । दहन अनल सम जासु कुठारा ।' मा० ६.२६.२ (४) अग्नि+जलाने वाला । 'कालरूप खलबन दहन ।' मा० ६.४८ ख। दहनु : दहन+कए । जलाना । 'मयन महनु पुर दहनु गहनु जानि ।' कवि० १.१० दहपट : वि०क्रि०वि० । समतल, चौपट, ध्वस्त कर किया हुआ चौरस । 'मारि दहपट दियो जम की घानी ।' कवि० ६.२० दहसि : आ०मए० (सं०) । तू जलता-ती है । 'अंबु वर बहसि, दुख दहसि ।' विन० १८.१ दहहि, हीं : आ०प्रब० (१) (सं० दहन्ति>प्रा० दहंति>अ० दहहिं) । जलाते हैं। 'जे जप जोग अनल तन दहहीं।' मा० ७.८५.४ (२) (सं० दह्यन्ते) जल जाते हैं । 'ते नरेस बिनु पावक दहहीं।' मा० २.१२६.३ वहा : भूकृ.पु । जल गया। सब बिनु दहन दहा है।' गी० २.६४.२ दहि : पू० । जलाकर । 'पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी ।' मा० ७.६७.५ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुमसी शब्द-कोश 449 दहिउ : सं०पु०कए० (सं० दधिकम्>प्रा० दहिअं>अ० दहिउ)। दही, दधि । 'यों कहि मागत दहिउ धर्यो है जो छीके।' कृ० १० वहिन : वि.पु. (सं० दक्षिण>प्रा० दहिण) । दायाँ । 'बाम दहिन दिसि चाप निषंगा।' मा० ६.११.५ । बहिनि : दहिन+स्त्री० । दायीं। 'दहिनि आखि नित फरकइ मोरी।' मा० २.२०.५ बहिबो : भकृ०पु०कए० । जलना । 'मिटि जैहै सबको सोच दव दहिबो।' गी० ५.१४.४ रहिहैं : आ०म०प्रब० । जल जायेंगे । 'रावरे पुन्य प्रताप अनल महँ अलप दिननि रिपु दहिहैं।' गी० ३.१६.२ दहिहीं : आ०म०ए० । जलूंगा । 'या बिनु परम पदहुं दुख दहिहौं ।' विन० २३१.३ वही : भूकृ०स्त्री०। (१) जला दी। जेहिं पावक की कलुषाई दही है।' कवि० ७.६ (२) जल गई। 'नीच महिपावली दहन बिन दही है।' गी० १.८७.१ .. (३) सं०० (सं० दधि>प्रा० दहि)। 'सुखमा सुरभि सिंगार छीर दुहि मयन ____ अभियमय कियो है दही री।' गी० १.१०६.३ वहं, हूं : (१) धौं। मानों। रा०न० १२ (२) संख्या। दसों। लपट कराल ज्वाल जाल माल दहूं दिसि ।' कवि० ५.१६ वहेंडि : सं०स्त्री० (सं० दधि-भाण्डी>प्रा० दहिहंडी)। दही की मटकी । 'अहिरिनि _ हाथ दहेंडि सगुन लेइ आवइ हो ।' रा०न० ५ बहे : (१) भूकृ.पु.ब० (सं० दग्ध>प्रा० दहिय) । दग्ध किये, जलाये । 'दारुन दुख दहे।' मा० ७.१३.१ (२) जले । 'ते सुख सकल सुभाय दहे री।' गी. ५.४६.२ बहेउ, ऊ : भूकृ००कए । (१) जलाया। 'दुइ सुत मारे, दहेउ पुर।' मा० ३.३७ 'प्रभु अपमान समुझि उर दहेऊ ।' मा० १.६३.५ (२) जल गया, जल उठा। 'उर दहेउ कहेउ कि धरहु धावहु ।' मा० ३.१६ छं० वह : दहहिं । जलते हैं । 'अहं अगिनि ते नहिं दहैं। वैरा० ५४ वहै : दहइ । जलता-ती है; जलाता-ती है। 'दहे न दुख की आगि ।' वैरा० ४२ दहेगो : आ०म०पू०प्रए । जलेगा, जलायेगा। 'दुहूँ भांति दीनबंधु दीन दुख दहेगो।' विन० २५९.१ दहो : दह्यो । 'तुलसी तिहुँ ताप दही है।' कवि० ७.६१ दहौं : आ०उए । जलता हूं। 'दुसह दाह दारुन दहौं।' विन० २२२.३ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450 तुलसी शब्द-कोश वहौंगो : आ०भ०पु० उए । जलूगा । 'प्रभु की समतां बड़े दोष दहौंगो।' कवि० ७.१४७ वह्यति : आ०प्रब० (सं० दह्यन्ते) । जलते हैं । मा० ७.१३० श्लोक २ दह्यो : (१) दहेउ। जल गया। 'मरि बोइ मतक दह्यो।' गी० २.८४.२ (२) दहिउ । दधि । 'दूध दह्यो माखन ढारत हैं।' कृ०६ दाँत : दंत । विन० १३६.७ दाँवरी : सं०स्त्री० (सं० दामन्>प्रा० दाम>अ० दावंडी)। रस्सी, दौंरी । 'दुसह दावरी छोरि ।' कृ० १५ दाइ, ई : (समासान्त में) वि.पु. (सं० दायिन्) । देने वाला । 'सकल सुमंगल दाई ।' गी० १.१६.२ दाइज : सं०० (सं० दायाद्य>प्रा० दायज्ज) । विवाह में प्रदेय कन्या का भाग, - चौतुक, जहेज । मा० १.३३३ ।। दाउँ : दाउ । 'सूझत सबहि आपनो दाउँ।' विन० १५३.२ दाउ : सं०पु०कए० (सं० दायः>प्रा० दाओ>अ० दाउ)। पैत, दांव । 'देव दिवावत दाउ।' विन० १००.३ बाऊ : (१) दाउ । 'सूम जुआरिहि आपन दाऊ।' मा० २.२५८ (२) सं०० (सं० तात:>प्रा० ताओ>अ० ताउ)। ताऊ, श्रीकृष्ण के अग्रज-बलदाऊ । कृ० १२ दाग : सं०पु० (फा० दाग) । (१) धब्बा (कलङ क)। 'परै प्रेम पट दाग।' दो० ३१४ (२) जलती सलाक आदि बना हुआ चिन्ह । 'बाम बिधि भालहू न करम दागदागिहै।' विन० ७०.३ दागिहै : दाग+भ०प्रए । दाग लगाएगा। विन० ७०.३ दागी : दाग+भूक०स्त्री० । जलायी गई, जल गई। 'कलपलता दव दागी । गी० ___३ १२.१ (इसका सम्बन्ध सं० दाघ-दाह से है।) दागे : भूकृपु०ब० । दग्ध (जैसे, जलती सलाक से दाग लगाये हुए) । 'लोग बियोग बिषम दव दागे।' मा० २.१८४.२ दाड़िम : सं०० (सं०) । अनार : मा० ३.३०.११ दाढ़ोजार : वि.पु० (एक प्रकार की गाली) । दाढ़ी के रोएँ जलाने वाला; इतना कष्ट देने वाला कि हृदय-ताप से दाढ़ी तक जल जाय; आततायी आत्मीयजन जो परिवार वालों के लिए कष्टकर हो । 'बयो लुनियत सब याही दाढ़ीजार को।' कवि० ५.१२ दाढ़े : भूकृ००ब० (सं० दग्ध>प्रा० दड्ढ) । जले हुए। 'देखे लोग बिरह दव दाढ़े।' मा० २.८०.१ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 451 दातन्ह : दांत+संब० । दांतों (से) । 'दातन्ह काटहिं ।' मा० ६.५३.५ (यहाँ सं० दात्र>प्रा. दत्त>दात की व्युत्पत्ति से 'काटने का उपकरणविशेष' अर्थ लिया जा सकता है-दन्तरूपी दात्र अथवा दात्रतुल्य दांत) दाता : वि.पु. (सं०) । देने वाला । मा० १.७.१२ दातार : दाता । 'अभिमत फल दातार ।' मा० १.३०३ दादि : सं०स्त्री० (सं० दाद=उपहार; सं० दाति>प्रा० शौरसेनी-दादि=उपहार; फा० दाद न्याय, बख्शीश) । न्याय, उचित प्रदेय । 'देऊ तो दयानिकेत देत दादि दीनन की।' कवि० ७.१८ दाद : सं०० (सं० दp>प्रा. ददु)। एक स्थायी चर्मरोग । मा० ७.१२१.३३ दादर : सं०पू० (सं० दर्दुर>प्रा० ददुर) । मेंढक । मा० ४.१५.१ दान : (१) सं०पु० (सं०) । देना। मा० १.१०३.२ (२) राजनीति के चार उपायों में द्वितीय उपाय । 'साम दान भेद बिधि बेदहू लबेद सिधि ।' हनु० २८-दे० दंड दानव : दानव ने । 'सो मय दानवे बहुरि सँवारा।' मा० १.१७८.६ दानव : दनुज । मा० १.६.६ दाना : दान। मा० १.१५५.६ बानि : (१) दानी । 'बरदायक बर दानि ।' मा० १.२५ (२) दायनी । 'रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुखदानि ।' मा० १.११३ दान्तिहि : दानी को। दो० ३२७ वानी : वि.पुं० (सं० दानिन्) । दान करने वाला, देने वाला । मा० २.४४.८ दानु : दान+कए । केवल दान । 'रुच मागनेहि मागिबो तुलसी दानिहि दानु ।' __ दो० ३२७ दाप दापा : दर्प (प्रा० दप्प) । मा० ६.८१ 'हारे सकल भूप करि दापा ।' मा० . १.२५६.३ दापु : दाप+कए । अद्वितीय घमंड । 'भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा ।' मा० १.२८३.६ दाबि : पूकृ० । दबाकर, दबोचकर । 'हेठ दाबि कपि भाल निसाचर ।' मा० ६.७१.७ दाम : (१) सं०पु० (सं० दामन् >प्रा० दाम) । रस्सी । 'ताहि ब्याल सम दाम।' मा० १.१७५ (२) लड़ी (हार आदि) । 'बिच बिच मुकुता दाम सुहाए।' मा० १.२८८.३ (३) (सं० द्रम्य>प्रा० दम्म>अ० दम्मडी) । एक प्रकार का छोटा सिक्का-दमड़ी। 'लोभिहि प्रिय जिमि दाम।' मा० ७.१३० ख (४) धन । 'बहु दाम सँवारहिं धाम जती।' मा० ७.१०१.१ (५) सिक्का । 'तुलसी को खुलेगो खजानो खोटे दाम को।' कवि० ७.७० Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452 तुलसी शब्दकोश दामिनि : दामिनी । मा० १.२३५.६ दामिनी : दामिनी+ब० । बिजलियां । 'जन दहँ दिसि दामिनी दमंकहिं ।' मा० ६.८७.३ दामिनी : सं०स्त्री० (सं०) । विद्युत्, बिजली (जो मेघों में दमकती है) । मा०. ३.३०.११ दामोदर : सं०० (सं०-दाम उदरे यस्य स दामोदरः)। श्रीकृष्ण (यह नाम यशोदा द्वारा उदर में रस्सी से बांधने के कारण पड़ा बताया जाता है+सम्पूर्ण माया-पाशों को उदर में रखने वाला प्रतीकार्थ भी है)। कृ० १७ दाय : (१) सं०० (सं०) । दांव । 'विधि के सुढर होत सुढर सुदाय के ।' गी० १.६७.४ 'देव दारुन दाय ।' गी० ७.३१.३ (२) (सं० दाव) दावानल । 'कोड: न मीत हित दुसह दाय ।' विन० ८३.५ (३) (सं० दाय) दुर्भाग्य । दायक : वि० (सं.)। देने वाला । मा० १.१५ वायक : दायक+कए । एकमात्र देने वाला । 'जो दायकु फल चारि ।' मा०२ बायनी : वि०स्त्री० (सं० दायिनी) । देने वाली। मा० ७.५२.५ वाया : दया। मा० १.४६.५ दार : सं० (सं०) । पत्नी । मा० ७.३६ बार वारइ : (सं० दारयति>प्रा० दारइ) मा०प्रए । विदीर्ण करता है, करे, कर सकता है । 'अभिमत दातार कौन दुख दरिद्र दार।' विन० ८०.१ वारदी : दारिदी । 'साहिब सरोष दुनी दिन दिन दारिदी।' कवि० ७.१८३ वारन : (१) सं०० (सं० दारण)। विदारण (२) वि.पु। विदारण करने वाला । 'भव बारन दारन सिंह प्रभो।' मा० ६.१११.१ वारय : आ०-प्रार्थना-मए० (सं०) । तू विदारण कर । 'मन संभव दारुन दुख दारय ।' मा० ७.३५.४ दारा : (१) दार । पत्नी । मा० ५.४८.४ (२) वि.पु. (सं० दातृ>प्रा० दाआर)। दायक, देने वाला । 'जागे जगमंगल सुख दारा।' मा० २.६४.२ दारि : सं०स्त्री० (सं० दालि) । दाल (खाद्यान्नविशेष) । 'चाहत अहारन पहार, दारि घूर ना।' कवि० ७.१४८ दारिका : सं०स्त्री० (सं.)। लड़की, पुत्री । मा० १.३२६ छं० ३ । दारिद : सं०० (सं० दारिद्रय>प्रा० दारिद्द) । दरिद्रता, दुर्दशा, निर्धनता । मा० २.१०२.५ दारिदी : वि.पु । दरिद्रता से युक्त, निर्धनताग्रस्त । 'जे सुरतरु तर दारिदी, सुरसरि तीर मलीन ।' दो० ४१४ दारिदु : दारिद+कए । 'दिन दिन दूनो देखि दारिदु दुकालु दुखु ।' कवि० ७.८१ दारु : सं०० (सं०) । काष्ठ, लकड़ी । मा० १.२३.८ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 453 चारुन : वि.पु. (सं० दारुण)। विदारक=अति कष्टप्रद । 'मनसंभव दारुन दुख दारय ।' मा० ७.३५.४ दारुनारि : (दारु+नारि) कठपुतली । मा० १.१०५.५ बानि : दारुन+स्त्री० । कठोर, विदारक । 'दारुनि हठ ठानी।' मा० १.२५८०२ चारू : (१) संस्त्री० (फा० दारू=दवा)। शराब (जिसे पलीते में लगाकर तोप दागी जाती है । (२) बारूद (?) । 'काल तोपची तुपक महि दारू अनय कराल ।' दो० ५१५ बारे : भूकृ००ब० (सं० दारित>प्रा. दारिय) । विदीर्ण किये, नष्ट किये । 'भागे जंजाल बिपुल दुख कदंब दारे ।' गी० १.३८.५ हार : दारह। वालि : पूक० । दलित कर, भग्न कर । पिनाकु तोर्यो मंडलीक मंडली प्रताप दापु दालि री।' कवि० १.१२ दावन : वि.पु. (१) (सं० द्रावण>प्रा. दावण)। भगाने वाला । (२) (सं० दावन-दु उपतापे) सन्तप्त करने वाला। त्रिविध दोष दुख दारिद दावन ।' मा० १.३५.१० (३) सं०० (सं० द्रावण)। भगदड़ । 'जातुधान दावन परावन को दुर्ग भयो।' हनु० ७ वावनि, नी : दावन+स्त्री० । भगाने वाली, जलाने वाली। त्रिविध ताप भव भय दावनी।' मा० ७.१५.१ वावा : सं०० (सं० दाव) । दावानल, वनाग्नि । मिटे दोष दुख दारिद दावा ।' मा० २.१०२.५ दावानल : (सं० दाव=वन+अनल=अग्नि) दावा=दवानल । कवि० ७.१६१ दाशरथि : (सं०) दशरथ के पुत्र राम । विन० ३८.२ दास : सं०० (सं.)। (१) परिचारक, सेवक । 'दासी दास तुरग रथ नागा।' मा० १.१०१.७ (२) दासभाव का भक्त । 'प्रभु सर्बग्य दास निज जानी।' मा० १.१४५.५ वासनि, न्ह : दास+संब० । दासों (को)। 'संतत दासन्ह देहु बड़ाई।' मा० ३.१३.१४ वासरथीं : (दे० दाशरथि) दशरथ पुत्र राम ने । 'पल में दल्यो दासरथीं दसकंधरु ।' कवि० ७.१ दासा : दास । मा० ३.१७.१३ बासिन्ह : दासी+संब० । दासियों (ने) । 'दासिन्ह दीख सचिव बिकलाई ।' मा० २.१४८.३ वासी : दासी+ब० । दासियो । मा० १.१०१.७ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 तुलसी शब्दकोश बासी : दास+स्त्री० (सं०) । सेविका, परिचारिका । मा० १.१०८.१ वासु : दास+कए । एकमात्र सेवक, अकिंचन दास, अनन्य भक्त । 'नाथ दासु में स्वामि तुम्ह ।' मा० २.७१ बाह : दाह से, सन्ताप से । एहिं दुख दाहँ दहइ दिन छाती।' मा० २.२१२ १ दाह : सं०० (सं.)। (१) जलन, सन्ताप । मा० २.१६४.८ (२) त्रिताप । 'सो तहाँ तुलसी तिहुं दाह दहो है।' कवि० ७.६१ (३) डाह, ईर्ष्या । 'पर गुन सुनत दाह ।' विन० १४३.४ दाह, दाहइ : (सं० दाहयति>प्रा० दाहइ) आ०प्रए । जलाता है, जला सकता है । 'अहं अगिन नहिं दाहै कोई ।' वैरा० ५२ वाहक : वि० (सं०) । (१) सन्तापकारी । 'सीतलि सिख दाहक भइ कैसें ।' मा० २.६४.२ (२) दग्धकारी । 'दोष दुरित दुख दारिद दाहक नाम ।' बर० ५८ दाहा : (१) दाह । सन्ताप। 'उर उपजा अति दारुन दाहा।' मा० १५४.२ (२) भस्मीकरण । 'सोचेहूं कीस कीन्ह पुर दाहा।' मा० ६.२३.७. (३) भूकृ.पु । जलाया । 'केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा।' मा० ७.७०.८ दाहि : पूकृ० । जला कर, तपा कर । 'अनल दाहि पीटत घनहिं ।' मा० ७.३७ गहिए : आ०कवा०प्रए । जलाया जाय । 'नाम के प्रताप न त्रिताप तन दाहिए।' कवि० ७.७६ दाहिन : दहिन । (१) दायाँ । 'दाहिन काग सुखेत सुहावा ।' मा० १.३०३.३ (२) अनुकूल । 'दाहिन दइउ होइ जब सबही।' मा० २.२८०.५ (३) दायां +अनुकूल । 'दाहिन बाम न जानउँ काऊ।' मा० २.२०.८ वाहिनि, नी : दाहिन+स्त्री० । 'मृगमाला फिरि दाहिनि आई।' मा० १.३०३.६ 'लखन दाहिनी ओर ।' वैरा० १ दाहिनेउ : दाहने भी दायें+अनुकूल भी। 'लागे दुख दूषन से दाहिनेउ बा ।' ___ गी० ५.२५.४ दाहिनेहु : दाहिनेउ । 'जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ ।' मा० १.४.१ दाहिनो : दाहिन+कए । 'होइ बिधि दाहिनो।' दो० ३६ दाहिबे : भकृ०० । जलाने ! 'ढाहिबे दाहिबे को कहरी है।' कवि० ६.२६ दाहु, हू : दाह+कए । (१) सन्ताप । 'जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू ।' मा० १.७१.६ (२) भस्मीकरण । 'कर तप कानन दाहु ।' मा० १.१६१ क (३) डाह, ईर्ष्या । 'केकयसुता हृदय अति दाहू ।' मा० २.२४.७ दाहें : दाह से, तपाने से । 'कनकहि बान चढ़इ जिमि दाहें।' मा० २.२०५.५ दाहे : भूक००ब० । जला दिये । 'तहँ तिन्ह के दुख दाहे ।' विन० १४५.१ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 455 वाहें : आ०प्रब० (सं० दाहयन्ति>प्रा० दाहंति>अ० दाहहिं)। जलाते हैं । 'निवासु जहाँ सब ले मरे दाहैं।' कवि० ७.१५५ दाहै : दाहइ। दिअटि : सं०स्त्री० । दीपाधार । 'चित्त दिआ भरि धरै दृढ, समता दिअटि बनाइ।' मा० ७.११७ ख विआ : सं०० (सं0 दीपक>प्रा० दीअअ) । प्रदीप । 'नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती।' मा० ७.१२०.३ (२) दीप्ति, प्रकाश की चकाचौंध । 'मनहुं मृगी मृग देखि दिआ से।' मा० १.११६.३ (दे० दियरे, दीपिका)। दिएँ : (१) देने से, देने पर ! 'दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ।' मा० २.६५.८ (२) देकर । 'सुनु कान दिएँ।' कवि० ७.२६ दिए : भूकृ०पू०ब० । प्रदान किये । 'तब मुनि आश्रम दिए सुहाए।' मा० २.१२५.४ दिकवाह : सं०० (सं० दिग्दाह) । दिशाओं में आग लगना। आग की लपटों के समान दिशाओं की भीषण लाली (जो अपशकुन मानी गयी है)। 'ऊकपात दिकदाह दिन ।' रा०प्र० ५.६.३ दिखरावहिंगे : आ०भ००प्रब० । दिखालाएंगे। 'राका ससि मुख दिखरावहिंगे।' गी० ५.१०.१ विखाइ : देखाइ । दिखला (कर) । 'हेम हरिन कहँ दीन्हेउ प्रभुहि दिखाइ।' बर० २६ दिखाई : (१) दिखाइ । 'बिनु पूछे मगु देहिं दिखाई।' मा० ६.१८.१० (२) देखने की क्रिया (दर्शन)। 'सपनेहुं नहिं देत दिखाई ।' विन० १६५.२ (३) भूकृ० __ स्त्री० । दिखलाई । 'तिन की गति प्रगट दिखाई ।' गी० १.१.१२ दिखाउ : देखाउ । तू दिखला । कृ० ५२ दिखाए : देखाए । 'महारिस तें फिरि आँखि दिखाए ।' कवि० १.२२ दिखाया : भूकृ०० । दिखलाया, प्रकट किया। 'प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया।' मा० १.२३६.५ दिखायो : दिखाया+कए । 'जन पर हेतु दिखायो।' गी० ५.४४.५ दिखाव, दिखावइ : (देखावइ) (१) दिखाता है । 'ताहि दिखावइ निसिचर निज माया ।' मा० ६.५१ (२) देखने में आता है (अपने-आपको दिखाता है)। 'घृत पूरन कराह अंतरगत रवि प्रतिबिंब दिखावै ।' विन० ११५.२ दिखावत : देखावत । 'कानन भूमि बिभाग राम दिखावत जानकिहि ।' रा०प्र० दिखावहिं : देखावहिं । 'बुडिहि लोभ दिखावहिं आई।' मा० ७.११८.७ : दिखाव : दिखावइ । 'जो मारग श्रुति साधु दिखावै ।' विन० १३६.१२. Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456 तुलसी शब्द-कोत विखावौं : देखावौं । 'सो बल मनहि देखावौं ।' विन० १४२.१० दिगंचल : सं०० (१) (सं.)। दिशाविभाग। (२) (सं० दृगंचल) नेत्रफलक, पलकें । 'मनहुं सकुचि निमि तजे दिगंचल ।' मा० १.२३०.४ दिगंबर : सं०+वि० (सं.)। जिसके वस्त्र दिशाएँ ही हों निर्वसन, नग्न (शिवजी) । 'अकुल अगेह दिगंबर ब्याली।' मा० १.७६.६ विगवंति : सं०० (सं० दिग्दन्तिन्) । दिग्गज । गी० १.६०.५ दिगपाल, ला : सं०० (सं० दिक्पाल)। दिशाओं के स्वामी = इन्द्र, अग्नि, यम, निऋति, वरुण, वायु, कुबेर और ईशान (क्रमश: पूर्वादि दिशाओं के दिक्पाल हैं)। मा० ६.८.३ दिगपालन्ह : दिगपाल+संब० । दिग्पालों। 'दिगपालन्ह के लोक सुहाए।' मा० १.१८२.७ दिगपुर : किसी ग्राम या नगर का नाम जिसके और वारिपुर के बीच 'सीतामढ़ी' की स्थिति बतायी गयी है। कवि० ७.१३८ विगबसन : दिग्बसन । कवि० ७.१५० दिसिधुर : (सं० दिक्सिन्धुर) दिग्गज । मा० ६.७९.६ विगीस : (सं० दिगीश) दिगपाल । विन० २५०.२ विगीसनि : दिगीस+संब० । दिक्पालों। विन० २४६.३ दिग्गज : सं०० (सं०) । आठ दिशाओं में पृथ्वी को रोकने वाले (पुराण-प्रसिद्ध) ___ आठ हाथी। मा० १.२५४.१ दिग्बसन : दिगंबर । कवि० ७.१४६ दिच्छा : सं०स्त्री० (सं० दीक्षा) । मन्त्रदान की धार्मिक विधि । 'दिच्छा देउँ ग्यान ___ जेहिं पावहु ।' मा० ६.५७.८ दिछित : सं०+वि०० (सं० दीक्षित) । दीक्षा प्राप्त; यज्ञ या मन्त्र की दीक्षा पाया हुआ। विन० २४०.२ विढ़ाई : आ०ए० (सं० दढायते>प्रा० दिढाइ) । दृढ़ होती है । 'प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई।' मा० ७.८६.८ वितिसुत : कश्यप-पत्नी दिति के पुत्र दैत्य । मा० ६.६.७ दिन : सं०० सं० । (१) (दिवस=६० घरी वाला दिन-रात का समय । 'सबहि सुलभ सब दिन सब देसा ।' मा० १.२.१२ (२) सूर्योदय से सूर्यास्त तक का समय । 'सुख दुख पाप पुन्य दिन राती।' मा० १.६.५ (३) तिथि (दिनाङक)। 'जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं ।' मा० १.३४.६ (४) प्रतिदिन । एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती।' मा० २.२१२.१ (५) रविवारादि सात दिन । दिनकर : सं०० (सं.) । सूर्य । मा० १.३२.१० विनवानी : प्रतिदिन दान करने वाला । 'प्रनवउँ दीनबंधु दिनदानी।' मा० १.१५.३ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुमसी शब्द-कोश 457 विनन : दिन+संब० । दिनों (में, पर)। 'बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया।' मा० १.१२८.६ दिननाथ : सूर्य । जा०म०छं० ४ दिननायक : सूर्य । मा० ३.२६.२ दिनमनि : सं०० (सं० दिनमणि)। सूर्य । मा० १.१६६.१ . दिनराऊ : (दे० राऊ) । सूर्य । मा० १.३२१.६ दिनहि, ही : दिन में ही। मा० १.१६८; ६.३२.७ दिनहुँदिन : दिनोंदिन, उत्तरोत्तर प्रतिदिन । 'देह दिनहुँदिन दूबरि होई ।' मा० २.३२५.१ दिनु : दिन+कए । 'निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका ।' मा० १.८५.५ (२) दिन भर । 'नाहित मौन रहब दिनु राती।' मा० २.१६.४ (३) मुहूर्त का एक निश्चित दिन । 'गनक बोलि दिनु साधि ।' मा० २.३२३ (४) एक श्रेष्ठ दिन । 'निरुपम सो दिनु ।' जा०म० १०० दिनेश : सं०० (सं.)। सूर्य । मा० ३.४ छं० दिनेस, सा : दिनेश । मा० ७.६ क; ७.३१.१ दिनेसु, सू : दिनेस+कए । मा० २.२७४, २.३०५.७ विबोई : दीबो+ई। देना ही, दान करना ही। 'दीन दयाल दिबोई भावै ।' विन० ४.१ दिव्य : वि० (सं० दिव्य) । स्वर्गसम्बन्धी, देवोचित, परमोत्तम । 'सिंघासनु अति दिव्य सुहावा।' मा० १.१००.३ विब्यतर : (दे० तर) अतिशय दिव्य । 'दिव्यतर दुकल भव्य ।' गी० ७.४.५ विन्यदृष्टि : देवोचित दृष्टि ; पारदर्शिनी दृष्टि । 'सुमिरत दिव्यदृष्टि हियँ होती।' मा० १.१.५ दिय : भूकृ० । दिया, प्रदान किया। गी० ७.१६.७ वियउ : दिय+कए । दिया। 'नाथ मोहि आदर दियउ ।' मा० ६.१७ ख दियरे : (दे० दिआ) संपु०ब० (सं० दीपक>प्रा. दीयअ>अ. दीयडथ) दीपक, दीप्तियाँ । 'देखि नर नारि रहैं ज्यों कुरंग दियरे ।' गी० १.४३.३ वियह : आ०-भूकृ०+मब० । तुमने दिया, दी। 'ग्यान भवन तनु दियहु नाथ।' विन० ११४.३ दिया : दिय । 'केहि अघ औगुन आपने कर डारि दिया रे ।' विन० ३३.३ दिये : दिए। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 तुलसी शब्द-कोश दियो : दियउ । (१) दिया, प्रदान किया । 'तुम्हह दियो निज धाम ।' मा० ६.१०४ छं० (२) रखा । 'सोभा की दीयटि मानों रूप दीप दियो है ।' गी० १.१०.३ : विरमानी : सं०पु० ( फा० दरमान् = दवा) दवा करने वाला, चिकित्सक, वैद्य । 'जस आमय भेषज न कीन्ह तस दोष कहा दिरमानी ।' विन० १२२.१ दिवस : सं०पु० (सं० ) । दिन । ( १ ) ६० घरी का समय । 'जुग सम दिवस सिराहि । मा० १.५८ (२) सूर्योदय से सूर्यास्त तक का समय । 'जैसें दिवस दीप छबि छूटे ।' मा० १.२६३.५ दिवस : दिवस + कए । 'दिवसु रहा भरि जाम ।' मा० १.२१७ दिवसेश : सं०पु० (सं० ) । दिनेश, सूर्य । विन० ५५.३ दिवाई : देवाई | दिलायी । 'सीस उघारि दिवाई धाहैं ।' गी० ७ १३.६ दिवाए : भूकृ०पु०ब० । दिलाये । 'तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास । मा० ७.१४ दिवाकर : सं०पु० (सं०) । सूर्य । मा० ६.१५.२ 1 दिवान : सं०पु० ( फा० दीवान) । राजा का दर्बार । 'केहि दिवान दिन दीन को आदर ।' विन० १६१.५ दिवारी : सं० [स्त्री० (सं० दीपाली > प्रा० दीवाली ) । दीपावली ( पर्व विशेष ) । 'जड़ जाहिंगे चाटि दिवारी को दीयो ।' कवि० ७.१७६ दिवावत: वकृ०पु० दिलाता-दिलाते । ' देत दिवावत दाउ ।' विन० १००.३ दिशि : दिखि । (सं०) दिशा में = ओर, पार्श्व में । 'दक्ष दिशि रुचिर वारीश कन्या ।' विन० ६१.७ दिष्टि : दृष्टि । 'अचानक दिष्टि परी तिरछौं हैं।' कवि० २.२५ दिसां : दिशा में । 'जरठाइ दिसाँ रबि कालु उग्यो ।' कवि० ७.३१ दिसा : सं० स्त्री० (सं० दिश = दिशा > प्रा० दिसा ) । पूर्व आदि । 'परम सुभग सब दिसा बिभागा ।' मा० १.८६.७ दिसि : दिसा ( प्रा० ) । ' देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं ।' मा० २.१४२.८ (२) पक्ष = ओर । 'मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा ।' मा० १.५.१ ( ३ ) ओर = स्थान विभाग | 'जेहि दिसि बैठे नारद फूली । सो दिसि तेहि न बिलोकी भूली ।' मा० १.१३५.१ (४) पार्श्व । 'राम बाम दिसि सीता सोई ।' मा० १.१४८.४ दिसिकुंजर : दिग्गज । मा० १.३३३.७ दिसिकं जरहु : दिसिकुंजर + संबोधन ब० । हे दिग्गजो । 'दिसिकु जरहू कमठ अहि कोला | धरहु धरनि ।' मा० १.२६०.१ दिसित्राता : दिक्पाल । मा० ७.८१.१ दिसिनाथ, था : दिक्पाल । मा० २.१७३.७ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश दिसिप : (दे० प) । दिक्पाल । मा० ५.२०.७ दिसिपति : दिक्पाल । मा० १.३२१.६ दिसिपाल, ला : दिक्पाल । मा० २.१३४.१ दिसिश्रम : सं०पु० (सं० दिग्भ्रम ) | दिशाविषय भ्रान्ति । 'जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा । सो कह पच्छिम उमउ दिनेसा ।' मा० ७.७३.४ दिसिराज, जा : दिक्पाल । मा० १.६२ दिसिहि : दिशा की ओर । 'उत्तर दिसिहि बिमान चलायो ।' मा० ६.११६.२ 459 दिहल : दिया, दीन्ह ( आधुनिक भोजपुरी में प्रचलित रूप ) । 'हम हि दिहल करि कुटिल करमचंद ।' विन० १८६.२ दी : दई । 'निज निज मरजाद मोटरी सी डार दी ।' कवि० ७.१८३ दीख, खा: भूकृ०पु० । देखा । 'लछिमन दीख उमा कृत बेषा ।' मा० १.५३.१ 'निज कर नयन काढ़ि चह दीखा ।' मा० २.४७.३ • दीखि : दीख + स्त्री० | देखी । 'दीखि जाइ जग पावनि गंगा ।' मा० २.१६७.३ 'उचित सिखावनु दीजहु जहु : आ० ब ० ( १ ) प्रार्थना । तुम ( कृपया ) देना । मोही ।' मा० ४.३०.१० ( २ ) आज्ञा । तुम देना । पाती ।' मा० ५.५२.८ 'रावन कर दीजहु यह बीजे : आ०कवा०प्र० । दी जाय, दिया जाय । 'जनकसुता रघुनाथहि दीजे ।' मा० ५.५७.७ दो : दीजे । 'मोरे कहें जानकी दीजं ।' मा० ५.२२.१० दोजो : दीजहु । 'उराहनो न दीजो मोहि ।' कवि० ७.१६५ दोठि : डीठि (सं० दृष्टि > प्रा० दिट्टि) । दो० ४६ दीन : (१) वि० (सं० ) । दयनीय । 'सकल जीव जग दीन दुखारी ।' मा० १.२३.७ (२) दीन्ह । दिया । 'मुदित मागि इक धनुही नृप हँसि दीन ।' बर० ८ (३) सं०पु ं० (अरबी) । धर्म, धर्म निष्ठा । 'सुर- साहेबु साहेबु दीनदुनी को ।' कवि० ७.१४६ सं० स्त्री० (सं०) । दैन्य, दयनीय दशा । मा० १.४३.१ दीनदयाल, ला, लु: (सं० दीनदयालु) । दीनों पर दया करने वाला । मा० दोनता : १.१६; ५७.७; ५६.६ दीनन, न्ह : दीन + संब० । दीनों, दयनीय जनों । 'कोमल चित दीनन्ह पर दाया । मा० ७.३८.३ दीनबंधु : दीनजनों पर आत्मीय भाव रखने वाला । मा० १.२११ दीना : दीन । मा० १.११५.४ बीन्ह : भूकृ०पु० (सं० दत्त > प्रा० दिण्ण) । दिया । ' जग जस अपजस दीन्ह ।' मा० १.७ ख Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.60 तुलसी शब्द-कोश दीन्हा : दीन्ह । मा० १.३०.४ दीन्हि : दीन्ह + स्त्री० । दी । 'सुगति दीन्हि रघुनाथ । मा० १.२४ दीन्हिउँ : दीन्हि + उए० । मैंने दी। 'प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही ।' मा० २.१५.१ दीन्हिसि : दीन्हि + ए० । उसने दी । 'दीन्हिसि अचल बिपति के नेई ।' मा० २.२६.६ बीन्हीं : दीन्ही + ब० । दीं । 'देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं ।' मा० १.२८५ दीन्ही : दीन्हि । 'करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही । मा० १.२६०.३ दीन्हें: (१) दिये हुए देकर । 'जोगवत रहहहि मनहि मनु दीन्हें । मा० २.२१४.६ (२) देने पर । 'राम सपथ दीन्हें हम त्यागे ।' मा० ५.५४.४ दीन्हे : दीन्हा + ब० । दिये । 'उचित बास हिम-भूधर दीन्हे ।' मा० १.६५.८ 1 दीन्हेउ : दीन्ह + ए० । दिया । 'दीन्हेउ कटकु चलाइ ।' मा० २.२०२ बीन्हेहु : दीन्हे + मब० । तुमने दिया । 'होइ प्रसन्न दीन्हेहु सिव पद निज ।' विन० ७०३ दीन्हो : दीन्हेउ । ' को न लोभ दृढ फंद बाँधि करि त्रासन दीन्हो ।' कवि० ७.११७ दीप: सं०पु० (सं०) । (१) दीपक । मा० १.२१ से घिरा भू-भाग, जम्बूद्वीप आदि पुराण प्रसिद्ध नाना ।' मा० १.२५१.७ 'सात दीप नव खंड : दीपक : दीप (सं० ) । ' भयो मिथिलेस मानो दीपक बिहान को ।' गी० १.८८.४ दीपमालिका : सं० स्त्री० (सं०) । (१) दीपक श्रेणी (२) दीपावली पर्व । 'खाती दीपमालिका ठठाइयत सूप हैं ।' कवि० ७ १७१ दीप - सिखा : सं० स्त्री० (सं० दीपशिखा ) । दीपक की लौ । मा० ७.२३०.७ (२) (सं० द्वीप) । टापू, जल भू-भाग । 'दीप दीप के भूपति वेरा० ५० दीपा : दीप । मा० ७.११८.८ दीपावलि, ली : सं० स्त्री० (सं० ) । दीपक श्रेणी । गी० १.५.१ दीपिका : सं ० स्त्री० (सं०) । दीपक + दीप्ति समूह । 'रूप दीपिका निहारि मृग मृगी नर नारि बिथके ।' गी० १.८४.६ दीबे : भक०पु० (सं० दातव्य > प्रा० देअव्व ) | देने । 'दीबे जोग तुलसी न लेत काहू को कछुक ।' कवि० ७.१६५ दो : भकृ०पु०ए० । देना । 'समुझि सिखावन दीबो ।' कु० ३५ दोर्याट : दिअटि । 'सोभा की दीयटि मानो रूप-दीप दियो है ।' गी० १.१०.३ दीयो: सं०पु०कए० (सं० दीपकम् > प्रा० दीययं > अ० दीयउ ) । प्रदीप । 'जड़ जाहिंगे चाटि दिवारी को दीयो ।' कवि० ७.१७६ वीर : वि० (सं० दीर्घ ) । लम्बा ( देश या काल में अधिक आयत ) । 'दीरघ रोगी दारिदी ।' दो० ४७७ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 461 दील : सं.पु(फा० दिल) । हृदय । 'भई आस सिथिल जगन्निवास दील की। कवि० ६.५२ दीसा : दीखा। (१) देखा गया। 'भरत सरीसा.. सुना न दीसा ।' मा० २.२३१.८ (२) दिखाई पड़ा । 'बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा ।' मा० १.२४२.१ दुव : द्वंद्व । 'हरन दुख दुद गोबिंद आनंदघन ।' विन० ४७.१ द्बुमि : (१) सं०स्त्री० (सं.)। वाद्यविशेष, नक्कारा। मा० १.३४७.५ (२) सं०० (सं.)। एक दानव जिसे बाली ने मारा था। 'दुदुभि अस्थि ताल देखराए।' मा० ४.७.१२ दुदुभी : दुंदुभी+ब० । नक्कारे । 'देवन्ह दीन्हीं दुदुभी।' मा० १.२८५ दुदुमी : दुंदुभि । नक्कारा । मा० १.१६१.७ दःकर : वि० (सं० दुष्कर) । करने में कठिन। विन० ५४.७ दाख : सं०० (सं.) । क्लेश त्रिताप । वःखत: : (सं०) दुःख से । मा० २ श्लोक २ दुःखौघ : (दु:ख+ओघ) दु:ख रूपी अतल प्रवाह । मा० ७.१०८.६ दुअन : वि.पु+सं० (सं० दुर्जन>प्रा० दुअण) । दुष्ट, शत्रु । 'जय पवन सुअन दलि दुअन-दाप ।' गी० ५.१६.१० दुआर : द्वार (प्रा०)। मा० ६.७२.६ दुआरा : दुआर । मा० ६.३६.२ बुआरें : द्वार पर, द्वार तक, द्वार की ओर । 'उर धरि धीरज गयउ दुआरें।' मा० २.३६.४ दुइ : संख्या (सं० द्वौ, दे>प्रा० दुइ) । दो। मा० १.२१.२ दुइचारी : दो चार । मा० १.६७.७ दुइज : सं०स्त्री० (सं० द्वितीया>प्रा० दुइज्जा) । द्वितीया तिथि । 'दुइज न चंदा देखिए।' दो० ३४४ दुओ : दोनों। 'लिए दुऔ जन पीठि चढ़ाई।' मा० ४.४.५ दुकाल : सं०पुं० (सं० दुष्काल>प्रा० दुक्काल)। अकाल, अतिवृष्टि-अन्गवृष्टि आदि देवी संकट, दुर्भिक्ष । 'कलि बारहिंबार दुकाल पर।' मा० ७.१०१.१० दुकालु : दुकाल+कए० । 'दला दुकालु दयाल ।' रा०प्र० ७.५.३ दुकूल : सं०० (सं.)। उत्तम परिधान, परिधेय वस्त्र । मा० २.६५ दुक्ख : दुःख (प्रा०) । 'कौन है दारुन दुक्ख दमैया।' कवि० ७५३ दुख : दुक्ख । मा० १.७ दुखई : भूक०स्त्री० (सं० दुःखापिता>प्रा० दुक्खविआ)। दु:खित की। 'जातुधान तिय जानि बियोगिनि दुखई सीय सुनाइ कुचाहैं।' गी० ७ १३.६ दुखउ : दुःख भी । 'दुवउ दुखित मोहि हेरे। विन० २२७.३ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 तुलसी शब्द-कोश दुखद : (दे० द) । दुख देने वाला, दुःखजनक । मा० ३.४३ दुखदाई : दुख द (सं० दु:खदायिन् >प्रा० दुक्ख दाई) । मा० १.१७०.५ दुखदाता : (दे० दाता) दुःखद । मा० ६.६६.४ दुखप्रद : (दे० प्रद) दुखद । मा० १.५.३ दुखरूप, पा : दुःखाकार, मूर्त दुःख । मा० ७.७३ क; ३.१५.५ दुखवत : वकृ०० (सं० दुःख यत् >प्रा० दुक्खवंत)। दुःख देता-देते । 'सुतहि दुख वत बिधि न बरज्यो।' विन० २१६.२ दुखवहु : आ०मब० (सं० दुःख यत>प्रा० दुक्ख वह>अ० दुक्ख वहु) । दुःख दो, दु:खित करो। 'दुखवहु मोरे दास जनि ।' गी० २.४७.१८ दुखहू : दुःख को भी । 'सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा।' मा० २.१५३.८ दुखारा : वि०० (सं० दुःखिन् >प्रा० दुक्खाल) । दुखी । मा० ६.३५.१२ दुखारी : (१) वि.पु =दुखारा । दुःखी । 'जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।' मा० ४.७.१ (२) दुखारा+स्त्री० । दुःखिनी। 'दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी।' मा० २.३०२.६ दुखारे : दुखारा+ब । बेषु देखि भए निपट दुखारे ।' मा० २.२७०.५ दुखित : वि० (सं० दुःखित) । दुःखयुक्त । मा० १.६०.१ दुखी : वि० (सं० दु:खिन्>प्रा० दुक्खी) । दुःखयुक्त । मा० २.२१६ दुखु : दुख+कए । एक विशेष दुःख । 'नारि बिरहँ दुखु भयउ अपारा ।' मा० । १.४६.८ दुगुन : वि० (सं० द्विगुण>प्रा० दुगुण =दुउण) । दूना । मा० ५.२.७ दुघरी : सं०स्त्री० (सं० द्विघटिका>प्रा० दुघड़िया>अ. दुघडी) । अनिवार्य यात्रा करनी हो तो किसी भी दिन दो घड़ी का शुभ मुहूर्त देख लेने की ज्योतिष विधि है। प्रतिदिन ३२ मुहूर्त होते हैं जो प्रायः दो घड़ी के ठहराये जाते हैं। उनमें ही शुभ मुहूर्त देखकर यात्रा की जा सकती है । 'दुघरी साधि चले ततकाला।' मा० २.२७२.५ दुचित : वि.पु० (सं० द्विचित्त>प्रा०दु-चित्त)। दो ओर लगे चित्त चित्त वाला (अनेकाग्रचित), द्विविधाग्रस्त । 'दुचित कतहुं परितोष न लहहीं।' मा० २.३०२.७ दुचितई : सं०स्त्री० (सं० द्विचित्तता>प्रा० दुचित्तया) । दुबिधा, एकाग्र न होना। ___ 'आयसु भो राम को सो मेरे दुचितई है।' गी० १.८६.१ । दुति : सं०स्त्री० (सं० धुति)। आभा, कान्ति, दीप्ति । मा० १.१०६.७ दुतिकारी : वि० (सं० द्युतिकारिन्) । कान्ति बिखेरने वाला । 'तिलक ललाटपटल दुतिकारी।' मा० १.१४७.४ दुतिहीन, ना : (सं० चुतिहीन) । कान्ति रहित । मा० २.१६९.५ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 463 दुतीय : संख्यात्मक वि० (सं० द्वितीय) । दूसरा । कवि० ७.६५ दुत्त : वि० (सं० द्रुत) । फुर्तीला, तीव्र गति वाला । 'दुत्त मत्त मृग मराल ।' गी० २.४३.३ दुनिये : (दे० दुनी) दुनिया ही, विश्व-प्रपञ्च ही। 'बिरची बिरंचि सब देखियत ___ दुनिये ।' हनु ० ४४ दुनी : दुनिया में । 'बिदित बात दुनीं सो।' कवि० ७.७२ दुनी : सं०स्त्री० (फा० दुनिया)। संसार, पृथ्वीलोक । 'कबिबृद उदार दुनी न __ सुनी ।" मा० ७.१०१.६ दुबिद : द्विबिद । मा० ६.४३.२ दुबिध : वि० (सं० द्विविध)। दो प्रकार का-की । दुबिधायुक्त, दुचित्त । दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी।' मा० २.३०२.६ दुभाषी : वि० (सं० द्विभाषिक)। दो भाषाओं का ज्ञाता जो वक्ता की भाषा का अनुवाद श्रोता की भाषा में करता है तथा श्रोता की बात को वक्ता की भाषा में रखता है दुभासिया । "अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी । उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी ।' मा० १.२१.८ दुरंत : वि० (सं०) । जिसका अन्त कठिनाई से पाया जाय=दुष्पार । 'दुस्तर दुर्ग दुरंत..."दुराधरष भगवंत ।' मा० ७.६१ ख दुरई : दुरहिं । मा० २.१६३.१ (पाठान्तर)। दुरइ : आ०प्रए । छिपता है । 'बैर प्रेम नहिं दुरइ दुराएँ ।' मा० २.२६४.२ दुरघट : दुर्घट । विन० ५६.६ .. दुरजन : दुर्जन । कृ०६० दुरत : वकृ०० । छिपता-छिपते । 'प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा।' मा० १.१५७.४ दुरतिक्रम : वि० (सं.)। जिसका अतिक्रमण कठिन (या असंभव) हो । 'कालु सदा दुरतिक्रम भारी ।' मा० ७.६४.८ दुर्दशा : सं०स्त्री० (सं० दुर्दशा) । दुरवस्था, दुर्गति, कष्टमयी। स्थिति । विन० १४६.३ दुरदिन : सं०पु० (सं० दुर्दित) । (१) मेघाच्छादित दिन (२) नैराश्यपूर्ण संकट ___ का समय । 'दिन दुरदिन दिन दुरदसा दिन दुख दिन दूषन ।' विन० १४६.३ दुरनि : सं०स्त्री० । छिपने की क्रिया, गोपन । 'दुरनि त्यागि दामिनि जनु ___ दमकति ।' गी० ७.१७.६ दुरबासना : दुर्वासना । कवि० ७.११६ दुरबासा : सं०० (सं० दुर्वासस्-दुर्वासाः) एक मुनि का नाम जो क्रोधी प्रसिद्ध हैं । मा० २.२१८.६ दुरलभ : दुर्लभ । मा० ३.३६.८ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 तुलसी शब्द-कोश दरहि : मा०प्रब० । छिपते हैं । 'बैर प्रीति नहिं दुरहिं दुराएँ ।' मा० १.३४६.४ दुराइ : पूकृ० । छिपाकर । 'सचिवं चलायउ तुरत रथ, इत उत खोज दुराइ ।' मा० २.८५ दुगई : भूकृ०स्त्री०ब० । छिपायीं । 'कटुक कठोर कुबस्तु दुराई ।' मा० २.३११.५ दुराई : भूक०स्त्री० । (१) छिपायी, छिपा रखी । 'जानि कुअवसर प्रीति दुराई ।' मा० १.६८.६ (२) छिपायी हुई । 'देहु तुरत निज नारि दुराई ।' मा० ३.१६.६ दुराउ, ऊ : सं००कए । छिपाव, गोपन । 'प्रभु सन कवन दुराउ।' मा० १.१४६ १.५३.५ दुराएँ : छिपाने से । 'बैर प्रीति नहिं दुरहिं दुराएं।' मा० १.३४६.४ दुराए : भूक०००० । छिपाये । 'तेहिं इरिषा बन आनि दुराए।' मा० २.१२०.६ दुराएहु : आ०भ०+आज्ञा+मब० । तुम छिपा रखना । 'चलेहं प्रसंग दुराएहु तबहूं।' मा० १.१२७.८ दुरानु : सं००कए० (सं० दूराज्यम् >प्रा० दुरजं>अ० दुरज्जु) । दुष्ट राज्य, दोषयुक्त शासन । 'दिन दिन दूनो दुखु दुरित दुराजु ।' कवि० ७.८१ दुराधरष : वि० (सं० दुराधर्ष)। जिसे तिरस्कृत करना कठिन (असंभव) हो । 'दुराधरष भगवंत ।' मा० ७.६१ ख दुराप : वि० (सं०) । दुर्लभ, दुष्प्राप्य । विन० ५५.८ दुरायो : भूकृपु०कए । छिपाया । 'हृदय दुसह दुख दुरायो।' गी० ५.१५.२ दुराराध्य : वि० (सं.)। कठिनता से आराधना-योग्य । मा० १.७०.४ दुराव : (१) दुराउ । गोपन । 'तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाहीं।' मा० ३.१३.१ (२) वि० (सं० दुराप>प्रा० दुराव) । दुर्लभ । दुरावउँ : आ०उए । छिपाता-ती हूं। 'तातें नहिं कछु तुम्हहिं दुरावउँ ।' मा० ७.७४.४ दुरावहिं : आ.प्रब० । छिपाते हैं । 'गढ उ तत्त्व न साधु दुरावहिं !' मा० १.११०.२ दुरावा : (१) दुरावै । छिपाता है । 'जो सहि दुख पर छिद्र दुरावा ।' मा० १.२.६ (२) भूकृ.पु । छिपाया, छिपा लिया । 'भूप रूप तब राम दुरावा।' मा० ३.१०.१८ दुरावें : दुरावहिं । 'प्रगटै उपासना दुरावै दुरबासनाहि ।' कवि० ७.११६ दुराव : आ०प्रए । छिपाता है । 'दुराव मुखु सूखत सहमहीं।' कवि० ६.८ दुरावौं : दुरावउँ । 'कीन्हे अघ, ते करि जतन दुरावौं ।' विन० १४२.७ दुरासा : सं०स्त्री० (सं० दुराशा>प्रा० दुगसा)। दूषित आशा, निरर्थक या कलुष विषयक आशा । मा० १.२४.५ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब-कोश 465 दुरि : पूक० । छिप (कर) । 'कबहुंक प्रगट कबहुं दुरि जाई ।' मा० ६.७६.१२ दुरित : सं० (सं०) । पातक । मा० १.४३.४ दुरितु : दुरित+कए । कवि० ७.८१ दुरीदुरा : सं०पु+क्रि०वि० । लुकाछिपी; अज्ञात-अदृश्य रहकर । 'दुरीदुरा करि नेगु सुनात जनायउ।' जा०म० १४८ दुरे : भूकृ००ब० । छिपे, छिप गये । मा० १.८४ छं० दुरेउ : भूकृ००कए । छिप गया। मा० १.१५६.५ 'जन निहार महुं दिनकर दुरेऊ ।' मा० ६.९३.४ रंगी : आ०म०स्त्री०प्रए । छिपेगी। क्यों दुरंगी बात ।' विन० २६३.३ दुध : (१) वि० (सं.)। दुर्गम । 'दुस्तर दुर्ग दुरंत..... भगवंत ।' मा० १.६१ ख (२) सं०० (सं.)। गढ़, किला। 'दहेउ दुर्ग अति बंका।' मा. ५.३३.५ (३) गुप्त स्थान, छिपने का दुर्गम स्थान । 'जातुधान दावन परावन को दुर्ग भयो।' हनु०७ दुर्गम : वि० (सं०) । दुष्प्राप्य, कठिनता से पहुंचने (पाने) योग्य । 'दुराधरष दुर्गम भगवाना।' मा० १.८६.४ . दुर्गा : सं०स्त्री० (सं०) । देवी महामाया जिन्होंने महाकाली, महालक्ष्मी और महा_____ सरस्वती रूपों से असुर-संहार किया। मा० ७.६१.७ दुर्घट : वि० (सं.)। जिसका घटित होना कठिन हो। (१) कठिनता से गढ़ा (बनाया) हुआ । 'कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ़, घेरा।' मा० ६.४६.६ (२) कठिन; विषम, गहन । 'जहाँ सब संकट दुर्घट सोचु ।' कवि० ७.५३ (३) दुष्कर। 'दुर्घट है तप ।' कवि० ७.८६ दुर्जन : सं०+वि० (सं.)। दुष्ट व्यक्ति । मा० ४.१७.४ दुर्जय : वि० (सं.)। जिसे जीत पाना कठिन हो=अजय्य । विन० ५८.५ दर्दोष : दुष्ट कर्मों से जनित कुसंस्कार आदि दोष । विन० ५६.१ दुर्घर्ष : दुराधरष (सं०) । विन० ५०.३ दुर्बचन : सं०० (सं० दुर्वचन) । दूषित वचन, कष्टकर कथन । 'मैं दुर्बचन कहे ___ बहुतेरे ।' मा० १.१३८.४ दुर्बल : वि० (सं.)। कृशकाय । दुर्बलता : सं०स्त्री. (सं.)। कृशता, क्षीणता । मा० ७.१२२.१० दुर्बा : सं०स्त्री० (सं० दूर्वा) । दूब=एक प्रकार की घास जो मङ्गल कार्यों में उपयोगी मानी गयी है। मा० ७.३.५ दुर्बाद, दा : सं०० (सं० दुर्वाद) । दुर्वचन, कटूक्ति, दूषित कथन । मा० ५.२०॥ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 तुलसी शब्द-कोश दुर्वासना : सं०स्त्री० (सं० दुर्वासना) । कुसंस्कार, दूषित विषयों की वासना, कलुष इच्छा । मा० ३.४४.४ दुर्भद : वि० (सं०) । दुष्ट मद से युक्त, अहंकारी। 'कुंभकरन दुर्भद रन रंगा।' मा० ६.६४.२ दुर्मुख : (१) वि० (सं०) । विकृत मुख वाला । (२) सं० । राक्षस विशेष का ___ नाम । मा० ६.६२.११ दुर्लभ : वि० (सं०) । कठिनता से पाने योग्य । मा० १.६७.५ दुर्वासना : दुर्बासना । विन० ५६.१ ।। दुविनीत : वि० (सं.)। अनुशासनहीन, अशिष्ट, असभ्य, दुष्ट । विन० ५६.६ दुर्व्यसन : सं०० (सं०) । दूषित व्यसन (१) संकट की स्थिति (२) कलुष __वासना तथा तत्सम्बन्धी प्रकृति । विन० ५४.७ दुलह : 'सं०पू० (सं० दुर्लभ>प्रा० दुल्लह) । दूल्हा, वर । 'दुलह दुलहिनिन्ह देखि नारि नर हरहिं ।' जा०म० १४२ दुलहिनि : दुलह+स्त्री० । वधु । मा० १.६२.६ दुलहिनिन्ह : दुलहिनि+संब० । दुलहनों (को) । 'देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी।' ६६ मा० १.३४८.८ दुलहियन : दुलहिया+ संब० । दुलहनों (को)। 'पालागनि दुलहियन सिखावति ।' गी० १.११०.२ दुलहिया : दुलही । छोटी-प्यारी-सुन्दर दुलहन । कृ० १३ दलही : दुलहिनि । 'रामु सो न बरु दुलही न सिय सारिखी।' कवि० १.१५ दुलार : (१) सं०० (सं० दुलि>प्रा. दुल्लाल)। शिशुओं के प्रति प्यार, वात्सल्य । (२) बालहठ । 'राखा मोर दुलार गोसाईं ।' मा० २.३००.६ /दुलार दुलारइ : (सं० दुालयति>प्रा० दुल्लालइ-शिशु के प्रति वात्सल्य की क्रिया) आ०प्रए । दुलारता-ती है । 'मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना।' मा० १.१६८.८ दुलारत : वकृ.पु । दुलार करता-ते (पुचकारते) । 'जीति हारि चुचुकारि दुलारत ।' विन० १००.३ दुलारा : दुलार । 'बिधि न सके उ सहि मोर दुलारा।' मा० २.२६१.१ दुलारी : भूकृ०स्त्री०ब० । दुलरायी, वात्सल्यपूर्वक पुचकारौं, स्नेहसिक्त की। 'बार बार हिय हरषि दुलारी।' मा० १.३५४.४ दुलारे : वि०० (सं० दुालित>प्रा० दुल्लालिय) । (१) प्यारे । 'पुर जन प्रिय, _पितु मातु दुलारे ।' मा० २.२००.२ (२) पुत्र । 'दसरत्थ-दुलारे ।' कवि० ७ १२ दुलारो : वि०पु०कए । (१) प्यारा। 'राम को दुलारो दास ।' हनु० ६ (२) पुत्र । 'समीर-दुलारो।' हनु० १६ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश :467 दुवन : दुअन । हनु० ३ दुवार : दुआर । विन० १३६.१ द्वारे : द्वारे । द्वार पर । विन० १४५.१ दुष्ट : वि० (सं.)। (१) दोषयुक्त । 'एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा।' मा० ३.१५.५ (२) हिंसक । 'दुष्ट जुतु ।' मा० २.५६ (३) पापी। रे रे दुष्ट ठाढ़ किन होही।' मा० ३.२६.११ (४) प्रतिकूलाचारी, खल। 'दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।' मा० ५.४६.७ (५) शठ, शठतापूर्ण, असंगत । 'दुष्ट तर्क ।' मा० ७४६.८ दुष्टता : सं०स्त्री० (सं०) । दुष्ट का भाव-कर्म । मा० ७.१२१.३४ : दुष्टहृदय : वि० (सं.)। कलुषित हृदय वाला-वाली । मा० ५.४४.४; ३.१७.३. दुष्टाटवी : (अटवी-वन-सं०) दुष्टरूपी वन, दुष्ट जनों का वन, दुष्ट समूह । _ विभीषण बसत मध्य दुष्टाटबी।' विन० ५८.६ दुष्पार : वि० (सं.)। जिसका पार पाना कठिन हो-अपार । विन० ५३.४ . दुष्प्राप्य : वि० (सं०) । दुर्लभ । विन० ५३.४ . दुष्प्रेक्ष्य : वि० (सं.)। दुर्दर्श = कठिनता से देखने योग्य । विन० ५३.४ दुसरें : दूसरे ने । 'दुसरें सूत बिकल तेहि जाना ।' मा० ६.४३.८ दुसरे: दूसरे । गी० १.४५.५ दुसह : वि० (सं० दुःसह) । सहने में कठिन, कष्ठ से सहने योग्य । 'जनमत मरत दुसह दुख होई ।' मा० ७.१०६.७ दुसही : वि०स्त्री० । दूसरे के शुभ को दुःसह मानने वाली, ईर्ष्यालु स्त्री० । 'असही दुसही मरहुं मनहि मन ।' गी० १.२.१० दुसासन : सं०० (सं० दुःशासन) । धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन का अनुज कौरव विशेष का नाम । कृ० ६० दस्तर : वि० (सं.)। जिसका पार पाना कठिन हो। 'अति अगाध दुस्तर सब भांती।' मा० ५.५०.६ दुस्तl : वि० (सं०) । तर्क द्वारा दुर्गम, अनिर्वचनीय, तर्कशक्ति से दुज्ञेय ।' विन० ५३.४ दस्त्यज : वि० (सं०) । जिसका त्याग कठिन हो । विन० ५०.५ दुहन : भकृ०अव्यय । दहने, दोहन करने । 'आक दुहन तुम्ह कह्यो।' कृ० ५१ दुहाई : (१) दोहाई । (२) भूकृ० स्त्री० । दोहन करायी। 'सबनि सुधेन दुहाई।' गी० १.१५.१ दहाए : भूकृपुब० । दुग्ध-दोहन कराए। 'गोबृद दुहाए।' गी० १.६.४ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468 तुलसी शब्द-कोश दुहि : प्रकृ० । दुह कर, निचोड़ कर, दोहन करके । 'बेचहि बेदु धरम दुहि लेहीं।' । मा० २.१६८.१ दुहिन : सं०० (सं० द्रुहिण) । ब्रह्मा । 'जेई चले हरि दुहिन सहित सुर भाइन्ह। पा०म० १३९ बहुं, हूं : दोनों । 'ग्राम नगर दुहुँ । कूल ।' मा० १.३६ दुहु, हू : दुहुँ । मा० १.२३७.३ दू: दुइ । 'कूर कौड़ी दू को हौं ।' हनु० ३४ दूक : दो का । 'सुदिन कुदिन दिन दूक ।' दो० ४४४ दूखा : दुख । 'सुनत बचन बिसरे सब दूखा।' मा० ७.२.६ दूमा : वि०० (सं० द्वितीय>प्रा० दुइज्ज)। दूसरा। 'मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा।' मा० ३ १२.१२ दूजी : दूजा+स्त्री० । दूसरी । मा० २.१६.१ दुजें : (१) दूसरे ने । 'मोहि सम यह अनुभयउ न दूजें।' मा० २.३.६ (२) दूसरे ___ में। ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें।' मा० १.२७.३ । दूमो : दूजा+कए । दूसरा कोई, एक भी दूसरा । 'तुलसी जग दूजो न देखियत।' कृ० २७ दूत : सं०पु० (सं०) । चर, बसीठ, सन्देशहर, गुप्तचर । मा० १.२८७.१ दूतन्ह : दूत+संब० । दूतों (को) । 'दूतन्ह देन निछावरि लागे ।' मा० १.२६३.७ दूता : दूत । मा० ४.१६.६ दूतिका : दूती । सन्देशहारिणी । 'मुक्ति की दूतिका।' विन० ४८.४ दूतिन्ह : दूती+संब० । दूतियों। 'दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी। मा० ५.३६.४ दूती : सं०स्त्री० (सं०) । (१) सन्देशहारिणी (२) गुप्तचरी (३) कुट्टनी। (४) वि०स्त्री० (सं० द्वितीया) । दूसरी । 'सुभ दूती उनचास भलि ।' रा०प्र० २.७.७ दूतु : दूत+कए० । एक दूत । 'अवसि दूतु मैं पठइब प्राता ।' मा० २.३१.७ दूध : सं०० (सं० दुग्ध>प्रा० दुद्ध) क्षीर। मा० २.१६.७ दूधमुख : वि० । दुधमुहा, दूध पीता बच्चा। 'सूध दूधमुख करिअ न कोहू ।' __मा० १.२७७.१ दून : वि.पुं० (सं० द्विगुण>प्रा० दुउण) दुगन । 'तासु दून कपि रूप देखावा।' मा० ५.२.६ दून उ : दोनों । 'भरत सत्रुहन दूनउ भाई ।' मा० १.१६८.४ दूना : दून । 'तुम्ह ते प्रेम राम के दूना ।' मा० ५ १४.१० दूनी : दूना+स्त्री० दुगुनी । कवि० ७.८० luc tuc tua Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 469 दूनो : दूना+कए० दुगुना । 'दुख दूनो दसादुई देखि।' कवि० ७.४६ दूब : दुर्बा (सं० दूर्वा>प्रा० दुव्वा>अ० दुव्व) । मा० १.२६६.८ दूबर : वि०० (सं० दुर्बल>प्रा० दुब्बल)। कृश, दुबला। दूबरि : दूबर+स्त्री० । दुबली । 'देह दिनहुं दिन दूबरि होई ।' मा० २.३२५.१ . दुबरे : दूबर का रूपान्तर । दुबले । 'मोसे दीन दूबरे को तकिया तिहारिये। हनु० २२ दूबरो : दूबर+कए । दुबला। 'देखि दीन दूबरो कर न हाय हाय को।' हनु० ४१ दूरति : वकृ०स्त्री० (सं० दूरयन्ती>प्रा० दूरंती)। दूर करती । (मूरति) मयननि बहु छबि अंगन दूरति ।' मा० ५.४७.१ दूरि : (१) क्रि०वि० (सं० दूरे>अ० दूरि) । दूर। मा० १.७७ (२) सं०स्त्री० । दूरी, विप्रकर्ष । 'बिलोके दुरि तें दोउ बीर ।' गी० २.६६.१ दूरिहि : दूर ही । 'दूरिहि तें देखे दोउ भ्राता ।' मा० ५.४५.२ दूरी : दूरि । मा० १.३४.१ दुलह : दुलह । दूल्हा । मा० १.६२.८ दूलहु : दूलह+कए । अद्वितीय दूल्हा । मा० १.६४.१ दूषक : वि० (सं०) । दोष लगाने वाला, दूषित करने वाला। 'गुन दूषक बात न ___ कोपि गुनी।' मा० ७.१०१.६ दूषणापह : वि० (सं०) । (१) दोषनाशक (२) दूषण नामक राक्षस के नाशक । मा० ३.४ छं० दूषन : सं०० (सं० दूषण)। (१) दोष, त्रुटि, विकार । 'दूषन रहित सकल गुन रासी।' मा० १.८०.३ (२) दोष लगाना, दोषारोपण। 'जे पर-दूषन भूषन धारी।' मा० १.८.१० (३) अपराध । 'जदपि न दूषन तोर ।' मा० १.१७४ (४) वाणी के दोष (काव्यदोष)। 'बोले बचन बिगत सब दूषन ।' मा० २.४१.६ (५) एक राक्षस जो जन स्थान में रहता था=खर राक्षस का भाई। 'खर दूषन पहिं गई बिलपाता ।' मा० ३.१८.२ दूषनारि : (दूषन+अरि) (१) सभी दोषों के शत्रु (२) दूषण राक्षस के शत्रु= रामचन्द्र । मा० ६.११३ छं० । दूषनु : दूषन+कए० । (१) दोष । 'एक बिधातहि दूषनु देहीं ।' मा० २.४६.१ (२) दूषण-राक्षस । कवि० ६.४ दूषहिं : आ०प्रब० (सं० दूषयन्ति>प्रा. दूसंति>अ० दूसहिं) । दोष लगाते हैं, दूषित करते या बताते हैं । 'जे दूषहिं श्रुति करि तरका।' मा० ७.१००.४ दुषा : भूक० । दूषित हुआ । 'गुर अवमान दोष नहिं दूषा।' मा० २.२०६.५ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 तुलसी शब्द-कोश दूसन : दूषन । गी० २.३.३ दूसर : वि.पु. । द्वितीय, अन्य । मा० २.५०.४ दूसरि, री : दूसर+स्त्री० । 'जनि बात दूसरि चालही।' मा० २.५० छ. दूसरे : 'दूसर' का रूपान्तर । दो० ५४ दूसरो : दूसर+कए । कृ० ३३ दग : सं०स्त्री० (सं० दृश्-दग्) । दृष्टि, नेत्र । मा० १.१ दृढ : वि० (सं०) । स्थिर, सारयुक्त । मा० १.१७८ क दृढता : सं०स्त्री० (सं.)। स्थिरता, सारयुक्तता, सबलता। कवि० ७.८७ दृढ-व्रत : वि० (सं० दृढ-व्रत) । स्थिर संकल्प वाला, दृढ प्रतिज्ञ, अविचल निष्ठा वाला । मा० २.८२.१ दढा, दढाइ, ई : (सं० दृढायते>प्रा० दिढाइ>अ० दृढाइ) आ०प्रए । दृढ होता-ती है। 'धीरन्ह के मन बिरति दृढाई।' मा० ३.३६.२ दृढाइ : पूकृ० । दृढ़ करके । 'जोरी प्रीति दृढाइ ।' मा० ४.४ दढाई : (१) दृढाइ । स्थिर करके । 'चले साथ अस मंत्रु दृढाई ।' मा० २.८४.७. (२) भूकृ. स्त्री० । दृढ की, स्थिर की, निश्चित की । 'जय महेस भलि भगति दृढाई ।' मा० १.५७.४ (३) दे०/दृढा। दृढावा : भूकृ०० (सं० ढित>प्रा० दढाविअ>अ० दृढाविअ) । स्थिर किया। ___'लछिमन मन अस मंत्रु दृढ़ावा।' मा० ६.७६.१४ दृढाहि, हीं : आ०प्रब० । दृढ होते-ती हैं। श्रवनादिक नव भक्ति दृढाहीं।' मा० ३.१६.८ दृश्य : वि० (सं०) । जो देखा जा सके, ऐन्द्रिय तत्त्व, दृष्टिगोचर, प्रमेय, ज्ञेय । . 'सकल दृश्य दृष्ट ।' विन० ५३.७ दृष्टि : सं०स्त्री० (सं०) । नेत्र, देखने की क्रिया । मा० ४.२८ दे : आ०मए० (सं० देहि>प्रा० दे=देहि) । तू दे। (१) प्रार्थना । 'नृप नायक दे बरदानमिदं ।' मा० ६.१११.२२ (२) आज्ञा । 'डारि दे घरबसी लकुटी।' कृ. १७ /दे, देइ, ई : (सं० ददाति>प्रा० देइ) आ०प्रए० । देता-ती है । 'देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ ।' मा० १.२.१३ देड : (१) देता है । (२) पूकृ० । देकर । 'अरघ देइ मनि आसन बर बैठायउ।' पा०म० १२१ देइअ : आ०कवा०प्रए । दीजिए, दिया जाय । 'आयसु देइअ हरषि हियँ ।' मा० . २.४५ देइगो : आ० भ००प्रए । देगा। 'सो कि कृपालुहि देइगो केवट-पालहि पीठि।' दो०४६ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 471 देहहह : आ०भ०मब० । दोगे । 'मोहि राज हठि देइहहु जबहीं।' मा० २.१७६.२ . देहहि : आ०म०प्रए । देगा । 'सुनि अपजसु मोहि देइहि लोगू ।' मा० २.६३.५ देई : (१) देइ । देता-ती है । 'महि न बीचु बिधि मीचु न देई ।' मा० २.२५२ (२) देइ । देकर । 'बह बिधि चेरिहि आदरु गेइ । कोप भवन गवनी कैकेई ।' मा० २.२३.३ . देउ, ऊँ : आ० उए० (सं० ददामि>प्रा० देमि>अ० देउँ) । दूं, देता हूं। 'दिच्छा • देउँ ग्यान जेहिं पावहु ।' मा० ६.५०.८ 'भरतहि समर सिखावन देऊँ ।' मा० २.२३०.३ देउ, ऊ : (१) देव+कए । स्वामी, आराध्य । 'छमिहि देउ अति आरति जानी।' मा० २.३००.८ (२) आ०-प्रार्थना, कामना, संभावना-प्रए । दे, देवे । 'अब गोसाई मोहि देउ रजाई ।' मा० २.३१३.८ 'तिन्ह के गति मोहि संकर . देऊ ।' मा० २.१६८.८ देऊ : (१) देउ । देव (२) दाता, देने वाला । 'देऊ तो कृपानिकेत देत दादि दीन की।' कवि० ७.१८ देख : (१) देखइ । देखता है । 'जह-तह देख धरें धनुबाना।' मा० २.१३१.७ (२) देखे, देख ले । 'जौं सखि इन्हहि देख नरनाहू।' मा० १.२२२.२ (३) देखा। 'भोजन करत देख सुत जाई।' मा० १.२०१.४ देख, देखइ, ई : (सं० पश्यति>प्रा० देक्खाइ) आ०प्रए० । देखता-ती है । 'सकल धर्म देखइ बिपरीता।' मा० १.१८४.६ ‘मरम ठाहरु देखई।' मा० २.२५ छं. देख : आ०उए । देखता-ती हूं। 'हितू न देखउँ कोउ ।' मा० १.१६६ देखत : वकृ०० । देखता-देखते । 'कौतुक देखत सैल बन ।' मा० १.१ देखन : भकृ० अव्यय । देखने । 'देखन बागु कुअर दुइ आए।' मा० १.२२६.१ देखनिहारे : वि०पुब० । देखने वाले । 'सखि, सब कोतुक देखनिहारे ।' मा० १.२५६.१ देखब : भकृ.पु । देखना (होगा)। 'सो प्रभु मैं देखब भरि नयना।' मा० १.२०६.८ देखराइ : पूक० । दिखला कर । 'देखराइ बनु फिरेहु ।' मा० २.८१ देखराई : भूकृ०स्त्री० । दिखलायी । 'भय अरु प्रीति नीति देखराई ।' मा० ४.१९.७ देखराए : भूकृ००ब० । दिखलाये । 'दुदुभि अस्थि ताल देखराए ।' मा० ४.७.१२ देखरायो : भूक०कए। दिखलाया। 'पछारि निज बल देखरायो।' मा० ६.७४.८ देख रावा : भूक०० । दिखलावा । 'ठाउँ देखरावा ।' मा० २.१३३.५ देखवैया : वि० । दर्शक । 'सोभा देखवैया बिनु बित्तहीं बिके हैं ।' गी० २.३७.२ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472 तुलसी शब्द-कोश देखहि, ही : आ०प्रब० । देखते हैं । 'देखहिं दरसु नारि नर धाई ।' मा० २.१०६.७ देखहुं : आ०-आज्ञा-प्रब० । देखें। 'देखहुं कवि जननी की नाई।' मा० ६.१०८.१२ देखहु : आ०मब० । देखा, देखते हो । 'द्वंदजुद्ध देखहु ।' मा० ६.८६ देखा : (१) भूक०पु। अवलोकन किया। मा० १.४६.८ (२) देखइ । मा० ७.७३.५ /देखा, देखाइ, ई : देखा+प्रए । दिखाई पड़ता-ती है। 'कामिन्ह के दीनता देखाई।' मा० ३.३६.२ देखाइ : पूक० । दिखला कर । 'नगर देखाइ तुरत ले आवौं ।' मा० १.२१८.६ देखाइअत : वकृ०- कवा०-पु । दिखाया जाता (है)। 'कामु कोहु लाइ के देखाइअत आंखि मोहि ।' कवि० ७.१०० देखाइहौं : आ०भ०उए । दिखाऊँगा । 'कटि लौं जल थाह देखाइहौं जू ।' कवि० २.६ देखाइहो : आ०भ०मब० । दिखलाओगे । 'कबहिं देखाइही हरि चरन ।' विन २१८.१ देखाई : (१) देखाइ । दीखता है। दे० /देखा। (२) देखाइ। दिखला कर । 'मातु तात कहँ देहि देखाई ।' मा० २.१६४.३ (३) भूक०स्त्री० । दिखलायी। 'पनु करि रघुपति भगति देखाई ।' मा० १.१०४.८ देखाउ, ऊ : आ०-प्रार्थना, आज्ञा-मए । 'बेगि देखाउ मूढ़ ।' मा० १.२७०.४ _ 'राम लखनु सिय आनि देखाऊ ।' मा० २.१५०.२ देखाउब : भकृ०० । दिखना होगा (दिखाऊँगा, दिखाएंगे)। 'सर निरझर बन ठाउँ देखाउब।' मा० २.१३६.७ देखाए, ये : भूकृ००ब० । दिखलाये । 'एहि बिधि मुनिबर भवन देखाए।' मा० २.१३२.१ देखादेखी : सं०स्त्री । परस्पर बार-बार देखने की क्रिया । 'देखादेखी दंभ तें कि संग तें भई भलाई।' विन० २६१.३ देखायउ : आ०-भूक० + उए । मैंने दिखलाया। 'सो बल तात न तोहि देखायउँ ।' मा० ६.७२.८ देखायो : भूकृ००कए । दिखलाया । 'सरनागत पर प्रेम देखायो।' गी० ६.४.२ /देखाव, देखावह : (/देख+प्रेरणा-प्रा० देक्खावइ-दिखलाना) आ०प्रए । दिखलाता-ती है । 'सोइ-सोइ भाव देखावइ ।' मा० ७.७२ ख देखावत : वकृ०० । दिखलाता, दिखलाते । 'कपिन्ह देखावत नगर मनोहर ।' मा० ७.४.१ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 473 तुलसी शब्द-कोश देखावतो: क्रियाति०पु० ए० । दिखलाता । 'तो क्यों बदन देखावतो ।' विन० ३३.५ देखावन : भकु० अव्यय । दिखलाने । 'लै चले देखावन रंगभूमि । जा०मं०छं० ६ देखावसि : आमए० । तू दिखला । 'अब जनि नयन देखावसि मोही ।' मा० ६.४६.३ देखावहं : मा० प्रब० । दिखलाते-ती हैं । 'चलउँ भागि तब पूप देखावहिं ।' मा० ७.७७.१० देखावहु : आ०म० । दिखलाते हो, दिखावो । 'भृगुबर परसु देखावहु मोही ।' : मा० १.२७६.६ देखावा : भूकृ०पु० । दिखलाया । 'लोवा फिरिफिरि दरसु देखावा ।' मा० १.३०३.५ देखावौं : आ०उए० । दिखलाऊँ । 'तुम्हहि देखावौं ठाउँ ।' मा० २.१२७ देखावगी : आ०भ० स्त्री०ए० । दिखलाऊँगी । 'क्यों फिरि बदन देखावोंगी ।' गी० २.६.३ देखि : (१) पूकृ० देखकर । 'देखि पूर बिधि बाढ़इ जोई।' मा० १.८.१४ (२) आ० - आज्ञा, प्रार्थना - मए० । तूदेख । 'देखि धों बूझि बोलि बलदाऊ ।' 2. कृ० १२ देखिअ : देखिए । 'देखिअ सपन अनेक प्रकारा । मा० २.६३.२ देखिअत: वकृ० – कवा० - पुं० । देखा जाता, देखे जाते । 'देखिअत प्रगट गगन अंगारा ।' मा० ५.१२.८ देखि अहं : आ०कवा० प्रब० । देखे जाते हैं । 'सुनिआ सुधा देखि अहिं गरल ।' मा० २.२८१ देखि अहु : आ० - भ० + प्रार्थना + मब० । तुम देखना । 'कौतुक प्रात देखिअहु मोरा ।' मा० ६.४६.६ देखिऐ : (१) आ०कवा०प्र० । देखा जाय, देखा जाता है, देखना चाहिए, देख लीजिए । 'मायाछन्न न देखिऐ जैसें निर्गुन ब्रह्म ।' मा० ३.३९ क (२) देखी + ऐ | देखी ही । 'बीरता बिदित ताको देखिऐ चहतु हौं ।' कवि० १.१८ देखिन्ह : आ० - भूक० + प्रब० । उन्होंने देखा - देखे । 'देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा ।' मा० ६.४१.४ देखिबी : भकृ० स्त्री० । देखनी (होगी) । 'अब देखिबी रिसानि ।' दो० ४०३ देखिबे : भकृ०पु० | देखने ( होंगे ) । ' कर्बाहि देखिबे नयन भरि राम लखन दोड भाइ ।' मा० १.३०० देखियो : भक०पु०कए० | देखना | ! देखिबो दास दूसरेहु चौथेहु बड़ो लाभ ।' कृ० ४८ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 तुलसी शब्द-कोश देखिय : देखि। देखियत : देखिअत । 'तुलसी जग दूजो न देखियत ।' कृ० २७ देखियतु : देखियत+कए। देखा जाता। 'पील उद्धरन सील सिंधु ढील देखियतु ।' विन० २४८.४ देखिये : देखिए । 'आपुहि भवन मेरे देखिये जो न पतीजै ।' कु० ७ देखिहउँ' : आ०भ० उए० । देखूगा । 'आइ पाय पुनि देखिहउँ ।' मा० २.५३ देखिहहिं : आ० भ० उए० । देखूगा। 'आइ पाय पुनि देखिहउँ ।' मा० २.५३ देखिहहिं : आ०भ० प्रब० । देखेंगे । 'जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे।' मा० २.१२०.८ देखिहि : आ०भ०ए० । देखेगा । 'देखिहि सो उमा बिबाहु ।' मा० १.६५ छं० देखि हैं : देखिहहिं । गी० १.८०.७ देखिहौं : देखिहउँ । 'सुतनि सहित दसरथहि देखि हौं ।' गी० १.४८.२ देखी : भूकृ० स्त्री०ब० । 'देखीं सासु आन अनुहारी।' मा० २.२२६.५ . देखी : (१) भूकृ०स्त्री० । 'सपनेहुं संत सभा नहिं देखी।' मा० १.११५.२ (२) देखि । 'रीझिहि राजकुरि छबि देखी।' मा० १.१३४.४ देखु : आ०-आज्ञा, प्रार्थना-मए० । तू देख । 'लछिमन देख बिपिन कइ सोभा ।' मा० ३.३७.३ 'आइ देखु गृह मेरे ।' कृ. ३ देखुवार : (देख वार) वि.पु. । देखने वाला-ले । वर देखने वाला, कन्या के लिए वर का खोजी (देखुवा) । 'ऐहैं सुत देख वार कालि तेरे बै ब्याह की बात चलाई ।' कृ० १३ दखें : देखने पर, देखने से, देखने की दशा में। 'यके नयन रघुपति छबि देखें।' मा० १.२३२.५ देखे : भूकृ००ब० । दर्शन किये । 'जे देखहिं देख हहिं जिन्ह देखे ।' मा० २.१२०.८ देखेउ : आ०-भूकृ०पु+उए । मैने देखा-देखे । 'बड़ें भाग देखेउँ पद आई।' मा० १.१५६.६ देखेउ : भूकृ.पु०कए० । देखा । 'भूप बागु बर देखेउ जाई ।' मा० १.२२७.३ देखेन्हि : आ०भूकृ००+प्रब० । उन्होंने देखा-देखे । 'अनुपम बालक देखेन्हि जाई।' ___ मा० १.१६३.८ देखेसि : आ० भूकृ००+प्रए० । उसने देखा-देखे । 'देखेसि आवत पबि सम बाना। ___ मा० ६.७६.११ देखेहु : आ०-भ० +प्रार्थना+मब० । तुम देखना । 'देखेहु कालि मोरि मनुसाई ।' . मा० ६.७२.७ देखें : देखहिं । 'प्रभु देखें तरु ओट लुकाई ।' मा० ३.१०.१३. देख : देख इ । देखे, देख सके । 'जेहिं उपाय पुनि पाय जनु देखै दीन दयाल ।' मा० २.३१३ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश देखे है : ( देखाइहै ) आ०भ० प्र० । दिखलाएगा। 'कुसल कुसल बिधि अवध देखे है ।" गी० ५.५०.५ देखौं : देखउँ । (१) देखूं, देख सकूं । 'एहूं मिस देखौं पद जाई ।' मा० १.२०६.७ (२) देखता हूं, देखती हूं । 'खेलत ही देखौं निज आँगन ।' कृ० ५ देखौंगी : अ०भ० स्त्री० उए० । देखूंगी । गी० ५.४७. १ देखो : देखहु । 'देखो देखो लखन लरनि हनुमान की ।' कवि० ६.४० देख्यो : देखेउ । कृ० २७ देत, ता : वकृ०पु० । देता, देते । 'उतरु देत मोहि बधब अभागें ।' मा० ३.२६.६ C 475 'नाथ न सकुचब आयसु देता ।' मा० २.१३६.८ देति : वकृ० स्त्री० । देती । 'देति मनहुं मधु ।' मा० २.२२.३ देते : क्रियाति०पु * ० ब ० ( यदि न देते । विन० २४१.१ देतो : क्रियाति०पु०ए० । देता । 'देतो पै देखाइ बल, फ्ल पापमई है ।' गी० तो) देते । 'तब तुम मोहू से सठनि को हठि गति १.८५.२ देन : भकृ० अव्यय । देने ( को ) । 'देन कहेतु अब जनि बर देइ ।' मा० २.३०.५ देना : देन । (१) दान । 'झूठइ लेना झूठइ देना ।' मा० ७.३६.७ (२) देने ( को ) । 'सत्य सराहि कहेहु बर देना ।' मा० २.३०.६ देनी : दायनी । देने वाली । 'सुमिरत सकल सुमंगल देनी ।' मा० २.१०६.५ देब, बा : भ० पु० (सं० दातव्य > प्रा० दे अव्व) । देना ( होगा ) । 'दुखु तुम्हहि कौसिला देव ।' मा० २.१६ देबा : देव | 'जोइ पूँ छिहि तेहि ऊतरु देवा ।' मा० २.१४६.५ देबि : (१) देब + स्त्री० । देनी होगी । (२) देबी (सबोधन ) 'तदपि देबि मैं देबि असीसा ।' मा० २.१०३.८ देवी : देव + स्त्री० (सं० देवी) । (१) स्त्री देवता ( २ ) स्वामिनी ( ३ ) रानी | 'सि पुनीत कौसल्या देबी ।' मा० १.२६४.४ देबोई : देबा + ए ० + ई । देना ही । 'देबोई पै जानिए |' कवि० ७ १६१ o देखें : देव ने, स्वामी ने । 'देव दीन्ह सब मोहि अभारू ।' मा० २.२६९.३ देव : सं०पु ं० (सं०) । (१) अमर जाति विशेष । मा० २.१२.२ (२) प्राकृतिक शक्ति - अग्नि, पर्जन्य (मेघ) आदि । ' देव न बरषहिं धरनी मा० ७.१०१ (३) सामान्य पुरुष । 'देव एक गुनु धनुष हमारें ।' मा० १.२८२.७ देवक : देव का । 'सपनेहुं आन भरोस न देवक ।' मा० ३.१०.२ देवकृत : देवों = प्राकृतिक शक्तियों से जनित । 'ब्याधि बिपति सब देवकृत । * रा०प्र० ७.६.४ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 तुलसी शब्द-कोश देवतन्ह, न्हि : देवता+संब० । देवताओं (ने आदि)। 'इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही ।' मा० ६.८६.५ देवतरु : कल्पवृक्ष । मा० १.३२.११ देवता : देव । मा० १.२७६.७ देवधुनि, गी : सं०स्त्री० (सं० देवधुनी) । गङ्गा । मा० १.४०.३ देवनदी : गङ्गा । कवि० ७.१४५ देवन्ह, न्हि : देव+संब० । देवों (ने, को आदि) । 'देवन्ह दीन्हीं दुंदुभी।' मा० १.२८५ दवपति : इन्द्र । मा० २.२६६.३ देववधू : अप्सरा । मा० १.२६२.४ देवमायां : देवों की माया से । 'देवमायाँ मति मोई ।' मा० २.८५.६ । देवमाया : देवताओं की माया=ब्यामोहक शक्तिपात । मा० २.३०२ देवर : सं०० (सं.)। पति का अनुज । मा० २.६६.१ देवरिषि : (सं० देवर्षि =देव ऋषि) देवजातीय ऋषि (नारद) । मा० १.६८.४ देवल : सं०० (सं० देवालय) । देव मन्दिर । 'तुलसी देवल देव को लागे लाख करोरि ।' दो० ३८४ देवसरि : देव नदी । गङ्गा । मा० २.८७.२ देवहूति : सं०स्त्री० (सं.)। ध्र व के पितृव्य प्रियव्रत की पुत्री कर्दम ऋषि की पत्नी कपिल मुनि की माता । मा० १.१४२.५ देवा : देव । मा० १.३४.७ देवाइ : पूकृ० । दिला कर। भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ ।' मा० १.२६४ देवाई : (१) देवाइ। 'पूंछ रानि निज सपथ देवाई।' मा० २.१६.१ (२) भूकृ०स्त्री० । दिलायी। 'सकुचि राम निज सपथ देवाई।' मा० २.६६.५ देवान : दिवान । राजा का दर्बार । 'मारे बागबान ते पुकारत देवान गे।' कवि० देवापगा : सं०स्त्री० (सं०-देव+आपगा=नदी) । गङ्गा । मा० २ श्लो० १ देवैया : वि० । देने वाला। 'नीकें देखे देवता देवया बने गथके ।' कवि० ७.२४ देस : सं०० (सं० देश) । स्थान, भूभाग । मा० १.१५३ (२) राज्य आदि । देसकाल : स्थानगत परिमाण =ऊँचाई, निचाई, मोटाई, परत्व, अपरत्व, दूरी समीपता आदि+कालगत परिमाण=छोटाई, बड़ाई, क्षण, घड़ी, वर्ष, मास, कल्प आदि । इन्हीं से विविध अवसरों तथा परिस्थितियों का निर्माण होता है जिन से सभी वस्तुएँ परिछिन्न रहती हैं। देश में ही 'दिशा' भी सम्मिलित है अतः 'दिक्काल' भी कहा जाता है । मुक्त दशा में आत्मा इन परिच्छेदों से छुटकारा Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्दकोश 477 पाता है । परमात्मा सदा अपरिछिन्न है। 'सोक मोह भय हरष दिवस निसि देस काल तहें नाहीं।' विन० १६७.५ देसा : देस । मा० १.२.१२ देस, सू : देस+कए । (१) स्थान । मा० २.१२२.६ (२) स्थानगत परिस्थिति । 'देसु काल लखि।' मा० २.३०४.६ (३) राज्य का भूभाग । 'देसु कोसु परिजन परिवारू ।' मा० २.३१५.७ देह, हा : सं००+स्त्री० (सं० देह) । (१) शरीर । मा० १.४ (२) विशिष्टा द्वैत दर्शन में जीवों को ब्रह्म का शरीर माना गया है। 'ते नर प्रगट राम की देहा।' वैरा० २८ देहउँ : अ०म० उए० (सं० दास्यामि>प्रा० देहिमि>० देहिउँ)। दूंगा-गी। 'देहउँ उतरु कोनु महु लाई ।' मा० २.१४६.७ देहवसा : स्थूल-शरीराभिमानी जीव दशा, देहाध्यास, देहाभिमान, जाग्रत् अवस्था __ जिसमें स्थूल शरीर से चैतन्य का एकत्व भासित होता है (शरीर की सुध-बुध)। 'नाचहिं पुर नर नारि प्रेम भरि देहदसा बिसराई ।' गी० १.१.८ बेहनि : देह+संब० । देहों । 'मालनि मानों है देहनि तें दुति पाई।' गी० १.३०.२ देहरी : (१) देहरी ब०। देहलियाँ। 'देहरी बिगुम रची।' मा० ७.२७ छं. (२) देहली पर । 'राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार ।' मा० १.२१ बहरी : सं०स्त्री. (सं० देहली) । दरवाजे का निचला भाग==चौखट । देहा : देह। देहि : आप्रब० । देते-ती हैं । 'भागें बारिद देहिं जल ।' मा० ७.२७ ६हि : दे (सं०, प्रा०) । 'मातु तात कहँ देहि देखाई ।' मा० २.१६४.३ देही : देहिं । मा० ७.४४.२ देही : (१) देहि । (२) सं०पू० (सं० देहिन्) । जीव, देहधारी । (३) देह । 'नर तन सम नहिं कवनिउ देही ।' मा० ७.१२१.६ देहु, हू : आ०मब० (सं० दत्थ, दत्त>प्रा० देह>अ. देहु) । (१) दो। 'भरतहि अवसि देहु जुबराजू ।' मा० २.५०.२ (२) देते हो । 'संतत दासन्ह देहु बड़ाई ।' मा० ३.१३.१४ . वहेस : आ०-भ०+आज्ञा-मए० । तू देना । 'तिन्हहि देखाइ देहेसु ते सीता।' मा० ४.२८.६ दै: (१) दे । 'उठि कह्यो, भोर भयो, अँगुली दै।' कृ० १३ (२) देइ। देकर। _ 'धाए कपि दै छूह ।' मा० ६.६६ दै: (१) देव ने, भाग्य ने (सं० देवेन>प्रा० दइएण>अ० दइएँ)। 'दों दुसह दुखु दीन्ह ।' मा० २.२० (२) देव द्वारा । 'दों बिगोई ।' मा० २.५१.३ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 तुलसी शब्द-कोश वैअहि : (१) देव को । 'अहि दोषु देहिं मन माहीं ।' मा० २.११६.१ (२) देव के । 'दैअहि लागि कही तुलसी प्रभु।' कृ०६ दैउ : दइउ । भाग्य, नियति । 'कर जौं दैउ सहाई ।' मा० १.६६.१ दैत्य : कश्यप-पत्नी दिति के वंशधर । विन० ४५.३ दैन : (१) देन । 'उपमा चहत कबि दैन ।' गी० १.३५.१ (२) देने वाला । 'निज भगतनि सुख-दैन ।' गी० १.८६.११ देनी : दायिनी । देने वाली । 'मूरति सब सुख दैनी।' गी० १.८१.२ दबे : भकृ०० । देने । 'लैबे को एक न दैबे को दोऊ।' कवि० ७.१०६ . देव : सं०पु० (सं०) । अदृष्ट, भाग्य, नियति (प्रारब्ध कर्मों का भोग देने वाली ईश्वरीय शक्ति) । 'करिअ देव जौं होइ सहाई ।' मा० ५.५१.१ . दैविक : वि० (सं० देव-प्रदत्त या देवों द्वारा प्रदत्त (दुःख)-दे० तापत्रय । गाज गिरना, ओला पड़ना, पाला आदि संकट । 'दैहिक दैविक, भौतिक तापा।' मा० ७.२१.१ । .. ...... दहउँ : देहउँ । दूंगा । 'उतर काह देहउँ तेहि जाई।' मा० ६.६१.१६ दैहिक : वि० (सं०) । देहस्थ या देहजनित (दु:ख) । आधि-व्याधि । सांख्य में 'आध्यात्मिक नाम देकर 'मानसिक' और 'दैहिक' दो भेद किये गये हैं-दे० तापत्रय । मा० ७.२१.१ द हैं : आ०भ० प्रब० । देंगे । 'नेकु धका देहैं ढेहैं ढेलन की ढेरी सी।' कवि० ६.१० वहै : आ०भ०प्रए । देगा । 'को 'काढ़ि कलेऊ दैहै ।' गी० १.६६.२ दहौं : देहउँ । 'इहै सिखावन देहौं ।' विन० १०४.२ दो : दुइ (प्रा.) । दो० ४३४ । दोइ : दोनों। 'सम सुगंध कर दोइ।' मा० १.३ क दोउ, ऊ : (१) दोइ (सं० द्वौवपि>प्रा० दोवि)। दोनों । 'बरन बिराजत दोउ ।' मा० १.२० 'आखर मधुर मनोहर दोऊ।' मा० १.२०.१ (२) दो। 'लैबे को एक न देबे को दोऊ ।' कवि० ७ १०६ दोनउ : दूनउ । दोनों । 'भरत सत्रुहन दोनउ भाई।' मा० ७.२६.४ दोना : सं०० (सं० द्रोण =द्रोणक>प्रा० दोणअ) । पत्तों से बना पात्रविशेष । 'सुमन समेत बाम कर दोना।' गा० १.२३३.८ दोनी : सं०स्त्री० (सं० द्रोणी) । छोटा दोना। 'सोभा सुधा पिए करि अखियाँ दोनी।' गी० २.२२.२ दोने : दोना+ब० । 'नयन मंजु मदु दोने ।' गी० २.२३.२ दोष : सं०० (सं.)। (१) दूषण, विकार । 'मिटहि दोष दुख भव रजनी के ।' मा० १.१.७ (२) अपराध, त्रुटि । 'दैअहि दोष देहिं मन माहीं।' मा० २.११६.१ दे० दूषन (३) (सं० द्वेष>प्रा० दोस) । वैर, विरोध । 'सो जन Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश जगत जहाज है जा के राग न दोष ।' वैरा० १६ (४) (सं० दोष ) । तापत्रय । 'त्रिविध दोष दुख दारिद दावन ।' मा० १.३५.१० 479 दोष : दोष भी । 'दोषउ गुन सम कह सब कोई ।' मा० १.६६.४ दोषमई : वि०स्त्री० (सं० दोषमयी) । दोषपूर्ण । 'गुन- दोषमई बिरची बिरंचि ।' हनु० ४४ दोषमय : वि०पु० (सं० ) । दोषयुक्त, दोषरूप । 'जड़ चेतनः गुन-दोषमय बिस्व कीन्ह करतार ।' मा० १६ दोषा : दोष । मा० १.४.८ दोषिबे : भकृ०पु० । दूषित करने, बिगाड़ने । 'खल दुख दोषिब को जन परितोषिबे : P को ।' हनु० ११ दोष, दोष : दोष + कए० । एक दोष = एक ही दोष + एक भी दोष । 'यह बड़ दोषु दूरि करि स्वामी ।' मा० २.३१४.७ 'तुम्ह कहँ सुकृतु सुजसु नहि दोषू ।' मा० २.१७५.२ दोस : दोष ( प्रा० ) । मा० ७.४३ दोसक : दोष का । 'सपनेहुं दोसक लेसु न काहू ।' मा० २.२६१.५ दोसा : दोषा । मा० २.१३१.३ दोसु, सू: दोषु । 'दोसु देहि जननिहि जड़ तेई ।' मा० २.२६३.८; १.२७२.३ वोह : ( समासान्त में ) वि०पु० (सं० द्रोह) । द्रोह करने वाला । 'साईं- दोह मोहि कीन्ह कुमाता ।' मा० २.२०१६ ( स्वामिने दुह्यति इति स्वामिद्रोह: ) । दोहा : सं०पु० (सं० दोघक > प्रा० दोहअ ) । छन्दविशेष जिसके प्रथम- तृतीय चरणों में १३ -१३ तथा द्वितीय चतुर्थ में ११-११ मात्राएँ होती हैं । मा० १.३७.५ दोहा : दोहाई से, द्रोहबुद्धि में, द्रोहशीलता में 'स्वामि गोसाइँहि सरिस गोसाईं मोहसमान मैं साईं- दोहाई ।' मा० २.२६८.४ (दे० दोह) 1 दोहाई : (१) दोह + भाववाचक सं० (सं० द्रोहता ) । द्रोहशीलता । 'स्वामी की सेवक - हितता सब, कछु निज साइँ दोहाई ।' विन० १७.६ ( २ ) सं० स्त्री० (सं० द्रोध = विनाश, द्रोह = विरोध योजना > प्रा० दोह ? ) शत्रुविनाश का आतङ्ककारी प्रभाव, धाक । 'फिरी दोहाई राम की गे कामादिक भाजि ।' वैरा० ६१ (३) शपथ। ' तो मारौं रन राम दोहाई ।' मा० २.२३०.८ (४) (सं० द्विधाकृत > प्रा० दोहइअ ) अपने ऊपर संकट आने पर कहा हुआ शब्द = शरणागति । दौन : (१) भकृ० अव्यय । झुलसने (दु उपतापे - दवन ) । 'कहा भलो भयो भरत को लगे तरुन तन दोन ।' गी० २.८३.२ (२) वि०पुं०: ० = दवन | दमनकारी + सन्तापकारी । 'हो तुम्ह आरत आरति दोन ।' गी०५.२०.४ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 तुलसी शब्द-कोश दौरि : दवरि । दौड़कर । 'खोरि खोरि दौरि दौरि दीन्ही अति आगि है।' कवि० ५.१४ दोरें: क्रि०वि० । दौड़ते हुए । 'बिनु पूंछ बिषान फिरै दिन दौरें।' कवि० ७.४६ दौरे : भूकृ.पु०ब० । दौड़ कर चले । 'अनेक गिरे जे जे भीति में दौरे ।' कवि० ६.१२ बाइबी : भकृ०स्त्री० । दिलानी (चाहिए)। 'मेरिओ सुधि द्याइबी कछु करुन कथा चलाइ ।' विन० ४१.१ घायबी : द्याइबी। बति : सं०स्त्री० (सं०) । दीप्ति, कान्ति, आभा, चमक । विन० ६०.२ द्रव्य : सं० (सं० द्रव्य) । वस्तु । 'मंगल द्रव्य लिए सब ठाढ़ीं।' मा० १.२८८.६ द्रव : (१) सं०० (सं०) । पिघला हुआ द्रव्य । 'सोई भयो द्रवरूप सही।' कवि० ७.१४६ (२) द्रवइ । पिघलता-ती है। 'जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी।' मा० ३.१७.६ Vद्रव द्रवइ : (सं० द्रवति-द्रुगती>प्रा० दवइ>अ० द्रवइ) आ०प्रए । (१) पिघलता है, पिघल कर बहता है। (२) कृपा करता है, दयार्द्र होता है । 'निज परिताप द्रवइ नवनीता।' मा० ७.१२५.८ प्रवउँ : आ.उए । द्रवीभूत होता हूँ। 'जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई।' मा० ३.१६.२ द्रवउ : आ० -प्रार्थना-प्रए । द्रवीभूत होवे, कृपा करे। 'द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी।' मा० १.११२.४ द्रवत : वकृ० । आद्रं होते, पिघल जाते । 'औढर दानि द्रवत पुनि थोरें।' विन० ६.२ द्रवति : वकृ०स्त्री० । पिघल कर बह चलती, द्रवीभूत हो जाती। 'सिला द्रवति जल जोर ।' दो० १७३ द्रवहिं : आप्रब० । द्रवीभूत हो चलते हैं। 'परदुख द्रवहिं संत सुपुनीता।' मा० ७.१२५.८ द्रवहु : आ०मब० । द्रवीभूत होते हो। 'कस न दीन पर द्रवहु उमावर।' विन० ७.१ द्रव : द्रवइ । (१) द्रवित होता-ती है। 'जोलौं देवी द्रव न भवानी अन्नपूरना।' कवि० ७.१४८ (२) द्रवित होता हो । 'बिनु सेवा जो द्रव दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं।' विन० १६२.१ द्रवौ : द्रवहु । 'यह जिय जानि द्रवो नहीं ।' विन० १०६.३ द्रष्टा : वि.पु. (सं.)। देखने वाला, तस्वदर्शी, साक्षात्कर्ता, अन्तर्यामी रूप से सर्वज्ञ । 'सकल दृश्य द्रष्टा ।' विन० ५३.७ द्रुपद : पञ्चालनरेश द्रौपदी के पिता । कृ०६१ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 481 दुम : सं०० (सं०) । वृक्ष । मा० १.६५ द्रोणि, णी : सं०स्त्री० (सं०) । घाटी, दो पहाड़ों के बीच (दोनी के आकार का) भू-भाग, दर्रा । 'भूधर-द्रोणि-बिद्दरणि बहुनामिनी ।' विन० १८.२ द्रोन : सं०० (सं० द्रोण)। (१) कौरवों (तथा पाण्डवों) के धनुर्विद्या-शिक्षक ___ आचार्य । कृ०६० (२) पर्वतविशेष जिसे संजीवनी के लिए हनुमान जी उठा लाये थे, जब लक्ष्मण के रावण की शक्ति लगी थी। हनु०६ द्रोनाचल : (दे० द्रोन) गी० ६.६.४ द्रोह : द्रोह से । 'तासु द्रोह सुख चहसि अभागी।' मा० ७.१०६.४ द्रोह : (१) सं०० (सं.)। द्वेष, वैरभाव । मा० ३.२ (२) (समासान्त में) _ वि.पु. (सं०) । द्रोह करने वाला । 'साईं-द्रोह ।' विन० ३३.६ ब्रोहपर : वि० (सं.)। वैर में तत्पर । विन० १३६.७ ब्रोहा : द्रोह । मा० २.१३०.१ द्रोहिहि : द्रोही को। मा० ७.१२७.१ द्रोही : वि.पु. (सं० द्रोहिन्) । द्वेषी, वैर करने वाला । मा० १.२३८.२ द्रौपदी : सं०स्त्री० (सं०) । द्रुपद राजपुत्री पाण्डवों की पत्नी । दो० १६६ द्वंद, द्वंद्व : सं०० (सं.)। (१) युगल, द्वय (जोड़ा)। ‘पदकंज द्वंद ।' मा० ७.१३ छं० ४. (२) परस्पर विरोधी तत्त्व- शीत-उष्ण, राग-द्वेष, हानि-लाभ, पाप-पुण्य, सुख-दुःख, दिन-रात्रि, जय-पराजय, अनुकूल-प्रतिकूल आदि जिनमें एक की प्रतीति से ही दूसरे की प्रतीति होती है। 'रघुनंद निकंदय द्वंद्व-घनं ।' मा० ७.१४.२० (३) द्वेत-बुद्धि जो उक्त द्वन्द्वात्मक बोध पर प्रतिष्ठित है जिससे जागतिक भेदों की प्रतीति होती है-मायिक प्रत्यय । मा० ६.१०३ छं० १ द्वदजुद्ध : दो व्यक्तियों का परस्पर युद्ध। मा० ६.८६ द्वंद्वहर : वि० (सं०) । जागतिक द्वन्द्वों को दूर करने वाला। मा० ३.३२ छं० द्वादस : संख्या (सं० द्वादश) । बारह । गी० ७.२५.१ द्वादस-अच्छर : (सं० द्वादशाक्षर)। एक विष्णुमन्त्र जिसमें बारह अक्षर होते हैं ___ 'ओं नमो भगवते वासुदेवाय ।' मा० १.१४३ द्वादसि, सी : सं०+वि०स्त्री० (सं० द्वादशी) । (१) बारहवीं (२) पक्ष की बारहवीं तिथि । विन० २०२.१३ द्वापर : सं०० (सं०) । (१) संशय, दुबिधा। (२) चतुर्युगी का तीसरा युग । 'बहुरज स्वल्प सत्त्व कछु तामस । द्वापर धर्म हरष-भय मानस ।' मा० १०४.४ द्वार, रा : सं०० (सं० द्वार)। (१) बहिर्गमन-मार्ग, निकास, 'फाटक । 'सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा।' मा० १.२१४.१ (२) रन्ध्र, छिद्र । 'इंद्री द्वार झरोखा नाना ।' मा० ७.११८.११ (३) साधन, उपाय, मार्ग-साधक और साध्य के Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482 तुलसी शब्द-कोन मध्य में आने वाला उपकरण आदि। 'साधनधाम मोच्छ कर द्वारा ।' मा० ७.४३.८ द्वारपाल : सं०० (सं०) । दौवारिक, द्वार-रक्षा में नियुक्त परिचारक । मा० १.१२२.४ द्वारें : द्वार पर । 'महाभीर भूपति के द्वारें।' मा० १.३०१.३ द्वारे : (१) द्वार+२० । 'हाट बाट चौहट पुर द्वारे ।' मा० १.३४४.४ (२) द्वारें (सं०) । द्वार पर । 'सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे।' मा० ७.६.१ द्वारेहिं : द्वार पर ही । 'द्वारेहि भेंटि भवन लेइ आई।' मा० २.१५६.३ द्विज : सं०पु० (सं.)। (१) उपनयन संस्काररूप द्वितीय जन्म पाने वाला=त्रिवर्ण =ब्रह्म, क्षत्र, वैश्य । (२) ब्राह्मण । मा० १.१६६.५ (३) पक्षी जो अण्डे से दुबारा जन्म लेता है। (४) दांत --जो टूट कर शैशव में पुनः जमते हैं । 'श्रवन अधर सुदर द्विज छबि अनूप न्यारी।' गी० १.२५.४ द्विजन, न्ह : द्विज+संब० । द्विजों। 'सकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा ।' मा० ७.५.५ द्विजवर : श्रेष्ठ ब्राह्मण । मा० ७.१०५.७ द्विजामिष : (द्विज+आमिष) ब्राह्मण का मांस । मा० ६.४५.३ द्विजराज : सं०० (सं.)। चन्द्रमा। द्विजराजू : द्विजराज+कए । 'गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू ।' मा० २.२६४.४ द्विविद : एक वानर यूथप । मा० ५.५४ द्वेष : सं०० (सं०) । वैरभाव, द्रोह । मा० ७.१०१ क द्वेषु : द्वेष+कए । 'मनहुं उडुगन निबह आए मिलन तम तजि द्वेषु ।' विन० ७६.४ द्व : (१) दोइ । दो। 'पाप-पुन्य द्वै बीज हैं ।' वैरा० ५ (२) दोनों ही। 'फरकि उठी द्वे भुजा बिसाला ।' मा० ४.६.१४ द्वत : सं०० (सं.)। द्विता, जीव और ब्रह्म को पृथक् मानने की वृत्ति, संशय; जीव-ब्रह्म के तात्त्विक अभेद की अनुभूति का अभाव । 'द्वैत कि बिनु अग्यान ।' मा० ७.१११ ख द्वतबुद्धि : द्वैत को तर्क से सिद्ध करने वाली बुद्धि । 'क्रोध कि द्वैत-बुद्धि बिनु ।' मा० ७.१११ ख द्वतदरसन : (सं० द्वैत-दर्शन) । (१) द्वैतबुद्धि । (२) जीव-ब्रह्म को पृथक् देखने वाली संसारी प्रवृत्ति । (३) जीव-ब्रह्म का पार्थक्य मानने वाला दर्शनशास्त्रअद्वैतविरोधी दर्शन । माधव दर्शन को छोड़कर अन्य वैष्णव दर्शन भी अद्वैत मान्य करते हैं। रामानुज के विशिष्टाद्वैत में जीव ब्रह्म का अंश है अतः वह अंशी से भिन्न होकर भी अभिन्न है-इसी अभेद की प्रतीति मोक्ष है और वही Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 483 आनन्दरूपा भक्ति है। 'सपनेहुं नहीं सुख द्वैत-दरसन, बात कोटिक को कहै ।' विन० १३६.१२ द्वौ : दोउ । दो या दोनों। 'ते द्वौ बंधु तेज बल सीवा।' मा० ४.७.२८ ध घसति : वकृ०स्त्री० । धंसती, प्रवेश करती। 'धंसति लसति हंस स्रनि ।' गी० ७.४.४ सनि : सं०स्त्री० । धंसने की क्रिया, गर्त आदि में प्रवेश । 'तुलसी भेंड़ी की धंसनि जड़ जनता सनमान ।' दो० ४६५ सि : पूर्व० । निकल कर । 'सैल तें धंसि जनु जुग जमुना अवगाहैं ।' गी० ७.१३.२ घंध : सं०० (सं० धान्ध्य द्वन्द्व) । मायाजाल, प्रपञ्च, छलना । 'धंध देखिअत - जग, सोचु परिनाम को।' कवि० ७.८३ घंधक : धंध+क । धंधे की, द्वन्द्वमय । 'धींग धरमध्वज धंधक धोरी।' मा० १.१२.४ धकधकी : सं०स्त्री० । हृदय की तीव्र गति । 'सुरगन सभय धकधकी धरकी ।' मा० २.२४१.७ धका : धक्का । 'नेकु धका दैहैं, ढं हैं ढेलन की ढेरी-सी।' कवि० ६.१० धकान : धका+संब० । धक्कों से । 'धरनीधर धौर धकान हले हैं।' कवि० ६.३३ धक्का : सं०पु० (सं० धक्क नाशने) । वेगयुक्त ढेलने की क्रिया । 'दै दै धक्का ___ जमघट थके, टारे न टर्यो हौं ।' विन० २६७.२ ।। धतूर : सं०पु० (सं० धत्तूर, धुत्तर) । एक पौधा जिसके बिसैले बीज भांग में डालने से नशा अधिक होता है । 'भांग धतूर अहार छार लपटावहिं।' पा०म० ५१ धतूरे : धतूर । 'पात द्वे धतूरे के ।' कवि० ७.१६२ धतूरो : धतूर+कए० । 'धाम धतूरो बिभूति को कूरो।' कवि० ७.१५५ धतूरोई : धतूरा ही । 'भौन में भांग, धतूरोई ऑगन ।' कवि० ७.१५४ धन : सं०० (सं०) । मा० १.४.५ धनद : सं०० (सं०) । कुबेर । मा० १.२१३.३ घनदु : धनद+कए । 'दसरथ धनु सुनि धनदु लजाई।' मा० २.३२४.६ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 तुलसी शब्द-कोश बनधारी : धन को धारण करने वाला=धनाधिप=कुबेर । रबि स सि पवन बरुन धनधारी।' मा० १.१८२.१० घनमय : वि०० (सं०) । धन से व्याप्त । विन० ८१.४ धनवान, ना : वि०पू० । अधिक धन वाला, सम्पन्न । मा० ७.६२.७ धनवानु, नू : धनवान+कए । 'सोचिअ बयसु कृपन धनवान ।' मा० २.१७२.५ धनवंत : धनवान (प्रा० धणवंत) । मा० ७.८७.२ धनहीं : धनहीं । धनुष । भाथीं बांधि चढ़ाइन्हि धनहीं।' मा० २.१६२.४ धनाधिप : सं०० (सं०) । (१) अधिक धनवान् (२) कुबेर । 'धनाधिप सो धन __ भो।' कवि० ७.४२ पनि : धन्य । हिमवानु धरनिधर धुर धनि ।' पा०म० ६ । धनिक : विपु० (सं०) । (१) धनवान् । मा० १.२१३.३ (२) ऋण देने वाला। _ 'रिनिया हौं, धनिक ', पत्र लिखाउ ।' विन० १००.७ धनिक : धनिक+कए । 'जाय धनिकु बिनु दान ।' कवि० ७.११६ धनी : (१) धनिक । मा० १.४.५ (२) राजा । 'कोसलधनी ।' जा०म०/० ३ धनु : (१) धन कए । 'दसरथ धनु सुनि धनदु लजाई ।' मा० २.३२४.६ (२) सं०० (सं० धनुष>प्रा० धणु) : ‘राम चहहिं संकर धनु तोरा।' मा० १.२६०.२ धनुधर : वि०० (सं० धनुर्धर) । धनुष धारण किये हुए । गी० २.२८.४ धनुपानि, नी : वि०पु० (सं० धनुष्पाणि) । हाथ में धनुष लिये हुए। मा. १.१०५४ धनुभंग : (सं० धनुर्भङ्ग) धनुष का टूटना । मा० १.२६२.७ घनुभख : (सं० धनुर्भख) धनुर्यज्ञ । मा० १.२२४.१ घनुभंगु : धनुभंग+कए । 'धनुभंगु सुनें फरसालिएँ धाए ।' कवि १.२२ धनुमख : (सं० धनुर्मख) जनक का धनुर्यज्ञ जिसमें शिव धनुष तोड़ने वाले को सीता ___ का दान अभीष्ट था । मा० १.२२४.१ धनुष : सं०० (सं० धनुष)। मा० १.२०४.७ धनुषजग्य : सं० धनुर्यज्ञ) धनुमख मा० १.२१०.१० धनुष विद्या : (सं० धन विद्या) बाण विद्या । मा० २.४१.३ धनुषभग : धनुभंग। मा० १.२६२.७ धनुषमख : धनुमख । मा० १.२४०.४० घनुषु : धनुष+कए । मा० १.२४५.३ धनुहा : सं०० (सं० धनुष>प्रा० धणुह) । धनुहाई : सं० स्त्री० (सं० धानुष्कता) । धनु युद्ध, धनुर्वीर ता । 'जब धन हई ह्व है मन अनुमानि के ।' कवि० ६.२६ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 485 धनुहिया : धनुही । गी० १.४४.१ घनुहीं : धनुही+ब० । 'बहु धनुहीं तोरी लरिकाई।' मा० १.२७१.७ धनुही : धनुहा+स्त्री० । छोटा धनुष । 'धनुही सम त्रिपुरारि धनु ।' मा० १.२७१ धनेस, सा : वि०+सं.पु. (सं० धनेश)। (१) धनाधीश, धनवान् (२) कुबेर । ___ 'अध अवगुन धन धनी धनेसा।' मा० १.४.५ धनेसु : धनेस+कए० । कुबेर । कवि० ७.७८ । धन्य : वि.पु. (सं.)। उत्तम, श्रेष्ठ, भाग्य सम्पन्न, महामहिम, प्रशस्य । 'अहो धन्य तब जन्म मुनीसा ।' मा० १.१०४.४ धन्या : (१) धन्य+स्त्री०। 'मेकलसुता गोदावरि धन्या ।' मा० २.२३८.४ (२) धन्याः । विन० ६१.७ धन्याः : धन्य +कब० (सं०) । मा० ४ श्लो० २ धन्वी : वि०० (सं० धन्विन्) । धनुर्धर । मा० ३.२२.६ धमधूसर : वि.पु. (सं० धर्मधूसर ?) । गुणों (धर्म) में मलिन, स्वभाव से कलुष, मस्तंड, मिट्टी के ढेर के समान मूढ़, पेट, निठल्ला । 'कलिकाल बिचारु अचारु हरो, नहिं सूझै कछू धमधूसर को।' कवि० ७ १६ घमधूसरो : धमधूसर भी। 'अपनायो तुलसी सो धींग धमधूसरो।' कवि० ७.१६ घर : (१) वि०० (सं०) । धारणकर्ता । 'कमठ सेस सम धर बसुधा के ।' मा० १.२०.७ (२) धरा, पृथ्वी । 'मम पाछे धर धावत धरें सरासन बान ।' मा० ३.२६ (३) सं०० । धड़, रुंड । 'धर तें भिन्न तासु सिर कीन्हा ।' मा. ६.७१.४ /धर धरह, ई : आ०प्रए० (१) (सं० धरति-धून धारणे>प्रा० धरइ) । धारण करता है । 'तपबल सेषु धरइ महि भारा।' मा० १.७३.४ (२) रखता है, स्थापित करता है। 'मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ ।' मा० १.२३१.५ (३) (सं० धरति-धृ ग्रहणे) पकड़ता है। (४) (सं० ध्रियते-धृङ अवस्थाने) ठहरता है, रहता है । धरई : धरहिं । पकड़ते हैं । 'ललनागन जब जेहि धरइँ धाइ।' गी० ७.२२.६ घरउ, ऊ : आ०उए । धारण करता हूं। 'धरउ देह नहिं आन निहोरें।' मा० ५.४८.८ घरकत : वकृ०० । कांपते, लड़खड़ाते । 'दास तुलसी परत धरनि धरकत ।' कवि० धरकी : भूक०स्त्री० । धड़क चली, (हृदय गति) तीव्र हो चली। 'सुरगन समय धकधकी धरकी।' मा० २.२४१.७ परत : व.पु. । (१) धारण करता-करते । मा० ५.२१.६ (२) रखता-रखते। _ 'अय इव जरत धरत पग धरनी।' मा० १.२६८.५ (३) क्रियाति००ए० । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 तुमसी सजा- तो धारण करता । 'जों तुम्ह औतेहु मुनि की नाई । पदरज. सिकु सिर परत गोसाईं ।' मा० १.२८२.३ परति : वक०स्त्री० । रखती (हुई)। 'धरति चरन मग चलति सभीता।' मा० २.१२३.५ घरन : (१) भकृ० अव्यय । धरने, पकड़ने (हेतु)। 'तिन्हहि धरन कहुं भुजा पसारी।' मा० ६.६८.७ (२) धारण करने (हेतु)। 'भार धरन सत कोटि अहीसा।' मा० ७.६२.८ (३) वि.पुं० । धारण कर्ता । 'धीर रघुबीर तूनीर सर धन धरन ।' गी० ५.४३.२ घरनहार : वि०० । धारण कर्ता । 'धरनी धरनहार भंजन भुवन भार ।' विन० ३७.२ घरना : धरन । पकड़ने । 'जान पानि धाए मोहि. धरना।' मा० ७.७६.६ धरनि : (१) वि०स्त्री० । धारण करने वाली। 'शूल सेल धनुष बाण धरणि ।' विन० १६.२ (२) सं०स्त्री० (सं० धरणि) । पृथ्वी । 'संतत धरनि धरत सिर रेनू ।' मा० ११६७.८ (३) रखने की क्रिया । 'ठुमक ठुमक पग धरनि नटनि लरखरनि सुहाई।' गी० १.३०.३ घरनितल : धरणी मण्डल, पृथ्वी तल । मा० २.१४२.७ घरनिषर : सं०० (सं० धरणीधर) । पर्वत । पा०म० ६ घरनि सुता : पृथ्वी-पुत्री =सीता ने । 'धरनि सुतां धीरजु धरेउ ।' मा० २.२८६ धरनी : (१) पृथ्वी पर । 'धरनी ढनमनी ।' मा० ५.४.४ (२) पृथ्वी ने । 'तज्यो धीरु धरनीं।' कवि० ६.१६ धरनी : धरनि । (१) पृथ्वी । मा० १.१८६ छं० (२) पकड़, आग्रह, लगन । 'हिएँ धरु चातक की धरनी।' कवि० ७.३२ धरनीधर : धरनिधर । (१) पर्वत। मा० २.३०६.२ (२) राजा। परमात्मा=राम (पृथ्वी रक्षक) । 'जड़ पंच मिल जेहिं देह करी, करनी लखु धौ धरनी-धर की।' कवि० ७.२७ घरम : धर्म । (१) शास्त्रविहित आचरण, कर्तव्य कर्म । 'धरम धुरीन बिषय रस रूखे ।' मा० २.५०.३ (२) चार पुरुषार्थों में अन्यतम । 'अरध धरम कामादिक चारी ।' मा० १.३७.६ (३) धर्मशास्त्र । 'ब्रह्म निरूपन धरम बिधि ।' मा० १.४४ (४) समाज-धारण कारी तत्त्वसमूह । 'जब जब होइ धरम के हानी।' मा० १.१२१.६ (५) वर्ण धर्म । 'भूप धरम जे बेद बखाने ।' मा० १.१५५.५ (६) आश्रम-धर्म । (७) धृति, क्षमा आदि दस मानव धर्म । (८) युग धर्म (दे० धर्मा)। घरमक : धर्म का । 'पितु आयसु सब धरमक टीका ।' मा० २.५५.८ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुबमी सबको 487 धरमध्वज : (सं० धर्मध्वज) धर्म का झंडा-ठाये दम्भी-धर्म व्यवसायी । “धींग धरमध्वज धंधक धोरी।' मा० १.१२.४ धरमजतु : सं०पु०कए । एकान्त धर्म निष्ठा । मा० २.१७१.६ घरममय : वि० (सं० धर्ममय)। धर्मयुक्त । मा० २.१७१.४ धरमसील : वि० (सं० धर्मशील)। धर्मात्मा । मा० १.१५५.२ धरमा : धरम । मा० १.२.११ घरमु, मू : धरम+कए । एकमात्र धर्म । 'धरमु धरेउ सहि संकट नाना ।' मा० २.६५.४, २.२०४.७ धरषा : भूकृ०० (सं० धर्षित>प्रा० धरिसिअ)। आक्रान्त हुआ, दबाव में पड़ा। 'डोले धराधर धारि धराधरु धरषा।' कवि० ६.७ धरषि : पूकृ० (सं० धृष्ट्वा >प्रा० धरिसिअ>अ. धरिसि) । धर्षण करके, दलित करके, तिरस्कृत करके, आक्रान्त करके । 'रिपु बल धरषि हरषि कपि ।' मा० घरहरि : सं०स्त्री० । प्रबोध देना (धर्य बंधाना), सहलाना, पुचकारना । 'चिकुर'.. करनि बिबरत' अहिसिसुससि सन लरत, धरहरि करत रुचिर जन जग फनी।' गी० ७.५.३ घरहि, ही : आ०प्रब०। (१) पकड़ते हैं । 'मारहिं काटहिं धरहिं पछारहि ।' मा० ६.८१.५ (२) धारण करते हैं । 'गिरि निज सिरन्हि सदा तृन घरहीं।' मा० १.१६७.७ घरहि : आ०-आशा-मए० । तू धारण कर । 'धरनि धरहि मन धीर ।' मा० १.१८४ घरहुं : आ०-आज्ञा, कामना-प्रब० । धारण करें। 'उर धरहं जुबती जन बिलोकि तिलोक सोभा सार सो।' पा०म० छं० १६ घरहु, हू : आ०मब० । (१) धारण करो । 'अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी।' मा० १.७५.२ (२) धारण करते हो । 'व्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा ।' मा० १.२७३.८ (३) पकड़ो। धरहु कपिहि धरि मारहु ।' मा० ६.३२ ख (४) रखो। 'तुलसी जनि पग धरहु गंग मह साच ।' बर० २४ घरहुगे : आ.भ.पु०मब० । रखोगे। 'अधम आचरन कछु हृदय नहिं धरहुगे।' विन० २११.२ घरा : (१) सं०स्त्री० (सं.)। पृथ्वी। 'धरा अकुलानी ।' मा० १.१८४.४ (२) भूकृ०० । धारण किया। 'कोपि कर धनु सर धरा ।' मा० १.८४ छं० (३) पकड़ा । 'धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा ।' मा० ६.२४.१५ पराइ : पूकृ० (सं० धारयित्त्वा>प्रा० धराविम>अ० धरावि)। धरा कर, धारण करके । 'असि देह धराइ के जायें जिये ।' कवि० ७.३८ । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 तुलसी शब्द-कोश घराई : भूकृ० स्त्री० । स्थिर कराई, रखवाई । 'राम तिलक हित लगन धराई ।' मा० २.१८.६ धराधर : सं०पु० (सं० ) । पृथ्वी धरने वाला । ( १ ) पर्वत ( २ ) शेषनाग । 'डोले धराधर धारि, धराधरु धरषा ।' कवि० ६.७ धराधरु : धराधर + कए० । शेष । ' धराधरु धीर भारु सहि न सकतु है ।' कवि० ६.१६ धरायहु : आ० - भ० + आज्ञा - मब० । तुम स्थिर कराना, रखवाना । 'जों मन मान तुम्हार तो लगन घरायहु ।' पा०मं० ७८ 1 धरासुर : भूसुर । ब्राह्मण ( भृगु ) । 'उर धरासुर पद लस्यो ।' मा० ६.८६ छं० धरि : पूकृ० । (१) धारण करके । 'धरि धीरजु तब कहइ निषादू ।' मा० २.१४३.१ (२) पकड़ कर । 'धरहु कपिहि धरि मारडु ।' मा० ६३२ ख घरिअ, ए : आ० कवा०प्र० । रखिए, धारण कीजिए । 'धीरजु धरिअ नरेस ।' मा० २.२७६ धरित : भूकृ० (सं० धृत) । धारण किया । ' मृगराज बपु धरित ।' विन० ५२४ धरिबे : भक०पु० (१) रखने, स्थापित करने । 'ज्ञान बिराग कालकृत करतब हमरेहि सिर धरिबे हो ।' कृ० ३६ (२) धारण करने । 'कठिन कुठार धार धरिबे को धीर ।' कवि० १.१८ धरिय, ये : धरिअ । 'सिय धीरज धरिये ।' गी० ५.५१.१ धरहिउ : आ०भ० उए० । धारण करूँगा, ग्रहण करूंगा । 'तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा । मा० १.१८७.१ धरिहहि : आ०भ०प्र० । धारण करेंगे, ग्रहण करेंगे । ' धरिहहि बिष्नु मनुज तनु तहिआ ।' मा० १.१३६.६ धरिही : आ०भ० प्र० । धारण करेगा, ग्रहण करेगा । 'ती बिष्नु मनुज तनु धरिही ।' मा० ४.२८.७ धरिहैं : धरिहहि । रखेंगे । 'धरिहैं नाथ हाथ माथे ।' गी० ५.३०.३ धरिहो : आ०भ० म० । धरोगे, ग्रहण करोगे, रखोगे । 'जो पैं जिय धरिही अवगुन जन के ।' विन० ६६.१ धरी : (१) धरि । 'मसक समान रूप कपि धरी । लंकहि चलेउ । मा० ५.४.१ (२) भूकृ० स्त्री० । ग्रहण की, धारण की । 'कपि केहि हेतु धरी निठुराई । ' मा० ५.१४.४ घरु : आ० - आज्ञा, प्रार्थना - मए० । ( १ ) तू धारण कर। जननी हृदयँ धीर पकड़ ले । 'मारु मारु धरु धरु धरु मारू ।' मा० धरु ।' मा० ५.१५ ( २ ) ६.५३.६ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 489 घरें : क्रि०वि० । धारण किये (मुद्रा में)। 'मम पाछे धर धावत धरें सरासन बान ।' मा० ३.२६ घरे : भूकृ०० (ब०)। (१) रखे। 'आनि धरे प्रभु पास ।' मा० ६.३२ क (२) धारण किये हुए । 'हृदय आनि सिय राम धरे धनु भाथहि । पा०म० १ घरेउ : आ०-भूक००+ उए । मैंने धारण किये, ग्रहण किये । 'एहि बिधि धरेउँ बिबिध तनु ।' मा० ७.१०६ घ घरेउ, ऊ : भूकृ००कए। धारण किया, ग्रहण किया। 'राम धरेउ तनु भूप।' मा० ७.७२ क धरेन्हि : आ० - भूकृ.पु+प्रब० । उन्होंने पकड़े । तदपि न उठइ धरेन्हि कच जाई ।' मा० ६.७६.३ धरेसि : आ०- भूकृ०पु+प्रए । उसने पकड़ा, पकड़े । 'कोपि कूदि द्वो धरेसि बहोरी।' मा० ६६८.६ घरेहु : (१) आ०-भ०+आज्ञा+मब० । तुम रखना । 'संतत हृदय धरेहु मम काजू ।' मा० ४.१२.६ (२) आ०-भूक००--मब० । तुमने रखा। 'नर तनु धरेहु संत सुर काजा।' मा० २.१२७.६ 'घरै : धरहिं । रखते हैं । 'छबि भूरि अनंग की दूरि धरै।' कवि० १.३ धरै : (१) धरइ । रखता है । 'मन संतोष धरै ।' विन० ६२.४ (२) रखे । 'चित्त दिआ भरि धरै दृढ़।' मा० ७.११७ ख (३) भकृ० अव्यय । पकड़ने । 'ताहि धरै जननी हठि धावा ।' मा० १.२०३.८ . धरंगो : आ०भ००प्रए । धारण करेगा। 'सुत सिर छत्र धरैगो।' गी० २.६०.३ धरो : धर्यो। (१) रखा हुआ । 'हरो धरो गाड़ो दियो धन ।' दो० ४५७ (२) पकड़ रखा । 'जोग सिधि साधन रोग बियोग धरो सो।' विन० १७३.३ धरोइ : रखा ही (रख लिया सो रख लिया)। 'दीपक काजर सिर घर्यो, धर्यो सो धर्यो धरोइ ।' दो० १०६ घरौं : धरउँ । (१) धारण करूँ। 'कर न धरौं धनु माथ ।' मा० १.२५३ (२) रखू, रखता हूं। 'धरौं सचि पचि सुकृत सिला बटोरि ।' विन० १५८.४ घरी : धरहु । पकड़ो । 'कह्यो धरौ धरो धाए बीर बलवान हैं ।' कवि० ५.७ धर्म : (दे० धरम) मा० १.७७.५ धर्मतरु : धर्मरूपी वृक्ष । मा० ३ श्लो० १ धर्मपरायन : धर्म में सदा तत्पर । मा० ७.१२७.२ धर्ममय : वि० (सं.)। धर्म रूप । 'परम धर्ममय पय दुहि भाई।' मा० ७.११७.१३ धर्मरत : धर्म परायण । मा० ७.२१.७ धर्मसील : धरमसील । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 490 तुलसी सन्दकोश धर्मसीलता : धर्म परायणता। मा० ६.२२.५ धर्मसीलन्ह : धर्मसील+संब० । धर्मात्माओं । 'जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख संजत ___ जाहिं ।' मा० ३.३६ ख धर्महीन : अधार्मिक । मा० ६.३८ क धर्मा : धर्म । 'सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा ।' मा० ७.१०४.३ घरयो : धरेउ । रखा । दीपक काजर सिर धर्यो ।' दो० १०६ धवल : वि० (सं०) । श्वेत, उज्ज्वल । मा० १.२१३ धवलधाम : सं०पु० (सं०) । धवलगृह धौरहर-चूने से पुते ऊँचे महल । मा० २.११६.८ धवलिहउँ : धवल+भ०उए० । श्वेत कर दूगा । 'जस धवलिहउँ भुवन दस चारी।' मा० २.१६०.५ /घस, घसइ : (सं० ध्वंसते-ध्वंसु अवस्र सने>प्रा० धंसइ, धसइ) आ०प्रए । धंसता-ती है; अधोगति लेकर प्रवेश करता-ती है; धसकता-ती है। 'धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा।' मा० ६.७१.६ धसी : भूक०स्त्री० । (१) प्रवेश कर गई (२) निकली । 'जन कलिंदजा सुनील सैल तें धसी समीप ।' गी० ७.७.५ घाँके : भूकृ००ब० । धाक में लिए. आतङिकत किये । 'बीर बिरुदैत बर बैरि धाँके ।' कवि० ६.४५ पाइ : पूक० (सं० धावित्वा>प्रा० धाविअ>अ० धाषि) । दौड़ कर । 'धाइ खाइ जन जाइ न हेरा।' मा० २.३८.४ धाइबो : भकृ००कए० । दौड़ना । —तुलसी कबंध कैसो धाइयो बिचारु ।' कवि० ७.८३ धाई : भूकृ०स्त्री०ब० । दौड़ पड़ीं । 'जुबति बृद रोक्त उठि धाईं ।' मा० ६.१०४.२ धाई : भूकृ०स्त्री० । दौड़ पड़ी। 'सुनि धाई रजनीचर धारी।' मा० ६.६७.७ धाएँ : दौड़ने से, पर । 'तृल सी जिन्ह धाएं धुकै धरनी ।' कवि० ६.३३ पाए : भूक००ब० । दौड़ पड़े । 'सुनि मुनि आयसु धावन धाए ।' मा० २.१५७.४ धाता : संपु० (सं०) । ब्रह्मा । मा० ७.१०६.३ धातु : सं०० (सं०) । (१) सुवर्णादि खनिज। (२) गेरू आदि । 'सिय अंग लिखें धातु राग ।' गी० २.४४.४ (३) अङ्ग रचना के घटक तत्त्व । 'सब अंग धातु भवभय मोचनं ।' कृ० २३ (४) शरीर के सप्तधातु - रस, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा और शुक्र । 'सात सप्त धातु निरमित तनु ।' विन० २०३.८ (५) सात संख्या । 'मुनि गनि दिन गनि धातु गनि । रा०प्र० ७.७.२ धान : सं०० (सं० धान्य>प्रा० धन्न) । शालि, व्रीहि (अन्न विशेष) । 'बए न जामहि धान ।' मा० ७.१०१ ख Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलको शोर धाम, मा : संपु० (सं० धामन्) । (१) घर । 'लख-कि रहिहि धाम ।' मा ___२.४६ (२) लोक । 'रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम ।' मा० १.११० धामका : वि स्त्री० (सं.)। लोक देने वाली । 'मम धामदा पुरी ।' मा० ७.४.७ धामिनी : वि०स्त्री० । धाम वाली, आवास करने वाली। (गङ्गा...) त्रिपुरारि सिर धामिनी ।' विन० १८.२ घामु, मू : धाम+कए । मा० २.६२ ७ घाय : धाइ। धायउँ : आ०- भूक.पु+उए । मैं दौड़ा । 'निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ ।' मा० ७.८२.३ पायउ : भूकृ००कए । दौड़ा । 'धायउ परम ऋद्ध दसकंधर ।' मा० ६.८२.१ घायल : धायउ (भोजपुरी में प्रचलित) । 'कोपि गगन पर धायल ।' मा० ६.६७.६ पाये : धाए। घायो : धायउ । 'देखि बिकल सुर अंगद धायो ।' मा० ६.६७.८ धार : सं०स्त्री० (सं० धारा)। (१) प्रचाह । 'सुरसरि धार नाउँ मंदाकिनी।' मा० २ १३२.६ (२) तलवार आदि का पैना भाग । 'मठि कुबुद्धि धार निठुराई।' मा० २.३१.२ (३) (जमधार) कृपाण । 'जम कर धार किधौं बरिआता।' मा० १.६५.७ धरना : सं०स्त्री० (सं० धारणा) । अष्टाङ्ग योग में चित्त को एकाग्र (निरुद्ध) करने का छठा अङ्ग जिसमें किसी विषय पर चित्त को बार-बार टिकाया जाता है। यही धारण सध जाने पर ध्यान का रूप लेती है जब विषय पर चित्त की धारा एकतान हो जाती है । धारणा, ध्यान और समाधि को एक साथ संयम कहा जाता है । 'ध्यान धारना समाधि साधन प्रबीनता।' कवि० ७.६२ पारमिक : वि० (सं० धार्मिक) । धर्मशील, धर्मात्मा । हनु. १० धारा : धार । (१) प्रवाह । 'सुरसरिधारा ।' मा० १.२.८ (२) खड्ग आदि का तीक्ष्ण भाग । 'सीतल निसित बहसि बर धारा।' मा० ५.१०.६ (३) दोनों का श्लेश ।' 'जासु फरसु सागर खर धारा।' मा० ६.२६.३ (४) निरन्तर श्रेणी । 'चतुरंगिनीं अनी बहु धारा।' मा० ६.७६.१ (५) भूकृ०० (सं० धारित> प्रा० धारिअ) । रखा । 'निज पुर पगु धारा।' मा० १.२५.५ पारि : सं०स्त्री० (सं० धारा)। (१) अविच्छिन्न श्रेणी, समूह । 'बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी।' मा० २.३ १७.३ (२) (सं० धाटि>प्रा० धाडि) आक्रामक यूथ । 'प्रबल मोह के धारि ।' मा० ३.४३ (३) पूक० । धारण करके। 'अब जनि धावै धनु धारि।' गी० १.२२.१४ धारिअ, य : धारिए । 'भयउ समउ अब धारिअ पाऊ ।' मा० १.३१३.७ पारिए, ये : आ०-कवा०-प्रए । रखिए । 'पाउ धारिए ।' गी० ५.३५.२. Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 492 तुलसी शब्द-कोश धारिन : ( समासान्त में) वि०स्त्री० (सं० धारिणी) । धारण करने वाली । 'निज इच्छा लीला बपु धारिनि । मा० १.६८.४ धारी : (१) धारि । .. आक्रामक सेना । 'रचनीचर धारी ।' मा० ६.६७.७ (२) समूह, श्रेणी | मा० ३.१६.१ ( ३ ) पूकृ० धारण करके । 'राम भगतहित नर तनु धारी किए साधु सुखारी ।' मा० १.२४.१ ( ४ ) भूकृ० स्त्री० | रखी । 'सिय पगु धारी ।' मा० १.२४८.४ ( ५ ) ( समासान्त में ) वि०पुं० (सं० धारिन्) धारण करने वाला । 'धनधारी ।' 'तनुधारी' । मा० १.१८२.१०-१२ धारें : धरें । 'निपट धारें उर फूलनि के हार हैं ।' कवि० २.१४ धारे : भूकृ०पु ं०ब० । रखे । 'जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे ।' मा० १.३५४.२ घारेउ : भूकृ०पु ं०कए० । रखा । 'भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ ।' मा० २.१६०.२ धारे : (१) धार + ब० । धाराएँ । 'धारें बान्, कूल धनु, भूषन जलचर ।' गी० ७.१३.३ (२) आ०प्रब० । धारण करते हैं । 'जिन्ह को पुनीत बारि धारें सिर पैपुरारि ।' कवि० २.६ धाव : (१) धावइ । दौडता है । 'धर धाव प्रचंडा ।' मा० ६.७१.६ (२) टूट पड़ता है, धावा बोल देता है । 'चपरि चहूं दिसि धाव ।' दो० ५२० / धाव धावइ : (सं० धावति - धावु गती > प्रा० धावइ) आ०प्र० । दौड़ पड़ता है, धावा बोल देता है । 'आपुनु उठि धावइ ।' मा० १.१५३ छं० धावत: वकृ०पु० । दौड़ता, दौड़ते । 'धरहु धरहु धावत सुभट ।' मा० ३.१८ o धावन : सं०पु० (सं० ) । दूत, हरकारा । मा० २.१५७.४ घावनि : सं० स्त्री० । दौड़ने की क्रिया । 'धावनि नवनि बिलोकनि बिथकनि ।' गी० ३.३.४ धावह, हीं : आ० प्रब० । दौड़ते हैं, दौड़ पड़ते हैं, धावा बोल देते हैं । 'देखत जग्य निसाचर धावहि ।' मा० १.२०६४ धावहिंगे : आ०भ०पु० प्रब० । दौड़ेंगे । 'लोचन बहु प्रकार धावहिंगे ।' गी० ५.१०.२ धावहि: आ०म० । तू दौड़ता-ती है । 'कत रबिकर जल कहँ धावहि ।' विन० २३७.२ Tag: आम । दौड़ पड़ो । धावहु मरकट बिकट बरूया ।' मा० ६.१.६ धावा : (१) धावइ । दौड़ता-ती है । 'ताहि धरं जननी हठि धावा ।' मा० १.२०३.८ (२) भूकृ०पु० । दौड़ा। 'प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा ।' मा० ३.२.१ ard : धावइ । दौड़ पड़े, धावा करे । 'अब जनि धावै धनु धारि ।' गी० १.२२.१४ धाव : आ०उए । दौड़ जाऊँ, दौड़ सकता हूं । 'जो जन सत प्रमान लं धावौं ।' मा० १.२५३.८ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसा शब्द-कोश 493 घावोंगी : आ०भ०स्त्री०उए । दोड़गी। 'सुनि सँदेस.... उठि धावौंगी।' गी० २.५५.३ धावौ : धावहु । दौड़ो, भागो । 'धावी धावी लागि आगि रे ।' कवि० ५.६ घाहैं : सं०स्त्री०प० । धाड़ें, चिल्लाहटें (विलाप की पुकारें)। जिन्ह रिपु मारि सुरारि नारि तेइ सीस उघारि दिवाई धा हैं ।' गी० ७.१३.६ । धिक : अव्यय (सं० धिक, धिग)। छिः छिः, धिक्कार है। 'जे न ठगे धिक से।" कवि० १.१ धिग : धिक । मा० २.८६.५ घींग : वि०+क्रि०वि० । धींगा मुश्ती वाला, नितान्त छलनापूर्ण, उत्कट । 'धींग धरमध्वज धंधक धोरी।' मा० १.१२.४ 'अपनायो तुलसी सो धींग धमधूसरो।, कवि० ७.१६ घीय : सं०स्त्री० (सं० धीता, धीदा, दुहिता>प्रा० धीया)। कन्या, पुत्री। 'धीय को नमाय, बाप पूत न सँभारहीं।' कवि० ५.१५ धीर : (१) वि० (सं०) । धर्यशाली । 'धरमधुरंधर धीर सयाने ।' मा० २.७८.२ (२) सं०पु० (सं० धैर्य>प्रा० धीर) । 'धरमधुरंधर धीर धरि ।' मा० २.३० धीरज : धीर । धैर्य । मा० १.८४.७ धीरजु : धीरज+कए । 'धरनि सुतां धीरजु धरेउ ।' मा० २.२८६ . घोरतर : वि० (सं.)। अतिशय धैर्यशाली। कृ० ३१ धीरता : सं०स्त्री० (सं०) । धैर्य । मा० १.३३८.५ धीरधुर : वि० (सं० धीरधुर्य, धैर्यधुर्य-दे० धुर)। धैर्यधारी, धीरशिरोमणि । ___ 'धीरधुर रघुबीर ।' गी० ५.४.२ धीरन्ह : धीर+संब० । धैर्यशालियों। 'धीर-ह के मन बिरति दृढाई ।' मा०. ३.३६.२ धीरा : धीर । (१) धैर्यशाली। 'सेवत जाहि सदा मुनि धीरा।' मा० १.५१.८ (२) धैर्य । 'बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा ।' मा० १.२५८.५ घोरु : धीर+कए० । धैर्य । 'तज्यो धीरु धरनी ।' कनि० ६.१६ धीरे : धैर्य को । 'धीर न सकत धीरौ धीर ।' गी० ६.१५.३ धीरौ : धैर्य भी । गी० ६.१५.३ धुंद : सं०पु० (सं० धुन्धुमारः=धुआँ) । अँधेरा । 'छूटे बार बसन उघारे धूम धुद ___अंध।' कवि० ५.१५ . धुआं : सं०० (सं० धूम>अ० धूर्व) । (१) आग का धूम । 'धुआँ कैसो धौरहर देखि तू न भूलि रे ।' विन० ६६.४ (२) (सं० धूम = उल्कापात) विध्वंससूचक अपशकुन, विनाश । 'धुआँ देखि खर दूषन केरा । जाइ सुपनखां रावन टेरा .' Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 494 तुलसी शब्द-कोश मा० ३.२१.५ (जिस प्रकार उल्कापात राजा के विनाश का सूचक होता है उसी प्रकार खरदूषन-विनाश रावण के विध्वंस का सूचक था।) धुकि : पूकृ० (सं० ध्र गतिस्थैर्ययोः)। (१) झुककर, घुमड़न के साथ नत होकर। 'जलद घन घटा धुकि धाई है।' हनु० ३५ (२) स्थिर हो-झुककर-चलकर । 'सुनि कल बेनु धेनु धुकि धैया ।' कृ० १६ धुके : आ०प्रए । रुक-रुक चलती है , धकधकती है, काँप-काँप जाती है । 'तुलसी जिन्ह धाएँ धुकै धरनी।' कवि० ६.३३ धुज : ध्वज । धुजा : ध्वजा । 'कदलि ताल बर धुजा पताका ।' मा० ३.३८.२ Vधुन धुनइ : (सं० धुनाति, धूनोति-धू कम्पने) आ०प्रए । झिटकता है, झकझोरता है, कपाता है (रुई के समान धुनकता है) 'जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई ।' मा० २.४६.८ धुनत : वकृ००। (१) कपाते। 'करनि धुनत धनु तीर ।' गी० २.६६.२ (२) झिटकते, ताल ठोंक झकझोरते । 'बाजे बाजे बीर बाहु धुनत समाज के।' कवि० १.८ धुनहिं : आ०प्रब० । धुनते हैं (झिटकते हैं) । 'धुनहिं सीस पछिताहिं ।' मा० २.६६ धुना : भूकृ.पु । झिटका (पीट लिया)। 'पुनि कालनेमि सिरु धुना।' मा० ६.५६.३ धुनि : (१) प्रकृ० । धुनकर, झिटक कर (पीट कर)। 'परेउ धरनि धुनि माथ ।' मा०२.३४ (२) सं०स्त्री० (सं० ध्वनि)। नाद, शब्द, गूंज, घोष (दे० पंचधुनि) । 'कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि ।' मा० १.२३०.१ (३) नदी। दे० देवधुनि। धुनिए : आ०कवाप्रए० । झिटकिए (चाहे पीट डालिए)। 'बरज्यो न करत कितो सिर धुनिए।' कृ० ३७ धुने : भुकृ०पु०ब० । झिटक डाले (पीट लिये) । 'बारिद बचन सुनि धुने सीस सचिवन्ह ।' कवि० ५.२० धुनेउ, ऊ : भूकृ०पू०ए० । धुना, धुनका, झिटकारा (पीट लिया)। 'नृप सनेहु लखि धुने उ सिरु ।' मा० २.७३ धुन्यो : धुनेउ । 'पर्यो धरनि ब्याकु सिर धुन्यो ।' मा० ६.६५.७ धुर : (१) सं०स्त्री० (सं० धुर्>प्रा० धुरा)। भार, बोझ । 'सकल घरम धर धरनि धरत को।' मा० २.२३३.१ (२) वि०पु० (सं० धुर्य)। धुरीण (भार धारण करने में समर्थ) श्रेष्ठ । हिमवानु धरनि-धर धुर धनि ।' पा०म०६ धुरंधर : (१) वि०० (सं०) । भार धारण-समर्थ, धुरीण । 'धरम धुरंधर नृप रिषि जानी।' मा० १.१४३.६ (२) श्रेष्ठ । Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शाद-कोश 495 धुरंधर : धुरंधर+कए । एक भी धुरीण, समर्थ । 'को अवनीतल इन सम बीर धुरंधरु ।' जा०म० ६२ धुरधारी : धुरीण, धुरंधर । 'नरबर धीर धरम-धुर-धारी।' मा० २.७२.२ धुरीन : वि०पू० (सं० धुरीण) । धुर्=भार उठाने में समर्थ, धुरंधर । 'धरम ___ धुरीन बिषय रस रूखे ।' मा० २.५०.३ धुरीना : धुरीन । 'तात भरत तुम्ह धरम हुरीना ।' मा० २.३०४.८ धुव : ध्र व । नक्षत्रविशेष । 'बंदन बंदि ग्रंथिबिधि करि धुव देखेउ।' पा०म० १३२ धुर्वा : धुआं। धूत : वि.पु. (सं० धूर्त>प्रा० धुत्त)। वञ्चक, कपटी, ठग । 'छलमलीन खल धूत ।' रा०प्र० ५.२.१ ।। धूति : पूकृ० । धूर्तता में डाल कर, छल कर। 'गई गिरा मति धूति ।' मा० २.२०६ धूप : सं०पु+स्त्री० (सं०) । एक प्रकार का सुगन्धित काष्ठ ।' मा० १.१६५.५ धूम : (१) सं०पू० (सं०)। धुआँ । 'धूम अनलसंभव सुनु भाई।' मा० ७.१०६.१० (२) सं०स्त्री० (सं० धूम्या धूम समूह, कुहासा)। विजय आदि का आतङ्क जो दूसरों को धमिल कर दे, धाक । 'भरि भवन सकल कल्यान धूम ।' गी० ५.१६.६ धूमउ : धुआं भी । 'धूमउ तजइ सहज करु आई।' मा० १.१०.६ धूमकेतु : सं०० (सं.)। (१) राक्षस-यूथप, विशेष का नाम । मा० १.१८० (२) पुच्छल तारा, टूट कर गिरने वाला नक्षत्र । 'धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत ।' मा० ७.६१ ख (यहाँ 'अग्नि' अर्थ अधिक संगत है)। (३) धूमध्वज=अग्नि । 'कंस बंसाटबी धूमकेतू ।' विन० ५२.७ धूमधुज : धूमध्वज । 'दनुज बन धूमधज ।' विन० ४८.३ धूमध्वज : सं०० (सं०) । जिसका ध्वज धूम है=अग्नि । 'शत्रु वन दहन इव धूमध्वज ।' विन० १०.४ धूरि : सं०स्त्री० (सं० धूलि) । धूल, रजः कण । मा० १.१७५ धुरिधानी : सं०स्त्री० (सं० धूलि+धानी=स्थान) । धूलि का प्रदेश, धूलधक्कड़, ___ रजोमय, चूरचूर । 'जातुधान धारि धूरिधानी करि डारी है।' हनु० २७ धूरी : धूरि (सं० धूली) । मा० १.३४.१ धूलि : धूरि (सं.)। गी० ५.२.२ धूसर : वि०० (सं०) । मटमले रंग का। 'धूसर धूरि भरे तन आए।' मा० १.२०३.६ धूसरित : वि० (सं०) । धूसर किया हुआ । 'धूरि धूसरित अंग ।' रा०प्र० ४.३.१ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 496 तुलसी शब्द-कोश घृत : भूकृ.पु० (सं.)। धारण किये हुए । 'धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि ।' मा० ७.३०.४ धृति : सं०स्त्री० (सं०) । धैर्य, मानसिक स्थिरता । मा० ७.११७.१४ (इस की गणना दस मानव धर्मों में प्रथम है)। घेइ : पूकृ० । ध्यान करके । 'सेइ न धेइ न सुमिरि के पद प्रीति सुधारी।' विन १४८४ धेनु : सं०स्त्री० (सं०) । दूध देने वाली गाय । 'निरखि बच्छ जिमि धेनु लवाई ।' मा० ७.६.६ (गोस्वामी जीने धेनुरि, धेनुमति आदि में इसे केवल गो-पर्याय माना है)। धेनुधूरि : सं०स्त्री० (सं० गोधूलि)। सन्ध्या का झुटपुटा, जब चर कर लौटी हुई गायों के खुर की धूल आकाश में छा जाती है। मा० १.३१२ धेनुपद : गोपद । गाय के खुर का चिन्ह । 'नाथ कृपा भवसिंधु धेनुपद सम जो जानि सिरावौं ।' विन० १४२.११ धेनुमति : सं०स्त्री० (सं० गोमती)। लखनऊ होकर बहने वाली एक नदी। मा० १.१४३ ५ धेन : धेनु । मा० १.१४६.१ धैया : धाई (सं० धाविता>प्रा० धाविया=धाइया) । दौड़ पड़ी। सुनि कल बेनु धेनु धुकि धेया।' कृ० १६ घहै : आ० भ० प्रए । दौड़ेगा । 'बिबुध समाज बिलोकन धेहै ।' गी० ५.५०.२ घेही : आ०भ०मब० । दौड़ोगे । 'ठुमक ठुमुक कब धेहौ ।' गी० १.८.३ धोइ : पूकृ० । धो कर, प्रक्षालित कर । 'कलिमल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम ___सिधावहीं।' मा० ७.१३० छं० २ धोएँ : क्रि०वि० । धोए हुए । 'बिना पग धोएँ नाथ नाव ना चढ़ाइहौं ।' कवि० २.८ धोए : (१) भूकृपु०ब० । प्रक्षालित किये । 'जिन्ह एहिं बारि न मानस धोए।' मा० १.४३.७ (२) धोएँ । धोने से । ह है कोच कोठिला धोए।' कृ० ११ धोख : सं०पू० । धोखा, छल, भूल, भ्रम । 'भाइहु लावहु धोख जनि ।' मा० २.१६१ (खेत में पशुओं से रक्षा हेतु बनायी हुई मानवाकृति को भी धोख' कहते हैं)। धोखें : कि०वि० । धोखे से, भ्रमवश । जिमि धोखें मदपान करि ।' मा० २.१४४ धोखे : धोख+ब० । तृण-मानव (दे० धोख) । 'जहां तहाँ भे अचेत खेत के से धोखें __ हैं।' गी० १ ६५.३ घोखेउ : धोखे से भी, अनजान में भी । 'धोखेउ निकसत राम ।' वैरा० ३७ धोखेहु : धोखेउ । 'सो धोखेहु न बिचार्यो।' विन० २०२.१ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 497 पोखो : धोख+कए। धोखा, भूल भटक, चूक । 'तुलसी प्रभु झूठे जीवन लगि समय न धोखो लहौं ।' गी० ३.१३.४ घोती : सं०स्त्री० । धौत वस्त्र, स्वच्छ अधोवस्त्र, जो कटि से नीचे पहना जाता है। श्वेत परिधान विशेष । मा० १.३२७.३ घोबी : सं०० (सं० धावक) । रजक । 'धोबी कैसो कूकरु न घर को न घाट को।' कवि० ७.६६ धोये : धोए। घोयो : भूक.पु०कए । प्रक्षालित किया। 'चाहत कुटिल मलहि मल धोयो।' विन० २४५.३ घोरी : (१) सं०स्त्री० (सं० धोरणी)। लगातार श्रेणी, अखण्ड पांत । 'धींग घरमध्वज धंधक धोरी।' मा० १.१२.४ (दे० द्वितीय अर्थ) । (२) वि.पु. (सं० धौरेय) । धुरीण, भारधारी। 'चलत भगति बल धीरज धोरी।' मा० २.२३४५ /घोव, धोवइ : (सं० धावति-धावु शुद्धौ>प्रा० धोवइ) आ०प्रए० । धोता है, प्रक्षालित करती है। रा०न० १४ घोवनि : सं०स्त्री०। धोने की क्रिया (मुखप्रक्षाल आदि)। 'रोवनि धोवनि अनखानि अनरसनि ।' गी० १.२१.२ घोवावई : आ०प्रब० । धुलाते हैं। 'जो पगु नाउनि धोवइ राम धोवावई हो।' रा०न० १४ घौं : अव्यय (सं० ध्र वम्>प्रा० धुवं)। (१) निश्चय ही। 'समुझि धौं जिय भामिनी ।' मा० २.५० छं० (२) भला । (प्रश्न) । 'काहे को करति रोष, देहि धौं कोने को दोष ।' कृ० ३७ (३) संभावना। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई।' मा० १.२४०.१ (४) अथवा । 'की धौं स्रवन सुनेहि नहिं मोही।' मा० ५.२१.२ घौज : सं०स्त्री० (सं० धृञ्ज-वृजि गतो) । दौड़, धावन क्रिया । 'एक करै धौंज, ____एक कहैं काढ़ी सौंज ।' कवि० ५.८ धौर : वि.पु. (सं० धौरेय) । बड़े, भारी भरकम, भारधारी। 'धरनीधर धोर धकान हले हैं।' कवि० ६.३३ धौरहर : सं०० (सं० धवलगृह>प्रा० धवलहर)। चूने से पुता हुआ विशाल प्रासाद । 'चढ़ि धौरहर बिलोकि दखिन दिसि ।' गी० ६.१७.१ धौरि : घोरी । श्रेणी। गी० ७.१८.१ घौल : धवल । श्वेत । 'बगरे सुरधेन के धौल कलोरे ।' कवि० ७.१४४ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 लुलसी शब्द कोम ध्याइबे : भक० । ध्यान करने । 'झ्याइवे को गाइबे को सेइब सुमिरिबे को। गी० २.३३.३ ध्यान : सं०० (सं.)। चित्त की अविच्छिन्न एकाग्रता। मा० १.३४ (२) योग के आठ अङ्गों में सातवां साधन-दे० धारणा । ध्यानरस : आराध्य में एकाग्र निरुद्ध चित्त की वह दशा जिसमें भक्ति के आनन्द का योग हो और उसी आनन्द में चेतना आराध्य से अखण्ड एकाकार हो जाय । 'मगन ध्यानरस दंड जुग ।' मा० १.१११ ध्याना : ध्यान । मा० ७.११३.७ ध्यानु : ध्यान+कए० । एकमात्र ध्यान साधना । 'ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें।' मा० १.२७.३ Vध्याव, ध्यावइ : (सं० ध्यायति>प्रा० धिआयइ) आ०प्रए । ध्यान करता है। ___ 'कोउ ब्रह्म निरगुन घ्याव ।' मा० ७.११३.७ ध्यावहि, हीं : आ०प्रब० । ध्यान में लाते हैं । 'जोगी.. बिमल मन जेहि घ्यावहीं।' मा० १५१ छं० ध्रुव : ध्रुव ने । 'ध्र व सगलानि जपेउ हरि नाऊँ।' मा० १.२६.५ ध्रुव : सं०० (सं.)। उत्तानपाद की बड़ी रानी सुनीति का पुत्र, जिसने विमाता के कहने से पिता द्वारा अपमानित होकर बाल्यकाल में तप किया था। मा० १.८४.४ (२) पुराणों के अनुसार उन्हीं ध्र व को अचल नक्षत्र के रूप में प्रतिष्ठा मिली। धू : ध्र व । 'सुनी न कथा प्रहलाद न धू की।' कवि० ७.८८ ध्वज : सं०पु० (सं.)। बड़ा झण्डा । मा० १.१६४.१ ।। ध्वजा : ध्वज । मा० ६.८०.५ ध्वान्त : संपु० (सं०) । अन्धकार । मा० ३ श्लो० १ ध्वान्तचर : निशाचर । 'ध्वान्तचर सलभ संहार कारी।' विन० २७.१ ध्वहौं : आ०भ० उए० (सं० धाविष्यामि>प्रा० धोइहिमि>अ० धोइहिउँ)। धोऊँगा। 'ती जननी जग में या मुख की कहाँ कालिमा ध्वहौं ।' गी० २.६२.१ न : (१) निषेधार्थक अव्यय । (२) 'नाहिन' में निश्चयार्थक अव्यय । नंचहि, हीं : नाचहिं । मा० ६.८८.७; ३.२० छं० २ नंद : सं०० (सं०) (१) गोपमुख्य जिनके कृष्ण पालित पुत्र थे। कृ० २१ (२) पुत्र । 'रघुनंद' । मा० ७.१४ छं० १० Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द कोश 499 नंदन : सं०० (सं.)। आनन्द देने वाला (१) पुत्र । 'अंजनी को नंदन प्रताप भूरि भानु सो।' हनु० ८ (२) सन्तति (गोत्रापत्य)। 'निसिचर निकर दले रघुनंदन ।' मा० १.२४.८ नंदनु : नंदन+कए । अद्वितीय पुत्र । 'दसरथ को नंदन बंदि कटैया ।' कवि० ७.५१ नंदलला : कृष्ण। कृ० १२ नंदलाल : कृष्ण । कृ० ३४ नंदिगांव : नंदिग्राम । मा० २.३२४.२ नंदिग्राम : सं०० (सं.) ! अयोध्या के समीप एक गाँव । गी० २.७९.१ नंदिनि : (सं० नन्दिनी) । पुत्री (के अर्थ में प्रयुक्त) । मा० १.३६.१३ ।। नंदीमुख : सं०० (सं० नान्दीमुख)। शुभ कर्मों में प्रथम कर्तव्य श्राद्धविशेष । __ मा० १.१६३ नः : सर्वनाम (सं.)। हमारा-री-रे । हमको। मा० ४ श्लो० १ नइ : (१) नई। नवीना। 'यह नइ रीति न राउरि होई।' मा० २.२६७.६ (२) पूकृ० (सं० नत्त्वा>प्रा० नविअ>अ० नवि) । झुक कर, नम्र होकर । 'बैंचि लेइ नइ नीचु ।' दो० ४७६ नई : नई...पर । 'नई नाव सब मातु चढ़ाई ।' मा० २.२०२.८ नई : (१) वि०स्त्री० (सं० नवा>प्रा० नई)। नवीना । 'विस्व कल कीरति नई।' मा० १.३२४ छं० ४ (२) भूकृस्त्री० (सं० नता>प्रा० नई) । झुकी। 'सोहत सकोच सील नेह नारि नई है।' गी० १.८५.३ (जिस प्रकार 'नई नारि=नववधू संकोचादि से शोभा पाती है, उसी प्रकार झुकी हुई ग्रीवा 'नारि', सुशोभित हुई)। नउनिया : नाउनि । रा०न० ८ नए : (१) वि००ब० । नवीव । 'सींचत बिरह उर अंकुर नए ।' मा० २.१७६ छं० (२) अपूर्व । 'निमिष निमिष उपजत सुख नए।' मा० ७.८.६ (३) भृकृ००ब० । झुके, नत हुए । 'सानुज भरत सप्रेम राम पायन्ह नए।' जा०म० ३० नकबानी : सं० स्त्री० । नाक से बोलने या पानी पीने की क्रिया जब कण्ठरोध की स्थिति होती है । (मुहावरा) संकट दशा (नाक चना), विकट उलझन । 'तिन रंकन को नाक सँवारत हौं आयों नकबानी।' विन० ५.३ नकीब : सं०० (अरबी-नकीब)। सेना का अग्रणी जो सावधान एवं शूर-वीर होने के साथ (स्वराष्ट्र तथा परराष्ट्र) के लोगों की पूरी जानकारी रखता हो। 'बोलत पिक नकीब ।' कृ. ३२ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 तुलसी शब्द-कोश नकुल : सं०० (सं०) । नेवला । मा० १.३०३.३ नक : सं०० (सं.)। मगर (जलजन्तु विशेष)। मा० ६.४.५ नख : सं०० (सं०) । नाखून । मा० १.१०६.७ नखत : सं०० (सं० नक्षत्र>प्रा० नक्खत्त) । तारागण । मा० १.२३६.१ (२) ज्योतिष गणना में चन्द्रमा के सत्ताईस नक्षत्र =अश्विनी आदि । नखतु : नखत+कए । सत्ताईस में से उपयुक्त शुभ नक्षत्र । 'ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू।' मा० १.३१२.६ नखन्हि : नख+संब० । नखों (से)। 'नखन्हि लिलार बिदारत भयऊ ।' मा० ६.९८.६ नखसिख : क्रि.वि. (सं० आनख-शिखम्) । नखों से शिखा पर्यन्त =सर्वाङ्ग प्रत्यङ्ग (देवों के लिए नीचे के अङ-चरण से आरम्भ करके वर्णन शिखा तक चलता है-इस क्रम के आधार पर यह शब्द बना है)। 'नख सिख निरखि राम के सोभा ।' मा० १.२३४.४ ।। नग : सं०० (सं०)। हीरा, रत्न। 'सोभा सिंधु संभव से नीके नीके नग हैं।" ___ गी० २.२७.२ (२) मुक्ता । 'निज गुन घटत न नाग-नग परखि परिहरत कोल ।' दो० ३८५ नगन : वि० (सं० नग्न ) । निर्वसन । मा० ५.११ ४ नगफंग : (दे० फंग) छली लुच्चे का फन्दा। धूर्त-जाल (सं० नग्न =निर्लज्ज, धूर्त, क्षपणक>प्रा० नग्ग>नग+फंग) । कठिन फँसाव । 'हो भले नगर्कंग परे गढ़ोवे ।' कृ० ११ (इसे 'नाग' का फन्दा भी माना जा सकता है- अजगर आदि का बन्धन ।) नगफनियाँ : सं०स्त्री०ब० । सपं-फणाकार (या ताम्बूलाकार) कर्णाभरण । 'काननि ____ नगफनियाँ ।' गी० १.३४.४ नगर : सं०० (सं०) । पुर, शहर। मा० १.३६ नगरबासिन्ह : नगरबासी+संब० । पुर-वासियों (को) । 'सकल नगर-बासिन्ह सुख दीन्हा ।' मा० १.२० ०.७ नगरी : सं०स्त्री० (सं०) । नगर । कवि० ७.१६६ नगर : नगर+कए । 'जाइ देखि आवहु नगरु । मा० १.२१८ नघुषु : नहुष>नघुष+कए। राजा नडुष । 'ससि गुरतिय गामी, नघुषु चढ़ेउ भूमि सुजान ।' मा० २.२२८ नचत : नाचत । 'किलकि सखा सब नचत मोर ज्यों ।' कृ० १६ नहि : नाहिं । 'नचहिं मोर ।' गी० २ ४७ १३ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द कोश 501 नचाइ : पूकृ० (सं० नर्तयित्वा>प्रा० नच्चाविअ>अ० नच्चावि) । नचाकर, नाच करवा कर । 'छाड़ हिं नचाइ हाहा कराइ ।' गी० ७.२२.७ नचाइहि : आ०भ०प्रए० (सं० नर्तयिष्यति>प्रा० नच्चाविहिइ)। नचाएगा-गी। ___ 'निगानांग करि नितहिं नचाइहि नाच ।' बर० २४ नचायो : नचावा+कए । नचाया । ग्वाल जुबतिन्ह सोइ नाच नचायो ।' विन० ६८.३ नचाव : नचावइ । 'जनु बर बरहि नचाव ।' मा० १.३१६ निचाव नचावइ : (सं० नर्तयति>प्रा० नच्चावइ) आ० प्रए । नचाता-ती है। 'भकुटि बिलास नचावइ ताही।' मा० १.२००.५ नचावत : वकृ०० । नचाता, नचाते । 'जात नचावत चपल तुरंगा।' मा० १.३१६.५ नचावति, ती : वकृ०स्त्री० । नचाती। 'चुटकी बजावती नचावती कौसल्या माता।' गी० १.३३.४ नचावनिहारे : वि०पू०ब० । नचाने वाले (गति देने वाले)। 'बिधि हरि संभु नचावनिहारे ।' मा० २.१२७.१ नचावहिं : आ०प्रब० (सं० नर्तयन्ति>प्रा० नच्चावंति>अ० नच्चावहिं) । नचाते हैं । 'तुरग नचावहिं कुहेर बर ।' मा० १.३०२ नचावा : (१) नचावइ । 'जो माया सब जगहि नचावा।' मा० ७.७२.१ (२) भूकृ०पु० । नचाया, स्वांग कराया। जेहिं बहुबार नचावा मोही।' मा० ७५६.६ नट : सं०० (सं०) । (१) नर्तक, अभिनेता, स्वांग करने वाला। 'नाऊ बारी भाट नट ।' मा० १.३१६ (२) संगीत में रागविशेष । 'गावत गोपाल लाल नीके राग नट हैं।' कृ० २० नटत : वकृ०० (सं० नटत्) । नृत्य करता-करते । 'कूजत बिहग नटत कल मोरा।' मा० १.२२७.६ नटनागर : नाट्य-कुशल =श्रीकृष्ण । 'जो बरी नटनागर हेरि हलाकी ।' कवि० ७.१३४ नटनि : सं०स्त्री० । नृत्यक्रिया, नर्तन । 'किलकनि नटनि चलनि चितवनि ।' गी० नटी : दे० नाक नटीं। 'नटी : सं०स्त्री० (सं०) । अभिनेत्री, नर्तकी । मा० ७.७२.२ 'नटु : नट+कए । नर्तक । अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा।' मा० २.२४१.४ नटैया : संस्त्री० । नट्टी, गला । 'ले चलिहैं भट बांधि नटैया ।' कवि० ७.५१ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी सब्दकोश नत : (१) ( न + त ) नहीं तो। 'सीता देइ मिलहु नत आवा काल तुम्हार ।' मा० ५. ५२ (२) वि०पु० (सं० ) । विनत, प्रणत, शरणागत । 'बहुते नत पाले ।" हनु० १७ नतीव : वि० (सं० ) । गर्दन झुकाये हुए । विन० २७.२ नतपाल : वि०पु० (सं०) । शरणागतों का पालनकर्ता । 'बाल ज्यों कृपाल नतपाल पालि पोसो है ।' हनु० २६ नतपालक : नतपाल । 'नतपालक पावन पनी ।' गी० ५.३६.४ 502 नतपाल : नतपाल + कए० । एकमात्र प्रणत-रक्षक । 'समरथ कृपालु नतपालु । विन० १६३.७ नतमात्र : वि० (सं० ) । केवल नमन किये हुए । विन० ४४.६ नतरु : अव्यय । नहीं तो, अन्यथा । 'नतरु जनम जग जायँ ।' मा० २.७० नति : सं० स्त्री० (सं० ) । प्रणति, नमन । 'पितु पद गहि कहि कोटि नति ।' मा० १.६५ नतु : नत (सं० ) । नहीं तो। 'न तु लं मिलु सीय चहै सुखु जो रे ।' कवि० ६.१२ नथुनियाँ : सं० स्त्री० । नथ, नथुनी, नासाभरण । गी० १.३४.३ नद : सं०पु० (सं० ) । बड़ी नदी । मा० २.६२.७ नदिहि : नदी को । 'नदिहि सिरु नावा । मा० २.२२१.४ नदीं : नदी + ब० । नदियाँ । 'सब सर सिंधु नदीं नद नाना ।' मा० २.१३८.५ नदी : सं० स्त्री० (सं० ) । सरिता । मा० १.३५.२ नदीस : सं०पु० (सं० नदीश ) । समुद्र | मा० ६.५ अरें : (सं० नानिकापुरे > प्रा० नाणिअउरेण ) ननिहाल में । ' पठए भरतु भूष ननिउरें ।' मा० २.१८.२ नपुंसक : सं०पु० (सं० ) । स्त्रीत्व तथा पुंस्त्व दोनों से रहित व्यक्ति । मा० ७.८७ क नफोरि : सं० स्त्री० ( अरबी - नफीर ) । बड़ी बाँसुरी, करनाय नाम का बाजा । 'बाहि भेरि नफरि अपारा ।' मा० ६.४१.३ नबीन, ना: वि० (सं० नवीव) । नूतन । मा० २.१६८; १.१२६.४ बने : नबीन + ब० । नये । 'काटतहीं पुनि भए नबीने ।' मा० ६.६२.११ नभ : सं०पु० (सं० नमस् ) । आकाश । मा० १.८.१ नभग : सं०पु० (सं० नभोग ) | आकाशगामी = पक्षी । मा० ७.७०.१ नभगामी : नभग । मा० ७.६४.१ नभ गिरा : आकाशवाणी । मा० ७.११४.७ भगेस : ( नभग + सं० ईश > प्रा० ईस ) । पक्षिराज = गरुड़ । मा० ७.२१ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी सबको 503: ममचर : नभगामी। (सं० नभश्चर) । पक्षी । मा० १.३.४ नमतल : सं०० (सं० नमस्त्रल)। आकाश भाग, व्योम मण्डल । 'फलंग फलांगहू तें घाटि नभतल भो।' हनु० ५ नमबानी : आकाशवाणी । मा० १.१७४.६ नभु : नभ+कए । 'धूप धूम नभु मेचक भयऊ ।' मा० १.३४७.१ नमत : (१) वकृ०० (सं० नमत्>प्रा० नमंत)। प्रगत होता-होते । 'जे न नमत हरि गुर पदमूला।' मा० १.११३.४ (२) प्रणाम करते ही। 'नमत नर्मद भुक्ति-मुक्ति-दाता।' विन० ४०.४ नमामहे : आ० उब० (सं० नमामः) । हम प्रणाम करते हैं । मा० ७.१३ छं० १-२-५ नमामि, मी : आ०उए० (सं० नमामि) । प्रणाम करता हूँ। 'राम नमामि नमामि ___ नमामी।' मा० ७.१२४.७ ममि : पूकृ० । झुकर कर, नत होकर । 'फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ ।' मा० ३.४० नमित : भूकृ०० (सं० ) । झुकाया हुआ, झुकाये हुए । 'बैठि नमित मुख सोचति सीता।' मा० २.५८.२ नमिहै : आ०भ०ए० । झुकेगा। 'नाम के प्रसाद भारु मेरी ओर नमिहै ।' कवि० ७७१ नम्र : वि० (सं०) । विनत, प्रणत (झुका हुआ), नमनशील । 'बाहिज नम्र देखि मोहि साईं। बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाई।' मा० ७.१०५.६ नय : (क) सं०पु० (सं.)। (१) पद्धति, रीति, व्यवहार (२) उचित आचार (३) दूरदर्शिता, विवेक (४) नीति, राजनीति (५) योजना (६) सिद्धान्त (७) मत, सम्मत, प्रस्थान, सम्प्रदाय (८) दार्शनिक मतवाद (6) न्याय । 'बोले बचन राम नय नागर ।' मा० २.७०.७ (ख) वि० (सं० नव) । नवीन । 'नय नगर बसाए ।' गी० २.४६.२ नयऊ : नय+कए । नया, नवीन । 'हर गिरिजा बिहार नित नयऊ ।' मा० १.१०३.६ नयन : सं०० (सं०) । नेत्र । मा० १.२.१ नयनन, नि नयनन्ह, न्हि : नयन+संब० । नेत्रों। 'निज नयनन्हि देखा चहहिं ।' मा० १८८ नयनफल : नेत्रों का परम प्रयोजन, आंख पाने की सार्थकता। 'पाइ नयन-फलु होहिं सुखारी।' मा० २.११४.३ नयनवंत : वि० (सं० नयनवत् >प्रा० नयणवंत) । नेत्रधारी । मा० २.१३६.१ नयना : नयन । मा० ३.११.२० Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504 तुलसी शब्द-कोश नयनानंद : नेत्रसुख, दर्शन लाभ का आनन्द । मा० ५.४५.२ नयनी : (समासान्त में) वि०स्त्री० । नेत्रों वाली। 'मृग नयनी ।' मा० २.११७.४ (मृग तुल्य नेत्रों वाली) नयपाल : वि०० (सं.)। नीति-रक्षक । दो० ४४२ नयवान : वि०पू० । नीतिशाली । रा०प्र० ७.७.३ नयसाली : वि० (सं० नयशालिन्) । नीतिपूर्ण । मा० २.२६७.८ नयसील, ला : (दे० नय) वि० (सं० नयशील)। नय निभाने वाला। 'जामवंत मारुति नयसीला।' मा० ६.१०६.२ नये : नए। नयो : (१) नयऊ। नवीन । 'जसु तुम्हरो नित नयो।' मा० ६.१०६ छं० (२) भूकृ००कए० (सं० नत:>प्रा० नओ>अ. नयउ)। झुका, प्रणत हुआ। बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो।' मा० ६.८४ छं० नर : सं०० (सं.)। (१) पुरुष । मा० १.३४३.८ (२) विष्णु के अवतार 'नर' जो नारायण के सहोदर कहे गये हैं। 'नर नारायण की तुम्ह दोऊ ।' मा० ४.१.८ (३) नारायण के बन्धु नर के अवतार अर्जुन-दे० नर नारि । नरक : सं०० (सं.)। यमलोक के कुम्भीपाक, रोख आदि निरय । मा० १.६.६ नरका : नरक । मा० ७.१००.४ नरकु : नरक+ कए ० । 'सरगु नरकु अपबरगु समाना ।' मा० २.१३१.७ नरकेसरी : सं०+वि०० (सं.)। (१) मनुष्यों में सिंहवत् सर्वोपरि ; वीरोत्तम । (२) नृसिंह भगवान् । 'राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल ।' मा० १.२७ नरकेहरि : नरकेसरी । 'प्रगटे नरके हरि खंभ महाँ ।' कवि० ७.८ नरदेव : राजा । गी० १.६.२२ नरनाथ : राजा । मा० १.२८६७ नरनायक : राजा। नरनायकु : नरनायक+कए० । मा० २.४२.५ नरनारि : नरनारी। (१) स्त्री-पुरुष। 'प्रनवउँ पुर नर-नारि बहोरी ।' मा० १.१६.२ (२) (दे० नर) नरावतार अर्जुन की पत्नी द्रौपदी । 'नर-नारि उघारि सभा महुँ होति ।' कवि० ७.६ नरनारी : (१) पुरुष तथा स्त्री। 'नृपहि सराहत सब नरनारी।' मा० १.२८.७ (२) द्रौपदी । 'मूपसदसि सब नृप बिलोकि, प्रभु राखु, कह्यो नर-नारी।' विन० ६३.४ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश नरनाहँ : राजा ने । 'तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए ।' मा० २.६.१ नरनाह, हा : नरनाथ ( प्रा० ) । राजा । मा० १.२४८.७ नरनाहु, हू : नरनाह + कए० । मा० २.१५२. २ ' जद्यपि नीति-निपुन नरनाहू ।' 505 मा० २.२७.७ नरपति: राजा । मा० २.२५.२ नरपसु : (सं० नरः पशुरिव = नरपशुः ) । पशु तुल्य मूढ पुरुष । 'करहु कृतारथ जन्म, होहु कत नरपसुं ।' जा०मं० ६२ नरपाल : राजा । मा० २.२६१ नरपालू : नरपाल + कए० । 'बिबरन भयउ निपट नरपालू ।' मा० २.२६.६ नरबर : श्रेष्ठ पुरुष । मा० २.७२.२ नरभूषन : पुरुषों में अलंकरण के समान प्रथम । श्रेष्ठ पुरुष । मा० १.२४१.८ नरम : वि० ( फा० नर्म ) । कोमल, मुलायम । 'करिबे कहँ कटु कठोर सुनत मधुर नरम ।' विन० १३१.२ नरराज : मनुष्यों का राजा । मा० २.१२६ छं० नरलीला : मनुष्य रूप में अवतीर्ण भगवान् की लीला । मा० ३.२४.१ नरलोफ : मर्त्यलोक, पृथ्वीलोक । 'नाक नरलोक पाताल ।' कवि० ६.४५ नरवइ : नरपति ( प्रा० ) । राजा । 'भयउ न, होइहि, है न जनक सम नरवइ ।' जा०मं० ७ नरहरि : सं०पु० (सं० ) । नृसिंह भगवान् । मा० १.१२२.८ नरहरी : नरहरि । मा० ५.४.१ नराणां : (सं० पद) मनुष्यों का की- के । मा० ७.१०८.१३ नरादरेण : ( नर + आदरेण ) मनुष्य आदर से । मा० ३.४ छं० नरु : नर+कए० । कोई मनुष्य । 'सबकी सुधरें जो करें न पूजो ।' कवि० ७.५ नरेषु : (सं० पद) मनुष्यों में । ' मतिमंद सकल- नरेषु ।' गी० ७.६.६ नरेस, सा: सं०पु० (सं० नरेश ) । राजा । मा० १.१६७; १६४.१ नरेसु, सू: नरेस + कए० । 'संकट परेउ नरेसु ।' मा० २.४०; १.१५३.२ नरों: परसों के बाद का दिन = नरसों । 'आजु कि कालि परों कि नरों ।' कवि० ७.१७६ नरो : नर + कए० (सं० नरः > प्रा० नरो) । विन० २२६.४ नर्तक : सं०पु० (सं०) । (१) नट, नचनिया नृत्यकला - कुशल । (२) भाँड़ जाति जो वेश्या और धोबी का संकरवर्ण है । 'नर्तक नृत्यसमाज ।' मा० ७.२२ (नृत्य कुशल ही नर्तक थे, रामराज्य में संकर जाति के नर्तक न थे) । नर्तकी : सं० स्त्री० (सं० ) । नटी, नृत्य करने वाली (अभिनेत्री ) । 'माया खलु नर्तकी बिचारी । मा० ७.११६.४ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 506 तुलसी शब्द-कोश नर्म : सं०पु० (सं० नर्मन्) । विनोद, विहार, सुख, रञ्जन । 1 नर्मद : वि० ० (सं० ) । सुखद, रञ्जक, आनन्दप्रद । धर्म कर्म नर्मद गुणग्रामः । मा० ३.११.१६ नल : सं०पुं० (सं०) । (१) एक वानरयूथप । मा० ५.६०.१ ( २ ) निषध देश महाभारत - प्रसिद्ध राजा का नाम । नलिन : सं०पु० (सं० ) । कमल । 'नलिन नयन भरि बारि । मा० ६.११४ ख नलिनी : सं०स्त्री० (सं० ) । कमलिनी, कमल वृक्ष या कमल पुष्प । 'कबहुं कि नलिनी करइ बिकासा । मा० ५.६.७ नलु : नल+कए० । (१) वानरयूथप विशेष । कवि० ५.२६ ( २ ) राजा नल । 'बिगत बिषाद भए पारथ नलु ।' विन० २४.३ नव : ( १ ) संख्या (सं० नवन्) । नौ । 'सात दीप नव खंड लौं ।' वैरा० ५० (२) वि० (सं० ) । नवीन । 'नव पल्लव फल सुमन सुहाए । मा० १.२२७.५ (३) नवइ । झुकता है, नम्र पड़ता है । 'डाटेहि पै नव नीच ।' मा० ५.५८ / नव नवइ : (सं० नमति > प्रा० नमइ = नवइ ) आ०प्र० । प्रणत होता है, झुकता है । 'नवे नाथ नाक को ।' हनु० १२ -- नवगुन : (१) यज्ञोपवीत के ३ x ३ = ६ सूत्र (गुण) (२) ब्राह्मण के नव-धर्म:शम, दम, तप, शौच, क्षमा, ऋजुता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता । ( गी० १८.४२) । 'नाथ एक गुन धनुष हमारें । नवगुन परम पुनीत तुम्हारें । मा० १.२८२.७ नवद्वार: नो छिद्रों (द्वारों) वाला । 'नवमी नवद्वार पुर बसि जेहिं न आपु भल कीन्ह ।' विन० २०३.१० ( अथवं ० में शरीर को नव द्वारों की अयोध्यापुरी कहा गया है— 'अष्टाचत्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या ।' और गीता में भी— 'नवद्वारे पुरे देही' आता है । नाक, कान, नेत्र, मुख, मूत्राङ्ग तथा मलत्यागाङ्ग के नव छिद्र ही इस नगर के नव द्वार हैं) । नवधा : वि०स्त्री० (सं० ) । नौ प्रकार की ( भक्ति ) | नवधा भक्ति के नौ अङ्ग हैं - सत्संग, कथाश्रवण, गुरुसेवा, गुणकीर्तन, जप, विषय -विराग, समदर्शिता, सन्तोष और निश्छल समर्पण । मा० ३.३५-३६ नवनि: सं० स्त्री० । नति, नम्रता, झुकने की क्रिया । 'नवनि नीच के अति दुखदाई ।' । मा० ३.२४.७ नवनिद्ध : नवनिधि । नवनिधि : (सं० - महापद्मश्च पद्मश्च शङ्खो मकर-कच्छपौ । मुकुन्द - कुन्दनीलाश्च खर्वश्च निधयो नव ।) 'हरषे जनु नवनिधि घर आई ।' मा० २.१३५.१ ( यहाँ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब-कोल 507 दो अर्थ हैं-(१) अपूर्व निधि या अद्भुत धनागार (२) नवसंख्यक निधियाँ महापा, पन, शङ्ख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील और खर्व ) नवनीत : सं०० (सं०) । मक्खन । नैन । 'संत हृदय नवनीत समाना।' मा० ७.१२५.७ नवनीता : नवनीत । मा० ७.१२५.८ नवम : वि०पुं० (सं०) । नौा । मा० ३.३६.५ नवमी : वि०+सं०स्त्री० (सं.)। (१) नवीं बात (२) पाख की नवीं तिथि । _ विन० २०३.१० नवरत्न : मुक्ता, माणिक्य, बिल्लोर, गोमेद, हीरा, विद्रुम (लाल मूंगा), पद्मराग, मरकत और नीलम ये क्रमशः मूल्यवान् रत्न हैं । 'मुक्ता-माणिक्य-वैदूर्य-गोमेदा वज्र-विद्रुमौ । पद्मरागो मरकतं नीलश्चेति यथाक्रमम् ।' मा० ७.२३.६ नवरस : शृङ्गार, वीर, करुण, अद्भुत, हास्य, भयानक, बीभत्स, रौद्र और शान्त । 'तो षटरस नवरस रस अनरस वै जाते सब सीठे।' विन० १६६.? नवल : वि० (सं०) । अत्यन्त नवीन, सद्यस्क । मा० १.२४८.२ नवला : वि०स्त्री० (सं०) । नवयुवती, नबेली। 'का घूघट मुख मूदहु नवला __ नारि । बर० १७ नवग्रह : सूर्य, चन्द्र, मङ्गल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु-ग्रह। विन० ६२.७ नवसत : नवसप्त । 'नवसत सँवारि सुदरि चलीं।' गी० ७.१८.४ नवसप्त : संख्या (सं.) । सोलह (षोडश शृङ्गार) । मा० १.२२२ छं० नवसात : नवसप्त । 'राजति बिन भूषन नवसात ।' गी० २.१५.३ नवहिं : (१) नौ से। . वहिं बिरोधे नहिं कल्याना ।' मा० ३ २६.३ (२) आप्रब० । झुकते हैं, नत होते हैं। 'पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ।' मा० ३.४० नवहीं : नवहिं । नत होते हैं । 'मुनि रघुबीर परसपर नवहीं।' मा० २.१०८.४ नवावहिं : आ०प्रब० (सं० नमयन्ति'>प्रा० नवावंति>अ० नवावहिं) । झुकाते हैं । _ 'प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं ।' मा० ७.३३.४ नवावौं : आ० उए० । झुका दू, झुका सकता हूं। 'का बापुरो पिनाक, मेलि गुन मंदर मेरु नवावौं ।' गी० १.८६.८ नवे : नवइ । नस : सं०स्त्री० (सं० स्नसा>प्रा० नसा>अ० नस)। स्नायु, नाड़ी। 'अस्थि सल, सरिता नस जारा।' मा० ६.१५.७ /नसा नसाइ, ई : (सं० नश्यति>प्रा० नासइ) आ०प्रए । (१) मिटता है । 'सुनि कलि कलुष नसाइ ।' मा० १.२६ ग (२) अदृश्य होता-ती है। कहत Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508 तुलसी शब्द-कोश नसाइ होइ हियँ नीकी।' मा० १.२६.४ (३) बिकार ग्रस्त हो जाता है, दूषित होता है । 'को न कुसंगति पाइ नसाई ।' मा० २.२४.८ (४) नष्ट हो, दूर हो। 'जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई ।' मा० २.५०.८ नसाइए, ये : आ०कवा०प्रए । (सं० नाश्यते>प्रा० नसावीअइ) । नष्ट किया जाय, मिटाया जाय । 'पाप रासि नसाइये ।' विन० १३६.१० नसाइहि : आ०भ०प्रए० (सं० नंक्ष्य ति>प्रा० नासिहिइ)। नष्ट होगा, बिगड़ ___ जायगा । 'काजु नसाइहि होत प्रभाता।' मा० ६.६०.५ नसाइहौं : आ० भ० उए० (सं० नाशयिष्यामि>प्रा० नसाविहिमि>अ. ___ नसाविहिउँ) । मिटाऊँगा-गी। 'डिढि मुठि निठुर नसाइहौं ।' गी० १.२१.२ ।। नसाई : (१) नसाइ । (२) पूकृ० । नष्ट होकर । 'जाइ लोक परलोकु नसाई।' मा० २.२६३.७ (३) भूकृ०स्त्री० । नष्ट कर दी। 'निकाई सो नसाई है।' कवि० ७१८१ नसाउ, ऊ : आ०-संभावना-प्रए० (सं० नश्यतु>प्रा० नासउ)। चाहे नष्ट हो जाय । 'सुकृतु सुजसु परलोकु नसाऊ। 'तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ।' मा० २.७६.४ नसाए : भूकृ००० । (सं० नाशित>प्रा० नसाविय) । नष्ट किये । 'सिय निदंक अघ ओघ नसाए ।' मा० १.१६.३ नसातो : क्रियाति०'०ए० (सं०) अनंक्ष्यत् >प्रा० नासंतो)। (यदि तो) नष्ट हो जाता। 'तुलसी राम प्रसाद सों तिहुं ताप नसातो।' विन० १५१.६ नसाना : भूकृ००ए० । नष्ट हो गया। 'स्वरथ रत परलोक नसाना ।' मा० ७.४१.४ नसानी : भूकृ०स्त्री० । (१) नष्ट हुई। 'प्रथम अबिद्या निसा नसानी ।' मा० ७.३१.३ (२) बिगड़ी । 'सुधरै सबै नसानी ।' कृ० ४६ नसायो : भूकृ०पु०कए० (सं० नाशितम् >प्रा० नसावियं>अ० नसावियउ)। नष्ट किया। 'दुखु"तुम्हइँ नसायो।' मा० ६.११०.८ नसाव नसावइ : (सं० नाशयति>प्रा० नसावइ) आ०प्रए । (१) मिटाता है । 'पाप ताप सब सूल नसावै ।' वैरा० २२ (२) अपने को मिटा है=मिट । है (नसाइ) । 'न बिपति नसावै ।' विन० १२३.३ नसावन : वि०पू० । नाशक, उच्छेपनशील । 'नाम अखिल अघपूग नसावन ।' मा० ७.६२.२ नसावनि : वि०स्त्री० । नष्ट करने वाली। 'भगति..... भवदाप नसावनि ।' मा० ७३५.१ नसावहि, हीं : आ०भ० प्रब० (सं० नाशयन्ति>प्रा० नसावंति>अ० नसावहिं) । नष्ट करते हैं । 'उभय लोक निज हाथ नसावहिं ।' मा० ७.१००.७ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश नावहि : आ०म० । तू नष्ट कर ! 'करन कलंक नसावहि ।' विन० २३७.३ नसावा : ( १ ) नसावइ । 'ममता केहि कर जस न नसावा ।' मा० ७ ७१.२ (२) भूकृ०पु० (सं० नाशित > प्रा० नसाविअ ) नष्ट किया, बिगाड़ा । 'आह दइअ मैं काह नसावा ।' मा० २.१६३.६ नसावे : नसावइ । चाहे मिटा दे, मिटा सके । 'अंधकार बरु रबिहि नसाबे । मा० 509 ७.१२२.१८ नसावौं : आ० उ० (सं० नाशयामि> प्रा० नसावमि >> अ० नसावउँ) । नष्ट करता हूं, मिटा रहा हूं । 'भेक ज्यों रटि रटि जनम नसावीं ।' विन० १४२.४ नसाहिं, हीं : आ०प्रब० (सं० नश्यन्ति > प्रा० नासंति > अ० नासह ) । नष्ट होते 1 हैं, मिट जाते हैं । 'पर संपदा बिनासि नसाहीं ।' मा० ७.१२१.१६ नसे हैं : आ०भ०प्रब | मिटेंगे । 'सकल परिताप नर्स हैं ।' गी० ५.५१.५ नसैहौं : नसाइहों । नष्ट करूँगा, मिटने दूँगा । 'अब लौं नसानी अब न नर्संहौं ।” विन० १०५.१ नस्वर : वि० (सं० नश्वर ) । विनाश-शील । 'नस्वर रूप जगत सब ।' मा० ६.७७ नह : नख ( प्रा० ) । नहछ ू : सं०पु ं० (सं० नखक्षुर, नखच्क्षुर > प्रा० नहच्छुर ) । नाखून काटने की क्रिया, प्रथम बार बालक के नख काटने के मुहूर्त का उत्सव । दे०रा०न० । नहत: वकृ-पु ं० (सं० नह्यत् > प्रा० नहंत ) । जोतता, माची या हल में बाँधता । 'सुलौं पसुपाल ईस बाँधत छोरत नहत ।' विन० १३३.३ नहते : क्रियाति०पु० ० ब ० (सं० अनक्ष्यन्>प्रा० नहंत = नहंतय ) । जोतते, हल या जुए में लगाते । ‘तौ जमघट सांसति हर हमसे बृषभ खोजि खोजि नहते । विन० ६७.४ नहरनी : सं० स्त्री० (सं० नखहरणी > प्रा० नह-हरणी ) । उपकरण, नख-कर्तनी, नाखुनगीर । रा०न० १० हा नहाइ, ई : (सं० स्नाति > प्रा० न्हाइ ) आ०प्र० । नहाता है, स्नान करता. है । 'बिमल ग्यान जल जब सो नहाई ।' मा० ७ १२२११ नाखून काटने का हाइ : (१) नहाता है । ( २ ) पूकृ० ( अ० न्हाइ ) । नहाकर, स्नान करके । 'प्रात नहाइ चले रघुराई ।' मा० २.१२४.४ ( ३ ) नहाने ( को ) । 'जो नहाइ चह एहि सर भाई ।' मा० १.३६.८ नहाई : (१) नहाइ | नहाता है । ( २ ) नहाइ । नहाकर । मा० २.२७६.६ नहाए : भूकृ०पु ं०ब० । स्नान से निवृत्त हुए ( स्नान किया) । 'आइ नहाए सि बर ।' म ० २.९३२ नहात : वकृ०पु ं० । स्नान करता ते । 'जाना मरमु नहात प्रयागा ।' मा० २.२०८.५. Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510 तुलसी शब्द-कोश नहान : भकृ. अव्यय । स्नान करने। 'प्रात नहान लाग सबु कोऊ ।' मा० २.२७३.३ नहाना : नहान । 'पाइ रजायसु चले नहाना । मा० २.२७८.८ नहानी : भूकृ० स्त्री०ब० । स्नान-निवृत्त हुईं। 'मातु नहानौं।' मा० २.१६७ नहाने : भूकृ०० ब० । स्नान निवृत्त हुए। 'सबिधि सितासित नीर नहाने ।' मा० २.२०४.४ नहारू : नाहरू । 'मारसि गाय नहारू लागी।' मा० २.३६.८ नहावा : भूकृ०० । स्नान किया। सफल सौच करि राम नहावा ।' मा० २.६४.३ नहाही : आ० प्रब० (सं० स्नान्ति>प्रा० न्हंति >अ० न्हाहिं)। स्नान करते हैं । 'एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं।' मा० १.४५.१ नहाहू : न्हाहु । 'तात जाउँ बलि बेगि नहाहू ।' मा० २.५३.१ नहि, हीं : निषेधार्थक अव्यय (सं० नहि) । नहीं । मा० १.३.२ नहि : (१) नहिं (सं०) । 'जात नहि कछु कही।' गी० ७.६.१ (२) पूकृ० (सं० नवा >प्रा० नहिअ>अ० नहि) । नह कर, हल आदि में जोत कर । 'न तु और सबै बिष बीज बए, हर हाटक कामदुहा नहि के ।' कवि० ७.३३ नहुष : सं०० (सं०) । एक पुराण प्रसिद्ध राजा जो कुछ समय के लिए इन्द्र पद पर रहा और इन्द्राणी को पाने की इच्छा से ब्राह्मणों को जोत कर पालकी पर चढ़ा और शाप.भागी बना । मा० २.६१ नहे : भूकृ००ब ० (मं० नद्ध>प्रा० नहिय) । जोते, जुए आदि में बांधे हुए। ‘रहंट नयन नित रहत नहे री।' गी० ५४६.२ नह्यो : भूकृ००कए । नहाया, स्नान किया। 'जूठनि को लालची, चहौं न दूध नह्यो हौं।' विन० २६०.३ नांक : नाक । स्वर्ग । 'नवे नाथ नाँक को ।' हनु० १२ नाँघी : नाघी । गी० ३.७.२ नाय : नाम । 'ललित लागत नाय ।' गी० ६.१४.४ ना : न (स०) । 'उदित सदा अथइहि कबहू ना।' मा० २.२०६.२ नाइ : पूकृ० । नवा कर, झुका कर । 'कहिहउँ नाइ राम पद माथा ।' मा० १.१३.६ नाइअ : आ०कवा०प्रए० । झुकाइए, नत किया जाय। 'ताहि बयरु तजि नाइअ माथा।' मा० ५.३६.५ नाइन्हि : आ०- भूकृ०+प्रब० । उन्होंने झुकाया। सिव सुमिरे मुनि सात आइ सिर नाइन्हि ।' पा०म० ७५ नाइहि : आ०भ०ए०। झुकाएगा। 'कालउ तुअ पद नाइहि सीसा ।' मा० १.१६५.२ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तलसो शब्द-कोश 511 नाइहै : (१) नाइहि । (२) मए । तू झुकाएगा। 'भलो मानिहैं रघुनाथ जोरि जो माथो नाइहै।' विन० १३५.५ नाई : क्रि०वि० (सं० न्यायेन>प्रा. नाएण>अ. नाइं)। समान । (१) जैसे । 'तन मिल्यो जलपय की नाईं।' कृ० २५ ‘सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं।' मा० १.२०८.५ (२) मानों । 'मुनि कहें चले बिकल की नाईं।' मा० १.१३६.५ नाई : (१) नाइ । झुका कर । 'सिंघासन बैठेउ सिर नाई।' मा० ६.३५.५ (२) भूक०स्त्री० । झुकायी, उँडेल दी। 'मानो मदन मोहनी मूड़ नाई हैं।' गी० १.७१.३ (३) नाईं । समानता। 'असि मन्मथ महेस की नाई।' मा० १.६०.८ नाउँ : सं०पू०कए० (सं० नाम>प्रा० नामं>अ. ना') । 'नाउँ गाउँ बूझत सकुचाहीं।' मा० २.११०.३ नाउ : (१) नाव । नोका। दो० ३५८ (२) आ० - आज्ञा-मए० । तू झुका । ___ 'परिहरि प्रपंच सब नाउ राम पद कमल माथ ।' विन० ८४.४ नाउनि : सं०स्त्री० (सं० नापिती) । नाऊ जाति की स्त्री । रा०न० १० नाऊँ : नाउँ । 'मयसुत मायाबी तेहि नाऊँ । मा० ४.६.२ नाऊ : सं०० (सं० नापित>प्रा० नाविअ)। नाई, केशकर्तक जाति विशेष । 'नाऊ बारी भाट नट ।' मा० १.३१६ नाएं : क्रि०वि० । (१) झुकाये हुए (मुद्रा में) । 'मन मुसुकाहिं रामु सिर नाएँ ।' मा० २.२८१.४ (२) झुकाने से । 'कपीसु निसिचरु अपनाए नाएँ माथ जू ।' कवि० ७ १६ (३) अवमानित किये हुए । 'निज सुदरता रति को मदु नाएँ ।' कवि० ७.४५ नाए : भूकृ.पु०ब० । झुकाये । 'आइ सबन्हि सादर सिर नाए ।' मा० १.२८७.३ नाएसि : आ०-भूक पु+प्रए । उसने झुकाया (या झुकाये)। 'जाइ कमल पद नाएसि माथा।' मा० ४.२५.७ नाक : (१) सं०पू० (सं०) । स्वर्ग । 'महि पाताल नाक जसु ब्यापा ।' मा० १.२६५.५ (२) सं०स्त्री० (सं० ना>प्रा० नक्का>अ० नक्क) । नासिका । 'नाक कान बिनु भइ बिकरारा।' मा० ३.१८ १ नाकचना : (मुहावरा) ऐसा कठिन कार्य (संकट) जैसे नाक से चने चबाना । ___'दसमुख बिबस तिलोक लोकपति बिकल बिनाए नाकचना हैं।' गी० ७.१३.७ नाकनटी : नाकनटी =स्वर्गनटी+ब० । स्वर्ग की नर्तकियां, अप्सराएँ। 'नाकनटी ___ नाचहिं करि गाना।' मा० १.३०९.४ नाकप : नाकपति (सं०) । इन्द्र । 'रॉकनि नाकप रीझि करै । कवि० ७.१५३ नाकपति : स्वर्ग-राज, इन्द्र । 'रंक नाकपति होइ।' मा० २.६२ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 तुलसी शब्द-कोश नाकपाल : नाकपति । कवि० ७.२३ नाकेस : (सं० नाकेश) इन्द्र । गी० ७.१६.१ नाग : सं०० (सं०) । (१) सपं । 'खगपति सब धरि खाए नाना नाग बरूथ ।' मा० ६.७४ क (२) हाथी । 'सजहु तुरग रथ नाग ।' मा० २.६ (३) पातालवासी जातिविशेष जिसका सिर (पुराणों में) सर्प का कहा गया है । 'देव दनुज नर नाग खग ।' मा० १.७ घ नागपास : (सं० नागपाश)। सर्प-बन्धन, मायिक सर्पबाणों का जाल । 'नागपाल बाँधेसि ले गयऊ ।' मा० ५.२०.२ मागमनि : (१) सर्प की मणि (२) गजमुक्ता । 'उर अति रुचिर नागमनि माला ।' मा० १.२१६.५ नागर : वि.पु. (सं.)। (१) नगरनिवासी। गनी गरीब ग्राम-नर नागर ।' मा० १.२८.६ (२) शिष्ट, सुसंस्कृत, सभ्य । ‘गुनसागर नागर बर बीरा।' मा० १.२४१.२ (३) कलाकुशल । 'नागर नट चितवहिं चकित हगहिं न ताल बंधान ।' मा० १.३०२ (४) दक्ष, निपुण, विवेकशील । 'बोले बचनु राम नय नागर ।' मा० २.७०.७ (५) तीव्र, क्षिप्रकारी । 'अतिनागर भवसागर सेतुः।' मा० ३.११.१४ (६) काव्य की या कथन की कोमल गुणों से सम्पन्न रीति में निपुण । 'जयति बचन रचना अति नागर ।' मा० १ २८५.३ नागरमनि : नागरों में श्रेष्ठ । 'नटनागरमनि नंदललाऊ ।' कृ० १२ नागराज : गजराज । विन० ६३.२ नागरि : नागरी । ग्वालिनि अति नागरि ।' कृ० १२ नागरिपु : (१) सर्प शत्रु =गरुड़ । (२) गजशत्रु =सिंह । 'निज कर डासि नागरिपु छाला ।' मा० १.१०६.५ नागरी : नागरी+ब० । नगर की कुशल सुन्दरियाँ । 'लोचन लाह लूटति नागरी।' जा०पं० १६ नागरी : नागर+स्त्री० (सं.)। मागा : नाग। (१) हाथी। मा० १.१०१.७ (२) सर्प । 'जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा।' मा० ६.५०.५ (३) पाताल की जाति । मा० १.१८२.११ मागे : वि.पु. (सं० नग्नक>प्रा० नग्गय) । दिगम्बर, निर्वसन (शिव) । 'नागे के आगे हैं मागने बाढ़े ।' कवि० ७.१५४ नागेन्द्र : (सं०) । गजराज, हस्तियूथप । विन० ४६.४ नागो : वि.पु०कए० (सं० नग्न:>प्रा० नग्गो)। दिगम्बर, वस्त्रहीन । 'नागो फिर, कहै मागनो देखि, न खागो कछु ।' कवि० ७.१५३ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश / नाघ, नाघइ : (सं० लङ्घयति > प्रा० लंघइ; सं० नाखयति- - नख गती > अ० नाघइ) आ०प्र० । कूद जाता है, लाँघ जाता है, फाँद सकता है । 'जो नाघइ सत जोजन सागर ।' मा० ४.२६.१ 513 नाघउँ : आ० उए० । लाँघ सकता हूं, फर्लांग जाता हूं। 'लीलहि नाघउ जलनिधि खारा ।' मा० ४.३०.८ नाघत: वक०पु० । [ लांघता, लांघते । 'नाघत भयउ पयोधि अपारा।' मा० ७.६७.३ नार्घाह : आ०प्रब० । लाँघ जाते हैं । 'नावहिं खग अनेक बारीसा ।' ६.२८.२ नाघि : पूकृ० । लांघकर । 'नाघि सिंधु एहि पारहि आवा ।' मा० ५.२८.२ नाघी : भूकृ० स्त्री० । लांघी । 'कहे कटु बचन रेख नाघी में ।' गी० ३.७.२ नाघेउ : भूकृ०पु०कए० । लाँघ गया । 'पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी ।' मा० ७. ६७.५ नाघेहु : आ० - भूकृ०पु० + मब० । तुमने लांघा । 'सोउ नहि नाघेउ असि मनुसाई ।' मा० ६.३६.२ नाच : (१) सं०पु० (सं० नृत्य > प्रा० नच्च ) । ' घेरि सकल बहु नाच नचावहिं ! | मा० ६.५.७ (२) नाचइ । 'नाच नटीइव ।' मा० ७.७२.२ // नाच, नाच : (सं० नृत्यति > प्रा० नच्चइ) आ०प्र० । नाचता-ती है । 'जह तहँ नाचइ परिहरि लाजा ।' मा० ६.२४.१ नाचत : वकृ०पु ं० (सं० नृत्यत् > प्रा० नच्चंत ) । नाचता, नाचते । 'मोरगन नाचत बारिद पेखि ।' मा० ४.१३ नाचति : वकृ०स्त्री० । नाचती, नाच रही । ' रुचिर मोर जोरी जनु नाचति । * गी० ७.१७.१४ नार्घाह : आ०प्रब० (सं० नृत्यन्ति > प्रा० नच्चति > अ० नच्चहि ) । नाचते-ती हैं । 'नकटीं नाचहि करि गाना ।' मा० १.३०६.४ नाचा : (१) नाच | नृत्य । 'जस काछिभ तस चाहिअ नाचा ।' मा० २.१२७.८ (२) नाचइ । नाचता है । 'अनुहरि तालगतिहि नटु नाचा ।' मा० २.२४१.४ (३) भूकृ०पु० । नाच उठा, नृत्य कर चला । 'सिर - भुजहीन रुंड महि नाचा । * मा० ६.१०३.२ नाचि : पूकृ० । नाच कर । 'नाचि कूदि करि लोग रिझाई ।' मा० ६.२४.२ नाची : (१) नाचि । मारु काटु धुनि बोलहिं नाची ।' मा० ६.५२.२ (२) भूकृ० स्त्री० । नृत्य कर चली । 'तिय मिस मीचु सीस पर नाची ।' मा० २.३४.५ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514 तुलसी शब्द-कोश नाचे : भूकृ००ब० । नृत्य कर उठे । 'सगुन सब नाचे ।' मा० १.३०४.३ नाचें : नाचहिं । नाच रहे हैं । 'हंडन के झुड झूमि झूमि झुकरे से नाचे ।' कवि० नाचो : नाच्यो। 'फिरि बहु नाच न नाच्यो।' विन० १६३.१ नाच्यो : भूक००कए० (सं० नृत्त:>प्रा० नच्चिओ । नाच उठा, नृत्य किया। ___ 'अब तव कालु सीस पर नाच्यो।' मा० ६.६४.७ नाज : अनाज । 'सौंघे जग जल नाज ।' दो० १४६ नाजु : नाज+कए । खाद्य पदार्थ । 'कंद मूल फल अमिय नाजु ।' गी० २.७.२ नाठी : भूक०स्त्री० (सं० नष्टा>प्रा० नट्ठा=नट्ठी) । नष्ट हो गयी । 'मूनि अति __ बिकल मोहँ मति नाठी ।' मा० १.१३५.५ नाठे : भूकृ०० (सं० नष्ट>प्रा० नट्ठ=नट्ठय) । दुष्ट, विकृत । 'जूझिबे जोगु न ठाहरु नाठे ।' कवि० ६.२८ नात : सं०० (सं० ज्ञातित्व>प्रा० णाइत्त) । सम्बन्ध, सगापा । 'होइ नात यह ओर निबाहू ।' मा० २.२४.६ नाता : नात । 'मानउँ एक भगति कर नाता।' मा० ३.३५.४ नाती : सं०० (सं० नप्त = नप्तक>प्रा० नत्तिअ) । पुत्र अथवा पुत्री का पुत्र; __ पौत्र या दौहित्र । 'उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती।' मा० ६.२०.३ नाते : नाते से, सम्बन्ध से । केहि नाते मानिऐ मिताई।' मा० ६.२१.२ नाते : नाता+ब० । 'जहं लगि नाथ नेह अरु नाते ।' मा० २.६५.३ नातो : नाता+कए । एक सम्बन्ध । 'नातो नेह जानियत ।' कवि० ७.१६६ नात्र : (सं० न+अत्र) इसमें नहीं । 'नात्र संशयं ।' मा० ३.४.२४ नाथ : सं०० (सं.)। (१) स्वामी (२) पति । मा० २.६५.३ नाथा : नाथ । मा० १.२१०.१० नाथु, थू : नाथ+कए । एकमात्र स्वामी । 'चलन चहत बन जीवन नाथ् ।' मा० २.५८.३ नाद : सं०पू० (सं०) । शब्द, ध्वनि, रव, घोष । मा० २.६२.८ नादा : नाद । मा० २.१६०.३ नादू : नाद+कए० । 'सुनि न जाइ पुर आरत नादू ।' मा० २.८१.३ नाना : अव्यय (सं.)। अनेक, बहुत, विविध । 'जलचर थलचर नभचर नाना ।' मा० १.३.४ नानाकार, रा : वि० । विविध आकारों वाले । नानाकार सिलीमुख धाए ।' मा० ६.६१.२ 'नाना आयुध नानाकारा ।' मा० ३.१८.५ नानायुध : विविध आयुध । मा० ६.४० Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 515 नान्ह : वि.पु. (सं० श्लक्ष्ण>प्रा० लण्ह =नन्ह) । सूक्ष्म, महीन । 'करषि कातिबो नान्ह ।' दो० ४६२ नाप : सं०स्त्री० । परिमाण, माप । 'नाप के भाजन भरि जलनिधि जल भो।' हनु० ७ नापे : भूक पुब० । परिमित किये । 'बल इनके पिनाक नीके नापे-जोखे हैं।' गी० १.६५.२ नामि, भी : सं०स्त्री० (सं.)। उदरस्थ गर्तविशेष । मा० १.१४७; ७.७६ नाभिकुंड : रावण की नाभि जिसके लिए प्रसिद्ध है कि भीतर अमृतकुण्ड था अतः वह मरता न था। मा० ६.१०२.५ नाम : सं०० (सं० नामन्) । (१) संज्ञा-जातिवाचक, गुणवाचक, क्रियावाचक और द्रव्यवाचक शब्द । 'सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें।' मा० १.२१.६ (२) व्यक्तिवाचक शब्द । 'समुझत सरिस नाम अरुनामी ।' मा० १.२१.१ (३) अर्थबोधक आन्तरिक शब्द=स्फोट । 'नाम रूप दुइ ईस उपाधी।' मा० १.२१.२ (४) मन्त्र शब्द । 'नाम जीह जपि जागहिं जोगी।' मा० १.२२.१ (५) सूक्ष्म शब्द या शब्दतन्मात्र जिस पर चित्त एकाग्र कर योगी मधुमती भूमिका प्राप्त करता है। 'साधक नाम जपहिं लय लाएँ ! होहिं सिद्ध अनि मादिक पाएँ ।' मा० १.२२.४ नामकरन : सं०० (सं० नामकरण) । बालक के नाम रखने का संस्कार जो जन्म से दस दिन पर होता है। मा० १.१६७.२ नामन्ह : नाम+संब० नामों। 'राम सकल नामन्ह तें अधिका।' मा० ३.४२.८ नामा : (१) नाम। 'रामचरितमानस एहि नामा ।' मा० १.३५७ (२) (समासान्त में) वि० । नाम वाला । 'भूप अनुज अरिमर्दननामा।' मा० १.१७६.३ (३) नाम वाली । 'मय तनुजा मंदोदरि नामा ।' मा० १.१७८.२ नामानी : नाम+कब० (सं० नामानि)। बहुत नाम । मा० ७.५२.३ नामिनी : वि०स्त्री० । नाम वाली, नाम धारिणी । 'बहुनामिनी ।' विन० १८.२ नामी : वि.पु । नामवाला, नामधारी, संज्ञी। 'समुझत सरिस नाम अरु नामी।' मा० १.२१.१ नामु, नामू : नाम+कए । एकमात्र नाम । 'जपहिं नामु जन आरत भारी ।' मा० १.२२.५ नामैं : नाम को, नाम ही को । 'हर से हर निहार जपें जाके नामैं ।' गी० ५.२५.२ नाय' : आo-भूकृ०+उए । मैंने झुकाया। 'देखि चरन सिरु नायउँ ।' मा० ७.११० ख नायउ : भूक००कए० । झुकाया । पुनि सिरु नायउ आइ ।' मा० ७.१० ख Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 516 तुलसी शब्द-कोश नायक : सं०० (सं.)। (१) मुख्य । 'गननायक'-१.२५७.७ (२) पदाधिकारी= प्रधान । 'दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक ।' मा० १.६०.६ (३) नेता, बड़ा, सम्मान्य । 'बिहग नायक गरुड़।' मा० १.१२० ख (४) संचालक, निर्देश, यूथप । 'पठइस किमि सबहो कर नायक ।' मा० ४.३०.२ (५) स्वामी, प्रभु । 'चराचर नायक ।' मा० ६.१०२.४ (६) प्रेमी (शृङ्गार रस का आलम्बन)। 'ऐसे तो सोचहिं न्याय-निठुर नायक-रत सलभ खग कुरंग कमल मीन ।' गी० ५.८.२ नायका : नायक । मा० ३.२० छं०३ नाये : नाए । झुकाए तिरस्कृत किये । 'राजत नयन मीन मद नाये ।' गी.. १.३२.४ नायो : नायउ । (१) झुकाया। 'आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो।' मा० ६.१०६.७ (२) उँडेल दिया । 'पावक जरत मनहं घृत नायो।' गी० ६.२.५ नारकी : वि.पु. (सं० नारकिन्, नारकीय, नारकिक)। नरक-सम्बन्धी, नरक निवासी । मा० ६.२.८; १.३३५.६ नारद : सं०० (सं०) । देवर्षि विशेष । मा० १.३.३ नारदी : सं०स्त्री० (सं०) । नारद का कर्म (नारदत्व); ज्ञानदायकत्वकर्म (नारं ज्ञानं ददातीति नारदः) । 'लखि नारद नारदी उमहि सुख भा उर।' पा०म० १७ नारा : सं०पु० (सं० नाल)। नाला, नदी के आकार का सोता । 'चहुं दिसि फिरेऊ धनुष जिमि नारा।' मा० २.१३३.२ नाराच : सं०पु० (सं.)। लोह-बाण । मा० ३.२० छं० नाराचा : नाराचा। मा० ६.६८.४ नारायन : सं०० (सं० नारायण)। (१) त्रिदेव-सृष्टिकर्ता परमात्मा विष्णु । (२) विष्णु के अवतारविशेष जो नर के भाई थे और वदरिकाश्रम में तप किया था-दे० नर । 'नर नारायन सरिस सुभ्राता।' मा० १.२०.५ नारि : नारी । (१) स्त्री। मा० १.१६.२ (२) जन्मपत्री में स्त्री का सातवा स्थान । 'दारुन बैरी मीचु के बीच बिराजति नारि ।' दो० २६८ (३) ग्रीवा । 'जिअत न नाई नारि चातक घन तजि दूसरहि ।' दो० ३०५ (४) स्त्री+ ग्रीवा । 'नेह नारि नई है।' गी० १.८५.३ नारिऊ : स्त्री भी । 'नर नारिऊ अन्रे ।' कवि० ७.१७४ नारिचरित : स्त्री का चरित्र जिसमें मौनधारण, रोदन, देव को दोष लगाना, अपने को ही दोषी बताना, मिथ्योक्ति आदि सम्मिलित हैं+आठ अवगुण भी उसी में Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 517 आते हैं-साहस, मिथ्या, चपलता, माया, भय, अविवेक, अशोन और निर्दयता (मा० ६.१६.३) । 'नारि-चरित करि ढारइ आँसू ।' मा० २.२७.७ नारिषरमु : (दे० धरम)। एकमात्र स्त्री का धर्म =पातिव्रत । 'नारि धरम ___ कुलरीति सिखाई।' मा० १.३३६.१ नारिधर्म : स्त्री का धर्म =पातिव्रत । 'नारिधर्म पति देव न दूजा।' मा० ३.५.४ नारिन्ह : नारि+संब० । स्त्रियों (ने)। 'नर नारिन्ह परिहरी निमेषे ।' मा० १.२४६.१ नारिमय : वि० (सं० नारीमय) । स्त्री-पूर्ण, स्त्रियों से परिव्याप्त । 'देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे।' मा० १.८५ छं० नारियर : सं००कए० (सं० नारिकेलम्>प्रा० नालिएरं>अ० नालिएरु) । नारियल का फल । 'टकटोरि कपि ज्यों नारियरु सिरु नाइ सब बैठत भए।' जा०म०छं० ११ नारी : नारी+ब० । स्त्रियाँ । 'मुदित असीस देहिं गुर नारी ।' मा० १.१६५.४ नारी : सं०स्त्री० (सं.)। (१) मानवी । 'सोह न बसन बिना बर नारी। मा० १.१०.४ (२) पत्नी। 'खोजइ सो कि अग्य इव नारी।' मा० १.५१.२ (३) (फा० नारी=दोजखी)=नारकी । पापी। 'ढोल गवार सूद्र पसु नारी।' मा० ५.५६.६ (यहाँ स्त्री वाला अर्थ प्रसङ्ग-प्राप्त नहीं है) । (४) दे० नारि । नारे : नारा+ब० । नाले, सोते । 'कंदर खोह नदी नद नारे।' मा० २.६२.७ नाल : सं०पु० (सं.)। डंठल, डांड़ी। 'कमल नाल ।' मा० १.२५३.८ नावे : (१) नाव में । 'तेल ना भरि नप तनु राखा ।' मा० २.१५७.१ (२) नाव पर । 'गुरहि सुनावें चढ़ाइ बहोरि ।' मा० २.२०२.८ नाव : सं०स्त्री० (सं० नो>प्रा. नावा>अ० नाव) । नौका । मा० २.१००.३ /नाव नावइ : (सं० नमयति>प्रा० नावइ) आ०प्रए० । झुकाता है, नत करता है। बार-बार नावइ पद सीसा ।' मा० ४.७.१४ । नाव: आ०उए । झुकाता हूं। 'आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ ।' मा० ७.११०.१० नावत : वकृ००। (१) झुकाता, झुकाते। 'सुर नर मुनि सब नाबत सीसा।' मा० १.५०.६ (२) उँडेलते, ढरकाते । बिगरत मन संन्यास लेत, जल नावत आम घरो सो।' विन० १७३.४ नावरि : सं०स्त्री० (सं० नौटिका>प्रा० नावडिआ>अ० नावडी नावडि)। छोटी नाव, क्रीडा-नौका । 'जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं । मा० ६.८८.६ नावहिं : आ.प्रब० (अ.) । झुकाते हैं । 'बार-बार सिर नावहिं ।' मा० ६.१०६ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश नावा : (१) नाव | 'भवसागर दृढ नावा । मा० ७.५३.३ (२) भूकृ०पु० । झुकाया । 'मैं सप्रेम मुनिपद सिरु नावा ।' मा० ७.११३.१४ नाव : नावहि । 'दुखी दिन दूरिहि तें सिर नावें ।' कवि० ७.२ नाव : 518 नावउँ । ( १ ) नत करता हूं । 'हाथ जोरि करि बिनय सबहि सिर नावौं ।' जा०मं० २ (२) उँडेल दूँ" । 'आनि सुधा सिर नावौं ।' गी० ६.८.१ नास : (१) सं०पु० (सं० नाश > प्रा० नास) । मृत्यु । ' तासु नास कल्पांत न होई ।' मा० ७.५७.१ ( २ ) निवारण, लोप । 'ब्याधि नास (३) नासइ — इ - दे० // नास । ( ४ ) आ० - प्रार्थना - मए० । तू नष्ट कर । 'आपुन नास आपने पोषे ।' गी० ५.१२.२ ( ५ ) ( समासान्त में ) नाशकर्ता । 'सत्य संकल्प सुरत्रास-नासं ।' विन० ५१.४ मा० ७.७४ क नास नास : (१) (सं० नाशयति > प्रा० नासइ) आ० प्र० । नष्ट करता ती है । 'जोग - सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अविद्या नास ।' मा० २.२६ (२) (सं० नश्यति > प्रा० नासइ) नष्ट होता है । मासह : आ०प्र० (अ० ) । नष्ट होते हैं । 'राम कृपा नासहि सब रोगा ।' मा० ७.१२२.५ नासहि : आ० - आज्ञा - मए० (सं० नाशय > प्रा० नासहि ) । तू नष्ट कर । 'जनि जल्पना करि सुजसु नासहि ।' मा० ६.६० छं० नासा : (१) नास । 'जौं लगि करौं निसाचर नासा ।' मा० ३.२४.२ (२) सं० स्त्री० (सं० ) । नासिका । 'केईं तव नासा कान निपाता । मा० ३.२२.२ (३) नासइ । नष्ट करता है । 'जिमि रबि निसि नासा । मा० १.२४.५ (४) भूकृ०पु० । नष्ट हो गया । 'उयउ भानु बिनु अम तम नासा ।' मा० १. २३६.४ (५) नष्ट कर दिया । 'पापिनि सबहिं भाँति कुल नासा ।' मा० २.१६१.६ नासिक: नासिका । नासिका : (१) सं० स्त्री० (सं० ) । (२) घ्राणेन्द्रिय । 'बास नासिका बिनु लहे ।' वैरा० ३ नासिबे : भकृ०पु० । नष्ट करने । 'जैसे तम नसिबे को चित्र के तरनि ।' विन० नाक=अङ्गविशेष | मा० ५.५४.४ १८४.१ नासी : भूकृ० स्त्री० । नष्ट हुई, मिटी । 'जनित बियोग बिपति सब नासी ।' मा० ७.६.३ नासू : नास + कए० । विनाश, अन्त । 'नाथ न होइ मोर अब नासू ।' मा० १.१६५.७ ना : नासइ । मिट सकता है। 'दुख बिनु हरि कृपा न नासँ ।' विन० ८१.४ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश नाह : नाथ ( प्रा० ) । स्वामी, पति । मा० २.१४०.३ नाहर : सं०पु० ( फा० ) । सिंह, चीता, व्याघ्र । नाहन : नाहर + संब० । व्याघ्रों । 'देखि हैं हनुमान गोमुख नाहरनि के न्याय ।' 519 विन० २२०.७ नाहरु : नाहर + कए० । अद्वितीय सिंह । कृ० १८ नाहरू : सं०पु० (सं० स्नायु-रुज् > प्रा० न्हारुअ ) । नसों में होने वाला रोग विशेष जिसमें से रक्त धारा समय-समय पर बह चलती है और उस अङ्ग की नस लम्बी बढ़ती जाती है । गोरोचन से रक्तधारा का शमन होता है ( और गोरोचन गाय के पेट से निकलता है ) । 'मारसि गाय नाहरू लागी ।' मा० २.३६.८ कुछ विद्वान् 'नाहरू' का सम्बन्ध 'नाहर' से मानकर पालित सिंह के लिए गाय मारने का भी अर्थ लेते हैं; परन्तु अधिकतर पाठ 'नहारू' मिलता है जो प्रा० 'हरू' के समीप है तथा 'नेहरुआ' का प्रयोग भी गोस्वामी जी ने इसी अर्थ में किया है । वस्तुतः सं० स्नायुरूप > प्रा० न्हाउरूअ > न्हारू > नहांरू =नाहरू से संगति अधिक योग्य है । अब नाहरू का तात्पर्य ताँत से है जो बकरे आदि के मारने से सुलभ है, तदर्थं गोवध करना जघन्य है - अल्प कार्य हेतु गोहत्या महापातक है । नाहा : नाह । मा० ६.८.८ नाहि : नहि । मा० १.६५ नाहि नाहिन : नहीं ही, कभी नहीं, कथमपि नहीं, निश्चय ही नहीं । 'नाहिन राम राज के भूखे ।' मा० २.५०.३ ( इसका अन्तिम घटक 'न' निश्चयार्थक है जो 'जाओ न, कहो न' आदि में प्रयुक्त मिलता है) । नाहि नाहिने : नाहिन । 'ज्ञान गाहक नाहिने ब्रज मधुप कृ० ५३ नाहीं : नाहि । मा० १.८.४ अनत सिधारि ।' नाहु, हू : नाह + ए० (अ० ) । स्वामी, पति । मा० २.१४५; १.६७.७ fie नि: (सं० निन्दति > प्रा० निदइ) आ०प्र० । तिरस्कृत करता है । 'सरद सुधा सदन छबिहि निर्दे बदन ।' गी० १.८२.२ निदक : (१) वि०पु० (सं० ) । निन्दा करने वाला वाले, अपवादकर्ता । 'सिय निक अघ ओघ नसाए । ' मा० १.१६.३ (२) तिरस्कार करने वाला वाले । 'सरद चंद निंदक मुख नीके ।' मा० १.२४३.२ '' निंदक : निंदक + कए । अद्वितीय निन्दाकर्ता । 'सिव साधु निदकु मंदमति ।' पा०मं० छं० ८ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 520 तुलसी शब्द-कोश निदत : वकृ०पु । निन्दा करता-करते, अभिभूत करता-करते । 'कलस मनहुं रबि ससि दुति निंदत ।' मा० ७.२७.७ निदति : वकृ०स्त्री० । निन्दा करती, दोष देती । 'निसिहि ससिहि निंदति बहु __ भांती।' मा० ६.१००.३ निदरी : निदरि । निरादर करके, अवहेलना करके । 'चलेसि मोहि निंदरी ।' मा० ५.४.२ निदहिं : आ०प्रब० । (सं० निन्दन्ति>अ० निदहि) । निन्दा करते हैं। निंदहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी।' मा० २.२७४.१ निदा : सं०स्त्री० (सं.)। गर्दा, अपवाद, तिरस्कार । मा० १.३६.४ निदित : विभूकृ० (सं०) । निन्दापात्र । 'जो निंदत निदित भयो बिदित बुद्ध अवतार ।' दो० ४६४ निदै : निदहिं । निंदै सब साधु ।' कवि० ७.१२१ निदै : निंदइ। निध : वि० (सं.)। निन्दनीय, निन्दा योग्य । विन० ५२.८ नि:कंप : वि० (सं० निष्कम्प) । अचल, स्थिर । विन० ५६.५ नि:काज : क्रि०वि० (सं० निष्कार्य) । निष्प्रयोजन, व्यर्थ । 'निःकाज राज बिहाय नृप इव सपन कारागृह पर्यो ।' विन० १३६.२ नि:काम : वि० (सं० निष्काम)। कामनारहित, फलेच्छारहित । 'भजन करहिं नि:काम ।' मा० ३.१६ नि:प्राप्य : अप्राप्य । विन० ५७.२ नि:शुभ : (सं० निशुम्भ)। शुम्भ असुर का अनुज जिसे दुर्गा ने मारा था । विन० १५.४ नि:संक : निसंक । हनु० १ नि:सरित : भूकृ० (सं० निःसृत)। उद्भूत, आविर्भूत । 'चरित सुरसरित कबि मुख्य गिरि नि:सरित ।' विन० ४४.७ ।। निःसीम : वि० (सं.)। सीमातीत, भेदरहित । विन० ५६.५ /निअरा निअराइ, ई : (सं० निकटायते>प्रा० निअडाइ) आ.प्रए । निकट आता है-आती है । तेहि कि मोह ममता निअराई।' मा० २.२७७.२ निअराइ : पूकृ० । निकट आकर । 'रहे भूमि निअराइ ।' मा० ३.४० निअराइन्हि : आ०~भूक+प्रब० । वे निकट जा पहुंचे। 'सिय नैहर जनकौर __नगर निअराइन्हि ।' जा०म० १२० । निअराई : (१) निअराइ । निकट पहुंचता है। 'एहि बिधि भरत नगर निअराई।' मा० २.१५८.३ (२) निअरानी । 'तुरतहिं पंचवटी निअराई ।' मा० ३.१२.८ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश निअराएँ: क्रि०वि० । निकट पहुंचे हुए ( स्थिति में ) । ' बरषहि जलद भूमि निअराएँ । मा० ४.१४.३ निअरान, ना : भूकृ०पु० । निकट आ पहुंचा। 'ताहि कालु निअराना ।' मा० ६.३५.६ निअरानि, नी : भूकृ०स्त्री० । निकट पहुंची । 'जाइ नगर निअरानि बरात बजावत ।' पा०मं० १०१ निअरानु : निअरान + कए । 'आइ कालु निअरानु ।' रा०प्र० ५.६.६ निराने : भूकृ०पु०ब० । निकट पहुंचे । 'आश्रम निकट जाइ निअराने ।' मा० २.२३५.१ निअराया : निअराना । निकट आ गया । 'रिष्यमूक परबत निअराया ।' मा० ४.१.१ निअरावा : निअराया । निकट पहुंच गया । 'मैं अभिमानी रबि निअरावा ।' मा० ४.२८.३ 'निश्राउ : न्याउ । 'होइहि धरम निभउ ।' रा०प्र० ६.६.२ निकंद : सं०पु० । निर्मूलन, विनाश । 'खल बूंद निकंद महाकुसलं ।' मा० ६.१११.१० निकंदन : वि०पु० । निर्मूलनकर्ता, विनाशक । 'नामु सकल कलि कलुष निकंदन ।' मा० १.२४.८ निकंदय : आ० - प्रार्थना - मए ० (सं० ) । तु निर्मूल कर । ' रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं । मा० ७.१४.२० निकंदिनि, नी : वि०स्त्री० । निर्मूल-कारिणी । 'असुर सेन सम नरक निकंदिनि ।' 521 मा० १.३१.६ निकट : (१) क्रि०वि० (सं० ) । समीप में । 'एहि सर निकट न आव आभागा ।' मा० १.३८.३ (२) वि० । समीपस्थ | निकर : सं०पु (सं० ) । समूह | मा० १.२४.८ निकरन्हि : निकर + संब० । समूहों (ने) । 'राम- सर निकरन्हि हए ।' मा० ६.८८ छं० निकर्यो : भूकृ०पु०कए० । निकला । 'नरक निदरि निकर्यो हौं ।' विन० २६७.२ निकसत : वकृ०पु० (सं० निष्कसत् > प्रा० निक्कसंत ) । (१) निकलता-ते । 'धोखेउ निकसत राम ।' वैरा० ३७ (२) निकलते ही । 'सबै सुमन बिकसत रबि निकसत ।' गी० १.१.१० निकसह : आ० प्रब० (सं० निष्कसन्ति > प्रा० निक्कसंति > अ० निक्कसहि ) । निकलते हैं । !गाँव निकट जब निकसहि जाई ।' मा० २.११४.१ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522 तुलसी शब्द-कोश निकसि : पूकृ० । निकल कर । 'निकसि बसिष्ठ द्वार भये ठाढ़े ।' मा० २.८०.१ निकसे : भूक०पु०ब० । निकले, प्रकट हुए । 'निकसे जनु जुग बिमल बिधु ।' मा० १.२३२ निका : निकाई से, भलाई में । 'राम निकाई रावरी है सबही को नीक ।' मा० १.२६ ख निकाई : (दे० नीक) सं० स्त्री० । स्वच्छता, पवित्रता, मनोहरता । 'बनइ न बरत नगर निकाई ।' मा० १.२१३.१ (२) भलाई, अच्छाई । 'भलो कियो खल को, निकाई सोनसाई है ।' कवि० ७.१८१ निकाज : वि० (सं० निष्कार्य > प्रा० निक्कज्ज ) । निकम्मा, व्यर्थ (तुच्छ) । 'निरबल निपट निकाज ।' दो० ५४४ 1 निकाम, मा: क्रि०वि० (सं० निकामम्) । (१) अत्यधिक, पर्याप्त । 'निकाम स्याम सु ंदरं ।' मा० ३.४ छं० २ (२) यथेष्ट । 'देहि केकइहि खोरि निकामा ।' मा० २.२०२.३ निकाय : सं०पु० (सं० ) । समूह, बहुत, झुंड के झुंड । 'ऐसे नर निकाय जग अहहीं ।' मा० ६.६.८ निकाया: निकाय । मा० १.१८३.४ निकाह : आ०प्रब० । निकाल देते हैं । 'कुलवंति निकार हि नारि सती । मा० ७.१०१.३ निकारि : पूकृ० । निकाल कर । मा० ६.८५ छं० नकास निकास : (सं० निष्कासयति > प्रा० निक्कासह) आ०प्र० । निकालता है । 'तेहि बहु बिधि भासइ देस निकासइ ।' मा० १.१८३ छं० निकासौं : आ० उ० । निकालूं । 'कहु केहि नृपहि निकासी देसू ।' मा० २.२६.२ निकिष्ट : वि० (सं० निकृष्ट ) । अधम, नीच ( उत्कृष्ट का विलोम ) । मा० ३.५.१४ निकेत : सं०पु० (सं०) । (१) घर, आवास । मा० २.३२० ( २ ) शरीर = जीव का भोगायतन । (३) चिन्ह, उपस्थ इन्द्रिय । परसे बिना निकेत ।' वैरा० ३ निकेता : निकेत | मा० ४.१४.६ निकेतु : निकेत + कए० । घर । 'जरत निकेतु, धावो धावो ।' कवि० ५.६ निकैया : निकाई । सुन्दरता । 'नखसिख निरखि निकैया ।' गी० १.९.२ निखंग : निषंग । गी० १.५३.२ = निगड़ : सं०पु० (सं० ) । लोहे का कड़ा या शृंखला जो कैदी को पहनाते हैं: बेड़ी । 'बाँध्यो हौं करम जड़ गरब गूढ़ निगड़ ।' विन० ७६.२ निगदित: भूकृ०पु० (सं० ) । पठित, पाठ में आया, कहा या पढ़ा गया । 'रामायणे दिगदित । मा० १ श्लोक ७ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश निगम : सं०पु० (सं० ) । वेद तथा वैदिक परम्परा के ग्रन्थः - संहिता, ब्राह्मण, उपनिषद्, आरण्यक तथा वेदाङ्ग (ज्योषित, कल्प, छन्दः, निरुक्त, व्याकरण और शिक्षा) | मा० १.१२ निगमन : निगम + संब० । निगमों (ने) । 'साखि निगमनि भने ।' विन० ५६०.२ 523 निगमागम : निगम + आगम । मा० १.६.६ निगमादि : निगम तथा पुराण एवं दर्शनशास्त्र । मा० ७.८६.१ निगमु : निगम + कए० । एकमात्र वेदप्रमाण । 'महिमा निगमु नेति कहि कहई ।' मा० १.३४१.८ निगानांग : वि० (सं० नग्नाङ्ग ? ) । दिगम्बर, पूर्णतया निर्वसन | 'निगानांग करि नितहिं नाचइहि नाच ।' बर० २४ निगूढ़ा : वि०स्त्री० (सं० ) । गुप्त, रहस्यपूर्ण ( दुरूह ) । 'समुझी नहि हरि गिरा निगूढा । मा० १.१३३.३ निगोड़ी : वि०स्त्री० । गवाँर, असभ्य, नीच । 'छलिन की छोड़ी सो निगोड़ी छोटी जाति-पांति ।' कवि० ७.१८ निग्रह: सं०पु० (सं०) । निरोध, दण्ड । 'सागर निग्रह कथा सुनाई ।' मा० ७.६७.८ वैष्णव दर्शन में निग्रह अथवा निरोध प्रतीक है । जीव संसारोन्मुख चित्तवृत्तियों का निरोध करे, एतदर्थं भगवान् अवतार-लीलाओं द्वारा निग्रह का उपदेश करते हैं । निग्रह ही लीलाओं का प्रयोजन है । सागर-निग्रह से संसार-निरोध का प्रतीकार्थ आता है जिससे अविद्यारूप रावण के विनाश का मार्ग प्रशस्त होता है । 1 निघटत : (१) घटत, चुकता, क्षीण होता । 'जिमि जलु निघटत सरदप्रकासे । मा० २.३२५.३ (२) घटते ही । 'निघटत नीर मीन गन जैसें ।' मा० २.१४७.८ निर्घाट : पूकृ० । क्षीण या अल्प हो (कर) । ' निघटि गये सुभट, सतु सब को छुट्यो ।' कवि० ६.४६ निचाइहि : निचाई = नीचता में ही, अधमाचरण से ही । 'लहइ निचाइहि नीचु ।' मा० १.५ निचाई : सं० स्त्री० (सं० नीचता > प्रा० निच्चया) । अधमता, दुष्टता । 'नीच निचाई नहि तर्ज ।' दो० ३३७ निचोद : पूकृ० (सं० निश्चोत्य > प्रा० निच्चोइअ > अ० निञ्चोइ ) । निचोड़ कर, सार निकाल कर । ' कहे बचन बिनीत प्रीति प्रतीति नीति निचोइ ।' गी० ५.५.५ निचोयो : भूकृ०पु०कए० । निचोड़ा रस निकालने का प्रयास किया । 'फिर फिरि बिकल अकास निचोयो ।' विन० २४५.३ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 524 तुलसी शब्द-कोश निचोर : सं०० (सं० निश्चोत>प्रा० निच्चोड)। निचोड़, सार, निष्कर्ष । 'धन दामिनि बरन तनु रूप के निचोर हैं।' गी० १.७३.२ निचोरि : पूकृ० । निचोड़ कर, सार निकाल कर । 'बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि ।' मा० १.१०६ निचोल : सं०पु० (सं०) । परिधान । 'नील निचोल छाल भइ ।' पा०म० ११२ निछावरि : नेवछावरि । मा० १.२६२ निज : वि० (सं०) । स्वकीय, अपना । मा० १.२.११ (२) स्व, स्वयम् । निजतंत्र : स्वतन्त्र । (जिसे अपने बाहर किसी की अपेक्षा न हो) । 'निजतंत्र श्री रघुकुलमनी ।' मा० १.५१ छं० निजात्मक : (दे० क) अपनी आत्मा के । 'ते जड़ जीव निजात्मक घाती।' मा० निजानंद : आत्मानन्द, आत्मसाक्षात्कार-सुख । मा० १.१४४.५ ।। निजु : निज+कए । स्वयम् । 'प्रीति प्रतीति निगम निजु गाई ।' मा० २.७२.५ निज : अपना ही । 'करत सुभाउ निज ।' विन० ८६.१ निठुर : वि० (सं० निष्ठुर>प्रा० निठुर) । कठोर, निर्दय, क्रूर । मा० २.६८.६ निठुरता : सं० स्त्री० (सं० निष्ठुरता) । कठोरता, क्रूरता, निर्दय व्यवहार । मा० २.२४ निठुराई : निठुरता । मा० २.४१.४ निडर : वि० (सं० निर्दर>प्रा० निडर) । निर्भय । मा० १.६५ नित : क्रि०वि० (सं० नित्य) । सदा, निरन्तर । मा० १.५६.१ निहि, हीं : नित्य ही । 'अति दीन मलीन दुखी नितहीं।' मा० ७.१४.११ निति : (१) नीति (प्रा० नित्ति)। 'बिरह बिबेक धरम निति सानी ।' मा० ६.१०६.३ (२) (नीति से, नियमतः) के लिए। 'मीन जिअन निति बारि उलीचा।' मा० २.१६१.८; १.२०६.४; ७.१२१.१६ नितु : नित+कए० । सदा । ‘राम सों सामु किएँ नितु है हितु ।' कवि० ६.२८ नित : नित्य ही । 'नाम द्वै राम के लेत नितै हौं ।' कवि० ७.१०२ नित्य : (१) क्रि०वि० । सदैव । 'राम रमेस नित्य भजामहे ।' मा० ७.१३ छं० ४ (२) शाश्वत, अविनाशी । 'जीव नित्य ।' मा० ४.११.५ (३) सं० । शौच, स्नानदि =दैनिक कार्य । 'नित्य निबहि गुरहि सिर नाए।' मा० १.२२७.१ नित्यकरम : सं०० (सं० नित्यकर्म)। अनिवार्य दैनिक क्रिया-स्नान, सन्ध्यो पासन आदि; नैमित्तिक एवं काम्य कर्मों के अतिरिक्त वे कर्म जिनका उल्लङ्घन अविहित है। मा० २.२७४.२ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश नित्यक्रिया : सं० स्त्री० (सं०) नित्यकरम । नित्यक्रिया करि गुरु पहि आए ।' मा १.२३.८ निवर, निदर : ( निरादर करना, उपेक्षा या अवहेला करना) आ०प्र० । अनादर करता-ती है । 'सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाइ ।' मा० २.२८८.८ निदरत : (१) वकृ०पु० । अनादर करता-ते । (२) क्रियाति०पु०ए० । 'अ औगुन निदरत को ।' गी० ६.१२.१-२ निदरति : वकृ० स्त्री० । अनादर करती, आदर नहीं करती । 'सुचि सुषमा...... सोमदुति निदरति ।' गी० ७.१७.११ निदह : आप्रब० । अनादर करते हैं, कम करके मानते हैं । 'नर नारि निदरहि नेहु निज ।' मा० २.२५१ छं० निदरहुं : आ० - संभावना - प्र० । चाहे अनादर करें । 'के निदरहुं के आदरहूं -- 525 सिहि स्वान सिआर ।' दो० ३८१ निर्धारि : पूकृ० । उपेक्षित कर, तृणवत् समझकर । 'सानुज निदरि निपातउँ खेता ।' मा० २.२३०.७ निदरे : भूक०पु०ब० । अनाहत किये, पिछाड़ दिये । 'निदरे कोटि कुलिस एहि छाती ।' मा० २.२००.४ निदरेसि : आ० - भूकृ०पु० + प्र० । उसने अनादर किया । 'जग जय मद निदरेसि हरु ।' पा०मं० २६ निदरौं : आ०उए० । अनादर करता हूं। 'गुन गिरिसमरत तें निदरों ।' विन० १४१.४ निदान, ना : सं०पु० (सं० निदान) । (१) मूल कारण । (२) अन्त, फल, परिणाम | 'बवै सो लवं निदान ।' वैरा० ५ 'जहाँ कुमति तहँ पति निदाना ।' मा० ५.४०.६ (३) नाश ( अन्त ) । ' देहि अगिनि जनि करहि निदाना ।' मा० ५.१२.११ निदानु, नू : निदान + कए० । (१) मूल कारण | 'तात सुनावहु मोहि निदानू ।' मा० २.५४.८ (२) अन्त, नाश । काहे करसि निदानु ।' मा० २.३६ निदेस, सा : सं०पु ं० (सं० निदेश, निर्देश ) । आज्ञा, संकेत । 'सोइ करेहु जेहि होइ निदेसा । मा० ७.५६.८ निदेसू : निदेस + कए० । निर्देश, आदेश । मा० २.३०६.२ निद्रा : सं० स्त्री० (सं० ) । सुषुप्ति । मा० १.१७०.२ निधन : सं०पुं० (सं०) । मरण | 'बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ।' मा० ५.१९.३ निधरक : वि० + क्रि०वि० । बेरोकटोक, निःशङ्क, निरातङ्क, निर्भय, बेधड़क - 'निधरक बैठि कहइ कटु बानी ।' मा० २.४१.१ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 526 तुलसी शब्द-कोश निधान : सं०पु० (सं०) । (१) आकर, खानि । 'भूतल भूरि निधान ।' मा० १.१ (२) कोष, धनागार । 'अगुन अनूपम गुन निधान सो ।' मा० १.१६.२ निधाना: निधान । मा० १.४४.२ निधानु : निधान + कए० । एकमात्र आकर या कोष । मा० २.५८; १.२७.८ निधि : सं० स्त्री० (सं०पु० ) । (१) आकर, कोष, खानि निधान । मा० ७.६७ ख (२) आश्रय - - जैसे, जलनिधि आदि (३) समुद्र । 'भव निधि तर नर बिनह प्रयासा ।' मा० ७.५५.६ (४) दे० नवनिधि | 'बिधि निधि दीन्ह लेत जनु छीने । मा० २.११८७ 1 निनारी : वि० स्त्री० | पृथक् विशिष्ट, विलक्षण | 'अवधपुरी प्रतिभुवन निनारी ।' मा० ७.८१.६ निनारे : वि०पु० ० ब० । विलक्षण, अलग, असम्पृक्त, विभक्त । 'उर बिहरत छिन छिन होत निनारे ।' कृ० ५६ निपट : क्रि०वि० । नितान्त, सीमान्त तक, अत्यन्त । 'बिबरन भयउ निपट नरपालू ।' - मा० २.२६.७ निप, हि : नितान्त ही, केवल । 'निपहि द्विज करि जानहि मोही ।' मा० १.२८३.१ 'निपटहि डाँटति निठुर ज्यों ।' कृ० १४ निपात: सं०पु० (सं० ) । पतन, विनाश । 'मन जात किरात निपात किए ।' मा० ७.१४.७ निपात: आ० ए० । मार गिराता हूं । 'सानुज निदरि निपातउँ खेता ।' मा० २.२३०.७ निपातत: वकृ०पु० । ढहाता-ते । 'रूख निपातत खात फल ।' रा०प्र० ५.५.१ निपाता : भूकृ०पु० । (१) मार गिराया । ' रथ तुरंग सारथी निपाता ।' मा० ६.६५.२ (२) काट डाला । 'जिन्ह कर नासा कान निपाता ।' मा० ६.५.६ निपाति : पूकृ० । ढहाकर, ध्वस्त करके । 'ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ।' मा० ५.१८.८ निपाते : भूकृ०पु०ब० । ढहा दिये, मार गिराये । 'जातुधान जूथप निपाते बात-जात हैं ।' कवि० ६.४१ निपुन: वि० (सं० निपुण) । (१) दक्ष, कुशल । 'परुसन लागे निपुन सुआरा ।' मा० १.६६.७ (२) विवेकशील अवसरोचित कार्य कुशल । 'बुद्धि बल निपुन कपि ।' मा० ५.१७ (३) सतर्क, सावधान । नयन निपुन रखवारे ।' कृ० ५६ ( ४ ) सार ग्राही, द्रष्टा । ' तत्त्वविचार निपुन भगवाना । मा० १.१४२.७ (५) तात्त्विक, तीव्र एवं यथार्थ । 'नेम पेम निज निपुन नबीना ।' मा० Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 527 २.२३४.३ (६) लोक-शास्त्र आदि के निरीक्षण से उचितानुचित का ज्ञाता। 'नीति निपुन सोइ परम सयाना ।' मा० ७.१२७.३ निपुनता : सं०स्त्री० (सं० निपुणता) । कौशल, दक्षता, मर्मज्ञता आदि । 'निपुनता न पर कही।' मा० १.६४ छं० निपुनाई : निपुनता। मा० ६.२४.२ निफन : वि० (सं० निष्पन्न>प्रा० निष्फन्न) । सम्पन्न (क्रि०वि०-सम्पन्न रीति ___से पूर्णतः)। 'जोते बिनु बए बिनु निफन निराए बिनु, सुकत सुखेत सुख सालि फूलि फरि गे।' गी० २.३२.२ निफल : वि. (सं० निष्फल>प्रा० निष्फल)। व्यर्थ, बेकार । 'निफल होहिं रावन सर कैसें ।' मा० ६.९१.६ निबरत : वकृ०० (सं० निवण्वत्>प्रा० निव्वरंत)। निर्वत होता, शान्ति पाता । 'काल कला कासीनाथ कहें निबरत हों।' कवि० ७.१६५ ।। निबर्यो : भूक० पु०कए० (सं० निवतः>प्रा० निव्वरिओ) । निर्वृत हुआ, शान्ति-लाभ किया । 'प्रभु सों गुदरि निबर्यो हौं ।' विन० २६६.४ निबल : वि० (सं० निर्बल>प्रा० निब्बल)। बलहीन । 'प्रभु समीप छोटे बड़े रहत निबल बलवान ।' दो० ५२७ निबह : सं०पु० (सं० निवह) । समूह, श्रेणी। 'मनहुँ उडुगन-निबह आए मिलन तम तजि द्वेषु ।' गी० ७.६.४ /निबह, निबहइ : (सं० निर्वहति>प्रा० निव्वहइ-निभना, यथावत् परिणाम तक पहुंचना, सफलता तक जाना, सम्पन्न होना, पूरा पड़ना) आ०प्रए० । निभता है, पूरा पड़ता है, सम्पन्न हो पाता है । 'सखा धरम निबहइ केहि भाती।' मा० ५.४६.५ निबहति : वक०स्त्री० । निभती, बात बन जाती, पूर्ति होती। 'रावरे निबाहे सबही की निबहति ।' विन० २४६.१ निबहते : क्रियाति.पु०ब० । तो निभ जाते ।' लक्ष्य पा जाते । 'तो. 'हम केहि __ भांति निबहते ।' विन० ९७.३ निबहहिंगे : आ०भ००प्रब० । निभेंगे, लक्ष्य या गन्तव्य तक पहुंचेंगे। 'मेरे बालक कैसे धौं मग निबहहिंगे।' गी० १.६६.१ निबहा : भूकृ०० । निभ गया, पूरा-खरा उतर गया। 'प्रेम नेम निबहा है।' __ गी० २.६४.५ निबही : भूक०स्त्री० । निभ गई, पूरी पड़ गयी । 'राम रुख लखि सबकी निबही ।' गी० ७.३७.२ निबहे : भूक००ब० । निभे, पूर्ति पा गये । 'कैसे निबहे हैं, निबहैंगे।' गी० २.३४.३ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528 तुलसी शब्द कोश निबगे : निबहहिंगे । गी० २.३४.३ निब है: निबहइ । निभ जाय । 'निब है सब भाँति सनेह सगाई ।' कवि० ७.५८ निब है : आ०भ०पु०प्र० । निभेगा, लक्ष्य प्राप्त करेगा । 'तुलसी पे नाथ के निबाहेई बिगो ।' विन० २५६.४ निबहगो : आ०भ०पु० उ० । निभ जाऊँगा, पार पा जाऊँगा, अन्त तक पहुंच जाऊंगा । 'अवधि लौं बचन पालि निबहोंगो ।' गी० २.७७.३ निबो : भूक०पु०कए० । निभ गया, पूरा पड़ा । 'कछु न काज निबह्यो है ।' गी० ४.२.२ निबाह : सं०पु० (सं० निर्वाह > प्रा० निव्वाह ) । निभाव, परिणाम पर्यन्त कार्य पित्त । 'बिधि बस होइ निबाह ।' रा०प्र० ३.७.४ (२) योगक्षेम, गुजारा । ( ३ ) दे० निबाहु | / निबाह निबाहs : (सं० निर्वाहयति > प्रा० निव्वाहइ = / निबह + प्रेरणा ) | आ०प्रए० । सम्पन्न करता है, परिणाम तक पहुंचता है । पूरा करता है | निबाहत : वकृ०पु० । निर्वाह करता ते; पूर्णता देता ते । 'स्वातिहू निदरि निबाहत नेम ।' दो० २८६ निबाहनिहारा : वि०पु० । निभाने वाला, छोर तक यथावत पहुंचाने वाला । 'सील सनेहु निबाहनिहारा ।' मा० २.२४.२ निबाहब : भूकृ०पु० । निभाना, परिणाम तक पहुंचाना । 'नेह निबाहब नीका । दो०४ ६६ निबाहा: भूकृ०पु० (सं० निर्वाहित > प्रा० निव्वाहिअ ) । निभाया, अन्त तक उचित रीति से पहुंचाया। 'जेहिं तनु परिहरि प्रेमु निबाहा । मा० २.१७१.६ निबाहि: पूकृ० (सं० निर्वा> प्रा० निव्वाहिअ >> अ० निव्वाहि ) | पूरा करके, सम्पन्न करके । 'नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए ।' मा० १.२२७.१ निबाहिए : आ०कवा०प्रए । निभाया जाए, अन्त तक पूर्ण किया जाए । 'तेहि नातें नेह ने निज ओर तें निबाहिए ।' कवि० ७.७६ निबाहिब : भकृ०पु० (सं० निर्वाहयितव्य > प्रा० निव्वाहिअव्व ) । निर्वाह करना । 'हँ तहँ राम निबाहिब नाथ सनेहु ।' बर० ६६ निबाहिबे : निबाहिब ( का रूपान्तर ) ( प्रा० निव्वाहिअव्वय) । निर्वाह करने, पूर्ति देने । 'अपनी निबाहिबे नृप की निरबही है ।' गी० २.४१.३ निबाहीं : भूकृ ० स्त्री०ब० । निभा दीं, पूर्ण कर दीं। 'प्रभु प्रसाद सिवँ सबइ निबाहीं ।' मा० २.४.४ निबाही : (१) भूकृ० स्त्री० । पूर्ण की। ' नाम के प्रताप बाप आजु लौं निबाही नीकेँ ।' कवि० ७.८० (२) निबाहि । चुकता करके, पूरा कर । 'आजु बरु सब लेउँ निबाही ।' मा० ६.६०.७ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 529 तुलसी शब्द-कोश निबाह, हू : ( क ) निबाह + कए ० । (१) सफलता, कार्य की पूर्ति । 'हाँकि न होइ निबाहु ।' मा० १.१५६ (२) पहुंच, गति । 'जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू ।' मा० १.१५७.५ ( ३ ) निस्तार, सत्परिणाम तक पहुंच । 'उघरहिं अन्त न होइ निबाहू ।' मा० १.७.६ (४) परिणाम तक यथावत् चलना । 'होइनात यह ओर निबाहू ।' मा० २.२४.६ ( ख ) आ० - आज्ञा – मए ०। तू निभा । 'राम नाम पर तुलसी नेम निबाहु ।' बर० ५७ निबाहें : निभाने से, परिणाम पर्यन्त पूर्णता देने से । 'कनकहि बान चढ़इ जिमि - दा । तिमि प्रियतम पद नेम निबाहें ।' मा० २. २०५.५ 1 निबाहे : निबाहें । 'प्रेम नेम के निबाहे चातक सराहिए ।' विन० १७८.२ (२) भूकृ०पु०ब० । निर्वाह किए। 'रावरे निबाहे सबही की निबहति ।' विन० २४६.१ निबाहेई : निभाने से ही । 'तुलसी पै नाथ के निबाहेई निब हैगो ।' बिन० २५६.४ निबाहेउ : भूक०पु०कए० । पूरा कर दिया । 'कोउ कह नृपति निबाहेउ नेहू ।' मा० २.२०२.५ निबाहु : आ० - भ० + आशा + मब० । तुम पूरा करना । 'ओर निबाहेहु भायप भाई ।' मा० २.१५२.५ निबाहैं : (१) आ०प्रब० । निभाते हैं, पूर्ति देते हैं । 'भरत' • बुधिबल बचन निबाहैं ।' गी० २.७३.१ ( २ ) निबाहें । 'तुलसी हित अपनो अपनी दिसि अबिचल नेम निबाहैं ।' विन० ६५.५ निब है: निबाहइ | पूरा कर दे। 'जौं बिधि कुसल निबाहै काजू ।' मा० २.१०.३ निबाह्यो : निबाहेउ । 'सिला साप समन निबाह्यो नेहु कोल को ।' कवि० ७.१५ निबिड़ : वि० (सं० ) । सघन, गहन, निश्छिद्र । 'कबहुं दिवस महुं निबड़ तम । ' मा० ४.१५ ख निबुकि: पूकृ० । उछल कर, फलाँग लगा कर । 'निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं ।" मा० ५.२५.६ निबृत्त : भूकृ०वि० (सं० निवृत्त ) । समाप्त | 'तम निबृत्त नहि होई ।' विन० १२३.२ निवृत्ति: सं० स्त्री० (सं० निवृत्ति) । विषय- वैराग्य, निग्रह, त्याग | मा० ७.११७.१२ निबेदित: भूकृ०वि० (सं० निवेदित) । नैवेध रूप में अर्पित । मा० २.१२६.२ निबेरि, री : पूक० । समाप्त कर हटा कर । 'गृह आनहिं चेरि निबेरि गती ।' मा० ७.१०१.३ निबेरी : भूकृ० स्त्री०ब० । पूर्ण कीं । 'नेग सहित सब रीति बेनिरीं ।' मा० १.३२५.७ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 530 निबेरी : निबेरि । मा० २.६४.८ निबेरें: निवृत्त करने से । 'तुलसिदास यह बिपति बागुरी तुम्हहि सो बनै निबेरें ।' विन० १८७.५ निबेरो: भूकृ०पु०कए० । (१) समाप्त कर दिया । 'एकहि बार आजु बिधि मेरो सील सनेह निबेरो ।' गी० २.७३ . २ ( २ ) निबटाया । 'स्वान को प्रभु न्याव निबेरो ।' विन० १४६.५ निबेही : वि० (सं० निर्वेधित > प्रा० निव्वेहिअ ) । अनाविद्ध = बिना छेद किया हुआ; अछूता, असंपृक्त । 'कोउ न मान मद तजेउ निबेही ।' मा० ७.७१.१ निभ: वि० (सं० ) । तुल्य, सदृश । हिमगिरि निभ तनु ।' मा० ६५३.१ निमज्जत: वकृ०पु० । (१) डुबकी लेता । मा० २. ३१०.८ ( २ ) डूबता हुआ । 'सोक समुद्र निमज्जत कपीसु ।' कवि० ७.४ निमज्जन : सं०पु० (सं० ) । डुबकी ( स्नान ) । मा० २.३१२.६ निमज्जनु : निमज्जन + कए० । ' कीन्ह निमज्जनु तीरथ राजा ।' मा० २.२१६.१ निमज्जहि : आ०प्र० ( अ० ) । डुबकी लेते हैं । मा० २.२२४.२ निमि: सीता-पिता के पूर्वज का नाम जिनकी मृत्यु वसिष्ठ के शाप से हुई । देवताओं ने उन्हें पलकों पर निवास का वरदान दिया था अतएव उनको पलकों के झपकने का कारण माना गया है— देवों की पलकों पर निमि का निवास नहीं है । अत: एकटक नेत्रों के लिए उत्पेक्षा की जाती है कि निमि ने आसन छोड़ दिया - दूर चले गये । 'भए बिलोचन चारु अचंचल | मनहुं सकुचि निमि तजे दिगंचल ।' मा० १.२३०.४ 'निरखहि नारि निकर बिदेहपुर निमि नृप के मरजाद मिटाई । गी० १.१०८.६ निमिराज : निमिवंशज राजा = जनकराज । कवि० १.८ निमिराजु निमिराज + कए । जनकराज = सीरध्वज – सीताजी के पिता । मा० = २.२७७ निमिष : सं०पु० (सं०) । (१) आँखों का झपकना, पलकों के उठने - गिरने की क्रिया == निमेष । ( २ ) पलक झपकाने का समय भाग = पल ( जिसमें चार क्षण होते हैं) । 'निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं । मा० १.३३०.१ 'निमिष विहात कलप सम तेही ।' मा० १.२६१.१ निमेष : निमिष (सं० ) । (१) पलक झपकने की क्रिया । 'सनमुख चितवहि राम तन नयन निमेष निवारि ।' मा० ६.११८ ग ( २ ) पल का समय । 'अरध निमेष कलप सम जाहीं । ' मा० १.२७०.८ ( ३ ) पलक । निमेषनि: निमेष + संब० । पलकों । 'नयन निमेषनि ज्यों जोगवैं ।' गी०१.६६.३ निमेषें, बैं: निमेष + ब० । झपकियाँ | पलकन्हिहूं परिहरीं निमेषें ।' मा० १.२३२.५ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश नियंता : वि०पु० (सं० नियन्तृ ) । नियमन करने वाला, संचालक ( सारथी ), नियति का प्रेरक । विन० ५५.६ 531 नियत : वि० (सं०) । (१) नियमानुसार निश्चित, अवश्य ( २ ) नियति द्वारा निर्धारित । 'तहँ तहँ तू विषय सुखहि चहत लहत नियत ।' विन० १३२.२ नियम : सं०पु० (सं०) । (१) नियमन, नियन्त्रण, (२) प्रतिबन्ध, निषेध (३) सीमा, मर्यादा; (४) विधान ( ५ ) निश्चय ( ६ ) आत्म नियन्त्रण, व्रत, निष्ठा । 'जप तप नियम जोग निज धर्मा ।' मा० ७.४६.१ (७) अष्टाङ्गयोग का द्वितीय साधन जिसमें शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान की गणना है । 'सम दम संजम नियम उपासा ।' मा० २.३२५.४ नियराइन्हि: निअराइन्हि । नियरानु : निअरानु । नियरे : क्रि०वि० (सं० निकटे > प्रा० नियड़े ) । समीप में । 'मनु रहे नित नियरे ।' गी० १.४३.१ नियोग: सं०पु० (सं०) । (१) विधि, विधान । 'निगम नियोग तें सो केलि ही छरो सो है ।' कवि० ७.८४ ( २ ) आदेश, अनुज्ञा, नियुक्ति । नियोगा : नियोग | 'मागि मातु गुर सचिव नियोगा । मा० २.२३३.५ नियोग : नियोग + कए० । 'पुरजन पाइ मुनीस नियोगू ।' मा० २.२४५.८ निरंकुस : वि० (सं० निरंकुश ) । मर्यादाहीन, स्वेच्छाचारी ( अङकुशरहित मत्त हाथी के समान स्वच्छन्द), मनचाहा करने वाला । मा० २.११६.३ निरंजन : वि० (सं० ) । अञ्जनरहित । (१) निष्कलुष, निष्कलङ्क । (२) माया हीन, सत्य स्वरूप, निरुपेक्ष (ब्रह्म) । मा० १.१६८ निरंतर : वि० + क्रि०वि० (सं० ) । अन्तर- रहित, अखण्ड, अविरत, सन्तत, धारा प्रवाहतुल्य । 'उर अभिलाष निरंतर होई ।' मा० १.१४४.३ निरंबु : वि० (सं० ) । निर्जल ( जलरहित उपवास ) । 'ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा । मा० २.२४७.८ निरखति: आ०प्रब० (सं० निरीक्षन्ते > प्रा० निरिक्खति ) । देखते हैं । मा० ७.१२ छं० २ निरख, निरखइ : (सं० निरीक्षते > प्रा० निरिक्खइ - भली प्रकार देखना, ताकना, निहारना) आ०प्र० । देखता है । 'राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहि चोराइ ।' मा० ७.२७ निरखत: वकृ०पु० 1 देखता, देखते; निहारता ते । 'चलेउ निरखत भुज बीसा । ' मा० ६.१०.६ निरखति: वकृ० स्त्री० । देखती, बार-बार निहारती । 'जननी निरखति बान धनुहियाँ ।' गी० २.५२.१ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 532 तुलसी शब्द-कोश निरखनिहारु : वि०पु०कए० । देखने वाला । सुख लहत निरखनिहारु ।' गी० ७.८.५ निरहिं : आ०प्रब० (सं० निरीक्षन्ते>प्रा० निरिक्खंति>अ. निरिक्खहिं) । देखते-ती हैं। 'निरखहिं छबि जननी तृन तोरी।' मा० १.१६८.५ निरखहु : आ०मब० । देखो । 'निरखहु तजि पलक ।' गी० ७.७.६ निरखि : (१) पूकृ० । देख कर । 'बिगसत भई निरखि राम राकेस ।' मा० ७.६ क (२) आ० - आज्ञा-मए । तू देख । 'सखि नीके के निरखि कोऊ सुठि सुन्दर बटोही ।' गी० २.१६.१ निरखिहनु : आ०भ० उए । देखूगा । 'हरषि निरखिहनु गात ।' मा० २.६८ निरखु : आ०-आज्ञा-मए । तू देख ले । 'हर-गिरि मथन निरखु मम बाहू ।' मा० ६.२८.८ निरखे : भूकृ००ब० । देखे । 'निरखे नहीं अघाइ।' मा० २.२०६ निरगन : निर्गुन । (१) मायागुण रहित । मा० १.२३ (२) उत्तम विशेषताओं से हीन । 'निलज नीच निरधन निरगुन ।' विन० १५३.१ निरगुनी : निरगुन । कौशल आदि से रहित । 'पंगु अंध निरगुनी निसंबल ।' गी० ५.४२.२ निच्छर : वि० (सं० निरक्षर)। अक्षर-ज्ञान-रहित, अशिक्षित । 'बिप्र निरच्छर लोलुप कामी।' मा० ७.१००.८ निरजोसु : सं०० (सं० निष) कए० । (१) निष्कर्ष, निचोड़, सार, स्वरस (तात्पर्य)। 'यह निरजोसु, दोसु लिधि बामहि ।' मा० २.२०१.८ (२) परिणाम । ‘मोदमंगल मूल अति अनुकूल निज निरजोसु ।' विन० १५६.५ निरझर : निर्झर । मा० २.१३६.७ निरत : वि० (सं०) । सत्पर, तल्लीन, परायण (नितान्त रत) । धर्म निरत पंडित बिग्यानी ।' मा० ७.१२४.३ निरदय : निर्दय । मा० २.१७३.३ निरदहन : वि०० (सं० निर्दहन)। पूर्णत: जला डालने वाला। 'गहन दहन निरदहन लंक ।' हनु० १ निरदह्यो : भूक०पु०कए । सर्वथा जला डाला । 'कोन क्रोध निरदह्यो।' कवि० ७.११७ निरधन : निर्धन । विन० ३७.४ निरनउ : निरनय (निर्नय)+कए । एक निश्चित मत । 'चलत प्रात लखि निरनउ नीके ।' मा० २.१८५.२ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 533 निरपने : (१) (अपने का विलोम ) । अनात्मीय । 'ठाउँ न समाउँ कहाँ, सकल निरपने ।' कवि० ७.७८ ( २ ) सम्बन्धहीन । 'हरि निर्गुन निर्लेप निरपने ।' कृ० ३८ निरपेक्ष : वि० (सं० ) । अपेक्षा - रहित, उदासीन; जिसका बोध सापेक्षता में न हो स्वसंवेदनसिद्ध; अन्यावलम्बरहित, स्वतन्त्र, पूर्ण । विन० ५७.४ निरबल : निबल (सं० निर्बल) । दो० ५४४ निरबहनि : सं० स्त्री० । निबहने की क्रिया निबाह । 'दिन दिन पन प्रेम नेम निरुपधि निरबहनि ।' गी० २.८१.२ निरबहा : भूकृ०पु० । (१) निभ गया, परिणाम तक सम्पन्न हुआ । ( २ ) समाप्त हो गया, निकल गया । ' कहतेउं तोहि समय निरबहा ।' मा० ६.६३.६ निरबही : निब ही । 'प्रीति परमिति निरबही है ।' कृ० ४२ निरबहौं : आ०उए० । निभ रहा हूं, निर्वाह करता चलता हूं, काम चला रहा हूं । 'राम निबाहे निरबहौं ।' विन० २२२.५ निरबह्यो : भूकृ०पु०कए० । निभ गया, निर्वाह कर ले गया । ' अपनो सो नाथहू कहि निरबह्यो हौं ।' विन० २६०.४ निरबान : निर्वाण । मोक्ष । 'गति न चहउँ निरबान ।' मा० २.२०४ निरबाहा : निबाहा । 'तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा ।' मा० १.७६.६ निरबाहु : निबाहु । (१) गुजरबसर, योगक्षेम की पूर्ति । 'समय सरिस निरबाहु ।' रा०प्र० ७.५.१ (२) निष्पत्ति, कार्यपूर्ति । 'प्रीति रीति निरबाहु ।' विन० १६३.५ ➖➖ निरबिकार : निर्बिकार । विन० १३६.२ निरमय : निर्भय । दो० ४६७ 1 निरमई : : भूकृ०स्त्री० । निर्मित की, रची, बनायी ।' 'कन्या, फल कीरति बिजय ... निरमई है ।' गी० १.८६.४ निरमत्सर : वि० (सं० निर्मत्सर) । मत्सर-हीन, ईर्ष्यारहित । विन० ११८.४ निरमयउ, ऊ : भूकृ०पु०कए० । रचा, बनाया । 'रामायन जेहिं निरमयउ ।' मा ० १.१४ घ 'नज मायाँ बसंतु निरमयऊ ।' मा० १.१२६.१ निरमये : भूकृ०पु०ब० । रचे, बनाये । 'जानियत आयु भरि येई निरमये हैं ।' गी० १.११.३ निरमल : निर्मल । (१) निष्कलुष । 'निरमल मति पावउँ ।' मा० १.१८.८ (२) धूलि आदि से रहित । 'निरमल नीरा ।' मा० १.१४३.५ निरमानु : सं०पु० (सं० निर्माण ) + कए० । रचना । 'बिरंचि बुद्धि को बिलासु लंक निरमानु भो ।' कवि० ५.३२ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 534 निरमित : निर्मित । गी० ७.७.२ निरमूल : निर्मूल । विन० १२२.५ निरमूलिनी : वि०स्त्री० (सं० निर्मूलिनी) । मूलहीन करने वाली, उखाड़ बहाने ... निरमूलिनी काम की । वाली, विनाशकारिणी । 'आरती राम की" विन० ४८.१ निरमोह, हा : वि० (सं० निर्मोह) । मोहरहित, अज्ञानमुक्त । 'निर्मम निराकार निरमोहा । मा० ७.७२.६ तुलसी शब्द-कोश *****. निरमोहियन : (सं० निर्मोहिनाम् ) । मोहममता-रहितों, निर्ममों । 'ऊधो प्रीति करि निरमोहियन सों को न भयो दुख-दीन ।' कृ० ५५ निरय : सं०पु ं० (सं०) । नरक ( दुर्गति ) । ' जा ते निरय निकाय निरंतर ।' विन० १६६.३ निरलज्ज : निलज । विन० २७६.४ निरलेप : निर्लेप | मा० २.३१७.८ निरवधि : वि० (सं० ) । अवधि रहित । ( १ ) असंख्य, अनन्त । 'निरवधि गुन निरुपम पुरुष ।' मा० २.२८८ ( २ ) असीम, अमित । निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा ।' मा० ७.६२.८ निरस : वि० (सं० नीरस ) । रसहीन । ( १ ) शुष्क ( वासना हीन ) । 'साधु चरित सुभ चरित कपासू । निरस बिसद गुनमय फल जासू ।' मा० १.२.५. ( २ ) वासनाहीन । 'जिति पवन, मन गो निरस करि । मा० ४.१० छं० १ निरस्य : पूकृ० (सं० ) । परिहार करके, निवारण करके, परे हटाकर । मा० ३.४.१६ निराई : पूकृ० । सस्य को तृणहीन करके ( प्रतिकूल तत्त्वों को हटाकर ) । 'सुख सससुर सींचत देत निराई के ।' गी० ५.२८.६ निराए : भूकृ०पु० । तृणहीन किये ( घास हटाये ) । ' जोते बिनु बोए बिनु निफन निराए बिनु ।' गी० २.३२.२ निराकार: वि० (सं० ) । आकारहीन, रूपहीन, अमूर्त | मा० ७.७२.६ निराचार : वि० (सं० ) । आचार धर्म से हीन, अनाचारी । 'निराचार सठ बृषलीस्वामी ।' मा० ७.१००.८ निरादर : (१) सं०पु० (सं० ) । अनादर, अवज्ञा, उपेक्षा । 'भवदंघ्रि निरादर के फल ए ।' मा० ७.१४•ε ( २ ) वि० (सं० ) । उपेक्षित । 'रज मग परी निरादर रहई ।' मा० ७.१०६.११ निरादरु : निरादर + कए० । अपमान । 'उचित न तासु निरादरु कीन्हे |' मा० २.४३.६ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 535 निराधार : वि० (सं०) । आश्रयहीन, आधारहीन, बेसहारा । विन० ६६.४ निरापने : निरपने । पराये । 'सब दुख आपने, निरापने सकल सुख ।' कवि० ७.१२४ निरामय : वि० (सं.)। आमय =व्याधि से रहित, निर्विकार, अपरिणामी । 'नमामि ब्रह्म निरामयं ।' मा० ६.१०४ छं० निरामिष : वि० (सं.) । मांस भोजनरहित । 'होहिं निरामिष कबहुं कि कागा।' मा० १.५.२ निरारी : वि०स्त्री० । निराली, अनोखी। 'तुलसी पर तेरी कृपा निरुपाधि निरारी।' ___विन० ३४.५ निरावहिं : (१) आप्रब० । निराते हैं, सस्य को तृणहीन करते हैं । 'कृषी निरावहिं चतुर किसाना।' मा० ४.१५.८ (२) उखाड़ फेंकते हैं । 'नीच निरावहिं निरस तरु।' दो० ३७७ निरास : (१) वि० (सं० निराश)। आशाहीन, हताश । 'भा निरास उपजी मन त्रासा।' मा० ३.२.३ (२) सं०० (नैराश्य)। आशाहीनता। 'बसि कुसंग यह सुजनता ताकी आस निरास ।' दो० ३६२ निरासा : निरास । 'भे सुर सुरपति निपट निरासा ।' मा० २.२६५.४ निरीस : वि० (सं० निरीश) । ईश्वर को न मानने वाला, किसी को स्वामी न मानने वाला । 'नीच निसील निरीस निसंकी।' मा० २.२६६.२ निरीह : वि० (सं०) । ईहा=इच्छा से रहित, निरपेक्ष, उदासीन । 'ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी।' मा० ७.७२.७ निरुअरई : आ.प्रए । खुलती है, सुलझती है । 'तबहुं कदाचित सो निरुअरई ।' मा० ७.११७.८ /निरुआर निरुआरइ : आ०प्रए । खोलता है, सुलझाता है। निरुआरा : निरुआरइ । 'तब सोइ बुद्धि ग्रंथि निरुआरा।' मा० ७.११८.४ । निरुपारे : भूकृ००ब० । 'सुलझाए। 'निज कर जटा राम निरुआरे ।' मा० ७.११.४ निरुज : वि० (सं० नीरुज) । नीरोग, स्वस्थ । कवि० ७.१६६ निरुत्तर : वि० (सं.)। जिसके पास उत्तर न हो; जो उत्तर न दे सके । दो० १५७ निरुपधि : वि० (सं.)। आवरणहीन, निर्व्याज, अहेतुक, निश्छल । 'हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के ।' मा० १.१५.४ निरुपम : वि० (सं०) । उपमा-रहित, अतुलनीय, अनुपम, अप्रतिम । मा० २.२८८ निरुपाधि, धी : वि० (सं०) । उपाधिरहित । (१) निर्विशेष, अनवच्छिन्न, जगत् की विविधताओं में अनुस्यूत रहकर भी अखण्ड, असीम । 'राम भगति निरुपम निरुपाधी।' मा० ७.११६.६ (२) निर्व्याज, निश्छल । 'दीनबंधु दया कीन्ही Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 536 तुलसी शब्द-कोश निरुपाधि न्यारिये ।' हनु० २१ (३) निर्विघ्न । 'राम नाम जपु तुलसी नित निरुपाधि ।' बर० ४८ निरूपउँ : आ० उए । निरूपण करता हूं, व्याख्यापूर्वक स्वरूप का प्रतिपादन करता हूँ, विवेचन करता हूं। 'सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी।' मा० ७.१११.१३ निरूपन : सं०पु० (सं० निरूपण) । स्वरूप-विवेचन, प्रतिपादन, व्याख्यात्मक विवरण । 'ब्रह्म-निरूपन ।' मा० १.४४ 'नाम निरूपन नाम जतन तें।' मा० १.२३.८ निरूपम : निरुपम । गी० १.६.२६ निरूपयहि : आ०प्रब० । स्वरूप विवेचन करते हैं । 'कहि नित नेति निरूपहिं बेदा।' मा० २.६३.८ निरूपा : (१) निरूपइ । निरूपित करता है । 'नेति नेति जेहि बेद निरूपा ।' मा० १.१४४.५ (२) भूकृ.पु । निरूपित किया। व्याख्या द्वारा स्पष्ट किया। 'खंडि सगुन मत अगुन निरूपा ।' मा० ७.१११.२ निरोध : सं०० (सं०) । नियमन, निग्रह, नियन्त्रित करना, वृत्तियों का शमन । ___ 'मन को निरोध ।' दो० २७४ निर्गता : भूकृ॰स्त्री० (सं०) । निकली हुई। 'नख निर्गता........ सुरसरी ।' मा० ७.१३ छं० ४ निर्गमहि : आ०प्रब० । निकलते हैं। 'एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं ।' मा० २.२३ निर्गुन, ण : वि० (सं० निर्गुण)। गुणहीन । (१) सभी गुणों से हीन । 'निर्गन निलज कुबेष कपाली।' मा० १.७६.६ (२) माया गुणों से मुक्त, त्रिगुणातीत । 'निर्गुन ब्रह्म सगुन बपुधारी।' मा० १.११०.४ (यहां निर्गुण से 'निराकार' का तात्पर्य भी है-मायागुणों को स्वेच्छा से ग्रहण कर ब्रह्म सगुण-साकार बनता है, क्योंकि उसमें सत्य-संकल्पता का गुण विद्यमान है अत: संकल्पमात्र से वह सगुण बनता है। निगुनमत : वेदान्त-मनीषियों का वह सम्प्रदाय जो ब्रह्म में किसी प्रकार के गुण की सत्ता मान्य नहीं करता जबकि वैष्णव मत में ब्रह्म का निर्गुणत्व इतना ही है कि वह माया-गुणों से परे है-अन्यथा वह सर्वज्ञत्व, सर्वकर्तृत्व, सत्यकामत्व, सत्यसंकल्पत्व, अजरामरत्व, क्षुधपिपासाहीनता आदि कल्याण गुणों से सम्पन्न है तथा स्वेच्छा से माया गुणों को ग्रहण कर अवतीर्ण होता एवम् आकार ग्रहण करता है । 'तब मैं निर्गुनमत करि दूरी । सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी।' मा० ७.१११.१३ निर्भर : सं०पू० (सं०) । झरना, प्रपात । मा० २.३०८.३ निर्दम : वि० (सं०) । दम्भहीन, निश्छल । मा० ७.२१.७ निर्दय : वि० (सं०) । दयाहीन, क्रूर । मा० ७.३६.५ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 537 निर्दलन : सं०० (सं.) । उन्मूलन, विनाश, पूर्ण ध्वंस । विन० ५७.७ ।। निर्षन : वि० (सं०) । धनहीन, दरिद्र, अकिंचन । मा० १.१६० निधो त : भूकृ० (सं.) । दूरीकृत, विनष्ट, प्रक्षालित (सं० निधौ त)। 'साधु पद सलिल निधूत कल्मष सकल ।' विन० ५७.३ निर्नय : सं०पु० (सं० निर्णय) । दृढ निश्चय, पुष्ट मत, निर्विवाद तथ्य । मा० ७.४१.२ निर्बहई : निबहइ । 'जौं निबिघ्न पंथ निर्बहई।' मा० ७.११६.२ निर्बहिहौं : आ० भ० उए । निभाऊँगा, पूरा करूँगा। 'तुलसी को पन निर्बहिहौं ।' विन० २३१.४ निर्बहे : भूकृ००ब० । निभ गए, पार पा गए । 'त्रिबिध दुख तें निर्बहे ।' मा० ७.१३ छं० २ निर्बान : निर्वाण । मा० ३.२० क निर्बानप्रद : वि० । मोक्षदायक । मा० ७.१३० छं. ३ निबिकार : वि० (सं० निर्विकार) । विकार-रहित, जिसमें किसी प्रकार का रूप परिवर्तन न हो, यथावत् रहने वाला, एक रस । 'निबिकार निरवधि सुखरासी।' मा० ७.१११.५ (वैष्णवमत अविकृत-परिणामवादी है-तदनुसार ब्रह्म विविध जागतिक रूप लेता हुआ भी विकृत नहीं होता; स्वरूपस्थ रहकर ही परिणाम लेता है)। निबिघ्न : वि०+क्रि०वि० (सं० निर्विघ्न) । बाधारहित । मा० ७.११६.२ निर्भय : वि० (सं.)। भयहीन, निरातङ क । मा० १.१८७.७ निर्भयकारी : वि० (सं०) । (दूसरों को) भयमुक्त करने वाला, अभय देने वाला। 'मारि असुर द्विज निर्भयकारी।' मा० १.२१०.६ निर्भर : वि० (सं०) । पूर्ण, प्रचुर, नि:शेषरूप से भरा-पुरा, अतिशय । 'सब के उर निर्भर हरषु । मा० १.३०० निर्भरा : वि०स्त्री० (सं.)। निर्भर । मा० ५ श्लोक २ निर्मथन : सं०पु० (सं.)। पूर्ण मन्थन, सर्वाङ्ग आलोडन । 'वेद पय सिंधु..... मुनि बृद निर्मथन-कर्ता ।' विन० ५७.६ निर्मम : वि० (सं.)। ममत्वहीन, किसी के प्रति ममता से रहित, जिसका अपना कोई न हो, अपनेपन की आसक्ति से परे । 'निर्मम निराकार निरमोहा।' मा० ७.७२.६ निर्मल : वि० (सं.)। (१) निष्कलुष, निश्छल, निष्पाप । 'निर्मल मन जन सो मोहि भावा।' मा० ५.४४.५ (२) आवरण रहित । 'बिनु धन निर्मल सोह अकासा।' मा० ४.१६.६ (३) निर्दोष+धूलि-पङ क-रहित । 'संत हृदय Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 538 तुलसी शब्द-कोश ___ जस निर्मल बारी ।' मा० ३.३६.७ (४) माया-गुणों से रहित, वासनाहीन । 'जो अगम सुगम सुभाव निर्मल ।' मा० ३.३२ छं० ४ । निर्मली : निर्मल+स्त्री० (सं० निर्मला)। मा० ६.१०६ छं० १ निर्मान : वि० (सं.)। मान-रहित प्रमाणरहित+परिमाणरहित, अप्रमेय तथा ___ असीम । विन० ५३.६ निमित : भूकृ० (सं०) । रचित । 'निज इच्छा निर्मित तनु । मा० १.१६२ निमुक्त : वि० (सं.)। पूर्णतया मुक्त, सर्वथा बन्धनहीन । विन० ५५.६ निर्मूलन : वि० । निर्मूल करने वाला, उन्मूलन-कर्ता। मा० ७.१०८ छं० १० निर्मूला : वि० (सं० निर्मल)। मूल रहित, जड़ से उखड़ा हुआ, पूर्णत: नष्ट । ___'जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला।' मा० १.१८३.५ निमूलिन् : वि०० (सं.)। उन्मूलनकर्ता, नाशक । विन० १२.४ निर्मोह : वि० (सं.)। मोहरहित, तमोगुणी विकारों से परे । विन० ५६.५ निर्लेप : वि० (सं.) । लेपरहित । (१) प्रभावमुक्त (२) माया, कर्म आदि की वासनाओं से परे । 'हरिनिर्गुन निर्लेप निरपने ।' कृ० ३८ । निवंश : वि० (सं०) । वंशहीन, जिसके कुल में कोई न बचा हो । विन० ४६.६ निर्वाण : सं०० (सं.)। (१) शान्ति, तापशमन, मोक्ष । मा० ५ श्लोक १ (२) वि.पु. (सं०)। शान्त, मुक्त । 'निजानन्द निर्वाण निर्वाणदाता।' विन० ५६.५ निर्वाप : सं०० (सं.)। शमन, बुझाना; ताप नाश । 'अगिपर गर्व निर्वाप कर्ता ।' विन० ५४.७ निर्विकल्प : वि. (सं.)। विकल्पों से परे-शब्दमात्र में स्थित वस्तुशून्य तत्त्व विकल्प है, उससे रहित । गुण आदि विशेषणों से विशिष्ट ज्ञान सविकल्प है, उससे भिन्न प्रत्यय वाला=निरपेक्ष । विकल्पस्वरूप संसार से परे। मा० ७.१०८.३ नियंलीक : वि० (सं०) । व्यलीक-रहित; मिथ्या-माया से परे, निष्कलुष । विन० २०४.३ निलज : निलज्ज । 'रन ते निलज भागि गृह आवा।' मा० ६.८५.७ निलजई : निलजता (प्रा० निलज्जया)। 'रीझिबे लायक तुलसी की निलजई।' विन० २५२.५ निलजता : सं० स्त्री० (सं० निर्लज्जता) । विन० १५८.६ निलज्ज : वि० (सं० निर्लज्ज>प्रा० निलज्ज)। लज्जा रहित । मा० ५.६.६ निलय : सं०० (सं.)। आवास, आलय । (२) लय, तल्लीनता । 'यस्यांशि प्राथोज..... मुनिवृद अलि निलयकारी।' विन० ६१.१ निवछावरि : नेवछावरि । रा०न० १६ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 539 निवसत : वकृ०० (सं० निवसत् >प्रा०निवसंत) । निवास करता-करते । 'निवसत जहें नित कृपालु । गी० २.४४.३ निवसी : भूकृ०स्त्री०ब० । बस गयीं, बसी हुईं । 'मृदु मूरति द्वै निवसीं मन मोहैं ।' कवि० २.२५ निवसे : भूकृ.पु० ब० । बसे, रहे । तेहिं आश्रम निवसे कछु काला ।' मा० १.१५२.७. निवाज : वि० (फा० नवाज)। कृपा करने वाला, शरण देने वाला । 'गरीब निवाज ।' हनु० १७ निवाजा : भूक०० । शरण में लिया, पालित किया । 'नमत पद रावणानुज निवाजा।' विन० ४३.७ निवाजि : पूक० । शरण देकर । 'बिबुध समाज निवाजि..... बिरद कहायो।' गी० ६.२१.३ निवाजिबो : भकृ००कए । शरण में लेना, कृपा करना । 'ता ठाकुर को रीझि निवाजिबो कह्यो क्यों परत मो पाहीं ।' विन० ४.२ निवाजिहैं : आ०भ०प्रब । शरण देंगे। 'राम गरीब-निबाज निवाजिहैं।' गी० ५.३०.२ निवाजु : निवाज+कए । शरणदाता । 'राम गरीब-निवाजु ।' गी० ३.१७.२ निवाजे : भूकृ००० । शरण पाए हुए, कृपाश्रित किए हुए । जैसे होत आये हनुमान के निवाजे हैं।' हनु० १५ (२) शरण देने पर । 'तेरे निवाजे गरीब निवाज बिराजत बैरिन के उर साले ।' हनु० १७ निबाजो, निवाज्यो : भूक०पु०कए । शरण में लिया। 'हनुमान को निवाज्यो जन।' हनु० २० /निवार निवारइ : (सं० निवारयति>प्रा० निवारइ-निषेध या परिहार करना, हटाना, दूर करना) आ०प्रए । हटाता है। 'बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै ।' मा० ६.६१.५ निवारक : वि० (सं.)। दूर करने वाला, निरस्त करने वाला । 'आस त्रास इरिषादि निवारक ।' मा० ७.३५.५ निवारन : (१) सं०पु० (सं० निवारण)। निरसन, बचाव (हटाना), दूरीकरण । 'करिअ जतन जेहिं होइ निवारन ।' मा० २.७०.५ (२) वि० । 'प्रहलाद बिषाद निवारन, बारन तारन, मीत अकारन को।' कवि० ७.६ (३) भकृ. अव्यय । दूर करने, निरस्त करने । ‘रच्छक कोपि निवारन धाए ।' मा० ६.१०८.१० निवारा : भूकृ०० (सं० निवरित>प्रा० निवारिअ) । रोका। 'बढ़त बिधि जिमि घटज निवारा।' मा० २.२६७.२ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 540 तुलसी शब्द-कोश निवारि : पूकृ० (सं० निवार्य>प्रा० निवारिअ>अ० निवारि)। रोककर, हटा कर । 'कुपथ निवारि सुपंथ चलावा।' मा० ४.७.४ निवारिऐ : आ०कवा०प्रए० (सं० निवार्यते>प्रा० निवारीअइ)। दूर कीजिए। _ 'तासों रारि निवारिऐ।' दो० ४३२ निवारिबे : भकृ०० (सं० निवारयितव्य>प्रा० निवारिअन्वय) । निवारण करने। __'आरत की विपति निवारिबे को · ।' हन० ११ निवारिये : निवारिऐ । 'बाँह पीर महाबीर बेगिही निवारिये ।' हनु० २० निवारी : भूकृ०स्त्री० । हटायी 'जब हरि माया दुरि निवारी ।' मा० १.१३८.१ निवारे : (१) भूकृ००ब० । हटाये, निरस्त किये। 'तिल प्रवान करि काटि निवारे ।' मा० ६.८३.४ (२) निवारइ। दूर करे, हटा सकता है। 'दुसह बिपति ब्रजनाथ निवारे ।' कृ० ५६ निवारै : निवारइ । निवारण कर सकता है। 'और काहि मागिए को मागिबो निवार ।' विन० ८०.१ निवार्यो : भूक००कए० । रोका। 'घोर जमालय जात निवार्यो।' विन० १४४.२ निवास : सं०० (सं.)। (१) आवास स्थान । 'सिय निवास सुदर सदन ।' मा० १.२१३ (२) आवास करना, रहना । 'कन्ह निवास रमापति जब तें।' मा० ४.१३.५ निवासा : निवास । मा० ५.६.१ निवासिनि : वि०स्त्री० (सं० निवासिनी)। वास करने वाली । मा० १.६८.३ निवासी : वि.पु. (सं० निवासिन्) । निवास करने वाला । मा० १.८०.३ निवासु, सू : निवास+कए । एकमात्र निवास । 'नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु ।' मा० १.२६ निशिचर : सं०पु० (सं.)। राक्षस । मा० ३.११.६ निशेश : सं०० (सं०) । रात्रि का स्वामी चन्द्रमा । मा० ३.११.७ निश्चित : वि० (सं०) । निर्धारित, प्रमाणित, स्थिर मत । विन० ५७.६ निषंग, गा : सं०'० (सं० निषङ्ग)। तूणीर, तरकस । मा० १.१४७.८ निषाद : सं०० (सं०) । मृगया तथा मछली मारने का व्यवसाय करने वाली एक जंगली जाति । मा० २.८८.१ निषादनाथ : निषादों का राजा=गुह । मा० २.१९२.३ निषादनाथ : निषादनाथ+कए । मा० २.२३३.६ निषादपति : निषादनाथ । मा० २.८६.४ निषादा : निषाद । मा० ७.२०.१ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 541 निषादु, दू : निषाद+कए । 'सुनि गुनि कहत निषादु ।' मा० २.२३४] निषिद्ध : वि० (सं.) । शास्त्रों द्वारा वजित, अविहित, अपवित्र, त्याज्य । 'पावक परत निषिद्ध लाकरी होति अनल जग जानी ।' कृ० ४८ निषेध : (१) सं०पु० (सं०) । निवारण, वर्जन । (२) धार्मिक वर्जना, अविहित ___ कर्म । 'बिधि निषेद कह बेद ।' दो० ३५० निषेवमय : वि० (सं०) । निषेधपूर्ण, धार्मिक वजनाओं से युक्त । 'बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करमकथा।' मा० १.२.६ निष्काम : अकाम (सं.) । कामनारहित । विन० ६४.८ निष्केवल : वि० (सं०) । विशुद्ध, निर्मल, सर्वथा मिश्रण-रहित । 'निष्केवल प्रेम ।' मा० ६.११७ ख निष्पापा : वि.स्त्री० (सं.)। पापरहित, पापमुक्त । 'कपि तब दरस भइउँ निष्पापा ।' मा० ६.५८.१ निसंक, का : वि० (सं० निःशङ क>प्रा० नीसंक)। निर्भय, शङ कारहित, निरातङ्क ।' मा० ७.११२.२ निसंकी : निसंक । धर्म आदि के उल्लङ्गन की शङका से मुक्त, स्वैराचारी । 'नीच निसील निरीस निसंकी।' मा० २.२६६.२ निसंकू : निसंक+कए । 'निपट निरंकुस निठुर निसंकू ।' मा० २.११६.३ निसंबल : वि० (सं. नि:सम्बल) । पाथेय-रहित, साधनहीन । 'संबल निसंबल को ___ सखा असहाय को।' विन० ६६.१ निसठ : सं.पु. (सं० निशठ) । एक वानर का नाम । मा० ५.५४ निसरत : वकृ०० (सं० नि:सरत् >प्रा० नीसरंत) । निकलता-ते; निकलते हुए। 'निसरत प्रान करहिं हठि बाधा ।' मा० ५.३१.६ निसरि : पूकृ० । निकलकर । 'निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा ।' मा० ६ ६७.४ निसरी : भूक०स्त्री० । निकली। 'निसरी रुधिरधार तहँ भारी ।' मा० ४.६.७ निसा : रात में । 'मोह निसां सब सोवनिहारा ।' मा० २.६३.२ निसा : सं०स्त्री० (सं० निश् =निशा>प्रा० निसा)। रात्रि । मा० १.१६५ निसाकर : सं०० (सं० निशाकर)। चन्द्रमा। बर० १४ निसागम : सं०० (सं० निशागम)। रात्रि का आरम्भ, सन्ध्याकाल । 'सकुचे निसागम नलिन से ।' मा० २.३०१ छं० निसाचर : सं०० (सं० निशाचर) । राक्षस । मा० १.१८.१ निसाचरपति : रावण । मा० ६.४४.३ निसाचरु : निसाचर+कए० । एक भी निशाचर । 'चित्रह के कपि सों निसाचरु न लागिहै।' कवि० ५.१४ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 542 तुलसी शब्द-कोश निसान, न : सं०० (सं० निःस्वान>प्रा० नीसाण) । (१) बाजा, बाद्य । 'राजत बाजत बिपुल निसाना।' मा० १.२६७.५ (२) दुन्दुभि । 'सुनि गहगहे निसान।' मा० १.३०४ (३) ध्वनि, नाद । 'हरहिं सुनि सुनि पनव निसाना ।' मा० १.२६६.२ निसानहिं : नक्कारे पर । 'परा निसानहिं घाऊ।' मा० १.३१३.७ निसि : (१) सं०स्त्री० (सं० निश्>प्रा० निसि) । रात्रि । 'दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा।' मा० १.२४.५ (२) रात में (सं० निशि)। 'निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी ।' मा० ५.१२.६ निसिचर : सं०० (सं० निशिचर)। राक्षस । मा० १.२४.८ निसिचरन्हि : निसिचर+संब० । राक्षसों (ने) । 'परे भूमि निसिचरन्हि जे मारे।' मा० ६.११४.१ निसिचरि, री : सं०स्त्री० (सं० निशिचरी) । राक्षसी । मा० ५.३.२ निसिचरिन्ह : निसिचरि+संब० । राक्षसियों (को) । 'कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई।' मा० ५.१०.८ निसिचरी : निसिचरी+ब० । राक्षसियाँ । 'सेवहिं सब निसिचरौं बिनीता ।' मा० ६.१०८.५ निसिचरु : निसिचर+कए । एक राक्षस-विभीषण । 'कपीसु निसिचरु अपनाए ___नाएँ माथ जू ।' कवि० ७.१६ निसित : वि० (सं० निशित) । तीक्ष्ण, तीखी धार वाला-ले; पैना । 'चले बिसिख निसित निकाम ।' मा० ३.२०.२ निसिहि : रात को। 'निसिहि ससिहि निदति बहु भाँती।' मा० ६.१००.३ निसील : वि० (सं० नि:शील) । शीलहीन । विनय, सदाचार आदि से विमुख । ____ 'नीच निसील निरीस निसंकी।' मा० २.२६६.२ निसेमिका : निसेनी (सं० निःश्रेणिका)। 'नाभी सर त्रिबली निसेनिका ।' गी० ७.१७.६ निसेनी : सं०स्त्री० (सं० निःश्रेणी>प्रा० निसेणी)। नसेनी, सीढ़ी । 'हरनि सोक हरिलोक निसेनी।' मा० ६.१२०.८।। निसोच : वि० (सं० निःशोच्य>प्रा० नीसोच्च)। निश्चिन्त, शोकरहित । 'भे निसोच उर अपडर बीता।' मा० २.२४२.६ निसोती : वि.स्त्री० (अरबी-निसाह साफ, खालिस)। शुद्ध, अमिश्रित । 'निसि बासर सहते बिपति निसोती।' विन० १६८.१ निसोते : अमिश्रित..... से, नितान्त निश्छल से । 'रीझहिं राम सनेह निसोतें।' मा० १.२८.११ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश निसोतो : वि०पु०कए० । नितान्त शुद्ध, स्वच्छ, अमिश्रित । 'कहीं सो साच निसोतो ।' विन० १६१.२ 543 निस्तर निस्तर : (सं० निस्तरित > प्रा० मागधी - निस्तरइ) आ०प्र० । पार पा जाता है, छुटकारा पाता है । 'नाथ जीव तव मायाँ मोहा । सो निस्तरइ तुम्हारेहि छोहा ।' मा० ४.३.२ निस्तfरए, ये : आ०भावा० पार पाया जाय, मुक्त हुआ जा सके । 'द्रवहु तो निस्तरिये ।' विन० १८६.६ निस्तार : सं०पु० (सं० ) । पार पाना, छुटकारा । 'बिनु प्रयास निस्तार ।' मा० ७.१०२ क निस्तारा : निसार । मा० ६.७७.४ निहकाम : निःकाम । मा० ३.११ निहार : (१) सं०पु० (सं० नीहार) । पाला, कुहरा, ओस का धुंध । 'जनु निहार महुं दिनकर दुरेऊ ।' मा० ६.६३.४ (२) आ० - आज्ञा - मए० | तू देख | 'बिषय मुद निहार भार - सिर काँधे ज्यों बहत ।' विन० १३३.४ निहार निहारइ, ई : (सं० निभालयति > प्रा० निहालइ - घूर कर ताकना, भली भाँति देखना, निहारना ) आ०प्र० । देखता ती हैं, निहारता-ती है । 'रूप रासि जेहि ओर सुभायें निहारइ ।' जा०मं० ८२ 'मानहुं सरोष भूअंग - भामिनि बिषम भाँति निहारई ।' मा० २.२५ छं० निहारत: वकृ०पु० । देखता देखते । गी० २.१४.२ निहारति : वकृ० स्त्री० । देखती । 'राम को रूपु निहारति जानकी ।' कवि० १.१७ निहाहि : आ० प्रब० (सं० निभालयन्ति > प्रा० निहालंति > अ० निहाल हि ) । देखते हैं, निरखते हैं । 'बार बार प्रभु गात निहारहि । मा० ७.७.४ निहारहि : आ० - आज्ञा - मए० (सं० निभालय > प्रा० निहाल हि ) । तू देख । 'मन, माधव को नेकु निहारहि ।' विन० ८५.१ निहारा : (१) भूकृ० पु० । देखा । 'जिअत राम बिधु बदनु निहारा ।' मा० २. १५६ . २ ( २ ) निहारइ । निरीक्षण करता है, देखता है । 'सहस नयन पर दोष निहारा ।' मा० १.४.११ निहारि : ( १ ) निहारु । तू देख । 'ललित लालन निहारि ।' कृ० १७ (२) पूकृ० । देखकर । 'लता निहारि नवहिं तरु साखा । मा० १.८५.१ निहारिए, ये : आ०कवा०प्र० । देखा जाय, दीखता है, देखिए । 'तो से समरथ चख चारिहूँ निहारिये ।' हनु० २४ निहारी : (१) निहारि । देखकर । 'हियँ हरषे सुर सेन निहारी ।' मा० १.६५.३ (२) भूकृ० स्त्री० देखी । 'जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी ।' मा० १.२८६.७ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 544 तुलसी शब्द-कोश निहारु : (१) आ०-आज्ञा-मए । तू देख । 'हरि को ललित बदन निहारु।' कृ० १४ (२) निहार+कए । कुहरा, तुषार । 'चारु चंदन मनहुँ मरकत सिखर लसत निहारु ।' गी० ७.८.२ निहारें : निहारने से, देखते हुए । 'नाथ सकल सुख साथ हमारें। सरद बिमल बिधुबदन निहारें।' मा० २.६५.८ निहारे : (१) भूकृ००ब० । देखे । 'चरन परत नृप राम निहारे ।' मा० २.४४.२ (२) निहारइ । 'नित निज पद कमल निहारे ।' गी० ५.१८.२ निहारेउ : भूकृ००कए० । देखा। 'सखी मुख गौरी निहारेउ ।' पा०म० ४८ निहाल : वि० (फा०) । तप्त प्रमुदित, पूर्ण सन्तुष्ट । 'निरखि निहाल निमिष महें __ कीन्हे ।' विन० ६.४ निहालु : निहाल+कए० । 'चोट बिनु मोट पाइ भयो न निहालु को।' कवि० ७.१७ निहोर : सं०पु० । (१) मनुहार, अनुनय-विनय । 'पुनि पुनि कर निहोर ।' मा० १.१४ ख (२) आभार, उपकार (अहसान) । ‘राखा राम निहोर न ओही।' मा० ४.२६.५ /निहोर, निहोरइ : आ०प्रए० । अभ्यर्थना करता है-करे, अनुनय करे । 'केहि केहि दीन निहोर।' विन० १०२.५ निहोरउ : आ०उए । अनुनय करता हूं। 'सखा निहोरउ तोहि ।' मा० ६.११६ ख निहोरत : वकृ०० । अनुनय करते, समझाते-बुझाते । 'सब गोरिहि निहोरत धाम __ को।' पा०म०छं०४ निहोरहिं : आ०प्रब० । अनुनय करते-ती हैं। 'बार बार रघुनाथहि निरखि निहोरहिं ।' जा०म० १६७ निहोरा : (१) निहोर । आभार । 'बोले रामहि देइ निहोरा ।' मा० १.२७८.७ (२) भूक पु० । अनुरोध किया। 'सो कृपालु केवटहि निहोरा ।' मा० २.१०१.४ निहोरि : पूकृ० । अनुनय करके, अपने ऊपर आभार लेकर। 'निगम सेष सारद निहोरि जो अपने दोष कहावौं ।' विन० १४२.९ निहोरिहौं : आ०भ०उए । अनुनय करूंगा। 'दुहूं ओर की बिचारि अब न निहोरिहौं ।' विन० २५८.४ निहोरी : निहोरि । 'सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी।' मा० २.४४ ७ निहोरें : क्रि०वि० । अनुनय के लिए, उपकार हेतु । 'तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें।' मा० २.१६०.६ निहोरे : भूक.पु०ब० । मनाये, प्राथित किये । 'राम राउ गुर साधु निहोरे ।' मा० २.२६७.५ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 545 निहोर : निहोरइ । 'सपने पर बस पर, जागि देखत केहि जाइ निहोर।' विन० निहोरो : निहोरा+कए० । (१) अनुरोध, मनुहार । 'किए निहोरो हँसत खिझे तें डाटत नयन तरेरे ।' कृ० ३ (२) उपकार, आभार । 'नाहिं पिनाकिहि नेकु निहोरो।' कवि० ७.१५३ नींद : नीद । मा० २.३८ नींब : सं०० (सं० निम्ब) । वृक्षविशेष । 'काम भुजंग डसत जब जाही। बिषय नींब कट लगत ताही ।' विन० १२७.३ नीक, का : वि.पु. (सं० निक्त=विशुद्ध>प्रा० निक्क)। (१) निर्मल, स्वच्छ, पवित्र, निर्दोष । 'दंपति धरम आचरन नीका ।' मा० १.१४२.२ (२) सुन्दर, मनोहर । 'हम तुम्ह कहुं बरु नीक बिचारा।' मा० १.८०.१ (३) उत्तम, श्रेष्ठ । 'राम निकाई रावरी है सबही को नीक ।' मा० १.२६ ख (४) अनुकूल, अभीष्ट, स्वीकार्य । 'जो जेहि भाव नीक तेहि सोई ।' मा० १.५.६ (५) संगत, उचित । 'कहेहु नीक, मोरेहुं मन भावा ।' मा० १.६२.१ नीकि : नीकी । 'नीकि दोन्हि हरि सुदरताई।' मा० १.१३४.३ नोकिय : अच्छी ही । 'भूपति बिदेह कही नीकिय जो भई है।' गी० १.८५.१ नीको : नीक+स्त्री० । अच्छी, शुद्ध, उत्तम, संगत । मा० १.६.५ नीकें : क्रि०वि० । भली भाँति । 'मोर मनोरथु जानहु नीकें ।' मा० १.२३६.३ नोके : (१) नीकें । "हम नीके देखा सब लोई ।' वैरा० ४० (२) वि०पू०ब० (दे० नीक) । भले । 'कुभकरन सोवत नीके ।' मा० १.४.६ नीको : नीका+कए । भला, अच्छा । 'तो नीको तुलसीक ।' मा० १.२६ ख नीच : वि०पू० (सं.)। अधम, अवर । मा० १.७.६ नीचउ · नीच भी । 'भगतिवंत अति नीचउ प्रानी ।' मा० ७.८६.१० नोचन, न्ह : नीच+संब० । 'प्रीतम पुनीत कृत नीचन निदरि सो।' विन० २६४.५ नीचहु : नीचउ । 'अति नीचहु सन प्रीति ।' मा० ७.६३ क नीचा : नीच । मा० ३.२४.६ नीचि, ची : नीच+स्त्री० । मा० २.१२.६ नोचियो : नीची भी । 'नीचियो कहत सोभा ।' विन० २५७.३ नीचु, चू : नोच+कए । 'लहइ निचाइहि नीचु ।' मा० १.५ नीचो : (१) नीच । 'ऊँचो मनु ऊंची रुचि, भागु नीचो।' कवि० ७.६७ (२) नीचउ । नीच भी । 'पाथ माथे चढ़े तन तुलसी ज्यों नीचो।' विन० ७२.४ नीड़ : सं०० (सं०) । घोंसला, कुलाय । मा० १.३४६.६ नीति : सं०स्त्री० (सं.)। (१) समुदाचार, विनयोपदेश । 'संत' कहहिं असि नीति ।' मा० १.४५ (२) व्यवहार राजनीतिक न्याय । 'रूप तेज बल नीति Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 546 तुलसी शब्द-कोश निवासा ।' मा० १.१३०.३ (अनीति का विलोम) (३) दक्षता, सतर्क आचरण। 'सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप ।' मा० १.१६३ (४) धार्मिक व्यवस्था। निगम नीति कुलरीति करि ।' मा० १.३४६ (५) कूटचातुरी । 'जद्यपि नीति निपुन नरनाहू ।' मा० २.२७.७ नीती : नीति । मा० २.६.६ नोद : सं०स्त्री० (सं० निद्रा>प्रा० निद्दा>अ० निद्द)। सुषुप्ति, विश्रामहेतुक अचेतनावस्था । मा० १.३५७ नोदउँ: निद्रावस्था में भी । 'नीदउँ बदन सोह सुठि लोना।' मा० १.३५८.१ नीदरी : नींद (अ० निद्दडी) । गी० १.१६.४ नीर : सं०० (सं०) । जल । मा० १.३४ नीरचारी : जलचर । कवि० ६.४६ नीरज: जलज, कमल । मा० १.२४३.२ नीरद : जलद । मेघ । कृ० ३६ नीरषर : जलधर, मेघ । मा० १.१४६ नीरनिधि : जलनिधि, समुद्र । मा० ६.५ नीरा : नीर। मा० ७.३.१० नीराजन, ना : सं००+स्त्री० (सं.)। दीपकमाला से आरती । विन० ४७.४ नीर, रू : नीर+कए । 'नयन नीरु हटि मंगल जानी।' मा० १.३१६.१ नीर : नीर की, जल की। 'उपमा राम लखन की प्रीति की क्यों दीजै खीरै नीर।' ___ गी० ६.१५.३ नील : (१) वि.पु. (सं०) । नीलवर्ण, श्याम । 'नील पीत जलजाभ सरीरा।' ____ मा० १.२३३.१ (२) सं०० (सं.) । वानर विशेष का नाम । मा० ५.६०.१ नीलकंठ : सं०० (सं०) । (१) शिव जी । मा० ७.१०८ छं० (२) चाष पक्षी। 'नीलकंठ कलकंठ सुक ।' मा० २.१३७ नीलगिरि : सं०० (सं.) । कज्जल पर्वत, नीला पर्वतविशेष । (जो हिमालय के उत्तर है) । मा० ६.१०३ छं० । नीलमनि : सं०स्त्री० (सं० नीलमणि)। राम-विशेष (दे० नवरत्न)। मा० १.२८८ नीला : नील । मा० ६.२३.५ नौलु : नील+कए । नील वानर । कवि० ५.२६ नीलोत्पल : सं०० (सं.)। नील कमल । मा० ४.३० ख नीसान : निसान । 'नीसान गान प्रसून झरि ।' पा०म०/० १५ मुत : भूकृ.पुं० (सं०) । स्तुत, प्रार्थित । मा० ४ श्लोक १ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलसी शब्द-कोश 547 नूतन : वि० (सं०) । नवीन । मा० १.६६.४ नूपुर : सं०० (सं०) । पादभूषण-विशेष (पादाङ्ग लिभूषण)। मा० १.१६६.३ न : सं०० (सं०) । नर, मनुष्य । 'ब्याल न-कपाल-माला बिराज।' विन० १०.२ नृकेहरि : नरके हरि । कवि० ७.१२८ ।। नृग : सं०० (सं०) । इक्ष्वाकुवंश का एक राजा, जो ब्राह्मणों के शाप से गिरगिट हो गया था और कृष्ण ने उसका उद्धार किया था। मा० २४०.२ नृत्य : सं०पु० (सं०) । लयतालयुक्त अङ्गविशेष (जिसमें अभिनय सम्मिलित हो)। मा० ३.१०.१२ नृत्यपर : वि.पु(सं०) । नृत्य में तत्पर, नृत्यलीन । विन० १०.५ नृप : सं०० (सं०) । नरपालक, राजा । मा० २.५०.४ नृपति : नृप (सं.)। मा० १.१५८ नृपती : नृपति । मा० ७.४०.३ नपनय : राजनीति । मा० २.२५८ नपनीति : राजनीति । मा० २.३१ नृपन्ह, न्हि नपन, नि : नृप+संब० । राजाओं । 'नपन्ह केरि आसा निसि नासी ।' मा० १.२५५.१ नपरिषि : राजरिषि । राजर्षि, जो राजा होते हुए ऋषि हो । मा० १.१४३.६ नृपाल, ला : नृप । राजा । मा० १.२८.८ नृप : नृप+कए । राजा । 'नपु कि जिइहि बिनु राम ।' मा० २.४६ नेई : संस्त्री० (सं० नीम, नेमि) । नीव, आधारशिला, कुएँ के नीचे रखा जाने वाला दारुचक्र जिस पर ईंटें जोड़ी जाती हैं। 'दीन्हेसि अचल बिपति के नेईं।' मा० २.२६.६ नेकु : क्रि०वि० । थोड़ा-सा । 'नेकु नयन मन प्रान जुड़ाऊ ।' मा० २.१९८.६ नेग : सं० । किसी मङ्गल अवसर पर किसी का विशेष माङ्गलिक कार्य तथा उस कार्य के बदले मिलने वाला द्रव्यादि । 'नेगी नेग जोग सब लेहीं।' मा० १.३५३.६ नेगचार : नेग देने का आचार । नेगचार कह नागरि गहरु न लावहिं ।' जा०म० १३५ नेगी : वि.पु । नेग करने वाला। (१) माङ्गलिक कार्य में नेग पाने का __ अधिकारी । मा० १.३५३.६ (२) कर्तव्य कर्म का अधिकारी। 'लछिमन होहु धरम के नेगी।' मा० ६.१०६.२ . नेगु : नेग+कए । 'नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा ।' मा० १.३५३.२ नेति : अव्यय (सं0-न+इति) यह नहीं । एक प्रकार की अपोहन विधि जिससे ज्ञात वस्तुओं का निषेध कर अज्ञात वस्तु जानी जाती हैं । जागतिक तत्त्वों का Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश अपोह ( वर्जन) करते-करते ब्रह्म साक्षात्कार की विधि - क्योंकि वह इन्द्रियों से ज्ञेय ( प्रमेय नहीं है । सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान । 'नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गन । मा० १.१२ ब : सं०पु० (सं० नीव्र > प्रा० निव्व नेव्व ) । (१) छप्पर आदि की धरन, आधारकाष्ठ । (२) पहिये को घेरने वाला लोह-मण्डल जो उसे घिसने से बचाता है । ( ३ ) रक्षक, आश्रय, सहायक । 'लखनु राम के नेब ।' मा० २.१६ (४) अरबी – नायब = मातहत ) । अधीन । 548 नेम, मा: नियम । मा० १.१७.३ नेमु : नेम + कए० । एकनिष्ठा । 'नेमु पेमु संकर कर देखा ।' मा० १.७६.४ नेरी : वि०स्त्री० (सं० निकटा > प्रा० निअडी) । समीपस्थ । 'जाहि मृत्युआई नेरी ।' मा० ५.५३.४ नेरें : क्रि०वि० । (सं० निकटेन > प्रा० निअडे > अ० निअडें ) । समीप में । 'सुत मातु पिता हित बंधुन नेरें ।' कवि० ७.५० नेरे : नेरें (सं० निकटे > प्रा० निअडे ) । 'जिवन अवधि अति नेरे ।' विन० २७ नेरो : वि०पु० ए० । समीपस्थ । 'जाउँ सुमारग नेरो ।' विन० १४३.६ नेवछावरि : सं० स्त्री० । मङ्गलकार्यों में वर-कन्या, शिशु आदि पर उतरकर दिया जाने वाला द्रव्य अथवा उस द्रव्य के उतारने की क्रिया । 'करि आरति नेवछावरि करहीं ।' मा० १.१६४.५ प्राकृत में 'नेवच्छ' धातु उतारने के अर्थ में है जिसका सम्बन्ध संस्कृत 'नेपथ्य' ( परिधान) से जुड़ता है । मुद्रा के स्थान पर वस्त्रों को उतारकर देने की पहले प्रथा रही होगी (सं० नेपथ्याबलि > प्रा० नेवच्छावलि) । नेवत : सं०पु० (सं० तंमन्त्रणक= नै मन्त्र > प्रा० नेमंत > अ० नेवंत ) । निमन्त्रण, न्योता, निमन्त्रण पत्र | 'यह अनुचित नहि नेवत पठावा ।' मा० १.६२.१ ant : भू०पु० । निमन्त्रित किया । 'पाहुन बड़ नेवता ।' मा० २.२१३.७ afa : पूकृ० । निमन्त्रित करके । 'पोथी नेवति पूजि प्रभात सप्रेम ।' रा०प्र० ७.७ नेवते : (१) भूकृ०पु०ब० । निमन्त्रित किए। 'नेवते सादर सकलसुर ।' मा० १.६० (२) सं०पु०ब० निमन्त्रण | 'नेवते दिये ।' गी० १.५.५ नेवाज : निवाज (फा० नवाजिश = मेहरबानी ) । कृपालु, शरण देने वाला । नेवाजा : निवाजा। 'राम कृपाल निषाद नेवाजा । मा० २.२५०८ नेवाजि : निवाजि । बिभीषनु नेवाजि सेत सागर तरन भो । कवि० ६.५६ नेवाजिए : आ०कवा० प्र० । शरण दिया जाता है । 'रीति महाराज की नेवाजिए जो माँगनो सो ।' कवि० ७.२५ वाजिहैं : निवाजिहैं । 'राजु दै नेवाजिहैं बजाइ के बिभीषने ।' कवि० ६.२ नेवाजी : नेवाजि । शरण में लेकर । मा० २.२६६.५ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी शब्द-कोश 549 नेवाज : निवाजु । 'गईबहोर गरीब नेवाजू ।' मा० १.१३.७ नेवाजे : निवाजे । शरण में लिये । 'नाम गरीब अनेक नेवाजे ।' मा० १.२५.२ नेवाजो : निवाजो। 'काकी सेवा रीझि के नेवाजो रघुनाथ जू ।' कवि० ७.१६ नेवारई : निवारइ । 'परसत पानि पतिहि नेवारई।' मा० २.२५ छं. नेवारिहै : आ०भ०प्रए० । दूर करेगा। बिप्रन के भय को निवारिहै।' कवि० ७.१४२ नेवारे : निवारे । रोके । 'सयनहिं रघुपति लखनु नेवारो।' मा० १.२५४.४ नेवारेउ : निवार्यो । रोका, हटाया। 'सोक नेवारेउ सबहि कर ।' मा० २.१५६ नेवासी : निवासी । मा० २.२७०.२ नेह : सनेह (प्रा०) । प्रेम । मा० २.२६०.३ नेहरुआ : (दे० नाहरू) सं०पु० (सं० स्नायुरुजा>प्रा० न्हारुआ) ! एक प्रकार का नसों में होने वाला रोग जिसमें रुधिर बहता है और नस बढ़ती जाती है । मा० ७.१२१.३५ नेहा : नेह । मा० ४.७.६ नेही : वि०पु० (सं० स्नेहिन्>प्रा० नेही)। प्रेमी, स्निग्ध । 'जोगवत नेही नेह ___मन ।' दो० ३०७ नहु, हू : नेह+कए । अनन्य प्रेम । 'जौं मोपर निज नेहु।' मा० १.७६ नैया : नाईं। सदृश । 'कूदत कपि कुरंग की नैया।' कृ० १६ ने : नइ । नई, नवीन । 'नित नै होइ राम पद प्रीती।' मा० १.७६.३ नैन, ना : नयन । मा० १.२२८ नैनन, नि : नयनन्हि । नेत्रों (से, ने) । 'जब नैनन प्रीति ठई ठग स्याय सों।' ___ कवि० ७.१३३ ननी : नयनी । 'जहँ बिलोक मृग सावक नैनी।' मा० १.२३२.२ नबेद : नबेद । मा० १.३५०.३ नबेद्य : सं०० (सं० नैवेद्य) । देवार्पित भोज्य पदार्थ । 'करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा।' मा० १.२०१३ नैमिष : सं.पु. (सं०)। तीर्थ विशेष जो उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में है। ____ मा० १.१४३.२ नहर : सं०० (सं० मातृघर>प्रा० माइहर) । मैका, स्त्री के माता-पिता का घर । मा० २.२१.१ नहीं : आ० भ० उए । झुकाऊँगा । 'सीस ईस ही नहौं ।' विन० १०४.३ नो : नः । हमारा-री-रे । हमको । 'त्रातु सदा नो भव खग बाजः ।' मा० ३.११.६ नोइ : सं०स्त्री० । नोवन, दुहते समय गाय की पिछली टाँगें बांधने की रस्सी। मा० ७.११७.१ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 550 तुलसी शब्द-कोश नौ : नव । (१) संख्या । कवि० १.७ (२) नवीन । 'ठाढ़े हैं नो द्रुम डार गहैं।' __कवि० २.१३ नौका : सं०स्त्री० (सं०) । नाव । विन० ६२.३ नौकारूढ : वि० (सं०) । नाव पर चढ़ा हुआ । 'नौकारूढ चलत जग देखा।' मा० ७.७३.५ नौमि : आ० उए० (सं०) । प्रणाम करता हूँ। 'नौमि निरंतर श्रीरघुबीरं ।' मा० नौमी : नवमी । 'नौमी तिथि मधुमास पुनीता।' मा० १.१६१.१ न्याउ : न्याय+कए० । (१) औचित्य । 'मोर न्याउ मैं पूछा साईं ।' मा० ४.२.८ (२) वैध निर्णय । 'स्वान खग जति न्याउ देख्यो।' विन० ७.२४.२ न्यामक : वि० (सं० नियामक) नियंता। नियति का स्वामी, नियमित करने वाला। विन० ५५.६ न्याय : सं०० (सं.)। (१) रीति, आचार, औचित्य। 'हौं न्याय नाथ बिसरायो।' गी० २.५६.४ (२) उचित निर्णय, कानून, विधि । ‘ऐसे तो सोचहिं न्याय-निठुर ।' गी० ५.८.२ (३) समानता, यथा, नाईं। 'देखिहैं हनुमान गोमुख नाहरनि के न्याय ।' विन० २२०.७ (४) सादृश्यमूलक मुहावरा । 'होइ घुनाच्छर न्याय जौं ।' मा० ७.११८ ख (५) उचित शासन-व्यवस्था (६) तर्क शास्त्र (७) अनुमान (८) नीति । न्यारियै : न्यारी ही, अनोखी ही। 'दया कीन्ही निरुपाधि न्यारिय।' हनु० २१ न्यारी : वि०स्त्री०। (१) अनोखी, विलक्षण, निराली। द्विज छबि अनूप न्यारी।' गी० १.२५.४ (२) पृथक, वजित । 'लोक बेद तें न्यारी।' विन० १६६.६ न्यारे : क्रि०वि० । अलग । 'तुलसी न्यारे ह्न रहै ।' वैरा० ४२ न्यारो : वि.पु.कए । अलग, पृथक् । 'प्रान त्यागि तनु न्यारो।' कृ० ३४ न्याव : न्याउ, निर्णय । ‘स्वान को प्रभु न्याव निबरो।' विन० १४६.५ न्हाइ : नहाइ । स्नान करके । 'न्हाइ रहे जल पानु करि ।' मा० २.१५० न्हाहु : आ०मब० (सं० स्नात>प्रा० ण्हाह>अ० हाहु) । नहाओ, स्नान करो। 'उबटौं न्हाहु गुहौं चोटिया बलि ।' कृ० १३ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित बच्चूलाल अवस्थी व्याकरणाचार्य, साहित्याचार्य, एम.ए., पी-एच डी., डी० लिट्. जन्म-श्रावण शुक्ल २ गुरुवार सं० १९७५ ___दिनाङ्क ८।८।१८ ई० सारस्वत साधना के एकनिष्ठ साधक । व्याकरण, साहित्य और दर्शन के मूर्धन्य विद्वान् । संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी भाषा एवं साहित्य पर विलक्षण अधिकार, उर्दू और आंग्ल भाषा व साहित्य का भी विशद अध्ययन । _काव्य में रहस्यवाद, काव्याङ्गदीपिका, हिन्दी-रचना प्रबोध, ध्वनिसिद्धान्त तथा तुलनीय-साहित्य-चिन्तन, भारतीय काव्य-समीक्षा में ध्वनि-सिद्धान्त आदि बहुचर्चित ग्रन्थों के रचयिता। दीर्घ परिश्रम और साधना से 'भारतीय दर्शनबृहत्कोश' और 'हिन्दीव्युत्पत्तिकोश' का निर्माण । प्रतिष्ठित समीक्षक, विवेचक और तत्त्ववेत्ता होने के साथ ही गहरी अन्तर्दृष्टि से सम्पन्न । हिन्दी और विशेषतः संस्कृत में काव्य-प्रणयन । ___ लखीमपुर-खोरी (उ.प्र.) के महाविद्यालय और हिन्दी विभाग, साग में प्राध्यापन के अनन्तर सम्प्रति कालिदास अकादमी, उज्जैन के आचार्यकुल में वरिष्ठ आचार्य के रूप में नाट्य-शास्त्र के सम्पादन की महत्वाकांक्षी योजना तथा पारम्परिक भारतीय विधा के बिशिष्ट अध्यापन के प्रति समर्पित। सम्पर्क-कालिदास अकादमी, उज्जैन (म.प्र.) Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BA Books N' Books 77, Tagore Park, DELHI-110009 (INDIA)