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तुलसी शब्द-कोश कुहू : (१) कोकिलनाद का अनुकरण शब्द । 'कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं।' मा०
३.४०.६ (२) अमावस्या तिथि । 'मोहमय कुह निसा ।' विन० ७४.२ कुही : आ०-संभावना-प्रए । चाहे मार ही डाले । 'आपु ब्याध को रूप धरि ___कुही कुरंगहि राग ।' दो० ३१४ कडि : सं०स्त्री० (सं० कुण्डी) । लोहे की टोपी, शिरस्त्राण । मा० २.१६१.२ कूकर : कूकुर । कवि० ७.५७ कूकरु : कूकर+कए० । 'जनि डोलहि लोलप कूकरु ज्यों ।' कवि० ७.३० कूकुर : सं०० (सं० कुकुर कुक्कर) । कुत्ता। कवि० ७.२६ कूच : सं० (फ्रा०) । प्रस्थान, यात्रा। ‘सोच न कूच मुकाम को ।' विन० १५६.३ कूजत : वकृ०० (सं० कूजत्) । कूजन (पक्षिध्वनि विशेष) करते। कूजत मंजु ___ मराल मुदित मन ।' मा० २.२३६.६ कूजहिं : आ०प्रब० । कूजन करते हैं । 'कूजहिं खग।' मा० ७.२३.३ कूज : कूजहिं । 'कल कूज न मराल ।' गी० ३.६.२ कूट : सं०० (सं०) । (१) समूह (२) पर्वत शिखर (३) कपाल की हड्डी
(४) धनुष आदि की कोटि । 'कमठ पीठि पबि-कूट कठोरा ।' मा० १.३५७.४ (५) छल, भ्रान्ति, मिथ्या। 'कारमन कूट कृत्यादि हंता।' विन० २६.७ (६) गुप्त विरुद्धाचरण (अभिचार आदि, मारण आदि प्रयोग)। 'घोर जंत्र
मंत्र कूट कपट कुरोग जोग ।' हनु० ३२ कूटकृत्या : गुप्त छलपूर्ण आचरण, षड्यन्त्र । विन० २६.७ ।। कूटस्थ : वि०पू० (सं०) । अचल, सुप्रतिष्ठ, निर्विकार (अन्तर्यामी ब्रह्म) । विन०
५३.६ कुटि : सं०स्त्री० (सं० कूट) । कूट वचन, गूढ परिहासादि-वाक्य । 'कूटि करहिं
नारदहि सुनाई।' मा० १.१३४.३ कूट्यो : भूकृ०पु०कए० । कूट डाला, चकनाचूर कर दिया। हाकि हनुमान कुलि __कटकु कूट्यो ।' कवि० ६.४६ कूदत : वकृ०० (सं० कूर्दत् >प्रा० कुइंत) । कूदता-ते, उछाल भरते। 'कूदत
कपि कुरंग की नैया।' कृ० १६. कूहि : आ०प्रब० (सं० कूर्दन्ति>प्रा० कुइंति>अ० कुद्द हिं)। उछाल भरते हैं। ____ 'कूदहिं गगन मनहुँ छिति छोड़े।' मा० २.१६१.६ कूदि : पूकृ० । कूद कर, उछाल लेकर । 'कूदि परा पुनि सिंधु मझारी।' मा०
५.२६.८ कूदिए (ये) : आ० भाववाच्य । उछाल ली लाय। हनु० २३ कूदिबे : भकृ०० । कूदने । 'पवन के पूत को न कूदिबे को पलु गोर।' कवि० ४.१