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तुलसी शब्द-कोश
नाह : नाथ ( प्रा० ) । स्वामी, पति । मा० २.१४०.३ नाहर : सं०पु० ( फा० ) । सिंह, चीता, व्याघ्र ।
नाहन : नाहर + संब० । व्याघ्रों । 'देखि हैं हनुमान गोमुख नाहरनि के न्याय ।'
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विन० २२०.७
नाहरु : नाहर + कए० । अद्वितीय सिंह । कृ० १८
नाहरू : सं०पु० (सं० स्नायु-रुज् > प्रा० न्हारुअ ) । नसों में होने वाला रोग विशेष जिसमें से रक्त धारा समय-समय पर बह चलती है और उस अङ्ग की नस लम्बी बढ़ती जाती है । गोरोचन से रक्तधारा का शमन होता है ( और गोरोचन गाय के पेट से निकलता है ) । 'मारसि गाय नाहरू लागी ।' मा० २.३६.८ कुछ विद्वान् 'नाहरू' का सम्बन्ध 'नाहर' से मानकर पालित सिंह के लिए गाय मारने का भी अर्थ लेते हैं; परन्तु अधिकतर पाठ 'नहारू' मिलता है जो प्रा० 'हरू' के समीप है तथा 'नेहरुआ' का प्रयोग भी गोस्वामी जी ने इसी अर्थ में किया है । वस्तुतः सं० स्नायुरूप > प्रा० न्हाउरूअ > न्हारू > नहांरू =नाहरू से संगति अधिक योग्य है । अब नाहरू का तात्पर्य ताँत से है जो बकरे आदि के मारने से सुलभ है, तदर्थं गोवध करना जघन्य है - अल्प कार्य हेतु गोहत्या महापातक है ।
नाहा : नाह । मा० ६.८.८
नाहि : नहि । मा० १.६५
नाहि नाहिन : नहीं ही, कभी नहीं, कथमपि नहीं, निश्चय ही नहीं । 'नाहिन राम राज के भूखे ।' मा० २.५०.३ ( इसका अन्तिम घटक 'न' निश्चयार्थक है जो 'जाओ न, कहो न' आदि में प्रयुक्त मिलता है) ।
नाहि नाहिने : नाहिन । 'ज्ञान गाहक नाहिने ब्रज मधुप
कृ० ५३
नाहीं : नाहि । मा० १.८.४
अनत सिधारि ।'
नाहु, हू : नाह + ए० (अ० ) । स्वामी, पति । मा० २.१४५; १.६७.७ fie नि: (सं० निन्दति > प्रा० निदइ) आ०प्र० । तिरस्कृत करता है । 'सरद सुधा सदन छबिहि निर्दे बदन ।' गी० १.८२.२
निदक : (१) वि०पु० (सं० ) । निन्दा करने वाला वाले, अपवादकर्ता । 'सिय निक अघ ओघ नसाए । ' मा० १.१६.३ (२) तिरस्कार करने वाला वाले । 'सरद चंद निंदक मुख नीके ।' मा० १.२४३.२
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निंदक : निंदक + कए । अद्वितीय निन्दाकर्ता । 'सिव साधु निदकु मंदमति ।' पा०मं० छं० ८