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तुलसी शब्द-कोश
प्रोडिअत : वक०० कर्मवाच्य (सं० अवकटयमान>प्रा० ओअडीअंत) रोका जाता,
बचाव के लिए ओट किया जाता । 'पलक पानि पर ओड़ियत समुझि कुघाइ
सुघाई।' दो० ३२५ ओडिअहिं : आ०कवा०प्रब (सं० अपकट्यन्ते>प्रा० ओअडीअंति>अ० ओअडी
अहिं) । ओड़े जाते हैं, बचाव के लिए आड़ में लाए जाते हैं । 'ओडिअहिं हाथ
असनिहुं के घाए।' मा० २.३०६.८ ओड़िए, ये : आ०कवा प्रए० । बचाव के लिए आड़ लिया जाए । 'तजि रघुनाथ __ हाथ और काहि ओडिए ।' कवि० ७.२५ ओड़ेहुं : ओड़ने पर भी, बार रोकने पर भी । 'भागें भल ओड़े हुँ भलो।' दो० ४२४ ओढ़नं : सं०० (सं० अवगुण्ठन>प्रा० ओड्ढण)। शरीर का आवरण । मा०
७.४०.१ ओढ़ाई : भक०स्त्री० । आच्छादित की हुई । 'हेमलता जनु तरु तमाल ढिग नील _ निचोल ओढ़ाई। विन० ६२.१२ ओढ़ाए : भू०० । अवगुण्ठित किए। 'जननी पट पीत ओढ़ाए।' गी० २६.६ प्रोढ़िहौं : आ०भ०पुए। ओढुंगा, शरीर ढकुंगा । 'तुलसी पट अतरे ओढ़िहौं ।' गी०
५.३०.४ ओढ़ी : भू० कृ०स्त्री० । ओढ़ ली, शरीर पर लपेट ली । 'दामिनी ओढ़ी मानो बारे
बारिधर ।' गी० १.३३.२ ओढ़े : भू०कृ०पू० (बहु०) । आवेष्टित किए हुए, लपेटे हुए । 'ओढ़े जीत पट हैं।'
कृ० २० पोतो : वि००कए । उतना । क्यों कहि आवत ओतो।' विन० १६१.४ ओदन : सं०० (सं०) पका चावल, भात । मा० १.२०३ ओधे : भूक०पू०ब० (सं० ऊर्ध्व>प्रा० उद्ध=ओद्ध) । ऊर्ध्व हुए, उठ खड़े हुए,
उद्यत एहु । 'निज निज काज, पाइ सिख ओधे ।' मा० २.३२३.१ प्रोट : सं० स्त्री० (सं० अपरा>प्रा० ओरा) । (१) दिशा, पार्श्व । 'बिहरहिं
बन चहुँ ओर ।' मा० २.२५५ (२) पक्ष । 'तुलसी के हिएँ है भरोसो एक ओर को।' हनु० ६ (३) छोर, अन्त, सीमा। 'ओर निबाहेहु भायप भाई ।' मा०
२.१५२.५ ओरहने : सं०० (सं० उपालभन>प्रा० ओआलहण) । शिकायत करने, अपराध
लगाने । 'ठाढ़ी ग्वालि ओरहने के मिस ।' कृ० ५ ओरा : ओर । मा० १.२३०.३ पोरी : ओर । 'भ्राजत दुहुँ ओरी ।' गी० ७.७.३ ओरे : सं०० ब० (सं० ओल) । ओले, वर्षोपल । 'गरहिं गति जिमि आतप ओरे।'
मा० २.१४७.७