________________
तुलसी शब्द-कोश
111
ऐहउँ : आ०भ०उए० । आऊंगा। ऐहउ बे गिहि होइ रजाई ।' मा० २.४६.३ ऐहहिं : ऐहैं । आएँगे । 'ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता।' मा० २.३१.७ ऐहहु : आ०भ० मब० । आओगे-गी। 'जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं।' मा.
१.५३.२ ऐहैं : आ०म०प्रब० । आएंगे। ऐहैं सुत देखुवार कालि तेरे ।' कृ० १३ ऐहै : आ०भ०प्रए० । आएगा। गी० ५.३४.२ ऐहौं : ऐहउँ । 'ऐहौं बेगि सुनहु दुति दामिन्ति ।' गी० २.५.३ ऐहो : ऐहहु । 'जो रघुबीर न ऐहो ।' गी० २.७६.४
ओ
ओंकार : सं०पु० (सं.)। ॐ ध्वनि जो ब्रह्म का वाचक कहा गया है, मूलनाद,
नादब्रह्म, शब्दब्रह्म, अनाहतनाद (परब्रह्म ही ओंकार का मूल कारण है जिससे - शब्दजगत् और अर्थजगत् की सृष्टि होती है अतः ब्रह्म ओंकार रूप तथा ओंकार
मूल भी होता है । 'निराकारमों का मूल तुरीय।' मा० ७.१०८.३ प्रोऊ : वे भी । 'सुन्दर सुत जनमत मैं ओऊ ।' मा० १.१६५.१ ओक : सं०पू० (सं० ओकस्) । घर । 'ओक की नीव परी हरिलोका ।' कवि०
७.१४५ प्रोघ : सं०० (सं.)। प्रवाह, समूह । 'सिय निंदक अघ ओघ बसाए।' मा०
ओझ : सं०० (सं० ऊपाध्याय>प्रा० ओज्झाअ)। ओझा, पण्डित, पुरोहित । 'तुलसी रामहि परिहरें निपट हानि सुन ओझ ।' दो० ६८ ओझरी : सं०स्त्री० । पेट के भीतर आमाशय की थैली या आंत । कवि० ६.५० ओट, रा : सं०स्त्री० (सं० अवकटिका) । पर्दा, आवरण, आड़ । 'बेगि करहु किन
आँखिन्ह ओटा ।' मा० १.२८०.७ 'लता ओट तव साखिन्ह लखाए।' मा० १.२३२.३ (२) सहारा, अपने अवगुणों का अवरण । 'ओट राम नाम की
ललाट लिख लई है।' हनु० ३८ ओठ : सं०पु० (सं० ओष्ठ>प्रा०ओष्ठ) । अधर । मा० ६.४१.६ ओड़न : सं०० (सं० अवकटन-कट आवरणे>प्रा०ओअऽण) । बार या प्रहार
रोकना, बचाव करना । 'एक कुसल अति ओड़न खाँड़ो।' मा० २.१९१.६