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तुलसी शब्दकोष
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उई : भूक०स्त्री. (सं० स्थापिता>प्रा० ठविआ)। (१) स्थिर की, ठहरायी।
'को जाने चित कहा ठई है ।' विन० १३६.७ (२) रखी। 'सो तो कछु एको चित न ठई ।' कृ० ३६ (३) स्थित हुई, ठनी । 'ठवनि भली ठई है ।' गी०
१.६६.२ ठए, ये : भूकृ००ब० । ठाने, आरम्भ किये । 'समय सम गान ठए ।' गी० १.३.२ ठकरसोहाती : सं०स्त्री० । स्वामी (ठाकुर) को अच्छी लगती (सोहाती) हुई बात =
चाटुकारिता, चापलूसी । 'हमहुं कहबि अब ठकुरसोहाती।' मा० २.१६.४ ठकुराइनि : ठाकुर+स्त्री० । स्वामिनी । कवि० ७.१७० ठकुराई : सं०स्त्री० । स्वामित्व, राज्य । 'अब तुलसी गिरिधर बिनु गोकुल कौन
__ करिहि ठकुराई ।' कृ० ३२ ठग : सं०० (सं० ठक>प्रा० ठग) । वञ्चक, धोखा देकर लूटने वाला । मा०
१.७६.७ ठगति : ठग+वकृ०स्त्री० । ठगती, वञ्चित करती। गी० २.८२३ ठगि : (१) पूक० । लुटकर, ठगे जाकर, ठक्क होकर, निस्तब्ध होकर । 'तेउ यह
चरित देखि ठगि रहहीं।' मा० ७.६.६ (२) ठगी। 'ठगि सी रहो।' कवि०
१.१ (३) ठगे । 'रहे ठगि से नृपति ।' गी० १.५१.१ ठगिनि, नी : ठग+स्त्री० । गी० २.८२.३ ठगी : ठग+भूकृ०स्त्री० । ठग ली गई, धोखा खा गई, स्तब्ध रह गई । 'तुलसिदास ___ग्वालिनी ठगी।' कृ. ८ ठगु : ठग+कए । अद्वितीय वञ्चक । 'भलो ठग्यो ठगु ओही।' कृ० ४१ ठगे : भूकृ.पुब० । लुट गये, स्तब्ध (लुटे-से)। 'बिलोकि सुर नर मुनि ठगे।' ___ मा० १.३१६ छं० ठगोरी ठगौरी : ठगौरी । 'तुलसिदास ग्वालिनी ठगी-सी, आयो न उतर कछु, कान्ह
ठगोरी लाई ।' कृ० ८ सं०स्त्री० (सं० ठक-पुटी>प्रा० ठगउड़ी)। ठग द्वारा दी हुई बिसली पुड़िया जिससे मूछित करके ठगी का काम करता है । मोहनी ।
'नखसिख अंगनि ठगौरी ठौर ठौर हैं।' गी० १.७३.४ ठग्यो : भूक.पुं०कए । ठग लिया, धोखे में डालकर लूट लिया । 'भलो ठग्यो ठगु
ओही।' ० ४१ ठट : सं०० (प्रा० थट्ट=समूह) । झुड । 'उनेह सिथिल गोप गाइन्ह के ठट हैं।'
कृ० २०