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तुलसी शब्द-कोशः
ठटहिं : आ०प्रब० । सजाते हैं, जुगाड़ बनाते हैं। 'ठटहिं जे कूर कुठाट ।'
दो० ४१७ ठटु : ठट+कए । बनाव, साजसार । गी० १.८०.३ ठटुकि : पूकृ० । अचानक रुके रह कर, ठहर कर । 'ठटुकि रहे एक टक पल रोकी।'
मा० ५.४५.३ ठटो : आ०-आज्ञा-मब० । बनाओ। 'नट ज्यों जनि पेट-कुपेटक कोटिक चेटक
कौतुक ठाट ठटो।' कवि० ७.८६ ठट् टा : ठट । 'मर्दहु भालु कपिन्प के ठट्टा ।' मा० ६.७६.११ ठठई : सं०स्त्री० । ठट्ठापन, हँसोड़पन, परिहास+नि:सार तथा रूक्ष व्यवहार । ___हरि परे उरि सँदेसहु ठठई ।' कृ० ३६ ठठाइ : पूकृ० । ठट्ठ। मारकर, ठहाका लगाकर । 'हंसब ठठाइ फुलाउब गालू ।'
मा० २.३५.५ ठठाइयत : वकृ०-कवा०-पु । ठोंका जाता, ठोंके जाते; आहत किये जाते। ___'खाती दीपमालिका ठठाइयत सूप हैं।' कवि० ७.१०१ ठनियत : वकृ००-कवा । ठाना जाता, किया जा रहा। 'दीनबंधु द्वारे हठ,
ठनियत है।' विन० १८३.३ ठनी : भूक०स्त्री० । ठन गयी, होने लगी। राम कृपा और ठनी ।' गी० ५.३६.२ ठयऊ : भूक००कए० (सं० स्थापितम्>प्रा. ठवियं>अ० ठवियउ)। ठाना,
आरम्भ किया, स्थापित किया, निश्चित किया । 'एहि बिधि हितु तुम्हार मैं
ठयऊ।' मा० १.१३३.२ ठयो : ठयऊ। (१) ठाना, निश्चित किया। 'तब यह मंत्र ठयो।' गी० १.४७.२
(२) सजाया, बनाया। 'चतुर जनक ठयो ठाट इतौ री।' गी० १.७७.३ ठवनि : सं०स्त्री० (सं० स्थापना>प्रा० ठवणा>अ० ठवणी=ठवणि) । (१) खड़े
होने में पैरों की विशेष स्थिति । 'ठवनि जुबा मृगराज लजाएँ।' मा० १.२५४.८ (२) बनाव, साज सँवार । 'समय समाज की ठवनि भली ठई है।' गी..
१.९६ २ (३) सदृश स्थिति । 'लंक मृगपति ठवनि ।' गी० ७.५.२ ठहर : सं०। स्थान । 'ठहर ठहर परे कहरि कहरि उठे ।' कवि० ६.४२ ठहरानी : भूकृ० स्त्री० । ठहरी, स्थिर हुई, निश्चित की जा सकी। 'एकउ जुगुति
न मन ठहरानी।' मा० २.२५३.७ ठहरु : ठहर+कए । एक भी ठिकाना, आश्रय ! 'जो पै मो को होतो कहूं ठाकुर
ठहरु ।' विन० २५०.१ ठही : भूकृ०स्त्री०=ठई । ठहरी, व्याप्त हो रही। 'लागि दवारि पहार ठई।'
कवि० ७.१४३ ठाँव : ठावें । विन० १५१.३