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तुलसी शब्द-कोश
निगम : सं०पु० (सं० ) । वेद तथा वैदिक परम्परा के ग्रन्थः - संहिता, ब्राह्मण, उपनिषद्, आरण्यक तथा वेदाङ्ग (ज्योषित, कल्प, छन्दः, निरुक्त, व्याकरण और शिक्षा) | मा० १.१२
निगमन : निगम + संब० । निगमों (ने) । 'साखि निगमनि भने ।' विन० ५६०.२
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निगमागम : निगम + आगम । मा० १.६.६
निगमादि : निगम तथा पुराण एवं दर्शनशास्त्र । मा० ७.८६.१
निगमु : निगम + कए० । एकमात्र वेदप्रमाण । 'महिमा निगमु नेति कहि कहई ।'
मा० १.३४१.८
निगानांग : वि० (सं० नग्नाङ्ग ? ) । दिगम्बर, पूर्णतया निर्वसन | 'निगानांग करि नितहिं नाचइहि नाच ।' बर० २४
निगूढ़ा : वि०स्त्री० (सं० ) । गुप्त, रहस्यपूर्ण ( दुरूह ) । 'समुझी नहि हरि गिरा
निगूढा । मा० १.१३३.३
निगोड़ी : वि०स्त्री० । गवाँर, असभ्य, नीच । 'छलिन की छोड़ी सो निगोड़ी छोटी
जाति-पांति ।' कवि० ७.१८
निग्रह: सं०पु० (सं०) । निरोध, दण्ड । 'सागर निग्रह कथा सुनाई ।' मा० ७.६७.८ वैष्णव दर्शन में निग्रह अथवा निरोध प्रतीक है । जीव संसारोन्मुख चित्तवृत्तियों का निरोध करे, एतदर्थं भगवान् अवतार-लीलाओं द्वारा निग्रह का उपदेश करते हैं । निग्रह ही लीलाओं का प्रयोजन है । सागर-निग्रह से संसार-निरोध का प्रतीकार्थ आता है जिससे अविद्यारूप रावण के विनाश का मार्ग प्रशस्त होता है ।
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निघटत : (१) घटत, चुकता, क्षीण होता । 'जिमि जलु निघटत सरदप्रकासे । मा० २.३२५.३ (२) घटते ही । 'निघटत नीर मीन गन जैसें ।' मा० २.१४७.८ निर्घाट : पूकृ० । क्षीण या अल्प हो (कर) । ' निघटि गये सुभट, सतु सब को
छुट्यो ।' कवि० ६.४६
निचाइहि : निचाई = नीचता में ही, अधमाचरण से ही । 'लहइ निचाइहि नीचु ।'
मा० १.५
निचाई : सं० स्त्री० (सं० नीचता > प्रा० निच्चया) । अधमता, दुष्टता । 'नीच निचाई नहि तर्ज ।' दो० ३३७
निचोद : पूकृ० (सं० निश्चोत्य > प्रा० निच्चोइअ > अ० निञ्चोइ ) । निचोड़ कर, सार निकाल कर । ' कहे बचन बिनीत प्रीति प्रतीति नीति निचोइ ।' गी० ५.५.५
निचोयो : भूकृ०पु०कए० । निचोड़ा रस निकालने का प्रयास किया । 'फिर फिरि बिकल अकास निचोयो ।' विन० २४५.३