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तुलसी शब्द-कोश
अवगाहत : वकृ० पु० । थहाते हुए । विन० १२२.४ अवगाहन्ति : आ० प्रब० (सं०) । थाह लेते हैं, मज्जन करते हैं । मा० ७.१३०
श्लोक २ अवगाहहिं : अवगाहन्ति । स्नानार्थ प्रवेश करते है। 'जे सर सरित रामु अवगाहहिं ।'
मा० २.११३.६ अवगाहा : वि० (सं० अ+वगाह) । अथाह। 'उभय अपार उदधि अवगाहा।'
मा० १.६.१ (२) अशक्य, दुर्गम । 'तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा ।' मा०
१.२४५.६ अवगाहि, ही : पूक० अवगाहन करके, निभज्जन करके । 'भइ कबि बुद्धि बिमल
अवगाही।' मा० १.३६.६ अवगाहु, हू : अवगाहा । 'प्रेम बारि अवगाहु सुहावन ।' मा० १.२६२.२ अबगाहैं : अवगाहहिं । गी० ७.१३.२ अवगुन : सं० पु. (सं० अवगुण) । दोष (गुण का विलोम)। मा० १.४.५ अवगुनन्हि : अवगुन+संब० । अवगुणों (को) 'गुन प्रगटइ अवगुनन्हि दुरावा ।'
मा० ४.७.४ अवग्या : सं० स्त्री० (सं० अवज्ञा) । तिरस्कार, अनादर, अवहेलना, अवमानना।
मा० ५.२६.५ अवघट : सं० पुं० (सं० अपघट्ट, अवघट्ट) । जलाशय का वह तट जिसमें चढ़ने
उतरने की व्यवस्था न हो और गहराई अधिक हो । मा० ३.७.४ प्रवचट : क्रि० वि० (सं० अव+चट आवरणे)। आवरण रखे हुए, अनिच्छा से,
बिना किसी लगाव के, उड़ती नजर से, सरसरे तौर पर । 'अवचट चितए
सकल भुआला।' मा० ६.२४८.६ अवट : आ० प्रए० (प्रा० अट्टइ=सं० क्वथति) । पकाता है, पकाए, आग और __पानी के गोग से परिपक्व करे। 'अवट अनल अकाम बनाई।' मा० ७.११७.१३ अवडेरि : पूक० । बाहर करके, तिरस्कृत करके, निकाल कर । 'पुनि अवडेरि
मराएन्हि ताही ।' मा० १.७६.८ [प्राकृत में 'द्वार' का रूपान्तर 'देर' होता है। 'सं० अपदार=गौण या छोटा द्वार>प्रा० अवदेर' से अवडेरना हिन्दी क्रिया की निष्पत्ति है अतः पिछले द्वार से निकालने जैसा मूल अर्थ है । निकालने या
तिस्ष्कृत करने का लाक्षणिक अर्थ चलता है।] अवडेरिये : आ०-कवा-प्रए । द्वार से निकालिए, बाहर कीजिए । 'पोषि तोषि थापि __आपनो न अवडेरिये ।' हनु० ३४ . प्रवडेरे : क्रि० वि० । अनादर के साथ, घर से बाहर करके । 'बिधिहु सृज्यो
अवडेरे ।' विन० २२७.२