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तुलसी शब्द-कोश
अवढर : क्रि० वि० (सं० अबाक् +द्रव>प्रा० अव+ढल-परि०)। नीचे को
ढलकना या बहना, बेरोक द्रवित होना, अतिशय उदारतावश बिना विचार
किये दान करना । 'आसुतोष तुम्ह अवढर दानी ।' मा० २.४४८ अवतंस : सं० पु० (सं०) आभरण । मा० २.६ अवतंसा : अवतंस । 'भए प्रसन्न चद्र अवतंसा ।' मा० १.८८.६ अवतर, अवतरइ, ई : (सं० अवतरित>प्रा० अवतरइ-अवतार लेना, जन्म ग्रहण ___ करना) आ० प्रए । अवतार लेता है। निज इच्छाँ प्रभु अवतरइ ।' मा० ४.२६ अवतरहिं, हीं : आ० प्रब० । अवतार लेते हैं। मा० १.१४०.२ अवतरिहउँ : आ० भ० उए । मैं अवतार लूगा । 'परमसक्ति समेत अवतरिहउँ ।'
मा० १.१८७.६ अवतरिहि : आ० भ० प्रए । अवतार लेगी (लेगा)। ‘सोउ अवतरिहि मोरि यह
माया ।' मा० १.१५२.४ अवतरी : भू० कृ० स्त्री० । अवतीर्ण हुई । 'जगदंबा जहँ अवतरी।' मा० १.६४ अवतरेउ : भू० कृ० पु. कए। अवतीर्ण हुआ। 'जो अवतरेउ भूमि भय टारन ।'
मा० १.१६.७ अवतरेहु : आ० भूक० पु+म० ब० । तुम अवतीर्ण हुए हो । 'धर्म हेतु अवतरेहु
गोसाई।' मा० ४.६.५ अवतार : सं० पु. (सं.)। परमेश्वर का जगत् में आकार ग्रहण करना अवतार
है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि अवतार हैं जिनके माध्यम से ब्रह्म (राम) जगत में अवतीर्ण होता है । उपासना की दृष्टि से आचार्य रामानुज ने अवतार के चार भेद किये हैं- (१) अर्चा=प्रतिभा, (२) विग्रह:-नृसिंह, वामन, वराह आदि; (३) व्यूह =चतुव्यूह वासुदेव या नारायण, संकर्षण प्रद्युम्न और अनिरुद्ध - रामभक्ति दर्शन में राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न का चतु!ह मान्य है; (४) प्रत्यक् अथवा अन्तर्यामी जो सभी जीवों में व्याप्त रहकर प्रेरणा देता है। रामानुज के अनुसार-चारों का उत्तरोत्तर महत्त्व है, फलतः प्रत्यक् सर्वोपरि है, परन्तु प्रथम तीन से होकर ही प्रत्यक् की उपासना संभव मानी गई है । अत्याचार का दमन करने हेतु अवतारों की अनन्तता मान्य है जिनके चार प्रमुख भेद किए जाते हैं-(१) आवेशावतार=छोटेमोटे अनाचार के विरुद्ध किसी व्यक्ति में भगवान् का आवेश हो सकता है। (२) प्रवेशावतार परशुराम आदि। (३) अंशावतार=वामन आदि ।
(४) पूर्णावतार=राम, कृष्ण । अवतारी : वि० (सं.)। अवतार लेने वाला। विन० ४३.१ अवदात : वि० (सं.)। उज्ज्वल, श्वेत। मा० ६ श्लोक १ अवध : अजोध्या (सं० अयोध्या>प्रा० अउज्फा) ।