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तुलसी शब्द-कोश
चपेटे : सं०पू०ब० । थप्पड़+दबाव । 'चपरि चपेटे देत नित केस गहें कर मीच ।'
दो० २४८ चबाइ : पूकृ० । चबाकर । 'आपने चना चबाइ हाथ चाटियतु है ।' कवि० ७.६६ चबेना : सं०० (सं० चयन्निक>प्रा० चव्वियन्नअ) । चना आदि चबाने योग्य
अन्न । मा० २.३०.६ चमकहिं : आप्रब० (सं० चमत्कुर्वन्ति>प्रा० चमक्कंति>स० चमक्कहिं)।
चमचमाते हैं । मा० ६.८७.३ चमकत : वकृ०० । चमकते । 'असि चमकत चोखे हैं।' गी० १.६५.१ /चमकाव, चमकावइ : (सं० चमत्कारयति>प्रा० चमवकावइ-चमकान्म, दीप्ति
से चकचौंधना, प्रकाश फेंकना, मटकाना) आ.प्रए । चमकाता है, चमकाती
है = मटकाती है । 'न उनिया भौं चमकावइ हो ।' रा०न० ८ चमकै : (१) चमंकहिं । चमचमाती हैं । (२) चमक+ब० । चमचमाहटें । 'चपला
चमकै धन बीच जग छबि ।' कवि० १.५ चमगादर : सं० । एक जन्तु जिसे दिन में नहीं सूझता, जिसके पैर नहीं होते
चमड़े के पंख जैसे होते हैं और उन्ही में कांटे होते हैं जिनके सहारे वृक्ष आदि में उलटा लटक जाया करता है; मुंह खरगोश के जैसा होता है; इसे पशु-पक्षी
का मध्यस्थ माना जाता है। मा० ७.१२१.२७ चमर : सं०० (सं.)। चवर (मोरछल) । मा० २.२२६.२ चमू : सं०स्त्री० (सं०) । सेना । कवि० ६.२३ चय : सं०० (सं०)। समूह । 'ज्यों चकोर चय चक्कवनि तुलसी चाँदनि राति ।'
दो० १६४ चयन : चेन । चैन, आनन्द । 'भसुर उर चले उमगि चयन ।' गी० १.५१.२ चयनरूप : आनन्दस्वरूप । 'करुना रस अयन चयन रूप भूप माई ।' गी० ७.३१ चये : चय, चए । गी० १.४५.३ चर : (१) वि० (सं०) । जंगम, गतिशील (स्थावर का विलोम) । 'जे सजीव जग
अचर चर ।' मा० १.८४ (२) सं०० (सं०) । गुप्तचर, भेदिया, दूत । 'बोले चर बरजोरें हाथा ।' मा० २.२७०.७ (३) चल । चञ्चल । 'चलदल को सो पात करै चित चर को।' गी० १.६६.३, /चर, चरइ, ई : (सं० चरति-चर गतिभक्षणयोः>प्रा० चरइ-आहार करना;
चलना, आचरण करना) आ०प्रए । खाता है । 'चरइ हरित तृन बलि पसु
जैसें ।' मा० २.२२.२ चरग : सं०पू० (सं० चरक>प्रा० चरग) । बाजपक्षी । 'चरग चंगु गत चातकहि
नेम प्रेम की पीर ।' दो० ३०१