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तुलसी शब्द-कोष
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जाया : (१) संस्त्री० (सं.)। पत्नी। 'उदासीन धन धाम न जाया ।' मा०
१.९७.३ (२) सं०० (सं० जातक>प्रा. जायअ) । पुत्र । 'जीति न जाइ प्रभंजन जाया ।' मा० ५.१६.६ (३) भूक०० (सं० जात>प्रा० जाय)।
उत्पन्न हुआ। 'जेहि न मोह अस को जग जाया।' मा० १.१२८.८ . जाये : (१) जाए। उत्पन्न किये। 'पूत जाये जानकी है।' गी० ७.३४.१
(२) उत्पन्न हुए । 'सब के समान जग जाये।' विन० २०१.४ (३) जायें ।
वथा । 'ते नर जड़ जीवत जग जाये।' गी० १.३२.७ जायो : जायउ । (१) पुत्र । 'असकहि चल्यो बालि नप जायो।' मा० ६.३५.१०
(२) उत्पन्न हुआ । 'जायो कुल मंगन ।' कवि० ७.७३ (३) उत्पन्न किया ।
'पूत सपूत कोसिला जायो ।' गी० १.२.१ /जार जारइ : (सं० ज्वलयति>प्रा० जालइ-जलाना, दग्ध करना, सन्तप्त
करना) आ०प्रए । जलाता है, जला सकता है। 'जारइ भुवन चारिदस आसू।"
मा० ६.५५.१ जारत : वकृ०० । जलाता, जलाते हुए । 'जारत नगर कस न धरि खाहू ।' मा.
७.६.३ (२) जला रहा (है)। 'जारत पचारि फेरि फेरि सो निसंक लंक।"
कवि० ५.२२ जारति : वक०स्त्री० । जलाती । 'जो जारति जोर जहानहि रे।' कवि० ७.२८ जारनिहारे : वि.पु.ब ० । जलाने वाले । क० ५६ जारा : (१) जाल । 'अस्थि सैल सरिता नस जारा ।' मा० ६.१५.७ (२) जारइ ।
जलाता, संताप देता। 'क्रोध पित्त नित छाती जारा।' मा० ७.१२१.३० (३) भूकृ०० । जला दिया । 'अस कहि जोग अगिनि तनु जारा।' मा०
१.६४.८ जारि : पूकृ० । जलाकर । 'कामु जारि रति कहुं बरु दीन्हा ।' मा० १.८६.२ जारि : आ०-भूक०स्त्री०+उए । मैंने जलाई, सन्तप्त की। 'जारिउँ जायें
जननि कहि काकू।' २.२६१.६ जारिए, ये : आ०कवा०प्रए । जलाइए, जलाया जाय । 'जारिये जवासे जस ।'
हनु० ३५ जारी : (१) भूक स्त्री० । जला दी । 'सपर्ने बानर लंका जारी ।' मा० ५.११.३
(२) जारि । जलाकर । 'करत बिबिध जोग, काम क्रोध लोभ जारी।' गी०
१.२५.६ जारें : जलाने से । 'गाइ गोठ महिसुर पुर जाएँ।' मा० २.२६७.५ जारे : भक००ब० । (१) जलाये । 'जारे हैं लंक से बंक मवासे ।' हनु० १७.
(२) जलाये हुए । 'नृपति लाज ज्वर जारे।' गी० १.६८.४ . . . . . .