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तुलसी शब्द-कोश
करकत : झलकत । 'झरकत मरकत भौंर ।' गी० ७.१९.३ झरके : आप्रब० (सं० झट संधाते+अक गती झट+अकन्ति>प्रा० झटक्कंति
>अ० झडक्कहिं) । चोट करते चलते हैं, आघात देने चलते हैं । 'मुड सों मुड
परे झरके।' कवि० ६.३५ झरत : वकृ०० (सं० क्षरत् >प्रा० झरंत) । धारासंपात करते, झड़ते। 'बोलत
बचन झरत जनु फूला।' मा० १.२८०.४ झरननि : झरना+संब० । झरनों (सें, से)। 'त्रिबिध समीर नीर झर झरननि ।'
गी० २.४६.५ झरना : सं०० (सं० झरण) । निर्झर), प्रपात । 'झरना झरहिं मत्त मग गाजहिं ।'
मा० २.३३५.५ झरहिं : आ०प्रब० (सं० क्षरन्ति>प्रा० झरंति>अ० झरहिं) । धारा या समूह में
गिरते हैं । 'झरना सरहिं सुधा सम बारी ।' मा० २.२४६.६ झरावति : वकृ०स्त्री० । झाड़-फूक करती। 'ओझा से दृष्टिदोष आदि दूर कराती।
गी० १.१२.४ झरि : सं०स्त्री० (सं० झटी>प्रा० झडी) । निरन्तर वृष्टि । 'देवन्ह सुमन वृष्टि
झरि लाई ।' मा० ७.११.१ करें : झरहिं । 'झरै बुदिया सी।' कवि० ५.१४ झरोखन्ह, न्हि : झरोखा+संब० । गवाक्षों (में) । 'जबती भवन झरोखन्हि लागीं।' __ मा० १.२२०.४; जा०म० ७२ झरोखा : सं० । गवाक्ष, मोखा, छोटा वातायन । 'इंद्री द्वारा झरोखा नाना।'
मा० ७.११८.११ झरोखें : गवाक्ष में-से । 'झांकती झरोखें लागीं।' कवि० १.१३ करोखे : झरोखा+ब० । 'समुझि हिताहित खोलि झरोखे ।' गी० ५.१२.४ झलक : (१) सं०स्त्री० (सं० झला, झल्लिका) । द्युति, चमक, आभा। 'तिलक
झलक भालि भाल ।' विन० ४४.५ (२) झलकइ । 'मुकुता झालरि झलक जनु
राम सुजस सिपु हाथ ।' दो० १६० /झलक झलकइ : आ०प्रए । चमचमाता है, दीप्ति फेंकता है । 'नव नील कलेवर
पीत अँगा झलकै ।' कवि० १.२ झलकत : वक़ पु । चमकता-ते। 'झलका झलकत पायन्हि कैसें ।' मा० २.२०४.१ झलकति : वक०स्त्री० । चमकती। 'झलकति बाल बिभूषन झाई ।' गी० १.२४.२ झलकनि : सं०स्त्री० । झिलमिलाहट, झलकने की क्रिया, चमक । गी० १.२२.३ अलका : सं० । फफोला । मा० २.२०४.१