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लुलसी शब्द कोम
ध्याइबे : भक० । ध्यान करने । 'झ्याइवे को गाइबे को सेइब सुमिरिबे को।
गी० २.३३.३ ध्यान : सं०० (सं.)। चित्त की अविच्छिन्न एकाग्रता। मा० १.३४ (२) योग
के आठ अङ्गों में सातवां साधन-दे० धारणा । ध्यानरस : आराध्य में एकाग्र निरुद्ध चित्त की वह दशा जिसमें भक्ति के आनन्द का
योग हो और उसी आनन्द में चेतना आराध्य से अखण्ड एकाकार हो जाय ।
'मगन ध्यानरस दंड जुग ।' मा० १.१११ ध्याना : ध्यान । मा० ७.११३.७ ध्यानु : ध्यान+कए० । एकमात्र ध्यान साधना । 'ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें।'
मा० १.२७.३ Vध्याव, ध्यावइ : (सं० ध्यायति>प्रा० धिआयइ) आ०प्रए । ध्यान करता है। ___ 'कोउ ब्रह्म निरगुन घ्याव ।' मा० ७.११३.७ ध्यावहि, हीं : आ०प्रब० । ध्यान में लाते हैं । 'जोगी.. बिमल मन जेहि घ्यावहीं।'
मा० १५१ छं० ध्रुव : ध्रुव ने । 'ध्र व सगलानि जपेउ हरि नाऊँ।' मा० १.२६.५ ध्रुव : सं०० (सं.)। उत्तानपाद की बड़ी रानी सुनीति का पुत्र, जिसने विमाता
के कहने से पिता द्वारा अपमानित होकर बाल्यकाल में तप किया था। मा० १.८४.४ (२) पुराणों के अनुसार उन्हीं ध्र व को अचल नक्षत्र के रूप में
प्रतिष्ठा मिली। धू : ध्र व । 'सुनी न कथा प्रहलाद न धू की।' कवि० ७.८८ ध्वज : सं०पु० (सं.)। बड़ा झण्डा । मा० १.१६४.१ ।। ध्वजा : ध्वज । मा० ६.८०.५ ध्वान्त : संपु० (सं०) । अन्धकार । मा० ३ श्लो० १ ध्वान्तचर : निशाचर । 'ध्वान्तचर सलभ संहार कारी।' विन० २७.१ ध्वहौं : आ०भ० उए० (सं० धाविष्यामि>प्रा० धोइहिमि>अ० धोइहिउँ)।
धोऊँगा। 'ती जननी जग में या मुख की कहाँ कालिमा ध्वहौं ।' गी० २.६२.१
न : (१) निषेधार्थक अव्यय । (२) 'नाहिन' में निश्चयार्थक अव्यय । नंचहि, हीं : नाचहिं । मा० ६.८८.७; ३.२० छं० २ नंद : सं०० (सं०) (१) गोपमुख्य जिनके कृष्ण पालित पुत्र थे। कृ० २१
(२) पुत्र । 'रघुनंद' । मा० ७.१४ छं० १०