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________________ तुलसी शब्द-कोश 215 खेवा : सं०० (सं० क्षेप>प्रा० खेव) । नाव की खेप, एक बार पार जाने वाला नौकाभार। खेवैया : वि०। खेने वाला, नाविक । 'न बोहित नाव न नीक खेवैया।' कवि० ७.५२ खेस : सं०० (अरबी-खेश)। मोटे धागों से घना बुना वस्त्र-विशेष जो ओढ़ने बिछाने के काम आता है । 'साथरी को सोदूबो, ओढ़िबो झूने खेस को।' कवि० ७.१२५ खेह : सं०स्त्री० । राख, धूल । 'भागे तें खिरिरि खेह खाहिगो।' कवि० ६.२३ खेहर : खेह । 'सो नर खेहर खाउ ।' विन० १००.१ Vखंच बैंचइ : (सं० खच्चाति>प्रा. खंचइ-खींचना, अपनी ओर को तानना) आ.प्रए० । खींचता है, खींच ले। 'चढ़ी चंग जनु खैच खेलारू ।' मा० २.२४०.६ बचत : वकृ०० (सं० खच्चत् >प्रा० खंचंत) । खींचते, तानते (हुए) । 'लेत चढ़ावत बँचत गाढ़ें।' मा० १.२६१.७ खंचहि : आ०प्रब० (सं० खच्चन्ति>प्रा० खंचंति>अ.खंचहिं) । खींचते-तानते हैं। 'खैहि गीध आंत तट भए।' मा०६.८८.५ बँचहु : आ०मब । खींचो, तान कर चढ़ाओ। 'खैचहु चाप मिटै संदेहू ।' मा० १.२८४.७ वंचि : पूर्व० । खींच कर, तान कर। 'बंचि सरासन छाँड़े सायक ।' मा० ६.६२.६ खैबो : भूकृ००कए० ((सं० खादितव्यम् >प्रा० खाइअव्वं>अ.खाइव्वउ) । खाना । 'मागि के खैबो मसीत को सोइबो।' कवि० ७.१०६ खैहों : आ०भ०उए० (सं० खादिष्यामि>प्रा० खाइहिमि>अ० खाइहिउँ)। खाऊँगा । सिगरिये होंही खैहौं ।' कृ० २ खोंच : सं०स्त्री० (सं० क्रुञ्चा>प्रा० कुंचा=कोंचा) । उलझने से बनने वाली __ वस्त्रादि की फटन, खरोंच । 'तुलसी चातक प्रेम-पट मातहुं लगी न खोंच ।' ___ दो० ३०२ खो : को। का । 'दूजो को कहैया औ सुर्नया चख चारि खो।' कवि० १.१६ खोइ : पूर्व० (सं० क्षपयित्त्वा>प्रा० खविअ>अ० खवि) । खोकर, क्षपित कर, ___ मिटा कर, गवां कर । 'पूछ बुझाइ खोइ श्रम ।' मा० ५.२६ खोई : (१) खोइ । 'गुजा ग्रहइ परस मुनि खोई ।' मा० ७.४४.३ (२) भू० कृ० स्त्री० (सं० क्षपिता>प्रा० खविआ)। खो गई, मिटी। 'राम प्रताप बिषमता खोई ।' मा० ७.४४.३
SR No.020839
Book TitleTulsi Shabda Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBacchulal Avasthi
PublisherBooks and Books
Publication Year1991
Total Pages564
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size32 MB
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