________________
352
तुलसी शब्द-कोश
जिअ : आ०-आशी:-मब० । जिओ। 'जि अहु जगतपति बरसि करोरी ।' मा०
२.५.५ जिप्राइ, ई : पूकृ० । जिला, जीवित कर । 'प्रभु सक त्रिभुवन मारि जिआई ।' मा०
६.११४.४ जिआउ : आ०–आज्ञा-मए० (सं० जीवय>प्रा० जिआव>अ० जिआयु) ।
तू जीवित कर । 'सकल जिआउ सुरेस सुजाना ।' मा० ६.११४.१ जिआएँ : जिलाने से । 'मारें मरिअ जिआएँ जीज।' मा० ३.२५.४ जिप्राए : भूकृ०पु०ब० । जीवित किये । 'सुधा बरषि कपि भाल जिआए ।' मा०
६.११४५ जिआयउ : भूकृ०पु०कए । जिलाया, जीवित किया । 'मोहि जिमआयउ जन सुख
दायक ।' मा० ७.६३.७ जिआयो : जिआयउ । 'धिग बिधि मोहि जिआयो।' गी० २.५६.३ /जिआव जिप्रावइ : (Vजिअ+प्रेरणा-सं० जीवयति>प्रा० जिआवइ_ जिलाना) आ०प्रए । जिलाता है, जीवित रखता है। 'सोइ बिधि ताहि
जिआव न आना।' मा० ६.६६.१० जिआवत : वकृ०० (सं० जीवयत्>प्रा० जिआवंत)। जिलाता, जिलाते । 'अरि
बस देउ जिआवत जाही।' मा० २.२१.२ जिप्रावनि : सं०स्त्री० (सं० जीवनी>प्रा० जिआवणी) । संजीवनी, जीवनदात्री।
'मृतक जिआवनि गिरा सुहाई।' मा० १.१४५.७ जिआवसि : आ०मए० (सं० जीवसि>प्रा० जिआवसि) । तू जिलाता है। 'संकर
बिमुख जिआवसि मोही।' मा० १.५६.४ जिआवा : भूकृ०० (सं० जीवित>जिआविअ) । जिला हुआ। 'जिअसि सदा
सठ मोर जिआवा ।' मा० ५.४१.३ (२) जिआवइ । जिलाता है । 'जो एतेहुं
दुख मोहि जिआवा ।' मा० २.१६५.८ जिआवै : जिआवइ । जीवित रखे । 'जौं जड़ देव जिआवै मोही।' मा० ६.६१.१० जिहहिं : आ०म०प्रब० (सं० जीविष्यन्ति>प्रा० जिइहिति>अ. जिइहिहिं)।
जिएंगे । 'प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें ।' मा० २.१००.१ जिइहि : आ०भ०प्रए० (सं० जीविष्यति>प्रा. जिइहिइ)। जियेगा। नप कि
जिइहि बिनु राम।' मा० २.४६ जिउ : (दे० जीव) सं०पु०कए० (सं० जीव:, जीवम् >प्रा० जिओ, जिअं>अ०
जिउ) । (१) जीवन, प्राण । 'जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी।' मा० २.१४५.४ (२) जीवात्मा। 'जिउ सुख कबहुं न पावै ।' विन० १२०.५ (३) जन्तु, प्राणी । 'गुह गरीब गत ग्याति जेहिं जिउ न भखा को ।' विन०