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तुलसी शब्द कोश
353 १५२.७ (४) (आशीर्वाद अर्थ में) जीव, जी। 'काहे राम जिउ सविर
लछिमन गोर हो।' रा०न० १२ जिएँ : जीने से । 'तुलसी जग में फल कौन जिएँ।' कवि० १.२ जिए : भूकृ००ब० । जी उठे । 'जिए सकल रघुपति की ईछा ।' मा० ६.११४.८ जिये : (१) जिअइ । जीता है। 'सोई जिऐ जग में तुलसी।' कवि० ७.३६
(२) जी सके, जीता रहे । 'जिऐ मीन बरु बारि बिहीना।' मा० २.३३.१
(३) भकृ० । जीना जाने को । 'जिऐ मरै भल भूपति जाना।' मा० २.१६६.८ जिऔं : आ०उए० (सं० जीवामि>प्रा० जिआमि>अ० जिउँ) । जिऊँ, जीवित
रहूं। 'जब लगि जिऔं ।' मा० २.३६.७ । जित : (१) वि. (सं० जित्) जीतने वाला । 'षट बिकार जित अनघ अकामा ।'
मा० ३.४५.७ (२) क्रि०वि० अव्यय (सं० यत:>प्रा० जत्तो)। जिधर, जिस
ओर । 'ए नयन जाहुं जित हरी ।' गी० १.७८.२ /जित जितइ : (सं० जितं करोति=जितयति-जीतना, पराजित करना) आ०
प्रए । जीतता है। जितई : भूकृ०स्त्री० । जितायी, विजययुक्त कर दी । 'सुकृत सेन हारत जितई है।'
विन० १३६.११ जितन : भकृ० । जीतने । 'बलिहि जितन एक गयउ पताला ।' मा० ६.२४.१३ जितने : जेते । 'रंक निरगुनी नीच जितने निवाजे हैं।' विन० १८०.८ जितब : भकृ.पु । जीतना, पराजित करना।' भुजबल बिस्व जितब तुम्ह
जहिआ।' मा० १.१३६.६ जितहिं : आ.प्रब । जीतते हैं, जीत पाते हैं (थे) । तेहिं बल ताहि न जितहिं
पुरारी।' मा० १.१२३.८ जिता : (१) भूकृ.पु । जीत गया, जीत लिया। 'जिता काम अहमिति मन
माहीं।' मा० १.१२७.५ (२) जित । जेता, जीतने वाला । 'धरम धुरघर धीर
धुर गुन सील जिता को।' विन० १५२.६ जिताये : भूकृ०० । विजयी बनाये । 'तेरे बल बानर जिताये रन रावन सों।'
हनु०३३ जिताहि : आ.प्रब० । जिताते हैं, विजय दिलाते थे। 'हारेहुं खेल जिताहिं ___ मोही।' मा० २.२६०.८ जिति : जीति । जीतकर । जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी। गवनु कीन्ह ।' मा०
२.२८७.३ जितिहहि : आ०भ०प्रब । जीतेंगे । जितिहहिं राम न संसय या महिं ।' मा०
६.५७.५