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________________ तुलसी शब्द-कोश 351 जाहि, ही : (१) सर्वनाम । जिसे, जिसको । 'बरइ सीलनिधि कन्या जाही।' मा० १.१३१.४ 'जाहि दूसरो भाव । कृ० ३३ (२) आ०-आज्ञा-मए० (सं० याहि प्रा०>जाहि) । तू जा । 'करिआ मह करि जाहि अभागे।' मा० ६.४६.३ 'अब जनि नाथ कहहु, गृह जाही।' मा० ७.१८.८ जाहिगो : आ०भ००मए० । तू (नष्ट हो) जायगा। देहि सिय, ना तो पिय, परमाल जाहिगो।' कवि० ६.२३ जाहिर : वि० (अरबी-जाहिर)। प्रसिद्ध । कवि० ७.७६ जाहुं : आ०प्रब० । जायें । 'अब ए नयन जाई जित एरी।' गी० १.७८.२ । जाहु : आ०मब० (सं० याथ, यात>प्रा० जाह>अ० जाहु)। (१) जाते हो। 'खलहु जाहु कहँ मोरे आगे।' मा० ६.६७.७ (२) जाओ । 'सहित सहाय जाहु मम हेतू ।' मा० १.१२५.६ जाहू : (१) जाहु । 'बिप्र बद उठि उठि गृह जाहू ।' मा० १.१७३.६ (२) जा+ है। जिसके । 'सकइ न बरनि सहस मुख जाहू ।' मा० १.३३१.८ /जिअ जिअइ : (सं० जीवति-जीव प्राणधारणे>प्रा० जिअइ) आ०प्रए । जीता-ती है; जी सकता-ती है । 'जिअइ कि लवन पयोधि मराली।' मा० जिअत : वकृ०० (सं० जीवत्>प्रा० जिअंत)। जीता, जीते (जीवन धारण करते हुए)। 'देखउँ जिअत बैरी भूप किसोर ।' मा० १.२७६ (२) जीता (है), जीते (हैं) । 'जिअत अवधि की आस ।' मा० २.३२२ जिअन : सं०पु० (सं० जीवन >प्रा० जिअण) । (१) जीवन । 'जिअन मूरि जिमि जोगवत रहऊँ ।' मा० २.५६.६ (२) जीने की क्रिया । 'जिअन मरन फलु दसरथ पावा ।' मा० २.१५६.१ जिअनमूरि : जीवन मूलिका । जीवन-दायिनी जड़ी। जीवन का मूल तत्त्व । ऐसी जड़ जिसमें प्राण निहित ही (जिसके उखाड़े जाने पर प्राणहानि निश्चित हो)। दे० जिअन । जिअब : भकृ०० (सं० जीवितव्य>प्रा० जि इअव्व)। (१) जीवन । 'भूपति जिअब मरब उरआनी ।' मा० २.२८२.७ (२) जीना होगा (जी सकना होगा =जिऊँगा) । 'मै न जिअब जिनि जल बिनु मीना ।' मा० २.६६.८ जिअसि : आ०मए० (सं० जीवसि>प्रा० जिअसि) । तू जीता है। 'जिअसि सदा सठ मोर जिआवा।' मा० ५.४१.३ जिअहिं : आ०प्रब० (सं० जीवन्ति>प्रा० जिति>अ0 जिअहिं)। जीते हैं, जी जायँ । 'जिअहिं बिचारे निसिचर खाई।' मा० ५.३७.३ जिअहं : जीवहुं । जीवित रहें । 'चिर जि अहुँ जोरी ।' मा० १.३२७ छ० ४
SR No.020839
Book TitleTulsi Shabda Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBacchulal Avasthi
PublisherBooks and Books
Publication Year1991
Total Pages564
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size32 MB
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