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तुलसी शब्द-कोश
41 अभ्यंतर : वि० (सं० आभ्यन्तर) भीतरी, आन्तरिक, (मानसिक) । 'बाहिर कोटि
उपाय करिअ अभ्यंतर ग्रंथि न छूटे ।' विन० ११५.१ अभ्यास : सं० पु० (सं.)। एक ही कार्य को बार-बार निरन्तर करते रहने की
प्रक्रिया; उस प्रक्रिया से बनी हुई मानसिक वासना। 'जनम-जनम अभ्यास
निरत चित अधिक-अधिक लपटाई।' विन० ८२.१ अमंगल : मंगल का अभाव या मंगल-प्रतिकूल स्थिति । मा० १.२६.१ अमर : (१) वि० (सं०) जो मरता न हो, मृत्युजयी । 'अजर अमर सो जीति न
जाई ।' मा० १.८२.७ (२) सं० (सं०) देवजाति । 'सब अमर हरष सुमन
बरषि ।' मा० १.१०२ छं. अमरउ : अमर भी । न मर सकता हो, उसे भी । 'सकउँ तोर अरि अमरउ मारी।'
मा० २.२६.३ अमरता : अमरत्व के कारण, अमर करने की प्रकृति से । 'सुधा सराहिअ अमरता।'
मा० १.५ अमरपति : देवराज इन्द्र । मा० २.१७४ अमरपद : अमरों=देवों का पद; मृत्युहीन स्थिति =अमरत्व । 'अभिअ अमरपद .. माहुरु मीचू ।' मा० २.२९८.६ अमरपुर : स्वर्ग, देवलोक । मा० २.१४१ अमरष : सं० पुं० (सं० अमर्ष) रोष, असहिष्णुता । मा० ७.३८.२ अमरषत : वकृ पुं० । रोष करता-ते । 'बारहिं बार अमरषत करषत करके परी
सरीर ।' गी० ५.२२.८ अमरषा : भू० कृ० ० । अमर्ष-युक्त हुआ, क्रुद्ध हुआ । 'को कर अटक कपि कटक
अमरषा।' कवि० ६.७ अमरावति : सं० स्त्री० (सं० अमरावती) इन्द्र की नगरी, स्वर्गपुरी।
मा० १.१५२८ अमरावतिपाल : (दे० पालु) इन्द्र । मा० २.१६६.७ अमल : वि० (सं०) निर्मल, निष्कलुष । मा० १.४२.७ अमा, अमाइ, ई : (सं० माति, आमाति,>प्रा० माइ, आमाइ-समाना, सीमा में
आ जाना) आ० प्रए । अमाता है । 'प्रेम उमंग न अमाइ ।' रा० प्र० ४.४.१
'हृदयें न अति आनंदु अमाई ।' मा० १.३०७.४ अमात : वकृ० पु. (सं० मात्>प्रा० माअंत) समाता-ते । 'हृदय न प्रेमु अमात ।'
मा० १.२८४ अमान : वि० (सं०) (१) मान =प्रमाण+परिमाण से रहित, अमेय, अप्रमेय,
अज्ञेय । 'मानद अमान' विन० ४२.३ (२) प्रमाण+आत्म सम्मान से रहित । 'अगुन अमान मातु पितु हीना ।' मा० १.६७.८ (३) अभिमनरहित ।