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तुलसी शब्द-कोश कोजे, जौ : कीजिअ (प्रा०>किज्जीअइ=किज्जइ)। 'तेहि सन नाथमयत्री ... कीजे ।' मा० ४४३ 'ऊधो हैं बड़े कहैं सोइ कीजै ।' कृ० ४६ । कोट : सं०० (सं०) । क्षुड़जन्तु-जैसे (१) धुन । 'दास सरीर कीट पहले सुख
सुमिरि-सुमिरि बासर निसि घुनिए।' कृ० ३७ (२) कोश कीट, रेशम का कीड़ा । 'पाट कीट तें होइ ।' मा० ७ ६५ ख (३) कोई भी छोटा जीव चींटी
आदि । 'काह कीट बपुरे नर नारी।' मा० २.२६.३ कट-भृग : एक मुहावरा जिस का तात्पर्य है कि भृङ्ग नामक पतिंगा 'झीगुर' के
पैर काट कर अपने घरौंदे में रखता है । फिर मँडराता हुआ आवाज करता रहता है जिस से पतिङ्गा अपवश उसी भृङ्ग के ध्यान में तन्मय हो जाता और कुछ दिनों में भृङ्ग बनकर निकलता है । 'भइ मम कीट-भृग की नाई।' मा०
३.२५.७ कीटु : कीट+कए । एक तुच्छ जन्त । को कुंभकर्नु कीटु ।' कवि० ६.२ कीती : सं०स्त्री० (सं० कीर्ति:>प्रा० कित्ती)। यश । 'जासु सकल मंगलमय
कीती।' मा० ५.३५.५ कीवहुं : किधौं (दे० दहुं) । उत्प्रेक्षदि सूचक अव्यय । 'कीदहुं रानि कोसिलुहिं परिगा ___ भारे रो।' रा०न० १२ कीधौं : किधौं । हनु० ३७ कोने : कीन्हे । विन० १०६.२ कीन्ह, न्हा : किया (दीन्ह की समानता से हिन्दी में प्रयुक्त हुआ)। मा० १.५.१ कोन्हि : कीन्ह+स्त्री० । की, की गई । 'जौं परिहास कीन्हि कछु होई ।' मा० . २.५०.६ कोन्हि : मा०-भूकृ० स्त्री०+उए । मैं ने की-कीं । 'आजु लगे कीन्हिउँ तुम
सेवा।' मा० १.२५७.७ कोन्हिसि : आ०-भूकृ० स्त्री०+कए । उसने की-की। 'उठि बहोरि कोन्हिसि
बहु माया।' मा० ५.१९.६ कोन्हिहु : आ-भूकृ०स्त्री०+मब० । तुमने की-कीं। 'कीन्हिहु प्रस्न मनहुं अति
मूढ़ा ।' मा० १.४७.४ कीन्हीं : कीन्हि+ब० । की। राज बैठि कीन्हीं बहु लीला।' मा० १.११०.८ कीन्ही : कीन्हि । की। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही ।' मा० १.६१.५ ।। कीन्हें : करने पर, करने से । 'जे अध तिय बालक बध कीन्हें ।' मा० २ २६७.६ कीन्हे : कीन्हे का रूपान्तर (ब०) । किये (बनाये)। जहं तहँ मुनिन्ह सुआश्रम
कीन्हे ।' मा० १.६५.८