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तुलसी शब्द-कोश
कीन्हेउ : आ० - भूपु ० + उए० । मैं ने किया - किये । 'सो फलु पायउ कीन्हे रोषा ।' मा० ३.२६.३
कीन्हेउ : कीन्ह + कए० । किया । 'नाथ काजू कीन्हेउ हनुमाना ।' मा० ५.२६.५ कीन्हेसि : आ० - भूपु प्र० । उसने किया - किये। 'कीन्हेसि रामचन्द्र कर
काजा मा० ५.२८.४
कीन्हेहू : आ०- - भूकपु० + मब० । तुमने किया किये। बर पायहु कीन्हेहु सब
काजा ।' मा० ६.२०.४
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कीन्हो : कीन्ह्यो । 'बाम बिधि कीन्हो कहा ।' मा० २.२७६. छं०
कोन्ह्यो : कीन्हेउ । 'ईस के ईस सों बैरु कीन्ह्यो ।' कवि० ६.१८
कोबी : करबि । करनी (करणीया ) । 'तुलसी की बलि बार बरहीं सँभार कीबी । ' कवि० ७.८०
कांबे : करिबे । करने (योग्य) । 'कीबे को बिसोक लोक ।' कवि० ७.१७ कीबो : भकपु ं० कए० । करना, करने योग्य, करने शक्य ( किया जा सकेगा ) । 'अब ब्रजबास महार किमि कीबो ।' कृ०६
कोय : किय । विन० २६३.२
कोयो : कियो कियउ । कवि ७.१७६
कीट : सं०पु० (सं०) । ( १ ) शुकपक्षी । मा० ३.३८.६ ( २ ) शुकदेव मुनि जिन्हों ने परीक्षित को भागवत कथा सुनाई थी । 'कह्यी जो भुज उठाइ मुनिबर कीर ।' विन० १६६.१
stefa: सं० [स्त्री० (सं० कीर्ति) । यश, ख्याति । मा० १.३.५
कीरा : सं०पु० (सं० कीर = कीटक > प्रा० कीउअ ) । कीड़ा । ' गरिन जीह मुहँ परेउ न कीरा ।' मा० २.१६२.२
कीरु : कीर + कए० । (कोई एक ) तोता । 'कीरु ज्यों नामु रटं तुलसी ।'
कवि ०
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० ७.६०
कीरें : कीट को, शुक पक्षी के लिए, तोते के प्रति । 'जैसे पाठ अरथ चरचा कीरं ।'
गी० ६.१५.२
कीर्तन : सं०पु० (सं०) । कीर्तिगान, गुण वर्णन । गी० २.४३.२
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कीति : कीरति । कवि० ६.५
कील : सं० (सं०) । 'कनक कीलमनि पान संवारे ।' मा० १.३२८.८
कोले : भूकृ०पु० ( ब० ) । कील दिए, कीलों से जड़कर निष्क्रिय कर दिए, मन्त्र या किसी अभिशाप से व्यर्थ बना दिए । 'जानत हौं कलि तेरेऊ मन गुन गन कीले ।' विन० ३२.२
कीस, सा: सं०पु० (सं० कीश > प्रा० कीस ) । वानर । मा० १.१८.१