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तुलसी शब्द-कोश
किंकर : सं०० (सं०) । दास, परिचारक, सेवक । मा० १.१२.३ वैष्णवमत में
'भगवल्कैकर्म' ही मुक्ति रूप है, बही जीव का स्वरूप है जिस की अनुभूति
परम पुरुषार्थ है। 'दीनबन्धु रघुपति कर किंकर ।' मा० ७.२.६ किंकरि, री : किंकर+स्त्री० (सं० किंकरी)। दासी परिचारिका । मा० १.१२०.४ किंकर : किंकर+कए० । अनन्यदास । 'राम को किंकरु सो तुलसी।' मा० ७.५६ किकिनि, नी : सं०स्त्री० (सं० किंकिणी) । छोटी घण्टी जो आभूषणों में टंकी . रहती है; उन घण्टियों से जटित आभूषण । 'कटि किंकिनी उदर भय रेखा ।'
मा० १.१६६.४ किंजल्क : सं००० (सं.)। पुष्पकेसर । कृ० २३ किनर : (सं०) देव जाति विशेष जिसका धड़ मनुष्य का और सिर घोड़े का कहा
गया है। मा० १.७ घ किनरी : सं०स्त्री० (सं०) । किंगरी; वीणा या सारंगी से मिलता-जुलता वाद्य
विशेष । दो० ३५८ किंवा : अव्यय (सं० किंवा) । अथवा। 'नृप अभिमान मोहबस किंवा।' मा०
६.२०.५ किसुक : सं०० (सं० किंशक) । टेसू, पलास । मा० ६.५४.१ किआरी : सं०स्त्री० ब० । क्यारियां । 'महाबष्टि चलि फूटि किआरौं।' मा०
किआरी : सं०स्त्री० (स. केदारिका>प्रा० केआरिआ>अ० केआरी)। सिंचाई
हेतु मेड़ बांध कर बनाया हुआ कृषि भाग किएँ : (१) किए हुए, करके । रहि न जाइ बिनु किएँ बरेखी।' मा० १.८१.३
(२) करने से, करने पर । 'किएँ अन्यथा होइ नहिं ।' मा० १.१७४ किए, ये : भू० कृ०० (ब०) (सं० कृत>प्रा० किम, किय) । 'किए कठिन कछु
दिन उपबासा।' मा० १.७४.५ ।। किछु : कछु । कुछ । 'बिधि करतब पर किछु न बसाई ।' मा० २.२०६.८ कित : अव्यय (सं० कुतः>प्रा० कत्तो) । किधर, किस ओर, कहाँ । 'कुलिस कठोर
कहाँ संकर धनु, मृदु मूरति किसोर कित ए री।' गी० १.७८.३ कितहं : किसी ओर, कहीं । 'जाहु कितहूं जनि ।' कृ० ५ कितो : वि०० कए० (सं० कियान् >प्रा० कियत्तो) । 'बरज्यो न करत कितो
सिर धुनिए।' कृ० ३७ किती : कितना, कितना भी । 'लोचन मोचन बारि किती समुझाए।' गी० २.३५.४ किधौं : (कि+धौं) । या कि, या भला, अथवा क्या। 'जम कर धार किधौं
बरिनाता।' मा० १.६५.७