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________________ तुलसी शब्द-कोश 201 खगराज, जा : (१) गरुड़ । मा० ७.६०.५ (२) जटायु । 'राम काज खगराज आजु लर्यो।' गी० ३.८.३ ।। खगराय, या : खगराज (दे० राया) । मा० ७.७८.१ खगहा : सं०० (सं० खड्गिन् =खड्गभृत>प्रा० खग्गी खग्गह)। गैड़ा (पशु विशेष) । मा० २.२३६.३ खगही : पक्षी ही । 'समझइ खग खगही के भाषा।' मा० ७.६२.६ खगी : खग+स्त्री० (सं०) । पक्षिणी, चिड़िया । गी० ५.२०.२ खगे : भूकृ०० । धुसे, खप गये, छुप गये । 'खग्गे खग खपुआ खरके ।' कवि० ६.३५ खगेस, सा : सं०पु० (सं० खगेश) । गरुड़ । मा० ४.७.२४ खग्ग : (१) खग=पक्षी । 'खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं ।' मा० ६.८८ छं० (२) (सं० खग्ग>प्रा० खग्ग) तलवार । 'भिरे भट, खग्ग खगे, खपुआ खरके ।' कवि० ६.३५ खचाई : भू००स्त्री० । खींची। 'रामानुज लघुरेख खचाई ।' मा० ६.३६.२ खचित : भूकृ वि० (सं.) जटिल =जड़ा हुआ । गहरी रेखाएँ बना कर जड़ा हुआ; पच्चीकार किया हुआ । कनक कोट मनि खचित दृढ ।' मा० १.१७८क खची : भू.कृ०स्त्री० (सं० खचिता)। जड़ाऊ, पच्ची की हुई। 'मनि खंभ, भीति बिरंचि बिरची कनक, मनि मरकत खची।' मा० ७.२७ छं० खचे : खचित (बहु०) । जटित । 'प्रति द्वार द्वार, कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे ।' मा०६.२७ छं० खच्चर : सं०० (सं० खचर)। पशु विशेष जो अश्व-गर्दभ-योग से उत्पन्न होता है । मा० ५.३ छं० १ खजानो : सं.पु.कए० (अरबी-खजान:-न कही का गोदाम) । मुद्राकोश, बैंक । 'तुलसी को खुलैगो खजानो खोटे दाम को।' कवि० ७.७० सरि : सं०स्त्री० (सं खजूरी>प्रा० बज्जूरी) । खजूर का पेड़। दो० ५१४ खटा खटाइ : (सम्बन्ध निभाना, किसी के साथ निभना)। आ० प्रए । निभता है, निभ सकता है । 'कहो, ऐसे साहेब की सेवा न खटाइ को।' कवि० ७.२२ खटाइ : खटाई । 'विषय बिरत खटाइ नाना कस।' विन० २०४.२ खटाई : सं०स्त्री० (प्रा० खट्ट) । अम्ल । मा० १.५७ख खटाहि : आप्रब० । निभते हैं, निभती हैं । 'सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुं कि नारि खटाहिं ।' मा० १.७६ खटोला : सं०० (सं० खट्वा>अ० खट्टोल्लअ) छोटी हल्की खाट (पालकी आदि का आसन)। विन० १८९.२
SR No.020839
Book TitleTulsi Shabda Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBacchulal Avasthi
PublisherBooks and Books
Publication Year1991
Total Pages564
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size32 MB
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