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तुलसी शब्द-कोश
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ढरे : भूकृ.पुब० । ढले, चले, पड़े । 'पासे सुढर ढरे री।' गी० १.७६.३ ढरेंगे : आ०भ००प्रब० । ढलेंगे, गति लेंगे। 'ढरेंगे राम आपनी ढरनि ।' विन०.
१८४.५ ढहा : भूक०० । ध्वस्त हो गया , 'राज समाज ढहा है ।' गी० २.६४.२ ढहाए : भूकृ००ब० । गिराये । 'गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए ।' मा० ६.४६.१० ढहावहिं, हीं : आ०प्रब० । (१) ध्वस्त करते हैं। 'सुभट भटन्ह ढहावहीं।' मा०
६.८८ छं० (२) गिराते हैं । 'निसिचर सिखर समूह ढहावहिं ।' मा०
६.४१.८ ढहावा : भूकृ०० । ध्वस्त कर धराशायी किया। 'भवन ढहावा ।' मा० ६.४४.३ ढहे : भूकृ०० ब० । ध्वस्त हुए । 'ढहे समूल बिसाल तरु।' रा०प्र० ६.३.५ ढांकी : पूकृ० । ढाँक कर, आवृत कर । मा० २.११७.६ ढाके : भूक०पुब० । (प्रा. ढक्किय=ढंकिय) । आवत किये। 'भीमता निरखि ____ कर नयन ढांके ।' कवि० ६.४५ ढाबर : वि.पु. । गंदला, कँदैला, मलिन । 'भूमि परत भा ढाबर पानी।' मा०
४.१४.६ ढार : सं०स्त्री० । (१) ढाल, ढलकाव, बहाव । (२) मदिरा ढालने की क्रिया।
(३) साँध लेने की क्रिया । 'जोबन नव ढरत ढार दुत्त मत्त मृग मराल । गी० २.४३.३ (नये सांचे में यौबन-मदिरा ढल रही है जिससे मृग आदि मतवाले
/ढार, ढारइ : (सं० ध्राडययि-ध्राड्ढ विशरणे>प्रा० ढालइ-ढालना, बहाना,
उँडेलना, प्रतिमा अादि को सांचा देना) आ.प्रए । ढालता-ती है । 'नारि चरित करि ढा रइ आँसू ।' मा० २.१३.६ (मन्थरा आँसू साँचे में मानों ढाल
कर बहा रही है जैसे कोई स्त्री मदिरा ढलका रही हो) ढारत : वकृ०० । ढलकाता-ते ; बहाते । 'दूध दह्यो माखन ढारत है।' कृ०६ ढारति : वक०स्त्री० । ढालती, बहाती। 'बरत बारि उर ऊपर ढारति ।' गी०
५.१६.२ ढारि : (१) पूक० । उँडेल (कर) । 'ऊपर ढारि देहिं बहु बालू ।' मा० ६.८१.७
(२) प्रतिपा गढ़ कर । 'सोभा को साँचो सँवारि, रूप जातरूप ढारि, नारि बिरचो बिरंचि, संग सोही।' गी० २.२०.३ (३) आ० - आज्ञा-मए ।
तू ढाल, ढलका । 'जोगि जन मुनि मंडली में जाइ रीती ढारि ।' कृ० ५३ ढारी : भूक०स्त्री०ब० । ढाली गईं, ढाल कर बनाई गई । 'नाना रंग रुचिर गच
ढारी ।' मा० ७.२७.३ ढारी : भूक०स्त्री०ए० । ढाली गयी। 'अति बिस्तार चारु गच ढारी।' मा०
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