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तुलसी शब्द-कोश
करुइ : वि० स्त्री० (सं० कटुका > प्रा० कडुई) । कड़वे स्वाद वाली, तीखी, अग्राह्य, अप्रिय । 'ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई ।' मा० २.१६.३
करुणा : सं० स्त्री० (सं० ) । कृपा, अनुग्रह । 'करुणा कर' = कृपा करने वाला । मा० ५ श्लो०१
करुणार्द्र : वि० (सं० ) । कृपा भाव से तरल हृदय वाला, दीनजन पर अनुग्रह से ओतप्रोत (द्रुत ) । विन० ६१.२
करुन : दि० (सं० करुण) । दयनीय, शोकाकुल, कृपापात्र ।
करुनरस : सं०पु० | काव्य के नौ रसों में अन्यतम जिस का स्थायी भाव शोक, आलम्बन विपन्न इष्ट जन, रोदन आदि अनुभाव, चिन्ता, स्मृति, दैन्य, विषाद आदि व्यभिचारी भाव होते हैं । इस सम्पूर्ण सामग्री से सहृदय में जब साधारणी कृत शोक-वासना व्यक्त होती है तब करुणरस होता है । 'सब भई मगन करुनरस बानी ।' मा० २.२८४५
करुन : ( १ ) करुणा ने । 'मानहुं कीन्ह विदेहपुर करुन बिरह निवासु ।' मा० १. ३३७ (२) करुणा से । 'भुवन भरि करुनां रहे ।' जा०मं० छं० २२
करुना : करुणा । ( १ ) कृपा दया । 'जेहि करुना करि कीन्ह न कोहू ।' मा० १: १३.६ (२) दयनीय चेष्टा, विलाप आदि । 'करुना करति संकर पहि गई । मा० १.८७ छं० (३) दैन्य, दुःख, मनोव्यथा । 'करुना परिहरहु अवसर नहीं ।' मा० १.६७ छं०
करुना ऐन : (दे० ऐन ) । कृपागार । मा० २.१००
करुनाकर : (दे० करुणा) कृपा करने वाला + कृपागार । मा० २.५७.२ करुना निधान : करुणाकर । मा० १.१८.७
करुनानिधी : करुनानिधान । मा० १.१२६.४
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करुनानिधे : ( करुनानिधि + सम्बोधन ) हे करुणानिधी । मा० १.६.२० करुनापुजा : (सं० करुणापुन्ज ) । कृपागार । मा० १.१४८.८
करुना मई : करुनामय + स्त्री० । 'रघुबर प्रकृति करुनामई ।' गी० ३.१७.८
करुनामय: वि० (सं० करुणामय ) | कृपा से व्याप्त, दयाप्रावित । 'करुनामय मृदु राम सुभाऊ ।' मा० २.४०.३
करुनायतन : कृपागार, करुणाकर । मा० १.११०
करुनारस : दयारस, दयावीररस । वल्लभाचार्य ने इस को वीररस से पृथक् रस
माना है जिसका स्थायी भाव भगवान् की भक्त के प्रति 'दया' है । भक्त आलम्बन, दैन्य आदि उद्दीपन, कष्ट निवारण हेतु चेष्टाएं आदि अनुभावः धृति स्मृति, चपलता आदि संचारी हैं । 'भू सुन्दर करुनारस पूरन ।' गी० १.२६.४ करुनासिधु : करुनानिधि | मा० २.७२