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तुलसी शब्द-कोश
करिबरन्हि : करिबर + संब० । मत्त हाथियों पर । 'कलित करिबरन्हि परीं अंबारी ।' मा० २.३०.१
करिबे : भकृ०पु० (सं० कर्त्तव्य > प्रा० करिअव्व = करिअव्वय) । करना, करने को । 'जो अलि अंत इहै करिबे हो ।' कृ० ३६
करिबो : भकृ०पु०कए० (सं० कर्त्तव्यम् > प्रा० करिअन्य > आ० करिअव्वउ ) । करना । 'कियो न कछू करिबो न कछू ।' कवि० ७.६१
करिय : करिअ
करिया : करिआ
करिये : करिऐ
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करिहउँ : आ०भ०उए० । करूँगा । 'करिहउँ रघुपति कथा सुहाई ।' मा० १.१४.१ करिहहिं : आ०भ०प्रब० । करेंगे । 'खल करिहहि उपहास ।' मा० १.८
करिहहु : आ०भ० मब ० (सं० करिष्यथ > प्रा० करिहिह > आ० करिहिहु ) । करोगे - गी। 'राम काज सब करिहहु ।' मा० ५.२
करिहि : करिहहि । 'सो महेस करिहि कथ मुद मंगल मूला ।' मा० १.१५.७ करिहि, ही : आ०भ० प्रए० करेगा । 'गोकुल कौन करिहि ठकुराई ।' कृ० ३२ 'मम कृत सेतु जो तूसन करिही ।' मा० ६.३.४
करिहैं : करिहहिं । 'भगवानु भलो करिहैं ।' कवि ७.६
करिहै : करिहि । 'लरिहे मरिहै करिहै कछु साको ।' कवि १.२०
करिहौं : करिहउँ । 'सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं ।' मा० २.६७.२
करिहौ : करिहु । करोगे । 'करिहौं कोसलनाथ तजि जबहिं दूसरी आस ।' दो० ७१ करों : भू० कृ० स्त्री०ब० । कीं । 'अनेक क्रिया सुख लागि करौं ।' कवि० ७.३२ करी : (१) सं०पु ं० (सं० करिन् ) । हाथी । (२) करि । करके । 'सुर बदन जय, जय-जय करी ।' मा० ६.१०१. छं०१ (३) करिअ । किया जाय । 'कहाँ जाई का करी ।' कवि० ७.६७ ( ४ ) भूकृ० स्त्री० । की, की नाई, की हुई । 'नन्द नन्दन हो निपट करी सठई ।' कृ० ३६ (५) ( समासान्त में ) वि० स्त्री० (सं०) करने वाली । मा० १ श्लोक ५
करीजे, जे : कीजे ( प्रा० किज्जइ = करिज्जइ ) । कीजिए किया जाय । 'दीन जानि तेहि अभय करीजे ।' मा० ४.४.३
करील, ला : सं०पु० (सं० करील) । एक प्रकार का झाड़ जिस में पत्तों के स्थान कांटे ही होते हैं । 'सोह कि कोकिल बिपिन करीला ।' मा० २.६३.७
करु : आ० – आज्ञा, प्रार्थना आदि- मए ० (सं० कुरु > प्रा० कर>अ० करु, करि) । तू कर । 'करु परितोष मोर संग्रामा । ' मा० १.२८१.२
करुआई : सं० स्त्री० (सं० कटुकता > प्रा० कडुआया > आ० कडुआई ) | कड़वाहट । 'घूमड तजइ सहज करुआई ।' मा० १.१०.६