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तुलसी शब्द-कोश
(फा० चार:- सं० चार=गति) । उपाय, उपचार, दवा, मार्ग । 'कहा करम
सों चारो।' कृ० ३४ चार्यो : चारिउ । चारों । 'चिरू जिअहुं जोरी चारु चार्यो।' मा० १३७.छं० ४ चाल : चालि (सं.)। गति, छलना आदि । 'चेरी की चाल चलाकी ।' कवि०
७.१३४ चालक : वि० (सं०) । चलाने वाला, विचलित करने वाला, डिगाने वाला।
'पारवती मन सरिस अचल धनु चालक ।' जा०म० ६३ चालत : वकृ०पु० (सं० चालयत्>प्रा० चालंत) । चलाता, चलाते । 'नाम नरेस
प्रताप प्रबल जग जुग-जुग चालत चाम को।' विन० ६६.४ चालति : वकृ०स्त्री० । चलाती । 'चालति न भुजबल्ली।' मा० १.३२७ छं० चालहिं, हीं : आ०प्रब० (सं० चलयन्ति>प्रा० चालेंति>अ० चालहिं) । चलाते-ती
हैं । 'घर की न चरचा चालहीं।' गी० १.५.६ चालहि, ही : आ०मए० (सं० चालय>प्रा. चालहि)। तू चला। 'जनि बात
दूसरि चालही।' मा० २.५०.छं चालि : सं०स्त्री० (सं० चाल) (१) गति । "चाटिन बिलोकि मत्त गज लाजहिं ।'
मा० १.३१८.४ (२) धूर्तता, कुटिल चाल । 'अब ये लही चतुर चेरी पै चोखी चालि चलाकी ।' कृ० ४३ (प्राकृत में 'चल्ली' एक प्रकार की नृत्यगति को कहते हैं जिसमें नर्तक नाचते-नाचते दर्शक को चकमा देकर घूम जाता है; इसी का उक्त अर्थ में लाक्षणिक प्रयोग है।) (३) स्वभाव । 'नीति औ प्रतीति
प्रीतिपाल चालि प्रभु ।' कवि ७.१२२ चाली : चालि । गति, आचरण । 'सीलु सनेहु सरिस, सम चाली।' मा० २.२२२.२ चालु : (१) चाल+कए । 'पीरे पट ओढ़े चले चारु चालु ।' गी० १.४२.२
(२) आ०-आज्ञा-मए । तू चला, आरम्भ कर । 'चरचा न दूसरी चालु ।'
विन० १९३.७ चाष : संपु० (सं०) । नीलकण्ठ पक्षी । दो० ४६० चाष : चाष+कए ० । एक नीलकण्ठ (कटनास) । 'चारा चाषु बाम दिसि लेई।'
मा० १.३०३.२ चाह : सं०स्त्री० (सं० चाया-चाय पूजानिशामनयोः) । इच्छा, अपेक्षा, खोज,
आदर । 'करिहहिं चाह कुसल कवि मोरी।' मा० २.१२.७ (२) प्रेम, स्नेह, आसक्ति, राग । 'निगम अगम साहेब सुगम राम सांचिली चाह ।' दो० ८० (३) समाचार, हालचाल, सन्देश । 'कोउ सखि नई चाह सुनि आई ।' कृ० ३२