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तुलसी शब्द-कोश
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(जो विशेष खनि या वंश-परम्परा से संबद्ध है)। 'चारि खानि जग जीव अपारा।' मा० १.३५.४ (चारि खानि = अण्डज, पिण्डज, स्वेदज और
उद्भिज्ज) खातिक : खान का, खान सम्बन्धी । 'गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिका ।' मा०
१.१.८ खानी : खानि+ब० । खाने । 'सोभासील तेज की खानी ।' मा० १.१६०.७ खानी : खानि । 'सुजन समाज सकल गुन खानी।' मा० १.२.४ खाब : भकृ०पु० (सं० खातव्य>प्रा० खाअन्व) । (हमें) खाना (है) । 'सो भनु __ मनुज खाब हम भाई।' मा० ६.६.६ खायउँ : आ.भूकृपु+उए । मैंने खाया-खाये । 'खायउँ फल मोहि लागी भूखा।'
मा० ५.२२.३ खायगो : आ०भ०० (१) प्रए० । वह खाएगा। (२) मए० तू खाएगा। "ह है
बिष भोजन जो सानि सुधा खायगो।' विन० ६८.४ खाया : भूकृ०० । भक्षित किया। 'चिंता साँपिनि को नहिं खाया।' मा०
७७१.४ खायो : खाया+कए । 'खायो कालकूट ।' कवि० ७.१५८ खारा : वि०० (सं० क्षार>प्रा० खार) । नमकीन, क्षारयुक्त । मा० २.११६.४ खारे : 'खार' का रूपान्तर (ब०)। क्षारयुक्त । 'कूप खनावत खारे।' गी.
१.६८.६ खारो : खारा+कए । 'सकति खारो कियो चाहत मेघहू को बारि ।' कृ० ५३ खाल : सं०स्त्री० (सं० खल्ला) । चर्म, चमड़ा, त्वचा। 'खाल कढ़ाइ बिपति सहि
मरई।' मा० ७.१२१.१७ खाले : क्रि०वि० (सं० खल्ले गर्ते>प्रा० खल्लेण>अ० खल्लें)। गढ़े में, नीचे
(संकट आदि में) । 'चलेहुं कुमग परपरहिं न खालें।' मा० २.३१५.५ खावा : खाया । 'पुरोडास चह रासभ खावा ।' मा० ३.२६.५ खास : वि० (अरबी-खास) । विशेष । 'मरिये तो अनायस कासीबास खास
फल ।' कवि० ७.१६६ खाती : खास+स्त्री० । 'खुनिस खासी खई है।' गी० १.६६.५ खातो : खास+कए। विशिष्ट, निजी । 'खोजि के खवासु खासो कूबरी सी बाल
को।' कवि० ७.१३५ खाहि, हीं : आ०प्रब० । खाते-ती-हैं । 'निसि न नींद दिन अन्न न खाहीं। मा०
३.२८.८