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तुलसी शब्द-कोश
त्राता : वि०पु० (सं०) । रक्षक । मा० ७ ८३.२ त्रात : आ०-प्रार्थना-प्रए० (सं० त्रायताम् =पातु) । रक्षा करे । मा० ३.११.६ त्रान : सं०० (सं० त्राण) । रक्षा, रक्षा साधन । 'नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया।'
मा० २.२१६.५ त्राना : बान । मा० ६.८०.३ त्रास : सं००+स्त्री० (सं०) । भय । मा० १.६३.१ त्रासइ : त्रास +प्रए । भयभीत करता है । 'तेहि बहु बिधि त्रासइ देस निकासइ ।'
मा० १.१८३ छं० त्रासक : वि० (सं.)। भयदायक । त्रिविध ताप त्रासक तिमुहानी।' मा०
१.४०.४ त्रासक : त्रासक+कए० । एकमात्र भयदाता । 'तरनि त्रासकु।' गी० ६.१४.५ त्रासन : (१) त्रास+संबल । त्रासों (से) । 'त्रासन चकित सो परावनो परो सो
है।' कवि० ७.८४ (२) संपु० (सं०) । त्रस्त करना । 'बांधि करि त्रासन
दीन्हो ।' कवि० ७.११७ त्रासहु : त्रास+मब० । डराओ, भयभीत करो। 'सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई ।"
मा० ५.१०.८ त्रासा : त्रास । 'भाजि भवन पैठी अति त्रासा।' मा० १.६६.५ त्रासित : भूक०वि० (सं०) । डराया हुआ, भयाक्रान्त किया हुआ । 'एक एक रिपु. - तें त्रासित जन ।' विन० ६३.५ त्राहि : आ०-प्रार्थना-मए० (सं० त्रायस्व =पाहि) । तू रक्षा कर । 'त्राहि त्राहि
आरत जन त्राता।' मा० ७.८३.२ (२) रक्षा हेतु कहा जाने वाला शब्द ।
त्राहि तीनि कह्यो द्रौपदी।' दो० १६९ त्रिकाल : तीन काल =भूत, वर्तमान, भविष्यत् । 'तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनि नाथा।'
मा० २.१२५.७ त्रिकालग्य : (सं० त्रिकालज्ञ)। तीनों कालों के विषयों का ज्ञाता। मा० १.६६ त्रिकूट : सं०० (सं०) । तीन शिखरों वाला पर्वत विशेष जिस पर लङका बसी
थी। मा० १.१७८.५ त्रिकूट : त्रिकूट+कए । 'त्रिकूट उपारि लै बारिधि बोरौं ।' कवि० ६.१४ त्रिगुन : माया (प्रकृति) के तीन गुण - (१) सत्त्व गुण=प्रकाश, सुख, ज्ञान ।
(२) रजोगुण =चपलता, दुःख । (३) तमोगुण =मोह, अज्ञान । त्रिगुनपर : माया के तीनों गुणों से परे=निगुण । 'त्रिपुरारि त्रिलोचन त्रिगुनपर।" ___ कवि० ७.१५० त्रिजग : सं०० (सं० तिर्यक्-ग) । तमोगुणी सृष्टि = पशुपक्षी आदि । 'त्रिजग देक
नर असुर समेते।' मा० ७.८७.६