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तुलसी शब्दकोश
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पाता है । परमात्मा सदा अपरिछिन्न है। 'सोक मोह भय हरष दिवस निसि
देस काल तहें नाहीं।' विन० १६७.५ देसा : देस । मा० १.२.१२ देस, सू : देस+कए । (१) स्थान । मा० २.१२२.६ (२) स्थानगत परिस्थिति ।
'देसु काल लखि।' मा० २.३०४.६ (३) राज्य का भूभाग । 'देसु कोसु परिजन
परिवारू ।' मा० २.३१५.७ देह, हा : सं००+स्त्री० (सं० देह) । (१) शरीर । मा० १.४ (२) विशिष्टा
द्वैत दर्शन में जीवों को ब्रह्म का शरीर माना गया है। 'ते नर प्रगट राम की
देहा।' वैरा० २८ देहउँ : अ०म० उए० (सं० दास्यामि>प्रा० देहिमि>० देहिउँ)। दूंगा-गी।
'देहउँ उतरु कोनु महु लाई ।' मा० २.१४६.७ देहवसा : स्थूल-शरीराभिमानी जीव दशा, देहाध्यास, देहाभिमान, जाग्रत् अवस्था __ जिसमें स्थूल शरीर से चैतन्य का एकत्व भासित होता है (शरीर की सुध-बुध)।
'नाचहिं पुर नर नारि प्रेम भरि देहदसा बिसराई ।' गी० १.१.८ बेहनि : देह+संब० । देहों । 'मालनि मानों है देहनि तें दुति पाई।' गी० १.३०.२ देहरी : (१) देहरी ब०। देहलियाँ। 'देहरी बिगुम रची।' मा० ७.२७ छं.
(२) देहली पर । 'राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार ।' मा० १.२१ बहरी : सं०स्त्री. (सं० देहली) । दरवाजे का निचला भाग==चौखट । देहा : देह। देहि : आप्रब० । देते-ती हैं । 'भागें बारिद देहिं जल ।' मा० ७.२७ ६हि : दे (सं०, प्रा०) । 'मातु तात कहँ देहि देखाई ।' मा० २.१६४.३ देही : देहिं । मा० ७.४४.२ देही : (१) देहि । (२) सं०पू० (सं० देहिन्) । जीव, देहधारी । (३) देह । 'नर
तन सम नहिं कवनिउ देही ।' मा० ७.१२१.६ देहु, हू : आ०मब० (सं० दत्थ, दत्त>प्रा० देह>अ. देहु) । (१) दो। 'भरतहि
अवसि देहु जुबराजू ।' मा० २.५०.२ (२) देते हो । 'संतत दासन्ह देहु बड़ाई ।'
मा० ३.१३.१४ . वहेस : आ०-भ०+आज्ञा-मए० । तू देना । 'तिन्हहि देखाइ देहेसु ते सीता।'
मा० ४.२८.६ दै: (१) दे । 'उठि कह्यो, भोर भयो, अँगुली दै।' कृ० १३ (२) देइ। देकर। _ 'धाए कपि दै छूह ।' मा० ६.६६ दै: (१) देव ने, भाग्य ने (सं० देवेन>प्रा० दइएण>अ० दइएँ)। 'दों दुसह
दुखु दीन्ह ।' मा० २.२० (२) देव द्वारा । 'दों बिगोई ।' मा० २.५१.३