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तुलसी शब्द-कोश
छये : भूक०पु०ब० । आच्छादन किये हुए । 'ब्योम विमाननि बिबुध बिलोकत
खेलक पेषक छाँह छये ।' गी० १.४५.३ छर : संपु० (सं० छल) । (१) ब्याज, बहाना, कपट । (२) धान कूटने की
क्रिया विशेष । 'तहाँ तहाँ नर नारि बिन छर छरिगे।' गी० २.३२.१ (जैसे धान बिना कूटे ही कुट जाय, उसी प्रकार बिना जपतप आदि का ब्याज लिप
ही लोग कलुषमुक्त हो गये ।) छरनि : सं०स्त्री० (सं० छलता) (१) प्रवञ्चना, प्रतारण। (२) कूटने की क्रिया। ___ 'बीच पाइ एहि नीच बीच ही छरनि छर्यो हौं ।' विन० २६६.२ छरमार : (दे० छरुभारु) उत्तरदायित्व । 'यह छरभार ताहि तुलसी जग जाको दास
कहैहौं ।' विन० १०४.४ छरस : (सं० षड्रस>प्रा० छरस) छह प्रकार के स्वाद-मधुर, अम्ल, लवण,
कटू, कषाय और तिक्त । मा० १.१७३.१ छरि : पूकृ० (१) छले हुए हो (कर) । (२) धान कूटे जाकर । 'जेहि जेहि मग
सिय राम लखन गए, तह तह नर नारि बिनु छर छरि गे।' गी० २.३२.१ (जैसे धान बिना कुटे ही बूसी से मुक्त हो जाय उसी प्रकार बिना जप-तप के
व्याज के ही लोग मायावरण-मुक्त हो गये) छरी : सं०स्त्री० । छड़ी, पतली यष्टि । लिये छरी बेंत सोधें विभाग ।' गी०
७.२२.५ छरु : सं०० (सं० त्सरु =तलवार की मूठ>प्रा० छरु) । (लक्षणा से ) युद्धकार्य,
संघर्ष-कार्य का कठिन उत्तरदायित्व; विपत्ति में उलझा कार्य भार । मा०
२.३१५.७ छरुमारू : (दे० छरु तथा भारु) । सम्पूर्ण कठिन उत्तरदायित्व । 'लखि अपने सिर
सब छरु.भारू ।' मा० २.२६.२ छरे : वि.पुब० । (सं० छलिक>प्रा० छलिय) । चुस्त, चतुर, सतर्क, विदग्ध । _ 'छरे छबीले छयल सब ।' मा० १.२६८ छरेगी : आ०भ०स्त्री०प्रए । (१) छलेगी, ठगेगी। (२) कुचल डालेगी, धान के
समान कूटेगी । 'बाहुबल बालक छबीले छोटे छरेगी।' हनु० २५ छरो : छर्यो । छल लिया, ठगा । 'निगम नियोग तें सो केलिडी छरो सो है।'
कवि० ७.८४ छर्यो : भूकृ००कए० (सं० छलित:>प्रा० छलिओ)। (१) छला हुआ, ठगा
गया (२) कूटा गया, कुचला हुआ। 'बीच पाइ एहि नीच बीच ही छरनि
छर्यो हौं ।' विन० २६६२ 'छल : सं०पू० (सं.)। छन, धूर्तता, वञ्चना, व्याज=बहाना । 'सब मिलि करहु
छाडि छल छोहू ।' मा० १.८.३ 'बोले मधुर बचन छल सानी।' मा० १.६८.८