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तुलसी शब्द-कोश
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छलक : सं०स्त्री० । (द्रव पदार्थ का) उबरा कर उछलना, तरङ्ग लेकर बाहर बह ___ चलना । 'बूड़ि गयो जा के बल बारिधि छलक मैं ।' कवि० ६.२५ छलकारी : छल करने वाला । मा० ३.२५.२ छलकि है : आ०भ० प्रए । छलकेगी, उबर कर लहरायगी। 'छबि छल किहै भरि
अंगनैया ।' गी० ५.६.३ छलके : आ०प्रब० । छलकते-ती हैं । उबर कर लहराते-ती हैं 'मनहुं उमगि अंग अंग
छबि छलके ।' गी० १.३१.२ छलग्यानी : कपट से ज्ञानी बना हुआ, धूर्त । मा० १.१७०.१ छलन : वि०० । छलने वाला । 'छलन बलि ।' विन० ५२.५ छलहि, हीं : आ०प्रब० । छलते हैं, ठगते हैं । 'बंचक बिरचि बेषु जगु छलहीं।' __ मा० २.१६८.७ छलाई : छलना में, धोखा देने में । 'सुजोधन भो कलि छोटो छलाईं। कवि०
छलि : पूकृ० (सं० छलित्वा>प्रा० छलिअ>अ० छलि)। छल करके, छघ्न अपना ___ कर । 'कहै काह, छलि छुअति न छांही ।' मा० २.२८८.५ छलिन : छली+संब० । छलियों। 'छलिन की छोड़ी।' कवि० ७.१८ छली : वि.पु. (सं० छलिन्) । छलनायुक्त, धूर्त, कपटी। 'छली मलीन कतहुं न
प्रतीती।' मा० २.३०२.२ छलु : छल+कए । अद्वितीय छल । 'करि छलु मूढ़ हरि बैदेई ।' मा० १.४६.५ छले : भूकृ०० (सं० छलित>प्रा. छलिय) ब० । ठगे, प्रवञ्चित किये। 'सिव __बिरंचि बाचा छले।' गी० ५.४१.२ छलो : भू.कृ.पु०कए । प्रवञ्चित किया (ठगा)। बिबुध काज बावन बलिहि
छलो भलो जियें जानि ।' दो० ३६६ छवनी : सं०स्त्री० । छोनी, बालिका । “भई है प्रगट अति दिब्य देह धरि मानो
त्रिभुवन छबि छवनी ।' गी० १.५८.१ छवा सं० । (१) पैर, चरणतल। (२) (सं० सव=प्रसव) शावक, शिशु ।
__'बिदले अरि कुंजर छैल छवा से ।' हनु० १८ छहु, छ हूं : (छ+हूं) छहों, सभी छह । 'कीरति सरित छहूं रितु रूरी।' मा० १.४२.१ /छाँड़ छाड़ इ : (/छाड़+छाड़इ) छोड़ता है, फेंकता है, चलता है । 'सर छोड़
होइ लाहिं नागा।' मा० ६.७३.१० छाँड़त : वकृ०० (च्छाड़त)। छोड़ता। 'भूमि न छाँड़त कपि चरन ।' मा.
६.३४
छोड़हु : (छाड़हु) । 'छांडहु तात मृषा जल्पना ।' मा० ६.५६.५ छोडि : (छाड़ि)। छोड़ (कर) । 'सब छूछे के के छाँड़ि गो।' कवि० ६.२४