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तुलसी शब्द-कोश खसमु : खसम+कए । एकमात्र स्वामी । 'लसम के खसमु तुहीं 4 दसरथ के।'
कवि० ७.२४ खसाई : भूकृ०स्त्री० । गिरियो । 'मीच बस नीच सोऊ चाहत खसाई है।' कवि०
७.१८१ खसि : पूकृ० । गिर कर, खिसक कर । 'मुरुछित बिकल धरनि खसि परी।' मा०
६.१०४.१ खसी : भक०स्त्री० । छूट गिरी, खिसक गई 'खसी माल मूरति मुसुकानी ।' मा०
१.२३६.५ खसे: भूकृ००ब० । गिर पड़े, खिसके । 'डोलत धरनि सभासद खसे ।' मा०
६.३२.४ खसेउ, ऊ : भूकृ०पु०कए । खिसका, गिरा। 'जब तें श्रवनपूर महि खसेऊ ।'
मा० ६.१४.६ खसै : दे० /खस । खसहौं : आ० भ०उए । गिराऊँगा, खिसकने दूंगा। 'उरकर तें न खसहौं।'
विन० १०५.२ खांगिहे : आ०म०प्रए । कम रहेगा, कम पड़ेगा। 'तुलसीदास स्वारथ परमारथ न
खांगिहै।' विन० ७०.५ खांगें : कम होने से, कमी से, कमी पूरा करने हेतु । ‘राखौं देह नाथ केहि खांगें ।'
मा० ३.३१.७ खाँगो : भूकृ००कए । अल्प हुआ, कम पड़ा। 'न खाँगो कछु, जनि माँगिए
थोरो।' कवि० ७.१५३ खांची : भूकृ० स्त्री० । खींची। 'पूछेउँ गुनिन्ह रेख तिन्ह खांची।' मा० २.२१.७ खांचो आ० आज्ञा--प्रए । खींच देबे । 'कोड रेख दूसरी खांचो।' विन० २७७.१ खांड़ : पुं०सं० (सं० खण्ड)। (१) खाँडा, आयुध (धनुष) शकर । 'अयमय खाँड़
न ऊखमय ।' मा० १.२७५ खांड़े : खांड का रूपान्तर (ब०)। आयुध । 'एक कुसल अति ओड़न खांड़े ।'
मा० २.१६१.६ खा, खाइ: (१) (सं० खादति>प्रा० खाइ-भोजन करना-खाद भक्षणे)
आ.प्रए० । खाता है (भोजन करता है) । 'बिन बोले संतोष जनित सुख खाइ सोइ पै जाने ।' विन० १२३.४ (२) (सं० खायति-खै अदने हिंसासां च)।
चबा जाता है, मार कर खा लेता है । केहि जग कालु न खाइ।' मा० २.४७ खाइ : पूक० । खाकर । :सागु खाइ सत बरष गंवाए।' मा० १.७४.४