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तुलसी शब्द-कोश
- करता-करते। (३) घोलते, द्रव मिश्रण करते। (ऊपर तीनों अर्थ एक साथ
देखे जा सकते हैं ।) घोरसार : सं०स्त्री० (सं० घोटशाला>प्रा० घोडसाला>अ० घोडसाल)। अश्व
शाला । 'हाथी हथसार जरे घोरे घोर-सार ही ।' कवि० ५.२३ घोरा : (१) घोर । तीव्र, भयानक । 'घन घुमंड गरजत न घोरा।' मा० ४.१४.१
(२) सं०० (सं० घोट क>प्रा. घोडअ)। घोड़ा, अश्व । 'हाथी छोरी
घोरा छोरो।' कवि० ५.६ घोरि : पूक० (१) (सं० घूणित्वा>प्रा० घोलिअ>अ० घोलि) । घुमड़कर । 'बरर्षे
मुसलाधार बार बार घोरि के ।' कवि० ५.१६ (२) घोलकर, घोल बनाकर । 'प्रेत एक पिअत बहोरि घोरि घोरि के ।' कवि० ६.२० (३) घोर शब्द करके।
'कंद बृद बरषत छबि मधुर घोरि घोरी।' गी० ७.७.५ । घोरी : (१) घोरि । घोलकर । 'देति मनहुं मधु माहूरु घोरी।' मा० २.२२.३
(२) घोर रव करके या घुमड़ कर । 'कंद बृद बरषत छवि मधुर घोरि
घोरी।' गी० ७.७.५ घोरे : घोरा+ब० । अश्व । 'चर कराहिं मग चलहिं न घोरे।' मा० २.१४३.५ घोसु : आ०-आज्ञा-मए० । तू कह, जप, घोष कर । 'नित राम नामहि घोसु।'
विन० १५९.४ घ्रान : सं०पू० (सं० घ्राण) । नासिका, गन्धग्राहक इन्द्रिय । 'लहइ घ्रान बिन
बास आसेषा ।' मा० १.११८.७
चंदोवा : सं०० (सं० चन्द्रोदय = चण्डातक>प्रा० चंदोवअ) । वस्त्रमण्डप, पट
वितान । 'रतनदीप सुरि चारु चंदोवा ।' मा० १.३५६.४ चंवर : सं०० (सं० चमर>प्रा० चमर>अ० चर)। चमर नामक वन्य पशु
की पूंछ का बना व्यजन (मोर छल) । मा० १.२६६.४ च : अव्यय (सं०) । और मा० १ श्लोक १ .