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तुलसी शब्द-कोश
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छितिपाल : राजा । कवि० ७.१८१ छिद्यो : भूक०० कए० । (सं० छिद्रित:>प्रा० क्षिद्दिओ) । विद्ध हुआ। 'छिद्यो
न तरुनि कटाच्छ सर ।' दो० ४३८ । छिद्र : सं०० (सं.)। (१) छेद, रन्ध्र, सन्धि । 'छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं।'
मा० ६.१२.८ (२) दुराव-छिपाव । 'मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।' मा० ५४४.५ (३) गुप्ताङ्ग (४) गोपनीय बात । 'जो सहि दुख पर छिद्र दुरावा।' मा० १ २.६ (५) घात करने का अवसर । 'अखिल खल.. छिद्र निरखत सदा।'
विन० ५६३ छिन : सं०० +क्रि०वि० (सं० क्षण>प्रा० खण = छण) समय का अत्यन्त सूक्ष्म
भाग जो क्रियाखंड के संयोग-विभाग से नापा जाता है। 'बिलमु न छिन छिन
छाहैं।' विन० ६५.५ छिनि : छीनि । छुड़ा (कर) । 'देखि बधिक बस राजन्मरालिनि लखन लाल छिनि
लीज।' गी० ३.७.२ छिनु : छिन+कए । क्षण भर, एक क्षण । प्रतिक्षण । मा० २.६६.४ छिनुकु : छिनु । एक क्षण, क्षण भर, थोड़ा-सा । 'कहहिं गाइअ छिनुकु भ्रम।' मा०
२.११४ छिपाइ : छपाइ । छिपा कर, छिप कर । गी० १.८४.४ छिया : (१) सं०स्त्री० (सं.)। विनाश । (२) अव्यय (सं० छि:) । धिक्कार ।
(३) (अवधी में घृणार्थक) निष्ठा । 'हौं समुझत साईं द्रोह की गति छार छिया
रे।' विन० ३३.६ छिरकत : वकृ०० (सं०क्षरत् +कुर्वत् >प्रा० छरक्कंत) । छिड़कते । 'मनहुं अर
गजा छिरकत, भरत गुलाल अबीर ।' गी० २.४७.१६ छिरकहिं : आ.प्रब० । छिड़कते हैं। 'कुंकुम अगर अरगजा छिरकहिं ।' गी.
१.२.१६ छिरके : छिरकहिं । 'छिटकै सुगंध भरे मलय रेनु ।' गी० ७.२२.३ छींक : सं०स्त्री० (सं० छिक्का) । अकस्मात् नाक से तीव्र वायु-निःसरण । 'एतना ___ कहत छींक भइ बाएँ।' मा० २.१६२.४ छीके : सं०० अधिकरण (सं० शिक्ये>प्रा० सिक्के)। सिकहर पर । ‘यों कहि
मागत दहिउ धर्यो जो है छीके ।' क० १० /छोज छीजइ : (१) (सं० छिछते>प्रा० छिज्जइ) आ.प्रए । विछिन्न या
खंडित होता है, कटता या टूटता है । 'सखि सरोष प्रिय दोष बिचारत प्रेम पीन पन छीज।' कृ० ४५ (२) (सं० क्षीयते>प्रा० छिज्जइ)। क्षीण या कृश होता है । 'कोन दिनहुं दिन छीज ।' कृ० ७