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तुलसी शब्द-कोश
छाला : छाल । 'एहि मृग कर अति सुन्दर छाला ।' मा० ३.२७.४ . छालि : पूक० । छाल निकाल कर । 'गढ़ि गुढ़ि छोलि छालि कुंद भीसी भाई
बातें ।' कवि०७ ६३ (२) प्रक्षालन करके, स्वच्छ कर छालिका : वि.स्त्री० (सं० क्षालिका) । धो बहाने वाली, स्वच्छ करने वाली। ___ 'पाप छालिका ।' विन० १७.१ छालित : भूक०वि० (सं० क्षालित) । धो कर स्वच्छ किया हुआ । 'रघपति भगति . बारि छालित चित ।' विन० १२४.५ छावत : वकृ०० । आच्छादित करता-ते, आपूरित करता-ते । 'जनु सुनरेस प्रजा
सकल सुख छावत ।' गी० २.५०.२ छावन : भक० । छाने को, आच्छादन करने , 'गुनिगम बोलि कहेउ नप मांडव
छावन ।' जा० मं० ११३ चावहिंगे : आ००००प्रब। भर देंगे, व्याप्त करेंगे। 'अंग-अंग छबि भिन्न
भिन्न सुख निरखि निरखि तह तह छावहिंगे । गी० ५.१०.२ छावा : भूकृ.पुं० (सं० छादित>प्रा० छाविअ) । छाया हुआ, आवृत किया। 'ध्वज
पताक तोरन पुर छावा ।' मा० १.१९४.१ (२) छा गया, व्याप्त हुआ, फैला। 'सुजसु पुनीत लोक तिहुं छावा ।' मा० १.३६१.४ (३) छावइ। व्याप्त होता
है, फैलेगा। 'धरम् .. तजें तिहूं पुर अपजसु छावा ।' मा० २ ९५.६ छावौं : आ०उए० (सं० छादयामि>छावमि>अ० छावउँ)। छाता हूं, छप्पर .. बनाता हूं । 'कपट दल हरित पल्लवनि छावौं ।' विन० २०८.२ छाह : छाया में । 'परिखो पिय छाहं धरीक है ठाढ़े।' कवि० २.१२ छाहीं : (१) (सं० छायायाम् >प्रा० छाहीहिं) । छाया में । 'पाय पखारि बैठि
तरु छाहीं।' मा० २.६७.३ (२) छांही। आभा, दीप्ति, छटा। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं।' मा० २.३४४.४ (३) प्रतिबिम्ब । 'सुन्दर सिला सुखद
तरु छाहीं ।' मा० २.२४६.८ छाहैं : (१) छांह+बहु० । छायाएँ । 'आरत दीन अनाथन को रघुनाथ करें . निज हाथ की छाहैं ।' कवि० ७ ११ (२) छाहीं। छायाओं में । 'बिलम न __ छिन छिन छाहैं ।' विन० ६५.५ छिटकि : पू० । छटा बिखेरकर। 'छपा छिटकि छबि छाई ।' गी० १.१६.३ छिति : सं०स्त्री० (सं० क्षिति) । (१) भूलोक । 'बन चर देह धरी छिति माहीं।'
मा० १.१८८.३ (२) पृथ्वी, भूतल । 'कूदहिं गगन मनहुं छिति छाँड़े।' मा० २.१६१.६ (३) पञ्च महाभूतों में पृथ्वी तत्व । 'छिति जल पावक गगन समीरा ।' मा० ४.११.४