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तुलसी शब्द-कोश
कांचा : कांच । मा० ७.२७.६ काँच : कांचहि । 'सम कंचन काँचै गिनत ।' वैरा० ३१ काँचो : कांच भी । 'मनि कनक संग लघु लसत बीच बिच कांचो।' विन० २७७.२ कांजी : सं०पू० (सं० काजिक>प्रा. कंजिअ) । दही का तोड़ । मा० २.२३१ काँट : सं•पु० (सं० कष्ट) । काँटा । विन. १८६.४ काँठे : (सं० कण्ठे उपकण्ठे) किनारे, समीप, सीमा पर । 'प्रभु आइ परे सुनि ___ सायर काठे ।' कवि० ६.२८ काँड़ि : पूकृ० (सं० कण्डित्वा>प्रा० कंडिअ>१० कंडि)। कूट कर, छट कर ।
'भारी-भारी राउरे के चाउर से कांडिगो ।' कवि० ६२४ काँधी : पूकृ० । कन्धे पर उठाकर, धारण कर । 'उठि सुख पितु अनुशासन कांधी।'
मा० १.१८२.३ कांधे : कन्धे पर । 'धनुष बाम बर काँधे । मा० १.२४४.१ काँध्यो : भूक०० कए० । कन्धे पर उठाया, आर लिया । 'सकत संग्राम दसकंध __कांध्यो।' कवि० ६.४ कापहि : आ०प्रब० (सं० कम्पन्ते>प्रा० कंपति>अ० कंपहिं) । कांपते हैं। 'थर
थर काँपहिं पुर नर नारी।' कॉपी : भूक स्त्री० । कम्पित हुई । मा० २.५४.४ काँपु : भूक००कए । थरथराया, कांपने लगा । 'कांपु तन थर-थर ।' पा०म०
६२ ('शरीर में कम्प' अर्थ लें तो--) सं००कए । कपकपी। कांवरि : सं०स्त्री० (प्रा० कावडिआ) । बहंगी। 'भरि-भरि कांवरि चले कहारा ।"
मा० १.३०५.६ का : प्रश्नार्थक सर्वनाम (सं० किम्>प्रा.क.>०० =का)। क्या । 'कहीं
कहावों का अब स्वामी।' मा. २.२६७.१ (२) क्या =कोन-सा।'का अपराध रमापति कीन्हा ।' मा० १.१२४.७ (३) क्या=क्यों। 'का अनमनि हसि, कह हंसि रानी।' मा० २.१३.५ (४) किस । 'तुम्ह तें अधिक पुन्य बड़ काकें ।' मा० १.२६४.६ (५) सम्बन्धार्थक परसर्ग पु०कए. । 'एहिं बिआह अति हित सबही का।' मा० १.२२३.१ (६) ध्वनिविशेष । 'का का कररत काग।'
दो० ४३६ कांति : सं०स्त्री० (सं० कान्ति) । आभा, ज्योति, छवि । गी० २.१६.१ काई : सं०स्त्री०। (१) एक प्रकार की घास जैसी वस्तु जो गन्दे जलाशयों का
पानी ढक लेती है। 'काई कुमति केकई केरी।' मा० १.४१.८ (२) मोर्चा, मल । 'काई बिषय मुकुट मन लागी।' मा० १.११५.१